Wednesday, October 31, 2018

मैं वो शहर बोल रहा हूं...



कौशलेंद्र प्रपन्न
लोकतंत्र के चारों पहरूएं रहा करते हैं। राजपथ और तमाम प्रथम पुरुष के निवास स्थान हुआ करते हैं। हां मैं ही शहर बोल रहा हूं जहां संसद में पास हुआ करती हैं सभी ज़रूरी कानून और लागू भी किए जाते हैं पूरे देश में। हां मैं वहीं से बोल रहा हूं। जहां साफ सफ्फाक लोग बसा करते हैं।
मैं उसी शहर से बोल रहा हूं। मेरे शहर का मौसम इन दिनों ज़रा ख़राब चल रहा है। मेरे शहर के पुल भी इन दिनों परेशान, धुंधले से हो गए हैं। न पुल न सड़क और पेड़ देख जा सकते हैं। सब के सब गोया धुंध के चादर में लिपटे हैं।
सुबह स्कूल जाते बच्चे। दफ्तर की ओर दौड़ते लोग, मजदूर सभी परेशान आंखों को मलते, खखारते नजर आते हैं। बच्चों को तो सांस लेने में भी परेशानी हो रही है। बुढ़े भी तो इसमें शामिल हैं। उन्हें भी सुबह टहलने की आदत बदलनी पड़ी है।
मैं कई बार सोचता हूं शहर कैसे शहर है। हालांकि मैं महानगर से बोल रहा हूं। उस महानगर से जहां सपने पलते हैं। ख़ाब जिंदा रखने की कीमत सेहद से चुकानी पड़ती है। सेहद भी गंवाई और सपने भी अधूरे रह गए तो इससे तो अच्छा था हम किसी छोटे शहर में ही रह लेते।
लेकिन क्या कोई ऐसा शहर बचा है जहां प्रदूषण न हो। क्या कोई ऐसा महानगर भारत में बचा है  जहां की हवा शुद्ध और सांसों में भरने के लिए ठीक हो। मेरे सवालों पर हंस सकते हैं। मुझे बेवकूफ मान सकते हैं। मानने में कोई हर्ज नहीं लेकिन मेरे सवालों और चिंताओं पर गौर कीजिए मैं गलत नहीं हूं। आप कहेंगे वाह! यह भी कोई बात हुई? हमने तुम्हें सपने दिए। सपनों को पूरा करने के लिए संसाधन दिए। और क्या चाहिए तुम्हें।
तुम्हें फास्ट रेल दिए। चार और आठ लेन की सड़कें दीं। रात भर चलने और जलने वाली गाड़ियां दीं। और भी तुम्हें चाहिए? क्या चाहते हो आख़िर?
एक चमचमाती सड़क किसे मयस्सर है आज? हर शहर और नगर, गांव और कस्बा चाहते हैं उनके यहां मॉल्स खुलें, मेट्रो दौड़े और तो और तुम्हें भी ऑन लाइन शॉपिंग का आनंद लेना है जो कुछ तो चुकाने होंगे। तुम्हें तुम्हारे शहर से दर्जी, नाई, जूता साज़, परचून की दुकानें मैं वापस लेता हूं। लेता हूं तुमसे वो तमाम स्थानीय सुविधाएं जिनमें तुम पले बढ़े थे। तुम्हें देता हूं घर बैठे शॉपिंग का मजा। पिज्जा और बरगर, मोमोज और मैक्रोनी का स्वाद। बस तुम्हें छोड़ने होंगे मौलवी साहब की छोटी सी दुकान, मास्टर सैलून से बाहर आना होगा। फिर मत कहना हमारे शहर से मास्टर सैलून की दुकान बंद हो गई और महंगी दुकाने खुल गईं जहां हजामत बनाने के पच्चास और सौ रुपए देने पड़ते हैं।

Monday, October 29, 2018

माथा फोड़ते बच्चे और शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
दिल्ली के एक स्कूल में आठवीं के बच्चे ने शिक्षक के माथे पर लोहे के रड़ से वार किया और शिक्षक अस्पताल में भर्ती हैं। यह पहली मर्तबा नहीं है कि किसी बच्चे ने शिक्षक का माथा फोड़ा। किसी शिक्षिका के हाथ तोड़े या फिर स्कूल में कक्षा से शिक्षिका या शिक्षक के बैग से पैसे चोरी हुए। ऐसी घटनाओं की एक लंबी लाइन है। सवाल यहीं से उठते हैं कि हम कैसी शिक्षा अपने बच्चों को दे रहे हैं। वह कैसी शिक्षा है जो शिक्षक पर ही हमला बोल रहे हैं।
यह शांति के लिए शिक्षा तो नहीं हुई जिसकी वकालत एनसीएफ 2005 कर रही थी। इस दस्तावेज़ में एक पाठ ही है शांति के लिए शिक्षा। हम बच्चों को पिछले पंद्रह सालों में संवेदनशील तक नहीं बना पाए। इतनी भी तमीज़ नहीं दे सके कि वे शिक्षकों की इज्जत न करें तो कम से कम माथा तो न फोड़ें। दूसरे शब्दों में शिक्षक पढ़ाएं भी और माथा हाथ भी फुड़वाएं। यह कैसे शिक्षा है?
हिंसक होते बच्चों से शिक्षा कैसे पेश आती है? हमारी तैयारी इस प्रकार के बच्चों से रू ब रू होने की है? क्या हम ऐसे बच्चों को नजरअंदाज कर दें या फिर जुबिनाइल एक्ट के तहत इनके साथ बरताव करें। कुछ तो रास्ते अपनाने होंगे। वरना इन बच्चों के हौसले कम होने की बजाए बढ़ने ही वाले हैं।
िंहंसा या हिंसक प्रवृत्ति को समझते हुए शिक्षक और शिक्षा को सकारात्मक कदम उठाने का वक़्त आ चुका है। शिक्षक वर्ग की मानें तो उनका कहना है जब से परीक्षा का भय व कहें फेल होने के भय बच्चे मुक्त हो गए हैं तब से उनमें शिक्षकीय डर भी जाते रहे। बच्चे शिक्षकों से डरना तो दूर पढ़ने से भी कतराने लगे हैं। बातों ही बातों में कह देते हैं फेले कर के दिखाओ।
दोनों ही पक्षों के अपने अपने तर्क हैं। शिक्षक वर्ग के तर्क भी कुछ हद तक मजबूत नजर आते हैं। लेकिन सोचना तो यह भी होगा कि शिक्षक क्यों चाहते हैं कि बच्चे उनके डरें। क्यों नहीं चाहते कि बच्चे उनसे मुहब्बत करें। शायद मुहब्बत करें तो हिंसक नहीं हांगे। हालांकि प्रेम में भी हिंसा देखी जाती है। यह अलग मसला है। हमें हिंसक होते बच्चों की मनोदशा को किसी भी सूरत में ठीक करने की आवश्यकता है। वरना वो दिन दूर नहीं जब बच्चे और शिक्षक दोनों ही हथियार ले कर स्कूल जाया करें। जो भारी पड़ा या जिसने भी नियंत्रण खोया वो दाग देगा गोली। विदेशों से ऐसी ख़बरें खूब आती हैं कि बच्चे ने सहपाठी को या फिर शिक्षक को गोली मारी।

Sunday, October 28, 2018

दशकों बाद भी मिलो गोया कल ही मिले थे


कौशलेंद्र प्रपन्न
दशक का फासला कितना लंबा होता है। है न? कभी मिलिए ऐसे व्यक्ति से जिनसे आपकी मुलाकात तकरीबन बीस या तीस साल बाद हुई हो। संभव है आप या कि वो पहचान न पाएं। कई बार आप पुराने डोर को टटोलते हैं पुरानी तस्वीरों से आज के चेहरे, आज की आवाज से मिलान करते हैं। हम कई बार आवाज़ की डोर पकड़कर पहचान को दस्तक देते हैं और सही व्यक्ति को पहचान लेते हैं। कोई कितना भी वयोवृद्ध हो जाए या फिर उम्र की सीढ़ियां चढ़ लें हमारी कुछ आदतें, आवाज़ आदि पहाचन के सूत्र में पीरो देते हैं। और पुरानी यादों की परतें खुलने लगती हैं।
ऐसा ही पिछले दिनों हुआ। एक अपने ही घर के पास रहने वाली दीदी से मुलाकात हो गई। यही कोई तीन दशक बाद। बुनियादी बुनावट चेहरे की वही थी। बस तीस साल का सफ़र चेहरे पर दिखाई दे रहा था। आवाज और आदतें कुछ कुछ वैसी ही थीं। जैसी तब हुआ करती थीं। वैसे ही रफ्तार में बोलना, तेज बोलना और हमेशा हड़बड़ी में रहना। कभी किसी चाची को छेड़ना तो कभी कभी किसी को। वह आदत अभी तीस की मार से कमजोर नहीं पड़ी थी। बस कुछ बदला था तो तीन बच्चे उनके हिस्से आए और पति समय पूर्व चले गए। हालांकि यह कोई छोटी बात और घटना नहीं थी।
इसी तरह से ऐसी ही साथ पढ़ने वाली दोस्त से फोन पर बात हुई। तब हम एम ए में साथ हुआ करते थे। यह भी दो दशक पुरानी बात हो गई। कहीं किसी कॉमन दोस्त से उसका नंबर मिला और मिला दिया फोन। न आवाज़ पहचाना और न नाम ही याद कर पाई। हो भी कैसे कोई आवाज़ का हमारे पास डेटाबैंक तो है नहीं कि हम तुरंत वर्तमान की आवाज़ और चेहरे को मैच कर लें। सो वही हुआ। मैं फोन पर बताता रहा मैं वो हूं। वो हूं। आदि आदि। उधर आवाज़ वैसी स्थर और अपरिचित। फिर मैंने कहा कोई बात नहीं। बीस पच्चीस सालों में आवाज़ और चेहरे पर उम्र की मार साफ दिखाई देने लगती है। किन्तु फिर भी चाहें तो पुराने डोर को मांझा देकर मुलाकात को तरोताज़ा कर सकते हैं।
अब कई बार महसूस हुआ करता है कि आज जिससे हमारे रंज़िश है। किसी से कटते हैं। कोई कुछ ज़्यादा ही पसंद आती हैं। क्या आवाज़ और क्या हंसी है आदि आदि। देखना यह है कि ब बीस या पच्चीस साल बाद मुलाकात होगी यदि हुई तो क्या हम पहचान पाएंगे? क्या हम पहचान कर मुंह फेर लेंगे? तब तक तो रंज़िशें भी पिघल जाएंगी। चेहरे और लुनाई भी जाती रहेगी।
मेरे पिताजी की एक पंक्ति साझा कर रहा हूं बेहद मौजू है-
अभी तो मुझे खींचते हैं नज़ारे
बड़े प्यार से चांद देता बुलावा,
ये अल्साती कलियां कदम धाम लेंती,
बिछुड़ जाएंगी जब ये तब सोच लूंगा।


Friday, October 26, 2018

यात्रा में बातचीत



कौशलेंद्र प्रपन्न
गाहे ब गाहे हम रोज दिन न जाने कितने ही लोगों से मिला करते हैं। उनमें से कुछ लोग याद रह जाते हैं और कुछ भूल या भुला दिए जाते हैं। याद रह जाने वाले लोग शायद अपनी बातचीत की शैली, कंटेंट या फिर कहन के तरीके की वजह हमारी स्मृतियों के अभिन्न हिस्सा हो जाते हैं। भूला वे दिए जाते हैं जिनकी बातों में हमें दिलचस्पी नहीं थी। या फिर हम सुनना या मिलना ही नहीं चाहते थे। क्या करें मिल गए तो सुन लिए, सामने पड़ ही गए तो हाथ मिला ली। इस तरह की घटनाओं से हमारी ज़िंदगी भरी हुई है। कई बार तो सामने बैठा व्यक्ति हमें इतना ऊबाता है कि उससे छुटकारा कैसे मिले बस इस उपक्रम में हां में हां या हुंकारी भरा करते हैं। किसी तरह अपनी बात खत्म करे और पीछा छुटे। लेकिन आपको भी याद होगा कि ऐसे कई सारे लोग हमारे आस-पास हुआ करते हैं जिन्हें सुनने के लिए हम लालायित भी रहते हैं। वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जिन्हें देखना, सुनना कत्तई पसंद नहीं करते। ऐसे ही एक ऑटो चालक से पिछले दिनों मुलाकात हुई। बात नोटबंदी और अगले साल होने वाले चुनावों से हुई। लेकिन कब हमारी बातचीत इतिहास में गोते लगाने लगी यह मालूम ही नहीं चला। हालांकि यात्रा की लंबाई कम थी। हमें जल्द ही उतरना भी था लेकिन बातों में इतनी रोचकता और जीवंतता थी कि यात्रा खत्म होने के बाद भी हम रेड लाइट पर खड़े होकर बात को अंजाम तक पहुंचाने की बेचैनी भरे हुए थे। इस यात्रा में मेरे साथ डॉ रमेश तिवारी और अभिषेक कुमार भी थे। उन सज्जन ने जैसे ही अपनी बात चुनाव और महंगाई से आगे ले जाकर भारतीय इतिहास का पल्ला पकड़ा अब बातों में और भी रोचकता घुलने लगी। वो सज्जन मोहम्मद इज़रिश थे। जिनसे छोटी किन्तु सारगर्भित बातचीत ने हमें लुभा लिया।
उन्होंने इतिहास की इतनी बारीक तथ्यों को इतनी सहजता और रोचकता के साथ साझा की कि लगा ही नहीं कि ये ऑटो चालक होंगे। महसूसा हुआ कि हम किसी इतिहासवेत्ता से बात कर रहे हैं। उन्होंने मुगल काल से लेकर खिलजी सल्तनत और औरंगजेब से लेकर हुमायूं तक यात्रा कराई। उन्होंने अपनी समझ और विश्लेषण की तथ्याता इस रूप में भी स्थापित करते चल रहे थे कि बीच बीच में तारीख़ी हक़ीकत और और तथ्यों को पीरों रहे थे। 1580 से लेकर अब तकी भारतीय ऐतिहासिक यात्रा महज पंद्रह मिनट में करा दी। उन्होंने बातों ही बातों में बताया कि किस प्रकार अविभाजित भारत की सीमा कभी काबूल, अफगानिस्तान, इस्ताम्बूल आदि से मिले हुए थे। कब कब मुगलों, अफ्गानों और अन्य आक्रमणकारियों से भारत की संप्रभूता और अखंड़ता को चोट पहुंचाई। तब की तात्कालिक राजनीतिक परिघटनाओं को भी अपनी बातचीत का हिस्सा बना रहे थे। हमने बीच बीच में यह जानने की कोशिश की कि उनकी तालीम कहां तक की है। उन्हें इन तमाम ऐतिहासिक तथ्यों और कहानियों की जानकारी कैसे मिली आदि। मगर उन्होंने हमारे इन सवालों को अनदेखा कर दिया। गोया उन्होंने हमारी बातों को तवज्जो ही नहीं दी।
दरअसल हमारी यात्राएं अब बंद गाड़ियों में मकदूद हो गई हैं। जब हम सर्वाजनिक परिवहनों को इस्तमाल किया करते थे तब कुछ ज़्यादा ही लोगों से हमारी मुलाकातें हुआ करती थीं। जैसे जैसे हमारी निजी वाहनों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई वैसे वैसे हमारी सार्वजनिक वहनों से नाता टूटता सा चला गया। हम आम बसों, साझा वाहनों में चलना, यात्रा करना लगभग बंद कर चुके हैं। जिनके पास निजी वाहन वहन करने की क्षमता है उनलोगों की जिं़दगी से सार्वजनिक परिवहन अपनी पहचान खो चुके हैं। यही कारण है कि सार्वजनिक परिवहनों में यात्रा करने वालों की संख्या पर असर पड़ा है। वहीं दूसरी ओर सड़कों पर निजी वाहनों में बाढ़ सी आ गई है। इन लंबी और बड़ी गाड़ियों में यात्रा करने वाले साफ-सफ्फाक कपड़े पहने, महंगी घड़ी और गाड़ी वाले तो आम सार्वजनिक वाहनों में सफ़र करने वालों को क्या ही प्राणी समझा करते हैं। हालांकि यह एक पूर्वग्रह भी हो। लेकिन बंद गाड़ी में घर से दफ्तर और दफ्तर से घर या फिर घर से मॉल और मॉल से घर के दरमियान आपकी कितने लोगों से मुलाकात संभव है? आप कितनों के संपर्क में आते हैं आदि जानना भी बेहद मौजू है। जब हम सार्वजनिक परिवहनों में यात्रा करते हैं, आप जगहों पर घूमा करते हैं तब हमें कई किस्म के लोग टकराते हैं। उन्हीं में से किसी से प्यार, गुस्सा, लगाव के रिश्ते भी पलने लगते हैं। स्कूल या कॉलेज में क्योंकर प्यार हो जाया करता है क्यांकि बच्चे खाना-पीना, घूमना फिरना सब साथ किया करते हैं। लेकिन जैसे हम निजी खोल में खुद को समेटने लगते हैं वैसे ही हमारे रिश्तों की सीमा में तय होने लगती है।
कभी ट्रेन मे ंतो कभी प्लेन में यात्रा करते करते रिश्ते बन जाया करते हैं। ज़रूरत महज इस बात की है कि क्या हम शिद्दत से और सलीके से बातचीत का पहल कर रहे हैं। या फिर अपने अपने खोल और बात न करने की ज़िंद में पास ही बैठे बेगाने से हुआ करते हैं। अब तो इयरफोन की लीड कान में डूंसे अपनी ही गीतों की दुनिया में मग्न रहा करते हैं। लेकिन इन तमाम परिस्थितियों को धत्ता बताते हुए कुछ लोग अभी बचे हैं जिन्हें बातें करना खूब भाता है। ये अलग बात है कि कई बार बातूनी लोगों से हमें परेशानी भी होती है। हम रिजर्ब रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हमें बातें करना उतना नहीं भाता और न ही यह चाहते हैं कि कोई हमारी निजी जिंदगी में दखल दे।
ट्रेन, बस, प्लेन के पायलट आदि से कभी बात करने की कोशिश की कि आप कैसे हैं? कैसा महसूस होता है जब आप किसी ट्रेन को साठ और बहत्तर घंटे चलाया करते हैं। आपकी कैबीन में कोई तीसरा नहीं होता क्या आपको किसी से बात करने, मिलनी की कमी नहीं अखरती? महसूस तो होता होगा? घर की याद तो आती होगी आदि आदि। शायद हम ड्राइवर, पायलट आदि से बात करना उचित नहीं समझते। नहीं मानते कि उन्हें भी कभी शुक्रिया कहा जाए। कहा जाए कि कितनी चुस्ती और तत्परता से आपने हमें हमारी मंजिल तक की यात्रा सुरक्षित और आनंदपूर्ण तरीके से पूरी की। मुझे याद हम जब पिछली यात्रा में लेह-लद्दाख जा रहा था प्लेन का पायलट जिस खूबी और साहित्यिक शैली में यात्रा में पड़ने वाले जगहों, पहाड़ों, नदियों के बारे में उद्घोषण कर रहे थे उनकी भाषा और वर्णन को सुनकर मन में एक हूंक सी उठी कि क्यों न उनके मिलकर उनकी भाषा और अंदाज ए बयां की तारीफ़ की जाए। जैसे ही लेह उतरा सबसे पहले भागकर पायलट के पास गया और उनकी भाषा और शैली की तारीफ की। उनका मन गदगद हो गया। 

Thursday, October 25, 2018

चिमनी से निकलता धुआं और डेहरी का चेहरा



कौशलेंद्र प्रपन्न
अब जब याद करता हूं तो मेरे जेहन में ऊंची चिमनी से निकलता लगातार धुआं मुझे एकबारगी डेहरी के उस चेहरे से दुबारा रू ब रू कराता है, बल्कि कहना चाहिए उस सुखद पलों में ले जाता है जब अपने छत से तीन चिमनियों को एक साथ गलबहियां करते सीधे खड़े देखा करता था। देखा करता था कैसे ये तीनों चिमनियां अपने बलंद इरादों और इतिहास पर गर्व करते हुए खड़े थे। इन्हीं चिमनियों से शायद डेहरी की भी पहचान हुआ करती थी। जब आप दिल्ली या बनारस से डेहरी की ओर ट्रेन से आया करते थे तब पहले पहल नहर पार करते ही ये चिमनियां ही तन कर हमारा स्वागत किया करती थीं। साथ रोशनी से जगमाती सुबह और रातें बताती थीं कि शहर जगा है, हम बेशक सो रहे हैं। पूरी रात शहर सोया करता था। मगर डालमियानगर जगा रहता था। सिफ्ट में काम करने वाले अफ्सर, मजदूर लगातार मेन गेट से आवाजाही किया करते थे। और इस तरह से डालमियानगर सोते हुए भी जगा रहता था। उत्पादन में तल्लीन डालमियानगर तब कागज़, डालडा, सिमेंट आदि उगला करता था। वैशाली नाम से बच्चों के लिए स्कूली अभ्यास पुस्तिका भी छपा करती थी। जिसमें दाई ओर अशोक स्तम्भ छपा होता था। उन अभ्यास पुस्तकों का इस्तमाल हमने भी किया। हालांकि तब एहसास न था कि इतना व्यापक और मजबूत साम्राज्य काल के गाल में समा जाएगा। सच पूछिए तो शायद डालमियानगर से ही डेहरी की भी पहचान जुड़ी थी। जैसे गर्भनाल से बच्चा जुड़ा होता है। उसी डालमियानगर में स्कूली, कॉलेज, बेहतरीन पार्क, सड़के ऐसी कि देखकर मन प्रसन्न हो जाए। क्वाटर को देखकर महसूसा करता था कि इन घरों में राजा या रानी रहा करती होंगी।
वक़्त की मार से न आप बच पाएं हैं और न कि हम। हम सभी को अपनी गलतियों को ख़ामियाज़ा आज कल भुगतने ही पड़े हैं। सो मैनेजमेंट से लेकर प्रशासन और सरकार की बेरूख़ी कहें या लचर प्रबंधन की मार की धीरे धीरे डालमियानगर की चमक और रौनक धीमी पड़ती चली गई। एक के बाद एक प्लान्ट बंद होते चले गए। करोड़ों की जायदाद, मानव श्रम को न जाने किस डायन की नज़र लगी कि डालमियानगर एक बार अस्पताल की बिस्तर पर गया तो ठीक होने की बजाए उसकी हालत और दिन प्रति दिन ख़राब होती चली गई जैसे मरीज कुछ कुछ ठीक होता सा महसूस होता है तो उसे डाक्टर और तीमारदार घर लेकर चले जाते हैं। लेकिन फिर फिर मरीज की हालत ख़राब होती है और अंत में उसके सेहद मे गिरावट दर्ज़ की जाने लगती है ठीक उसी तर्ज़ पर डालमियानगर की हालत भी धीमी ही सही किन्तु मृत्यु की ओर बढ़ने से लाख कोशिशों के बावजूद बचाना पाना मुश्किल होता चला गया। तब जब की बात कर रहा हूं मैं शायद चौथी या पांचवीं कक्षा में रहा हूंगा वर्ष 1985-86 रहा होगा जब डालमियानगर में हड़ताल और कुछ प्लांटों के बंद होने की ख़बरें बालमन में सुनाई देने लगी।
डेहरी ऑन सोन से रिश्ता यूं तो बचपन से रहा बतौर वहीं की पैदाईश के साथ ही साथ सोणभद्र से असीम जुड़ाव महसूस करता हूं। इसकी दो वजहें हैं पहली की पिताजी के कंधे पर सवार होकर और कई बार हाथ पकड़कर सोन में सालों भर जाया और नहाया करता था। दूसरी वज़ह मेरी प्यारी दादी का देहांत और दाहसंस्कार उसी सोन के किनारे हुआ। जब तक याद आता तो सोन पर बने गेमन पुल से चिल्लाया करता ससुरी दादी सुनती नहीं है। सो गई। आदि आदि। आज जब भी सोन और डेहरी की चर्चा चलती है तो मेरे ख़्याल ये सबसे ज़्याद ताज़ा और टटकी यादें रेलवे स्टेशन और सोन की है। जय हिन्द सिनेमा घर में शायद तब एक या दो ही फिल्में देखीं होंगे। क्योंकि दसवीं करने के बाद डेहरी के विस्थापित होना पड़ा। हालांकि विस्थापन इतिहास में दर्ज़ मानवीय विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में दर्ज़ है। इसलिए डेहरी हाई स्कूल और स्कूल के ठीक सामने एक पुराना ढहने की कगार पर खड़ा एक महल, भूतबंगला आदि आदि नामों से ख़्यात एक किला हुआ करता था। उसके बारे में जो बड़ों और सहपाठियों से कहानियां सुनी थीं वो यही थीं कि यहां किले में बैठा राजा अंदर ही अंदर सुरंग से सासाराम निकल जाता था। यह कितना सच था और कितना झूठ यह तो तब की उम्र में ज़्यादा मायने नहीं रखता था। और वैसे भी यह मसला इतिहास और भूगर्भशास्त्रियों के हिस्से में ज़्यादा आती हैं। कहने को तो कहने वाले यह भी कहते थे कि कोइ इस ओर से उस ओर नहीं पार कर सका है। कहानियां थीं से कहानियों में पात्र भी रहे ही होंगे।
डेहरी हाई स्कूल जाने के रास्ते में डेहरी पड़ाव ख्ुला और गोद में मंच लिए लेटा मिला करता था। इसी मैदान में कई तरह से मेले, जुलुस, सर्कस आदि लगा करते थे। खिचड़ी पर इसी ख्ुले मैदान में पूरे दस या पंद्रह दिन के लिए मजमा मेला और सब कुछ लगा करता था। इन्हीं सड़कों से गुजरते हुए स्कूल जाना और छोटी नहर पार कर मिट्टी के टीले से फिसला आज भी स्मृतियों दर्ज़ हैं। सोन और नहर के बीच में बसा हमारा डेहरी हाई स्कूल काफी पुराना और नामी स्कूल हुआ करता था। डेहरे के अमूमन सभी युवा इन्हीं स्कूलों डेहरी, डिलियां और डालमियानगर स्कूलों में प्रारम्भिक तालीम लेकर आज दुनिया के विभिन्न शहरों में बसे गए। डेहरी वहीं की वहीं बसी है। पची है और विस्तार हासिल कर रही है। झारखंड़ी मंदिर और मिट्टी के टीले के ठीक बीचों बीच एक तालाब किस्म का स्थान हुआ करता था। वहां कुछ पुरानी स्टीमर, पुराने नाव आदि जंग खा रहे थे। कहां से आए? कौन लेकर आया यह तो नहीं मालूम लेकिन उन स्टीमरों पर स्टेयरिंग घुमाना, खेलना और कपड़े फाड़ना अब तक याद है।
अस्सी के दशक के डेहरी को देखें और 2000 के बाद के डेहरी को देखें तो एक बड़ा बदलाव नज़र आएगा। अस्सी के दशक में ही आंखें देखी बात है कि डेहरी पड़ाव के ठीक सामने अप्सरा सिनेमा हॉल खुला, एक स्टेशन रोड़ कर नया सिनेमा हॉल खुला। जो पुराना सिनेमा हॉल था वो जय हिन्द और डालमियानगर में स्टेशन से उतरते ही डि लाइट हुआ करता था। जहां तक याद कर पा रहा हूं तो उस हॉल में बंद होने से पहले नाचे मयूरी फिल्म लगी थी उसके बाद वो सिनेमा हॉल में इतिहास का हिस्सा होने से बच न सका। याद आता है कि गरमी की शाम और रात, या फिर सरदियों की दुपहरी में या फिर शाम में डी लाइट सिनेमा हॉल शो शुरू होने से पहले और बाद में गाने बजाया करता था। इतना ही नहीं स्टेशन के लगभग पास रहने की वजह से कई बार दुपहरी में तो कई बार शांत रात में स्टेशन से होने वाले उद्घोष साफ सुनाई दिया करते थे। अब सियापदह की घोषणा हो रही है, तो कभी बंबे मेल की। बरवाडीह की घोषणा आदि। सन् 1984-85 के आस पर डेहरी ऑन सोन स्टेशन पर पैसिंजर रूका करती थीं। लेकिन डालमियानगर कॉलेज की प्रधानाचार्य शायद नाम सही याद कर पा रहा हूं तो शाही थीं जिन्हें दिल्ली आने जाने में दिक्कतें होती थीं सो उन्होंने दिल्ली सिफारिश कीं कि स्टेशन पर डिलक्स रूका करे। तब इस ट्रेन का नाम यही हुआ करता था। जेनरल टिकट दिल्ली के लिए शायद अस्सी रुपए हुआ करता था। शाही मैडम की सिफारिफ रंग लाई और डेहरी में डिलक्स रूकने लगी। हमें बड़ा अच्छा और गर्व होता था कि सासाराम में यह नहीं रूका करती है।
बाज़ार के नाम पर तब तीन की मुख्य हुआ करते थे-डालमियानगर, डेहरी बाजार और स्टेशन बाजार। हालांकि अब भी ये तीनों बाजार हैं लेकिन बाजार की प्रकृति में तब्दीली आ चुकी है। कला निकेतन, ग्लासिना, मातृभंड़ार, विद्यार्थी पुस्तक भंड़ार, पीयूषी आदि ऐसी दुकानें थीं जो डेहरी बाजार और थाना चौक की शान हुआ करती थीं। अब शायद इन दुकानों के मालिक वृद्ध हो गए। इन मालिकों के बच्चों को इनकी दुकानों में कोई ख़ास दिलचस्पी जाती रही। वे बच्चे दिल्ली, कलकत्ता, बंबे, मद्रास और विदेश जाने लगे। वैश्विक बाजार के हिस्सा बने और पुरानी दुकाने अब मरने की कगार पर हैं। सुना तो यह भी है कि डेहरी में भी एक मॉल खुल चुका है। बदलाव की शुरुआत हो चुकी है। पुरानी दुकाने खुद ब खुद खत्म होती जाएंगी। नए नए मॉल और दुकानें अस्तित्व में आएंगी। ग्लासिना के विनोद मारोदिया, कमला स्टोर कुछ ऐसी दुकानें थीं जो दुकान से ज़्यादा रिश्तें कायम करने में विश्वास रखा करती थीं। यही वजह है आज कि मातृभंड़ार, ग्लासिना, कला निकेतन अपने नाम से जाने जाते हैं। 

Wednesday, October 24, 2018

पेड़ थे और रहेंगे मानें या न मानें





कौशलेंद्र प्रपन्न
सदियों सदियों तलक ये पेड़ यूं ही खड़े रहते हैं। बस अंतर इतना ही पड़ता है कि हम इनके बीच से कहीं दूर की यात्रा पर निकल जाते हैं। कहते हैं वहां से हम जैसे गए थे वैसे ही नहीं लौटते। बल्कि हमारा लौटना कुछ अलग रूप में होता है।
ये नदी, पहाड़, पेड़ जैसे हम इन्हें छोड़ जाते हैं वे वैसे ही खड़े या पड़े रहते हैं। नदी वैसी ही बहती रहती है। बस वो कई बार रास्ते बदल लिया करती है। पहाड़ थोड़े झुक जाते हैं या फिर खिसक जाते हैं। या फिर नदी को सिमटने पर हम मजबूर कर देते हैं। पहाड़ों को काट-छांट कर अपनी जेब में कैद करने लायक बना दिया करते हैं।
नदी विभाजन से पहले भी थी। और अब भी बतौर झेलम, चिनाब बह रही हैं। उनके पानी में कोई अंतर नहीं देख सकते। खेत खलिहान और पहाड़ भी पूरी शिद्दत से खड़े मिलेंगे। बस हमीं हैं कि इनके बीच से निकल लिया करते हैं।
जब तक इस जमीं पर रहते हैं इन्हें खोदते, खंघालते उलीचते रहते हैं। और जब जाते हैं तब इन्हें किसी बांध से बांध दिया करते हैं। कहीं बांध बनाकर तो कहीं इन पर विवाद जन्मा कर हम तो चले जाते हैं लेकिन ये नदियां, ये पहाड़ और ये पेड़ वहीं रहा करते हैं।
कितना अच्छा होता कि हम नदी, पहाड़, पेड़ को संरक्षित कर पाते। इन्हें सुरक्षित रखकर अपने आने वाले बच्चों को दे पाते। गांव का पुराना पेड़ अभी भी वहीं खड़ा है। कहता होगा कि देखों तुम्हारे बाप दादे सब के सब हमारे ही सामने बड़े हुए और अब इस गांव में कोई चराग जलाने वाला भी नहीं बचा। 

Sunday, October 21, 2018

ि( ) हारी हो! कुचले, भगाए जाओगे


कौशलेंद्र प्रपन्न
तुम्हें इतनी सी बात भी समझ में नहीं आती, न ही तुम्हारे मजदूर दिमाग में समाती है कि तुम भारत के नागरिक होने से पहले ि... हारी हो। याने तुम कभी भी, किसी भी राज्य से खदेड़े जा सकते हो, मारे जा सकते हो और दुरदुराए जा सकते हो। तुम्हें महाराष्ट्र से, असम से, पंजाब से, गुजरात से और कहा-कहां  से नहीं भगाया गया। लेकिन तुम हो कि थेथर की तरह राज्य दर राज्य भटकते रहते हो। कहीं रिक्शा खींचते हो, रेड़ी लगाते हो, कारखाने में खटते हो आदि। उस पर तुर्रा यह सुनते हो कि स्याले ि...हारी हमारे पेट पर लात मारने चले आते हैं। हमारे राज्य में नौकरी हथिया लेते हैं। स्यालों को उनके राज्य खदेड़ो। लेकिन तुम्हें इतनी सी बात भी क्यों समझ नहीं आती। अमृतसर रेल हादसों में मरने वालों में तुम्हारी ही संख्या ज्यादा है। दूसरा राज्य उपी के लोगों का है। ख़बरों की मानों तो मालूम होगा कि इस ट्रेन से कटने वालों में उत्तर प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी मजदूर ज़्यादा थे जो पास की फैक्ट्री में काम किया करते थे। इन्हीं फैक्टियों में रोटी कमाने वाले मजदूर इस रावण दहन देखने आए थे और सदा सदा के लिए सो गए। तुम अपने राज्य गांव देहात भी नहीं लौटे। अब लौटेंगी ख़बर तुम्हारे गांव। इस बरस दिवाली में न दीया जलेंगे और न ही छठ होगा। सब के सब त्योहार सूने और बच्चों की आंखों में बाप के घर न लौटने की टीस हमेशा के लिए बनी रहेगी। 
पंजाब में रेल हादसों में मरने वालों की संख्या पर नजर डालें तो पाएंगे कि प्रवासी बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोग थे। वे वो लोग थे जिनके पास खाने कमाने का और कोई जरिया नहीं था। दूसरे राज्यों में लानत मलानत सह कर अपने घर परिवार को पालने वाले इन लोगों पर तोहमत भी लगाने से हम बाज नहीं आते कि इन्हीं की वजहों से फलां राज्य में उन राज्यों के लोगों को नौकरियां नहीं मिल पा रही हैं। जबकि हमारा संविधान देश के समस्त नागरिक को किसी भी राज्य में, देश के किसी भी कोने में जीने, खाने कमाने और रहने की मौलिक अधिकार प्रदान करता है। फिर वो कौन लोग हैं जो रातों रात फरमान जारी करते हैं कि उनका शहर, उनका राज्य खाली कर अपने अपने देस, गांव लौट जाएं। अफ्सोसनाक बात तो तब है कि प्रशासन और राज्य की सरकार ऐसे मसलों पर मौन साध लेती है। गृह राज्य में यदि रोजगार के अवसर मुहैया करा दिए जाएं तो कौन ऐसा होगा जो अपना गांव घर छोड़कर हजार, दो हजार किलोमीटर दूर देस में मजदूरी करेगा। शायद कुछ चुनिंदे राज्यों से महज इसलिए लोग ख़ासकर मजदूरी करने वाले लोग पलायन करते हैं, क्योंकि उनके राज्य, गांव में उन्हें काम नहीं मिल रहे हैं। यदि इसी घटना को 360 डिग्री कोण पर उलट कर समझें तो किसी भी राज्य, देश से बौद्धिक मजदूर, कमागर लोग इसलिए पलायन करते हैं, क्योंकि उनके लिए उस राज्य? देश आदि में उनके लिए मकूल काम और श्रम की कीमत नहीं है।
वरना क्या वजह है कि भारत के विभिन्न राज्यों से लेकर दिल्ली के तमाम मंत्रालयों में पासपोर्ट और वीजा की लाइन लंबी होती है। बस एक बार बाहर का रास्ता मिल जाए और कुछ भी काम बाहर कर लेंगे। जब बाद में मौका भी मिलेगा तो वापस नहीं आएंगे...वहीं के होकर रहेंगे। आएंगे जब भी तुम्हें फिर हिकारत की नजर से देखेंगे। क्योंकि तुम न बदले, तुम्हारी सोच न बदली और न रहन सहन का सहूर बदला। सिर्फ हज़ारों फ्लाईओवर बना लेने और छह से आठ लेन की सड़क बना लेने से तमीज़ नहीं आती। उसपर यदि किसी राज्य की बुनियादी बुनावट और ढांचें को देख लें तो मालूम चलेगा कि वहां अभी भी सुविधाएं पुराने ढर्रें पर ही उपलब्ध हैं, लेकिन दंभ भरने में हम पीछे नहीं हैं।
हाल ही में गुजरात के वडोदरा में एक घटना की प्रतिक्रियास्वरूप बिहारियों को राज्य छोड़कर अपने प्रांत लौटने पर मजबूर किया गया। टें्रनें, बसों में भर भर कर स्वराज्य लौटे लोगों से मत पूछिए सवाल। पूछना ही है तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि लोकतंत्र में जहां सांवैधानिक अधिकार हासिल है कि यहां का नागरिक कहीं भी बिना रोक टोक और मनाही के भ्रमण करने, रोजगार करने, घर बनाने, शादी करने आदि के मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। फिर वो कौन लोग थे जिन्होंने संविधान को भी अंगूठा दिखाया और लोकतंत्र के स्तम्भ ख़ामोश रहे। इतना ही नहीं बल्कि ख़बर तो यह भी है लूंगी पहन कर बैठे बिहारियों को भी निशाना बनाया गया। यह कैसे स्वीकार हो सकता है कि जहां की सांस्कृतिक धरोहर बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी समाज की वकालत करती हो लेकिन वहां के रहने वाले इस बहुसांस्कृतिक थाती को तार तार कर रहे हों। क्या स्थानीय निकायों और सिविल सोसायटी के समाज की जवाबदेही नहीं बनती कि ऐसे बरताव के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद करें। इस प्रकार की दोयम दर्जें के बरताव बिहारियों और अन्य राज्यों के लोगों के साथ अब आम बात हो चुकी है। इस प्रकार की घटनाएं कहीं न कहीं गहरे विमर्श की ओर हमें धकेलती हो है लेकिन हम तुरत फुरत में निर्णय लेने और राय बनान में लग जाते हैं। जबकि हम ऐसे मसलों पर ठहर कर परिचर्चा करने और बेहतर समाधान करने निकालने की आवश्यकता है।
 

Thursday, October 11, 2018

मानसिक स्वास्थ्य भी हो हमारी चिंता


कौशलेंद्र प्रपन्न

हम अपने आस-पास नज़र डालें तो ऐसे लोग सहज ही मिल जाएंगे जो कुछ सामान्य से हट कर बरताव करते नज़र आएंगे। आदतन हम उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। स्थानीय बोलचाल में उन्हें पागल घोषित करते देर नहीं लगाते। जबकि हम एक गंभीर बीमारी की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। जो व्यक्ति बीमार है उसे तो नहीं मालूम लेकिन नागर समाज को उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन हम अपनी अपनी जिं़दगी में इस कदर व्यस्त हैं कि अपना अपना, मेरा मेरा ही के चक्कर में हम और के ग़म भूल जाते हैं। जबकि हमारी शिक्षा बड़ी ही शिद्दत से मानती है कि हमें एक ऐेसे नागर समाज का निर्माण करना है जहां मानसिक, आत्मिक, शारीरिक, संवेदनात्मक आदि स्तर पर समुचित विकास हो। लेकिन अफ्सोसनाक बात यह है कि हमें विश्व भर में हजारों नहीं बल्कि लाखों लोग हैं जो मानसिक तनाव और दुश्चिंता में जी रहे हैं। अंग्रेजी में कहें तो यह मानसिक स्ट्रेस के खाने में आता है। आज हमारी लाइफ इस कदर तनावपूर्ण हो है कि हम कहीं का गुस्सा कहीं और निकाला करते हैं। इतना ही नहीं जिस दौर में जी रहे हैं यह सोशल मीडिया और ख़बर रफ्तार के समय से गुजर रहे हैं। ऐसे में हमारी मनोदशा और अंतरदुनिया सोशल मीडिया से ख़ास प्रभावित होता है। यदि किसी ने सोशल मीडिया पर बेरूख़ी बरती तो हमारा पूरा दिन और पूरी रात तनाव में कट जाती है। सोशल मीडिया से हमारी जिं़दगी संचालित होने लगे तो यह चिंता की बात है। तमाम रिपोर्ट यह हक़ीकत हमारी आंखों में अंगुली डाल कर दिखाना चाहती हैं कि आज हम किस रफ्तार में भाग रहे हैं। और इस भागम-भाग हम अपनी नींद और चैन खो रहे हैं।
आज सच्चाई यह है कि हर पांच में से एक व्यक्ति मानसिकतौर पर बीमार है। बीमार से मतलब अस्वस्थ माना जाएगा। वहीं 46 फीसदी लोग किसी न किसी रूप तनाव से गुजर रहे हैं। वह तनाव दफ्तर से लेकर निजी जिं़दगी क पेचोखम हो सकते हैं। जब व्यक्ति इतने तनाव में होंगे तो अमूमन सुनने में आता है कि मेरे सिर में हमेशा दर्द रहता है। ऐसे लोगों की संख्या तकरीबन 27 फीसदी है। हम जितने तनाव में होते हैं उनमें हम कहीं न कहीं भीड़ में रह कर भी अकेलापन महसूसा करते हैं। हम घर में रह कर भी तन्हा महसूसा करते हैं। ऐसे में व्यक्ति अकेला होता चला जाता है। कई बार तनाव और डिप्रेशन में आदमी ग़लत कदम उठा लेता है। डिप्रेशन में जीने वालों की संख्या 42.5 फीसदी है। हम रात में बिस्तर पर चले जाते हैं। लेकिन रात भर करवटें बदलते रहते हैं। नींद रात भी क्यों नहीं आती। क्योंकि हम उच्च रक्तचाप और तनाव में जीते हैं। इसलिए रात भर सो नहीं पाते। सुबह उठने के बाद भी आंखों में नींद भरी रहती है।
अनुमान लगाना ज़रा भी कठिन नहीं है कि जब हमें रात भर नींद नहीं आती। घर परिवार में भी अकेला महसूसा करते हैं तब हम कहीं न कहीं मानसिक रूप से टूटन अनुभव किया करते हैं। ऐसे लोगों के साथ शायद यार दोस्त भी वक्त गुजारने के कतराते हैं। उन्हें लगता है कि वो तो अपनी ही पुरानी बातें, घटनाओं से पकाने लगेगा। लेकिन हमें नहीं पता कि हम एक ऐसे व्यक्ति के साथ खड़े होकर संबल देने की बजाए उसे अकेला छोड़ रहे हैं। वह किसी भी स्तर पर जा सकता है। शायद आत्महत्या की ओर मुंड़ जाए। ऐसे लोगों की संख्या भारत में कम से कम 45 से 50 फीसदी है। जो कहीं न कहीं जीवन में अकेला हो जाते हैं और जीवन को नकारात्मक नज़र से देखने और लेने लगते हैं।
हमारे पास विभिन्न तरह के विभिन्न रोगों के लिए सुपर स्टार अस्पाल हैं। जहां जाने के बाद विभिन्न सुविधाओं से लैस कमरे, डॉक्टर के विजिट, खान-पान उपलब्ध हैं। एक हजार से शुरू होकर दिन 10,000 तक के कमरे आपकी जेब के मुताबिक उपलब्घ हैं। लेकिन यदि हम मानसिक अस्वस्थ लोगों के लिए अस्पताल तलाश करने निकलें तो बेहद कम मिलेंगे। दिल्ली में सरकारी अस्पतालों जिसमें मानसिक रोगियों के लिए उपलब्ध हैं उनमें वीमहांस और इबहास हैं। इन दो अस्पतालों के छोड़ दें तो प्राइवेट अस्पताल में भी चिकित्सा उपलब्ध हैं लेकिन उसके खर्चे ज़्यादा हैं।
वैश्विक स्तर पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि विभिन्न कारणों से व्यक्ति एक्यूट एंजाइटी, दुश्चिंता और अवसाद का शिकार है। तनाव तो है ही साथ ही अकेलापन भी एक बड़ी वज़ह है कि लोग देखने मे ंतो स्वस्थ लगता हैं लेकिन अंदर टूटे हुए और बिखरे हुए होते हैं। ऐसे लोगों को अकेला छोड़ना कहीं भी किसी भी सूरत में मानवीय नहीं माना जाएगा। गौरतलब हो कि 2007-8 में जब वैश्विक मंदी को दौर आया था तब वैश्विक स्तर पर लोग डिप्रेशन के शिकार हुए थे। लोगों की जॉब रातां रात चली गई थी। शादी के लिए तैयार लड़की शादी के करने से इंकार कर दिया था। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि डेंटिस्ट पास दांत दर्द के रोगियों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई थी। हालांकि प्रमाणिकतौर पर आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन मानसिकतौर पर टूटे हुए और तनावग्रस्त लोगों की संख्या ऐसे अस्पतालों में बढ़ी थी। याद हो कि तब की मीडिया ने अगस्त सितंबर 2008 के बाद वैश्विक मंदी में जॉब गवां चुके लोगों की ख़बरें भी छपना बंद कर चुकी थी। ऐसे में इस प्रकार के आंकड़े निकलाना ज़रा मुश्किल काम रहा कि कितने प्रतिशत लोग मानसिक अस्थिरता की वजह से मनोचिकित्सकों की मदद ली।



Thursday, October 4, 2018

झेलम की कहानी



कौशलेंद्र प्रपन्न

‘‘शाम पांच बजे पूणे से चली थी। भोपाल, आगरा, मथुरा फरीदाबाद पार करतीह हुई दिल्ली पुहंची हूं रात के पौने नव बज रहे हैं। थक गई हूं। थोड़ा सुस्ता लूं फिर रात भर और दौड़ना है।’’
झेलम बुदबुदा रही थी। शाम और रात भर दौड़ती रही ट्रेन रात होते होते थक सी गई थी। उसके पांवों से माने पहिए से आग की चिनगारियां निकल रही थीं। जब स्टेशन पर चीं चीं... कर रूकी। सबने देखा और और देख कर नजरअंदाज कर दिया। पूछोगे नहीं उस ट्रेन का नाम क्या है? जैसे हमारे नाम होते हैं उसी तरह हर ट्रेन के नाम होते हैं। उनके नंबर भी होते हैं। जैसे स्कूल में तुम्हें रोल नंबर मिलते हैं। उसी तरह ट्रेनों को भी रोल नबंर मिले होते हैं। उस ट्रेन का नाम था झेलम। उसे हमने 11077 नबंर दिया है। जब झेलम दिल्ली स्टेशन पर रूकी तो प्लेटफॉम ने उससे क्या बात किया होगा?
‘‘बहन थकती नहीं हो?’’
 ‘‘इतनी लंबी यात्रा करती हो। न जाने कितने ही स्टेशनों से गुजरती हुई चला करती हो।’’
प्लेटफॉम झेलम से बातें करना चाहता था। रास्ते की थकन दूर हो इसके लिए उसने झेलम को टोका। रात भर की यात्रा के बाद ट्रेन में पानी भी तो खत्म हो गया था। सो दिल्ली में झेलम को पानी मिला। थोड़ी देर सांसें लेने के बाद झेलम ने कहा ‘‘तुम तो एक ही जगह पर पड़े रहते हो, तुम्हें क्या मालूम रास्ते कितने लंबे होते हैं।’’ ‘‘थोड़ी देर सुस्ताने तो दो’’
तब तक प्लेंटफॉम पर सफाई वाले, पानी वाले, चिप्स वाले सब आ गए। ट्रेन चुपचुपा खड़ी थी उस दौरान प्लेटफॉम चुपचाप ट्रेन को निहार रहा था। अब ट्रेन ने चुटकी ली और कहने लगी-
‘‘मेरी यात्रा सुनोगे तो होश ही उड़ जाएंगे। बहुत दूर से आती हूं।’’ कहां कहां से गुजरती हूं सुन लोगों तो पता चलेगा तुम भी मेरे साथ घूमना चाहो’’
‘‘अब तुम भी सुबह सुबह मजे न लिया करो झेलम’’
‘‘मैं कहां जा पाउंगा?’’
‘‘मेरी किस्मत उतनी भी अच्छी कहां है जो देश-देश, जगह जगह घूमा करूं। मैं तो यहीं के यही रहता हूं। चुपचाप। देखता भर रहता हूं। कभी तुम आती हो, कभी डिबरू गढ़ आती है तो कभी शताब्दी। कहते हैं शताब्दी ज़रा शोख़ और नजाकत वाली है। उसमें चढने वाले भी मुझे तो अलग ही किस्म के लोग लगते हैं। उनके पास टीस टप्पर के बक्से, झोरा, बोरी भी नहीं होते’’
झेलम सुनते सुनते बीच में बोल पड़ी, ‘‘तुम्हें बस समय चाहिए। अपनी ही कहानी सुनाने की बेचैनी होती है।’’
 ‘‘तो मैं क्या कह रही थी कि मेरी यात्रा बड़ी ही लंबी है। कई राज्यों से गुजरती हुई यहां आती हूं। सूंघों सूंघों तो सही। तुम्हें आगरे का पेठा, मथुरा का पेड़ा, पूणे और मुंबई का आलू बटाटा, भोपाल का पोहा जलेबी की खूशबू आएगी।’’
‘‘अब तुम मुझे चिढ़ावो मत। यह सब बता कर। तुम अपने साथ ला नहीं सकती थी?’’
‘‘चलो यह तो बताओं तुम कहां से चलती हो और कहां तलक जाती हो? ज़रा हम भी तो सुनें।’’
‘‘ अभी मेरी बात पूरी ही कहां हुई। ज़रा सुनो तो। जब मैं करूक्षेत्र, अंबाला और पटियाला पहुंचती हूं तो वहां के वाह! छांछ और लस्सी के भरे परे ग्लास और पराठे!!!’’ मुंह में पानी आ जाएंगे। जब तुम्हें पता चलेगा कि पराठे पर उछलता मक्खन...’’
‘‘बस भी करो झेलम तुम तो जीना ना दोगी। अगर ला नहीं सकती तो ऐसे लजीज खानों के बारे में सुनाकर बेचैन मत किया करो।’’ थोड़ मचलते हुए प्लेटफॉम ने कहा
‘‘कहने वाले कहते हैं और मैंने भी सुना है कि तुम 51 इक्यावन घंटे चला करती हो।’’
‘‘हां हां सच है यह तो। लेकिन सच यह भी है कि कई बार जब देर होती हूं तो वह साठ घंटे भी हो जाते हैं।’’
‘‘कितनी थक जाती होगी है न?’’ प्लेटफॉम ने संजीदगी के साथ कहा।
‘‘अच्छा तो ये बताओ बहन इन घंटों में तुम तो मीलों का सफ़र कर लेती होगी?’’
‘‘हां मीलों कह लो या किलोमीटर। यही कोई 2,176 किलोमीटर की यात्रा करती हूं।’’
अब मुंह बाए प्लेटफॉम झेलम को देख रहा था। प्लेटफॉम को मजाक करने का मन किया और कहने लगा-
‘‘ उफ!!! कितनी थक गई जाती हो। और तुम्हारे पांव दबा दूं।’’ आओ आओ शर्माओ मत।’’
झेलम को यह बात थोड़ी गुदगुदाने वाली लगी।
कहने लगी-
‘‘चलो रहने दो। देखने वाले क्या कहेंगे?’’
‘‘कुछ लोक लाज है या नहीं?’’
‘‘चलो प्लेटफॉम तुम से तो बातें होती रहेंगी। अब मैं तरोताज़ा हो गई हूं। आगे की यात्रा के लिए गार्ड साहब ने हरी झंड़ी भी दिखा दी है। देखते नहीं हो?’’
‘‘लोग मेरा इंतज़ार कुरूक्षेत्र में, अंबाला में और पटियाला से लेकर लुधियाना में कर रहे होंगे। तुम्हारीं बातों में फंस गई तो लेट हो जाउंगी। फिर वो लोग कहेंगे आज फिर देर हो गई।’’
‘‘अपना ख़्याल रखना झेलम....मममम’’
‘‘अच्छे से जाना और कल फिर मिलेंगे तुम्हारी ही बहन मिलेगी मुझे 11078’’
‘‘उसे मेरा हलो बोलना....’’
और झेलम प्लेटफॉम से सरकने लगी।

Monday, October 1, 2018

मी टू यौन शोषण का शिकार


कौशलेंद्र प्रपन्न
मी टू हैश टैग लगा कर अपनी कहानी कहने का इन दिनों एक फैशन सा हो गया है। हालांकि ऐसी कहानियां होती बड़ी दर्दीली हैं। जो इससे गुजरा होता है उसका दर्द वही समझ और महसूस सकता है। वह चाहे बचपन में भोगा हो या फिर बड़े होने के बाद। घर में ऐसी घटना हुई हो या फिर कॉलेज में। कॉलेज के बाद जॉब करने के दौरान ऐसे हादसों से गुजरना हुआ हो आदि। ऐसी घटनाओं से जो निकल कर बाहर आ पाएं। ख्ुद को संभाल पाए वो तो तारीफ के काबिल हैं ही साथ ही अपनी दर्दनाक घटना को एक बड़े मंच पर स्वीकार करना माद्दे की बात होती है। हर कोई अपने यौनशोषण की घटना को न तो स्वीकार करता है और न ही बड़े मंचों पर कहने की ताकत रखता है। यह दरअसल अतीत में घटित घटना को याद करना वास्तव में पुरानी दर्दीले एहसास से गुजरना ही है।
हिन्दी साहित्य हो या अन्य भारतीय साहित्य की विधाएं कथा-कहानी एवं उपन्यास आदि इस मसले को शिद्दत से बतौर विषय चुने हैं। इस कहानियों व उपन्यासों में पात्रों के चुनाव और उनके साथ बरताव बेहद संजीदा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर फिल्मों में भी इस विषय को गंभीरता से उठाया गया है। मसलन मॉनसून बेडिंग, चांदनी बार आदि। इन फिल्मों में बाल यौनशोषण को संजीदगी के साथ उठाया गया है। समाज में विभिन्न किस्म के पात्र वैसे ही उपलब्ध हैं जैसे कथा कहानियों में हुआ करते हैं। ज़रूरत न केवल जागरूकता की है बल्कि ऐसे मसलों के प्रति आवाज उठाने की भी है। यदि हम चुप बैठ जाते हैं तो कहीं न कहीं ऐसे मनोवृत्ति वालों को बढ़ावा ही देते हैं।
इन दिनों पद्मा लक्ष्मी ने अपने बचपन की घटित घटना को मीडिया के सामने स्वीकार किया। उसने स्वीकार किया कि कैसे उसके पापा के दोस्त ने उसके साथ अश्लील बरताव किए। कहां कहां नहीं छूए। जहां छूना या स्पर्श करना वर्जित है उन स्थानों को उत्तेजित किया। पिछले दिनों एक अंग्रेजी अख़बार ने पद्मा लक्ष्मी की अतीतीय दर्दभरी घटना को प्रमुखता से अपने यहा स्थान दिया। पद्मा लक्ष्मी बताते चलें कि ये सलमान रूशदी की पत्नी रही हैं और वैश्विक स्तर पर अपनी अलग पहचान के लिए जानी भी जाती हैं। इधर इनकी कहानी आई उधर भारतीय फिल्म जगत की एक और अदाकारा की कहानी बाहर आई। उन्होंने स्वीकार किया कि उनके साथ यही कोई दस साल पहले नाना पाटेकर ने सही बरताव नहीं किया था। मानसिक और शारीरिक तौर पर तथाकथित शोषण किया गया। यही वजह है कि वो भारतीय फिल्म जगत को अलविदा कह गईं। इस ख़बर के उद्घाटन के बाद तर्क-प्रतितर्क, पक्ष प्रतिपक्ष के जवाब भी मीडिया में आने लगे। जो भी हो दस साल पहले घटित घटना को भूलने व बिसुराने की बजाए आज उन्हें ताजा करना क्या प्रासंगिक हैं? क्या दुबारा उसी मनोदशा को जीना उचित है? मनोविज्ञान में कहा जाता है कि अतीतीय दुखद घटना को जितना याद किया जाए वह उतना ही दुखदायी होता है। बेहतर है कि दुखद घटनाओं को अतीत में छोड़ दिया जाए।
यह एक मानवीय संवेदना है कि हम अकसर स्मृतियों जीया करते हैं। स्मृतियां यानी अतीत की यादों में अपना काफी समय जाया किया करते हैं। उन्हीं घटनाओं में हम सूख के एहसास से भर उठते हैं। जबकि वह हमारा निजी अनुभव होता है। संभव है वह हम किसी और से साझा भी न करना चाहें। लेकिन हम इसलिए साझा किया करते हैं क्योंकि हमें कई बार गर्व का एहसास होता है। कई बार अपनी शेखी बघारने का पल लगता है। वैसे माना जाता है कि अतीत में जाना कई बार जोख़िम भरा होता है। हम अतीत में चले तो जाते हैं लेकिन लौटना हमें नहीं आता। हम अतीत से मार्गदर्शन व सीख हासिल करने की बजाए वहीं उन्हीं घटनाओं में अटक जाते हैं। अतीत की संवेदना हमें कहीं दुखद कर जाता है।
 

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...