Thursday, January 31, 2019

आत्म प्रशंसा करिहहूं सब कोई


कौशलेंद्र प्रपन्न
पूरा का पूरा हॉल तालियों से गूंज रहा था। तालियों की इस अनुगूंज में उनके चेहरे की खिलखिलाहट और मंद मंद मुसकान पूरे हॉल में लोगों को अपनी ओर खींच रही थीं। आत्म प्रशंसा का दौर एक के बाद एक ज़ारी रहा। सब के सब अपने तमाम शब्दों को झांड़ पोछकर सहेजने और फेंकने के लिए उतावले लग रहे थे। अपनी अपनी शब्दावली को खंघालकर नए नए प्रशंसा के शब्द और वाक्यों की बौछार कर रहे थे। इस आत्मप्रशंसा के खेल में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। जो पीछे रह गया वह तो छूट ही गया गोया। कोई क्यों पीछे रहे। शब्द ही तो फेंकने थे। उन्हें बताना ही तो था कि मैं आपको कितना चाहा करता हूं। आपके लिए कितनी तत्परता से प्रशंसा के शब्द और वाक्य तलाशा करता हूं। देखिए आपके लिए ही तो इतने सारे आत्मप्रशंसा के शब्दों की माली बनाई है। अब तो प्रसन्न हो जाएं प्रभू।
प्रभू मंद मंद मुसकुरा रहे थे। उनकी मुसकान में पूरा सभा अपनी मुसकान को मिलाने की कोशिश कर रही थी। प्रभू प्रसन्न थे। अपनी इन्हीं आंखों से तमाम मंज़र को पी रहे थे। खुश थे कि उनके कार्यक्रम में इतनी सारी जनता आई है। आई ही नहीं बल्कि उनके लिए कुछ क्या बहुत कुछ कह रही है और कहना चाहती है। जिन्हें कहने का मौका नहीं मिला उन्हें मलाल था कि उन्हें कहने गुणगान का अवसर न मिल सका। हत्भाग्य उनका कि वो प्रभू का कीर्तन नहीं कर सके।
सभा भरी थी। भरी थी बहुत कुछ कहने की। अपने उद्गार प्रकट करने के लिए मचल रही थी। प्रभू मंच पर विराजमान देख-सुन रहे थे कौन कौन आया, कौन नहीं आया। किसके साथ आगे क्या करना है इसके समीकरण में कभी कभी प्रभू खो जाते। लेकिन उनकी अधखुली आंखें शिव की तरह सब को ताड़ रही थी।
आत्मप्रशंसा हो या स्वप्रशंसा हम बहुत उदार हुआ करते थे। जहां जो मिल गया बस अपनी प्रशंसा शुरू कर देते हैं। मैंने यह किया। मैंने तो यह भी किया। मेरी तो इतनी इतनी किताबें आ गईं। मेरा सम्मान फलां जगह किया गया। मुझे तो उस समिति में भी रख रहे थे। मगर मेरा पास वक़्त कहां है। आपको तो पता ही है। और आप हां हां में गर्दन हिला रहे होते हैं। कहीं उन्हें भान न हो जाए कि सामने वाला सुन नहीं रहा है। हम चौकन्ने होकर उन्हें एहसास कराते हैं कि हम सुन रहे हैं। सुनने वाले की भी अपनी सीमा होती है। मगर बोलने वाले प्रभू अपनी ही रफ्तार में सुनाए जाते हैं।
आत्मप्रशंसा कीजिए अच्छी चीज है। कम से कम कोई और नहीं करता प्रशंसा तो हमें ही तो करना होगा। दूसरा क्योंकर प्रशंसा करेगा। सो कई बार अपने उत्पाद की बिक्री और प्रचार हमें ही करना पड़ता है। लेकिन कभी परप्रशंसा कर के देखिए। सामने वाला कितना गदगद हो जाता है। वह आपकी प्रशंसा भरी शब्दावली को गुन और सुन रहा होता है। जब आप देखे और अनुमान लगा सकें कि अब सही वक़्त है अपना छोटा सा काम सरका दें।
आत्मप्रशंसा और स्वप्रशंसा की ताकत इतनी मजबूत होती है कि किसी भी रूठे पी और प्रभू को मना सकते हैं। प्रिये साथी और प्रभू दोनों को ही मनाना संभव है। यदि परप्रशंसा में दक्ष हैं तो काफी लटके काम पूरे हो जाएंगे। मुरझाए चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ पड़ेगी। इसका अनुमान भी शायद आपको न हो कि परप्रशंसा का असर कितना दूरगामी होता है। प्रभू आपको आत्मऔर परप्रशंसा कौशल में दक्षता प्रदान करें। 

Wednesday, January 30, 2019

डरा हुआ व्यक्ति


कौशलेंद्र प्रपन्न
डरा हुआ आदमी क्या करता है? क्या कर सकता है? और क्या नहीं कर सकता। बेहद मौजू सवाल हैं। सवाल नहीं साहब बल्कि हक़ीकत है। डरा हुआ आदमी क्या नहीं कर सकता है। वह सब कुछ कर सकता है सब किसी पर भी विश्वास नहीं कर सकता। हर आवाज़ पर डर सकता है। किसी भी किस्म की आहट पर चौक सकता है। रात बिरात उठ सकता है। बैठे बैठे आंखों में पूरी रात काट सकता है। डर के घेरे में वह पानी पीना भी छोड़ दे। खाना भी धरा का धरा रह जाए।
डर हुआ आदमी कुछ भी कर सकता है। हर किसी को संदेह की नज़र से देख सकता है। देख सकता है कि कौन उसके साथ है और कौन उसके विपक्ष में खड़ा है। डरा हुआ आदमी छिपकली से डर सकता है और रास्ते चलते घबरा सकता है एसी में बैठकर भी पसीने से तर ब तर हो सकता है।
डरा हुआ व्यक्ति अब लिख रहा हूं कि इसमें दोनों ही लिंग शामिल हैं। डरा हुआ व्यक्ति हर वक़्त खुद को बचाना चाहता है। इस बचाव की स्थिति में वह किसी से भी मदद के लिए गुहार लगा सकता है। बेशक उसे सहायता मिले या निराशा। लेकिन वह भरपूर प्रयास करता है कोई तो हो जो उसे निर्भय कर सके।
आज की तारीख़ी हक़ीकत यह है कि डराने वाले ज्यादा मिलेंगे। बजाय कि कैसे बचा जाए और क्या रास्ते हो सकते हैं ताकि आप बच सकें। इसपर चर्चा और समाधान की ओर प्रेरित करने वाले कम। इसमें सब कोई शामिल हो सकते हैं।
हमें कभी समय निकाल कर एक ऐसी सूची वर्गीकृत करनी चाहिए जिसमें हम स्पष्ट लिखें कि हमें किस किस और किन किन से डर लगता है। जब हम ऐसी कोई सूची बना लेंगे तब हमें इससे बचने या निकलने के रास्ते और रणनीति बनाने में आसानी होगी। बजाय की डरते रहें और जीते रहें। फर्ज कीजिए आपको डर लगता है कि अगले साल शायद ही आपको कंपनी जॉब में रखेगी। इस डर में पूरा साल गुजार दें। या फिर डर डर कर रोज जीया करें। हमें अपने उन क्षेत्रों और एरिया पर काम करना होगा जिनकी वजह से कंपनी आपकी दक्षता पर सवाल खड़ी कर सकती है या की है। यदि समय रहते हमने अपने प्लान ऑफ एक्शन में निराकरण या जिसे टू डूज में शामिल कर लें तो इस डर से निज़ात मिल सकती है। लेकिन होता इससे बिल्कुल विपरीत है। हम स्वयं तो डरे ही होते हैं साथ ही अन्यों को भी डराया करते हैं आपनी कहानी सुनाकर। जो डरा नहीं है। जिसे डर नहीं है उसे भी आपकी कहानी सुन कर डर लगने लगता है।
डरना अच्छी बात हो सकती है। लेकिन उस डर से कैसे निपटा जाए उसके लिए सचेत होकर रणनीति बनानी होगी। फिर कोई वजह नहीं कि हम डर में जीया करें।

Monday, January 28, 2019

माफ कर दें लेकिन भूल न जाएं




माफ कर दें लेकिन भूल न जाएं
कौशलेंद्र प्रपन्न
अंग्रेजी का वाक्य है ‘‘फोरगिव नॉट फोरगेट’’ कुछ ऐसी अनुभूति है जिससे हमसब हमेशा ही गाहे बगाहे जीया या सहा करते हैं। कोई आपको आपकी ही नज़रों से सामने से आपको नज़रअंदाज़ कर जाता है। और आप मुंह उठाए देखते रह जाते हैं। कोई जो आपको बेहद जानकार हो और सामने से आपको देखे भी नहीं और नज़रें भी न मिलाए तो आपको कैसा लगेगा? शायद आप ख़्यालों में डूबने लगें। ऐसा क्यों हुआ? क्यों ऐसा किया? क्या वजह रही होगी इस व्यहार के पीछे आदि आदि। सवालों में हम और आप जूझने लगते हैं। यह जानने और समझने के लिए कि ऐसा व्यवहार अपेक्षित नहीं है।
आप क्या करते हैं कुछ घंटे, कुछ दिन तो याद रख पाते हैं फिर सबकुछ भूल कर उन्हीं बीच हंसी ठिठोली करने लग जाते हैं। वह जिसने आपको नज़रअंदाज़ किया। वह तो इस गुमान हो रहता है उसने आपको इग्नोर किया। किन्तु वो भूल जाते हैं कि आपने उसे माफ कर दिया। उनकी नजर में आप निहायत ही इमोशनल फूल हैं। आप समझते नहीं। हालांकि कहा जाता है कि जो माफ कर देता है वह बड़ा होता है। शायद माफ करने में आपका बड़क्कपन का आंका जाता है। लेकिन कब तक माफ करेंगे और वो कब तक आपको नज़रअंदाज़ करते रहेंगे।
यह खेल बड़ा ही दिलचस्प है। कभी यार दोस्त इग्नोर किया करते हैं तो कभी आपके वरीष्ठ। दोनों ही किस्म के लोग होंगे जो आपको नीचा साबित करने में लगे रहते हैंं। उन्हें कब तक आप माफ करेंगे। और कब तक उन्हें भूलते रहेंगे। कभी तो आपको उत्तर देना होगा। कभी तो उन्हें एहसास कराना होगा कि आप सब कुछ समझ रहें हैं।
जब उन्हें ज़रूरत पड़ती है तब आपसे बढ़कर प्रिये कोई और नहीं। संचार के तमाम माध्यमों से आपसे संपर्क करते ज़रा भी नहीं हिचकते। लेकिन जब आप संपर्क करना चाहें तो तमाम बहानों के पहाड़ खड़ा कर दिया जाएगा। उनके तर्कां पर मरा न जाए तो क्या किया जाए।
माफ कर दीजिए लेकिन भूलें नहीं। जिसने भी आपको ठेस पहुंचाया है। वह जो भी हो जैसा भी हो। भूलें नहीं। माफ बेशक कर दें। लेकिन एक सीमा है इसे पार करते ही आपको बताना होगा कि आप सब समझते हैं। माफ किया है भूले नहीं हैं। वक़्त बेहतर जवाब देगा।

Thursday, January 24, 2019

रिक्शावाला कहां से आता है और कहां जाता है?



कौशलेंद्र प्रपन्न
उसने बातों ही बातों में बताया कि आपको छोड़कर मैं वापस चला जाउंगा। कहां जाएगा? कहां से आया था? ये सवाल हमारे सरोकारों से बाहर ही खड़ा रहता है। हम जानना भी नहीं चाहते और हमारी कोई दिलचस्पी भी नहीं होती कि जो आपको अपने पांव और ज़िगर से खींच कर दफ्तर, बाज़ार पहुंचाया करता है। वह हमारे लिए सिर्फ व्यक्ति होता है जिससे बातें करना, उसके बारे में जानने हमारा लक्ष्य नहीं होता। वह किन मुश्किलों से गुज़रता हैं, इसके बारे में हम आंखें मूंद लिया करते हैं। हमारे लिए वह रिक्शावाला सिर्फ रिक्शावाला होता है। हम लोग दस या बीस रुपए देकर उतर जाया करते हैं। आज उसने बताया कि वह उत्तर प्रदेश के बागपत के किसी गांव से दिल्ली रिक्शा खींचने आया करता है। मेरी रूचि जगी और पूछा कब आते हो? उसने बताया सुबह हमारे गांव से एक आदमी अपने कैब में हमें लाता है और सात बजे दिल्ली गगन सिनेमा हॉल के पास छोड़ देता है। शाम में सात बजे हमें उठा लेता है। दोनों फेरे का अस्सी रुपये लेता है। सुबह खा कर आता हूं और दिन में तीन बार खाता हूं। वरना बीमार पड़ा जाउंगा।
वहीं एक और रिक्शावाला जिसके साथ रोज़ जाया करता था वह कल मिला। उसके हाथ में ई रिक्शा की हैंडल थी। मैंने पूछा, पुराना रिक्शा कहां गया? उसने बताया बाबूजी मेरी उम्र हो गई है। मैं तेजी से खींच नहीं पाता। इसलिए लोग मेरी सेवा नहीं लेते थे। सभी को जल्दी पहुंचना होता है। सो मैंने पिछले माह ई रिक्शा किराये पर लिया। बुढ़े रिक्शे वाले के साथ कोई भी जाना नहीं चाहता। धीरे चलते हैं। समय ज्यादा लगता है। अनुमान लगा सकते हैं कि किस तरह से पुराने और वृद्ध रिक्शाचालकों का क्या हुआ होगा।
एक नज़र रिक्शें के इतिहास पर डालते हैं। हमारे भारत में पहली बार शंघई से 1874 में 1000 रिक्शे आए थे। जो कि जापान से आए थे। आगे चल कर इनकी संख्या 1914 में 9,718 हजार हो गई। अगर अनुमान लगाएं तो पाएंगे कि रिक्शा खींचने वाले कितने हैं जानकर ताज्जुब होगा 100,000 रिक्शेवाले वाले 1940 रिक्शा खींचते थे। वहीं 1920 के आप-पास 62,000 रिक्शखींचने वाले थे। हाथ रिक्शेवाले के सामने ई रिक्शा ने नई चुनौती दी। तेज और जल्दी चलने वाली। 2010 में लगभग एक लाख ई रिक्शे रोड़ पर आए। हालांकि कई अभी तक दर्ज नहीं हैं। दिल्ली में 2013 के अप्रैल तक 29,123 ई रिक्शा दर्ज हैं। अब हाथ रिक्शा और ई रिक्शा के बीच द्वंद्व शुरू हो चुका है।

Wednesday, January 23, 2019

उद्देश्य का ताकत



कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘कारणं बिना न कार्यंयूज्यते।’’ न्याय दर्शन के इन सूत्र को समझने की कोशिश करें तो देख और समझ सकते हैं कि बिना किया कारण यानी उद्देश्य के कोई भी काम नहीं होता। यानी बिना कारण के हम कुछ भी नहीं करते। न हम सांस लेते हैं, कोई काम करते हैं और न ही हम किसी पर हंसते ही हैं। कोई न कोई कारण या प्रयोजन और उद्देश्य होता है जिससे हमारा व्यवहार संचालित होता है। हमारा हर वक्तव्य, गति और व्यवहार हमारे उद्देश्य की पूर्ति से प्रभावित और असर के घेरे में होते हैंं। बिना मकसद और औचित्य के हम कुछ भी नहीं किया करते हैं।
हमारे जीवन की असफलता का राज़ ही यही है कि हम अपने रोज़ के जीवन में कई सारे काम बिना उद्देश्य किया करते हैं। यदि उद्देश्य हो तो शायद हम कई सारे कामों को न करने की सूची में डाल दें। लेकिन दिक्कत यहीं आती है कि हम कई बार यह तय नहीं कर पाते कि कौन सा काम और कौन सा कदम हमारे लिए ज़रूरी है और कौन सा काम जिसे हम नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। हम अपने उद्देश्य के निर्धारण में इतने उतावले और अधीर होते हैं कि तात्कालिक उद्ेश्य को पाने में अपनी पूरी ताकत लगा दिया करते हैं। होता यह है कि जिसमें हमें पूरी क्षमता लगानी थी वह अधूरी रह गई। और असफलता हमारे हाथ आती है और शुरू होता है शिकायतों और आरोपों का खेल।
हमारे उद्देश्य कई बार हम नहीं बल्कि हमारे अग्रज तय किया करते हैं। मां-बाप, यार दोस्त और कई बार हमारे गुरू। होता यह है कि यदि कोई पूछ बैठे कि क्यों कर रहे हो? क्यों बीएउ कर रहे हो? क्यों डॉक्टर बनना चाहते हो आदि तो हमारा जवाब होता है क्योंकि पिता चाहते थे। क्योंकि चाचा या बुआ ने बताया था। या फिर सारे दोस्तों ने उसी कोर्स के लिए फार्म भरे थे सो मैं ने भी भर दिया। यानी एक बात स्पष्ट है कि आपके उद्देश्य कोई और तय कर रहे थे। आप तो उस ओर जाना ही नहीं चाहते थे। क्योंकि औरों ने बताया और देखा तो उस राह पर चल पड़े। वर्षां गुजारने के बाद महसूस होता है कि मैंने तो यह बनना ही नहीं चाहता था। यह तो उनकी इच्छा थी। उनकी चाहत थी कि मैं इस क्षेत्र में आउं। तो आप क्या चाहते थे यह सवाल आपको परेशान करनी चाहिए।
एक शोध हुआ था जिसमें मनोवैज्ञानिक ने विश्व के तकरीबन 4000 ऐसे लोगों से साक्षात्कार किया जो अपने जीवन और कार्य में सफल माने गए। भारत से गांधी जी को शामिल किया गया था। इस शोध में खिलाड़ी, संगीतकार, कलाकार, पत्रकार, मजदूर आदि शामिल थे। कोशिश यह की गई थी कि समाज के सभी क्षेत्रो के प्रतिनिधियों को इस अध्ययन का हिस्सा बनाया जाए। लेखिका व शोधकर्त्री ने बताया कि अधिकांश लोगों ने बताया कि उनकी लाईफ के पर्पस यानी मकसद किसी और ने तय किए थे लेकिन अपने जीवन और क्षमता को पहचान कर उन लोगों ने अपने लक्ष्य और उद्देश्य को दुबारा लिखा और जीया। एक बडत्र संगीतकार, गिटारवादक जो आगे चल कर एक रसोईया बना और उस काम में उसे प्रसिद्ध ऐेसी मिली कि अमरिका के उच्च सदन में उसे सम्मानित किया गया। उसने बताया कि हम अपनी रूचि और ताकत को पहचाने बगैर पूरी ज़िंदगी दूसरों के उद्देश्यों पूरा करने मे लगा देते हैं। मैंने एक दिन महसूस किया मुझे खाना बनाने में आनंद आता है। रूचि भी जगी और संगीत गिटार छोड़कर कूक में आ गया। ऐसे में हमारे जीवन में कई उदाहरण मिलेंगे जो पूरी जिं़दगी जिस काम में गुजार देते हैं उनके पूछ लीजिए क्या कहते हैं जो उनका कहना होता है मैं तो करना कुछ चाहता था। लेकिन पूरी ज़िदगी गलत क्षेत्र में रहा। काश उस क्षेत्र में रहता तो ज़्यादा आगे बढ़ पाता।
हमारे जीवन की कथा ही यही है कि जाना कहीं और चाहते हैं किन्तु रेलगाड़ी किसी दूसरी दिशा की पकड़ लेते हैं। उस तुर्रा यह कि गुमान कितना बड़ा होता। तोहमत किसी और पर मढ़ा करते हैं। अपनी गलती को दोषी किसी और और परिस्थितियों को ठहराया करते हैंं। यदि हमारा उद्दश्य स्पष्ट होता तो कोई वज़ह नहीं कि हम सफल नहीं होते। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं जब हमारे जीवन का लक्ष्य और उद्देरू किसी और के प्रभाव और आकर्षण से निर्धारित होते हैं तो ऐसे में शायद हम अपने लक्ष्य और उद्देश्य से मुहब्बत भी नहीं कर पाते। बिना रूचि और उत्साह के जिस काम को कर रहे हैं उसमें सफलता कितनी हासिल होगी इसमें संदेह हमेशा ही रहेगा।
मैंनेजमेंट गुरू की मानें तो कोई भी सफल व्यक्ति और प्रोजेक्ट तभी सफल और मुकम्मल होता है जब हम शुरू में अनुमानित संकटों और अवरोधों का आकलन कर उससे निपटने की योजना भी बना लेते हैं। हमेशा बल्कि समय समय पर उद्देश्य हासिल करने के रास्ते और रणनीति का मूल्यांकन और पुनर्मूल्याकन करते रहते हैं। यदि हमारा रास्ता ही गलत है तो वह योजना व प्रोजेक्ट को विफल होना ही हैं। अपने जिस लक्ष्य व उद्देश्य को पाना चाहते हैं उसके अनुरूप हमें रणनीति और कार्ययोजना निर्माण बेहद ज़रूरी है। इसके बगैर हम अपने लक्ष्य व उद्देश्य से काफी दूर रहेंगे। हमेशा ही हमें अपने जीवन से शिकायत रहेंगी। दरअसल हम अपने जीवन में कई सारे काम सिर्फ दूसरों को दिखाने और खुश करने के लिए किया करते हैं। इसमें बॉस, अभिभावक, परिवेश सभी शामिल हैं। इसमें हमारी खुद की खुशी और इच्छा कहीं पीछे छूट जाती है। और शिकायत किया करते हैं हमने अपने जीवन में तो यह चाहा था वह चाहा था आदि। हमें अपने जीवन और कार्यक्षेत्र से क्या उद्देश्य है? क्या चाहते हैं यह यदि स्पष्ट हो तो काफी मसले खुद ब खुद हल हो जाते हैं।

Sunday, January 20, 2019

मुश्किल में कौन साथ है पहचान ज़रूरी



कौशलेंद्र प्रपन्न
संस्कृत साहित्य में एक मंत्र है ‘‘संकट में तीन लोगों की पहचान होती है पत्नी, दोस्त’’ और तीसरी मुझे याद नहीं आ रहा है। यह बात काफी हद तक जायद भी है। सचमुच मुश्किल घड़ी में ही इन लोगों की पहचान होती है। पत्नी और दोस्त की। यदि कोई संकट की घड़ी आए तो ऐसी स्थिति में पत्नी और दोस्तों की पहचान होती है। यदि कोई मुश्किल स्थिति आती है और यदि ये लोग साथ नहीं देते तो दोस्तों की पहचान हो जाती है। इसमें न केवल दोस्तों की बल्कि पत्नी की भी पहचान होती है।
जीवन ही है। इसी जीवन में हर बार एक ही स्थिति नहीं होती। बल्कि कभी भी ऐसी स्थिति आ सकती है। जब आप होस्पीटल में होते हैं तब कौन आपके साथ खड़ा है? यह पहचान आपकी होनी चाहिए। पत्नी क्योंकि आपकी है तो वो तो होस्पीटल में होगी ही। किन्तु दोस्तों में से कौन अस्पताल में आता है इसकी पहचान करनी होगी। जो लोग फोन पर पूछते हैं कि ‘‘कोई मदद की ज़रूरत हो तो बताना।’’ लेकिन वो कहने के लिए कह रहे हैं इसे समझिए।
यदि रात में रूकना हो तो शायद उन दोस्तों और परिचितों में से काफी लोग पीछे हट सकते हैं। इन्हीं वक़्तों में पहचान होती है। जब आपके दोस्त या परिवार के लोग आपके साथ अस्पताल में नहीं रूकते  तभी आपको लगता है आप, बिल्कुल अकेले हैं। आपके साथ कोई नहीं है। आप निपट अकेले हैं। कोई आपके साथ नहीं है। पत्नी है तो उसकी अपनी सीमाएं हैं। मगर जो लोग दोस्त होने का दंभ भरते हैं उन्हें पहचानने की जरूरत है।
जब भी हम संकट में होते हैं हमें कई सारे लोग याद आते हैं। हमें लगता है ये सारे लोग हमारे साथ हैं। लेकिन हक़ीकतन ऐसा नहीं होता। हर कोई बस फूल फल लेकर आते हैं। लेकिन जब वास्तव में डिस्चार्ज के वक़्त ज़रूरत पड़ती है तब हम अकेला होते हैं। यह स्थिति बड़ी भयावह है। मुझे याद आता है, मेरे पड़ोस के चचा जी आए और कहा मैंन स्टेशन छोड़ने चलूंगा। और उन्होंने इसे निभाया। उनकी उम्र नब्बे पार की है। तब लगा हम कैसे समय में जी रहे हैं।

Friday, January 18, 2019

अन्न दान करते वो लोग



कौशलेंद्र प्रपन्न
सिमरन नाम है उस युवा का। जो अपने साथ चार और साथियों के साथ सफ़दरजं़ग अस्पताल के बाहर रोगियों के साथ आए अन्य सेवाटहल करने वालों और सड़क पर सोने वालों के लिए शुक्रवार के शुक्रवार भोजन बांटा करते हैं। इस सर्दी पर पूरी दिल्ली सोने की तैयारी कर रही हो उसमें कोई है जो भूखों के लिए भोजन लेकर खड़ा है। उस भोजन को हासिल करने के लिए कम से कम सौ लोग तो लाईन में लगे ही हैं। शायद यह किसी तथाकथित महाकुंभ में स्नान करने से ज़्यादा फलदायी कर्म है।
किसे नहीं मालूम कि सफ़दरज़ंग हो या एम्स यहां लंबी कतारें मर्ज़ दिखाने वालों रोगियों के साथ आने वालों की भी दशा कोई ख़ास ठीक नहीं होती। वो भी तब जब रोगी उत्तराखंड़, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों से आता है। उसके लिए पटरी पर ही बसर करना लिखा होता है। यदि उसकी जेब भारी है तो वह लॉज, होटल, या फिर अन्य जगहों पर भी रातों काट लिया करता है। लेकिन जो पहले ही सुविधा से हीन हैं। जिन्हें रोगी के इलाज के लिए मकान, दुकान, खेत भी बेचना पड़ता है वह इलाज में पैसे लगाए या फिर किसी होटल में रहने में। एम्स के बाहर सोने वाले वालों कई बार न्यूज चैनल में स्टोरी कवर की गई। किन्तु सरकारें आती जाती रहीं। उनके लिए वही पटरी आज भी है और कल भी वही बसेरा हुआ करता था।
सिक्ख समुदाय के सिमरन ने बताया कि हर शुक्रवार को शाम दो घंटे इनलोगों को भोजन बांटा करते हैं। आलोचना से परे क्या हम सोच सकते हैं कि जो लेग एक रात के जागरण में लाखों का स्वाहा कर दिया करते हैं। काश वो लेग इन जगहों पर सचमुच के नर सेवा कर पाते। तो संभव है नारायण सेवा भी इसी में शामिल हो जाए। लेकिन नहीं हमारी िंज़द्द है कि हम इन कार्यां में पैसे लगाने की बजाए फलां मंदिर, फलां मूर्ति पर ज़्यादा ध्यान दिया करते हैं। कहने वाले कह सकते हैं कि यह तो सरकार करे उसके जिम्मे ऐसी सुविधाएं मुहैया कराना है। स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा आदि। लेकिन कभी सरकार के समानांतर हम भी कुछ कर सकते हैं जिससे वास्तव में ज़रूरतमंदों की मदद मिल सकती है।

Thursday, January 17, 2019

ऑपरेशन टले तो मरीज़ बढ़ेंगे


कौशलेंद्र प्रपन्न
जैसे हम मॉल्स जाया करते हैं। वैसे ही हमें कई बार अस्पताल जाना होता है। जाना ही नहीं बल्कि कई बार रात दिन रूकना भी पड़ता है। इस दौरान हमारी समझ तो यही बनती है कि डॉक्टर अपना काम मजबूती से करे। छूट्टी न ले। ऑपरेशन समय पर करे। लेकिन जब उसके पास तय ऑपरेशन से ज्यादा मरीज खड़ें हो तो क्या कहेंगे। फर्ज कीजिए आपका नंबर था आज ऑपरेशन होना है। लेकिन उसी दौरान कोई अन्य क्रीटिकल मरीज आ जाए तो हमें डॉक्टर की स्थिति को समझना चाहिए।
एक डॉक्टर कितने घंटे बिना थके। बिना उफ्््!!! तक किए ऑपरेशन कर सकता है। उसे भी मानवीय थकन तो घेरती होगी। जब वह ऑपरेशन कक्ष में जाता है तब उसे भी मालूम नहीं होता कि वह कब बाहर आएगा। कई बार अनुमान से ज्यादा बड़ी बीमारी की स्थिति उसके सामने प्रकठट हो जाती है। ऐसे में वह तमाम जरूरी और महत्वपूर्ण कामों और पूर्व तय कामों को ताख पर रख देता है।
हमारा डॉक्टर किन हालात में ऑपरेशन कक्ष में जाता है इसका हमें शायद अंदाज भी नहीं होता। लेकिन वह बड़ी ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करता है। हालांकि इसी समाज में डॉक्टरी पेशे से भी ऐसी ऐसी ख़बरें आती हैं जिन्हें सुन और देख कर ताज्जुब होता है कि कैसे कैसे डॉक्टर इस पेशे में आ गए हैं। जिन्हें ऑपरेशन करना था दाई टांग की लेकन तनाव या दबाव या फिर काम के दबाव में बिना पूरी तरह से जांच किए ग़लत ऑपरेशन कर देते हैं।
जैसे अन्य पेशों में हड़ताल हुआ करते हैं। वैसे ही इस प्रोफेशन में भी विभिन्न मांगों और सेवाओं के लिए हड़ताल होना स्वभाविक है। लेकिन जब ये लोग सेवा में लौटते हैं वैसे ही फाइलों की तरह ही मरीजों की लंबी फेहरिस्त हो जाती है। जिन्हें ऑपरेट या उपचार करना होता है। जो भी हो। हर पेशे की कुछ सावधानियां और जिम्मेदारियां हुआ करती हैं। जिन्हें पूरा ही करना होता है। डॉक्टर की जिम्मेदारी तो यही हेती है कि वो मरीज का उपचार ठीक करें।

Wednesday, January 16, 2019

सवाल बहादुर



कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल ही में एक शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशाला में अनुभव हुआ। साहब सवाल पर सवाल दागें जा रहे थे। सवालां की प्रकृति का जब विश्लेषण किया तो मालूम चला दरअसल वो सवालों के मार्फत मेरी इल्म और ज्ञान का थाह लगाना चाह रहे हैं। साथ ही यह स्थापित करना चाह रहे हैं कि वो सब कुछ जानते हैंं। और जो बताया जा रहा है कि वह ग़लत और उनके स्तर का नहीं है। इसे साबित करने में पूरी ताकत झांक रहे थे। बीच बीच में अपनी नकारात्मक मुंडी भी संचालित कर रहे थे। उन्हें स्थापित करना था कि उन्हें सब कुछ आता है। और बेहतर आता है। जो भी बताया जा रहा है वह तुच्छ है। उन्हें तो आता ही है और अच्छे से आता हैं।
उन्होंने सत्र को न चलने देने का प्रण ले रखा था। बार बार कहते कि आप ऐसा क्यों बता रहे हैं, कैसे बता रहे हैं, यह तो ऐसे होता है। वैसे होते है आदि आदि। उन्होंने उस कार्यशाला में अन्य सहभागी को भी अपने इस अभियान में शामिल किया। और लिख और बोलकर किसी भी सूरत में सत्र को आगे कैसे नहीं चलने देना है इसमें अपनी पूरी क्षमता लगा रहे थे।
मैंने उन्हें सम्मान देते हुए सत्र में खड़ा किया आप जो कॉपी पर लिख और बोल रहे हैं अपनी राय यहां सब के सामने रखें तो सबको समझने में आसानी होगी। जनाब बोर्ड़ के समक्ष आए और पूर्व ज्ञान के आधार पर लिखने लगे। बोलने लगे और अपने ज्ञान को स्थापित करने लगे। सत्र में शामिल अन्य लोग या तो अरूचि के शिकार होने लगे या फिर उन्हें लगने लगा वो जो पढ़ा रहे हैं वह सत्यापित है।
मैंने उन्हें लगभग पंद्रह मिनट दिया। लेकिन जब लगने लगा कि ये साहब सिर्फ और सिर्फ आत्मपहचान स्थापित करना चाहते हैं। तब मैंने उन्हें रोका और बोला कि अब और मैं अपने अन्य प्रतिभागियों को खो नहीं सकता। और क्योंकि मैं इस कार्यशाला का जिम्मेदार हूं तो मेरी कुछ योजनाएं हैं जिन्हें मैं बीच रास्ते में दम तोड़ते नहीं देख सकता। सो आप बैठ जाएं और मेरे कंटेंट को आगे बढ़ने दें।
लेकिन वो साहब थे कि अपनी आदत से बाज़ नहीं आ रहे थे।  अंत में कोशिश की कि वो मान जाएं। किन्तु आदतें ऐसे एक दिन में कहां जाती हैं। वो जारी रहे। मैंने में अंत में उन्हें कक्षा से बाहर किया। हालांकि ऐसा करना नहीं चाहता था लेकिन अन्य के हित को ध्यान में रखते हुए उन्हें निवेदन किया और शायद मैं आपकी अपेक्षा और उम्मीद से नीचे हूं सो आप को यदि लगता है कि मेरा कंटेंट आपके स्तर का नहीं है ता आप कक्षा से बाहर जा सकते हैं।
जबकि यह समाधान मुझे अन्य प्रतिभागियों के हित में लेना पड़ा। ऐसे आत्मप्रचार वाले लोग हुआ करते हैं। उनके अनुसार यदि आपने सत्र को बहने दिया तो आपकी योजना और गतिविधियां राह में ही दम तोड़ देती हैं। सवाल पूछना और पूछने के मकसद को को पहचानना चाहिए। और सत्र को हाईजेक होने और आत्मप्रचार से बचाने की आवश्यकता होती है।

Saturday, January 12, 2019

आया फटकार का मौसम


कौशलेंद्र प्रपन्न
हर भाव और बातों का एक मौसम ख़ासकर मुकर्रर होता है। जैसे हमारी ऋतुएं तय समय पर आती हैं यह अलग बात है कि आज कल मौसम में भी समय सीमा पर नहीं आया करते। सर्दी देर से आती है। गरमी कुछ ज्यादा ही उतावली होती है। आ धमकती है मार्च ख़त्म होते होते। और बसंत तो ऐसा ही है। कोयल तो बेमौसम भी...। सब का चक्र सब बदल चुका है। दफ्तरों में भी एक मौसम ख़ास होता है। यह मौसम साल में एक बार आता है। वह मौसम है एप्रेजल का। यह मौसम है डांट डपट का। मौसम पर कर्मियों पर चढ़ जाने का। कर्मियों के हौसले को तोड़ना का मौसम भी शुरू हो जाता है जनवरी और फरवरी में। हमारा कर्मी आवाज़ न उठाए। हमारा कर्मी जिसने साल भी देह तोड़कर काम किया। इससे पहले की वह एप्रेजल में बढ़ोत्तरी की मांग न करे इसलिए यही वक़्त होता है हौसले को धांस देने का। उन्हें मॉरल स्तर पर ऐसे तोड़ा जाए कि मार्च और अप्रैल में बकार न निकाल सके कि इतना ही एप्रेजल हुआ।
दरअसल कर्मी पूरे साल मनोयोग से काम करता है। अपनी क्षमता से बाहर जा कर भी काम में नई उड़ान लाने की कोशिश करता है। एक उम्मीद होती है कि अगले साल पगार में अच्छी ख़बर होगी। लेकिन स्वनाधन्य और स्थापित मैनेजर और रिपोर्टिंग मैनेजर भी इसी ताक में रहते हैंं कि कहीं उनकी दक्षता पर सवाल न खड़ा हो। बस इस मौसम का लाभ उठाने से नहीं बचते। अपने कर्मियों के साल भर का काम का मूल्यांकन शुरू होता है। बताया जाता है कि पूरे साल तुमने क्या किया? कितना किया? क्या क्या तुम्हारे हिस्से में तय काम थे उसमें से कितने काम रास्ते में ही हैं। तुमने तो कुछ किया ही नहीं। तुमने तो वायदे किए थे कि ये कर दोगे। वो कर दोगे लेकिन तुमसे कुछ भी न हो सका। यही वो रिव्यू प्रक्रिया है जिसमें कर्मी के आत्मबल को ध्वस्त किया जाता है।
कंपनी के नए निज़ाम के कंधे पर तो दोहरी जिम्मेदारी होती है। उन्हें अपने बॉस के साथ ही कंपनी के नियंताओं के कृपापात्र भी विश्वासभाजक बनाना भी होता है। ऐसे में वह कई तरह की पहलकदमियां किया करता है। जो काम हुआ भी नहीं उसे नए सिरे से पेश कर अपना नंबर बनाना चाहता है। पिछले कामों को धत्ता बताते हुए अपनी अस्मिता और पहचान स्थिर करने के लिए किसी की पीठ छीलनी पड़े तो उसमें भी ये नए निज़ाम पीछे नहीं हटते।
यह एप्रेजल का मौसम भी अजीब है। एक दूसरे से दूर करने में बड़ी भूमिका निभाता है। जो पूरे साल साथ काम किया करते थे। साथ खाना खाया करते थे। उन्हें अचानक डर घेर लेता है कि कहीं फलां के साथ न देख लिया जाए। गलत असर पड़ेगा। हर कर्मी अपनी पीठ के घाव और चाबूक के दाग को छुपाना चाहता है। कोई भी पीठ पर पड़ी मार रिव्यू के कैसे दिखाए। सब के सामने अच्छा बनने के लिए वह हमेश चेहरे पर एक मुसकान चस्पा रखता है। कहीं देखकर लोग बता न दें कि निज़ाम को या फलां कर्मी की पीठ पर कितने निशान हैं।
इन फटकारों के मौसम के आने से पहले या गुजर जाने के बाद कंपनी से कई कर्मी अपना रास्ता अगल कर लिया करते हैंं। जब चाबूक की मार ही सहनी है तो क्यों न अपने पैसे पर सहा जाए। यदि गांट फटकार सुनने-सुनाने का कोई तय सीमा नहीं है तो बेहतर है किसी और दुकान में अपनी दक्षता बेची जाए। और इस तरह से बेहतर मानव संसाधन एक कंपनी से कूच कर जाता है। वैसे नए निज़ाम पर  इससे कोई ख़ास अंतर नहीं पड़ने वाला क्योंकि उसे लगता है उसे अंदर काम करने वाले निहायत ही नकारे और असक्षम हैं। ये चले जाएं तो ही बेहतर है।

Wednesday, January 9, 2019

सीख ली तुम्हारी भाषा


कौशलेंद्र प्रपन्न
सीख ली मैंने भी तुम्हारी भाषा। तुम्हारी ही जबान अब मैं भी बोल सकता हूं। बोल सकता हूं तुम्हारी ही तरह कई तरह के जुमले। कई तरह की ख़ास शब्दावलियां भी अब मेरे पास आ गई हैं। आ गई हैं वो कौशल जिसमें तुम मुझसे आगे थी। आगे थी तुम्हारी गति और तुम्हारी स्वीकार्यता। इन्हीं भाषाओं के आधार पर ही तो तुम मुझे नीचा दिखाया करती थी। तुम्हीं क्यों मैनेजमेंट भी सोचती थी कि तुम्हारे पास वो लैंग्वेज नहीं है जिससे पीपुल मैनेजमेंट में यूज की जाती है। वो भाषा नहीं है जिसमें हम लोग काम किया करते हैं। और तुम्हीं हो जिसके पास वो भाषा नहीं है।
मैंने भी कोशिश की कि तुम्हारी भाषा बोलने और लिखने लगूं। तुम्हारे पास वो भाषा है जिसमें मैनेजमेंट काम किया करता है। जिस भाषा में दुनिया काम किया करती है। मैंने कोशिश की कि मैं भी वो भाषा सीख लूं जिसमें वो लोग काम करते हैं।
तुम्हारी भाषा में जब से बोलने लगा हूं तब से तुम्हें भी ऐसा लगने लगा है ये तो मेरी भाषा सीख में बातें करने लगा है। ये तो वो तमाम शो कॉल्ड मैनेजमेंट के टर्मस हैं। ये कैसे हुआ? ये भी जब हमारी भाषा में बोलने और लिखने लगेगा तो गजब है। जबकि भाषा पर किसी का एकाधिकार नहीं होता है। जो भी प्रयास और अभ्यास करेगा उसे भाषायी कौशल तो हासिल होंगी ही। मेरी लिखी भाषा पर तुम्हें ताज्जूब हुआ कि ये कैसे मेरी भाषा लिख सकता है? कब इसने सीखी हमारी भाषा।
जो भी हो भाषा हो या कोई अन्य दक्षता अभ्यास से अर्जित कर सकते हैं। सीख सकते हैं दुनिया की कोई भी भाषा बस जज्बे और अभ्यास, लगन और प्रयास जरूरी है। आप किस भाषा में बोल और लिख रहे हैं आज की तारीख़ में सभी की नज़र रहती है। जैसे ही आप उनकी बनाई पूर्वग्रह को तोड़ते हैं वैसे ही महसूस होता है कि ये क्या हुआ? क्या इसने भी हमारी भाषा को बरतना सीख लिया क्या। जबकि दुनिया की हर भाषा हमारी है और हम उस भाषा के हैं।

Tuesday, January 8, 2019

असफलता के डर से आगे


कौशलेंद्र प्रपन्न
निवेश सिर्फ रुपए पैसों का ही नहीं होता। और न केवल जमीन जायदाद का। बल्कि डर भी निवेश करने योग्य ऐसी भाव दशा है जिसपर खुल कर और समझकर निवेश किया जा सकता है। मौत से कौन नहीं डरता। सभी को मरने से डर लगता है। यही वजह है कि मरने को कैसे टाला जा सकता है कुछ देर के लिए ही सही पूरा का पूरा बाजार इसे साकार करने में लगा है। पहले डर को बढ़ाएं और इतना बढ़ाएं कि लोग उस डर से छूटकारा पाने के लिए आपके पास आएं। शिक्षा और परीक्षा को पहले डरवानी साबित किया जाए और फिर एक्जाम डर से कैसे बचें आपके बच्चे इसके लिए वर्कशॉप उपलब्ध कराने वाली दुकानें खुली हुई हैं। जो परीक्षा के भय से कैसे बचा जाए इसके मंत्र सीखाया करते हैं। ठीक उसी तरह कई तरह के डर हमें हमेशा अपनी गिरफ्त में लेने के लिए तैयार बैठें हैं। कभी जीवन में आगे बढ़ने का डर। कभी न बोल पाने का डर। तो कभी जॉब पर जाने का डर। आदि।
डर का समाज शास्त्र और दर्शन को समझे ंतो पाएंगे कि कई बार डर अच्छा भी होता है। अगर जीवन में असफल होने व फेल होने का डर खत्म हो जाए तो संभव है हम प्रयास करना छोड़ दें। हम सावधान न रहें। शायद वेद में निर्भय होना कहा गया है। लेकिन निर्भय होना कई बार हमें असावधान और लापरवाह बना देता है। जैसे ही लापरवाही हुई नहीं कि दुर्घटना घटती है। अगर चौकन्ने हुए और असफल होने से डरे तो हम सावधान भी रहेंगे। शेर और खरगोश की कहानी में यही तो हुआ। शेर के जीवन और दिल से डर खत्म हो गया था। उसे इतना ज्यादा आत्मविश्वास हो गया था कि वह अपने ही अहम में मारा गया। ठीक उसी प्रकार जब हमारे अंदर भय खत्म हो जाता है और स्थिर होकर मंथन नहीं कर सकते तभी हम हारा करते हैं।
आज कई प्रकार का डर हमारे सामने है। जॉब का डर। बीमारी का डर। और आगे बढ़ने का डर। जब रास्ते में व्यवधान आता है तब हम उस डर का कदम नहीं उठाते। हम अपने सुरक्षित जगह पर ही बने रहना चाहते हैं। यही वो डर है जिसकी वजह से हम आगे नहीं बढ़ पाते। हालांकि संस्कृत साहित्य में स्पष्टतौर पर कहा गया है जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर भागता है वह उचित नहीं। कम से कम निश्चित को तो बनाए रखना चाहिए। लेकिन कई बार यही निश्चितता हमें आगे बढ़ने से रोकती भी है। अनिश्चित सही है कि अंधेरे में है। असफलता संभाव्य है लेकिन यदि संतुष्ट होकर बैठ गए और निश्चित को पकड़कर बैठे रहे तो हमारी प्रगति कहीं न कहीं प्रभावित होती है।
दुनिया में जो भी डर से मुक्त हो सका है उसके जीवन में प्रगति की लव जली हैं। वह आगे ही बढ़ा है। जो डर कर बैठ गया वह वहीं स्थिर रह जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो असफलता से डर गया वह क्या ख़ाक आगे बढ़ेगा।

Friday, January 4, 2019

मेला ए पुस्तक दिल्ली नगरे...



कौशलेंद्र प्रपन्न
आज की तारीख़ में लेखकों की बाढ़ आ चुकी है, इसे मानने और स्वीकारने में किसी को भी गुरेज़ नहीं है। लेकिन देखना यह है कि उन लेखन में क्या और कितने हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, शंकर पुणतांबेकर, मृदुला गर्ग आदि निकलने पाते हैं। सदि तुलना करें तो पाएंगे कि पहले लेखक अपनी रचना और लेखन पर वक़्त बिताया करते थे। उन्हें संपादन करने वाले संपादक चुस्ते के साथ संपादित कर उन्हें मार्गदर्शन किया करते थे। किन्तु जैसे जैसे तकनीक का विकास हुआ वैसे वैसे नवलेखकों को विभिन्न स्तरों और स्वरूप में लिखने और प्रकाशित होने का अवसर मिला। यहां लेखक ही संपादक है। एक ही व्यक्ति संपादकख् लेखक, पाठक भी हुआ करता है और आलोचक भी। यहां संपादकीय सत्ता की कमी कहीं न कहीं रचना की गुणवत्ता को तय करने लगीं।
यादा हो कभी ऑरकूट भी अभिव्यक्ति का एक मंच आया। धीरे धीरे वहां भी लेखकों की बाढ़ आई। समय और तकनीक के बयार में वहां बिला गया। फेसबुक, ब्लॉग, ट्वीटर आदि सेशल मीडिया का अभिव्यक्ति का मंच मिला। इन खुले मंचों पर कोई भी लेखक अपनी रचना पोस्ट कर सकता है। उन कंटेंट पर अन्य अपनी राय देने में स्वतंत्र हैं। लेकिन यहां देखने वाली बात यह मौजू है कि टिप्पणियों में निजी राय, राग भी शामिल होते हैं। साथ ही यह भी देखा और पढ़ा जा रहा है कि किस व्यक्ति को इन मंचों पर बदनाम किया जाए व किसे तवज्जो देकर उसे प्रसिद्ध करना यह एक व्यापक अभियान के तौर पर चलाते समूह भी सक्रिय हैं। इन्हें भी हमें समझना होगा।
इन विश्व पुस्तक मेलों में क्या क्या और किस प्रकार सार्थक काम होते हैं इस पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि ऐसे ऐसे लेखकों से बातचीत करने, चर्चा करने का अवसर मिलता है जो सदूर प्रांतों और दुर्गम क्षेत्रों में रहकर सक्रियता के साथ लेखन में लगे हुए हैं। हम पाते हैं कि ऐसे भी लेखक हैं जो महज लिखने में विश्वास किया करते हैं। छपने की ओर प्रेरित करने के लिए उने शुभचिंतक उन्हें मोटिवेट किया करते हैं। लेखकीय कर्म को करीब से देखने, महसूसने और जानने का अवसर कुछ ऐसे पल हुआ करते हैं जो अप्रतीम माना जा सकता है।
आज की तल्ख़ हक़ीकत यह है कि बहुत कम लोग पढ़ना चाहते हैं लेकिन लिखना हर कोई चाहता है। चाहता है कि रातों रात लेखक बन जाए। किन्तु वह उसके अनुरूप अभ्यास और प्रयास कम करता है। बेंजामिल फ्रैंक्लीन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि वो जन्मना लेखक नहीं थे। उन्होंने अभ्यास के ज़रिए लेखकीय ताकत अर्जित किए। उन्होंने हप्ते, माह, साल लगाए और अभ्यास किया कैसे बेहतर लिखा जाए। और अभ्यास के मार्फत आज वो प्रतिष्ठित और स्थापित लेखक बन पाए। लेकिन आज के लेखक और लेखन कर्म में तुरंत फल की कामना करने वाले लेखक तुरत फुरत में सफलता हासिल करना चाहते हैं। अभ्यास की कमी और स्वाध्याय में कोताही कई बार लेखक को दोयमदर्ज़े का लेखक ही बना पाता है।


Wednesday, January 2, 2019

रूचि लेकर पढ़ें, पढ़ाएं साहित्य


कौशलेंद्र प्रपन्न
साहित्य शिक्षण और पठन में हमारा मुख्य मकसद क्या उन्हें कविता, कहानी पढ़ाना है या फिर साहित्य पढ़ाते वक़्त उन्हें समाज और संवेदनशील बनाना है। जब बच्चा एक मां की बेबसी या फिर बच्चे काम पर जा रहे हैं, पढ़ता है तो कहीं न कहीं बच्चा न केवल आनंद हासिल करेगा बल्कि अपने परिवेश और समाज के प्रति सजग होगा। कविता को पढ़ाते वक़्त अकसर लोग सवाल उठाते हैं व मानते हैं कि कविता पढ़ाने-पढ़ने का मकसद आनंद प्रदान करना है। क्या कविता महज आनंद प्रदान करना है? क्या कविताएं सिर्फ कवि का क्या आशय है आदि के जवाब तक महदूद करना है आदि। दरअसल आज जिस तदाद में कविता कहानियां लिखी जा रही हैं, उन्हें पढ़ने और समझने वाले ख़ासा कम हैं। जो पढ़ते हैं वो या तो पत्रकार हैं, कवि हैं, समीक्षक हैं आदि। लेकिन शुद्ध व सिर्फ पढ़कर आनंद लेने के उद्देश्य से कम लोग पढ़ा करते हैं।
प्राथमिक स्तर पर व कहे लें आरम्भिक तालीम में पढ़ने और पढ़ाने की क्षमता व स्वरूप एकदम भिन्न पाया जाता है। हमारे अधिकांश शिक्षक व शिक्षिकाएं कहानी, कविता पढ़ाने के दौरान सिर्फ पाठ्यपुस्तकों तक सीमित रह जाते हैं। हमारी कोशिश शायद यह होनी चाहिए जो कहीं न कहीं बच्चों में साहित्य पढ़ने के प्रति ललक पैदा करें। यदि बच्चे आनंद व रूचि लेकर पढ़ना सीख लेंगे तब हमें इस बात की वाकलत करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी कि साहित्य पढ़ना चाहिए। हमें भाषायी संस्कार मिलता है, हमारी भाषायी संपदा में बढ़ोत्तरी होती है। बच्चा एक बार पढ़नें में रूचि लेने लगेगा तब हमें ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।
बेंजामिन फैं्रक्लीन विश्व के ख़्यात लेखक का मानना है कि वो प्रकृतितः लेखक नहीं थे बल्कि उन्होंने लिखना सश्रम सीखा। शुरू में वो अपने पसंदीदा पत्रिका के अपने प्रिय लेखक के आलेख को पढ़ते थे। पढ़ने के बाद दुबारा उसे लिखा करते थे। लिखने के बाद मूल रचना से मिलान किया करते थे। कहां किस प्रकार की चूक रह गई उसे गोला लगाते थे। तीन चार बार भी लिखा करते थे। और दिन, माह, वर्षों उन्होंने अभ्यास किया। इसी का परिणाम है कि आज उनका नाम, उनकी रचना को ससम्मान हम पढ़ा करते हैं। नए व जो लेखक बनना चाहते हैं व लेखन करना चाहते हैं वो इतनी शिद्दत से अभ्यास से बचते हैं। यही कारण है कि वो अपने क्षेत्र में दोयमदर्ज़े के लेखक ही बन पाते हैं।
हमारे बच्चे कैसे लिखना शुरू करें, कैसे अपनी कविता, कहानी, लेख को मॉजें, और परिष्कृत करें यह ख़ासा महत्वपूर्ण है। हमें नई पौध तैयार करनी करनी है तो उन्हें मागदर्शन भी करना होगा। स्वयं उन्हें पढ़ते हुए, लिखते हुए दिखाना भी चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षक स्वयं भी लिखें, पढ़ें, कुछ वक़्त किताब के साथ बिताता हुआ नज़र भी आए। यहीं से बच्चों में भी रूचि लेकर लिखने, पढ़ने की आदत संक्रमित हो सकती है।

Tuesday, January 1, 2019

करें कोई भी काम रूचि बनाए रखें, छूटे न उम्मींद का दामन


कौशलेंद्र प्रपन्न
हम काम तो करते ही हैं। काम से उम्मींद भी पाल ही लेते हैं। ये काम हो जाएगा तो वह पा लूंगा। वह कर लूंगा तो वहां जा पहुंचूंगा। आदि आदि। कई लोग ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ और सिर्फ सपने देखा करते हैं। उनके जीवन में झांकें तो पाएंगे कि सपनों को पूरा करने के लिए उनके पास न अभ्यास है, न रूचि रह जाती है और न ही अंत तक आते आते उम्मींद ही बची रहती है। और देखते ही देखते उनकी तमाम मेहनत पर पानी गिर जाता है। सपने चकनाचूर हो जाते हैं।
किसी भी मंज़िल को हासिल करने के लिए काम में रूचि होना निहायत ही ज़रूरी है। जब हम स्वयं अपने काम में रूचि लेंगे तो उसके बारे में लगातार सोचा करेंगे। हमेशा योजनाएं बनाया करेंगे। उसे कैसे हासिल करना है उसके लिए टारगेंट तय करेंगे। उस लक्ष्य को पाने के लिए कौन से रास्ते होंगे उसकी तलाश भी किया करते हैं।
रूचि के बाद अहम है अभ्यास। हम अक्सर बीच में निराश होकर अभ्यास करना छोड़ देते हैं। कई बार अहम में आकर तो कई बार दूसरों को देखकर। फलां को तो ऐसे ही मिल गया ढिमका को तो यूं ही बिना पढ़े अंक आ गए आदि। जबकि सब अपने अपने हिस्से का काम और अभ्यास ज़रूर किया करते हैं। तभी आज वो अपने क्षेत्र में नाम कमा चुके हैं। अभ्यास से क्या नहीं हो सकता। अभ्यास से लेखक, कवि, मैनेजर, सफल डॉक्टर सब कुछ संभव है। लेकिन हम बीच के रास्तों में आने वाली अड़चनों से इस कदर डर जाते हैं कि अभ्यास बीच में ही छोड़ देते हैं।
उद्देश्य यह तीसरी कड़ी है। यदि हमारे उद्देश्य स्पष्ट हों तो भटकाव की उम्मींद कम हो जाती है। हमें हमारे उद्देश्य यानी मकसद साफ होने चाहिए। इससे अपने लक्ष्य को पाने में सुविधा होती है।
अंतिम लेकिन एकदम अंत नहीं है किन्तु उम्मींद। उम्मींद जब तक रहती है हम तब तक अपने काम में जुटे होते हैं। जैसे ही उम्मींद का दामन छोड़ देते हैं। वैसे ही हमारी कोशिश कम होने लगती है। रूचि भी घटने लगती है। इतना ही नहीं बल्कि उद्देश्य भी फीके पड़ने लगते हैं। शायद यही वे मूल मंत्र हैं जिन्हें जीवन में अपना कर कोई भी सफल व्यक्ति अपनी मंज़िल तक का सफ़र तय किया करता है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...