Friday, April 18, 2014

संविधान की नजर में इंसान हैं किन्नर



कौशलेंद्र प्रपन्न
‘वेलकम टू सज्जनपुर’ फिल्म बड़ी ही शिद्दत से किन्नरों की सामाजिक स्थिति पर विमर्श करती है। इस फिल्म का किन्नर चुनाव में खड़ा होता है, लेकिन समाज के बाहुबली वर्ग के आगे उसकी एक नहीं चलती। अंत में हार थक कर जिलाधीकारी से अपने संरक्षण की गुहार लगाती है, लेकिन अंत दर्दनाक ही होता है। चुनाव में कई किन्नरों का आगमन हुआ किन्तु वह गिनती में बेहद कम हैं। हाल ही मंे न्यायपालिका के उच्च संस्था ने किन्नरांे को अन्य इंसानों की तरह ही मौलिक अधिकार की ओर सभ्य समाज का ध्यान खींचा। न्यायालय ने आदेश दिया कि केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने यहां इनके स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के अवसर मुहैया कराएं। ध्यान हो कि समाज के तृतीय लिंगी किस तरह से सामजा के विकास के केंद्र से हाशिए पर जीवन बसर करते हैं। किसी से भी छूपा नहीं है कि समाज में कुछ विशेष अवसरों पर इन्हें घर की देहारी पार करने की इजाजत दी जाती है। और उसके बाद उनसे सभ्य समाज का वास्ता किस कदर उपेक्षा, डर और तिरस्कार का होता है। पूरे देश में किन्नरों की संख्या और उनकी माली हालत का जायजा लिया जाए तो आंखों में आंसू उतर पड़ेंगी। किन्नर हमारे समाज के वो अंग हैं जो रहते तो हमारे बीच में ही हैं लेकिन उन्हें समाज और सरकार की कल्याणकारी किसी भी योजना का लाभ न के बराबर मिलता है। यूं तो किन्नर यानी तृतीय लिंगी समाज से हमारा रिश्ता महज बलैया लेने वाले वर्ग का रहा है। लेकिन सभ्य समाज ने उनके कल्याण के लिए ठोस कदम नहीं उठाए। यही वजह है कि ये समाज में तो रहते हैं लेकिन समाज की धड़कन बन कर नहीं बल्कि एक बजबजाते कोने में सिमट कर रहते हैं। इनके प्रति जिस तरह का समाजिकरण हमारे बच्चों में पैदा किया जाता है यही उन्हें देखने-समझने के लिए आजौर के रूप में काम करता है। बचपन से ही इस वर्ग को भय और डर की दृष्टि से देखने का पाठ न केवल स्कूलों बल्कि घर में भी पढ़ाया जाता है। यहां तक कि पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों व पाठ्यचर्या को उठा कर देख लें कहीं भी इनके बारे में न तो जानकारी दी जाती है और न उन्हें समझने के लिए कोई पाठ का निर्माण ही किया जाता है। हमारी शिक्षा-विमर्श इन्हें गोया इन्हें समझने के योग्य ही नहीं मानती। यही कारण है कि तृतीय लिंगी समाज हमारे शिक्षा-दर्शन, शिक्षा विमर्श से एक सिरे के गायब है। यहां तक कि कहानियों, कविताओं, उपन्यासों की दुनिया भी इन्हें बेहद कम जगह देती है।
तृतीय लिंगी समाज के बारे में यदि कोई जानना या समझ बनाना चाहे भी तो हमारे पास कोई पुख्ता और प्रमाणिक किताब का न होना यह साबित करता है कि यह वर्ग कलमकारों की नजर से भी दूर ही छिटके रहे हैं। यदि पुराऐतिहासिक काल खंड़ों में इनके योगादान व भूमिकाओं को नजर अंदाज कर भी चलें तो आज की तारीख में इन्हें समझने के लिए हमारे पास कोई औजार नहीं है। यदि कोई स्रोत इन्हें समझने के लिए हो सकता है तो ये स्वयं हैं। लेकिन इनके समाज में अंधेरा और रहस्य इस कदर कायम रखा जाता है कि कोइ्र बाहरी इनकी दुनिया में सहज रूप से प्रवेश नहीं कर सकता। इनके गुरुओं की सख्त हियादत रहती है कि अपनी दुनिया के बारे में बाहरी लोगों से कोई बातचीत न की जाए। यदि कोई इस नियम का पालन नहीं करता उसे कठोर दंड़ भुगतना पड़ता है।
  पूरे देश में प्राकृतिक तृतीय लिंगी की संख्या बेहद कम है। जो बहुसंख्य दिखाई देते हैं उनमें से अधिकांश आॅपरेशन के द्वारा बनाए जाते हैं। इसकी भी अपनी कहानी है। यह कहानी बेहद दर्दीली और भयावह होती है। आधी रात में गुरु के संरक्षण में लिंग काटा जाता है। इससे पहले एक जलसे का आयोजन भी किया जाता है जिसमें इस समुदाय के समकक्ष और वयोवृद्ध तृतीय लिंग के लोग शामिल होते हैं। इनका लिंग काट कर एक घड़े में डाल कर पेड़ पर टांग दिया जाता है जब तक कि घाव पूरी तरह से भर न जाए। लिंग छेदन से पूर्व विवाह की तरह ही संस्कार भी किए जाते हैं जिसमें हल्दी लेपन, केले का भोजन आदि। एक प्रकार से उपवास एवं रीति रिवाज के साथ यह कार्य सम्पन्न होता है। यह प्रक्रिया खतरनाक और जोखिम भरा भी होता है। लेकिन इस काम को अंजाम बड़े अनुभवी हाथों से दिए जाते हैं। तृतीय लिंगों की एक ही माता व देवता हैं पूरे देश में जिसे बुचरा माता के नाम से जानते हैं। इनकी माता मुर्गे पर सवार रहती हैं।
हमारे संविधान के धारा 21 और वैश्विक मानवाधिकार घोषणा 1948 के अनुसार इन्हें भी सम्मान से जीने, शिक्षा हासिल करने आदि का हक प्राप्त है। लेकिन वस्तुस्थिति जैसी है उसे देखते हुए बेहद चिंता होती है। जिस प्रकार जीते हैं उसी तरह गुमनामी में मौत भी मयस्सर होता है। मरने के बाद इन्हें खड़कर जूते चप्पलों से पिटते हुए शमशान घाट तक ले जाया जाता है। इन तृतय लिंगी को उनके धर्मानुसार अंतिम विदाई दी जाती है। चप्पलों व जूतों से पीटते हुए ले जाने के पीछे इनका मानना होता है कि अगले जन्म इस रूप में न आना।
संविधान और समाज की बुनावट को एक साथ रख कर देखें तो तृतीय लिंगी समाज में अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य आदि कुछ ऐसी बुनियादी समानता है जहां हर नागरिक को मिलना चाहिए। यदि केंद्र व राज्य सरकार इस काम में विफल होती है तो ऐसी स्थिति में न्यायपालिका को कठोर कदम उठाने पड़ते हैं। यही कारण है कि न्यायपालिका ने केंद्र व राज्य सरकारों को आदेश दिया है अपने यहां तृतीय लिंगी को शिक्षा, रोजगार का अधिकार सुनिश्चित करें। यदि इस समाज को शिक्षा के अवसर मिलते हैं तो इस वर्ग में भी विकास और बदलाव संभव हो सकते हैं। वरना जिस तरह से हजारों सालों से जिस पेशे में खुद को गला रहे हैं वह निरंतर चलता रहेगा।
तृतीय लिंगी सभी अशिक्षित हैं ऐसा कहना गलत है। क्योंकि काफी समय पहले दिल्ली के तृतीय लिंगी  पर एक शोध किया था। जिसके दौरान जिस तरह की जानकारी व समझ बनी थी उसे साझा करना अप्रासंगिक न होगा कि दिल्ली के संजय गांधी स्मारके पीछे, जहांगीरपुरी, उत्तम नगर आदि इलाकों में रहने वाले हजारों किन्नरों मंे कई तो ग्रेजूएट, 12 वीं एवं 10 वीं पास थे। लेकिन महज सामाजिक दबाव एवं पारिवारिक उपेक्षा की वजह से इस समाज में शामिल हो गए। आज वो गा-बजा कर और सड़कों पर भीख मांग कर अपना जीवन काट रहे हैं। उनमें भी पढ़ने और शिक्षा के प्रति ललक थी लेकिन समाज के कठोर नियमों और विवश परिवार के सामने इनकी एक न चली। गुरु कटोरी देवी बताती हैं कि मेरे पास आज एक हजार चेले हैं जिनमें अधिकांश ग्रेजूएट हैं वो मेरे पास इस लिए रह रहे हैं क्योंकि उनके अपने परिवार ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। आंध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि राज्यों से आए मेरी बहने और भाई आज एक छत के नीचे सम्मान से जीते हैं। जिन्हें परिवार और समाज दुत्कार देता है उन्हें हम लोग शरण देते हैं। वहीं कनाॅट प्लेस के हनुमान मंदिर के पीछे रहने वाली पूजा बताती/बताता है कि वो बंगाल का रहने वाला है जब स्कूल में मास्टर जी ने उसकी प्रकृति को समझा और उसके बाद उसके साथ गलत आचरण किया तब से वो स्कूल और घर छोड़ कर दिल्ली में अपने समाज में रहने लगा। जहांगीर पुरी के तृतीय लिंगी समाज में पिछले बीस सालों से कमला गुरु हैं उनसे बातचीत अव्वल तो बेहद थकाने वाला था। कई बार उन्होंने बात करने से मना कर दिया लेकिन अंत में हार कर उन्होंने समय दिया। उनकी नाराजगी का बड़ा कारण था मीडिया और इस समाज के लेखक वर्ग। उनका कहना था लोग फोटो खींचते हैं, लेख लिखते हैं और अपनी कमाई तो करते हैं लेकिन हमारी स्थिति सुधरे इसके लिए वो कुछ नहीं करते। हमें नुमाईश का साधन मानते हैं इसलिए मैं बातचीत नहीं करती। मेरे पास बहुत काम है। मुझे चेलों को तैयार करना है।
तृतीय लिंगी का एक बड़ा समाज है और ये लोग संगठित भी हैं। इनका पिछले साल दिल्ली में महासम्मेलन भी हुआ था। जिसमें इस समाज के उत्थान के लिए घोषणा पत्र भी जारी हुआ था। लेकिन वह महज घोषणाएं ही रह गई। याद हो कि दिल्ली में ही दो साल पहले विश्व सुंदरी प्रतियोगिता भी आयोजित की गई थी जिसमें देश भर से किन्नरों ने शिरकत की थी। भला हो मीडिया का कि इसने उस प्रतियोगिता का कवर भी किया था। यदि मीडिया और सभ्य समाज इनके प्रति ज़रा भी संवेदनशील हो जाए तो न्यायपालिका को हाथ लगाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

Wednesday, April 16, 2014

हम तृतीय लिंगी



-कौशलेंद्र प्रपन्न
सड़क, डैडी,वेल्कम टू सज्जनपुर जैसी फिल्मों में तृतीय पुरुष की जिस संवेदना और सामाजिक दरकार को चित्रित किया है आज वहां से आगे बढ़कर सांवैधानिक पहल और आदेश से थोड़ी ही सही किन्तु उम्मींद की किरण फुटती है। तृतीय लिंगी इस समुदाय को किन- किन और कैसे- कैसे बर्ताव समाज में सहने और झेलने पड़ते हैं यह किसी से भी छुपा नहीं है। कुछ साल पहले अभिमुख सभागार में नामवर सिंह के साथ एक नाटक ‘जानेमन’ नाटक देखा था। उस नाटक को देखने के बाद नामवर सिंह के आंखों से आंसू टपक पड़े थे। वास्तव में इस नाटक को देखना दरअसल तृतीय लिंगी समाज से रू ब रू होना है। किस प्रकार से इस समाज में भी मठाधीशों का बोलबाला है। इसे भी नकार नहीं सकते। जो जितना प्रभावशाली और चेलों का गुरू है उसकी इस समाज में उतनी ही ज्यादा प्रतिष्ठा और मान-सम्मान है। इनके समाज में भी चेलों की खरीद- फरोख़्त होती है। सवा रुपए से लेकर हजारों और लाखों में नए तृतीय लिंगी को अपना चेला बनाया जाता है।
काफी समय पहले दिल्ली के तृतीय पुरुष पर एक शोध किया था। जिसके दौरान जिस तरह की जानकारी व समझ बनी थी उसे साझा करना अप्रासंगिक न होगा कि इस समाज में जिस तरह के अंधकार और घटाटोप की संस्कृति बरकरार रखी जाती है उसके पीछे मकसद यही होता है कि बाहरी समाज को हमारी संरचनाओं और बुनावट का इल्म न हो सके। कोई भी तृतीय लिंगी अपने समाज की हकीकत बयां नहीं करना चाहता। इसके पीछे डर काम कर रहा होता है। गुरू किसी भी कीमत पर यह इज़ाजत नहीं देता कि उसके चेले बाहरी समाज में यहां की वास्तविकता को साझा करें। लेकिन कुछ अत्यंत प्रताडि़त तृतीय पुरुष मंुह खोल ही देते हैं जिसका ख़ामियाजा उन्हें अपने समाज में भुगतना पड़ता है।
आज देश भर में इस समाज के कल्याण और अधिकार के लिए कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं सक्रिय हैं, लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है और इस समाज की समस्याएं कहीं ज्यादा। दिल्ली के संजय काॅलोनी, जहांगीरपुरी के क्षेत्र, लक्ष्मी नगर, उत्तम नगर आदि क्षेत्रों में रहने वाले तृतीय लिंगी इसी दिल्ली में रहते हुए कई तरह की जोखि़मों का सामना करते हैं। बहुत कम तृतीय लिंगी हैं जिनकी स्थिति अच्छी है। जिनके पास गाड़ी, पैसे, चेले और जिंदगी के तमाम सुख-साधन हैं। बाकी तो किसी तरह भिखारी के मानिंद ही जिंदगी बसर करते हैं। कोई रेड लाइट पर तो कोई काॅलोनी में मांग कर ही जीवन काटते हैं। जो जवान हैं उनके आय के कई अन्य साधन हैं, लेकिन जो बुढ़े हो चुके हैं उनकी स्थिति शायद कुछ कुछ वैसी ही हो गई जैसे वृद्ध वैश्याओं की। जिन्हें जवान तृतीय लिंगी की कमाई और दया पर जीवन व्यतीत करना पड़ता है।
पूरे देश में प्राकृतिक तृतीय लिंगी की संख्या बेहद कम है। जो बहुसंख्य दिखाई देते हैं उनमें से अधिकांश आॅपरेशन के द्वारा बनाए जाते हैं। इसकी भी अपनी कहानी है। यह कहानी बेहद दर्दीली और भयावह होती है। आधी रात में गुरु के संरक्षण में लिंग काटा जाता है। इससे पहले एक जलसे का आयोजन भी किया जाता है जिसमें इस समुदाय के समकक्ष और वयोवृद्ध तृतीय लिंग के लोग शामिल होते हैं। इनका लिंग काट कर एक घड़े में डाल कर पेड़ पर टांग दिया जाता है जब तक कि घाव पूरी तरह से भर न जाए। लिंग छेदन से पूर्व विवाह की तरह ही संस्कार भी किए जाते हैं जिसमें हल्दी लेपन, केले का भोजन आदि। एक प्रकार से उपवास एवं रीति रिवाज के साथ यह कार्य सम्पन्न होता है। यह प्रक्रिया खतरनाक और जोखिम भरा भी होता है। लेकिन इस काम को अंजाम बड़े अनुभवी हाथों से दिए जाते हैं। तृतीय लिंगों की एक ही माता व देवता हैं पूरे देश में जिसे बुचरा माता के नाम से जानते हैं। इनकी माता मुर्गे पर सवार रहती हैं।
अफसोस की बात है कि हमारे इसी समाज के हिस्सा होने के बावजूद इनकी दुनिया हमारी दुनिया से एकदम कटी और डरावनी बना दी गई है। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि कवि, लेखक, कथाकार आदि विभिन्न विषयों पर तो खूब लिखते हैं, लेकिन इनकी दुनिया को कलमबद्ध करने वाले बहुत कम हैं। यदि तृतीय लिंगीय समाज के बारे में प्रमाणिक जानकारी हासिल करनी हो तो आज हमारे पास कोई भी ऐसी किताब नहीं हैं।
हमारे संविधान और वैश्विक मानवाधिकार घोषणा 1948 के अनुसार इन्हें भी सम्मान से जीने, शिक्षा हासिल करने आदि का हक प्राप्त है। लेकिन वस्तुस्थिति जैसी है उसे देखते हुए बेहद चिंता होती है। जिस प्रकार जीते हैं उसी तरह गुमनामी में मौत भी मयस्सर होता है। मरने के बाद इन्हें खड़कर जूते चप्पलों से पिटते हुए शमशान घाट तक ले जाया जाता है। इन तृतय लिंगी को उनके धर्मानुसार अंतिम विदाई दी जाती है। चप्पलों व जूतों से पीटते हुए ले जाने के पीछे इनका मानना होता है कि अगले जन्म इस रूप में न आना।

Monday, April 14, 2014

सोन तुम हो


सोन तुम रहते सदा-
निकल अमरकंटक से सुदूर,
बहते मुझी में हो।
चाहता हूं-
पोंछ दूं,
रगड़कर निशान तेरे,
बदन से मेरे,
मगर तेरी धार,
रहती सदा,
बहती मुझी में।
सोन तुम कहां हो-
देश या विदेश में,
जहां भी रहता,
तेरी धार की शांत शोर,
बजती मुझी में है।
खेलने तेरी ही धार में-
तब तलक,
बसा है मेरी रगों में,
सोचता हूं,
अंतिम यात्रा भी हो खत्म तुम्हीं में।
देखता हूं-
निर्निमेश,
तुम हो ख़ामोश,
शांत और सिकुड़े हुए भी,
मुझे देना बिछौना राख को,
जब मैं आउं तुम्हारे ठौर।

Monday, April 7, 2014

टाइटेनिक डूबने से पहले का मंज़र


रैनबक्शी आज सन फार्मा के हाथों 3.2 मिलियन डाॅलर में बिक गई। इससे पहले मंदी के आस-पास 2008 में रैनबक्शी जापान की कंपनी दाइची के हाथों बिक चुकी है। ज़रा कल्पना कीजिए यहां काम करने वाले कर्मियों की मानसिक स्थिति कैसी होगी। हर कुछ सालों में नए ख़रीददार। कौन कैसे बर्ताव करेगा? कौन रहेगा और कौन बाहर होगा जैसी स्थिति में कोई कैसे पल पल जी रहा होगा।
सभी ने देखा और न केवल तीन घंटे बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद भी अश्रुपूरित यादों से निकल नहीं पाता। चारों-तरफ हहाकार, चीखपुकार भागदौड़ सब का एक ही प्रयास अपनी जान कैसे बचा सकें। औरत-मर्द, बच्चे, जीव जंतु सब के सब अपनी जान को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
जब कोई कंपनी,उद्योग, संस्था दूसरे के हाथ बिक जाती हैं या बंद होने वाली होती हैं तब कैसी मानसिक स्थिति होती होगी? सब के मालूम हो कि अब हमारे नए आका हैं। कब, किसे, कैसे बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है आदि सवाल सभी कर्मी की पहली प्राथमिकता होती है।
जब बड़ी कंपनी छोटी कंपनी को एक्वायर करती है या फिर मंर्जर होता है तब छोटी कंपनी के कर्मीयों की स्थिति, निर्णय, योजनाओं पर एकबारगी सुनामी सी आ जाती है।

Friday, April 4, 2014

उन्होंने कहा-

उन्होंने कहा-
मेरे लिए लिखो कविता,
लिखा।
उन्होंने कहा-
मेरे लिए लिखो गीत,
लिखा।
जो मांगा-
वो लिखा,
जो लिखा,
वो बिका।
जो नहीं बिका-
उनको इंतज़ार है।
इंतज़ार है-
आएंगे तो,
देंगे कोई....।

Thursday, April 3, 2014

कहने का कौशल


कौशलेन्द्र प्रपन्न
पिछले कुछेक हप्तों व सालों के अनुभव के बरक्स यह कहने की हिमाकत कर सकता हूं कि कहने का कौशल हो तो ख़राब से ख़राब कथ्य भी श्रोताओं को बांधे रख सकता है। वहीं कहने की शैली और कला नहीं है तो अच्छी से अच्छी बातें व कथ्य श्रोताओं को लुभाने और सुनने का आनंद नहीं दे पातीं। वाकया हाल ही का है। पिछले कुछ हप्तों से जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान दिल्ली के आर के पुरम, दरियागंज आदि की ओर से प्रधानाध्यापकों, अध्यापकों एवं स्कूल मैंनेजमेंट समिति के सदस्यों की कैपेसिटी बिल्डिंग प्रशिक्षण कार्यशालाओं में आरटीई एक्ट, एसएमसी और स्कूल डेवलप्मेंट प्लान पर प्रशिक्षण देने को बुलाया गया। जहां उन लोगों से बातचीत करनी थी जो शिक्षा में सालों से काम कर रहे हैं। जिनकी शिक्षा के प्रति एक मजबूत समझ बन चुकी है। उनके बीच शिक्षा की स्थिति, उनकी अपनी जिम्मेदारी, नैतिक बोध आदि पर बातचीत करना कोई आसान काम नहीं था। ख़ासकर उन्हें सुनाना व सुनने के लिए तैयार करना भी एक चुनौति ही थी। एक कक्षा अनुभव को साझा करूं तो माज़रा और साफ हो जाएगा। एक दिन पूर्व एनसीइआरटी से सेवा मुक्त प्रोफेसर साहब ने आरटीई पर कक्षा में बातचीत की थी। दूसरे दिन मुझे उसी कक्षा में एसएमसी और एसडीपी पर बात करनी थी। मैंने कक्षा में पूछा आगे बढ़ने से पहले ज़रा टटोल लिया जाए कि आरटीई के दानें आपकी हांड़ी में कितने पके हैं। मैंने उनसे दस मिनट का समय मांगा कि दस मिनट आप मुझें दें फिर हम आगे की बातचीत शुरू करेंगे। उस दस मिनट में जो समझ सामने निकल कर आई वह निराश ही करने वाली थी। कक्षा में उपस्थित तकरीबन 60 सदस्यों ने एक स्वर में कहा आपने जो दस मिनट में आरटीई पर हमें बताया वह कल के ढाई घंटे पर भारी है। इसी दौरान कल वाले प्रोफेसर साहब आ गए और कक्षा में कहा कि वो कुछ बातें उनकी कल रह गई थी जिसे आज पूरा करना चाहते हैं। पूरी कक्षा एक स्वर में मना करने लगी। आज हम इनसे पढ़ना चाहता हैं। बात किसी तरह निपटी। वो तो चले गए लेकिन मेरे सामने एक बड़ा सवाल और जिज्ञासा छोड़ गए।
यह अनुभव मेरे लिए चुनौती भी थी और पुरस्कार भी। मैंने अपनी जिज्ञासा कक्षा में उछाल दी। आप सभी ने ऐसा क्यों किया? जवाब स्पष्ट था-कल पूरी कक्षा सो रही थी। हमें कुछ भी समझ नहीं आया। लगा हमने अपना समय जाया किया। सिर्फ इधर-उधर की बातों में समय काटा। हम भी शिक्षक हैं हमें पता चल गया कि वो समय पास कर रहे थे। न तो उनकी तैयारी थी और न ही विषय की समझ। उसपर उनका पढ़ाने का तरीका भी बेहद बोरीयत वाला था। आपने जो हमें दस मिनट में जिस शैली और अंदाज़ में बताया हमें लगा कि आपके पास कथ्य भी है और कथ्य को पढ़ाने व कहने का कौशल भी। अब मेरा दूसरा सवाल था-ज़रा कल्पना कीजिए जब आप कक्षा में बतौर अध्यापन कर रहे होते हैं तब यदि ऐसी स्थिति होती होगी तो बच्चे कैसा महसूस करते होंगे? क्या हमें अपनी शैली और कथ्य को जांचने-परखने की आवश्यकता नहीं है? इस संवाद में कक्षा सचमुच जीवंत हो उठी थी। मेरे लिए अब अपने विषय पर लौटना आसान हो गया था।
लब्बोलुआब यह है कि कथानक व कथ्य तो महत्वपूर्ण होते ही हैं। लेकिन यदि उनके साथ बरताव ठीक से न किया जाए जो वह संप्रेषित नहीं हो पातीं। यदि संप्रेषित हो भी जाएं तो श्रोताओं के अंग नहीं पातीं। विषय की समझ और जानकारी होना एक बात है और उसको श्रोताओं तक रोचक तरीके से पहुंचाना दूसरी बात। कहा जाता है कि जरूरी नहीं कि अच्छा लेखक अच्छा वक्ता भी हो। या अच्छा वक्ता अच्छा लेखक भी हो। लेकिन कमाल तो यही है कि यदि इन दोनों कौशलों का संजोग यदि शिक्षक में हो जाए तो वह कक्षा जीवंत हो उठती है। सुनने वाले व सीखने की ललक लिए बैठे श्रोता वर्ग को भी ऐसा नहीं लगता कि उनका समय बेकार गया।
इससे किसी को गुरेज नहीं होगा कि आज की तारीख में किसी को कुछ सुनना कितना कठिन है। सुनने वाले से ज्यादा कहने वाले को चुस्त, चैकन्ना और अपनी शैली मंे दक्ष होना होता है। तभी किसी को सुनने के प्रति मजबूर किया जा सकता है। सुनने के नाम पर हम गाने सुन लेते हैं। वहां हमारे पास चुनाव करने की आज़ादी होती है। नहीं पसंद आया तो गाने बदल सकते हैं। ठीक उसी तरह सुनने वाले के पास इस की भी गुंजाईश हो कि वह वक्ता बदल दे। मगर शिक्षण- प्रशिक्षण के दौरान इस बात की उम्मींद बहुत कमजोर होती है। ख़ासकर कक्षाओं में। किसी अध्यापक को दूसरी कक्षा में तो भेजा जा सकता है। लेकिन स्थानांतरण इसका स्थाई समाधान नहीं हो सकता। एक शिक्षक को यदि एक कक्षा में बच्चों ने सुनने व पढ़ने से मना कर दिया तो क्या दूसरी कक्षा के लिए वो उपयुक्त हो सकते हैं? संभव है श्रोता व कक्षा के स्तर में रद्दो बदल से थोड़ा तो अंतर पड़े लेकिन शिक्षक की पढ़ाने की शैली में बदलाव किया जाए तो यह स्थिति ही न पैदा हो।
तमाम रिपोर्ट और शिक्षा में हो रहे नवाचारों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षा को ख़ासकर प्राथमिक कक्षाओं मंे रोचक और आनंददायी प्रक्रिया बनाने पर जोर है। शिक्षा वह जो बच्चों को आनंद दे सके। शिक्षक अपने कथ्य व कहने की शैली में परिवर्तन करे। तभी कक्षा जीवंत हो सकती है। वरना एक ओर शिक्षक पढ़ाते हैं और दूसरी ओर बच्चे उनका मजाक बनाने से भी पीछे नहीं रहते। यही वजह है कि कक्षा में शिक्षण रोचक बनने की बजाए वह बोझ बन जाती है। लेकिन अफसोस कि बच्चों के पास इसका अधिकार नहीं होता कि वह शिक्षक बदल दे। यदि ऐसा होता भी है तो बच्चों को शिक्षक के कोपभाजक भी बनना पड़ जाता है। आरटीई से लेकर एजूकेशन फोर आॅल का लक्ष्य यही है कि शिक्षा आनंद पैदा करे। पढ़ने के प्रति बच्चों में जिज्ञासा का संचार हो। श्रोता-वक्ता एक दूसरे का समय न जाया करें। यह तभी संभव है जब हम अपने कथ्य और कथ्य की शैली पर भी काम करें। कहने का कौशल नहीं, तो श्रोताओं पर दोषारोपण कहां तक उचित है।

Wednesday, April 2, 2014

आज फिर आंखें बरस पड़ी


तुम उस तरफ चले गए-
इधर तुम्हें तलाशती हैं आंखें,
छोड़ गए,
अपने मकान,
अपने लोग,
अपने खेत,
अपनी पहचान।
उधर से भी आए-
वही दर्द,
वही चीख,
अपना बचपन,
जब भी छिड़ती है कोई बात,
आज भी आंखें बरसने लगती है।
तुम्हें याद हो न हो-
मगर आज भी वहां,
गाए जाते हैं यहां के गीत,
इधर भी वही मंज़र है,
बार बार,
याद कर,
डस सैलाब को,
झरने लगती हैं गंग-जमुन।
नहीं बदल सकते-
भूगोल,
न ही खींच सकते और विभाजन की रेखाएं मोटी,
ग़र कुछ कर सकते हैं,
आओ एक बार फिर से गुफ्तगू करें।

Tuesday, April 1, 2014

घड़ा जो टूटा सा


अभी अभी-
जो घड़ा टूटा,
कौन सी मिट्टी थी,
पहचान सको तो पहचान लो,
किस धरती से उठाई गई थी मिट्टी,
किस खेत से लाए गए थे,
पका कर।
टूटा हुआ-
बेडौल सा घड़ा,
आपके पास ही हो,
ज़रा टटोल कर बताएं,
मेरी मदद कर सकते हैं
मैं लगा हूं,
उस मिट्टी की तलाश में।
एक बार जो फूटा-
घड़ा मेरा या कि आपका,
पहचानने में लग जाएं शताब्दियों,
टूटा हुआ घड़ा,
टूटा हुआ आईना,
घर में कहां रखते हैं,
सुना है बचपन से,
मगर जि़द है,
उन्हें ताउम्र रखूं अपने ही करीब।
सदियों से ध्यानस्त
तुम तो सदियों सदियों से यूं ही खड़े हो-
या कि ध्यानमग्न,
एक ही स्थान पर,
जटा- जूट बिखेरे,
जब भी पास आता हूं,
तुम सरसराने लगते हो,
कुछ बुदबुदाते हुए से,
ज्यो कहना चाहते हो,
कान में फूंकने को कोई रहस्य मंत्र।
जब भी टूटा है ध्यान-
त्राहि त्राहि मचा दी है तुमने,
भला ऐसा क्यों किया तुमने,
हां हम कबूलते हैं अपनी ग़लती,
हमने ही खोदी है,
तुम्हारी छाती,
गाड़ दी है फीटों गहरी पाइप।
संभव है-
तुम्हें चुभा हो हमारी घरघरती औजार,
खलबलाकर उठाया होगा तुमने अपना सिर,
मगर मगर सोचा तो होता दादू,
लाखों लाखों तेरी ही संतान,
जमीनदोस्त हो गए,
फिर भी तुम रहे मौन।
तुम्हारी संगिनी-
हां वही सागर,
बार बार पछाड़े खाता,
अपनी ही उत्ताल तरंगों से टकराता,
याद दिलाता,
कितना ग़मज़दा है सागर,
सदियों सदियों से।
तुमने देखा-
पीढि़यां आती रहीं,
और चली भी गईं,
बस बचे रहे तो तुम,
क्या कोई अता पता दोगे,
क्या केाई तस्वीर,
जिससे मिलान कर सकूं।

एक आवाज़


एक आवाज़-
देहारी पर,
हर वक्त देता रहता है।
जब भी-
दरवाजे़ पर आता हूं,
आवाज़ गुम हो जाती है,
न आवाज़ और न ही चेहरा।
चेहरे की पहचान में-
आवाज़ भूल जाता हूं,
बार-बार,
दहलीज़ तक जाता,
बैरन लौट आता हूं।
चैखट पर-
न आवाज़ होती और न चेहरा ही मुकम्मल,
थक कर,
वपस लौटता हूं,
तभी फिर आवाज़ आती है,
उठता हूं,
शिद्दत से बुलाती उस आवाज़ को पहचाने को बेताब,
चल पड़ता हूं,
आवाज़ को मनाने,
प्यार से दुलराने को।

 

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...