Thursday, December 31, 2009

तो अब चाँद के डूबने के साथ ही २००९ इतिहास का हिस्सा बन जायेगा। लेकिन तरिख्यें तो घटनायों को दर्ज कर चुकी हैं। उसे मिटा पाना मुमकिन नहीं। सो उसे स्वीकार करना ही होगा। यानि तमाम उन चीजों को स्वीकार करने के लिया अमन की उम्मीद तो रखनी होगी।
हमारे समय की सब से बड़ी चुनौती यही है की हम अपनी कमजोरी कुबूल नहीं करते। जब की स्वीकारने में ही भलमनसत होगी। हम आगे से उन गलतियों को दुहराएंगे नहीं। मगर हम अपनी आदतों से कहाँ बाज आते हैं। लेकिन हमें देश और खुद के लिए करना होगा। यही की अपनी भूल को आने वाले समय में न दुहरायें।
अतीत कितनी भी सुखद या की दुखद क्यों न हो उसके संग चिपक कर रहा नहीं जा सकता। यदि कोई भी समाज या की लोग येसा करते हैं तो सच माने की वह विकास नहीं कर सकता। हम अतीत से सीख ले कर अपने वर्तमान को तो सुधर ही सकते हैं साथ ही भविष को भी बना सकते हैं।
अब यह इस बात पर निर्भर करता है की आपको क्या पसंद है। या तो आप अपने अतीत से चिपक कर लाइफ ख़त्म कर लें यह फिर अपने बेहतर भविष का निर्माण कर सकते हैं। यह बात देश और समाज पर भी लागु होता है। यही समाज विकास कर पता है जो अपने वर्त्तमान के साथ प्रयोग करने के लिए तैयार रहता है। जो भी प्रयोग करने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं। तो सम्झ्यें की वो अपने विकास के रफ़्तार को ब्रेक लगा रहे हैं।
२००९ कई कोण से खास है - कोपन्हागें में वर्ल्ड सुम्मित। भारत का रुख, भारत के सम्मान में अमरीका के प्रेसिडेंट हाउस में आमंत्रण। देश के लिए राजनायक के रूप में देखा गया। १९९२ में अयोध्या में शर्मनाक घटना मस्जीद को गिरा कर जिस तरह की सहिशुनता का मिसाल पेश किया जाया उसपर शर्म तो आती ही है। लिब्राहन आयोग ने १९ साल बाद उस घटना पर आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश की।
सरकार रेस्सेशन के दौर के ख़त्म होने का और्र बना चुकी है। लेकिन सरकार के रिपोर्ट पर विश्वास नहीं होता। यही सरकार है जिसने दिसम्बर २००८ के आखरी हप्ते में कुबूल की थी की हाँ , देश में ६८,००० लोगों की नौकरी जा चुकी है। फिनांस मिनिस्टर ने उद्योग से जुड़े लोगों से कहा की लोगों की नौकरी न ख़त्म करें बल्कि वेतन कम कर दें। आज यही सरकार है जो कह रही है की देश मंदी के बुरे दौर से बाहर निकल चुकी है। अब देखना यह होगा की क्या वास्तव में यह है या की सरकारी बयानबाज़ी भर है।
उम्मीद की किरण साथ होने से रात की काली सेः ज़ल्द खत्म होने की उम्मीद जगती है। न हम हार माने न ही उम्मीद का दमन तोड़ें। रहिमन चुप हो बैठ्या देखि दिनन को फेर। नीके दिन जब आयेहं बनत न लागियाह दीर।
अलबिदा २००९ और अतिथि २०१० को सलाम आइय साहब अब आप क्या रंज या के रंग उछालते है।

साल की पहली मुलाकात

आपके हर सपने को उम्मीद भरी आखें,
हर सुबह इक आशा की किरण,
हर शाम सुकून भरी,
रात विश्राम...
जीवन में काम-
इक मुकाम,
जिस की चाह,
उसे पूरा का सकने का आत्म बल...
शुभ साल करे इन्त्ज्ज़र...
आप का कौशल

Wednesday, December 30, 2009

जाने वाले साल की मार

जी हाँ, जाना वाले साल की उपलब्धि और खोने का परताल तो करना ही चाहिए। क्या हमने खोया और क्या पाया। दरअसल हम अपनी कमजोरी को छुपा कर ही रखना चाहते हैं। समस्या यहीं पीड़ा देती है। पाकिस्तान में इस साल लगभग हर दिन आतंकियों के कहर बरपे हैं। क्या लाहोर, क्या इस्लामाबाद , हर शहर बम की आवाज़ और लोगों की चीख से गूंज उठी है। हर शहर में बम और कुचे में आतंकी रह रहे हैं। मदर्द्से में तालीम तो दहशत , खून , चीख और निर्दोष को मारने की दी जाती है। तो इस माहौल में क्या हम उस देश से शांति की उम्मीद कर सकते हैं ?
पाकिस्तान से क्या हमारे रिश्ते यैसे ही रहा करेंगे। या दोनों देशों की जनता बस खाबों में ही पुनर्मिलन के सपने देखा करेंगे या हकीकत में भी येसा घाट सकता है। पाकिस्तान में हुक्मरान बाद के दिनों में केवल अपनी कुर्सी बचाने के प्रयास में लगे नज़र आते हैं। वो बेहतर जानते हैं की अगर शासन करना है तो लोगों को बुनियादी ज़रूरतों से विचलित करना होगा। वर्ना वो लोग रोज़गार, शिक्षा , सुरक्षा , देश की प्रगति के बारे में सोचने लगेगे। इस लिए उन्हें मूल मुद्द्ये से बहकाना होगा। और यह खेल १९४७ से आस पास से खेली जा रही है।
भारत और पाकिस्तान के बीच सद्भावना पूर्ण रिश्ते तब तक नहीं कायम हो सकते जब तब दोनों देशों के राज्नेतावों को अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोचना शुरू नहीं करते।

Monday, December 28, 2009

बात हमने जहाँ रोक कर चले गए थे वहीँ से आगे की यात्रा आरम्भ करते हैं। हम बात कर रहे थे कि २००९ में क्या कुछ घटा क्या बढ़ पाया इसके बारे में संषेप में चर्चा की जाये। तो हम क्यों न भारत से ही शुरू करें।
इस साल देश में आम चुनाव हुवा जिसमे कांग्रेस की सरकार सत्ता में आई। कांग्रेस के खाते में ज्यादा तो वोट नहीं गिरे लेकिन राज्य में सरकार बनाने की बारी को हाथ से जाने नहीं दी।
सरकार तो बनी। लेकिन संसद में सांसदों की हाज़री बेहद चिंता वाली रही। लोक सभा और राज्य सभा दोनों ही सदनों में सांसदों की गैर हाज़री को स्पीकर ने ले कर सभी दलों के प्रमुख से चिंता प्रगट की। जिस पर कांग्रेस की आला कमान ने नेतावों जो हाज़िर नहीं थे उनसे कारन बताने को कहा। गौर तलब है की संसद में इक दिन करवाई पर ७०, ८० लाख रुपया खर्च आता है। ज़रा सोच कर देखे इक दिन में अगर तीन बार भी संसद अवरुद्ध होती है तो देश को कितना नुकशान होता है। आम जनता की खून पसीने की कमाई को यूँ जाया कैसे कर सकते हैं।
अब हम बात करते हैं अपने प्रधान मंत्री मनमोहन जी को अमरीका में ओबामा सरकार ने खासकर अपने पद ग्रहण के बाद किसी राजनायक को भोज पर आमंत्रित कर देश की शान यानि पहले देश को न्योता मिलना वाकई महत्वपूर्ण माना जा रहा है।

Friday, December 25, 2009

२००९ की अंतिम साँस

२००९ की अंतिम साँस के बारे में आपभी सोच रहे हैं या नहीं? अगर नहीं तो क्यों नहीं क्या आपके दिलचस्पी नहीं रही इन सब में या कि संत हो गए। दोनों ही दशा में आदमी साथ साथ अपनी जमा पूंजी का लेखा जोखा भूल जाता है। तो क्या आप नहीं चाहते कि जाते हुआ साल में ज़रा जानें तो कि क्या खोया और अपने हाथ क्या लगा?
देश दुनिया की राजनीती हो या भूगोल हर जगह कुछ बड़ा घटा है इस साल वह जगह है कोपेन्हागें जहाँ दुनिया की तमाम लीडर्स मिले। आवास तो वर्ल्ड इन्वोर्न्मेंट को बचाने के लिए कुछ खास दस्तावेज़ पर सहमती होनी थी। मगर यह मीटिंग बेनातिज़ रहे। खुद ओबामा मानते है कि देशों के बीच सही तालमेल की कमी की वजह से यह मीटिंग अपने उधेश्य में सफल नहीं हुई।
साहित्य एंड कला की बात करें तो हिंदी की लब्ध नाम कैलाश वाजपई के २००९ का साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा जायेगा। कुछ वरिष्ठ पत्रकार ,लेखक हमारे बीच से रुख्शत हुए। प्रभाष जोशी जी भी आखिर कागद कारे करने अब उस लोक चले गए। बातें और भी हैं _ रफ्ता रफ्ता हम इक इक कर बात करेंगे.....

Wednesday, December 23, 2009

मीडिया के न्यू पौध

मीडिया को कोई भी कही भी राह चलते पत्थर मार कर आगे चला जाता है। वास्तव में मीडिया की इस छवि के ज़िम्मेदार वैसे रिपोर्टर हैं जिनके लिए हर घटना इक सनसनी है। खबर संजीदगी की हो या वारदात की उनकी आवाज़ उसी पीच पर रन मर रही होती है। गोया मीडिया खबर देने की जगह भय की दुकान खोल कर बैठ गई हो।
मीडिया की इस पौध को दरअसल सही खाद पानी ही नहीं मिल पाते। जिसका परिणाम यह होता है की वो जब जौर्नालिस्म के कोर्से करने के बाद जब जॉब शुरू करते हैं तब किताबी और वास्तविक खबर में अंतर दिखाई देता है।

Sunday, December 13, 2009

तकनीक से डरता मन

तकनीक जहाँ हमारे रोजमर्रे की ज़रूरतों को आसान किया है वहीं कुछ लोगों के लिए आफत से कम भी नही होती है तकनीक का इस्तमाल करना। डर हलाकि कई तरह की होती हैं मसलन पानी, आग, उचाई, किसी वस्तु, या किसी भी खास चीज से आपके मन में भय बैठ सकता है। बचपन की कोई भयावह घटना भी डर का कारन बनते हैं। अगर बच्चे को शुरू में ही डर के वजह को ख़त्म कर दे तो आगे चल कर वह उस चीज से डरेगा नही। मगर हम चीजों को समझने की जगह डर को बार्कर रखने में मदद करते हैं। परिणाम यह होता है की बच्चपन का डर जीवन भर साथ रहता है। हो सकता है वही डर अगली पीढ़ी में भी ट्रांसफर हो जाए।
पिछले दिनों अपने पिता जी को मोबाइल उसे करना सिखा रहा था तब मैंने महसूस किया की उन्हें मोबाइल के बटन प्रेस करने में कठिनाई हो रही है। कई बार इक बात समझा कर थक गया। मुझे लगा शायद मैं सिखने में सफल न हो सकूँ। मगर इक बार मुझे बचपन में पढ़ते समय पिताजी के चहरे पर उदासी दिखी। पिताजी निराश से लग रहे थे। पास की चाची ने कहा पंडी जी पूरे शहर के लड़कों को पढ़ाते हैं मगर अपना बेटा ही नही पढ़ा पाते। पिताजी को बात लग गई। उन्होंने कहा अगर मैं सही में कुशल मास्टर हूँ तो इसे को पढ़ा कर ही दम लूँगा। और देखते ही देखते वह दिन भी आया की वह लड़का इक दिन पढ़ लिख गया। यह ज़वाब था मेरे पिताजी का चाची के लिए। पिताजी ने उस टाइम तो कुछ नही कहा था मगर मन में बैठा लिया की इस को पढ़ा कर ही रहूँगा। वह लड़का कोई और नही बल्कि मैं ही हूँ।
अब मेरे आखों के सामने २० २२ साल पहले की घटना घूम गई । मैंने सोचा जब पिताजी मुझे पढ़ा कर ही चैन लिए तो मैं भी उनको मोबाइल का इस्तमाल करना सिखा दूंगा। तीन ऋण में इक ऋण पित्री ऋण भी है, सो मोबाइल के इस्तमाल के सिख दे कर ऋण में मुक्त होना चाह थी। और देखा की उन को मोबाइल के कमांड और बटन के इस्तमाल में परेशानी हो रही है। सो कई तरह के उद्धरण से मोबाइल का प्रयोग सिखा दिया। मुझे उस टाइम गुस्सा, खीज भी होती की क्या है पढ़े लिखे हैं फिर क्यों समझने में बाधा क्या चीज है। मैंने देखा की दरअसल जो लोग जीवन में तकनीक के इस्तमाल से भागते हैं उन के लिए नये नए तकनीक इक डर से कम नही है।
अपने डर के ऊपर ख़ुद को काबू पाना होता है।

Wednesday, December 9, 2009

अथातो म्रत्यु दर्शनं

अक्सर अपन मौत को कितना भयानक मानते हैं। बल्कि हम तो मौत को पास भी फटकने भी नही देना चाहते। हमारी कोशिश होती है के यह हमारे दुश्मन को ही भाय। बचपन से ही हमारे दिमाग में यह बात ठूस दी जाती है के मौत बड़ी ही डरावनी और दुःख से भरी होती है। जीवन से कहीं ज़यादा नजदीक मौत को हम याद कर लिया करते हैं। दरअसल मौत डरावनी नही होती, और न ही मौत भयावह ही होती ही। हम लोगों के दिमाग में न केवल स्कूल, घर, माता- पिता बल्कि धर्म भी मौत के बारे में सही सही जानकारी नही देते।
भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा का पुनर्जन्म नही होता। कुछ दर्शन मानते हैं की आत्मा अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेती है। मगर संख्या , योग , न्याय और चार्वाक दर्शन न तो पुनर्जन्म को मानती है और न आत्मा की कोई सत्ता ही स्वीकारती है। बलिक दर्शन का तो यह भी कहना है के अनु परमाणु आदि ही नही बल्कि हमारे शरीर में पाए जाने वाले सेल जब काम करना बंद कर देते हैं तब हमारा शरीर मृत मान लिया जाता है। आप इसे मोक्ष, निर्वान, मुक्ति जो भी नाम दे लें दरअसल शरीर को त्याग कर हमारी सासें यानि हवा, पानी , मिटटी, आकाश और आग इन पञ्च तत्वा में विलीन हो जाती है।
मौत जब की कितनी करीब होवा करती है इसका अंदाज़ा नही लगा सकते।

Tuesday, December 8, 2009

तेरे मन्दिर मेरे राम

तेरे मन्दिर मेरे राम
सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक स्थल नही होना चाहिए। जो पहले से बन चुके हैं उसे गिरना यदि संभव नही तो कम से कम राज्य और केन्द्र सरकार कोर्ट को विश्वास दिलाये के सरकार किसी भी कीमत पर सार्वजनिक स्थल पर मन्दिर , मस्जीद, गुरुद्वारा आदि का निर्माण नही होने देगी। सरकार को इससे पहले भी कोर्ट ने इस बाबत आदेश दिया था मगर सरकार के और से बरती जा रही लापरवाही को कोर्ट ने गंभीरता से लिया है। कोर्ट ने कड़े शब्द में कहा है सार्वजनिक स्थल पर धार्मिक प्रतिक यानी मन्दिर , मस्जीद आदि का निर्माण नही होगा। अगर एसा नही हुवा तो भुगता नही जाएगा।
सुप्प्रेम कोर्ट ने सेंट्रल और स्टेट गवर्नमेंट को आगाह किया है। किसी को भी पब्लिक प्लेस पर धार्मिक स्थल निर्माण की इज़ाज़त नही होगी। अक्सर देखा गया है की मन्दिर या मस्जीद आदि के बहाने सरकारी जमीन पर कब्ज़ा कर लिया जाता है। शुरू शुरू में तो यह छोटे छोटे स्थर पर किया जाता है मगर जब लगता है की अब यहाँ मन्दिर बनाई जा सकती है तब सांसदों , अन्य अधिकारी के बल पर निर्माण कार्य शुरू हो जाता है । सरकार देखती ही रह जाती है उसके सामने पब्लिक प्लेस पर कुछ खास लोगों का कब्ज़ा हो जाता है। इतना ही नही जब इक बार मजार बन जाता है या की मन्दिर बन कर पूजा होने लगती है तब उस जगह को खली करना बोहोत मुश्किल काम होता है। समाज में मन्दिर, मस्जीद , गुरुद्वारा को ले कर आम जनता में खासे लगाव होता है। यदि कोई सरकार भी तोडना चाहे तो समाज में लोग विरोध करने उतर जाते हैं। इसे मुद्दा बना कर विपक्ष सरकार को घेर लेती है। मामला धर्म से जुड़ने के कारण कोई भी सरकार धार्मिक स्थल को तोडना नही चाहती। यही वो जमीन है जिस पर आम लोगो के पीछे चुप कर कुछ खास लोग जमीन पर कब्ज़ा करते रहते हैं। इसी प्रवृति को काबू में करने के लिए कोर्ट ने राज्य और केन्द्र सरकार को आदेश दिया है।

Sunday, December 6, 2009

सरयू में बह गए हजारों खोयाहिशों

आज ही के दिन भारत के धर्निर्पेचता के धज्जी उडी थी। जी सही समझ रहे हैं। अगर नही पल्ले पड़ा तो ज़रा मेमोरी पर सर्च बटन प्रेस कीजिये। हाँ अब आपके मेमोरी के सेर्फस पर दिसम्बर ६ १९९२ उभरा होगा। साथ ही खून से लाल सरयू नदी भी खामोश दिख रही होगी। सरयू का पानी लाल होगा। इस के साथ ही सरिया, तोड़ फोड़ के आवाज़ भी सुनाये दे रही होगी।

बस अब आप देख सकते हैं, अजी साहिब ज़रा कानो को साफ करे तो वह आवाज़ भी सुन सकते हैं, जय श्रीराम मन्दिर वहीं बनायेंगे.... जो राम का नाम नही लेगा वो हिन्दुस्ता का काफ़िर है। अब मथुरा की बारी है। और लोग नारे लगा कर अपनी पौरुश्ता का प्रमाण दे रहे थे। साथ ही हिंदू होने के निकष भी दुनिया के सामने रख रहे थे। मीडिया की नज़रें उत्तर प्रदेश के सस्र्यु के तट पर टिके थे।

देखते ही देखते गुम्बद सदियों से धुप , पानी , धुल फाक रहा था। आज उसे सचे हिंदू भीड़ ने ज़मिन्दोस्त कर दिया। चलिए साहिब गुम्बद को अब रहत मिली या नही पर कुछ लोगों के आत्मा ज़रूर शांत हुई। मगर अभी उनकी मुराद पुरी नही हुई है। उन्होंने तो देश के हिंदू समाज को वचन दे रखा है की जब तक राम लाला का मन्दिर नही बन जाता तब तक हम कैसे कह सकते हैं गर्व से कहो हम हिंदू हैं। अभी आगे की लड़ाई बाकि है।

इन्ही दिनों लिब्राहन कमिटी की रोपोर्ट संसद में रख दी गई , लेकिन उस पर चर्चा होना बाकि था। मगर अगले दिन मीडिया में आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हो गई। बीजेपी के नेतायों को इक मुद्दा मिल गया की यह कांग्रेस की चाल है। कुछ स्टेट में इलेक्शन होने हैं इसी को ध्यान में रख कर रिपोर्ट लीक की गई।

बहरहाल, बहस तो संसद में होगी ही। मगर ध्यान देने की बात यह है की जब यह घटना को अंजाम दिया जा रहा था उस टाइम सेण्टर में कांग्रेस की सरकार थी। नर्शिन्घा राव प्रध्यान्मंत्री थे। उन्होंने लापरवाही की। इस को कोई झुठला नही सकता। मग राव sahib के समिति बा इज्ज़त बरी कर देती है। समिति की रिपोर्ट जो भी हो। इक बात साफ है, सरकारें बदलती हैं, पार्टी के चहरे बदल सकते हैं। मगर राम लाला की ज़मी पर लाखों लोगों की खून से सनी ६ दिसम्बर १९९२ नही बदल सकती। सरयू में जल मग्न तमाम चहरे आज भी अपने गावों की तरफ़ आस लगाये टुकुर टुकुर देख रही हैं.

Tuesday, December 1, 2009

संसद से अनुपस्थित रहे संसद

संसद फिर शर्मसार हुवा इस बार न कोई मुंबई का था और न किसी ने किसी को भाषा को लेकर गालियें ही दी मगर यह संसद की हिस्टरी में तीसरी घटना है। दरअसल स्कूल के दिनों में जिस तरह बच्चे स्कूल से भाग लेते हैं ठीक उसी तर्ज पर सोमवार यानि ३० नवम्बर को संसद के ३४ सांसद गैर हाज़िर थे। जब की उन सांसदों ने प्रश्न लिख कर लोक सभा स्पीकर मीरा कुमार को भेजा था। मगर जब मीरा कुमार ने सवालों के ज़बाब तलब करने के लिए सांसदों के नाम पुकारे तो उनमे से कोई भी संसद में हाज़िर नही था। जब की सम्बंधित मिनिस्टरी के मंत्री मौजूद थे । पर सवाल के ज़वाब जानने के सरोकार ने वास्ता नही रखने वाले संसद नदारत थे। मीरा कुमार ने इस मुदे पर संसद में श्लील भाषा में कहा के यह जिमेदार सांसदों के रवैया नही कह सकते।
इस तरह आज यानि मंगलवार को तमाम अख़बारों के प्रथम पेज पर बड़ी महत्तया के साथ ख़बर छापी गई । कुछ हेडिंग पर नज़र डालते हैं ' और संसद में सवाल तो पूछे मगर ज़वाब सुनने के लिए संसद ही नही', ' सवाल पूछने में दिखाई बे रुखी संसद से नदारत रहे सदस्य', आदि।

Thursday, November 26, 2009

ताज पिछले साल यूँ ,

खून से यूँ रंग गया,

पर कहाँ बोलो ज़िन्दगी ठहरी भला,

न रुकी ज़िन्दगी ,

न रुकी लहरें समंदर की,

रोड भी जगमग रही भागती।

ज़िन्दगी कब, कहाँ

किस मोड़ पर,

छोड़ अंगुली,

रूठ कर,

चल दे आप से,

या की हम से,

रूकती नही है ज़िन्दगी,

पर यह ज़िन्दगी,

आती रही है,

कई रंग औ कई रूप में।

न रुकी ज़िन्दगी बोम्बे में -

रूकती भला कब तलक राजस्थान में ,

आख़िर डेल्ही की भी ज़िन्दगी चलती रही ,

दिन, महीने, साल में यूँ ढल जायेगे,

पर न रुक ये जाएगी

हर चलती जाएगी यह ज़िन्दगी।

कसाब आए या युनुश,

या की पंडित पादरी,

गर दिलों में है नही इन्सान की वो धरकन,

वह कहाँ सुन पायेगा किसी की चीख,

या फिर प्यार के मनुहार में क्या कोई आबाद,

यूँ होते रहे हैं।

साल

Saturday, November 21, 2009

ठाकरे का नया रार

ठाकरे का नया रार

ठाकरे रोज दिन कोई न कोई राग छेड़ते रहते है। कभी भाषा हिन्दी को टार्गेट बनते हैं तो कभी इन्सान को। लेकिन राग ज़रूर छेड़ते हैं। वरना उनको महाराष्ट्र में कोई याद भी करने वाला नही होगा। पहचान के लिए कभी चाचा तो कभी भतीजा मराठी मानुष का ज़हर बामन करते रहते हैं। यह उनकी मज़बूरी है के वो इसी तरह के एक्शन से कम से कम न्यूज़ में तो बने रहते हैं।

राग बाहरी पहले तो बाला साहिब ठाकरे ने है महाराष्ट्र में बुलंद किया था। लेकिन जब शरीर थकने लगा तो भारतीय परम्परा के अनुसार अपनी गद्दी पर भतीजे को बिराजमान कर दिया , उन्हें क्या पता था के अपना भतीजा चाचा के ऊपर इतना भरी पड़ेगा। इक दिन उनसे बड़ा पोवेरफुल्ल बन जाएगा। खलबली तो मचनी ही थी। सो बाला साहिब ने भी बुढ़ापे में खखार कर सचिन पर निशाना साधा। के वो खेल पर ध्यान देन राजनीति न करें। गोया राजनीति कुछ खास लोगों के घर के मुर्गी हो। जब चाह हुई दुह लिया। नही तो दुत्कार कर भगा दिया। सो सचिन को दी नसीहत पर पुरे देश में बाला साहिब के थू थू हुई। पर चमड़ा काफी मोटा है कोई असर नही पड़ता। इसी लिया तो महाराष्ट्र नव निर्माण सेना ने २१ नवम्बर को बॉम्बे स्टॉक एक्स्चंगे को धमकी दे डाली के इक वीक के अन्दर वो मराठी भाषा में अपनी वेब साईट बना ले।

दिन पर दिन मनस का मन बढ़ता ही जा रहा है।

Sunday, November 15, 2009

राज ने छेदे फिर बाहरी राग

लीजिये राग के कई रूप में इक राग बाहरी राग के शामिल किया जाना चाहिए। राज ठाकरे ने फिर बाहरी राग धुन गुनगुने है। इसे दुर्भाग्य से ज़यादा और क्या कहा जाए के अभी मनसे की और से विधान सभा में हिन्दी में शपथ लेने पर हंगामा किया जिस पर समस्त देश शर्मसार हुवा , घटना ठंढा भी नही हुवा था के राज ठाकरे ने बाहरी राग दुबारा से छेद दी है।
देश , समाज को भाषा के आधार पर बरता जाएगा तो इसे दुर्भाग्य ही तो कहना होगा। देश व् भाषा आपस में सौहादर्य भाव पैदा करती है, न के समाज के फाक करती है। जो लोग भाषा , धर्म को समाज में ओईमनाश्य फुकने के रूप में इस्तमाल करते है तो उन्हें बक्सा नही जन चाहिए।
देश को अपनी भाषा और संविधान पर नाज़ हुवा करती है जो इसे विलगने की कोशिश करेंगे उनको न तो देश वासी माफ़ करेगी और न ही किया जन चाहिए। लेकिन राज ठाकरे महाराष्ट्र में इक खास तारा के सुनामी लेन की कोशिश कर रहे है। समये रहते इसको रोका नही गया तो यह इक दिन हमारी साझा संस्कृति का मटिया मेट कर देंगे।

Thursday, November 12, 2009

कफ़न भी मयसर नही कैसी मौत है यह


कफ़न भी मयसर नही कैसी मौत है यह। कितने दुर्भागे हैं वो लोग जिनके शरीर को मरने के बाद कफ़न भी नसीब न हो तो क्या कहा जाए। आज इक यैसे ही उत्तरी परिसर डेल्ही यूनिवर्सिटी से लगे नाले में इक बहती लाश देखि। पहचान पाना मुश्किल था। वह औरत थी या आदमी यह भी तो पता नही चल पा रहा था। उस लाश को या ततो पुलिस अपने पास कुछ समय के लिए सिनाक्थ के लिए रखेगी अगर कोई अपना मिल गया तो उस को अन्तिम संस्कार नसीब हो गी वरना पुलिस लावारिश मान कर संस्कार कर देगी।

ज़रा सोच कर देखे की कोई येसा भी बद नसीब होता है की उसको मरने के बाद भी कोई अपना नही कहता। इस का इक और पहलु है की वह भी इक मंज़र होता है जब इन्सान तनहा ही मर जाता है मागर किसी को ख़बर भी नही लगती। कई इस तरह की खबरें अख़बारों में देख सकते हैं जो लिखा होता है गुमशुदा की पहचान। कोई चेहरा इतना ख़राब होता है की पहचान मुश्किल होती है।

बस यह तो आप की किस्मत है या आप के घर वालों की जो आपकी लाश तो मिली।

Tuesday, November 10, 2009

हिन्दी के साथ संविधान का उपहास ही यह

बॉम्बे विधान सभा में सोमवारको जो भी हुवा उसे किस तरह संसद शर्मसार हुवा है इस की कल्पना की जा सकती है। यह तो खुलम खुला न केवल भारतीये संविधान की अवहेलना है बल्कि संसद की मर्यादा के साथ खिलवार है। हिन्दी में शपथ लेना क्या इतना बड़ा गुनाह है की विधान सभा की मर्यादा को ताख पर रख कर मनस के लोगों ने हंगामा खड़ा किया। हलाकि उसके लिए उन्हें ४ साल के लिए संसद से निष्काषित कर दिया गया। मगर क्या यही उस कृत्या के लिए पर्याप्त ही

हिन्दी को या हिन्दी बोलने वालों को न केवल मुंबई में बल्कि आसाम में भी दुर्गति सहनी पड़ी है। मगर हमारी चेतना फिर भी जागने को तैयार नही है। हिन्दी भाषी के साथ आज से नही बल्कि इक लंबे अरसे से दोयम दर्जे के बर्ताव सहने पड़े हैं। लेकिन यह घटना इक नही विवाद को जन्म देती है। वह यह की तो क्या हिन्दी और संविधान में प्रदत अधिकार के इसी तरह ताख पर रख कर भारत में कोई भाषा के आधार पर नौकरी करने , राज्य में रहने से वंचित किया जाता रहेगा। अगर हाँ तो इस तरह भारत में हर राज्य इसी तर्ज़ पर अपने यहाँ दुसरे राज्य के लोगों को काम करने रहने के मौलिक अधिकार को धता बताता रहेगा।

ज़रूरत इस बात की है के हम इस तरह की मनोदशा को सुधरें वरना वह दिन दूर नही जब देश के अन्दर लोग खुल कर नही रह सकते।

Saturday, November 7, 2009

प्रभाशंत है यह

पत्रकारिता जगत में जोशी जी का जाना वास्तव में यह प्रभाशंत है। किसी युग का अंत नही बलिक यह अपने आप में भाषा के शिल्पी का जाना कहा जाना चाहिए। जोशी जी ता उम्र भाषा खास कर हिन्दी पत्रकारिता को ले कर खासे सक्रिए रहे। उनकी लेखनी ने कई सालोंतक जनसत्ता में रविवार को कागद कारे किया। उनकी चाह थी की उम्रे के ७५ वें साल तक इस स्तम्भ को लिखे। मगर काल का चक्र कब, कैसे , किस गति में घूमेगा यह कोई नही बता सकता।
नई दुनिया को अपनी सेवा देने के बाद डेल्ही में जनसत्ता के १९९५ तक रह दीखते रहे। हालाकि सम्पद्किये जिमादारी छोड़ दी लेकिन सलाहकार संपादक बने रहे। देश भर में घूम घूम कर आन्दोलन के सूत्रपात करने वाले जोशी जी के लिए डेल्ही में बैठ कर लेख लिखना न भाया। उनसे आखरी मुलाकात आन्ध्र भवन डेल्ही में सितम्बर में हुई तब भी वो उसी प्रखरता से बोल रहे थे।
प्रभाष जी के साथ इक फुदकती पालवी मधुरता में पगी पत्रकारी भाषा भी शायद चली गई। पर उनको कोटि कोटि नमन ....

Tuesday, November 3, 2009

सुना है

सुना है के कल रात कहानी पुरी रात रोटी है। कोई उसके साथ नही था दुःख बटने वाला सो ख़ुद ही कहती ख़ुद ही सुनती रही पुर्री रात। सुनने में तो यह भी आया की कल रात कहानी के आसू पोछने वाला भी कोई नही था। आठ आठ आशु रोटी रही। मुमकिन है याद हो न हो चेहरा उसका। पकड़ कर नानी का दमन दूर कहीं वादियों में , नाले पहाड़ घूम आती थी। लौटती थी तो खुश्बुयों से लबरेज़ बाँहों में भर लेती बच्चों को। पुरी पुरी रात कहनी में कट जाती वो सुने दिन। सुना है इक दिन वो मायूस अपनी ही गम था या के न बात पाने का दुःख चुप हो गई। तब से खामोश कहानी की दुनिया कुछ सुनी रहने लगी।
अगर आपको वो कहीं मिले तो मेरा पता दे देना।

कहानी जो कहती है

कहानी जो कहती है हम से....
उसको सुन लो जी तुम...
उसको सुन लो जी तुम।
कहानी के बिना क्या है बचपन?
बचपन सुना है जी ,
बचपन बेगाना जी ।
कहानी जो कहती है तुम से ,
उसको सुन लो जी तुम....
कहानी जो कहती है किताब से,
उसको पढ़ लो जी तुम।
कहानी जो रोटी है उसको,
तुम तो सुन लो जी हाँ।
कहानी में बस्ती है नानी उसको गुन लो जी तुम।
कहानी जो कहती है तुम से उसको सुन जी तुम........

Friday, October 16, 2009

वो दीप....

न वो दीप की रौशनी रही,
न वो अँधेरा ही,
चारो और,
रौशनी ही रोध्नी,
आखें धुन्धती,
चाँद पल की खातिर,
सुकून....
दीप जो,
रोशन कर दे,
अंतर्मन
छाए अंधरे और लोभ की घटा टॉप को....
चलो ले कर आयें,
येसी रोशन दीप,
जो चीर दे,
अन्धतम की छाती....

Friday, October 9, 2009

कर्म बड़ा या किस्मत

पातंजल योगदर्शन में सूत्र है योगः कर्म्शु कौशलम यानि कर्म में जो कुशल है यही योगी है। यहीं दूसरी तरफ़ गीता का इक शलोक कहता है , कर्मनेवा धिकरास्ता माँ फलेषु कदाचना यानि कर्म की प्रधानता यहाँ भी है। दुसरे शब्दों में कहें तो यह होगा की कर्म प्रधान यही जग माही। जो भी कर्म में जी चुराता है उसकी तमन्न कभी भी कैसे पुरी हो सकती है। हमारी आदत में शामिल है हम अपनी असफलता का ठीकरा भाग्य के माथे फोड़ते हैं , जबकि गौर से विचार करें तो पयांगें की हमारी अपनी सोच ही दूषित है। कर्म तो करते नही हाँ असफलता की दारोमदार सीधा भाग्य को देते हैं।
ज़रा कल्पना करें , कोई आदमी बाढ़ में फस्सा हो तो उसे आवाज़ लगाना चाहिए की कोई आएगा और उसे ख़ुद निकाल लेगा सोच कर बैठ जाना चाहिए। उत्तर साफ है अगर हाथ पावों नही मरेगा तो डूबना तै है। उसपर भाग्य को कोई कोसे तो उसे क्या कह सकते हैं। भाग्य तो हमारे कर्मों से बनता है। अपनी हाथ की लकीरें हम ख़ुद बनते हैं।
इक बार थान लेने पर कोई भी काम कठिन नही होता।

Friday, October 2, 2009

गाँधी छाए रहे शास्त्री रहे गायब

गाँधी छाए रहे शास्त्री रहे गायब यानि आज अखबार में अगर कोई चाय है तो वो हैं गाँधी जी। छाए तो वही रहते हैं जिन्हें पाठक देखना या पढ़ना चाहते हैं। गाँधी आज ब्रांड भी बन चुके हैं। उनके नाम पर कलमऔर अन्ये अंतरंज कपड़े बाज़ार में आ चुके हैं। तो गाँधी बाज़ार को भी भाते हैं और आम जनता को भी। मगर शास्त्री जी को इक प्रधानमंत्री के रूप में ही लोग जानते हैं। दो अक्टूबर गाँधी जी के नाम समर्पित है। शास्त्री जी तो हासिये पर नज़र आते हैं । यह कितनी अजीब बात है। कुओंकी शास्त्री जी गरीब थे, सोसेबज्गी से दूर थे इसलिए उनको भुलादिया गया। क्या यह जायज है ज़रा सोचें तो....

Thursday, October 1, 2009

प्रेम में आंसू यानि रोते हुवे

प्रेम में आंसू यानि के रोते हुवे दिन कट जाते हैं। कभी उसको याद कर के तो कभी उसे कोसते हुवे। मगर याद ज़रूर करते हैं। अपनी तमाम ज़रूरी काम पीछे छोड़ कर बस इक ही काम होता है उसको पानी पी पी कर कोसना या फिर पुराणी बात को जिन्दा रख कर अलाव तपते रहते हैं। जबकि सोचना तो होगा ही के समये बदल चुका है। उसकी प्राथमिकता बदल चुकी है। आप उसके लिए इक बिता हुवा सुंदर सपना भर हैं और कुछ नही। कभी कभार याद आजाते होगें वो अलग बात है। मगर अब संभालना तो होगा ही।

समय तो हर चीज के मायने बदल दिया करती है तो फिर रिश्ते किस खेत की मुली हैं। ज़नाब बेहतर तो यही होगा के आप अपनी पुराणी यादों को तिलंज़ली दे देन वरना होना तो कुछ नही बस अपनी ज़िन्दगी को बैशाखी ज़रूर पकड़ा रहे हैं। जब वो आपके बिना जी सकती है तो आपमें वो हिम्मत क्यों नही। अगर नही है तो पैदा करना होगा। ज़िन्दगी तो इक ही मिली है मुझे या आपको या फिर उसे ही, इसे आप प्रयोग करने में जाया कर देन या बेहतर बनने में यह तो आप पर निर्भर करता है।

बस यूँ समझ लें की, उपदेस नही है यह तो संसार है यही जो दुनिया। यहाँ पर ज़ज्बात की डरकर कम दिमाग की जायद जुररत होती है।

Saturday, September 26, 2009

रावन ज़यादा ही शर्म्स्सर था

आज रावन ज़यादा ही शर्म्स्सर था, कहने लगा मैंने तो सीता का इक बार ही अपहरण किया था मगर इक बार भी ग़लत नज़र नही डाला। मगर अज कल तो लड़कियों की कोई कहे औरत भी महफूज़ नही। सामूहिक रैप होता है। क्या ज़माना है। मुझे लोग हर साल दहन करते हैं मगर ख़ुद के अन्दर झक कर नही देखते।

Friday, September 11, 2009

इस कदर शा

क्या कोई किसी कि ज़िन्दगी में इस कदर शामिल हो जाता है? क्या किसे कब अच लग जाए कब पीछे चला जाए कुछ भी तै शुदा नही।

जब कोई चला जाता है तब महसूस होता कि उस नाम का क्या और किस तरह का प्रभाव होगा या होता है। ह्स्स्र कि जहाँ तक बात है मंज़र तो यह भी होता है कि सुबह हो या रात या फिर कोई भी पल उसके ख्याल से खाली नही होता।

लेकिन जो भी कदम किचता है वो काफिर भी तो नही हो सकता।

Saturday, August 29, 2009

जब कोई बात अटक जाए

बता क्या करा जाए जब कोई बात आपस में बातो बातो में अटक जाए तो। चाह कर भी ज़ल्द उसकी आवाज़ दबी नही जा सकती। कई बार येसा होता है की सामने वाला बिना सोचे जो बोल गया उसका क्या असर होगा वह तो बोलने के प्रवाह में कह जाता है मगर सुनने वाले पर जो असर होती है उससे वह बेखबर ही रह जाता है। अगर समाये पर भाव पकड़ ले तो मामला बन सा जाता है। लेकिन येसा न हुवा तो आपसी ताना तनी शरू हो जाती है। आप चाहें तो मिसुन्देर्स्तान्डिंग कह सकते हैं। और यह सुलझ सकता है ब्शेरते की बात चित हो वो भी खुले मनन के साथ। मगर येसा कम हो पता है, अकसर पूर्वाग्रह बने बनाये काम को मिटटी में मिला देता है। होता बिल्कुल अलग है मामला और भी ख़राब हो जाता है।
कई बार मान लिया जाता है की वो तो येसा ही है येसा ही सोचता है हमें चाहिए यह की ज़रा उसकी जगह रख कर ख़ुद को परख लिया जाए।

Wednesday, August 19, 2009

जस अंत

जसवंत का जस अंत हो गया। पार्टी ने आखिरकार बाहिर का रास्ता दिखा दिया। जसवंत साहब के अपने दर्द हैं, मुझे डेल्ही में ही बता दिया होता। कम से कम मिल कर बताते मगर मुझे तो रावन बना दिया। कभी मैं पार्टी में हनुमान के रूप में देखा जाता था पर आज तो मेरी....
क्या किताब लिखना महज वजह है या की कुछ और। और यह भी जानना होगा की इसके पीछे क्या मनसा रही। क्या कोई ये बता सकता है के किताब लिखना मेरे पार्टी से निकला गया है या की पार्टी के ऊपर किसी तरह का दबाव कम कर रहा है।
जो भी हो मुझे शब्दों के कीमत चुकानी पड़ी

Tuesday, August 18, 2009

शाह रुख और न लज्जित हों

शाह रुख खान के मामले को पुरे देश की मीडिया ने हाथो हाथ लिया। इधर देश के एतिहासिक प्राचीर से प्रधानमंत्री झंडा फहरा रहे थे उसी समाये भारतीये मीडिया को इक तीखी स्टोरी हाथ लगी वह थी अमेरिका के नेव्वार्क एअरपोर्ट पर शाह रुख खान साहब के रोक लिए जाने की घटना थी। भारतीये मीडिया में चल रही ख़बर पर सुचना मंत्री अम्बिका सोनी ने बयां भी दे दिया की जैसे को तैसे की तर्ज पर भारत में भी अमरीकी के साथ बर्ताव करना चाहिए। तब अपमान की पीडा महसूस होगी।
अभी तब यह मामला थमा नही है। तमाम समाचार पत्र सम्पद्किये तक लिखा सब के स्वर इक से है। लेकिन इक तर्क पड़ व् सुन कर हैरानी होती है, यह पहली बार किसे भारतीये के साथ नही हुवा और फिर लगातार इक के बाद इक घटनायों के बेव्रे दिए गए। फलना फलना के साथ भी हुवा है यह कोई नै बात नही। ज़रा सोचने वाली बात है के जहाँ के प्रेजिडेंट के साथ ज़लालत सहनी पड़ी हो क्या यह भी चलता है वाली धरे पर मान लिया जाए॥

किताब से उठा विवाद

दो घटनाएँ इक साथ लिकना पड़ रहा है। पहली, जसवंत सिंह की किताब से उठी विवाद की जिन्ना साहब विभाजन के हीरो नही हैं। इस किताब में बड़ी ही शिदत्त से बयां किया गया है की दरअसल दोनों देशों से विभाजन के लिए जिन्ना साहब दोषी मन जाता है जबकि नेहरू और गाँधी भी उतने ही दोषी हैं जितने की जिन्ना। लेकिन जिन्ना को इसके लिए भारतीये राजनीती में खलनायक साबित किया गया। यह कांग्रेस की चल थी जो लंबे समाये तब इस तथ्य को दबा कर रखा।

जसवंत सिंह बीजेपी के नेता तो रहे ही है साथ ही विदेश मंत्री भी रह चुके हैं। ध्यान हो की पार्टी ने कुछ नेतावों को भर का रास्ता दिका चुकी है । यैसे में जसवंत सिंह के कलम से जन्मी यह किताब इक अलग विवाद को जन्म दे रही है। जन्म दे विवाद से डरता कोण है लेकिन क्या देश में पहले से समस्या कम है जो इक न्यू किस्म के विवाद को हवा दिया जा रहा है। क्या जसवंत सिंह हिस्टोरियन हैं जो तथ्य को इक नै रौशनी में देखने की कोशिश कर रहे हैं या यह उनकी कोई राजनितिक चल है। यह जानना ज़रूरी होगा।

Tuesday, August 11, 2009

कुछ जगह याद दिलाती हैं

हाँ कुछ जगहें यैसे हुवा करते हैं जहाँ जा कर येसा लगता है के सारे लोग तकलीफ और रोड पर ही रहा करते हैं । क्या सुबह और क्या शाम या की रात हर समय जहाँ लोग ही लोग रहते हैं । जहाँ कराह, इंतज़ार और बेहतर ख़बर की आश लोगों को हर पल सोने नही देता। हॉस्पिटल तो उन्हीं में से इक है जहाँ हर पल किसी न किसी के आने का या फिर बेहतर की ख़बर आने के उमीद में बस रात दिन इक कर देते हैं॥ डॉक्टर या की सिस्टर सब के सब देव से कम नही लगते , उनके हर शब्द ब्रह्म के अल्फाज़ के कम नाही होते। उनकी shabd कई बार परेशां भी करती हैं ।

Monday, August 3, 2009

हौसला तोड़ने वाले

जब आप बुरे दौर से गुजर रहे हों यैसे में कई लोग आप के हौसले को तोड़ने वाले ज़यादा होते हैं॥ उनसे बचना बेहद ज़रूरी होता है। वरना आपके अन्दर नकारात्मक विचार चलने लगते हैं। इतना ही नही बल्कि वह सोच हमारे काम करने, सोचने , कदम आगे बढ़ने पर भी खासा प्रभावों डालते हैं। तो लोगों, सितुअशन से हर संभव बचना बेहतर होता है।
नकारात्मक सोच अपना और बनने लगता है जिसे हम या की आप आसानी से दूर नही कर सकते....

Saturday, July 25, 2009

शर्म मगर नही आती

देश का प्रेजिडेंट अपनी की धरती पर चेक किया जाता है वो भी अमरीका की सेना करती है मगर उसपर तुरा यह की वहां की सरकार या की ऐर्लिंस माफ़ी तक नही मांगती। यह तो देश के प्रोत्कोले का सीधा उलंघन है। हमारी सरकार को तक इस बात का इल्म हुवा जब लोक सभा में हंगामा हुवा। वरना कलम साहब तो इतने नेक दिल हैं की उन्न्ने तो यह तब कुबूल नही किया की उनके संग ग़लत भी हुवा।
साहब दूसरी घटना है हरयाणा की जहाँ खुलायम संविधान का उल्नाघन हुवा , बल्कि पुलिस तो दम दबा कर उस जींद के गावों से भाग खड़ी हुई। वो पुलिसको तो अपनी जान जोखिम में लगा जो भाग लिया।

Thursday, July 23, 2009

जब कोई आप का फ़ोन न...

दोस्त क्या कभी सोचा है जब आप बेरोजगार हों और आप किसी को कॉल करें लेकिन वो बार बार कॉल काट दे तो कैसा लगेगा आपको जैसा भी लगे मगर वो तो यही सोच कर बात नही करना चाहते की कहीं फ़ोन उठाए और मदद न करनी पड़ जाए। इस डर से वो साहब बात तक करना नही चाहते । वो क्या जाने की हर कॉल मदद की गुहार लिए नही होती॥ संभवो हो की नोर्मल हाल में किया हो। मगर साहब को तो बस लगता है आज कल जॉब है नही उसके पास कुछ मांग न दे।
ज़रा सोचें यैसे में क्या गुजरती है जब आपके दोस्त साथ काम कर चुके ही आपके फ़ोन उठाने से कतराने लगें तो समझ लें दोस्ती की लो में अब ज़यादा तेल बचा नही॥ बस आप मान कर चल रहे है की बोहोत से लोग हैं जो आप के साथ हैं... मगर वास्तव में आप साहब मुगालते में हैं। बेहतर है ख़ुद को संभाल ले। वरना मुह के बल गिरने से कोई बचा नही सकता।
चलिए कम से कम आखों में इतनी तो पानी बची रहे ताकि कही राह में मुलाकात हो तो....

Thursday, July 16, 2009

पाक की समस्या

पाक और भारत के दरमियाँ सार्थक बातचीत तभी हो सकती है जब पाक अपने पाक इरादे से बातचीत के लिए तैयार हो। लेकिन उस की समस्या यही है की वहां की सरकार १९४७ के विभाजन पर ही शासन कर रही है। ज़रा सोचें जो सरकार देश अतीत में अटकी चेतना के दोहन कर के शासन कर रही है वो किसी भी सूरत में सार्थक संवाद कैसे कर सकती है। बेशक पाक विश्व के दवाव में आतंक के खात्मे पर ताल थोक कर खड़ा हो जाएमगर उस देश के लोग उसे वैसा करने नही देंगे। ज़रदारी के साथ क्या हुवा सब जानते हैं, इधर मनमोहन जी को कहा के पाक ने आतंक के लिए अपनी ज़मीं के इस्तमाल होने दिया है। यह कहना था की पाक की अस्सिम्बली में सरकार को घेर लिया गया। जिसमे नवाज़ शरीफ की भी अहम् भूमिका रही।
पाक के साथ हमारे रिश्ते यूँ सुधर नही सकते जब तक की पाक अपनी तरफ़ से आतंक को बधवा देना बंद नही कर देता। मगर उस देश के सामने जो मंज़र है उसे भी हमें समझना होगा। कुछ कदम हमें भी बढ़ने होंगे जो पाक में अमन चैन ला सके। क्या पाक महफूज है येसा नही कह सकते। बहरहाल वकुत तो लगेगा दोनों देशो में विश्वाश बहल होने में,।

Thursday, July 9, 2009

समलैंगिक कोई आसमान से नही टपके

सच है की समलैंगिक समाज के ही इक भाग हैं ये भी इसी समाज और दुनिया में रहते हैं। अगर इक लड़की को लड़के से शादी के तमाम आज़ादी हो सकती है तो इन्हें भी अपने पसंद के पार्टनर से शादी कर जीवन भर साथ रहने को उतना ही अधिकार है । कम से कम एक मानवीय दृष्टि से ज़रा सोचें तो इसमें क्या कमी नज़र आती है के जब वो विपरीत लिंग के साथ ख़ुद को समायोजित नही कर पाते तो क्यों न उन्हें अपने पसंद के पार्टनर के साथ रहने दिया जाए। दुसरे शब्दों में कहें तो यह कह सकते हैं के हर उस शक्श को अपनी ज़िन्दगी अपने शर्तों पर जीने को पुरा हक है।
समाज तो यूँ ही चला करता है किसे कब ठोकर मार दे किसे गले लगा ले यह समाज समाज पर निर्भर किया करता है।

Tuesday, July 7, 2009

ज़रा सोच कर देखने में क्या जाता है

हाँ सही ही तो है ज़रा सोचने में हम डरते क्यों हैं जब कोई आधुनिक विचार आते हैं। हम उसे इक सिरे से नकार देते हैं। पल भर के लिए भी आनेवाले विचार को तारने क्यों नही देते॥ क्यों डर सताता है। इसलिए की हमारी फिदरत होती है की हम नए रस्ते न तो पकड़ते है न ही नये विचार को आकार लेने देते।
हमने आसपास यैसे ही विचारो को पनाह दे रखा है जो सही मायने में हमारी कोई मद्द नही करते

Monday, July 6, 2009

निरा यकांत

जब हम निरा एकांत होते हैं तब सच्ये अर्थो में ख़ुद के लिए सोचा करते हैं वरना तो लोग अक्सरहां भीड़ में ही अपनी पहचान तलाश किया करते हैं। क्या यह भी सच नही की जब भी हम एकांत में हुवा करते हैं तब ख़ुद से ही डर कर दुबारा भीड़ में खो जाने को बेताब होजाते हैं। एसा इस लिए की हम ख़ुद का सामना नही करना चाहते। आखिर किस्से भाग रहे होते हैंवो कोण सा डर हम ने पल रहा होता है उसे पहचान कर बहिर निकलन ज़ुरूरी है। वरना आप तो देख रहे हैं ख़ुद से भागने का कितना ही नायब तरीका हमने धुंध निकला है हर समाये या तो मोबाइल पर गाने ठूस रहे होते है या टीवी पर अलर बालर जो मिल जाए हसी के पल तलाश रहे होते हैं। दर्हसल ये सरे ख़ुद से भागने के बहने ही तो हैं

Monday, June 29, 2009

रिश्ते की चुभन

हाँ कभी कोई रिश्ता बड़ा ही सुकून देता है। कभी वह चाय बन कर तो कभी धुप में पल भर के लिए विश्राम देने वाला होता है। उस इक रिश्ते में कितनी शक्ति होती है इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते है की इन्सान सब कुछ भूल कर ख़ुद को सौप देने में अपनी सार्थकता समझता है। पर हर रिश्ते इक रेखा में कहाँ चला करते हैं। कुछ दूर चल कर भाव्यें मुद जाया करता है। दुसरे शब्दों में कहें तो यह होगा के कुछ ही पल में कोण रिश्ता अपना रंग बदल लेगा यह तय शुदा नही कह सकते।
हर रंग हर रिश्ते के अपने तशीर और परिणति होती है। आप या की हां उसे रोक नही सकते। जिसे जन है वो लाख रोक लें वह रुकने वाला है ज़रा भी भरम न पले इस की कोशिश रहनी लाज़मी है वरना आसू की जड़ी तो लगेगी ही , कोई रोक नही सकता। जो कभी आप के बगैर रह नही पाने के दम भरा करते थे वो साहब आराम से रहने लगते हैं। बात बिल्कुल साफ है , उसने तै कर लिया है रह सकते हैं। रहते रहते तो पत्थर से भी लगाव हो जाया करता है।

Tuesday, June 23, 2009

जब कोई रिश्ता

जब नही बाँधता कोई भी शब्द, या रिश्ते तो यही कह सकते हैं की अब वो बात नही रही जॉब कभी आपस में हुवा करती थी। इसे यूँ भी समझ सकते है, हमारी हर बात या हर रिश्ते उसी ट्रैक पर नही चलते जिसपर हम सोचा करते हैं। बात बिल्कुल दुरुस्त है चले भी क्यों हर कोई अपनी तरह जीना चाहता है आप या की हम उसे अपनी तरह चलने को नही विवश कर सकते।

Wednesday, June 17, 2009

बहिन

मेरी बहन ने इस साल,
नही बांधे ,
किसी पेड़ को धागे,
न ही काटे चक्कर,
हाँ हर रोज सुबह ,
तिफ्फिन में रखे ,
रोटी और आचार,
इस विश्वास के साथ के,
वो शाम लौट,
आयेंगे।
पर...
इस साल पेड़ में धागे बंधते,
देख आखें भर आयें,
अगर धागे बंधते उसके भी राम सलामत
रहते उसके भी राम तो पुरी साड़ी ओढा आती
नही ही लौटे राम बहन के ,
बिटिया खाना खाते समय पूछती है-
माँ तुमने कहा था,
पापा कहीं गए हैं...
मैं भूल गई,
कहाँ गए हैं बतावो न...
बहिन दूध में बोर कर,
रोटी खिलाती है,
ताकि भूल जाए,
की उसके पापा जहाँ चले गए ,
कोई लौट आता है भला.....

Monday, June 15, 2009

मुहब्बत भाषा से

अगर भाषा से मुहब्बत हो तो भाषा दर्रती नही बल्कि वो लंबे समाये तक साथ देती है। लेकिन समस्या यही है की हम भाषा से मुहब्बत करने की वजाए केवल नम्बर पाने तक का रिश्ता रखते हैं। तभी तो हमारा भाषा के साथ रिश्ता ज़यादा लंबा नही चल पाटा। अगर चाहते हैं की भाषा हमारी संगनी हो तो उसके साथ इमानदार होना होगा। यानि भाषा को बेंताहें प्यार करना होगा।

Friday, June 12, 2009

कुछ सवाल

कुछ सवाल होते ही यैसे है जिनका उत्तर इक शब्द में नही दिया जा सकता।
पुरा का पुरा पेज मांगता है ज़बाव लिखने में।

Tuesday, May 19, 2009

भाषा का पेड़

भाषा का पेड़ जब लगाया तब बाबा बोहुत खुश हुवे लेकिन उनके सामने सारे के सारे आपस में लड़ने लगेने यह सोचा नही था। आज वो बेहद गमगीन थे। भाषा कि सभी पेड़ आपस में झगड़ रही थीं मैं सुंदर नही मैं बेहतर, मुझे जयादा लोग पसंद करते हैं, न न मुझे ज्यादा लोग लिखते पढ़ते हैं। तो मैं हुई न तुम सब से बेहतर। बोल बोल चुप हो गई न लगता है तुम लोगों ने अपनी हार मान ली है। बिना रुके उन भाषावो में से इक बोले जा रही थी,। बाद में पता चला वो इंग्लिश थी।
पर बाबा को यह सब देखा नही जा रहा था। उन्होंने सब को बुला कर कहा तुम सब मेरी बगिया के फूल हो आपस में झडो मत। प्यार से रहना सीखो। साडी भाष्यें अची हैं।
भाषायें समझ गईं। साथ साथ रहने लगीं।

Monday, May 11, 2009

रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ नही हूँ

मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत !
क्या जाने कब
इस दुरूह चक्रव्यूह में
अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय !
अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी
बड़े-बड़े महारथी
अकेली निहत्थी आवाज़ को
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें
तब मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया
उसके हाथों में
ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता हूँ !
मैं रथ का टूटा पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जाने
सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले !

बिल्कुल भरती जी ने सही लिखा की न मामूली से चीज भी न जाने कब काम आ जाए कुछ कह नही सकते। हर इन्सान अपने अपने रन लड़ ही तो रहा है।

कुछ लोग यैसे ही हुवा करते हैं

कुछ लोग यैसे ही हुवा करते हैं जिनके लिए न बना ही नहीं। यैसे लोगो को आज के चालाक लोग बेवकूफ कहा करते हैं। और तो और साहब लोग इन महासये को जितना हो सकता है उसे करते हैं ऊपर से मुर्ख समझते है। क्या है कि उनकी सहजता को ये लोग नासमझी मानते हैं।

क्या कीजियेगा साहिब ये लोग होते है यैसे हैं कि ठोकर खा कर भी हेल्प के लिए आगे आ जाते है।

Wednesday, May 6, 2009

फिल्मी गीतों में केवल बुरे अल्फाज़ धुन्धने निकला जाए तो सब के सब बुरे ही नज़र आयेंगे। लेकिन येसा नही है कई गीत यैसे हैं जिसे आज भी गुनगुना कर जी हल्का होता है। केवल गीतों में हल्केपन को तलाशा जाए तो यह अलग बात है। दर्शन भी है, जीवन भी है साथ ही चुहल है सरे तो जीवन के रंग ही तो हैं कोई क्या इन रंगों से ख़ुद को विल्गा सकता है। संभतः नही।

जाने वो कोण सा देश जहाँ तुम चले गए , न चिट्ठी न संदेश जाने वो कोण सा देश जहाँ तुम चले गए

Monday, May 4, 2009

गीत बोल हरतरह के हुवा करते हैं
यह आप पर निर्भर करता है की उसका किस तरह से इस्तमाल करते हैं।
बोल तो इक लड़की को देर्खा तो येसा लगा
जैसे उजली किरण
जैसे वन में हिरन
जैसे मन्दिर में हो इक जलता दिया
इन शब्दों में क्या ही गहरी है
कोई हिन्दी का मास्टर अलंकार पढ़ते समाये इन लीनो का प्रयोज कर ही सकता है।

Sunday, May 3, 2009

मंदी की दसा को समझें

मंदी पहले से ज़यादा गंभीर होती जा रही है। सरकार ने इसे गंभीरता से नही लिया तो हालत और भी बिगड़ ही जायेगी। देखा गए तो सरकार से अपने तरफ़ से कोशिश कर रही है पर वो पर्याप्त नही कहा जा सकता। कपनियां इस मंदी से निपटने के लिए जो रास्ता अपना रहे हैं उसे क्या नाम किया जाए। प्रस्ताव आए है की लोग महीने में १० १८ दिन कम करे और ५० फिसिदी सैलरी लें। दूसरी बात यह कही जा रही है की १० से १८ माह छुट्टी ले कर ट्रेनिंग लें और सैलरी के २५ फीसदी घर बैठ कर लें। जब बाज़ार की हालत थी होगी या कंपनी दुरुद्स्त हो जायेगी तब उन्हें काम पर रख लिया जाएगा।
येसी हालत को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है

मंदी भगा मंदी भगा

मंदी भगा मंदी भगा,
कोई कंपनी नै दिला,
जॉब दिला जॉब दिला
मंदी भगा मंदी भगा।
बाज़ार की हालत दुरुस्त बना,
मंदी भगा मंदी भगा,
लिकुदिटी तो बहा,
मंदी भगा मंदी भगा,
यन्न रुपिया

Tuesday, April 28, 2009

कूड़ा आप लिखें

क्या यह ज़रूरी है की जो भी कूड़ा आप लिखें उसे पढने वाला मिले ही नही बिल्कुल नही सो चिंता किस बात की लिखते जावो लिखने की सच्ची भावना से। अगर यह लालसा मन में होगी तो पाठक न मिलने पर दुःख होना निश्चित है। तो कुछ लोगो को बिना इसकी परवाह किए की कोई पढेगा भी बस लिखना जारी रखना चाहिए।
तभी तो हिम्मत कर के लंबे समय के बात पोस्ट कर रहा हूँ।

Sunday, March 29, 2009

हिन्दी साहित्य इतिहास में हाशाये पर बाल साहित्य

हिन्दी साहित्य इतिहास में हाशाये पर बाल साहित्य
हिन्दी साहित्य का इतिहास उठ कर देखें तो इतिहास में बाल साहित्य की कहीं चर्चा नही मिलती। चाहे वो रामचंद्र शुक्ला का इतिहास हो या फिर हजारी प्रसाद का या फिर बाद के साहित्य इतिहास लेखन हर जगह बाल साहित्य उपक्षित है। वजह जो भी हो मगर बाल कथा जगत को इस लायक ही समझा गया की इस के बारे में भी चर्च करें। जब की साहित्य में दलित , महिला आदि कि चर्च है मगर बाल साहित्य को क्या वजह है हाशिये पर धकेल दिया गया।
जब हम प्रेमचंद , माखनलाल , सोहनलाल और मुक्तिबोध से लेकर महादेवी वर्मा तक के लेखन में बाल रुझान पाते हैं। इन सब साहित्येकारों ने बाल गोपाल के लिए भी लिखा यहाँ तक कि विष्णु प्रभाकर ने भी जम कर लिखा। बाल कहानियो का अपना अलग संसार है जिसमें बड़े लेखक प्रवेश नही करना चाहते।

Wednesday, March 25, 2009

कलाकार का अन्तिम अरण्य

कलाकार का अन्तिम काल बड़ा ही दर्दीला होता है। जीवन भर गा , बजा कर , लोख पढ़ कर समाज का मनोरंजन किया करता है लेकिन उमर जब परवान पर होती है तब कोई तीमारदार नही होता। बेटा या बहु संभालती है। मगर जब जेब खालो हो तो बेटा भी क्या करलेगा। कलाकार का अन्तिम अरण्य बड़ा ही दर्दीला होता है। सरकार भी खामोश , लोग भी पल्ला झाड़ लेते हैं। उसके पास हस्पताल के खर्चे तक नही होते की इलाज करा सके। यैसे में कला क्या दे पति है अपने कलाकार को ?
मेह्न्दिहासन को किसने नही सुना है क्या पाकिस्तान क्या ही हिंदुस्तान हर जगह उनको बेंतेहन मुहब्बत करने वाले मिल जायेगें मगर वो भी इनदिनों बीमार पड़े है , उनके बेटे के पास इतना सामर्थ्ये नही की वो हॉस्पिटल का खर्च उठा सके। बेचारे ने अपनी असमता जाहिर की है। वहीं हमारे देश में भूपेन हजारिका को भी इनदिनों कुछ इसे तरह के दौर से गुजरना पड़ रहा है। उनके खर्च को कोई उठाने वाला नही न तो सरकार न ही कोई घराना। दरसल कलाकार जब तक अपनी कला का प्रदर्शन किया करता है तब तक लोगों की भीड़ जमा हुवा करती है लेकिन जब वो असक्त हो जाता है तब कोई पूछता भी नही। यैसे में वो वनवास की ज़िन्दगी बसर करने को विवास होता है।
केवल गायक या कलाकार ही नही बल्कि लेखक , कवि भी इसे भीड़ में शामिल है। साहित्य का इतिहास पलट कर देख लें चाहे प्रेमचंद हों , निराला हों या फिर प्रवोग वादी चर्व्हित कवि नागार्जुन ही क्यो न हो बल्कि त्रिलोचन सब की वही गति हुई अंत काल में पैसे की किल्लत में दिन गुजरना हुआ। कथाकार अमरकांत ने तो यहाँ तक की अपनी रचनाये तक नीलम की, उन्होंने तो जीवन के पुरस्कार तब बेचने के पस्कास कर डाली।
साहब मामला बस इतना सा है की ये लोग अपनी लेखनी से वो लिखा जो इनके जी में आया वो नही लिखा जिसके पाठक की मांग है , बाज़ार किस तरह के लेखन की है इस को ध्यान में नही रखा।

Saturday, March 21, 2009

जब कभी हो

जब कभी हो,
गमगीन ज़रा से बात पर
तो देखना
इक चेहरा
हसने को हो काफी
तो समझना
है उम्मीद ,
मुस्कराने की ...
या फिर पल भर सोचना ,
जाती नही है सड़क कहीं ,
जाता है इन्सान ,
हफ्ता हुवा ,
रोता हुवा ,
पर गर कोई ,
मुस्कराते हुवे ,
जा रहा हो तो समझना ...
वो साथ है सभी के

Thursday, March 19, 2009

साथी

खफा दोस्त को मन से याद....
साथी आप से खफा हो तो उसे मन से याद करने पर हिचकी जरुर आएगी। यानि आपका दोस्त आपको बोहोत याद करता है। इसे क्या नाम देना चाहेगे आप इसे दोस्ती का तकाजा नही कहना चाहते?

पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़

पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़

सबलोग पत्रिका की सामग्री बेहद अची है इसकेलिए सम्पद्किये टीम को साधुवाद। इस पत्र में राजनीती, बाज़ार , गंभीर लेख सब कुछ हैं। नीलाभ का लेख पढ़ कर आताम्तोश मिला।

इक सुझावों देने से रोक नही पा रहा हूँ ख़ुद को, वो यह की पुस्तक समीक्षा भी साहित्य में जुड़ जाए तो यह अधुरा पत्र पूर्ण सा हो जाएगा।

Tuesday, March 17, 2009

साथी जो दूर चला जाए

साथी जो दूर चला जाए
उसके लिए आप या की हम दुयाएँ ही किया करते हैं ,
वो चाह कर भी दूर भला कैसे जा सकता है ,
रहता तो करीब ही है पर ,
महसूस करने के लिए समय ,
कहाँ है हमारे पास ,
कभी नौकरी,
कभी लाइफ के पेचोखम ,
सुलझाते ,
पता ही नही चलता की ,
जो पास हुवा करता था ,
कितना दूर जा चुका है ।
इतना की आवाज भी दो तो ,
अनसुना सा लगता है ,
नाम किसे और का जान पड़ता है ...
क्या नाम दे कर पुकारें उसे ,
जो कभी सासों में समाया होता था ,
आज वही किताबों में धुंध करते हैं ,
दोस्ती का सबब...
कुछ शब्द खली से लगने लगते हैं ,
जब वो मायने नही दे पते ,
खासकर तब जब आप बेशब्री से धुंध रहे हों ,
इक खुबसूरत सा शब्द जो बयां कर सके ,
आप की अनकही भावना ,
जो अकले में शोर करने लगती हैं ।

Monday, March 16, 2009

दुनिया उसके आगे

दुनिया उसके आगे

दुनिया उसके आगे ख़त्म नही हो गति जहाँ से आगे हमें कुछ भी दिखाई नही देता। दरसल हमारी आखें वही देखने की आदि हो चुकी होती हैं जिसे हम देखना चाहते हैं। जब की दुनिया किसे के रहने या चले जाने से इक पल के लिए भी थर्टी नही। वो तो अपनी ही रफ्तार से चलती रहती है बल्कि भागती है।

लेकिन उसकी दुनिया जैसे कुछ देर के लिए जैसे रुक गई हो उसके सामने दुनिया इक बार के लिए बड़े ही तेज़ रफ्तार से चक्कर काट गई हो। जैसे ही उसे ऑफिस में बुलाया गए उसे अंदेशा तो हो चुका तह मगर मनन कुबूल नही कर रहा था।

.... हाथ में पिंक स्लिप थमाते हुए कहा गया हम साथ हैं कम्पनी साथ है कोई चिंता की बात नही। पर चिंता तो होनी शरू हो गई। आज बीवी को क्या मुह दिख्यागा जब सब को पता चलेगा की आज से साहब घर में बैठ जाने वाले हैं। लोग तो लोग अपने भी सोचेंगे की नाकारा है इसीलिए बहार किया जाया वरना यही बहार है बाकि त्यों काम कर रहे

Saturday, March 14, 2009

कुछ रह जाती हैं

कुछ तो रह जाती हैं लाख आप या की हम खर्च कर देन सुबह से शाम तक मगर कुछ चीजें हमारे दरमियाँ रह ही जाती हैं जो कभी न तो बात पति हैं और न ही किसी से साझा ही किया जा सकता है।
साहित्य में इसे आप या की हमारा अपना अनुभूत सत्य होता है।
लेकिन कई बार रचनाकार पर गमन करता हुवा कुछ यासी रचना कर डालता है जो उसे कालजई बनादालता है।
इन्ही कुछ रचनाकार में निराला

Monday, March 9, 2009

सेक्स और इंटरनेट में से चुनेंगी इंटरनेट को

के दौर में तकनीक किस तरह हमारे सिर पर चढ़कर बोल रही है। अमेरिकी पुरुषों और महिलाओं के मिजाज पर हुए सर्वे के नतीजे बताते हैं कि 46 फीसदी अमेरिकी महिलाएं इंटरनेट सर्फिंग को सेक्स से ऊपर रखती हैं। उनका मानना है कि कुछ हफ़्तों के लिए अगर उन्हें सेक्स और इंटरनेट में किसी एक चुनना हो तो वह इंटरनेट को तरजीह देंगी। अमेरिकी महिलाओं पर नेट का जादू इस कदर चल रहा है कि वह सेक्स से ज़्यादा फनी सर्फिंग को मानने लगी हैं।

शब्द जो निकल गए

इक बार शब्द जुबान से निकल गए तो वापस कहाँ आ पाते हैं? आपको शब्द के हर्जाने तो चुकाने ही होते हैं चाहे वो नम आखों से करना पड़े या सॉरी बोल कर।
साहब जो कहा जाया है की बंद मुह से पता नही चलता सामने वाला विद्वान है या....
सूक्ति है न की कोयल और कौए के पहचान बसंत में बेहतर हुवा करता है। चोच खोला तो पता चलता है को को कर रहा है क्यु क्यु...
शब्द इन्सान को सोहरत दिलाता है तो दूसरी और जुटे भी खिलाता है। अब साहब तै आप को करना है की क्या चाहते हैं....
कालिदास ने ठीक ही लिखा है-
'इको शब्दा सु प्रोक्ता सोव्र्गे लोको काम धुक भवति'
इक शब्द नाद जागृत करता है तो इक ॐ या अल्ला उस से मिलाता है...


Sunday, March 8, 2009

तो फागुन आ ही गया

फागुन तो आ गया आब भी लोगों पर खूब रंग दिखने लगे। इक रंग प्यार के चरोऔर बिखर गए हैं, मगर कोयल इस साल भी नही कुकी, न ही बसंत के आने पर फूल ही खिले, क्या खिला फिर ? हाँ अंतरिम बजट जरुर आए मगर चहेरे पर खुशी न दौर सकी।
पर ज़नाब पॉलिटिकल धरो में जम कर जोड़ तोड़ चल रही है
१५ वी लोक सभा में अपनी पुरी कोशिश झोक देने में कोई कसार नही उठा रखना चाहते सभी पार्टी अपनी दावेदारी मजबूत करना चाहती है।
कोण किस दल में जा मिलेगा कुछ भी तै नही है। दुनिया में मंदी की जम कर कोहराम सा मचा है लेकिन आने वाले चुनावो में प्रचार पर लाखों नही करोड़ से ज्यादा बर्बाद किए जायेंगे।



Saturday, February 28, 2009

मस्जिद के पिछवाडे आकर॥

ईटों की दीवार से लगकर,

पथराए कानो पे,

अपने होठ लगाकर,

इक बूढे अल्लाह का मातम करती हैं,

जो अपने आदम की सारी नस्लें उनकी कोख में रखकर,

गुलजार की लाइन बात रहा हूँ इन में ज़ज्बात सोती है।

तो क्या निराश हुआ जाए

तो क्या यह सोचते हैं की हालत ख़राब हो तो निराश हो कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाने से कश्ती पार लग जायेगी।
बिल्कुल नही प्रयाश तो करना ही होगा वरना बाद में यह मलाल रह जाएगा की कोशिश की होती तो आज सूरते हाल कुछ और होता।
ज़नाब अन्दर की दुनिया को दुरुस्त रखा तभी जा सकता है जब आप मान और सम्मान के प्रभावों से कुछ खास समाये में ख़ुद को अलग रख सकें।
पर यह कहना आसन है निभना मुस्किल।
पर अगर थान लिया जाए तो क्या मुशिकिल।
चलिए हार के बाद ही जीत आती है अगर विश्वाश डोलने लगे तो इक बार अपने सपने को खोल कर देख लेना चाहिए इससे उर्जा मिलती हुई लगती है।

Thursday, February 26, 2009

मन्दिर के बहने

मन्दिर कब कहाँ कैसे तैयार होजये आप तै नही कर सकते। उसपर तर्क यह देना की हिंदू हो कर येसी बात करते हो जब मस्जिद बन सकता है, गुरूद्वारे तैयार हो सकते हैं तो मन्दिर बनने में रोड़ा कैसे कोई अटका सकता। दरसल हमारे देश में धर्म के नाम पर संपत्ति, पैसे यूँ ही बर्बाद किया जाता है।
अगर मंदिरों में चादावे पर नज़र डालें तो आखें फटी रह जाएँगी। तिरुपति मन्दिर में सालाना कोरोड़ से भी जयादा कमी होती है। इस साल जनवरी में साईं बाबा में मन्दिर में इतना चदवा आया की वह तिरुपति को पीछे धकेल दिया जाएगा




Friday, February 20, 2009

सपने क्या यूँ ही टुटा कर्तवे हैं

सपने तो यूँ ही आखों में आ आ कर बिखर जाया करते हैं, तो क्या सपने देखना हम छोड़ दे नही बिल्कुल नही।

Tuesday, January 27, 2009

जॉब जब चली जा रही हो

जब जब नौकरी पर खतरा आता है यब तब हम बैचन हो उठते हैं

Monday, January 26, 2009

मंदी की गाज मीडिया के माथे

मंदी की गाज मीडिया के माथे

दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने 5 हजार स्टाफ को नौकरी से निक
ाल दिया है। अपने 34 साल के इतिहास में माइक्रोसॉफ्ट ने पहली बार जॉब कट किया है। दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने 5 हजार स्टाफ को नौकरी से निक
ाल दिया है। अपने 34 साल के इतिहास में माइक्रोसॉफ्ट ने पहली बार जॉब कट किया है। मंदी की वजह से दूसरी तिमाही के खराब नतीजों के बाद कंपनी ने यह ऐलान किया है। दूसरी तिमाही में कंपनी के प्रॉफिट में 11 परसेंट की कमी दर्ज की गई है। कंपनी के सीईओ स्टीव वामर ने कहा है - ' हम फिलहाल ऐसी हालत में हैं जो विरले ही आती है। कैश की कमी की वजह से बिजनेस इंडस्ट्री और कंज्यूमर्स अपने खर्च कम कर रहे हैं। ऐसे में नए कंप्यूटर्स की बिक्री कम हो रही है। '

चौथे खम्भे में लगा मंदी का दीमक

जी हाँ लोकतंत्र के चौथे खम्भे यानि पत्रकारिता जगत में मंदी का दीमक लग्नेलगा है। क्या आप देख प् रहे हैं की किस तरह मंदी के नाम पर रोज दिन मीडिया जगत से लोगों को निकला जा रहा है।
दरसल मंदी का इस्तमाल कैची के रूप में किया जा रहा है। शिकार तो छोटे पत्रकार को होना पड़ रहा है। उचे पड़ पर बैठे लोग तो दुरुस्त हैं। यैसे में इंडिया के कुछ गिने हुए मीडिया हाउस लोगों को निकालने के बजाये बड़े पदों पर बैठे अधिकारीयों के तनख्वा में से कटोती कर रहे है।





Sunday, January 25, 2009

मंदी का रोना हुवा पुराना

अब कुछ यूँ कहने की गुंजाईश बचा कर रखें,
जिसमे आप थोडी देर के लिए अपना सब कुछ भूल जायें,
वो क्या हो सकता है?
कुछ पुराने पल ,
दोस्तों के साथ चाँद देखना,
सुंदर लड़की को देख कर....
पर मन को बहलाना जरुरी है,
क्या है की आप खुदी से निराश हो गए तो,
किसे क्या फर्क पड़ने वाला,
कोण आप के गम में साझा होगा,
ख़ुद ही आसू पोछने होंगे,
गिर कर धुल झाड़ कर फिर से भागना होगा,
ताकि खुले मुह को बंद कर सकें।
इसके लिए आपको हौसला बना के रखना होगा।

गणतंत्र मंदी और आम आदमी की नौकरी

आम आदमी इस गणतंत्र में क्या देख रहा है?
  1. अपनी नौकरी पर लटकती तलवार
  2. घर_बाहर सवाल पूछतीं नज़रें क्या मिया क्या इनदिनों घर में बैठक कर रहे हो
  3. बीवी भी चेहरा देख कर बार बार आखों में सपने लिए टुकुर टुकुर देखती है क्या होगा अब
  4. दोस्तों की बैटन में वो गर्माहट खो गई
  5. दफ्तर में फ़ोन करो तो बहानो की जड़ी मिलती है
  6. उस पर तीन दिन की छुट्टी उफ़ क्या निठल्ला समय भी भरी पड़ता है
  7. और भी सवाल है इस गणतंत्र पर सर उठा रहे हैं
  8. आतंक, बेरोजगार होते कम्पनी के लोग, बिटिया के सवाल आदि आदि

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यानि ये भी...

लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ की खबरें क्या किसी अख़बार में जगह पाती हैं? क्या कभी आप ने सोचा है की इस जगत में काम करने वाले लोगों की खबरें कहाँ छापतीं हैं। शायद कहीं नही, ये अपने ही जगत में खो जाते हैं।
इन दिनों अखबार और न्यूज़ चैनल में जम कर मंदी को लेकर लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। मगर आपने किसे चैनल या अखबार में इस बाबत ख़बर नही पढ़ी होगी। क्यों सोचा है आने वाले दिनों में और कितने लोग रोड पर होंगे यैसे पत्रकार जो आप को हर पल की ख़बर दिया करते थे वो भी हर कीमत पर। लेकिन उनकी हर पल खबरे कहीं नज़र नही आती।
क्या पत्रकारिता का यह कला फिलहाल संकट के दौर गुजर रहा है?



Thursday, January 22, 2009

जिनके जॉब चले गए

ज़रा सोच कर देखें की पल पहले ऑफिस में आप काम कर रहे थे, मगर इक कॉल, इक लैटर आपकी दुनिया बदल देती है। देखते ही देखते आप उस ऑफिस की लिए, वहां अस्त कम करें वाले दोस्तों के लिए गैर हो जाते हैं। नज़रें झुका कर कम करते लोगों की आखें बोहोत कुछ बिन बोले कह देती हैं। उनके अन्दर डर होता है कहीं साथ देख लिया गया तो...
बेचारे इसी डर से आप से खुल करबोल तक नही पते। कहना तो वो भी चाहते हैं मगर डर अनदेर निकल दिए जाने का सताता है। इन दिनों बड़े मीडिया हाउस से लोगो को बहिर का रास्ता दिकाया जा रहा है। यैसे में कोण कोई भी हो हर किसे के सर पर मंदी की तलवार लटक रही है।
कोई भी बेरोजगार नही होना चाहता पर साहिब मंदी की लाठी खूब भांजी जा रहीहै।
दीखते हैं कितने लोग इस आंधी में बर्बाद होते हैं।







Tuesday, January 20, 2009

साजिश में शामिल हूँ

जी हाँ मैं शाजिश में शामिल हूँ ,
यूँ तो साजिश रचना,
किसी के खिलाफ कहीं स्वीकार नही,
लेकिन मैं शामिल हूँ साजिश में उनके खिलाफ,
जो ज़हर उगल रहे हैं धर्म , कॉम के नाम पर।
हाँ मैं स्वीकार करता हूँ_
मैं षडयंत्र रच रहा हूँ,
उनके बिरुद्ध,
जो हर पल लगे हैं देश , समाज को....

Saturday, January 17, 2009

संभावना आश जगती है

जब लाइफ में संभावना हो तो ज़िन्दगी में उमीद बनी रहती है।
आप उसे इक नै रचना करने और ज़िन्दगी से लड़ने की शक्ति देती है। इन दिनों हर सेक्टर में चटनी हो रही है।
नौकरी पर यमराज का शय है। सारे डरे और सम्हे हुए। कब किस की नौकरी चली जाए कहा नही जा सकता। मगर इन्ही हालत में हमें अपनी उर्जा और हिम्मत को बना कर रखन है।
वरना बिखरने से कोई रोक नही सकता। वैसे देखा जाए तो मंदी को औजार के रूप में इस्तमाल किया जा रह है। कम्पनी अपनी बैलेंस शीत में घटा दिखा कर एम्प्ली को हटा रहे हैं। कहा जाता है की समय ठीक होते ही पुराने लोगोको बुला लिया जाएगा। बहरहाल यह मंदी कितने लोगो का नेवला चिनेगी।
किते घरों में मातमी छायेगी पता नही ज़ार जार रोते लोगो को अभी लंबा समाये इन्ही हालत में काटन होगा।
बाज़ार के पंडितों का मानना है की यह दवार अभी दिसम्बर तक रह सकते हैं।







Wednesday, January 14, 2009

क्या आप जानते हैं

आप अंदाजा लगा सकते हैं की पल में कैसे लोगों के नज़र बदल जाया करते हैं। अभी आप के साथ अच्छे से बात कर रहे थे लेकिन जब पता चलता है आप कुर्सी पर नही हैं वैसे ही उनकी सोच बदल जाती है, आप कुछ नही कर सकते बस खेल देखते जायें। उन लोगो पर तो और ही हसी आती है जो दोस्ती की दुहाई देते नही थकते थे लेकिन वही नज़रें फेर लेते हैं।
कभी सोचा है कैसा लगता होगा?
खैर रहने देन इन बैटन को अब कोई मतलब नही। जब साथ थे तो साडी बार\तें हुआ करती थी, अब तो साहिब दिख्वे की रह गई हैं।
चलिए साहिब आप भी खुश की इक हमारे साथ से गया।
मगर ज़रा सोचे की आप पर जब बात आएगी तब भी इसी तरहं सोचा करेंगे शयद न।

Sunday, January 4, 2009

क्या सड़क लाल दिखती है

सपने में कभी आपने सड़क को लाल देखा है ? नही तो दिखाई देगी। यूँ तो सड़कें काली होती हैं। सड़क पर जाने वाली गाड़ी अपनी मंजिल तक जाती है। सड़क दोस्तों कहीं नही आती जाती जाता हैं निर्जीव गाडियां , हम और आप।
सड़कें कहीं नही जाती जाते हैं हम सजीव लोग। मगर रस्ते में बिना देखे की कौन कुचल जाए। सड़क अगर बोलती तो कहती की भाई जावो जहाँ जेआना है। मगर घर जावो। बिटिया राह तक रही है। बीवी की आस में तंगी आखें आपको जोह रही हैं।








Friday, January 2, 2009

साल की सुबह

पिछला साल जैसा भी रहा कम से कम इस साल कुछ बेहतर रहे। न हो बम धमाके, न लोग रहें परेशां। मगर देखिये साल की पहली सुबह बम blast में लोग फिर मरे। पर हम लोग कुछ तो येसा करें की यैसे वारदात न हो।
साल का अमूमन दिन सृजन में बीते।



शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...