ज़रा सोच कर देखें की पल पहले ऑफिस में आप काम कर रहे थे, मगर इक कॉल, इक लैटर आपकी दुनिया बदल देती है। देखते ही देखते आप उस ऑफिस की लिए, वहां अस्त कम करें वाले दोस्तों के लिए गैर हो जाते हैं। नज़रें झुका कर कम करते लोगों की आखें बोहोत कुछ बिन बोले कह देती हैं। उनके अन्दर डर होता है कहीं साथ देख लिया गया तो...
बेचारे इसी डर से आप से खुल करबोल तक नही पते। कहना तो वो भी चाहते हैं मगर डर अनदेर निकल दिए जाने का सताता है। इन दिनों बड़े मीडिया हाउस से लोगो को बहिर का रास्ता दिकाया जा रहा है। यैसे में कोण कोई भी हो हर किसे के सर पर मंदी की तलवार लटक रही है।
कोई भी बेरोजगार नही होना चाहता पर साहिब मंदी की लाठी खूब भांजी जा रहीहै।
दीखते हैं कितने लोग इस आंधी में बर्बाद होते हैं।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Thursday, January 22, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
-
कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
-
प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
-
कौशलेंद्र प्रपन्न सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर...
No comments:
Post a Comment