यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Friday, October 16, 2009
वो दीप....
न वो अँधेरा ही,
चारो और,
रौशनी ही रोध्नी,
आखें धुन्धती,
चाँद पल की खातिर,
सुकून....
दीप जो,
रोशन कर दे,
अंतर्मन
छाए अंधरे और लोभ की घटा टॉप को....
चलो ले कर आयें,
येसी रोशन दीप,
जो चीर दे,
अन्धतम की छाती....
Friday, October 9, 2009
कर्म बड़ा या किस्मत
ज़रा कल्पना करें , कोई आदमी बाढ़ में फस्सा हो तो उसे आवाज़ लगाना चाहिए की कोई आएगा और उसे ख़ुद निकाल लेगा सोच कर बैठ जाना चाहिए। उत्तर साफ है अगर हाथ पावों नही मरेगा तो डूबना तै है। उसपर भाग्य को कोई कोसे तो उसे क्या कह सकते हैं। भाग्य तो हमारे कर्मों से बनता है। अपनी हाथ की लकीरें हम ख़ुद बनते हैं।
इक बार थान लेने पर कोई भी काम कठिन नही होता।
Friday, October 2, 2009
गाँधी छाए रहे शास्त्री रहे गायब
Thursday, October 1, 2009
प्रेम में आंसू यानि रोते हुवे
प्रेम में आंसू यानि के रोते हुवे दिन कट जाते हैं। कभी उसको याद कर के तो कभी उसे कोसते हुवे। मगर याद ज़रूर करते हैं। अपनी तमाम ज़रूरी काम पीछे छोड़ कर बस इक ही काम होता है उसको पानी पी पी कर कोसना या फिर पुराणी बात को जिन्दा रख कर अलाव तपते रहते हैं। जबकि सोचना तो होगा ही के समये बदल चुका है। उसकी प्राथमिकता बदल चुकी है। आप उसके लिए इक बिता हुवा सुंदर सपना भर हैं और कुछ नही। कभी कभार याद आजाते होगें वो अलग बात है। मगर अब संभालना तो होगा ही।
समय तो हर चीज के मायने बदल दिया करती है तो फिर रिश्ते किस खेत की मुली हैं। ज़नाब बेहतर तो यही होगा के आप अपनी पुराणी यादों को तिलंज़ली दे देन वरना होना तो कुछ नही बस अपनी ज़िन्दगी को बैशाखी ज़रूर पकड़ा रहे हैं। जब वो आपके बिना जी सकती है तो आपमें वो हिम्मत क्यों नही। अगर नही है तो पैदा करना होगा। ज़िन्दगी तो इक ही मिली है मुझे या आपको या फिर उसे ही, इसे आप प्रयोग करने में जाया कर देन या बेहतर बनने में यह तो आप पर निर्भर करता है।
बस यूँ समझ लें की, उपदेस नही है यह तो संसार है यही जो दुनिया। यहाँ पर ज़ज्बात की डरकर कम दिमाग की जायद जुररत होती है।
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कौशलेंद्र प्रपन्न सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर...