तो अब चाँद के डूबने के साथ ही २००९ इतिहास का हिस्सा बन जायेगा। लेकिन तरिख्यें तो घटनायों को दर्ज कर चुकी हैं। उसे मिटा पाना मुमकिन नहीं। सो उसे स्वीकार करना ही होगा। यानि तमाम उन चीजों को स्वीकार करने के लिया अमन की उम्मीद तो रखनी होगी।
हमारे समय की सब से बड़ी चुनौती यही है की हम अपनी कमजोरी कुबूल नहीं करते। जब की स्वीकारने में ही भलमनसत होगी। हम आगे से उन गलतियों को दुहराएंगे नहीं। मगर हम अपनी आदतों से कहाँ बाज आते हैं। लेकिन हमें देश और खुद के लिए करना होगा। यही की अपनी भूल को आने वाले समय में न दुहरायें।
अतीत कितनी भी सुखद या की दुखद क्यों न हो उसके संग चिपक कर रहा नहीं जा सकता। यदि कोई भी समाज या की लोग येसा करते हैं तो सच माने की वह विकास नहीं कर सकता। हम अतीत से सीख ले कर अपने वर्तमान को तो सुधर ही सकते हैं साथ ही भविष को भी बना सकते हैं।
अब यह इस बात पर निर्भर करता है की आपको क्या पसंद है। या तो आप अपने अतीत से चिपक कर लाइफ ख़त्म कर लें यह फिर अपने बेहतर भविष का निर्माण कर सकते हैं। यह बात देश और समाज पर भी लागु होता है। यही समाज विकास कर पता है जो अपने वर्त्तमान के साथ प्रयोग करने के लिए तैयार रहता है। जो भी प्रयोग करने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं। तो सम्झ्यें की वो अपने विकास के रफ़्तार को ब्रेक लगा रहे हैं।
२००९ कई कोण से खास है - कोपन्हागें में वर्ल्ड सुम्मित। भारत का रुख, भारत के सम्मान में अमरीका के प्रेसिडेंट हाउस में आमंत्रण। देश के लिए राजनायक के रूप में देखा गया। १९९२ में अयोध्या में शर्मनाक घटना मस्जीद को गिरा कर जिस तरह की सहिशुनता का मिसाल पेश किया जाया उसपर शर्म तो आती ही है। लिब्राहन आयोग ने १९ साल बाद उस घटना पर आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश की।
सरकार रेस्सेशन के दौर के ख़त्म होने का और्र बना चुकी है। लेकिन सरकार के रिपोर्ट पर विश्वास नहीं होता। यही सरकार है जिसने दिसम्बर २००८ के आखरी हप्ते में कुबूल की थी की हाँ , देश में ६८,००० लोगों की नौकरी जा चुकी है। फिनांस मिनिस्टर ने उद्योग से जुड़े लोगों से कहा की लोगों की नौकरी न ख़त्म करें बल्कि वेतन कम कर दें। आज यही सरकार है जो कह रही है की देश मंदी के बुरे दौर से बाहर निकल चुकी है। अब देखना यह होगा की क्या वास्तव में यह है या की सरकारी बयानबाज़ी भर है।
उम्मीद की किरण साथ होने से रात की काली सेः ज़ल्द खत्म होने की उम्मीद जगती है। न हम हार माने न ही उम्मीद का दमन तोड़ें। रहिमन चुप हो बैठ्या देखि दिनन को फेर। नीके दिन जब आयेहं बनत न लागियाह दीर।
अलबिदा २००९ और अतिथि २०१० को सलाम आइय साहब अब आप क्या रंज या के रंग उछालते है।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Thursday, December 31, 2009
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