Monday, September 29, 2014

कमरे की दुनिया



कौशलेंद्र प्रपन्न
हर कमरे की अपनी दुनिया होती है। कमरे भी इंसान की तरह ही अपनी कहानी कहते हैं। हम इस तरह से देख सकते हैं कि एक कमरा जहां हमारा बचपन,किशोरावस्था गुजरा होता है उस कमरे में हमारी यादें, भाई-बहनों के साथ की लड़ाइयां और दुलार भी ज़ब्ज होती हैं। जब हम बड़े हो जाते हैं तब वही घर के कमरे एकबारगी उदास और अकेले हो जाते हैं कि जैसे हम अचानक किसी नए शहर में अकेले और उदास हो जाते हैं। कभी अपने पुराने कमरों में लौटना हुआ हो तो एक अजीब सा अनुभव घेर लेता है। ऐसे ही अनुभव पिछले दिनों हुए। मैं तकरीबन दस साल के बाद उस कमरे में गया जिसमें होश संभाला था और जहां 8 वीं और 10 वीं की परीक्षाओं के लिए बैठकर पढ़ा करता था। अब उस कमरे की दीवारों पर पुरानी तस्वीरें, कैलेंडर और बहनों की बनाई पेंटिंग्स भर हैं। उन पंेटिंग्स और कैलेंडरों पर धूल का साम्राज्य है। अब मां पिताजी से उन्हें झाड़ना पोछना नहीं बनता। जिन आलमारियों पर किताब और अपने सामान रखने के लिए हम भाई- बहन लड़ा करते थे वही आलमारियां अब उदास और धूल से सनी हैं। जाले और पन्नी में लिपटे खड़े हैं। हम लोग बैठक घर को देवता घर कहा करते थे। उस देवता घर को देख कर लगा कई सालों से उसमें पूजा-पाठ नहीं हुआ है। इतना ही नहीं सोफे पर घड़ा, प्लास्टि की बाल्टी, टीन टप्पर रखे हैं। शायद रखना शब्द गलत होगा क्यांेकि सामान रखे हुए नहीं थे वे ठूंसे गए थे। सोफा और टेबल की भी अपनी कहानी है। इसे खरीदने के पीछे मां ने कितना जद्दो जहद किया था और आज उसकी यह स्थिति देख कर मन उचट रहा था। लेकिन शायद समय के साथ सामानों, स्थानों, व्यक्तियों आदि सभी की भूमिकाएं और मायने भी बदल जाती हैं। बड़े भाई ने 9 वीं कक्षा में एक संतोष रेडिया बड़ी शौक से खरीदा था। आज वह रेडियो भी एक कोने में उदास और मौन था। आडियो कैसेट्स भी यूं ही उपेक्षित लुढके हुए मिले।
कमरे की जीवंतता इंसानों के रहने से होती है। कमरा अपने आप में न तो जीवंत होता है और न उदास। यह इस पर निर्भर करता है कि कमरे में रहने वाला व्यक्ति कैसा है। किस तरह से इन कमरों में स्वयं को रख रहा है। ये वहीं कमरे होते हैं जहां हम जीवन के कई सारे निर्णय, जिद्द, बहस,प्यार के बीज बोते हैं। उन्हीं कमरों में हमारे वंशबेल की बुनियाद होती है। लेकिन जब हम कमरों से बाहर चल जाते हैं तब वही घटनाएं, बातें और स्मृतियों के हिस्सा हो जाया करती हैं। वैसे यह बात भी सच है कि हम पूरी जिंदगी एक कमरे में नहंी काट सकते। इस नाते हर कमरे की अपनी सीमा भी होती है। लेकिन क्या इस तथ्य से मुंह मोड़ सकते हैं कि कमरों में जिंदा दुनिया को हम कभी अपनी जिंदगी से अलगा सकते हैं?
जो कमरा अपने आगोश में मां-बाप भाई बहन को पनाह दिया करते थे वही कमरे अब इन्हीं सदस्यों की अनुपस्थिति में भंाए भाएं करते नजर आते हैं। इन कमरों में घुसना कई बार बड़ा भयानक और डरावना लगता है। वहीं दूसरी ओर एक बार फिर से पुरानी बातों और घटनाओं को याद करने का जरिया बन जाता है। अतीत में जाना और यादों को टटोलना हर किसी को अच्छा लगता है लेकिन उस अतीत से सही सलामत लौट आना एक चुनौती होती है।
जब हम किसी पुराने महलों किलों या स्मारकों के कमरों में घूम रहे होते हैं तब उस समय की सारी चीजें हमारी आंखों के सामने घूमने लगती हैं। अकथ्यतौर पर कमरा अपने जमाने की बातें सुनता है। वह सुनता है कि कैसे,किन हालातों में कोई इतना लंबा समय यहां पर गुजारा है। शांति निकेतन हो या गांधी आश्रम। इन कमरों को देखते घूमते हुए पूरा इतिहास आंखों के सामने जीवंत हो उठता है।
होस्टल के कमरे की अपनी अलग संस्कृति होती है। इन कमरों का अपना कोई निजी चरित्र नहीं होता। रात गुजार कर सुबह किसी और ठिकाने की ओर चल पड़ने वाले इन कमरों को यूं ही अकेला छोड़ जाते हैं। कमरा एक बार फिर से सज धज कर नए कस्टमर के लिए तैयार हो जाता है। यहां की हर चीज अपना रूप रंग बदल लेती है। आईना भी नए मेहमान के लिए तैयार हो जाता है। इन आईनों में कोई भी तस्वीर स्थान नहीं बन पातीं। यही इसकी त्रासदी भी है और नियति भी। जहां हर दिन नए चेहरे आते हैं वहां किसी खास चेहरे को बसाना संभव भी नहीं।
कमरे की अपनी निजी जिंदगी नहीं होती। उसकी जिंदगी तो कमरे में रहने वालों से तय हुआ करती हैं। जिस तरह का रहने वाला आया उसी रंग रूप में कमरे को ढलना होता है। कमरे की हर दीवार और रंग अपनी कहानी बयां करते हैं। बस हम ही हैं कि कमरों से कई बार बेआबरू हो कर निकलते हैं।

Saturday, September 27, 2014

टीम में मजे से पढ़ो


कौशलेंद्र प्रपन्न
First Published:24-09-14 11:33 AM
Last Updated:24-09-14 11:33 AM
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तुम अलग-अलग चुपचाप पढ़ते हो। इससे तुम जो पढ़ते हो, वह सिर्फ तुम ही पढ़ते और समझते हो। लेकिन जब तुम टीम में मिलकर पढ़ोगे तो ज्यादा आनंद आएगा। वह इस तरह कि यदि तुम्हें कोई चीज समझने में परेशानी हो रही है तो वह तुम दूसरे दोस्त से बातचीत कर पूछ सकते हो। जिस भी दोस्त को टीम में कोई सवाल आता होगा या समझ में आ गया होगा, वह तुम्हें समझा सकता है।
टीम में मिलकर पढ़ने का एक लाभ यह भी है कि एक बच्चे की तैयारी से दूसरे बच्चों को भी फायदा होता है। मान लो, तुम्हें गणित पढ़ने में कठिनाई आ रही है, वहीं दूसरे दोस्त की मैथ अच्छी है, तो वह बिना टीचर का इंतजार किए तुम्हें मैथ के प्रॉब्लम्स का हल बता सकता है। उसी तरह यदि कविता को समझने व पढ़ने के तरीके ठीक से नहीं आ रहे हैं, मगर दूसरे बच्चे को आते हैं तो वह तुम्हारी मदद कर सकता है।
कई बार अकेले पढ़ते वक्त नींद और निराशा भी होने लगती है, लेकिन जब हम टीम में बैठकर एक साथ पढ़ते हैं तब एक प्रतियोगिता की भावना भी हममें भर जाती है कि वह तो पढ़ रहा है, यदि मैंने ठीक से पाठ नहीं पढ़ा तो मैं तो पीछे रह जाऊंगा। दूसरी स्थिति यह भी पैदा होती है कि हम जैसे ही समूह में बैठते हैं, बस वैसी ही बातचीत शुरू कर देते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम पढ़ने के लिए एक साथ बैठ रहे हैं, न कि बातचीत करने के लिए।
समूह में बैठकर पढ़ने से कई सारी बातें स्पष्ट भी होती जाती हैं। इसलिए अब तुम लोग अपनी क्लास में एक ऐसी ही टीम बना सकते हो, जो एक साथ बैठकर पढ़े। तुम इस टीम में हर सदस्य को पहले से ही टॉपिक दे सकते हो, ताकि वह सदस्य उस खास विषय को तैयार करके आए। इससे एक बच्चे के पास एक से ज्यादा विषयों की तैयारी एक ही समय में हो जाएगी और साथ ही तुम्हारे भीतर टीम भावना का भी विकास होगा।

Thursday, September 18, 2014

पढ़ने की तैयारी तो करो


कौशलेंद्र प्रपन्न
First Published:17-09-14 09:59 AM
Last Updated:17-09-14 10:00 AM
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पढ़ने की तैयारी, यह नई चीज क्या है? क्या पढ़ने की भी तैयारी करनी पड़ती है? क्या पढ़ें और कितना पढ़ें? इसको भी तय करना होता है। जब तुम यह निश्चित कर लोगे, फिर पढ़ना आनंददायक हो जाएगा।
तुम्हारे आस-पास क्या और कौन सी चीजें लिखी हैं, उस पर एक नजर डालो। स्कूल की दीवारों, नोटिस बोर्ड, क्लास रूम की दीवारों पर अकसर कुछ न कुछ लिखा होता है।
क्या लिखा होता है? कभी पढ़ने की कोशिश की है? लिखा होता है- ‘बड़ों का आदर करना चाहिए’, ‘समय बहुत बलवान होता है’, ‘स्वास्थ्य ही जीवन की कुंजी है’ आदि।
सिर्फ अपने आस-पास लिखे वाक्यों को पढ़ लेना ही हमारा मकसद नहीं होना चाहिए, बल्कि उन पढ़े हुए वाक्यों के मतलब भी समझ में आने चाहिए। इसके लिए हमें किस प्रकार की तैयारी करनी चाहिए, इसको भी समझते हैं। हमें ज्यादा से ज्यादा लिखे हुए मैटर को पढ़ना और उन्हें समझने के लिए बड़ों की मदद लेनी पड़ती है। इसमें शर्माने की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई तुम्हारी परेशानी को सुन नहीं रहा है तो ऐसे में तुम्हारे पास शब्दकोश होता है। एक बार शब्दकोश देखने का चस्का लग जाएगा, फिर तुम्हें कोई भी शब्द डराएगा नहीं, बल्कि शब्दों की चमकीली दुनिया तुम्हें अपनी ओर लुभाने लगेगी।
तुम्हारे क्लास-रूम में अधिक से अधिक लिखे हुए शब्द और वाक्य होने चाहिए। क्लास में चार्ट पेपर, चित्रावली, स्टोरी चार्ट आदि हों तो तुम्हें पढ़ने के लिए बहुत सारी सामग्री मिल जाएगी। कक्षा की दीवार ही नहीं, बल्कि कक्षा का कोना भी बच्चों का अपना आनंद का कोना बन सकता है। रंग-बिरंगे चित्रों से सजी किताबों को जितना पढ़ोगे, उतनी ही तुम्हारी भाषा मजबूत होगी। अगर भाषा मजबूत हो जाएगी तो हर तरह का टॉपिक आसान लगने लगेगा तुम्हें।

Tuesday, September 9, 2014

कौशलेंद्र प्रपन्न » चांद परेशां क्यों

कौशलेंद्र प्रपन्न » चांद परेशां क्यों

चांद परेशां क्यों
क्यों हो चांद परेशां,
तन्हा भी हो क्यों,
रात रात भर अकेले
आंसू बहते हो।
सुबह दिखती हैं ओसों में,
निशा बुलाती है
बड़ी दीदी सुनाती है
तेरी धरती की बातें जो,
वही हमें याद आती है।
कल रात तुम अकेले थे-
सोचा तुम से बातें हों
मगर तुम तो खुदी में थे
क्या बातें भला होती।
सेाचा तुम को लिखूं ख़त
पता मुझको नहीं मालूम,
डाकिया ख़़्ात कहां देता,
लिखा ख़त मैं आज दे आया,
गांव के उस बुढ़े को,
जो आता ही होगा,
आज या कल में,
वही बांचेगा मेरा ख़त,
ज़रा ध्यान से सुनना।

स्कूल में शौचालय


स्कूल में शौचालय


ाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के सभी सरकारी स्कूलों में जुलाई 2015 तक लड़कियों के लिए अलग से शौचालय का निर्माण कराने का निर्णय लिया है। गौरतलब है कि अभी देश के 20 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से कोई शौचलय नहीं है। वर्ष 2012-13 में देश के 69 फीसदी और 2013-14 में तकरीबन 80 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था थी। जबकि 2009-10 में 59 फीसदी थी। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 स्कूल के बुनियादी ढांचे में जिन दस चीजों को शामिल किया है उनमें शौचालय, पीने का पानी,खेल का मैदान आदि हैं। कई गैर सरकारी और सरकारी रिपोर्टों जिनमें डाइस की फ्लैश रिपोर्ट भी शामिल है, पर नजर डालें तो पाते हैं कि अधिकांश राज्यों में सरकारी स्कूलों में शौचालय, पीना पानी, खेलने के मैदान आदि नहीं हैं। गांव और कस्बों में चलने वाले स्कूलों में शौचालय नहीं होने की वजह से बच्चियां स्कूल नहीं जा पातीं। एमएचआरडी की रिपोर्ट की मानें तो बच्चियों का बीच में स्कूल छोड़ जाने के पीछे एक बड़ा कारण स्कूल में लड़कियों के लिए शौचालय का न होना है।
मानव संसाधन मंत्रालय ने शौचालय बनाने का जिम्मा काॅपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी यानी सीएसआर को सौंपा है। इसके तहत स्कूलों में शौचालय का निर्माण किया जाएगा। आज देश के अधिकांश स्कूलों में या तो शौचालय हैं ही नहीं। और यदि हैं तो वो इस्तमाल में नहीं हैं। राजस्थान, बिहार, पंजाब, उत्त्तर प्रदेश आदि राज्यों के गांवों में चलने वाले स्कूलों में देखें तो वहां टीन से ढक कर शौचालय का रूप तो दिया है, लेकिन उसके दरवाजे पर पुराना जंग लगा ताला मिलेगा। उसमें न पानी है और न बैठने की व्यवस्था। ऐसे में बच्चों को खेत या खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। लड़कों के लिए थोड़ी सुविधा हो सकती है, लेकिन लड़कियों के लिए यह महफुज नहीं माना जा सकता। पंजाब एवं राजस्थान में माता पिता अपनी बच्चियों को इसलिए स्कूल नहीं भेजते क्योंकि स्कूल में लड़कियों के लिए अगल से शौचालय नहीं है।
निजी स्कूलों को छोड़ दें तो सरकारी स्कूलों की स्थिति अमूमन एक सी है। जबकि आरटीई एक्ट 2009 में स्पष्ट लिखा हुआ है कि स्कूल में कम से कम दस बुनियादी सुविधाएं होनी ही चाहिए जिसमें कक्षा-कक्ष, चाहरदीवारी, पीना का पानी, शौचालय, भाषा शिक्षक, शिक्षक के लिए कक्ष आदि। लेकिन जब इन बिंदुओं पर नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि अधिकांश स्कूल इस पैमाने पर खरे नहीं उतरते।
आरटीई के लक्ष्यों को पाने का अंतिम समय सीमा भी खत्म हो चुका है। वहीं सबके लिए शिक्षा यानी इएफए का लक्ष्य सीमा भी 2015 में खत्म होने वाला है। लेकिन जब हम वस्तुस्थिति का जायजा लेते हैं तो हमें हमारी दूरी नजर आती है। इसमें कमी कहां रह गई इसकी जांच करनी पड़ेगी और यह देखना होगा कि जिन वायदों और घोषणाओं को हमने अंतरराष्टीय स्तर पर किया था उन्हें पाने के लिए हमें किन रणनीतियों को अपनाना चाहिए। क्या जिन रास्तों को हमने अब तक मकूल समझा था वह पर्याप्त हैं या उनमें रद्दो बदल करने की जरूरत है। हमने सर्व शिक्षा अभियान, राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, शिक्षा का अधिकार अधिनियम आदि तो चलाए किन्तु हमसे कहां चूक हो गई कि करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजुद भी हमारे तकरीबन 80 लाख बच्चे/बच्चियां स्कूली तालीम से महरूम हैं। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि हम आने वाले भविष्य को किस प्रकार की तालीम दे रहे हैं और ऐसी बुनियाद पर कैसी इमारत बनेगी।
देश की सरकारी स्कूलों में बुनियादी जरूरतों का बेहद टोटा है। टीचर हैं तो कक्षा नहीं। कक्षा है तो बच्चे उससे भी कहीं ज्यादा हैं। अभी भी देश भर में 5 लाख से भी ज्यादा प्रशिक्षित शिक्षकों के पद रिक्त हैं। अध्यापकों की कमी को दूर करने का जो तरीका अनुंबध पर रखने का अपनाया गया वह आरटीई के अनुसार उचित नहीं है। क्योंकि आरटीई कहती है कि अप्रशिक्षित शिक्षकों को तीन माह के भीतर प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होगा। लेकिन दिल्ली, बिहार, उत्त्र प्रदेश आदि राज्यों में अनुबंधित शिक्षकों की भर्ती पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। उनको प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी कौन वहन करेगा यह हकीकतन दिखाई नहीं देता। बच्चों को बैठने के लिए समुचित व्यवस्था नहंीं है। एक एक शिक्षक को 100 से भी ज्यादा बच्चों को कक्षा में पढ़ाना ही नहीं पड़ता बल्कि उनकी देखभाल भी करनी पड़ती है। एक शिक्षक चाह कर भी शिक्षण नहीं कर पाता। कई ऐसे शिक्षक/शिक्षिकाएं हैं जिन्हें पढ़ाना अच्छा लगता है। वे पढ़ाना भी चाहते हैं लेकिन वे मजबूरन पढ़ा नहीं पाते जिसका उन्हें कहीं न कहीं मलाल है। क्या हम यह कह सकते हैं कि अभी भी हमारे समाज में ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो सचमुच पढ़ाना चाहते हैं लेकिन व्यवस्थागत और प्रबंधकीय कार्यों की वजह से अपने कार्य से वंचित हो जाते हैं।
यह अलग बात है कि आज हजारों स्कूल शिक्षकों की कमी के शिकार हैं। जहां दो तीन या छह शिक्षक हैं जो पूरे स्कूल को संभाल रहे हैं। शिक्षण से लेकर प्रशासकीय तमाम कार्यांे को अंजाम दे रहे हैं। लेकिन उनके इस कार्य भार को कोई भी नहीं सराहता। बल्कि उल्टे उनकी अक्षमता को ही उजागर किया जाता है। सिर्फ लानत मलानते ही दी जाती हैं। ऐसे में शिक्षक को प्रेरित करने वाला कौन होगा। कौन होगा जो जिनके कामों को पहचान सके। समाज में हर तरफ इनकी आलोचना और उपेक्षा ही होती है कि शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते। इन्हें मुफ्त में आधे दिन की नौकरी करनी होती है आदि। जबकि गंभीरता से देखें तो इनकी जिम्मेदारी कहीं ज्यादा गंभीर और जिम्मेदारी वाली होती है। जरा कल्पना करें यदि एक बच्चा गलत तालीम पाता है तो वह समाज के लिए कितना बड़ा खतरा साबित हो सकता है। हर बच्चा शिक्षक की नजर में समान होता है।
सरकारी स्तर पर स्कूलों को सुधारने और बेहतर शिक्षा हर बच्चे को मिले इसके लिए प्रयास होते रहे हैं। लेकिन अब आवश्यकता और समय आ चुका है कि समाज के अन्य वर्गों को भी स्कूल की स्थिति सुधारने के लिए हिस्सेदार बनाना होगा। सरकार की अपनी कुछ सीमाएं और वह उसी सीम में रहते हुए कार्य करती है। सरकार नियम और बजट तो दे सकती लेकिन व्यक्ति में कार्य के प्रति समर्पण और निष्ठा पैदा नहीं कर सकती। स्कूल में कार्य सुचारू चल रहे हैं या नहीं इसकी निगरानी प्रशासनिक स्तर पर तो होता ही है यदि स्थानीय निकायों को भी इसमें शामिल किया जाए तो शिक्षकों की गैर शैक्षणिक  कार्यों से निजात दिलाई जा सकती है।


Friday, September 5, 2014

गानों से भी सीख सकते हो हिन्दी


कौशलेंद्र प्रपन्न
First Published:03-09-14 09:55 AM
Last Updated:03-09-14 09:55 AM
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आज गाने कौन नहीं सुनता? छोटे से लेकर बड़ों तक और गांव से लेकर शहर तक। चाय की दुकान पर, रिक्शेवाले, कार वाले, स्कूल वाले, कॉलेज वाले सभी गानों को सुनने में मगन दिखाई देते हैं। गाने सुनने के भी कई फायदे हैं। जो चीजें किताबों में पढ़ने में रुचिकर नहीं लगतीं, वही गाने सुनने के दौरान उन चीजों को भी दुहराने लगते हैं जिसे कभी किताबों में पढ़ा था। हर गाने में कोई न कोई स्टोरी भी होती है। वैसे हर गाने में न केवल बोल होते हैं, बल्कि शब्द होते हैं और उस गाने को गुनगुनाने लायक बनाने के लिए उसे संगीतबद्ध भी करना पड़ता है।
हिन्दी की किताबों में छोटे -छोटे शब्द, वाक्य, पूरा का पूरा एक पैराग्राफ लिखा जाता है। उसे याद करना और सही तरीके से लिखना भी बड़ी समस्या है। तुम्हें व्याकरण की नजर में हिन्दी के वाक्य कठिन लगते होंगे। कौन सी पंक्ति स्त्रीलिंग होगी? कौन सा शब्द पुल्लिंग है और कौन सा शब्द स्त्रीलिंग, इसके चक्कर में कई बार फंसे होगे। जैसे बस आती है या आता है? दुकान खुली है या खुला है? दही खट्टा है या खट्टी है? ऐसे कई सारे शब्द हैं, जिनमें अमूमन कठिनाई होती है।
अगर तुम हिन्दी के गानों को ध्यान से सुनोगे और उन गानों में इस्तेमाल किए गए शब्दों, वाक्यों को गौर से सुनोगे तो व्याकरण की इस तरह की कठिनाइयों का समाधान मिलेगा। यूं तो कई गाने महज पार्टी, डांस आदि को ध्यान में रखते हुए लिखे जाते हैं। उसमें बोल से ज्यादा धुन, म्यूजिक आदि प्रमुख होते हैं। लेकिन कुछ गानों में बोल यानी शब्द बहुत सोच-समझकर प्रयोग किए जाते हैं।
गानों में शब्द, वाक्य, भाव को बड़ी सावधानी से पिरोया जाता है। यही वजह है कि ‘डोले रे डोले डोले डोले रे। अगर मगर डोले नैया भंवर भंवर जाए रे पानी..डूबे न डूबे न मेरा जहाजी..’ गाना बच्चों को खूब पसंद है। अब से गानों को सुनो तो उसकी हिन्दी व्याकरण पर भी ध्यान देना। सुनते-सुनते हिन्दी भी ठीक हो जाएगी।

नदी और हम




दी हमारे आने से पहले थी और यही सच है कि हमारे जाने के बाद भी यूं ही अनवरत बहती रहेगी। धार में न तो कोई मंथरपन आएगा और न ही ठहराव। बल्कि सदियों सदियों तलक बिना आंसू बहाए हमारी जीवनधार बहती ही रहेगी। कभी देखें इन्हें रूक कर अपने रफ्तार भरी जिंदगी से तो ये कितनी शंात धीर-गंभीर लगती हैं। दरअसल इनकी शांति दिखाई नहीं देती। हमें तो इनके कलकल हर हर की आवाज में भी एक संगीत सुनाई देती है। व्यास है यह। कहते हैं बहुत चंचला प्रकृति की है व्यास। जैसा उपर से है वैसे ही नीचे से। गहराई है तो उछलापन भी है। तेज प्रवाह है तो कहीं एकदम चुपके से दबे पांव चलने वाली व्यास भी मिलती है। हिमाचल की तलछट्टियों में लोटने वाली व्यास अपने साथ हिमालय को भी लेकर चलती है।
बिलासपुर से कुछ पहले ही व्यास संग संग चलने लगती है। जैसे जैसे घूमावदार पहाड़ी चढ़ते जाते हैं वैसे वैसे व्यास नीचे और नीचे बहती है। लुका छिपी करती व्यास काफी दूर तक साथ होती है। लेकिन कब यह खुद को छुपा ले यह पता ही नहीं चलता। कई बार नदियों को देखकर लगता है ये कितनी सौभाग्यशाली हैं कि इन्हीं के सामने हमारे पुरखे आए नहाए और अंत में इन्हीं में समा गए। कितने कितनों की जिंदगी को खुद मंे समो कर भी व्यथित नहीं होती। कहीं कोई तड़प नहीं होती। लेकिन वहीं जब झेलम चनाब या घाघर,बुढ़ी गंड़क, कोसी को देखते हैं तो महसूस होता है कि नदी भी कितनी बेचैन है। यह भी कितनी परेशां होती है अकेले में। रात भी निरा शांत सो जाती है।
नदियां हमारी धरती की मांग के मानिंद प्रतीत होती हैं। जैसे धरती नहा धो कर अपनी मांग बना रही हो। वैसे ही नदियां धरती की माथे की मांग सी सजी नदियां बेहद लुभावन लगती हैं। छोटी बड़ी तमाम तरह की नदी वास्तव में पूरी धरती पर मचलते हुए अंत में अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुंचती हैं।
नदी को खुद भी पता नहीं होता कि कब कौन उसमें आप्लावित हो रहा है। कौन उसके साथ खिलंदड़ी कर रहा है। वह बच्चा है या जवान, बूढ़ा है या कोई और यदि सवाधानी नहीं बरती तो नदी उसे मांफ नहंी करती। यूं तो नदी मां की तरह मुहब्बत करती है लेकिन मर्यादा लांघते ही सबक सीखाने मंे पीछे नहीं रहती। अ

दी के द्वीप कविता में अज्ञेय जी ने नदी को कुछ इस रूप में याद किया है कि तुम संस्कारित करते रहना। नदी हम हैं द्वीप। एक जगह ही खड़े रहेंगे। नदी ही दरअसल बहती है। हम तो बस कुछ समय के लिए प्रवहमान रहते हैं फिर अपने पीछे एक दुनिया छोड़कर चल पड़ते हैं। कोई लाख गुहार लगा ले। कोई आंसुओं की नदी क्यों न बहा दे लेकिन हम चले जाते हैं तो बस चली ही जाते हैं। लेकिन नदी तो कहीं नहीं जाती। वहीं के वहीं बहती रहती है। हां इतिहास बताता है कि कई सारी नदियां समय समय पर अपने रास्ते भी बदली हैं। शहर को छोड़कर दूर भी गई है। और कई बार तो सीमांत को छोड़कर बीच शहर-गांव में भी बहने के रास्ते निकाले हैं।

भी ऋषिकेश में गंगा के किनारे रात में खड़े हों लगेगा गंगा परेशान है। कुछ कहना चाहती है। पर कहना चाहती है यही तो स्पष्ट नहीं है। पर इतना तो साफ है कि हर नदी हमसे कुछ नहीं बहुत कुछ कहना चाहती है। यदि ठहर कर सोचेें तो मालूम चलेगा कि आखिर नदी सदियों से क्या कहना चाहती है? किस बात को लेकर नदी कसक रही है। वही पुकार हर नदी की होती है। वह कहती है मैं तुमसे पहले से हूं। और तुम्हारे जाने के बाद भी मैं यथापत् रहूंगी। मेरे ही किनारे दुनिया के तमाम शहर,नगर, देश बसे हैंै।

दी के अकेलेपन को दूर करने के लिए पहाड़ साथ होता है। पहाड़ भी तो अकेला कब तक खड़ा रहेगा। उसे भी तो साथ चाहिए। नदी और पहाड़ साथ साथ अपने दुख सुख बांटते एक साथ चला करते हैं। लेकिन कई बार पहाड़ नदी से मिलने के लिए इतना आतुर हो जाता है कि भरभरा कर नदी में जा मिलता है। और इस तरह से लंबे समय से साथ चलते हुए दो साथियों में मुलाकात संभव हो पाता है।
न जाने किन कोनों, मुहानों से होती हुई ये नदियां हम तक पहुंचती हैं। कहीं खाई में गिरती हैं तो कहीं चट्टानों से सिर फोड़ती हैं। कहीं शहर के बीच से होती हुई मचलती सैलानियों को लुभाती हैं। तो कहीं अपनी घहराती ध्वनियों से आकर्षित करती हंै।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...