Thursday, January 28, 2016

टाॅक @ कथा-कथानक



आज हिन्दी के जाने माने कथाकार और संपादक श्री महेश दर्पण जी के साथ कहानी और कथा-जगत के बारे में विस्तार से चर्चा हुई। चर्चा में इस बिंदु पर भी विमर्श हुआ कि बच्चों के लिए कहानियंा लिखते वक्त किस तरह की सावधानियों की आवश्यकता पड़ती है। बात तो इस पर भी हुई कि पंचतंत्र आदि की कहानियों को कैसे आज संदर्भ में पुनर्रचना की जाए। क्योंकि समाज,काल,संस्कृति सापेक्ष कहानियों के कथ्य और संदर्भ भी बदले हैं। ऐसे में शिक्षकों को किस तरह के प्रशिक्षण प्रदान किए जाने चाहिए। शुक्रिया श्री महेश दर्पण जी।

Friday, January 22, 2016

मुर्दे संवाद कर सकते हैं वाया मुर्दे इतिहास नहीं लिखते



कौशलेंद्र प्रपन्न
अलका अग्रवाल सिग्तिया जी की कहानी संग्रह का शीर्षक सुन-पढ़कर कुछ देर के लिए ताज्जुब हो सकता है कि यह भी काई नाम है ‘मुर्दे इतिहास नहीं लिखते...’। लेकिन सच है जब हम इसी नाम से लिखी कहानी पढ़ते हैं तब महसूस होता है कि सच ही तो है मुर्दे इतिहास कैसे लिखा सकते हैं? बतौर कहानी के अंत में पात्र द्वारा लिखी कविता मौजूं है कि
मुर्दे कभी इतिहास नहीं लिखते
इतिहास वो लिखते हैं
जो अपने कदमों से, अपने रास्ते,
खुद बनाते हैं।
जो भीड़ के साथ न चल कर
अकेले चलने की जोखिम उठाते हैं।
इतिहास वो लिखते हैं,
जो जिंदगी और मौत से
बराबर मोहब्बत करते हैं।
उक्त पंक्ति मुर्दे इतिहास नहीं लिखते कहानी की है। जिसमें मुंबई की चकाचक भरी रोशनी वाले शहर में उम्मीदों वाली, नगरी में हर कोई अपने भाग्य आजमाने आते हैं। लेकिन सफलता और प्रसिद्धी किसी किसी को ही मिला करती है। इस कहानी की ख़ासियत यह है कि एक कस्बे व शहर से आए दो कबीर और आदित्य युवक अपने भाग्य को सिनेमा की दुनिया में स्थापित करने आए हैं। उनकी आंखें भी सपनों से भरी हैं। उनके पास भी एक गठरी है जिसमें तमाम फिल्मी सपने ठूंसे हुए हैं। लेकिन अफसोसनाक बात है कि छोटे मोटे रोल तो मिल पाए लेकिन उसके लिए जिस तरह की भाषा, व्यवहार उन्हें सहने पड़े वे खटकते हैं। प्रोड्यूसर किस तरह से पूछता है ‘कोई गर्ल फ्रेंड है तुम्हारी...? गर्ल फ्रेंड नहीं तो... यह नहीं तो आगे कहानी में प्याज की तरह परते खुलती बताती हैं कि तो बहन को ही लेकर आ जाओ। जिस दिन गर्ल फ्रेंड हो...आ जाना...’
इन वाक्यों को सुनता सहता कबीर और आदित्य की कहानी तो बताती ही है साथ ही लेखिका ऐसे हजारों घटनाओं की ओर संकेत कर कथाकार अलका जी आगे बढ़ जाती हंै। इस कहानी में संवाद बेहद मारक और परिवेश से मेल खाते हैं। मुंबईया हिन्दी की पूरी छौंक इस कहानी मंे अनुगूंजित होती है। ‘अपुन को। टपोरी। जास्ती सवाल नहीं बस तू चल अपुन के साथ।’ हालात व्यक्ति से क्या नहीं करने पर मजबूर किया करती हैं यह भी परिस्थितिजन्य घटनाओं की ओर इशारा करती है। आखिरकार एक प्रोड्यूसरनुमा आदमी मिलता है जो कहता है कि जिगोलो बन कर मेरी बीवी और वैसी ही अन्यों के साथ कमाई कर, क्योंकि मेरी बीवी को रेाज एक नए नए लड़के चाहिए आदि। वह इस तोल मोल के बोल में अभी पगा नहीं था। लेकिन आदित्य और कबीर तो बस कथाकारा अलका की नजर में वह व्यवस्थागत और प्रोफेशन की गंदगी के कंधे पर सवार हैं जिस पर तथाकथित फिल्मी दुनिया की ऐसी कहानियां सुनी और लिखी जाती हैं। कितना सच है यह तो इस दुनिया के निवासी ही जानें। लेकिन एक नायिका ने हाल ही में कबूल किया है कि फिल्मी करियर की शुरुआती सयम में उसके साथ बाप की उम्र का व्यक्ति इस्तमाल करना चाहता था, प्रसिद्धी दिला देता। मालूम नहीं यह बयां कितनी सच्ची और हकीकत के करीब है लेकिन लोगों के तजार्बा तो इस कहानी के ख़ासा करीब बैठती है।
वहीं इस कहानी संग्रह की दूसरी कहानी ‘नदी अभी सूखी नहीं’ इस कहानी को पढ़ते हुए यकायक हम 1992 और 1984 के काल खंड़ में जा पहुंचते हैं। शायद कहानियां और साहित्य की अन्य विधाओं की यही विशेषता होती हैं कि वे अपने साथ काल की दीवार गिरा कर अतीत में पहुंचा देती हैं। तत्कालीन दर्द, पीड़ा, प्रेम, राजनीतिक, सामाजिक परिघटनाएं पाठकों की आंखों के आगे घिरनी की तरह नाचने लगती हैं। अलका जी की कहानी नदी अभी सूखी नहीं दरअसल एक ऐतिहासिक घटना के बाद के मंजर की ओर पाठकों को खींचकर ले जाती है। किस तरह से 1992 के पूर्व मुंबई के किसी काॅलोनी के सातवें माले पर रहनी वाली रचना, नाजि़मा, लांबा आंटी तीन परिवारों में मिलजुल है। एक दूसरे घर में ही पले बढ़े हैं। लेकिन कुछ तो हुआ कि नाजि़मा के विश्वास में दरार आई 1992 के बाद। क्या वजह रही कि दिल्ली में लांबी आंटी की बेटी काव्या और उसके दूधमुंहे काका को कुछ लोग ंिजंदा मार डालते हैं। कहीं न कहीं मानवता हारी। कहीं न कहीं विश्वासों का कत्ल हुआ। यही वजह है कि सिख और हिन्दू के तौर पर फिर सातवें माले के तीन परिवारों में बीच फांक पड़ जाता है। एक दूराव तो तब भी आता है जब रचना की सास आती हैं। साथ रहती हैं। उन्हें नहीं पसंद कि नाजि़मा के घर से इतनी गहरी दोस्ती रहे। आखि़रकार मुसलमान हैं। हम हिन्दू। ईद से पहले परिवारों में मनमुटाव हो जाता है। लेकिन कथाकारा बड़ी ही चतुराई से सास को रिश्तेदार के घर भेज कर आपसी खटरास को स्नेहीलता में तब्दील कर देती हैं। लेकिन कहानी यहीं नहीं रूकती। अचानक सास का आना पूरे माहौल में एक तनातनी पसर जाती है। लेकिन इस बार सास का मन परिवर्तित हो चुका है। स्वयं ईद की सेवइयां खाती हैं और मुबारकवाद देती हैं। लेकिन कथाकारा जिस ओर पाठक को लेकर चलना चाहती हैं वो इसमें सफल होती हैं। एक हिन्दू परिवार कैसे सिख और मुसलमान परिवार की हिफाज़त करता है इसे बड़ी शिद्दत से अलका इस कहानी में उभारती हैं संवाद लेखन मंे तो अलका जी बाजी मार ले जाती हैं। इनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक संवाद सृजन है। बड़ी ही साफगोई से और स्पष्टता के साथ परिवेश और सांस्कृतिक बुनावटों को ध्यान में रखते हुए संवाद की सृजना करती हैं। यह कहानी संतति को आगे बढ़ाते हुए बल्कि कहें समाज में बहुभाषी बहुधर्मी परिवारों के बीच स्नेह का संचार करती हुई एक उजले पक्ष को आगे बढ़ाती है।
यदि पाठक अमसा कहानी पढ़ेंगे तो निश्चित ही उन्हें प्रो कृष्ण कुमार की किताब चूड़ी बाजार में लड़की की कहानी से जोड़ देगी। एक ओर जहां शिक्षाविद् कथाकार प्रो कृष्ण कुुमार चूड़़ी बाजार में लड़की किताब में फिरोजाबाद की चूड़ी बाजार में काम करने वाली लड़कियों, लड़कों की दर्दनाक रोज़नामचा लिखते हुए आंसूपूरित कहानी बयां करते हैं। वहीं अलका जी की कहानी अमसा भी उसी भाव भूमि पर खड़ी दिखाई देती है। यह वही अमसा है जो किसी भी शहर, नगर और महानगर के चैराहों पर गुलाब, जामुन, फूल और कलम बेचते मिल जाएंगी। यह कहते हुए भी मिलेंगी कि बाबू जी एक कलम ले लो सुबह से कुछ भी नहीं खाया। रेाटी खा लूंगा या खा लूंगी। लेकिन अमसा एक ख़ास ठसक के साथ मना करती है कि हम भीख नहीं लेते जिज्जी...। हां, यहिंन रहते हैं और नाम है अमसा। जब कथाकारा अपने पात्र से पूछवाती है कि यह भी कोई नाम हुआ तो अमसा के संवाद उसी के परिवेश के हैं। मसलन
‘ अरे! हमका खुदई नईं मालूम हुआ कि जहां दद्दा भट्टे में पहले काम करत रहे, वहीं के कोई बाबूजी बताए रहे अन्सा, बन्सा कुछ। कथाकारा इस कहानी मंे दो ऐसे पात्रों को लेकर आती है जिसमें से अमसा की जिंदगी को देख कर द्रवित हो जाती है और कहानी लिखना चाहती है। वहीं दूसरी हैं जिन्हें अपने डिजर्टेशन के लिए कच्चा माल नजर आती है अमसा। अंततः अमसा को भी टीबी की बीमारी घेर लेती है। प्रो कृष्ण कुमार जिस ओर बड़ी शिद्दत से चूड़ी बाजार में लड़की में चचा करते हैं कि यहां बच्चे बड़े ही नहीं होते। सीधे बढ़े हो जाते हैं। उन्हें टीबी की बीमारी तो गोया पुश्तैनी मिला करती है। उसी तर्ज पर अमसा को भी यह बीमारी घेर लेती है। अमसा की एक बहन भी भी जो ठेकेदारों की नजर में संुदर पतुरिया है। हर वक्त वहां अपनी अस्मिता और शरीर को बचाए रखने के लिए एक युद्ध लड़ना पड़ता है। लिखने वाले ने अपनी डिजर्टेशन भी कर ली। और कहानी भी लिखी गई लेकिन अमसा की हालत बिगड़ती चली गई। कहानी का अंत दिलचस्प है कि पहली वाली पात्र मां के संवाद में आ जाती है कि तू अपना करियर देख और घूमने जा रही है जा। विनी अमसा को घर बुलाती है कि वो डाक्टर के पास लेकर जाएगी। मां कहती है कौन  विनी तूने किसी बुलाया है? कौन है ये विनी लड़की, कितनी गंदी और बीमार लग रही है, मुझे ऐसे लोगों से मेलजोल पसंद नहीं...।
और अमसा इस दरवाजे से दूर चली जाती है। एक अंतहीन यात्रा की ओर बस कथाकारा ने लिख दिया ...दूर एक पतली सी काया धीरे धीरे गुम होती दिखाई दे रही थी। कहानी को जहां जिस मुहाने पर छोड़ना था इसकी बेहद बारीक समझ अलका जी के पास है। जैसा कि पहले भी ध्यान खींचने की कोशिश की गई है कथोपकथन यानी संवादों का घातबलाघात कहानी को न केवल रोचक बनाती है बल्कि कहानी की कई सारी परते कई सारी गांठें भी खुलती चली जाती हैं।
मुर्दे इतिहास नहीं लिखते कहानी की जान कहें तो इसका संवाद और संवादों के जरिए कहानी संसार की रचना है। संवादों की बहुलता कभी भी पाठकों को परेशान नहीं करती बल्कि पाठकों की रूचि कहानी पढ़ने में जगती है। ऐसी ही एक और कहानी की चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा वह है सिलवटें जिंदगी की। इस कहानी के संवाद भी दिलचस्प हैं एक गैर हिन्दी भाषा बंगाली पात्र की हिन्दी कैसी होगी इसकी झलक इस कहानी की शुरुआती पंक्तियों में मिलती है। जैसे घड़ी कैसे चलता है। अगर दीन ही दीन रहेगा तो सब कुछ डिस्टर्ब हो जाएगा। दिन पढ़ा जाए। वैसे ही मूझिक, म्यूजिक सूर सुर रीदम रिदम आदि शब्द ऐसे हैं जो सीधे सीधे पाठकों को पात्रों की भाषायी संसार को समझने में मदद करती है। अलका जी की विशेषता यह भी है कि इनकी कहानियों में पात्र और परिवेश जहां से आते हैं वहीं से अपनी भाषायी गठरी भी साथ ही लेकर आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो मुर्दे इतिहास नहीं लिखते अपने संवादों के लिए भी जाना जाएगा।
यदि कहानियों की बुनावट पर नजर डालें तो पाएंगे कि हमारे इसी समाज और परिवार की कहानियंा हैं। एक ओर संभव है इस संग्रह की छोटी कहानी बुलबुला! है जो अतीतजीवी कथा भूमि पर खड़ी है। वहीं जब अरिूष कहेंगीकृकहानी है जिसमें लड़की दो स्तरों पर संघर्ष करती है। पहला अपने ही घर मंे बेटा बेटी के बीच भेद के दंश को सहती है। सुनती है कि पराई अमानत है। ज्यादा पढ़ लिख कर क्या करेगी। उसे काॅलेज की नौकरी नहीं करने दी जाती। एक मासलदार ऐसे परिवार में बिजनेस करने वाले लड़के से कर दी जाती है। जो अपनी मां का मन रखने के लिए शादी करता है। जबकि उसकी अपन जिंदगी कोई और है। स्पष्ट कहता है वो मेरी जिंदगी है। तुम से शादी महज मां के कहने पर की है। उधर मां को भी सारा माजरा मालूम है। बस टूटती तो लड़की है। टूटते उसके सपने हैं। गरीब परिवार की बेटी लाने के पीछे लड़के वालों की मनसा मुंह बंद करोन का था। और होता भी यही है। लेकिन जैसा कि अमूमन घरों की कहानी होती है। शादी के बाद घर पर भाभियों की चला करती हैं। वही मंजर इस कहानी में देखी जा सकती है।
इस संग्रह की पहली कहानी बेटी कई कोणों से पढ़ने जाने की मांग करती है। यह कहानी हालांकि कोई नई जमीन पर तो नहीं खड़ी है लेकिन कहानी कहने का कौशल दिलचस्प है। बेटी के होने और उसे बड़ा करते करते कैसे मां बाप अपने सपनों को बड़ा किया करत हैं इसकी झांकी इस कहानी में मिलती है। साथ ही बेटी की शादी और विदाई के बाद स्थितियां अमूमन हर घर सी हो जाती है। बेटी को ससुराल से पीहर नहीं भेजा जाता। बार बार चिट्ठी, फोन के बावजूद भी ससुराल वाले बहु को घर नहीं भेजते। ऐसे मां की हालत और पिता पर क्या गुजरती होगी। अंत में जब बेटी घर आती है और गले लग कर रोती है तब हां तब मां को महसूस होता है कि कुछ है जो मेरी बेटी के साथ ठीक नहीं हो रहा है। बेटी वापस ससुराल नहीं जाना चाहती। लेकिन यहां समाज और लोक लाज सामने खड़ा हो जाता है। अंततः बेटी को दुबारा उसी घर में वापस जाना ही पड़ता है।
समग्रता में कहें तो अलका जी के पास न केवल कहानी कहने की भाषा है बल्कि उनके पास कहानी सुनने की शैली भी है। उन्होंने हर कहानी में बेहतरीन संवाद रचे हैं। संवाद को लेकर पहले भी कहा जा चुका है कि कथाकारा अलका जी ज़रा सी भी लापरवाही नहीं बरततीं। अलका जी ने कहानियों निश्चित ही विभिन्न भाव- दशाओं, मनो भाविक और समाजो सांस्कृतिक पहलुओं को बांधने और बयां करने की कोशिश की हैं। इसमें दरमियां उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को भी टटोलती और उसके असर को पाठकों के मध्य विमर्श के लिए रखती हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में हमें अलका अग्रवाल और भी बेहतरीन कहानियों से रू ब रू कराएंगी।


Monday, January 18, 2016

हाॅल नबंर 12


कौशलेंद्र प्रपन्न
हाॅल नबंर 12। स्थान विश्वपुस्तक मेला। अपार भीड़। पाठक। दर्शक। प्रकाशक। हाॅल नंबर 12 के बाहर लंबी कतार। धक्का मुक्की। कौन पहले हाॅल में जाए। जो पहले गया समझा जाएगा विशेष है। हाॅल के बाहर तरह तरह के और विभिन्न वर्गो, भाषाओं,प्रांतों के लेखक,मंच संचालक,आलोचक,समीक्षक बैठे हैं। उन सब के आगे उनकी रेट लिस्ट लगी है। घंटे और दिन के अनुसार कितना चार्ज है इसकी जानकारी दी गई है। लेखक स्वयं नहीं बोलते उन्होंने भी काॅपोरेट कल्चर को अपनाया और उसी राह पर चल पडे। उन्होंने एक एजेंसी हायर कर रखी है। वही बोली लगाता है। वही बुकिंग करता है। आवाज लगाने के लिए उसके स्टाॅफ भी हैं। दूर दूर से आए लेखकों,प्रकाशकों और श्रोताओं की बोलियां लगा रहा है।
सौ रुपए से लेकर पचास हजार तक के लेखक मंच संचालक समीक्षक उपलब्ध हैं। ले जाईए। अपनी किताब का लोकार्पण कराएं। समीक्षाएं कराएं। अपने मंच की शोभा बढ़ाएं। मंच संचालक श्रोताओं का दिल जीतने में माहिर हैं। क्रूा कहा? श्रेाताओं की कमी है? फलां भी नहीं आए। उन्होंने वायदा किया था लेकिन नहीं आ पाए। तो भी ंिचंता मत करें। हमारे स्टाॅल पर श्रोता भी उपलब्ध हैं। किस तरह के श्रोता चाहिए आप बताएं। सािहत्यिक चाहिए। कलावादी चाहिए। उत्तर आधुनिक कविता की समझ रखने वाले अनुरागी चाहिए। श्रृंगार मंच प्रिय कविता पर दाद देने वाला चाहिए। साहब आप मुंह तो खोलें। आपकी जेब जिस तरह के श्रोता,लेखक,समीक्षक,मंच संचालक आदि को मैनेंज कर सकता है आप बोलिए तो सही। हमारे पास सारी सुविधाएं हैं। क्या कहा आप गैर हिन्दी भाषी प्रांत के हैं? कोई बात नहीं आपकी किताब दिल्ली से छप जाएगी। जैसी भी हो यहां प्रकाशक भी आपकी जेबानुसार मिलेंगे। आप बस मन बना लें तो संपर्क करें। ओह ! आप लिखना भी नहीं चाहते। क्या बला है। लेखक बनने की तमन्ना पाल सकते हैं लेकिन लिख नहीं सकते। आप रातों रात पाॅुपलर होने की ख्वाहिशें भी रखते हैं। चलिए आपको मना तो नहीं कर सकता। लेकिन साफ बता दूं ज्यादा खर्च करने पड़ेंगे। लेखक भी इन दिनों बिजी हैं। उनके भी नखरे अपने अपने हैं। कहते हैं पहले बेरोजगार था तो रेट कम थे अब काम करने लगा हूं। एक नाम भी है बाजार में तो रेट भी उसी के अनुसार बढ़ेंगे ही।
किताबें छप गईं। मेला भी अपने पूरे उभार पर है। नाते रिश्तेदारों की मंडल भी आ चुकी है। यार दोस्तों को भी बुला लिया। मगर अब क्या हुआ? किताब भी छप गई। आपके हाथ में भी आन वाली है। अब क्या परेशानी है लेखक महोदय? कुछ नहीं किताब अभी मेरे हाथ मंे नहंी है। एक घंटे में मेरी किताब का लोकार्पण होना है लेकिन किताब कहां हैं? प्रकाशक गंभीर खड़ा है। समझना और समझने की कोशिश कर रहा है। किताब चल चुकी है। रास्ते मंे है। प्रेस से निकले हुए उसे दो घंटे हो चुके हैं। किसी भी वक्त हाजिर हो जाएगा। आप तो जानते हैं इन दिनों शहर में कितना भयंकर जाम लगा करता है। गोया कारें न हुईं बहनें हों जो गलबहियां करने लगती हैं। अब क्या कहा जाए। स्याले को बोला था रात में ही किताबें लेकर आ जाना। लेकिन आप तो जानते हैं लो इनके अपने नखरे होते हैं। रात में गला तर कराया तो जल्दी जल्दी बाइंडिंग हुई। वरना.....। वराना क्या किताबें बिना कवर और बाइंडिंग की अच्छी लगतीं क्या। भोंड़ी बिन कपड़े की खड़ी कोई....। अब चुप भी रहिए। किताबें नहंी आईं तो लोकार्पण किसका होगा स्टेज पर। मंच संचालक को भी पे कर चुका हूं। लेखक,आलोचक भी आ चुके हैं। श्रोता भी कब से कोंचे जा रहे हैं चाय नहीं आई। आप चाहते क्या हैं? क्यों ऐसा हो रहा है। लेखक साहब की सांसे टूट रही थीं। लगता है सारा मिट्टी होने वाला है। प्रेस वालों को भी बुला लिया है। अब उन्हें क्या घंटा तस्वीरें दूंगा। प्रकाशक चिंतित लेकिन संभला हुआ था। सर आप चिंता मत करें। मैं कुछ करता हुूं। आप अपनी तबीयत न खराब करें। सब रख राक्खा। सब चंगा होएगा।
दस मिनट शेष रह गए। अब कब आएगी मेरी किताब? लेखक बेचैन चारों ओर घिरनी की तरह नाच रहे हैं। प्रेस वाले सर आप कवर ही दिखा दो यदि किताब नहीं लिखी तो? सवाल खरोचने वाला था। लेकिन लेखक महोदय क्या जवाब देते। सो चुप हो गए। चिरौरी करते हुए कहा बस आने वाली है। रास्ते में जाम में फंसी है। कहीं ऐसा न हो सर की अंतिम दिन हांफती हुई आए आए। तब तक सारा मजमा उठ चुका हो। बार बार पश्मीने के शाॅल और सिल्क के कुर्ते को ठीक करते फिफरी की तरह नाक फुलाए घूम रहे थे। प्रकाशक बचता बचाता फोन पर बाहर निकल गया। जब पांच मिनट बचा तो गिरते पड़ते हाजिर हुआ। सर! चिंता ना करें। मैंने किताब की पांच कवर और जैकेट मंगा ली है। किताब न सही जैकेट को ही लांच कर दिया जाए। वैसे भी पूरी किताब कौन देखता है? आपने ही कौन सा पेज दर पेज पढ़ा व लिखा है? जब आप अपनी लेखनी नहीं पहचान सकते तो स्याले पाठक और लोकार्पणकर्मियों को क्या मालूम चलेगा।
...और लोकार्पणकर्मियों के हाथों में जैकेट रैप कर थमा दिया गया। मंत्रोच्चारण होने लगे। तालियों की गड़गड़ाहट से हाॅल गुंजायमान हो उठा। होता भी क्यांे न श्रोताओं ने चाय भी गटक ली थी। बजाते भी क्येां न। तारीफों के फ्लाई ओवर और अंड़र पास बनाए जा रहे थे।

Thursday, January 14, 2016

उत्तर पुस्तक लोकार्पण


कौशलेंद्र प्रपन्न
बहिन तेरा भाग्य अच्छा है। भाग्य की चांड़ हो तुम। तुम्हारे तो दिन बिहुर गए। कम से कम लोगों ने तुम्हारे कवर तो खोला। मंच पर सरेआम लेखक,कविओं ने सराहा। अब तो किताबो तुम सर्र सर्र निकल पड़ी। एक हमारा भाग्य है कि हम आलमारियों पर पड़ी पड़ी अपनी पारी का इंतजार करते दिन कटेंगे। या फिर स्टाॅक चेकिंग होगी तब हमारे कवर को सहलाए जाएंगे। उत्सुक हो कर शिशु ने पूछा फिर क्या होगा उसके बाद...याद नहीं किसी प्रसिद्ध कवि की कविता की पंक्तियां हैं। लेकिन यहां प्रासंगिक लग रहा है। विश्वपुस्तक मेले में पुस्तकों के लोकार्पण के बाद उनका क्या भविष्य है? क्या लोकार्पण के बाद उन किताबों के पाठकों मंे अचानक बहुत उछाल आ जाएंगे?क्या लेखक रातों रात बेस्ट सेलर राईटर बन जाएगा? आदि। उत्तर विश्वपुस्तक मेले के बाद लेखक,प्रकाशक, पाठक अपने अपने घरों मंे लौट जाएंगे। कुछ के चक्कर लगेंगे कि किसी भी तरह उनकी किताब की समीक्षा,आलोचना,किसी अखबार,पत्रिका आदि में छप जाए। इसके लिए संपादकों,मित्रों की चिरौरी का दौर शुरू होगा। जो चूक जाएंगे वो किसी और जुगाड़ में लगेंगे। किसी ने किसी तरह से अपनी किताब की बिक्री बढ़े इसको लेकर ज्यादा उत्साह और प्रयास लेखक की ओर कम ही देखे जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा लेखक यह तो वायदा करता है कि फलां फलां संस्थान की लाईब्रेरी में कुछ काॅपियां खमा देगा। विचार करने की बात है कि कितनी ही ऐसी किताबें लाईब्रेरी की आलमारी में सचमुच सजी ही रह जाती हैं। उन्हें उठा कर पढ़ने वाले पाठकों की संख्या बेहद चिंताजनक होती है। आज का पाठक भी सूचना तकनीक में बदल चुका है। आज किताबों के पन्ने पलटने से ज्यादा टच फोन के पटल पर अंगुलियां फिराना ज्यादा पसंद करते हैं।
पुस्तक मेला हो या आम दिनों में पुस्तकों का लोकार्पण, बहुत ही आम ओ खास घटना होती है। किताबों को कैसे प्रमोट किया जाए इसको लेकर प्रकाशन जगत में रेाजदिन नई नई रणनीतियां बनाई जाती हैं और उसे अमल में लाई ला रही हैं। अपेक्षा तो लेखक से भी होता है कि वो भी किताबों को बिकवाने में अपनी भूमिका निभाए। लेखक अपनी किताब की बिक्री बढ़ाने में अपने परिचय सूत्रों का इस्तमाल किया करते हंै। विभिन्न संस्थानों के साथ ही अखबारों,पत्रिकाओं के दफ्तरों में संपादकों तक अपनी किताब की समीक्षा के लिए जोड़ तोड़ करते हैं। अफसोसनाक बात यह है कि कई बार लेखक अपनी कमतर किताब यानी रचना की समीक्षा कराने में शिष्ट रास्ते का प्रयोग नहीं करता। तरह तरह के गठजोड़ और समझौते भी किया करता है। एक बार समीक्षा छप गई फिर उसकी भी मार्केंटिंग की जिम्मेदारी लेखक पर ही होती है। गौरतलब बात यह है कि जो लेखक इन प्रपंचों में दक्ष नहीं हैं, पहली बात तो उनकी किताब छपने की श्रेणी तक हासिल नहीं कर पाती। यदि छप भी गई तो उनकी रचना गुमनामी की अंधेरी गलियों में खो जाती हैं। क्योंकि वे अपनी किताब को प्रमोट करने और कराने में विश्वास नहीं करते। बल्कि उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ और सिर्फ लिखने तक महदूद होती है। ऐसे लेखक ताउम्र लिखते रहते हैं लेकिन छपने से दूर ही रहते हैं। ऐसे लेखकों को बार बार दोस्त साथी, परिचित उत्प्रेरित करते हैं कि साहब लिखते हैं तो वो छपे भी। पाठक आपकी लेखनी का लाभ भी उठाएं। यदि लेखक महोदय लिखने के लिए तैयार भी हो गए और छप भी गए फिर दूसरी प्रक्रियाओं में उनकी दिलचस्पी नहीं होती। दूसरे शब्दों मंे इस तरह के लेखक संकोची प्रवृति के होते हैं। बार बार कोचने के बावजूद उनके अंदर की सुप्त प्रवृत्ति नहीं जाग पाती। यानी वे सिर्फ लिखने में विश्वास करते हैं। छपे न छपे उससे उन्हें कोई लेना देना नहीं होता। न तो वे प्रचार करते हैं और न ही प्रचार पसंद होते हैं। वहीं दूसरी श्रेणी के लेखक हैं जो लिखते कम प्रचार ज्यादा करते हैं। छपते कम छपे जाने की डिंगें ज्यादा मारते हैं। किताब लिखना शुरू भी नहीं करते कि शोर मचाना उनका शगल है। जो छपेगा वेा लिखेगा। जो लिखेगा वो छपेगा जैसे दर्शन में विश्वास करते हैं। इस किस्म के लेखक प्रबंधन और मानवीय रिश्तों को मैनंेज करने में कुशल होते हैं। किस तरह की रचना लिखनी है। कब लिखनी है और किस समय पर उसे छपाना है इन तमाम बिंदुओं पर ठहर कर काम करते हैं। ऐसे लेखक रणनीति बना कर घेरे बंदी कर किताब भी छपवा लेते हैं और प्रचार, प्रसार भी करा ले जाते हैं। देखते ही देखते इनकी किताब की पब्लिसिटी भी हो जाती है। इन्हीं लेखकों में से कुछ के सितारे चमका दिए जाते हैं और उनकी किताबों की प्रतियां भी खपा दी जाती हैं। कई बार लगता है कि लेखक भी बनाए जाते हैं। अब वह समय गया कि अंतःकरण से प्रेरित होकर विषयों पर लिखने के लिए लेखक पैदा होते हैं। अब समय और बाजार के अनुसार लेखक कर्म चुना जाता है। कोई बैंक की नौकरी में है तो केाई बिजनेस के साथ ही लेखक भी बन जाता है। बिजनेस तो है ही लेखक बन कर तथाकथित प्रबुद्ध समाज में शाॅल, माला, प्रशस्ति पत्र भी बटोरने लगते हैं। इन्हें पैसों की भूख नहीं होती बस इन्हें समाज में लेाग लेखक,चिंतक के नाम से जानें बस इस कारण लेखकों की जमात में शामिल होते हैं।
यदि पुराने लेखकों की पीढ़ी को छोड़ दिया जाए तो आज जिस शिद्दत से लेखक लिख रहे हैं कई बार उनकी किताबों को पढ़ कर घोर निराशा होती है। वे किताबें शोर और घोषणा, आत्म प्रचार और जुमलों की कंपाइलेशन सी लगती है। अंग्रेजी से लेकर हिन्दी तक की भाषाओं में इस तरह से नए नए पैदा हुए लेखकों के दर्शन हो जाएंगे। माना लिया जाता है कि साहित्य व भाषा में एम ए किया है तो आप आधिकारिक तौर पर लेखक तो हैं ही। साहित्य के कम ही छात्र व छात्रा होंगी जो कविता न लिखती हों। कहानी न लिखती हों। यदि वे इन विधाओं में हाथ नहीं आजमाते तो निबंध आदि में उतर जाते हैं। संभव है कविता और कहानी समीक्षक इसे ज्यादा बेहतर बता सकते हैं कि इन दिनों जिस आनन फानन में और तेजी में कविताएं लिखी और छप रही हैं उनमें से कितनी समय और पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरेंगी।
मालूम हो कि जिस रफ्तार से संपादकों की सत्ता और प्रकाशन तंत्र का विकेंद्रीकरण हुआ है उसका ख़ामियाज़ा लेखक को तो भुगतना ही पड़ रहा है साथ ही पाठकों को भी ऐसी वैसी किताबों से गुजरना पड़ रहा है। यहां बताते चलें कि जैसे जैसे प्रकाशन और संपादकीय केंद्र को विकें्रद्रीत किया गया वैसे वैसे छपने और छापने की बाढ़ सी आ गई। जब संपादक को महज प्रबंधक की कुर्सी पर बैठा दिया गया तब से प्रकाशित और मुद्रित सामग्री की गुणवत्ता भी शंका के घेरे में आती चली गई। पहले प्रकाशन संस्थानों और अखबार,पत्रिकाओं मंे बैठने वाले संपादक बड़ी ही शिद्दत से रचना को मांजते-खंघालते थे। इससे लेखकीय कौशल मंे भी निखार आता था। अपने समय के बड़े बड़े लेखकों की रचनाओं को भी संपादक वापस करने और सुधारने का माद्दा रखते थे। सुधार और संपादित कर छापने का अधिकार संपादक के पास होता था। लेखक संपादक की लेखनी और संपादक कौशल के कायल होते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रभाष जोशी,अज्ञेय,श्रीकांत वर्मा,रघुवीर सहाय जैसे संपादकों ने अपने समय के हस्ताक्षर लेखकों की रचनाओं को न केवल संपादित किया बल्कि नए लेखकों को भी पाठकों के बीच लेकर आए। लेकिन अब संपादक की सत्ता भी कमजोर हो गई है। जैसे जैसे प्रकाशन घराने विकेंद्रीत होते गए और जैसे जैसे सोशल मीडिया का चलन बढ़ा वैसे वैसे हर कोई लेखक,कवि,पत्रकार बन गए। सेाशल मीडिया पर कोई संपादक का न होना एक तरह से रचनाओं में गिरावट का भी कारण बना। जो जैसा लिख रहा है वैसा ही वेबकास्ट कर रहा है। वेबकास्टिंग के दौर मंे गुणवत्ता की उम्मीद करना बेईमानी है। यही वजह है कि आज तमाम सेाशल मीडिया के मार्फत रातों रात लोगों को लेखक,कवि बनाने का खेल चल पड़ा है। हालात तो तब और बिगड़ती नजर आती है जब लोग अपनी रचना पर मांग कर लाइक और कमेंट पाते हैं। यदि आपने कमेंट नहीं दिया और यदि कटू आलोचना व गंभीर समीक्षा कर दी तो संभव है आपको मित्र सूची से ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए। यहां पर एक अलग किस्म की चाटूकारिता और लाइक की दुनिया बुनी जाती है। आलम तो यह है कि धड़ाधड़ लोग कविताएं पोस्ट करते हैं और उसी अनुपात में लाइक और कमेंट की गिनती वैसी ही किया करते हैं जैसे चुनाव के बाद वोटों की गिनती शुरू होती है। दूसरे के बढ़ते वोटों को देख जलन और मन खट्टा होने लगता है कुछ उसी तर्ज पर सोशल मीडिया में भी पेास्टकर्ताओं की मनोदशा को पढ़ा और देखा जा सकता है।
छपी हुई किताबों की दुनिया एक ओर और सोशल मीडिया की दुनिया दूसरी ओर खड़ी है। एक ओर मुद्रित दुनिया है जहां छपाई,कवर, चित्रांकन आदि खासा महत्व रखता है। यदि बच्चों की किताब है तो उसमें चित्र और रेखांकन बहुत मायने रखता है। उसके पन्ने और फांट और कागज की गुणवत्ता बहुत अहम होता है। यदि बच्चों को किताबें अपनी ओर आकर्षित नहीं करतीं तो उसमें लेखक जितना दोषी है उतना ही प्रकाशक भी जिम्मेदार है। ठीक उसी तरह से बड़ों के लिए लिखने वाले लेखक चुने हुए विषय यानी कथानक के साथ न्याय नहीं कर पाते तो यहां लेखक की कमी तो मानी ही जाएगी साथ ही जिस प्रकाशक ने उसे छापी है उसके संपादकीय प्रतिबद्धता पर भी सवाल खड़े होते हैं। क्या संपादीकय टीम ने पांड़ुलिपि को ठीक से देखा-पढ़ा और संपादन कर्म से गुजारा। यदि संपादक की टीम किताब को दुरुस्त करने के बाद किसी किताब को छापे फिर संभव है एक मुकम्मल किताब पाठकों तक पहुंच पाए। तथ्य और सच यह भी है कि कई बार किताब की संरचना और कथानक इतनी सुव्यवस्थित होती है कि वो पाठकों में दिलों में घर कर जाती है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि लेखक अपने चुने हुए कंटेंट के साथ किस प्रकार का बर्ताव करता है। क्या लेखक ने किताब में जिस बात व कथ्य को लेकर चला है उसके साथ न्याय कर पाया है? क्या लेखकीय जिम्मेदारियों को पूरी तरह से निर्वहन किया गया है आदि सवालों का जवाब पाठक वर्ग को मिल जाता है तब समझ सकते हैं कि पाठकीय अपेक्षा पूरी हुई। पाठकीय अपेक्षा का पूरा होना यानी किताब की सफलता मानी जाती है।
लेखक किताब लिख लेने के बाद प्रकाशक की तलाश करता है। जब हमारे पास प्रकाशक सीमित हुआ करते थे। सोशल मीडिया और आॅनलाईन से लेकर मुद्रण प्रणाल पुरानी थी तब किताबों का छापना एक कठिन श्रमसाध्य कार्य हुआ करता था। लेकिन समय और तकनीक के साथ यह कार्य सरल और सहज हो चुका है। घर बैठे हम अपनी किताबों को मुद्रित कर सकते हैं। साथ ही ई पिंटिंग के जरिए अपनी किताब की लाख्.ाों प्रतियां बना कर आॅन लाईन उपलब्ध करा सकते हैं। इसके साथ ही एक और बदलाव प्रकाशन जगत में यह हुआ कि प्रकाशकों की एकाधिकार खत्म होने लगा। पहले प्रतिबद्ध लेखक आदि ही प्रकाशक हुआ करते थे जिनकी सहित्य व किताबों मंे रूचि होती थी। लेकिन अब क्योंकि किताबों का व्यवसाय चल पड़ा है तब छोटे बड़े लेखकों के साथ ही दूसरे पेशे लोगों ने भी दो तीन कम्प्यूटर खरीद कर प्रकाशन जगत मंे कूद पड़ हैं। एक ओर बड़े प्रकाशकों के पास लंबा इंतजार करना पड़ता था। वहीं छोटे प्रकाशक ऐसे नए नवेले लेखकों के लिए पलक बिछाए बैठे हैं। माल कैसा भी हो दाम दो और हप्ते में किताब आपके हाथ मंे। पैसे खर्च करें और लेखकों की पंक्ति में खड़े हो जाएं। इस चलन ने किताबों की गुणवत्ता को तो प्रभावित किया ही साथ ही प्रकाशकीय सत्ता में विकेंद्रीकरण की बड़ी घटना को अंजाम तक पहुंचाया। यही कारण है कि आज लोग पलक झपकते ही लेखक और बेस्ट सेलर राईटर बन और बना दिए जाते हैं।
उत्तर पुस्तक लोकार्पण मुख्य कार्य यह शुरू होता है कि लोकार्पित किताब की समीक्षा की जाए। पाठकों और किताब के मध्य परिचय स्थापित किया जाए कि फलां किताब किस विषय पर आधारित है। मसला यह भी है कि किताबें लिखी और छापी गई हैं तो उसका प्रचार भी हो इससे किसी को गुरेज नहीं हो सकता। क्यांेकि सूचना क्रांति के युग यूं तो पलक झपकते ही सूचनाएं वैश्विक यात्रा करने की ताकत रखती हैं। किताबों का भी प्रमोशन हो। प्रचार और विचार एवं परिचर्चा हो किन्तु वह प्रायेाजित न हो। परिचर्चा और लोकार्पण समारोहों मंे होता इससे उलट है। सिर्फ और सिर्फ हां में हां मिलने वालों की जमात में सभी तालियां पीटू होते हैं। यदि किसी ने खरी खरी बात रख दी उसे काफि़र ठहराने में नागर समाज ज़रा भी समय नहीं गवाता।


Wednesday, January 13, 2016

परीक्षा के आगे परिणाम है


कौशलेंद्र प्रपन्न
बच्चों परीक्षा से आगे परिणाम है। परीक्षा में जिस तरह का प्रदर्शन करोगे परिणाम वैसे ही आएंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि परीक्षा के लिए विशेष तैयारी की जरूरत पड़ती है। वैसे तो पूरे साल आप लोग पढ़ते हैं। लेकिन परीक्षा के समय में पहले पढ़ी हुई चीजें भूल जाते हो। ऐसे में क्या करना चाहिए कभी सोचा है? यदि नहीं तो अब सोच लेते हैं। सुना भी होगा कि जब जगे तभी सबेरा।
पहल बात तो यही कि परीक्षा कभी भी जिंदगी से बड़ी नहीं होती लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि परीक्षा में बैठने से पूर्व अपनी पूरी तैयारी कर ली जाए। आनंद तो तभी है जब आप पढ़ और तैयारी के साथ परीक्षा में बैठो। इसके लिए आपको ज्यादा कुछ नहीं करना जो भी आपने पहले क्लास मंे पढ़ा है उसे परीक्षा से पहले दुहराना शुरू कर दो। यह इस तरह कि मान लो हिन्दी,अंग्रेजी या गणित पढ़ना है तो एक एक पैरा ग्राफ को बार बार पढ़ो, फिर दुहराव फिर काॅपी बंद कर लिखने का अभ्यास करो। जब एक बार लिख लो फिर मूल काॅपी से मिलान करो। जहां जहां गलती हुई है उसे सुधारो और दुबारा लिखकर अभ्यास करो। इससे तुम्हारे हर विषय की तैयार में मदद मिलेगी।
कभी भी परीक्षा से पहले डरो मत। परीक्षा के लिए तैयारी की जरूरत पड़ती है। जैसे किसी उत्सव के लिए हमलोग तैयारी करते हैं। जब परीक्षा का समय आ ही गया है तो डरने से प्रश्न पत्र का समाधान नहीं हो सकता उसके लिए आपको उत्तर वो भी सवालों के अनुसार लिखने से ही मिलेंगे। उत्तर कैसे लिखे यह भी एक कला और कौशल है। यह आपलोग हासिल कर सकते हैं। वो इस तरह से कि सबसे पहले सवाल को ध्यान से और खुले दिमाग से पढ़ने का धैर्य हो। सवाल को एकाग्र हो कर पढ़ो और समझेन की कोशिश करो कि सवाल की मांग क्या है? क्या पूछा गया है इसे ध्यान में रख कर उत्तर लिखना शुरू करो। जैसा सवाल वैसा उत्तर। अब तुम्हें कोई भी पास होने और अंक/ग्रेड पाने से रोक नहीं सकता। डरने से परीक्षाएं पास नहीं होतीं बल्कि तैयार और स्थिर मन से चिंतन कर उत्तर लिखने से सफलता मिलती है।

Tuesday, January 12, 2016

पुस्तक लोकार्पणों का मेला विश्वपुस्तक मेला



कौशलेंद्र प्रपन्न
वर्ष 2016 का जनवरी का दूसरा हप्ता। विशेष गहमा गहमी। रूकिए जनबा! यह राजनीति व अंतरराष्टीय मसले के लिए नहीं बल्कि पुस्तक प्रेमियों के लिए पसंदीदा मेला है विश्व पुस्तक मेला। हर साल के मानिंद इस वर्ष भी हजारों प्रकाशक,लेखक,पाठक इस मेले में रोज आ रहे हैं। आगंतुकों की इच्छा है कि अपनी पसंदीदा लेखिका,लेखक,उपन्यासकार आदि से मिलकर कर बातें भी करें। दिलचस्प है कि यह अवसर मिल भी रहा है। विभिन्न प्रकाशक अपने स्टाॅल पर प्रसिद्ध लेखक,कवि,कथाकारों आदि को उपलब्ध भी करा रहे हैं। एक ओर सिने कलाकार कवि पीयूष मिश्रा, रवीश कुमार, अजित अंजुम, महेश दर्पण, मृदुला गर्ग, नासीरा शर्मा, नरेंद्र कोहली, प्रेम जनमेजय, प्रताप सहगल, विवेक मिश्र, मदन कश्यप, मौजूद हैं वहीं पाठकों की भी भीड़ कम नहीं है। हर कोई इसी जुगत में है कि कैसे इन लोगों से एक पल बात कर लें। फोटो साथ ले लें। किताबें कितनी बिक रही हैं इसका सही सही आंकड़ा तो प्रकाशक देंगे लेकिन लोगों की भीड़ और उत्साह देखकर एक सुखद अनुभव जरूर होता है कि कम से कम लेखकों से मिलने, किताबें खरीदनें की आदत अभी बची हुई है। इस पुस्तक मेले में कुछ कार्यक्रम पूर्व निर्धारित हैं। नेशनल बुक टस्ट ने दो तीन माह पूर्व ही कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार कर ली थी। मसलन बहुप्रसिद्ध लेखक मंच, साहित्य मंच, आॅथर काॅर्नर आदि। लेखक मंच के प्रभारी और एनबीटी के संपादक डाॅ लालित्य ललित मानते हैं कि लेखकों से मिलने और बातचीत करने का इससे अच्छा अवसर पाठकों को कहीं और नहीं मिल सकता। इस मंच पर आने वाले लेखक संपादक, कवि, आलोचक, व्यंग्यकार अपने क्षेत्र के हस्ताक्षर हैं जिनसे मिलना वास्तव में दूर दराज के पाठकों के लिए एक सपना से कम नहीं हैं। इस मंच की परिकल्पना के पीछे हमारा मकसद किताबों का लोकार्पण और पुस्तक पर चर्चा विमर्श आदि कराना है।
विभिन्न हाॅलों मंे फैले इस मेले के चरित्र पर नजर डालें तो एक दृश्य स्पष्ट उभरता है कि मेले के तर्ज पर ही किसिम किसिम की दुकानें सजी हुई हैं। वह ज्योतिष,धर्म,खानपान,नृत्य कला आदि सभी शामिल हैं। गौरतलब हो कि इस वर्ष के अतिथि देश चीन होने के नाते चीन की कलाकृतियां, प्रकाशन, मुद्रण आदि की सामग्री हाॅल नंबर 7 में है। इस हाॅल में चीन की प्राचीन छापेखाने, मुद्रण की सामग्री, पांडुलिपियां, भोजपत्र, ताड़पत्र, एवं वस्त्र पत्रों पर संरक्षित लिपियां देखने को मिलेंगी। दिलचस्प यह भी है कि चीन की प्राचीन लिपियों के साथ ही प्रकाशन संस्थान ने बच्चों के लिए कहानियों,कविताओं की किताबों को भी उपलब्ध कराया है। सरल चीनी कैसे सीखें इस पर भी किताबें मिल जाएंगी। इस मंडपनुमा हाॅल के मध्य में नृत्य,कला आदि की प्रस्तुति होती हैं तो वहीं चारों ओर घेरे में विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्राचीन ग्रंथों की प्रतियां,भोजपत्र और मूल प्रति भी प्रदर्शित की गई है।
यह पुस्तक मेला कई बार इस एहसास से भर देता है कि यह कहीं न कहीं पुस्तकों के लोकार्पण स्थल मंे तब्दील हो चुका है। कौन लेखक नहीं चाहेगा कि उसकी किताब पर अपने समय के प्रतिष्ठित लेखक, कवि, नाटककार, व्यंग्यकार उस पर बोलें। इस लालसा में हर प्रकाशक जल्दी में है। हर लेखक में एक बेचैनी साफ देखी जा सकती है। नासीरा शर्मा, मृदुला गर्ग, महेश दर्पण को मिल जुल मन और कुईयांजान जैसी किताबों की लेखिका से संवाद करने के लिए सामयिक प्रकाशन लेखक मंच पर मुहैया कराती है तो वहीं विन्घ्य न्यूज नेटवर्क अपने कार्यक्रम काव्य पाठ मंे देश के मंजे हुए कवियों को लेकर आता है। विन्घ्य न्यूज नेटवर्क ने हाल ही में लेखकमंच पर व्यंग्यपाठ सत्र को अमली जामा पहनाया। इस कार्यक्रम में प्रेमजनमेजय, हरीश नवल, सुभाष चंदर, सुमित प्रताप सिंह आदि शामिल थे। विभिन्न बुक स्टाॅलों पर रोज दिन किताबों को लोकार्पण जारी है। वहीं साहित्य मंच पर भावना शेखर की बच्चों की मिलजुल कर रहना और जीतों सबका मन कविताओं की दो पुस्तकों का लोकार्पण संपन्न हुआ जिसमें दिविक रमेश, शेरजंग गर्ग, सुभाष नीरव, कौशलेद्र प्रपन्न, राजकमल प्रकाशन के प्रबंधक अशोक माहेश्वरी आदि ने बड़ी गंभीरता से बाल साहित्य और बच्चों की कविताओं पर चर्चा की। यह जानना भी मजेदार है कि जिन लोगों ने दो माह पूर्व इन मंचों को बुक किया था उनकी किताबों की चर्चा और लोकार्पण इन मंचों पर हो रहे हैं लेकिन जो देर से जगे उन्हें यह अवसर नहीं मिल पाया जिसका मलाल अब है। डाॅ लालित्य ललित कहते हैं कि अभी भी बहुत से लेखक प्रकाशक आ रहे हैं किन्तु अब हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। हम उन्हें लेखक मंच और साहित्य मंच उपलब्ध नहीं करा सकते। क्योंकि इसकी बुकिंग दो माह पूर्व ही की गई थी। कुछ पत्रकार लेखक तो छाप देने की धमकी भी दे कर जा रहे हैं।
मंच तो दो ही हैं लेखक मंच और साहित्य मंच इसके साथ ही अंग्रेजी के लिए आॅर्थर काॅर्नर है जहां रोज 12.45 से शुरू होकर शाम 7.30 तक विभिन्न कार्यक्रम हो रहे हैं। के के बिडला फाउंडेशन की ओर से आयोजित गीत पाठ में देश से प्रसिद्ध गीतकार बुद्धी नाथ मिश्र, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, बाल स्वरूप राही आदि ने अपने गीतों से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। निश्चित ही विश्व पुस्तक मेला कई हस्तियों से मिलने का मौका प्रदान करती है। जिधर भी नजरें जाती हैं उधर कोई न कोई चेहरा टकराता है। कहीं दूधनाथ सिंह, पीयूष मिश्रा, मृदुला गर्ग, प्रेम भारद्वाज, डाॅ सुरेश ऋतुपर्ण, तजेंद्र शर्मा तो कहीं प्रेम पाल शर्मा। इस मेले में कई बार स्थिति ऐसी होती है कि बार बार एक चेहरा कई बार कई स्टाॅलों पर मिल जाते हैं।
पुस्तकों का लोकार्पण स्टाॅलों पर भी हो रही हैं। जिन स्टाॅलों के पास लेखक मंच की बुकिंग नहीं है वे अपने स्टाॅल पर ही लेखक,कवि, के बीच किताबों का लोकापर्ण कर रहे हैं। डाॅ लालित्य ललित की कविता संग्रह मुखौटों के पीछे का सच ,सब पता है, उम्मीदों भरा मौसम,आओ कुछ बेवकूफियां कर लें का लोकार्पण सुधा ओम ढिंगरा, प्रेमजनमेजय, डाॅ कमल किशोर गोयंका, पंकज सुबीर डाॅ अजय नावरिया ने किया। वहीं मेरे लिए तुम्हारा होना का लोकार्पण बुद्धी नाथ मिश्र, सुरेश ऋतुपर्ण आदि ने किया। सचपूछा जाए तो इस ही नहीं बल्कि हर पुस्तक मेले में पुस्तकों का लोकार्पणीय रिवाज से चल पड़ा है। उस पर भी जब से सोशल नेटवर्किंग बढ़ा है तब से किताबों के आने,छपने, लोकार्पण की जानकारी से लेकर पुस्तक से जुड़ी तमाम सूचनाएं तुरत फुरत में वैश्विक जामा पहन लेती हैं।
दरअसल पुस्तक लोकार्पण एक किस्म से बेटी की बिदाई की तरह होती है। जब तक लेखक लिख रहा होता है तब तक किताब उसकी होती है लेकिन जब छप कर पाठकों के हाथो में चली जाती है तब वह पाठकों की हो जाती है। एक आलोचक, समीक्षक उस किताब को कैसे किस कोण से पढ़ता और समीक्षा करता है उसपर लेखक का दबाव नहीं होता। वह सार्वजनिक हो जाती है। दूसरे शब्दों में लोकार्पण से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण किताब के कथ्य होते हैं वही पठनीयता तय किया करती है। कई किताबें, लेखक ऐसे हैं जिनकी किताबों का लोकार्पण तो नहंी होता किन्तु उसके पाठक हजारों मंे होते हैं। एक लेखक अपनी किताब का से कितना और किस हद तक न्याय कर पाया यह तय करना आलोचक एवं समीक्षक की होती है। लोकार्पणों की मेले में कितनी किताबें लोकार्पित हो रही हैं इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है किन्तु उनमें से कितनी किताबें पाठकों की अपेक्षाओं पर भी ख़रा उतरेंगी यह समय तय करेगा।


Tuesday, January 5, 2016

अच्छा वक्ता


किसी भी चीज यानी कंटेंट को कैसे रोचक तरीके से कहा जाए यह महत्वपूर्ण है। अन्यथा अच्छे से अच्छा कथानक ख़राब हो जाता है। कहने वाले पर काफी निर्भर करता है कि वह कैसे सुनने के लिए श्रोताओं को बांधकर रख पाए। कहना भी एक कौशल ही है। हमारे समाज में कई ऐसे लोग मिलेंगे जिनके पास कहने को बहुत कुछ है किन्तु सही तरीके से अपनी बात नहीं कह पाते।
भाषा की शैली और सहजता यदि वक्ता में नहीं है तो वह बेहतर कहने वाला नहीं बन सकता। कहने वाले की भाषा और शैली खासे मायने रखती है। यदि कक्षा में कोई शिक्षक बोल रहा है तो उसे अपनी भाषा और शैली दोनों पर ही ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है।
बीए व एम ए के दौरान विश्वविद्यालयों में ऐसे शिक्षक मिलेंगे जो अच्छे स्थापित लेखक,कवि व कथाकार हैं लेकिन कक्षा में कैसे पढ़ाएं एवं बोलें इसकी समझ व शैली उनके पास नहीं होती। जिसकी वजह से छात्र कक्षा से बाहर बैठना ज्यादा पसंद करते हैं।
वक्ता और लेखक होना दोनों ही दो अलग अलग कौशल हैं। जरूरी नहीं है कि जो अच्छा वक्ता है वह अच्छा लेखक भी हो। यही दूसरी भूमिका पर भी माना जा सकता है। बहुत कम लोग होते हैं जो वक्ता के साथ ही साथ लेखक भी होते हैं। श्रोताओं को बांधे रखना सचमुच एक अलग कौशल है। दूसरे शब्दों में श्रोताओं को बांधे रखने के लिए वक्ता को अलग से तैयारी करनी पड़ती है। श्रोता वर्ग कैसे है? उसकी रूचि और स्तर एवं मांग कैसी है आदि को ध्यान में रखकर वक्ता नहीं बोलता तो वह विफल हो जाता है।

Monday, January 4, 2016

रोजगार के अवसर


देखने में आता है कि हर कोई अपने जीवन में कुछ न कुछ खास करना चाहता है। लेकिन उसे पाने के लिए कोई खास प्रयास नहीं होता। यही वजह है कि हमारे सपने पूरे नहीं हो पाते। उसपर हम अपने सपनों और भगवान को कोसा करते हैं कि उसने हमारे साथ ठीक नहीं किया।
जरा सोचने की बात है कि यदि हम प्रयास ही नहीं करेंगे तो हमारे सपने कैसे पूरे हांेगे। खाली सपने देखने वालों की भी संख्या कम नहीं है। वे सिर्फ सपने ही देखा करते हैं। लेकिन उन्हें कैसे पूरा किया जाए इस बाबत कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाते।
हमारे देश में यदि बेरोजगारी उसपर भी शिक्षित बेरोजगारों की संख्या कम होने की बजाए बढ़ी हैं। जिसका परिणाम है कि हमारे पढ़े लिखे बच्चे गांव देहात में बस बैठे बैठे दिन काट रहे हैं। उन्हें काम करने के अवसर नहीं मिलते। घर बैठे क्या करें तो चोरी चमारी या गैर सामाजिक कामों मंे लग जाते हैं। हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने बेरोजगार बच्चों को काम और रोजगार के अवसर मुहैया कराएं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...