Tuesday, July 16, 2019

भाषायी चुनाव और सरकारी मनसा



कौशलेंद्र प्रपन्न
मैथिली के महान महाकवि विद्यापति की पंक्ति ज़रा देखें और समझें ‘‘हम नहि आजु रहब अहि आंगन जं बुढ होइत जमाय, गे माई। एक त बैरी भेल बिध बिधाता दोसर धिया केर बाप। तेसरे बैरी भेल नारद बाभन। जे बुढ आनल जमाय। गे माइ।’’ विद्यापति की काव्य संपदा से जो बेहद सहज और सरल भाषा एवं भाव प्रवण कविता है। उसे यहां उदाहरण के तौर पर रखा है। हमारा हिन्दी का शिक्षक अनुमान लगाकर शायद इसे बच्चों को समझा पाए। विद्यापति ही नहीं बल्कि नागार्जुन की मैथिली कविताएं भी ठेठ भाषा बोली के शब्दों से अटी हुई हैं ऐसे में भावानुवाद एवं बच्चों को समझाने की विशेष दक्षता की मांग हो जाती है। हमारे पास मैथिली भाषा के प्रवीण शिक्षकों की आवश्यकता पड़ेगी। हमारे स्कूली शिक्षकों को यदि हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में भोजपुरी के शब्द कहानियों में मिलते हैं तां उन्हें उसके अर्थ समझने में बड़ी मुश्किल आती है मसलन ‘‘केरा के पता आइल की ना’’ ‘‘अइसर जाड पहिले कबहु ना देखनि’’ यदि समग्रता में देखें में मैथिली भाषा में कई समर्थ कवि और उपन्यासकार भी हुए हैं। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि भाषा के चुनाव और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में राजनीति का हस्तक्षेप प्रकारांतर से भाषायी विमर्श और भाषा के शिक्षण शास्त्र को नजरअंदाज करना है। एक ओर जहां नई शिक्षा नीति प्रारूप और पूर्व की शिक्षा नीतियां, समितियां मानती और सिफारिश करती हैं कि बच्चों को बहुभाषी परिवेश प्रदान करना है। स्कूल इस प्रक्रिया में एक अहम भूमिका में माना गया है। स्कूल में जिस भाषा को तवज्जो दी जाती है वही भाषा बच्चों के लिए स्वीकार्य और महज सी मान ली गई है। अमूमन पाया जाता है कि बच्चों को स्कूली और घर की भाषा के बीच के द््वंद््व में डोलना पड़ता है। हालांकि जहां एक ओर नीतियां मातृभाषा, स्थानीय भाषा, क्षेत्र विशेष की भाषा को शिक्षा का माध्यम मानती हैं वहीं दूसरी ओर इससे भी मुंह नहीं फेर सकते कि सरकार व सत्तासीन ताकतें भाषा के चुनाव में अपने हित और स्वार्थ को तरजीह देती हैं। यही उदाहरण दिल्ली सरकार ने पेश किए हैं। हाल ही में घोषित बयान को देखें और समझने की कोशिश करें तो एक बात स्पष्ट होगी कि दिल्ली में मैथिली को स्कूलों में पढ़ाए जाने का निर्णय अकादमिक विमर्श से नहीं निकला है, बल्कि आगामी चुनाव के मद््दे नजर एक ख़ास वर्ग, राज्य और भाषा-भाषी के समर्थन और वोट अपनी ओर करने का प्रयास है।
त्रिभाषा सूत्र को ताख पर रखकर मैथिली व भोजपुरी को राजनीतिक प्रश्रय देना सीधे सीधे त्रिभाषा सूत्र को हाशिए पर धकेलना भी है। यदि भोजपुरी व मैथिली को स्कूलों में पढ़ाने के प्रति सरकार संजीदा है तो क्यों नहीं यह सरकार गढ़वाली, कोंकणी, अवधी मालवी, मारवाडी, मेवाती मलयाली आदि भाषाओं को भी स्कूलों में पढ़ाने के प्रति सजग है? कम से कम दिल्ली से सटे राज्यों राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश में ब्रज आदि के क्षेत्र विशेष की भाषा को स्कूलों में शामिल करने की योजना बना रही है। जबकि बच्चों और अभिभावकों की संख्या पर नजर डालें तो इन्हीं राज्यों से बच्चे दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। बिहार प्रांत से भी अभिभावक दिल्ली में हैं किन्तु सिर्फ बिहार की मैथिली को ही क्यों राज्याश्रय प्रदान किया जाए। उस पर तुर्रा यह कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश करने की मनसा भी दिल्ली सरकार प्रकट कर चुकी है।
यह कहीं न कहीं राजनीति लाभ से प्रेरित कदम ही माना जाएगा। इसमें अकादमिक, भाषाविदों, शिक्षाशास्त्र के जानकारों से राय नहीं ली गई होगी। यदि इस कदम को उठाने से पूर्व शैक्षिक मंथन किए गए होते तो शायद महज मैथिली व भोजपुरी को ही यह तवज्जो नहीं मिलता, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं को भी चिंतन की परिधि में रखा जाता। त्रिभाषा सूत्र हो या फिर भाषा पर अविभिन्न समितियों की सिफारिशों पर विचार किया जाता तो ऐसी गलती नहीं होती। कोठारी आयोग की सिफारिशें भी इस ओर इशारा करती हैं कि मातृभाषा, क्षेत्र की भाषा एवं एक भारतीय भाषा का अध्ययन-अध्यापन किया जाए। बच्चों को स्कूली स्तर पर भारतीय भाषाओं से परिचय कराना मुख्य स्थापनाओं में से एक है। जब भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्द्धन की सिफारिश की गई तो इसमें यह संदेश निहित है कि राज्य की भाषा के साथ ही बच्चे की मातृभाषा एवं एक भारतीय भाषा का चुनाव बच्चे को प्रदान किया जाए। यहां दिल्ली सरकार को विचार करने होंगे कि क्या वो पूर्व और वर्तमान की शिक्षा नीतियों की सिफारिशों और निर्देशों को नजरअंदाज कर एक नई शुरुआत करना चाहती है?
हालांकि गांधी जी ने वर्धा में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में कहा था कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। उस वक़्त गांधी जी के इस अनुमोदन का समर्थन जाकिन हुसैन ने भी की थी। लेकिन राजनीति ताकतें इसे अमल में लाने से रोक पाने में सफल रहीं। भाषा सीखने-सिखाने को लेकर समय समय पर राजनीति हस्तक्षेपों का एक लंबा इतिहास रहा है। भाषायी संघर्ष और भाषायी द््वंद््व से बच्चों के साथ ही बड़ों को भी जूझना पड़ता है। एक बच्चे की नज़र से देखें और सोचें तो पाएंगे कि एक बच्चा जिसकी घर की भाषा और स्कूली भाषा के बीच एक फांक है तो ऐसे में वह किसी भी भाषा के साथ न्याय नहीं कर पाता। एक ओर भाषायी भूगोल में विस्तार हो रहा है वहीं बच्चा ऐसी भाषा का चुनाव करना चाहता है जिस भाषा का बाजार हो और बाजार में रोजगार हो। एक ओर हिन्दी की पाठ््य पुस्तकें समय पर बच्चो को उपलब्ध नहीं हो पातीं ऐसे में क्या सरकार मैथिली भाषा में तमाम विषयों के पाठ््यक्रम, पाठ््यचर्या और पाठ््यपुस्तक निर्माण को समय पर पूरी कर पाएगी। इस प्रकार के सवाल बल्कि चुनौतियां इसका पूर्वानुमान लगा कर हमें रणनीति और रोडमैप बनाने की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही यदि मैथिली को आठवीं से 12 वीं कक्षा में पढ़ाने की योजना है। क्या हमारे पास मैथिली भाषा के प्रशिक्षित शिक्षक हैं जो सीखने-सिखाने में दक्ष हैं। जमीनी हक़ीकत को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। यदि भाषायी सर्वेक्षण को आधार बनाया जाता तो यह कदम वैद्धय माना जाता किन्तु इस मसले में सिर्फ हड़बड़ाहट दिखाई देती है। कैसे आनन फानन में एक भाषा विशेष के वर्ग को अपने पक्ष में किया जाए। हालांकि हम लोग अभी भी पुरानी भाषायी सर्वे से ही काम चला रहे हैं। वह सर्वेक्षण देश की विभिन्न भाषाओं पर आधारित है। अकेले दिल्ली की बात की जाए तो हमारे पास प्रमाणिक और वैद्धय आंकड़े शायद नहीं हैं जिसके आधार पर कह सकें कि दिल्ली के स्कूलों में इतने प्रतिशत बच्चे फलां भाषा बोलते और पढ़ते-समझते हैं। यदि हमारे पास प्रमाणित और वैज्ञानिक भाषायी सर्वे के आधार ही नहीं हैं तो ऐसे में एक विशेष भाषा को कैसे स्कूली पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाने की घोषणा कर सकते हैं। समझने की बात तो यह भी है कि क्या शिक्षा विभाग इस नई पहल के लिए तैयार है? क्या उसकी तैयारी है कि वह मैथिली भाषा में शिक्षक, किताबें, पाठ्यक्रम आदि बच्चों को मुहैया करा पाएंगी। हमारे पास प्रशिक्षित शिक्षकों की बेहद कमी है। मंथन इस पर भी करना होगा कि क्या हमारे पास मैथिली के शिक्षकों को तैयार करने के लिए सेवापूर्व शिक्षक प्रशिक्षण क्षमता और दक्षता है जिन्हें हम बतौर मैथिली भाषा के शिक्षक के तौर पर नियुक्त कर सकें। हमें मैथिली व भोजपुरी व अन्य भारतीय भाषाओं को स्कूलों में लागू करने से पूर्व शिक्षक-प्रशिक्षण, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक आदि निर्माण की प्रक्रिया को दुरुस्त करने होंगे। वरना अन्य घोषणाओं के तर्ज पर यह भी महज घोषणा से आगे नहीं जा सकेगी। नई नियुक्तियों में डीएसएसबी पहले ही उच्च न्यायालय से फटकार खा चुकी है कि शिक्षकों की नियुक्तियों में क्यां समिति समय पर अपना काम पूरी नहीं कर पाती है। तो क्या ऐसे में मैथिली शिक्षकों की भर्ती सरकार सुनिश्चित करती है। क्या यह रेकी की गई है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में कितने बच्चे हैं जिनकी मातृभाषा मैथिली है? यदि उन बच्चों की घर की भाषा तो मैथिली है तो क्या कितनों बच्चों की ओर से यह मांग आई कि उन्हें मैथिली भाषा में पढ़ाई चाहिए? यदि आंकड़े हैं तो सरकार को यह भी स्पष्ट करना और सामने रखने चाहिए कि इतने प्रतिशत बच्चे मैथिली भाषी हैं और उनकी मांग है कि उन्हें मैथिली भाषा में पढ़ाई जाए। एक बारगी महसूस होता है कि या यह सिर्फ अनुमान प्रमाण पर आधारित अवधारणा है कि हमें मैथिली भाषा भी स्कूलों में पढ़ाना चाहिए। ऐसे में भारत के अन्य राज्यों से भी सवाल उठा सकते हैं कि क्यों न उनके राज्य की भाषा को भी स्कूलों में शामिल की जाए?
चुनाव पूर्व सरकारें और राजनीति संगठन घोषणाएं किया करते हैं क्या यह भी महज राजनीति घोषणा भर है या फिर इसे लॉच करने से पूर्व होम वर्क भी किए गए हैं। यदि सिर्फ एक ख़ास प्रांत के ख़ास लोगों को लुभाने के लिए सरकार ने यह घोषणा की है तो हमें इस पर भाषायी एवं अकादमिक हस्तक्षेप करने होंगे। एक भी प्रकार से उस विशेष भाषायी समुदाय को सपने बेचना ही है जिन्हें एक आस बंध जाएगी कि अब तो हम दिल्ली में भी स्कूलों में पढ़े-पढ़ाए जाने लगे। हमें आश्वासन मिले हैं कि इन्हें संविधान में शामिल करने के लिए वकालत की जाएगी आदि।



शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...