Monday, December 31, 2018

जो भी जीया, कुछ छूटा गया



कौशलेंद्र प्रपन्न
जो छूटा उसका विश्लेषण करने का मन करता है। कहां पीछे रहा और कौन का काम क्यों नहीं पूरा कर सका इसका पड़ताल तो होना ही चाहिए। बेंजामिन फें्रक्लीन कहा करते थे, उन्हें अपनी विफलता से सीखने को मिला करती थी। उन्होंने कहीं कहा था ‘‘ विशेषज्ञ अपनी सफलता का जश्न मानने से पहले अपनी असफलता और कहां भूल हुई उसकी समझ विकसित करने में ज़्यादा वक़्त लगाया करते हैं।’’ किन्तु सामान्य लोग अपनी सफलता के मद में इस कदर चूर हो जाते हैं कि आगे की चुनौतियां दिखाई नहीं देतीं। हम अक्सर अपनी सफलता में इतने रम जाते हैं कि अपनी असफलता को देख नहीं पाते। साल के इस अंतिम पलों में जो भी लिख रहा हूं वह बस इतनी भर की टीस है कि क्यों हम अपनी असफलता से नहीं सीख पाते और सफलता में वो चीजें भूल जाते हैं जिन्हें याद रखा जाए तो आने वाले दिनां में हम ज़्यादा मजबूती से सफल हो सकते हैं।
मैंने जो पिछले एक सालों में सीखा उसका लब्बोलुआब इतना ही है कि प्लानिंग, प्रैक्टिस, विज़न और पर्पस और उम्मीद रखें तो जीवन में आगे बढ़ने में कभी भी किसी भी किस्म की बाधा नहीं आ सकती। यदि हमारी प्लानिंग दुरूसत हो, प्रैक्टिस करते हैं, पर्पस के साथ उम्मीद रखकर कार्य करते हैं तो जीवन के सपने पूरे होते हैं। सपने जो भी हों जैसे भी हों, उन्हें पाने के लिए हमें उक्त प्लानिंग, प्रैक्टिस, पर्पस और उम्मीद हो तो कोई वज़ह नहीं कि हमारे सपने पूरे न हों। जीवन में कभी भी यू टर्न आ सकते हैं उसके लिए मानसिकतौर पर तैयार रहना हमारी प्राथमिकता की सूची हो तो हम आगे ही बढ़ा करते हैं।
अपने सपनों को पूरा करने में हमें कुछ कठोर निर्णय भी लेने होने हैं। कुछ अपनी आदतों और व्यवहारों में तब्दीली भी लानी पड़ती हैं। जैसे जैसे पद बदलते हैं वैसे वैसे हमारी प्राथमिकताएं भी बदलती हैं। संवेदनाओं को किनारे करना पड़ता है। यही तो सीखा जो कर रहे हैं उसे दिखाना भी आना चाहिए। आपको यह भी आना चाहिए कि जितना कर रहे हैं उसे डॉक्यूमेंटेशन भी करना ज़रूरी है। वरना कहने वाले सवाल खड़े कर सकते हैं कैसे मान लें कि ऐसा हुआ। वैसा हुआ। असर यह हुआ। जो किया उसे दिखाने की कला भी होनी चाहिए। आप जितना करते हैं उन्हें दिखाने के कौशल में आप माहिर हों वरना कोई क्यों मानेगा कि आपने यह किया वह किया आदि आदि।
जो करें उसे पूरी शिद्दत से करें तो वह स्वयं के लिए और और के लिए भी बेहतर होता है। जो ग़लतियां हम कर बैठते हैं कई बार उसे सुधारने में वक़्त लग जाया करता है लेकिन जो डैमेज हुआ उसे पूरा करने व सुधारने में समय लगा करता है। कई लोग हैं हमारे आस-पास जो आपकी मदद करना चाहते हैं वो वक़्त पर मदद भी करते हैं। उससे आगे की जिम्मेदारी हमारी होती है कि हम उनके उस प्रयास व मदद को कितना पूरा कर पाते हैं। कई बार हम उस व्यक्ति की अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल होते हैं। और आपको विफल साबित कर दिया जाता है। उसमें कहीं न कहीं उस व्यक्ति का शुक्रगुजार तो होना ही चाहिए जिसने आपको आगे बढ़ाने में मदद की। उसने चाहा कि आप आगे बढ़ो। अब आगे की लड़ाई आपको लड़नी थी। आपको साबित करना था कि आप योग्य हो। आप विफल हुए तो उसमें उसकी ग़लती नहीं। बल्कि आप कहीं न कहीं उसकी अपेक्षाओं पर ख़रे नहीं उतरे। लेकिन इससे निराश होने की ज़रूरत नहीं। ज़रूरत इस बात की है कि अपनी विफलताओं से सीख कर जीवन में आगे बढ़ा जाए।

Sunday, December 30, 2018

दौड़ते घोड़े को चाबूक न मारो प्यारे



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहते हैं यदि घोड़ा दौड़ नहीं रहा है तब उसे चाबूक मारा जाए तो वह दौड़ने लगे। बैठा है तो चलते चलते दौड़ लगाने लगे। लेकिन हम कितने उतावले और अधीर हो गए हैं कि हमें यह देखना तक गवारा नहीं कि घोड़ा दौड़ रहा है। वह गति में है और सही दिशा में है। लेकिन क्योंकि हमें दिखाना है। क्योंकि हम मान बैठे हैं कि स्याले घोड़े ऐसे ही होते हैं। इन्हें काम न करने की आदत जो हो गई है। इन्हें जब तक चाबूक न मारा जाए ये दौड़ेंगे नहीं। दरअसल चाबूक मारने वाला कितना चौकन्ना और किस कदर बेचैन है कि उसे भी कहीं और किसी को दिखाने की अधीरता घेरे हुए हैं कि वह भी काम कर रहा है। काम फल तो उसे भी दिखाना है। वह भी तो किसी के प्रति जवाबदेह है।
जवाबदेही तक तो ठीक है लेकिन आप चिल्लाने लगें यह तो हद है। हालांकि कुछ ऐसे और कुछ वैसे किस्म के लोग भी हुआ करते हैं जिन्हें काम कम दिखाने की जल्दी होती है। कुछ वो लोग होते हैं जिन्हें दिखाने से ज्यादा करने में विश्वास हुआ करता है। वो काम करते हैं। दिख जाए तो ठीक वरना अपने धुन में काम में जुते रहते हैं। वहीं पहले किस्म के लोग करते कम दिखाने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। कई बार काम होता हुआ दिखना चाहिए। यह तो ठीक है लेकिन काम हो भी और दिखे भी यह भी ज़रूरी है।
कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए तरह तरह की स्कीमें निकाला करती हैं। जिन्हें पूरा करने के लिए कर्मचारी को जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। और उसी के बल पर कंपनी के बड़े ओहदेदारों को तारीफें भी मिला करती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उन बैठकों तय होता है कि आख़िर ये मजदूर पूरे पूरे दिन करते क्या हैं? बैठे बैठे वक़्त जाया किया करते हैं जब ये इतना काम कर सकते हैं तो इनके काम के घंटे क्यों नहीं बढ़ा देते? क्यों इन्हें हप्ते में पांच दिन बुलाया जाए इन्हें तो छह दिन काम करना ही चाहिए। और देखते ही देखते पांच दिन खटने वाले मजदूरों को उसी पगार में छह दिन झोंकने की योजना बना दी जाती है। जवाबदेही वह मैनेजर की होती है कि कैसे अपने मजदूरों को बहला फुसला कर। डरा धमका कर। औरों के उदाहरण दे कि देखो वो तो छह दिन सात दिन काम किया करते हैं और तुम छह दिन में हांफने लगे। करना ही होगा तुम्हें भी छह दिन। जबकि उस मैनेजर को मालूम हो कि विश्व की कई अध्ययनों शोधों से यह बात साबित हो चुकी है कि मजदूरों, कामगारों को लंबी अवधि में काम के लिए विवश करना कहीं न कहीं काम की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। कहां तो दुनिया भर में पांच और चार दिन कार्यदिवस करने की तैयारी चल रही है और आप हैं कि छह दिन पर खूटा गाड़े बैठे हैं।
सब का अपना अपना काम करने का तरीका होता है। सबकी अपनी शैली होती है। लेकिन जब भी नया आता है कि पुराने वाले के कामों को ऐसे हिकारत की नज़र देखता है गोया पहले वाले ने कुछ किया ही नहीं। तुर्रा उसपर यह कि हम सिस्टम ठीक करेंगे। सिस्टम बनाएंगे। कुछ भी प्लान वे में नहीं होता था। कोई तय योजना और सिस्टम नहीं था आदि आदि। क्या पहले बिना किसी सिस्टम के सारे काम हुआ करते थे। दरअसल नए जनाब को अपनी पहचान, अस्मिता और पोस्ट की चिंता ज़्यादा हुआ करती है। उन्हें अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने के किए कई किस्म के हथकंड़े भी अपनाने पड़ते हैं। कुछ पुरानी बेहतर चीजों को ख़राब भी बताना और ठहराना पड़ता है। तब तो बाबू लोग उनकी सुनेंगे कि क्या खूब किया आपने। आपने तो यह भी नया किया, वह भी बदल दिया आदि इत्यादि। इसी उपक्रम में वे दौड़ते घोड़े को चाबूक मारना नहीं भूलते। नहीं भूलते कि हर वक़्त डांटना, कोचना पड़ता है। मगर वो भूल जाते हैं कि दौड़ते घोड़े को चाबूक मारना ग़लत और हानिकारक भी हो सकता है। घोडा़ बिदक भी सकता है।

Saturday, December 29, 2018

अज़ान संग चालीसा भी है फ़ज़ावो में घुला तेरे शहर में

अज़ान और हनुमान चालीसा साथ ही सुनाई देती हैं आज भी तेरे शहर में। हर सुबह इन्हीं उच्चार से भोर हुआ करता है। कुछ ही दिन बीते होंगे तेरे शहर में कई राग फ़ज़ावो में घुलने लगे। चचा फ़ज़ल अब नहीं बैठते पंडित पान की दुकान पर। शायद कुछ जो घटा इस शहर में उससे कोई भी बेख़बर नहीं था। 
सब ने यही चाहा कि मसला कौम पर न जाये। लेकिन कुछ लोग थे जिन्हें शहर की मुहब्बत पसंद न थी।
सच है कि इस शहर क्या कई शहर में आज भी भोर अज़ान और हरी गुरु चरण सरोज रज शब्दों से हुवा करती हैं। अब तलक किसी को इनसे कोई एतराज़ न था और न किसी को कबूलने से गुरेज़ था कि हम साथ साथ हुवा करते हैं। अचानक 30, 35 के हुवे तब महसूस हुआ हम से भिन्न है वो। 
जबकि बचपन मे याद नहीँ कभी पड़ोस की चची ने भी पाला है। अब यकीन नहीं होता हम साथ थे।
आज भी चची और चचा पूछ लिया करते हैं कैसा है हमारा पंडित। अब बड़ा हो गया है। अब तो शहर आता भी है तो मिला नहीं करता। शायद दानिशमंद हो गया

Wednesday, December 26, 2018

गढ़ा करता है शहर

गढ़ता हुआ शहर ! कैसा लगा शीर्षक? समझ तो गए होंगे। बात शहर की कर रहा हूं जो हमेँ गढ़ा करता है। आकार देता है। हम अपने शहर से तमीज़ भी लिया करते हैं।
शहर जिससे दूर चले जाते हैं। जैसे जैसे हम दूर होते हैं शहर भी नए नए रंग रूप अखितयार करता है। धीरे धीरे शहर के गांवों, खेतों बगानों को काटा जाता गई और देखते ही देखते शहर मकानों में तब्दील हो जाता है। शहर से खेत और बगीचो को बेदख़ल करने का खेल जारी है।
हम कई बार शहर से दूर हो जाते हैं। तो कभी शहर हमसे दूर होता जाता है। यह प्रक्रिया कई बार दोतरफ़ा चला करता है। जिसके स्तर को समझना होगा।
शहर हमें कोसता है तो कभी हम शहर को। यह शिकायत का सिलसिला चल पड़ता है। लेकिन तै बात है कि हमारा शहर हमेशा ही याद आया करता है।
शायद कई बार शहर से हमारी पहचान जुड़ जाती है तो कभी कभी शहर हम से पहचान हासिल किया करता है।

Monday, December 24, 2018

अपनो के बीच दफन होना

रिलोकेशन केवल जगह तक महदूद नहीं है। बल्कि पहचान और लोगों के बीच भी हम माइग्रेट सी ज़िंदगी बसर किया करते हैं। 
हम अपनी इसी ज़िन्दगी में कई कई पल, सांसों को भर लेते हैं। 
कभी भी हम वैसी जगह पर खुश नही राह पाते जहां कोई पहचानने वाला न हों। 
हमारे बुज़ुर्ग नई जगह समायोजित नहीं हो पाते। उन्हें महसूस हिया है कि वी अकेले रह गए। कोई पूछता नहीं। तव्वजो नही देता। 
जिस जगह उम्र के बड़े हिस्से को जीया, जिनके साथ सुख दुख साझा किए लेकिन जब कुछ चेहरे पहचान वाले हों आस पास तब कहीं और कैसे चला जाये।
शायद जिनके बीच रवादारी रही है उन्हीं के बीच ही मरना भी चाहते हैं 

Sunday, December 23, 2018

सत्तर के पार

सत्तर पार के शिक्षकों से समूह में मिलना एक अलग एहसास से भर देता है।
जिसके प्रयास से हम क्या देश, क्या विदेश हर जगह अपनी छाप छोड़ा करते हैं। वही शिक्षक अपने उम्र के सातवें दशक में लाचार हो जाता है। भूलने लगता है। घर- समाज में कई बार उपेक्षित भी होते हैं। लेकिन उसमें उनका क्या दोष। यह उम्र का तकाजा है।हर किसी को इस दौर से गुजरना होगा।
जिन शिक्षकों की तालीम के आधार पर हम और हमारी पर्सनालिटी आकार लिया करती हैं।
शिक्षकों, प्रिंसिपल सब ने स्वीकार किया कि इस उम्र में भी हम समाज को कुछ दे सकते हैं। सब के सब अपने तज़र्बा साझा कर रहे थे। उन्हें हौसला बढ़ाने के लिए कुछ सफल कहानियां सुनाई। इससे कुछ देर के लिए ही सही रोशनी भी मिली।

Thursday, December 20, 2018

पढ़ते हुए बच्चे नज़र नहीं आते...



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहां हैं ज़नाब!!! इन बच्चियों को देखिए और अपने चश्में के लेंंस को ठीक कीजिए। पढ़ते हुई बच्चियां आपकी आंखों से ओझल कैसे हो जाती हैं। जो मंज़र अन्यान्य रिपोर्ट दिखाती हैं उन्हें ही मान बैठते हैं और उन्हें ही अंतिमतौर पर कबूल कर लिया करते हैं। कभी तो सरकारी स्कूलों में ख़ुद भी जाकर देखें और बच्चों से बात करें कि क्या कर रहे हैं बच्चे स्कूलों में। लेकिन आदतन आप कह देंगे ‘‘ वक़्त ही मिलता ज़नाब’’ ‘‘कहां जाएं और क्या क्या देखें?’’ ‘‘मूवी जाएं, मॉल्स जाएं, पार्टी में जाएं कहां न जाएं।’’ क्या आपको याद है अंतिम दफ़ा आप किसी सरकारी स्कूल में गए हों। जो आपके घर के पास ही है। एकदम पास। पार्क से लगा हुआ। जहां आप देखा करते हैं कुद नीलीवर्दी में बच्चे जाया करते हैं। कुछ टीचर वहां जाया करतीं हैं। एक नागर समाज के नागरिक होने के नाते कभी भी इस चिंता से परेशान नहीं किया कि चलें आज अपने पास के सरकारी स्कूल होकर आएं। ज़रा देखें वहां कैसे बच्चे पढ़ते हैं और टीचर कब और कितना पढ़ाते हैं। हालांकि एसएमसी के सदस्य भी कम ही जाया करते हैं। तो हमारे पास ही इतना वक़्त कहां हैं जो आफिस भी जाएं घर पर भी सोएं। सोईए तान कर सोईए जब हमारे सिरहाने से सरकारी स्कूली शिक्षा छीन ली जाएगी तब हमारे पास बचाने को कुछ भी नहीं बचेगा। कितनी तेजी से सरकारी स्कूलों को हमसे छीना जा रहा है इसका अंदाज़ शायद आपको हो न हो लेकिन एक बड़ा तबका इसको लेकर चिंतित है और वकालत भी कर रहा है। कम से कम उनके हौसले को बढ़ाने ही चाहिए।
स्कूल है ज़ाफ़राबाद, पूर्वी दिल्ली का वह इलाका जिसे हम अक्सर पिछड़ा माना करते हैं। उसपर तुर्रा यह कि वह स्कूल उर्दू माध्यम का है। इस स्कूल में तकरीबन 600 सौ बच्चियां हैं। तीन मंज़िला स्कूल जहां कक्षा एक से पांचवीं तक की तालीम देने में टीचर लगे हैं। लेकिन इससे आपको क्या फ़र्क पड़ता है कि वहां पढ़ाई हो रही है या नहीं। बच्चियां पढ़ रही हैं या नहीं। लेकिन मेरा तज़र्बा कहता है कि इस स्कूल की शिक्षिकाएं और बच्चियां बहुत अच्छा पढ़ रही हैं।
कक्षा तीसरी है। बच्चियां हिन्दी की पाठ्यपुस्तक की एक कहानी पढ़ रही हैं। वह पढ़ना किसी भी कोण से कमतर नहीं कहा जा सकता। बहुत अच्छे से और समझते हुए वाचन और पठन कर रही थीं। कुछ देर के लिए लगा कि शायद कोई प्रसिद्ध तथाकथित निजी स्कूल की कक्षा तो नहीं। लेकिन नहीं। यह सरकारी स्कूल उसमें भी उर्दू माध्यम के स्कूल में हिन्दी इतनी साफ तलफ्फूज़ के साथ बच्चियां पढ़ रही हैं। यह ज़रूर काबील ए तारीफ़ है। चौकाने वाली बात यह भी थीं कि बच्चियां न केवल टेक्स्ट बुक पढ़ रही थीं बल्कि अन्य कथाओं को भी पढ़ने में दक्ष थीं।
हमारे सरकारी स्कूलों में शिक्षक और बच्चे भी बहुत अच्छा कर रहे हैं किन्तु इस किस्म की स्टोरी न तो मीडिया में आती है और न नागर समाज के पैरोकारां की नज़र में। यदि स्कूलों से कोई स्टेरी मीडिया को लुभाती है तो वह है नकारात्मक कहानियां। बच्चियां पढ़ना-लिखना नहीं जानतीं। शिक्षिकाओं को यह नहीं आता। वह नहीं आता आदि आदि। तो उन्हें जो आता है वह भी तो स्टोरी कीजिए ज़नाब। सरकारी स्कूलों को जिस तेजी से सरकारें बंद करने और मर्ज करने का मन बना चुकी हैं बल्कि दिल्ली में ही कई स्कूल बंद कर दिए गए या फिर मर्ज़ कर दिए गए उनके लिए हमें ही आवाज़ उठाने की आवश्यकता है।

Wednesday, December 19, 2018

कहानियां चुन लेती हैं हमें कई बार


कौशलेंद्र प्रपन्न
कई बार हम कहानी को चुना करते हैं। वहीं कई मर्तबा कहानियां हमें चुन लेती हैं। याने यदि आप किस्सागो हैं तो अपने लिए कहानियों के प्लॉट तलाशा करते हैं। उस प्लॉट के अनुसार कहानी बुना करते हैं। वहीं दूसरी ओर कई बार प्लॉट हमें बुलाती हैं कि आओ और मुझे कहो। मुझे कहानी में गूंथो। हम भी सुनने वाले के बीच जाना चाहती हैं। क्या प्रेमचंद और क्या कृष्णा सोबती जी, क्या अलका सरावगी और क्या तसलीमा नसरीन सब ने अपने अपने लिए कहानियां चुनीं। कभी हामिद ने प्रेमचंद को चुना तो कभी सिक्का बदल गया की तकसीम ने कृष्णा सोबती को। कभी गूदड बस्ती की कथानक ने प्रज्ञा को। सब के सब लेखक, कवि, कथाकार कहानियों के लिए चुन लिए जाते हैं।
आज यही हुआ। होना ही था। हमपेशा कोई पास में हो तो कब तक ख़ामोश रह सकते हैं। मेरी बगल की सीट पर बैठ गए आकर। कुछ किताबनुमा या गाईडनुमा कोई किताब जिनमें पन्ने लाल, नीली और पीली रंगों में रेखांकित की हुईं थीं। इन पर मेरी नज़र पड़ी। नज़र पड़ी तो मन में खलबलाहट भी होनी ही थी। सो हुई भी। मांफी के साथ पूछ डाला, ‘‘क्या आपका पेपर है?’’ जवाब मिला, ‘‘जी लॉ का पेपर है इन दिनों परीक्षाएं चल रही हैं।’’ वैसे मैट्रो या अन्य स्टेशन पर ट्रेन में अपरिचितों से बात करना, खाना खाना आदि पर चीख चीख कर ताकीद की जाती है कि बात न करें, खाना न खाएं। लेकिन उन सज्जन ने जवाब दिया। लेकिन क्योंकि उन्हें पेपर देना था। इसलिए ज़्यादा बातों में उलझाना मुझे अपराध सा लगा। बस इतना कहा ज़रूर कि ‘‘आपको देख कर अच्छा लगा। वैसे क्या उम्र होगी आपकी?’’ हालांकि किसी अपरिचित से उम्र क्या पूछना और क्यों पूछना लेकिन रहा नहीं गया। उन्होंने भी सादगी के साथ अपनी उम्र भी बताई वो पैंसठ के हैं। सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। उनसे जब पूछा कि ‘‘वो क्या चीज है जो आपको पढ़ने के प्रति प्रेरित करती है।’’ उनका कहना था, ‘‘घर बैठ कर स्वास्थ्य ख़राब करने से बेहतर है कुछ सीखा जाए। अपनी तालीम बढ़ाई जाए।’’
ऐसे कई सारे लोग हमारे आप-पास हैं जिन्हें देख,पढ़ और सुनकर एक आशा और उम्मीद जगती है कि कभी भी देर नहीं है? किसी भी उम्र में पढ़ना शुरू कर सकते हैं। कभी भी छूटी हुई पढ़ाई व तालीम का लुत्फ उठाया जा सकता है। हार कर या फिर उम्मीद छोड़कर बैठने वाले भी ख़ासा लोग हमारे आस-पास ही हैं। जिन्हें देख और मिल कर लगता है जीवन अवकाश प्राप्ति के बाद बिस्तर पर या फिर पार्क में चक्कर काटते गुजरती है। जबकि ऐसा है नहीं। यदि हमारे अंदर की ललक बची है और नए नए कोणों और अरमानों को पूरे करने हैं कि उम्र कभी भी बाधा नहीं।
यह कहानी इसलिए साझा कर रहा हूं क्योंकि इसे आपके साथ नहीं बांटता तो मुझ तक ही उनकी लालसा और पढ़ने का अभ्यास रह जाता। और ऐसा ही नहीं चाहता था। चाहा कि ऐसी सकारात्मक कहानी, घटनाएं ज़रूर साझा की जानी चाहिए जिन्हें पढ़ और सुनकर, जिनसे मिलकर एक उत्साह जगे और निराशा से भरे मन में एक नई कोपल निकले। हमारे ही आस-पास ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने बड़ी उम्र में अपनी पुरानी आदतों और अरमानों को पूरा करने और जीने की शुरुआत की। हमें तो ऐसे लोगों से प्रेरणा और आगे बढ़ने की ललक मिलती है। बजाय कि रोने से कि अब कुछ नहीं हो सकता। कुछ भी तो नहीं हो सकता। अब कौन सा परीक्षा देना है आदि आदि। क्यों पढ़ें? जब पढ़ना छूट जाता है तो कहीं न कहीं हम एक बड़ी दुनिया से कट जाते हैं। हमारा साबका फिर ऐसे लोगों तक ही महदूद रह जाता है जिन्हें पढ़ने-लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

Tuesday, December 18, 2018

पांच साल बाद भी कहानी याद रही, अधूरी कहानी छोड़ आया




कौशलेंद्र प्रपन्न
यही कोई पांच साल बाद यानी 2014 से 2018 का फासला। कायदे से जाना तो लगातार और नियमित चाहिए था। लेकिन काम की व्यस्तता और न जाने के प्रति उदासीनता या कहे लें ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। लेकिन आज जब उर्दू माध्यम के स्कूल, पुरानी सीमापुरी गया तो लगा ही नहीं कि नई जगह आया हूं।
कक्षा पांचवीं में दाख़िल हुआ। मकसद था यह जानना कि क्या उर्दू माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों व बच्चियों को हिन्दी लिखने, पढ़ने में कोई किसी भी स्तर की परेशानी होती है? क्या उन्हें मात्राओं, वर्तनी आदि में तो दिक्कतें नहीं आतीं। इस मकसद को पूरा करने व जांचने के लिए मेरे पास कुछ सवाल थे। कुछ कहानी के मार्फत जानना व समझना था कि बच्चों को मात्राओं की समझ दुरुस्त है या नहीं।
पर्चा तो बांट दिया। बच्चे पर्चो लेकर काम करने लगे। लेकिन मैं तब तक क्या करता? क्या करता कक्षा में खड़े व बैठकर? यह सवाल भी था और बेचैनी भी। दूसरे कक्षा में चला गया। वहां पर बच्चों से बातचीत करने लगा। वक़्त था दोपहर के भोजन का। बच्चे मौज मस्ती में थे।
जब कक्षा में वापस आया तो मैंने पूछा आपमें से कौन कहानी, कविता, नज़्म या गीत सुनाएगा? तभी सानिया, फरहा और खूशबू ने कहा ‘‘सर आपने हमें चींटी और हाथी वाल कहानी सुनाई थी। वही सुनाओ।’’ मेरे लिए हैरत की बात थी कि मैंने कब सुनाया? सानिया ने कहा ‘‘जब मैं पहली क्लास में नीचे प्रिंसिपल ऑफिस के सामने पढ़ती थी तब आपने हमें चींटी वाली कहानी सुनाई थी, अब मैं पांचवी में आ गई हूं।’’
मेरे लिए कैसी और कदर की खुशी का मंज़र रहा होगा शायद अंदाज़ न लगा पाएं। पांच साल पहले जिस पहली कक्षा में कहानी सुनाई थी वह कहानी आज भी बच्ची की जिंदगी में शामिल है। उसने न केवल कहानी का नाम बताया बल्कि मुझे पहचान भी लिया। शायद कहानी, कविता और कथाकार, कवि या फिर शिक्षक की सत्ता एवं पहचान यही होती है। यदि इन औजारों का इस्तमाल बेहतर और शिद्दत से किया जाए तो हम बच्चों की जिं़दगी में अपना स्थान बना सकते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि पहली कक्षा की बच्ची ने कहानी के साथ मेरे अंदाज़ और चेहरे को भी ज़ज्ब कर लिया था। हम कई बार हल्के तरीके से कुछ भी कह कर कक्षा से बाहर आ जाते हैं। हमें मालूम ही नहीं होता कि हमारे किस शब्द और वाक्य का बच्चों के जीवन में असर छोड़ने वाला है।
पांच साल बाद भी पहली कक्षा की बच्ची ने पहचान लिया तो यह एक किस्म से भाषायी और कथा-शैली की ताकत है जिसके बदौलत हम कक्षा और कक्षा के बाहर भी बच्चों में अपना वजूद बना पाते हैं। अब वो बच्चियां अगले साल छठीं में चली जाएंगी तब शायद पता नहीं कब उनसे मुलाकात हो। मैंने चलते चलते कहा ‘‘ आप लोग पहली से जैसे पांचवीं तक आईं इंशा अल्लाह!!! आप कक्षा छठीं और आगे के दर्ज़ें में भी जाएं और तालीम पूरी करें।
जब चलने लगा तो बच्चियों ने कहा एक फोटो आपके साथ लेना है। हालांकि मैं कोई हीरों नहीं था। मैं कोई प्रसिद्ध हस्ती भी नहीं हूं। लेकिन बच्चों के लिए वह व्यक्ति सबसे बड़ा होता है शायद जो उनकी पहुंच में होता है। जिसने भी उनकी जिं़दगी को पहचाना, पढ़ा और खुलेतौर पर उनसे मिला वे लोग ही उनके लिए ख़ास होते हैं। तस्वीर में बच्चियां ऐसे टूट और धक्कामुक्की कर रही थीं गोया कोई फिल्मी हस्ती हो शायद। लेकिन मैं तो था एक अदना या भाषाप्रेमी, शिक्षा का विद्यार्थी जिसे काफी पहले उन स्कूलों में उन कक्षाओं में दुबारा जाना था जहां कहानियां छोड़ आया था। उन कहानियों को पूरा करना था। पूरा करना था उन बच्चों की ख़्वाहिशें भी जिन्हें और और कहानी सुननी थी। जाते जाते वायदा लिया बच्चों ने फिर कब आओगे? अल्ला हाफ़िज़। सलामत रखे सर आपको।

Monday, December 17, 2018

पांव में चप्पल नहीं




कौशलेंद्र प्रपन्न
उसके पांव में चप्पल नहीं थे। जमीन जितनी सर्द थी कि नंगे पांव कुछ देर खड़ा रहना मुश्किल है। लेकिन उसके पांव में न चप्पल और न ही जुराब। कुछ भी नहीं। खाली और नंगे पांव वो बरतन धो रही थी। एक अकेली साड़ी में लिपटी। शॉल था तो बदन पर लेकिन वह भी फैशन वाले लग रहे थे। उस शॉल से सर्दी रूकती हो इसका अनुमान लगाना कठिन है।
लाख कहने पर कि चप्पल पहन लो उसके पांव में चप्पल नहीं आए। लेकिन दुबारा बोलने पर उसने कहा, ‘‘चप्पल तो नीचे है। कोई घर में हमें चप्पल पहन कर नहीं घूसने देता। इसलिए चप्पल नीचे खोल कर आती हूं।’’
यह सुनकर सोच में पड़ा रहा कि घर की रसोई सौंपने, खाना बनवाने में हम पीछे नहीं रहते। घर का सब काम किया करती हैं। ऐसी रानियां, पूजा, बबीता, आंचल आदि आदि। लेकिन घर में चप्पल पहन कर आने में हमारी पवित्रता कहीं गंदली होने लगती है। है न अज़ीब सा दो स्तरीय बरताव। लेकिन अमूमन घर घर में ऐसे ही व्यवहार हुआ करते हैं।
इन्हें आदत है किसी भी घर में जाओ तो अपना चप्पल खोलकर दरवाज़े के अंदर आना है। मैंने अपनी चप्पल दी कि इन्हें पहनों और फिर बरतन बासन साफ करो। जमीन साफ रखना, डस्टींग आदि करना एक उद्देश्य है।
हमसब की आदत होती है कि इन महिलाओं से यदि मुरौअत से पेश आए तो सिर पर नाचने लगती हैं। काफी हद तक होता भी है। यदि ढील दे दो तो छुट्टियों की लड़ियां लग जाती हैं। आपकी रसोई, घर सब के सब उसके न होने की पहचान देते हैं। हम वैकल्पिक बरतन से काम चलाने लगते हैं। वे तो सोचती है कुछ दिन आराम मिला। लेकिन जैसे ही बरतनों का ढेर देखती है वैसे ही भुनभुनाने लगती है। क्या फायदा हुआ छुट्टी करने का। जब इतना बरतन धोना ही था।
आज की हम सब की जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुकी हैं ये रानियां, पूजा, रूबी आदि। इनके बगैर कई बार लगता है हम कितने अपंग हो चुके हैं। यदि दो दिन ये न आएं तो रसोई तो रसोई हमें अपने जुराब, जूते, बनियान आदि का भी पता नहीं होता। क्यों न ये भी इतराएं? इन्हें इतराने और भाव खाने का भी पूरा हक़ है। क्योंकि हमारे अधिकांश काम यही तो निपटाया करती हैं। हम घर के साथ अब बिना रानियों के कल्पना भी नहीं कर सकते।
शायद यही वज़ह है कि हर बड़ी बड़ी इमारतों और कॉलोनी, सोसायटी आदि के आस-पास ही इनके भी ज़िंदगी चक्कर काटने लगती है। छोटी छोटी दुकानें और कुछ काम करते इनके पतियों को विश्वास होता है कि उनकी बीवी उनके से ज़्यादा कमा रही हैं। शाम होते घर भी लौट जाया करती हैं।
कभी मौका मिले तो अपने घर के आस-पास के पार्क में रविवार या किसी दिन ग्यारह बजे के बाद देख लीजिए। कमाल का मंज़र होता है। सिर से जूं निकालतीं आपकी रानी, पड़ोस की पूजा से सुबह से कल रात तक की तमाम कहानियां बिनते बांटते नज़र आएंगी। उसकी पूजा, इनकी रानी, या पांच मंजिले एक मकान में लगी रूबी सब अपने अपने काम की प्रकृति और दुख या मजे बांटा करती हैं। काश! हमारे पास कोई रिकॉडिंग होती तो हम जान पाते कि किसी चटनी, किसनी दाल, किसकी रोटी कहां कब पका करती हैं।
कई दफ़ा आपकी रानी मेरी पूजा को बिगाडने का काम भी किया करती है। मेरी भाभी ने तो साड़ी कूकर आदि दिया। तुम्हारी भाभी ने क्या दिया? और अब वो बरतन धोते धोते धीरे से सरका देगी ‘‘ इस बार साड़ी लूंगी और दीवाली पर कूकर देना। हर साल लड्डू दे देती हो भाभी।’’
हमारी लाइफ लाइन बन चुकी रानियों, राजकुमारियों को इंसान के तौर पर देखना और स्वीकारना होगा। यदि साल में एक बार पांच सौ हजार रुपए का कूकर मांग भी बैठी तो देने में कोई हर्ज़ नहीं। ज़रा फर्ज़ कीजिए तीन दिन यदि वो नहीं आती और आप बच्चे को स्कूल छोड़ने और दफ्तर पहंचने में लेट होते हैं तो इससे बेहतर था एक कूकर ही दे देते।   

Sunday, December 16, 2018

बलिहारी सरकार आपने स्कूल बंद कराए...



कौशलेंद्र प्रपन्न
कमाल है सरकार आपका भी। स्कूल बंद करा कर उस जगह पर अपना भव्य कार्यालय बना डाला। उस पर तुर्रा यह कि अन्य सरकारी स्कूलों को भी बंद करने का भरमान ज़ारी कर चुके हैं। वे सरकारी स्कूल और उन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे किन और कहां स्कूल जाएंगे इसकी ख़बर तक नहीं ली। कहने को तो आपने कहा कि फलां फलां पड़ोस के स्कूल में उन्हें मर्ज कर दिया जाएगा। तब तलक तो ठीक लेकिन आपने यह तर्क देकर तो दिल बाग बाग कर दिया कि उन जगहों पर पार्किंग बनाई जाएगी। क्योंकि इन स्कूलों में बच्चे कम हैं। बच्चों को कैसे इन स्कूलों में लाए जाएं इसकी सूध लेनी आपकी प्राथमिकता नहीं थी। आपकी पहली प्राथमिकता था स्कूल करो बंद और खोला जाए दुधारू पार्किंग। इन स्कूलों से मिलता ही क्या है? ऊपर से शिक्षकों का वेतन, टेंशन लेना अलग से।
नई दिल्ली नगर निगम ने नवंबर में इन तरह कई सरकारी स्कूलों को बंद कर दिए। यहां पार्किंग की योजना पर काम जारी आहे। हाल ही में पुरानी दिल्ली के एक अत्यंत पुराने स्कूल जिसका इतिहास 1948 से जुड़ा है। वहां कौ़मी स्कूल को बंद कर सराय ख़लील इलाके में खुले इस कौ़मी स्कूल को 1976 में तोड़कर यहां ईदगाह स्थानांतरिक कर दिया गया। लेकिन स्कूल में तालीम भी दिए जाए का काम चल रहा था। इस स्कूल को कायदे से संरक्षित भी रखे जाने की आवश्यकता था। लेकिन सरकार आपकी नज़र तो कहीं और थी।
आपने इसी शहर में सरकारी स्कूल की जमीन हथिया कर वहां भव्य कार्यालय खड़ी कर दी। अब इस स्कूल पर आपकी नज़र है। राज्य सरकार ने 4000 वर्गमीटर की जमीन मांगी थी ताकि इस स्कूल को बचाया जा सके और इसे बेहतर बुनियादी सुविधा मुहैया कराई जाए। लेकिन आपसे यह भी न हो सका। जितनी जमीन देने की हांमी भरी वह सीबीएससी के मांपदंड़ों पर ख़रा नहीं उतरता।
ये कौन सी और किस स्कूल में पाठ पढ़े हो सरकार !!! स्कूलों को बंद करने से आपके कौन से निहितार्थ सधते हैं यह तो हमें नहीं मालूम, लेकिन इतना तय है कि सरकारी स्कूलों पर ह़क कहीं न कहीं आम जनता की है। आम बच्चों की है। उन बच्चों को सरकारी स्कूल पर अधिकार है। अधिकार है बच्चों को शिक्षा हासिल करने का। 

Saturday, December 15, 2018

सरकार के समानांतर शिक्षा में टेक महिन्द्रा फाउंडेशन के प्रयास



कौशलेंद्र प्रपन्न
सरकार जब शिक्षा में मुकम्मल गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दे पा रही है तब ऐसे में नागर समाज के अन्य घटक आगे आ रहे हैं। उनमें कुछ एनजीओ, सीएसआर आदि की कोशिशों को लंबे समय तक नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सरकार पिछले कई दशकों से शिक्षा में गुणवत्ता हासिल करने में लगातार विफल होती रही है। इसके प्रमाण गजट ऑफ इंडिया के दस्तावेज़ हैं।
देश के विभिन्न राज्यों में शिक्षा प्रशिक्षण संस्थानों में किस प्रकार की तालीम दी जा रही है इसका अंदाज़ लेना हो तो किसी भी सरकारी व कई बार गैर सरकारी स्कूलों की कक्षाओं में झांकने का अवसर लीजिए और देखें। देखेंगे कि शिक्षक किस शिद्दत से अपने कंटेंट के साथ न्याया कर रहा है।
अव्वल तो शिक्षकों की जबानी कई बार सुनने को मिलती है कि उन्हें पढ़ने का मौका नहीं मिलता। अरसा हुआ कुछ नई किताबों को पलटे हुए। जब पढ़ाई किया करते थे तब पढ़ते थे लेकिन उसका मकसद परीक्षा पास करना था। जब से सेवा में आए पढ़ाई छूट गई। टूट गई किताबों से रिश्ता। यह मेरा कहना नहीं है बल्कि शिक्षकों की कही और स्वीकारी बातें हैं।
टेक महिन्द्रा फाउंडेशन के द्वारा पूर्वी दिल्ली नगर निगम के स्कूलों को केंद्र में रखते हुए संचालित अंतः सेवाकालीन अध्यापक शिक्षा संस्थान लगातार छह वर्षां से शिक्षक सेवाकालीन प्रशिक्षण में लगी हुई है। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षक अपनी कक्षाओं में नए शिक्षण विधियों और शास्त्रों का प्रयोग कर रहे हैं। यह संख्या और गुणवत्ता अभी हमारी आंखों से ओझल है लेकिन अब और नहीं छुप सकतीं। जब आप काम किया करते हैं वो भी सरकार की जिम्मेदारियों के समानांतर तो वो कईबार अपनी निहितार्थां की वजह से ओझल रखने का खेल भी खेला जाता है।
आज की तारीख़ी हक़ीकत है कि देश भर में सेवापूर्व प्रशिक्षण संस्थान तो हैं लेकिन सेवाकालीन शिक्षकों को शिक्षा-शास्त्र और शिक्षण कौशलों पर हाथ थामने वाले बेहद कम हैं। उनमें टेक महिन्द्रा फाउंडेशन का यह प्रयास किसी भी कोण से कमतर नहीं है। जबकि यह काम सरकार को करने थे। लेकिन सीएसआर गतिविधि के तहत टेक महिन्द्रा फाउंडेशन न केवल दिल्ली बल्कि अन्य राज्यों में भी बच्चों में दक्षता और मेडिकल प्रोफेशनल तैयार करने में जुटी है। हालत यह है कि बच्चे प्रशिक्षण और हुनर हासिल कर देश के जानेमाने अस्पतालों और अन्य क्षेत्रों में अपनी भविष्य तलाश रहे हैं और बना चुके हैं।
सच पूछा जाए तो शिक्षा वह कोना है जहां समाज को झांकना चाहिए लेकिन यही कोना एक सिरे से उपेक्षित भी है। यही वजह है कि नागर समाज के लोग और कंपनियां अपनी जिम्मेदारियां निभाने में पीछे नहीं हैं। हमें खुले मन और दिल से ऐसे प्रयासों को न केवल स्वीकारना चाहिए बल्कि एक कदम आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारी को भी निभाने के लिए समानांतर आगे आना ही शिक्षा को बेहतर स्तर पर ले जा सकती है।

Thursday, December 13, 2018

तुम्हारे हार पर हंसेंगे हम



कौशलेंद्र प्रपन्न
हंसने वाले हजारों हैं। इन्हें हंसने का सबब चाहिए। कोई तो वजह हो जिस पर हंसना चाहिए। हम कई बार हंसने का वजह दिया करते हैं। हम अपनी कमजोरी देते हैं जिसपर हंसा करते हैं। हार भी कई बार हमें जीवन में आगे बढ़ने की वजहें तय किया करती हैं। लेकिन हम हारना ही नहीं चाहते। चाहे वो खेल हो या फिर जिं़दगी। हम हर वक़्त जीतना चाहते हैं। यही सबसे बड़ी चुनौती है। हार में जो जज़्बा है उसे महसूस नहीं किया करते। उस हार में जीतने के प्रति जो प्रयास है उसे नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं।
हार से निकलती है जीत का सबब। और कैसे जीता जाए इसकी योजना हम तब बनाते हैं जब हार जाते हैं। चाहे वह हराने वाले अपने हों या फिर कोई और। हार से जीत की योजना निकला करती है। इसे ऐसे भी समझने की कोशिश करें कि यदि आप किसी प्रोजेक्ट को लीड कर रहे हैं और अपने तई बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में अपनी पूरी क्षमता लगा देते हैं। लेकिन अचानक मैंनेजमेंट को एहसास होता है कि यह तो हमारी बात नहीं मानता। हमारी सुनता नहीं। हमारे इशारों पर नहीं चलता। यह उन्हें पसंद नहीं आती। उन्हें यह स्वीकार नहीं कि जिसे हमने चुना वो हमारे इशारों पर क्यों नहीं चलता। अपना विवेक क्यों प्रयोग करता है। आपका विवेक उन्हें पसंद नहीं आता। उन्हें यह भी पसंद नहीं आता कि वो हमारी सारी बातों पर हुंकारी नहीं भरता।
और मैंनेजमेंट की आंखों में खटकने लगते हैं। आपके सामने एक बड़ी लाईन खींच दी जाती है और कहा जाता है उस लाईन को तुम मीट नहीं कर पाते इसलिए क्यों न आपको हटाया जाए। आपको सीधे सीधे हटाया तो नहीं जाता, बल्कि आपके सामने ऐसी चुनौतियां खड़ी कर दी जाती हैं जिन्हें आप मीट नहीं कर पाते। और आपको कहा जाता है कि आप तो हमारे पैरामीटर पर ख़रा नहीं उतरते। क्यों न आपको हटाया जाए।
कई बार ऐसी परिस्थितियों पैदा कर दी जाती हैं जिनसे आपको लड़ना होता है। आपको साबित करना होता है कि आप अभी भी योग्य और दक्ष हैं। हर वक़्त आपको प्रूफ करना होता है कि आप हैं और आपकी अपनी पहचान भी है। लेकिन इसमें आप कई बार उन लोगों से भी जूझते हैं जो कभी आपके साथ हुआ करते थे। सत्ता परिवर्तित होते ही उनकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। उनके लिए यह चुनाव ज़रा मुश्किल हो जाता है कि नए निज़ाम के साथ कितना ईमानदार रहना है और पुराने वाले के साथ कितना रहना है।
 

Wednesday, December 12, 2018

...और वो रोने लगीं



कौशलेंद्र प्रपन्न
कभी सोचा न था कि कोई अपनी बात कहते कहते व डायरी पढ़ते पढ़ते रो पड़ेगा। या रो पड़ेंगीं। रोना वैसे कोई स्त्री व पुरूष वर्ग में बांटकर नहीं देख और समझ सकते हैं। किसी कार्यशाला में यदि कोई प्रतिभागी यानी शिक्षक व शिक्षिका रोने लगें तो आप इसे क्या नाम देना चाहते हैं? मेरे लिए यह चौंकाने वाली घटना थीं। लेकिन जब आंसूओं का मोल समझा तो एहसास हुआ कि रोते वो लोग हैं जिन्होंने अपने आंसू को लंबे समय से दबा कर रखा है। किसी के सामने बयां नहीं किया कि उनकी अंतरदुनिया में क्या और किस प्रकार की हलचल चल रही है।
यह वाकया है एक हिन्दी शिक्षकों की कार्यशाला का। इस कार्यशाला में भाषा कौशल की बुनियादी दक्षता की चर्चा हो रही थी। उस विमर्श में भाषायी कौशल श्रवण, वाचन और पठन उसके बाद लेखन कौशल पर अभ्यास का कार्य हो रहा था। पठन कौशल के बाद लेखन पर बात आई। जब बात चली तो हमने कहा आज हम डायरी और यात्रा-संस्मरण लिखते हैं।
तकरीबन सभी प्रतिभागियों ने अपनी समझ से यात्रा-संस्मरण और डायरी विधा में हाथ आजमाया। अब बारी थी पठन की। जब एक एक कर प्रतिभागियों ने पढ़ना शुरू किया तो जिन कौशलों की बात की गई थी उसका प्रयेग वाचन और पठन में कर रहे थे। तभी एक प्रतिभागी की आंखों में आंसुओं का एक रेला लग गया। जैसे ही उनपर नज़र पड़ी तो मेरी आंखें भी भर आईं। लेकिन समझना ज़रूरी था कि क्यों आख़िर क्या वो कहानी है जिससे वो शिक्षिका को ख़ुद को जोड़ पा रही है।
जब उनकी बारी आई तो अपनी डायरी के कुछ पन्ने हमारे साथ साझा किया। वह भी ऐसा कि उससे हमारी आंखों में भी आंसू आ गए। सितंबर में ससुर और अक्टूबर में पिता को कैंसर का पता चला। यह वैसे भी कतना संजीदा घटना थी। डायरी के उन पन्ने को सुनते सुनते सभी की आंखें भर आईं। इसके साथ ही एक और प्रतिभागी थीं जिनकी आंखों में भी आंसू नहीं बल्कि लोर भर भर कर निकल रहे थे।
हर कोई अपने अंदर पता नहीं कितना समंदर दबा कर रखता है। जब कभी मौका मिलता है बस वह अपने अंदर की जज्बातों को उड़ेल देता है। यदि यह विश्वास हो जाए कि जिसके सामने हम अपन बात रख रहे हैंं वह सुरक्षित है। मेरी बात सुनने वाले और समझने वाले हैं। हमारी बात हमारे बीच ही सुरक्षित रहेगी।
हम सब ऐसे व्यक्ति की तलाश ज़रूर करते हैं जिन्हें हम अपनी बात साझा करते हैं उसका मजाक नहीं बनाया जाएगा। हमारी बात और दर्द से कोई जुड़ने वाला होगा। यही हुआ इस कार्यशाला में। शिक्षिका ने अपनी निजी घटनाएं साझा कीं कि कैसे उन्हें पिता और ससुर की बीमारी ने तोड़ा और वो प्रोफेशनल और निजी जिंदगी में सामंजस्य नहीं बैठा पा रही हैं। एक ओर पिता और ससुर और दूसरी ओर स्कूल और शिक्षण। बच्चों के साथ जब न्याय नहीं कर पा रही हैं तो उसका मलाल उन्हें रूलाने लगती है। उन्हें लगता है इनमें बच्चों का क्या दोष? दिन में नींद आने लगती है। लेकिन यह सामंजस्य ज़रा कठिन है। किन्तु पढ़ाने और पढ़ने के प्रति ललक और जिज्ञासा अप्रतीम है। रूचि भी ऐसी कि उन्हें नई चीजें सीखने की ललक उन्हें आगे बढ़ा रही है।

Tuesday, December 11, 2018

पुनर्मूषिको भव



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानी पुरानी है। बहुत पुरानी। इस कहानी को हमने बचपन में ज़रूर पढ़ी व सुनी होगी। शायद पंचतंत्र की है या कथासरित सागर से ली गई होगी। संक्षेप में समझें कि ऋषि तपस्या में लीन थे। एक चूहा परेशान था। ऋषि जी की आंखों खुली और उस चूहे से पूरा कथा जानने के बाद कहा ‘‘ तुम्हें शेर बना देते हैं। और तब से चूहा शेर का रूपधारण कर लिया।
उसकी प्रकृति अपने स्वरूप के अनुसार होनी थी। हिंसक। सो एक दिन उस शेर में तब्दील चूहे ने सोचा। शायद ज़्यादा ही सोच लिया। अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए योजना बनाई की क्यों न इस ऋषि को ही खत्म कर दूं। क्योंकि इसकी वजह से आज मैं शेर हूं। लेकिन...
.....और उसने ऋषि पर ही धावा बोल दिया। होना क्या था? जो आपको शेर बना सकता है। वही आपको चूहे में तब्दील करने का मंत्र-यंत्र भी जानता है। और कहानी का पटाक्षेप यूं हुआ कि ऋषि ने उसे पुनः चूहा बना दिया।
इस कहानी के कई स्तर और कई पेंच हैं। बल्कि इस कहानी की गांठों को खोलें तो पाएंगे कि हमारी जिं़दगी में भी कई ऋषि मिला करते हैं जो हमारी औकात और छवि, व्यक्तित्व को नया आयाम दिया करते हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि क्या हम उसे अपनी काबिलीयत के आधार बरकरार रख पाते हैं या वर्तमान पद को भी खो देते हैं। पहले वाला स्वरूप तो अपने हाथ से गया ही वर्तमान की पहचान भी खतरे में आ जाती है।
यदि हमारे अंदर दक्षता और कौशल है। योग्यता और पात्रता है तो हम इस शेर के बिंब को जी पाते हैं। हमें अपने पुराने ऋषि के वरदान और श्राप के भय से हमेशा झुक कर नहीं रहना पड़ता। बल्कि नर्ठ भूमिकाओं और चुनौतियों का सामना डट कर करते हैं।
थ्कतनी ही अजीब बात है कि जब आप एक ही संस्थान में प्रमोट होकर नई पोस्ट हासिल किया करते हैं और कुछ ही वक़्त के बाद आपको पहली भूमिका में धकेला जाए। या फिर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी जाएं कि आपको अपनी पहली भूमिका में लौटना पड़े तो ऐसे में क्या महसूस करते हैं? आपके महसूसने और अनुभव को कोई ख़ास तवज्जो नहीं दिया जाता बल्कि मैनेजमेंट आपको येन केन प्रकारेण कोई न कोई कारण गिना कर जतला देती है कि आप उसके योग्य ही नहीं थे। आप तो अकादमिक कार्यों के लिए बने हैं। आप चूहा ही रहें। चूहेपन का आनंद लीजिए। आपको कुछ देर स्वाद क्या लग गया आप तो बौरा गए।
चूहे की गल़ती क्या थी? क्यों वह पुनः चूहा बन गया? सोचकर लगता है। हर किसी को नए रूप, पद, रूतबा खूब भाया करता है। जब उससे नई भूमिका छीन ली जाती है तब अप्रिय लगना स्वभाविक है। लेकिन आत्मग्लानि और अपराधबोध से भर जाना उसके लिए आगे की लड़ाई और संघर्ष को बढ़ा देता है। पहला आत्मसंघर्ष उसका स्वयं से होता है कि क्या मैं सचमुच इस लायक नहीं था? क्या हममें वह दक्षता ही नहीं थी जिसकी उम्मीद की जा रही थी? जो अक्षमता गिनाई गई क्या वास्तव में इसमें कमतर हूं आदि आदि। और निराश होकर आगे प्रयास करना छोड़ देगा। वहीं दूसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि वह इसे सकारात्मक रूप से ले कि अच्छा कियी कमियां बता दीं। आगे से ऐसी गलती या कमियों को दूर करूंगा।
कंपनियां और दुकानें बहुत सी हैं। यदि हमारे अंदर दक्षता और काम के प्रति ललक और रूझान है कि कीमत देने वाले भी इसी बाजार में हैं। बस ज़रूरत है अपने आप को कैसे बेचते हैं। बिकने के लिए तैयार रहें, दक्ष हों तो खरीदने वाले भी बैठें हैं।

Sunday, December 9, 2018

कभी चुनाव विशेषज्ञ तो कभी ज्योतिषाचार्य





कौशलेंद्र प्रपन्न
हमने अपना बचपन और युवावस्था में चुनाव से पूर्व और चुनाव के बाद विश्लेषकों में योगेंद्र यादव को टीवी पर देखा है। इनका विश्लेषण कई मतर्बा आंखें खोलने वाली हुआ करती थीं। जो विश्लेषण और भविष्यवाणियों की जाती थीं परिणाम तकरीबन आस-पास ही होती थीं। इन विश्लेषणों में मंजे हुए पत्रकार भी शामिल होते थे। जिन्हें चुनावी पंड़ित के नाम से जाने थे। इनमें राहुल देव, दीनानाथ मिश्र, सुरेंद्र प्रताप सिंह, राजकिशोर, प्रभाष जोशी आदि। जैसे जैसे मीडिया की प्रतिबद्धता बदलती चली गई वैसे वैसे ये पत्रकार भी बिलाते चले गए। मुंखापेक्षी विश्लेषणों का दौर चल पड़ा।
इन दिनों कई राज्यों में चुनावी मौसम है। इस मौसम में कई तरह की दुकाने सजाए कई लोग बैठे हैं। इनमें मीडिया तो है ही साथ ही ज्योतिषियों की भी दुकाने ंचल पड़ी हैं। इन दुकानों में इन दिनों क्या बेचा जा रहा है? कभी भी न्यूज चैनल खोल लें। दो ही किस्म की बहसें सुनने और देखने को मिलेंगी। पहला सड़क छाप और स्वघोषित चुनाव विश्लेषक और दूसरे ज्योतिषशास्त्री। अंक ज्योतिष, फलित ज्योतिष नक्षत्र, ग्रहों को पढ़ने वाले।
जो आम जनता को नहीं पढ़ पाता वही शायद इन अंक ज्योतिषियों की शरण में जाया करते हैं। आज की घटना है कई न्यूज चैनल बाबाओं को बैठा कर उनसे दो ही पार्टी की जन्मकुंडली बांचने में झोंक रहे हैं। इन सभी ज्योतिषियों की मानें तो भाजपा को सूर्य, राहु, आदि सभी दशाएं ठीक हैं। मूलांक 8, 13, आदि आदि हैं। जो सत्ता, शासन सुख प्रदान करने वाली हैं। वहीं कांग्रेस के मूलांक, फलित ज्योतिष बताते हैं कि इनकी सत्ता से दूरी रहेगी आदि।
है न कमाल की चुनावी और समाजो-सत्ताई विश्लेषण। आप को यकीन हो जाएगा कि कौन जीतने वाले हैं। किस की सत्ता पर ताजपोशी होने वाली है। इन बाबाओं से कोई पूछे कि क्या आपने कभी समाजशास्त्र, चुनाव को मनोविज्ञान, चुनाव को अर्थशास्त्र या फिर मानवीय रूझानों को अध्ययन किया है। भला हो ऐसे विश्लेषकों और ऐसे दर्शकों को जो बड़ी ही चाव से इन्हें देख और परायण कर रहे हैं। 

Friday, December 7, 2018

भाषायी मार



कौशलेंद्र प्रपन्न
कई तरह के मार हम पर पड़ते हैंं। प्राकृतिक, अप्राकृतिक जिसे हम कृत्रिम भी कह सकते हैं। कुछ मार हम खुद पैदा करते हैं और कुछ दूसरों से थोपी जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन मारों से हम बचें कैसे? क्या ऐसी कोशिश करें जिससे कि हम इन मारों के काट निकाल सकें।
भाषायी मार भी उक्त मारों में शामिल कर सकते हैं। भाषायी मार से सीधा का मायने यह है कि जो हमारी अर्जित भाषा है उसकी कमाई पूरी जिंदगी खाया करते हैं। यह भाषायी कमाई हमें मेहनत कर के कमाई पड़ती है। हमेशा प्रयास और मेहनत से इसमें इजाफा करना होता है। यदि इन भाषायी संपदा को बढ़ाते नही ंतो हम कहीं न कहीं पिछड़ते चले जाते हैं
हमारी मातृभाषा और प्रथम भाषा के साथ रागात्मक संबंध कई बार मार से बचने और ख्ुद को संभालने में मुश्किलें पैदा करती हैं। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि भाषा हमें न केवल मांजती है बल्कि हमें बाजार के अनुसार भी तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाती है। जो भाषा बाजार में रोजगार और स्वविकास में मददगार साबित होती है उस भाषा को मोलभाव काफी महंगी होती हैं।
भारतीय भाषाएं और अंग्रेजी के बीच हमेशा ही एक तनाव की स्थिति रही है। बनती और बनाई भी जाती है। भाषायी रागात्मक संबंधों की चर्चा उक्त की गई, उसका मायने यह है कि हिन्दी मेरी मातृभाषा है और हिन्दी ही ताउम्र काम करूंगा और हिन्दी को प्रोत्साहित करने में पूरी जिंदगी झोंक दूंगा। लेकिन हम एक बड़े फल्सफे और हक़ीकत से मुंह मोड़ रहे होते हैं।
भाषायी मार छात्रों, प्रोफेशनल्स और जीवन पर भारी पड़ने लगता है। यदि अंग्रेजी उतनी नहीं आती तो प्रोफेशन पर असर तो पड़ता ही है साथ निजी जिंदगी में भी उसका मलाल सालता है। काश अंग्रेजी पर ध्यान दिया होता तो मेरी बाजार गरम होती। मेरी पहुंच और प्रतिष्ठा भी ज्यादा ही होता। लेकिन कई बार दृढ निर्णय और निश्चिय हमें भाषायर मार से बचा सकता है। हमारी हिन्दी व आंचलिक भाषाएं कुछ दूर तक ही हमारा साथ निभा पाती हैं। एक सीमा और पद के बाद हमें अंग्रेजी अपनानी पड़ती है।

Thursday, December 6, 2018

अपेक्षा, उम्मींद, आशा...



कौशलेंद्र प्रपन्न

तीन वर्णों का शब्द है। इसे आशा, उम्मींद आदि नामें से भी पहचानते हैं। बुद्ध ने कभी बहुत खूब कहा था ‘‘ आशा अपेक्षा ही दुख का कारण होता है’’
हम पता नहीं किससे क्या और कितनी उम्मींद कर लेते हैं। और जब पूरे नहीं होते तो दुखी हुआ करते हैं। इस उपजे हुए दुख के लिए शायद वह व्यक्ति दोषी नहीं बल्कि हम हैं जिसने बिना जांचे परखे कि वह अधिकारी है या नहीं? सक्षम है या नहीं? आदि। और हमने उससे ग़लत अपेक्षा कर ली।
हमारे अधिकारी भी ऐसी हो सकते हैं। फर्ज़ कीजिए कोई हिन्दी और संस्कृत का जानकार है लेकिन उससे उम्मींद कर रहे हैं कि वह बेहतरीन अंग्रेजी लिख,बोल पाए। यदि वह व्यक्ति आपकी अपेक्षा पर ख़रा नहीं उतरा तो इसमें उतना दोष उसका नहीं है जिससे आपने उम्मींद की बल्कि आप ज्यादा दोषी हैं जो आपने सुपात्र से अपनी अपेक्षा नहीं की। यहां स्थिति स्पष्ट है वह व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता और ताकत लगाकर आपकी अपेक्षाओं पर ख़रा उतरने का प्रयास करेगा। लेकिन आपकी कसौटी पर पूरे न उतर पाएं।
किन्तु जिस पात्र से अपेक्षा की गई यदि वह सफल उनकी नजरों पर नहीं भी हो पाता है तो कोई वजह नहीं कि वह अपनी गति, प्रयास और कोशिश छोड़ दे। जो अपने लक्ष्य को ध्यान में रखेंगे वो अपने रास्ते से भटक सकते। जो रचेगा वो कैसे बचेगा, जो बचेगा वो कैसे रचेगा? श्रीकांत वर्मा की पंक्ति उन्हें ताकत दे सकती है। यदि आप कोशिश करते हैं तो वह आज नहीं कल पहचानी भी जाएगी।

Wednesday, December 5, 2018

अप्राकृतिक प्रसव पीड़ा



कौशलेंद्र प्रपन्न
अस्पताल का कमरा। कमरे में चारों ओर प्रसव पीड़ा की कराह। कोई तेज आवाज में कराह रहा है तो कोई धीरे धीरे। लेकिन सब की पीड़ा एक सी है। स्तर एक है। दर्द समान है। किसी के हाथ में दवाई की बॉटल लगी है। चढ़ रही है नसों में दवाई। पेट पर बंधा है एक बेल्ट। जो सामने रखे मोनिंटर पर दिखाता है कितना दर्द है? दर्द का स्तर कितना है? बार बार नर्स देख जाती है। कई बार टंगी बॉटल को कम ज्यादा कर जाती है। पूछने पर कि और कितना समय लगेगा? बस इतना बताती है- देखिए अभी तो 30 40 की लेबल का दर्द का। ये कम से कम 150 होना चाहिए या उससे भी ज्यादा। मुंह भी अभी तो कम ही खुला है। ये भी दस ये पंद्रह सेंटीमीटर होना चाहिए। इंतजार कीजिए।
बगल वाली बेड की महिला को तुरत फुरत में लेबर रूम ले जाया गया। पास वाली महिला अपने दर्द के स्तर के बढ़ने के इंतजार में है। कब बढ़े तो लेबर रूम जाएं। दर्द की कभी बढ़ता है और कभी घट जाता है।
आधी रात से वो परेशान है। पानी की थैली ही कोई आधी रात में फट चुकी है। पानी रूकने का नाम नहीं ले रहा है। कल शाम की तो बात है। डॉक्टर ने देखा, जांचा और कहा अभी तो हप्ता समय है। लेकिन रातों रात क्या हुआ और भोर में ही अस्पताल आना पड़ा।
डॉक्टर ने देखते ही भर्ती कर लिया। पानी चढ़ाया जाने लगा। दवाई भी। अप्राकृतिक दर्द उठाया जाने लगा। देखते ही देखते वो दर्द से पड़पने लगी। तड़पने लगी। लेकिन दर्द और मुंह का खुलना डॉक्टर के अनुसार अभी कम था। सो इंतजार में वो तड़पती रही। पास में न ननद, न देवर, न सास, न बहन कोई भी तो नहीं था। अगर था तो बस एक पति। जो लगातार नर्स से लड़ झगड़कर वहीं का वहीं बेशर्म सा खड़ा रहा। कई बार बीच बीच में बाहर चला जाता जब वह देख और सह नहीं पा रहा था अपनी प्रिये के छटपटाहटों को। अप्राकृतिक दर्द को नजरअंदाज नहीं कर सकता था।
सुबह से दोपहर और दर्द का पैरामीटर अभी भी डॉक्टर के अनुसार कम। वो थी कि तड़प रही थी। न देखा जाए और न सहा जाए। मुंह था कि वो भी खुलने का नाम नहीं ले रहा था। अंदर बच्चे की भी चिंता की कहीं वो स्ट्रेस में न आ जाए।
मालूम नहीं पति ने ही निर्णय लिया। डॉक्ठर को फोन किया मैडम। आप तो जानती हैं। दर्द है कि रूकने का नाम नहीं ले रहा है। वो है कि अप्राकृतिक दर्द में पछाड़े खा रही है। ऐसे कीजिए ऑपरेशन करना चाहिए। जब डॉक्टर सामने आईं तो पहले उसे देखा और पति के कंधे पर प्यार और विश्वास से भरे हाथ रखे और कहा ‘‘बहुत प्यार करते हो। इसलिए निर्णय ने रहे हो।’’ पति ने कहा ‘‘ पति नाते कम एक इंसान होने के नाते मुझे लगता है कि हमें ऑपरेशन वाले विकल्प को चुनने में कोई हर्ज नहीं। हालांकि डॉक्टर लगातार संपर्क में थीं। उन्होंने कहा था ‘‘मैं इंतजार कर रही हूं कि नॉर्मल किया जाए। लेकिन अब जांच के बाद मालूम चला कि नॉर्मल संभव नहीं। बच्चे के चेहरा उल्टा है और नाल भी क गया है। सो हमें ऑपरेशन की करना पड़ता।’’
कैसी पीड़ होती है अप्राकृतिक प्रसव की शायद दुनिया मर्द न जान पाएं और न ही महसूस कर सकें। पुरुष यदि कुछ कर सकता है तो बस निर्णय ले सकता है। सहानुभूति के बोल छिड़क सकता है। अगर आपको गुमान है कि आप पिता हैं, आपको बच्चे से ज्यादा लगाव है तो कभी मौका मिले तो प्रसव पीड़ा से भरे उस रूम में जाईए महसूस कीजिए की पत्नी किस किस्म की पीड़ा से गुजर रही है। स्वभाविक प्रसव हो तो ठीक वरना इस ठसक के साथ न तने रहें कि हमारे खानदान में तो किसी का भी ऑपरेशन से बच्चा नहीं हुआ। देखिए महसूस कीजिए और स्वविवेक का प्रयोग शायद एक पीड़ा से तड़प् रही स्त्री को राहत दे जाए।

Tuesday, December 4, 2018

दम तोड़त रिश्ते


कौशलेंद्र प्रपन्न
कुछ रिश्ते राह में दम तोड़ देते हैं। कहते हैं हम रिश्ते बनाया करते हैं। पूरी शिद्दत से उसे निभाने और बचाने की कोशिश करते हैं। लेकिन कुछ तो बीच राह में घट जाता है जिसकी वजह से वे रिश्ते कभी भी कहीं भी दम तोड़ सकते हैं। संभव है रिश्ते के टूटने व टूट जाने के पीछे कई वजहें रहा करती होंगी। साथ ही जब हम कुछ अनुमान से ज़्यादा उम्मींदें लगा बैठते हैं तब भी रिश्ते उस बोझ तले धीरे धीरे घूट घूट कर पिघलने लगते हैं और एक दिन वे रिश्ते पानी बन हमारे बीच से बह जाया करते हैं।
समाज ही है जहां हम अपने आस-पास के लोगों से रिश्ते बनाया करते हैं। और वही समाज होता है जहां हम कई बार अनजाने में रिश्तों को टूटने के कगार पर ला खढ़ा करता हैं। वजहें बहुत सी हैं लेकिन जो महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि हम शायद रिश्तों का कद्र करना नहीं जानते। एक व्यक्ति दूसरे पर जान छिड़का करता है लेकिन वहीं दूसरे को इसका एहसास तक न हो तो कोई कब तक एक तरफा रिश्ते को बांधने में लगा रहेगा।
एक तो आज कल रिश्तों में लोग विश्वास नहीं किया करते। उस पर तुर्रा यह है कि रिश्तों की नजाकत को हम उठा नहीं पाते। कब कौन बीच राह में मुंह सुजाकर अपने राह हो ले। कुछ भी तय नहीं कहा जा सकता। बस कुछ किया जा सकता है तो बस इतना ही कि अपनी ओर से टूटते रिश्तों को कैसे भी बचाया जाए।

Sunday, December 2, 2018

हमसे स्कूल दूर या स्कूल से बाहर हम


कौशलेंद्र प्रपन्न

कैसा सवाल है। यह सवाल कितना उलझ हुआ सा लगता है। लगता है बच्चे इन्हीं सवालों में अपनी जिं़दगी का बड़ा हिस्सा शिक्षा की मुख्यधारा से बाहर काट देते हैं। दरअसल शिक्षा से ये बाहर नहीं हैं बल्कि शिक्षा को इनसे बेदख़ल कर दिया है। हालांकि वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ बाल शिक्षा अधिकार अधिवेशन 1989 में हमने विश्व के तमाम बच्चों को कुछ अधिकार देने की वैश्विक घोषणा पत्र पर दस्तख़त किए थे। माना गया कि उन अधिकारों में विकास का अधिकार, सहभागिता का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, जीवन जीने का अधिकार प्रमुखता से शामिल किया गया। यदि इन घोषणाओं की रोशनी में उन बच्चों पर नजर डालें जो दिव्यांग या विशेष बच्चे हैं, तो जमीनी हक़ीकत हमें सोने न दे। हम ऐसे बच्चों के विकास के रास्ते में आने वाली अड़चनों को सामान्य बच्चों के तर्ज पर देखने, समझने की कोशिश करते हैं। यहीं से वे बच्चे हमारे सामान्य स्कूली शिक्षा की परिधि से बाहर होते चले जाते हैं। ‘‘तारे जमीन पर’’ फिल्म बड़ी ही शिद्दत से एक बच्चे के बहाने उन तमाम बच्चों की परेशानियों को उजागर करती है। उस स्कूल का प्रिंसिपल उन अन्य पिं्रसिपल से अगल नहीं सेचता वह भी निर्णय लेता है कि इस बच्चे के विशेष स्कूल में डाल देना चाहिए आदि। जबकि शैक्षिक नीतियां और तमाम फ्रेमवर्क वकालत करती हैं कि दिव्यांग बच्चों को महज उनके किसी ख़ास दिव्यांगता की वजह से शिक्षा के सामान्यधारा से विलगाना अनुचित है। उन्हें भी सामान्य स्कूलों में सामान्य बच्चों के साथ तालीम हासिल करने का अधिकार है। इन्हीं तर्कां की रोशनी में माना गया कि सामान्य स्कूलों को इन बच्चों के पहुंच के अनुरूप तमाम सुविधाएं मुहैया कराना नागर समाज की जिम्मेदारी और जवाबदेही बनती है। दूसरे शब्दों में कहें तो लाइब्रेरी, शौचालय का नल, वॉश बेशीन, टोटी, सीढ़ियां आदि पहुंच में होने चाहिए ताकि बच्चे अपनी आयु, वर्ग के अनुसार स्कूल की अन्य सुविधाओं के इस्तमाल में किसी औरे के सहारे के मुंहताज़ न रहें। किन्तु हक़ीकतन यह कहते हुए अफ्सोस ही होता है कि जो सुविधाएं स्कूल प्रशासन और शिक्षा विभाग को प्रदान करने थे उसमें हम अभी भी काफी पीछे हैं। ऐसे बच्चे चाहकर भी स्कूल के विभिन्न साधनों का प्रयोग अपने लिए नहीं कर पाते। उन्हें यह सुना दिया जाता है बच्चे तुम नीचे ही रहा करो। ऊपर चढ़ना तुम्हारे लिए आसान नहीं है।

Thursday, November 29, 2018

तुमसे न हो पाएगा



कौशलेंद्र प्रपन्न
आंखों में अंगूली डाल कर जगाने का भी प्रयास कर लें लेकिन कुछ लोग हैं जिनकी नींद है कि टूटती नहीं। न जाने किस किस्म की नींद में सो रहे होते हैं और सपने देखा करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें इस बात और हक़ीकत का ज़रा भी एहसास नहीं होता कि क्या उनके सपनों में झोल है या कि उनकी नींद ही नहीं टूटी।
हमारे आस-पास ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी नींद इतनी गहरी होती है कि उन्हें इस बात का इल्म नहीं होता कि उनके आस-पास कुछ नई चीज भी घट रही है। कैसे समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं। वो साहब हैं कि देखना ही नहीं चाहते। शायद देखने से डरते हैं। डर शायद इस बात की भी है कि कहीं चूक न जाएं। कहीं रिजेक्ट न कर दिए जाएं। पता किस तरह जीया करते हैं।
जब तक ऐसे लोगों को कहीं ठोकर न लगे। या जब तक कान पकड़ कर यह न कहा जाए की आपकी ज़रूरत नहीं है। आपकी भाषा से बू आती है। भाषा में ग्रामीण ठेठ गंध भरा है। तुम्हारी भाषा ही ऐसी है कि वो गांव देहात, सम्मेलन में तो ठीक है लेकिन यहां के लिए मकूल नहीं है। वो अपने आप में अपने आप को तुर्रमख़ां समझा करते थे। अपनी भाषायी चमक के सामने कुछ और देख ही नहीं पाते थे। उनके पास और उन्हीं की कुर्सी के बगल से जमीन छिनी जा रही थी और वो थे के सपने के पीछे भाग रहे थे।
उन जनाब का सपना था कि फर्र फर्र उनकी भाषा बोलें, उन्हीं की तरह सर्रसर्र बोलकर औरों पर रौब बरसाएं। लेकिन यह हो न सका। जब वो बोलने का प्रयास करते। कोशिश करते कि उन्हीं की भाषा बोलें। गंवई भाषा जिनसे उन्हें बू आया करती थी। वो पीछे धकेल दें। उसने पूरी कोशिश की कि उस भाषा से नाता तोड़ ले। लेकिन क्या यह संभव था? जिस भाषा के कंधे पर चढ़कर यहां तक का सफ़र तय किया था कैसे उसे बिसुरा दे। मगर उसके सामने अब दो ही रास्ते थे। या तो नई भाषायी बहुरिया को अपनाकर आगे बढ़े। दूसरा रास्ता पुरानी राह पर ही चलता रहे अपने शान से। अपनी ठसके के साथ।
उसके सामने भाषा और ओहदा दो ऐसे द्वंद्व थे इनमें से उसे क्या चाहिए था। क्या वह भाषायी ताकत हासिल कर उन लोगों में शामिल हो जाए जो तोहमत लगाया करते थे तुमसे न हो पाएगा। तुम तो रहने दो। मुंह खोलते हो तो भाषायी बू आती है। बोलना आता नहीं और कौआ चला हंस के चाल और अपनी चाल भी भूल गया।

Tuesday, November 27, 2018

पोस्टमैंन बनना पसंद है या कि सुरक्षाकर्मी






कौशलेंद्र प्रपन्न
किसी भी संदेश का वाहक बनना आसान है। संदेश को प्रेषक से लेकर पाने वाले के दरमियां उस पोस्टमैंन की कोई भूमिका होती है तो इतनी ही कि वह संदेश लेकर जा रहा है। कहा भी गया है कि संदेशवाहक अबंध्य होता है। यानी संदेशवाहक को न तो बंदी बनाया जाता है और न ही बद्ध किया जाता है यह कूटनीति भी कहती है। इसजिलए हनुमान को भी छोड़ने की वकालत की गई थी। वैसे ही इतिहास में कई कहानियां मिलेंगी। जब संदेशवाहक को बंधक नहीं बनाया गया है क्योंकि वह सिर्फ और सिर्फ अपने मालिक या राजा का संदेश वाहक है। उस ख़त व संदेश में क्या कंटेंट है उससे उसका कोई दरकार नहीं होता। उधर से संदेश लेकर अपने राजा व मालिक को सौंप देता है। मैंनेजमेंट के गुरु इसे कुछ और अंदाज़ में देखते हैं। प्रो. हीतेश भट्ट इसे मैंनेजमेंट की नज़र से देखते हैं और मानते हैं कि जब तक लीडर या मैनेजर महज संदेशवाहक यानी पोस्टमैंन की भूमिका में होता है वैसी स्थिति में जवाबदेही तय करना मुश्किल होता है। पोस्टमैंन अपना विवेक इस्तमाल नहीं करता। वह न तो तर्क करता है और न ही अपना पक्ष रखता है। दूसरे शब्दों में कहें तो पोस्टमैंन किस्म के मैंनेजर व लीडर न तो अपने कर्मचारियों के हित में कोई वकालत कर पाते हैं और न ही अपने और टीक के हक़ में अपनी बात रख पाते हैं। वहीं सुरक्षाकर्मी यानी जिसके कंधे पर जवाबदेही तय की जा सकती है। यदि हमारे कैम्पस में कोई अवैधतौर पर प्रवेश करता है तो उसकी जवाबदेही सुरक्षकर्मी की बनती है। यानी वह व्यक्ति तमाम गतिविधियों को जिम्मेदार होता है। यदि मैंनेजर व लीडर सुरक्षाकर्मी की भूमिका निभाता है जो कि निभाना चाहिए तो उस व्यक्ति के कंधे पर अपनी टीम और हर कर्मचारी की जवाबदेही अपने सिर पर लेता है।
किसी भी संस्था व देश की सीमा पर तैनात पोस्टमैंन व सुरक्षाकर्मी की भूमिका को समझें तो यही होगा कि एक मैंनेजर व लीडर भी अपनी कंपनी व संस्था का सुरक्षाकर्मी होता है जो अपनी जिम्मेदारी को तय करता है। यदि कर्मी समुचित काम नहीं कर रहा है, यदि टीम का सदस्य तय लक्ष्यों को हासिल करने में पिछड़ रहा है तो ऐसी स्थिति में वह पोस्टमैंन के मानिंद मैंनेजमेंट को अपनी कर्मी की कमियों और असफलताओं को सिर्फ संप्रेषित भर नहीं करता है। बल्कि वह लीडर अपनी जिम्मेदारी स्वीकारते हुए मानता है कि शायद उस व्यक्ति के चुनाव और दक्षता की पहचान में कहीं चूक हो गई। या फिर उसे विशेष प्रशिक्षण प्रदान कर हम अपनी टीम के लक्ष्य को हासिल करने योग्य बना सकते हैं। बस कुछ वक़्त की मांग करता है। दुबारा प्रो. हीतेश भट्ट जी के बिंब व अवधारणा को अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए सभार इस्तमाल कर रहा हूं कि किसी भी कंपनी व संस्था में हमें पोस्टमैंन नियुक्त करने से बचने की आवश्यकता है। वरना वह कंपनी व संस्था प्रगति करने की बजाए महज गतिशील होने का एहसास भर दे सकता है। वहीं जब सुरक्षाकर्मी को नियुक्त करते हैं तब वह सिर्फ और सिर्फ नौ से पांच की नौकरी भर नहीं करता है। और न ही वह अन्य कर्मियों के तर्ज पर सिर्फ सैलरी के लिए काम किया करता है। बल्कि वह कंपनी, संस्था व घराने की ऊंचाई के लिए जी जान लगा देता है।
हमें किसी भी संस्था व कंपनी को विकास और वृद्धि के राह पर लेकर जाना है तो कर्मचारियों के चुनाव के वक़्त काफी सावधानी बरतनी चाहिए। साथ ही समय समय पर उनके कार्य करने की गति और रवैये को भी जांचना और परखना होगा। यदि कोई कर्मी किसी ख़ास समस्या में फंस गया है, उसे किसी भी किस्म की मदद नजर नहीं आ रही है तो ऐसे में हमारा सुरक्षाकर्मी यानी वैसे मैंनेजर व लीडर उस कर्मी के साथ खड़ा होता है। वह अपनी जिम्मेदारी से भी पीछे नहीं हटता कि फलां कर्मी क्यों बेहतर कार्य व प्रतिफल नहीं दे सका। वह स्थितियों और प्रक्रिया का विश्लेषण करता है और इस निर्णय तक पहुंचता है कि उस व्यक्ति को किस तरह की सहायता की आवश्यकता थी। जो किन्हीं वजहों से समय पर नहीं मिल पाई। वह हमेशा अपने ऊपर के मैंनेजमेंट के समक्ष अपना पक्ष और कर्मी की स्थिति से रू ब रू कराता हैं। वह वकालत करता है कि फलां कर्मी को कुछ और वक़्त दिया जाए और देखा जाए कि क्या तमाम मदद के बाद भी वह प्रदर्शन कर पा रहा है या नहीं।

Sunday, November 25, 2018

तालीमगार और उर्दू

अस्लाम वालेकुम
जैसी ही उर्दू स्कूल में प्रवेश किया कुछ स्लोगन हिंदी और इंग्लिश में दिखे। लेकिन जैसे जैसे स्कूल में अंदर जाता रहा वैसे वैसे उर्दू भी दिखने लगी। 
अब संतोष हुवा कि यहां बच्चों को उर्दू देखने को मिलती होगी। इस स्कूल की प्राचार्या ने बताया पहले उर्दू नही थी लेकिन एक ऑब्ज़र्वर ने राय दी कि इस स्कूल में कम से कम इन बच्चों को उर्दू देखने, पढ़ने को मिले। हर दीवार, जगह पर उर्दू में लिखीं गईं थीं। 
आज की तारीख़ में उर्दू बहुत कम ही जगह पर पढ़ने, देखने को मिलती हैं। आज की तारीख़ ने उर्दू, क्लासिक भाषा की प्रकृति को बदल चुकी है। यैसे में भाषा को बचाना हमारा फर्ज़ है। बधाई यैसे स्कूल के तालीम देने वाले शिक्षक शिक्षिका को जो शिद्दत से बच्चों कोतालीम देने में जुड़े हैं। 

Saturday, November 24, 2018

स्कूलों का विलयीकरण और सीखने के प्रतिफल



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों दिल्ली के प्राथमिक स्कूलों में कक्षा अवलोकन का अवसर मिला। उस ऑब्जवेशन में पाया कि लगभग सभी कक्षाओं में शिक्षकों ने दीवार पर सीखने के प्रतिफल लिखकर चिपका रखा था। अंग्रेजी हम जिसे लर्निंग आउटकम इडिकेट््रर्स कहते हैं, हम कक्षा में टंगा और चिपका हुआ मिला। उस चार्ट पेपर पर हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, समाज विज्ञान आदि विषयों में बच्चा कितना सीख लेगा उसका एक रोडमैप मिला। यह देखकर खुशी हुई कि आदेश के बाद ही सही लेकिन शिक्षकों ने इस प्रकार के चार्ट अपने क्लास में लगा रखे हैं। हालांकि अपेक्षा यह भी कि यह जान सकें कि क्या वो इन प्रतिफलों को हासिल करने के लिए कोई रणनीति भी बनाई हुई है या सिर्फ दिखावे के लिए दीवार का कोना प्रयोग में लाया गया है। शिक्षकों की जबानी जो कहानी सुनी, वह चौकाने वाली थी। उन्हें पढ़ाने का ही समय नहीं मिलता। कब कक्षा से बाहर कागजातों के पेट भरने के लिए बुलावा आ जाता है और पढ़ाते पढ़ाते बीच में दफ्तरी काम में लग जाना होता है।
इन शिक्षकों को विभिन्न संस्थानिक प्रशिक्षण भी दिए गए लेकिन अफ्सोसनाक बात यही है कि वे प्रशिक्षण कार्यशालाओं के दौरान सीखे गए कौशलों का इस्तमाल करने का उन्हें मौका ही बहुत कम मिलता है। उस तुर्रा यह तर्क और लांछन लगाया जाता है कि शिक्षक कक्षा में पढ़ाता ही नहीं। यह कितना बेबुनियाद बात है कि हम शिक्षक को कक्षा पढ़ाने का अवसर कम देते हैं और फिर पूछते हैं बता, तेरे क्लास के बच्चे पढ़ना और लिखना क्यों नहीं सीख सके।
इसी दिल्ली में एक ओर नगर निगम के स्कूल अपनी बदहाली से गुजर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों में रोजदिन नई नई तकनीक प्रदान की जा रही है। ये कैसे बुनियाद हम बना रहे हैं इसका अनुमान तो तब लगता है जब मालूम चलता है कि इसी दिल्ली में एक ओर स्कूलों को दूसरे स्कूलों में मर्ज कर दिया जाता है या फिर बंद कर दिया जाता है। वही उन्हीं स्कूलों की जमीन पर सरकार पार्किंग बनाने की अनुमति प्रदान करती है। यह भी कमाल की प्राथमिकता है शिक्षा के प्रति।
शायद हमारी प्राथमिकता शिक्षा नहीं बल्कि उत्पादक और आर्थिक स्रोत पैदा करना ज्यादा है। यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। कई राज्यों में सरकारी स्कूल या तो बंद कर दिए गए या फिर स्कूलों को दूसरे स्कूलों में विलय कर दिया गया। बच्चों को उनके भाग्य पर छोड़कर सरकार अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। लेकिन हो तो यही रहा है। हमारे सरकारी स्कूल और सरकारी कॉलेज आदि इसी संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। 

Thursday, November 22, 2018

स्कूलों में हैं कंपनियां मगर...



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों दिल्ली सरकार के प्राथमिक स्कूलों का अवलोकन का अवसर मिला। वो भी त्रिलोकपुरी, कल्याणपुरी आदि क्षेत्रों में जो स्कूल मौजूद हैं इन स्कूलों में शौचालय, पीने का पानी, खेल के मैदान, लाइब्रेरी सब कुछ हैं। अगर नहीं हैं तो बच्चे और पर्याप्त शिक्षक। जिन स्कूलों में कम से कम दस से पंद्रह स्टॉफ होने चाहिए यानी शिक्षक वहां चार या पांच शिक्षक हैं। जिन स्कूलों में नर्सरी क्लास हैं वहां आया मौजूद हैं। कायदे से शिक्षिका होनी चाहिए लेकिन शिक्षिकाओं की कमी को आयाएं पूरी कर रही हैं। अनुमान लगा सकते हैं कि जिन स्कूलों में आयाएं नर्सरी की क्लासेज मैनेज कर रही हैं वहां क्या होता होगा?
इन दिनों विभिन्न स्कूलों पीने का पानी की टंकी की ज़रूरत नहीं है लेकिन सरकारी फरमान जारी के तज र्पर हर स्कूलों में पीने का पानी की टंकी बनाई जा रही हैं। साथ ही गार्ड रूम बनाए जा रहे हैं। स्कूल में शिक्षक नहीं, आया नहीं, अन्य सहायक स्टॉफ नहीं लेकिन बार्ड रूम बनाना ज़रूरी है।
पिछले दिनों दिल्ली के दक्षिणी नगर निगम के स्कूलों को बंद कर दिए गए या फिर उन्हें अन्य स्कूलों में मर्ज कर दिए गए। तर्क जो दिए गए उन तर्कां पर हंसा जाए या रोया जाए कि इन स्कूलों में बच्चे कम हो रहे हैं इसलिए इन्हें बंद कर यहां पार्किंग बनाया जाएगा। सरकार की प्राथमिकताएं बताती हैं कि उन्हें बच्चों की शिक्षा से ज्यादा पार्किंग की चिंता है।
तमाम एनजीओ, सीएसआर कंपनियां इन स्कूलों में बेहतरी के लिए अपना योगदान दे रही हैं। जिनमें टेक महिन्द्रा फाउंडेशन, प्लान इंडिया, रूम टू रीड, सेव द चिल्ड्रेन आदि। ये कंपनियां कुछ स्कूलों मे ंतो अपने शिक्षक भी भेज रहे हैं जो कक्षाओं में शिक्षण काम भी कर रहे हैं। जो काम शिक्षा विभाग और सरकार के जिम्मे था उसे गैर सरकारी संस्थाएं कर रही हैं। इन तमाम हस्तक्षेपों के बावजूद एक बड़ी टीस यह उठती है कि फिर क्या वजह है कि बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते?

Wednesday, November 21, 2018

डिग्री मिली पर...



कौशलेंद्र प्रपन्न
डिग्री बांटने और बेचने वाले बहुत हैं। दुकानें भी बहुत हैं। जहां हर किस्म की डिग्रियां मिला करती हैं। सही दुकान की तलाश आपने कर ली तो सारी मेहनत सफल हो जाएगी। वरना पास होने और डिग्री लेने के बाद भी कुछ सालों बाद आपके उस बैंच के उस कोर्स की डिग्री अमान्य भी हो जाती है।
कुछ साल पहले तक बीएड की डिग्रियां ख्ूब अच्छी खेप में बिकीं। डिग्री के दुकानदार मालामाल हो गए। छात्र में सरकारी नौकरियों में मजे कर रहे हैं। लेकिन बच्चों का क्या हुआ। उन्हें कक्षा में कैसे खड़ा होना है, कैसे पाठ योजना बनानी है? कैसे गतिविधियों को अंजाम देना है आदि तक नहीं आते। पता नहीं कैसे उन लोगों को शिक्षा में जगह मिल गई। दो एक साल पहले जम्मू कश्मीर की उच्च न्यायालय ने शिक्षा विभाग की अच्छी क्लास ली थी कि कैसे कैसे संस्थान आप चला रहे हैं जहां बच्चों को कुछ सीखाया नहीं जाता। महज उन्हें डिग्रियां बांटने की बजाए कुछ सीखा भी दें।
न केवल शिक्षा में बल्कि यही हाल लॉ, मैनेजमेंट आदि क्षेत्र के भी हैं। जहां मैनेजमेंट, तकनीक आदि के कोर्स कर डिग्री तो उनके पास होती है लेकिन न तो उन्हें उनकी विषयी समझ पुख्ता होती है और न ही ऑफिस में काम करने का सलीका ही होता है।
केपी सक्सेना का एक व्यंग्य याद आता है जिसमें एक स्कूल की कल्पना की है। वह स्कूल है सैंडलहुड पब्लिक स्कूल। जहां प्रिंसिपल ही चपरासी है। प्रिंसिपल ही टीचर है। वही एक व्यक्ति पूरे स्कूल का स्टॉफ है। उस व्यंग्य को पढ़कर कहानी काफी स्पष्ट हो जाएगी। यह मसला शिक्षा के साथ ही अन्य क्षेत्रों का भी है। कहानी एक सी है।

Monday, November 19, 2018

अपनी ही नज़रों में गिरता रहा



कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘अरे तुम्हारा मुंह तोड़ दूंगी। समझ नहीं आती तुम्हें कि मैं तुम्हें प्यार व्यार नहीं करती। क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’’
यह वाक्य आज भी उसके कानों में बजते हैं। हालांकि उसे पुरानी जॉब छोड़े तकरीबन पांच साल हो गए। लेकिन उस लड़की की आवाज आज भी उस ढीठ के कानों में बजा करती है। चाहकर भी आवाज से दूर नहीं जा पाता। कितना दफ़ा उसने चाहा कि भूल जाए या भुला दी जाए वो। लेकिन उसका जादू ही ऐसा रही कि दूर न जा सका। उसके साथ के किस्से अक्सर उसकी आंखों में पनीलापन छोड़ देते हैं। छोड़ जाती हैं उसके साथ के नोक झांक के पल भी।
उसने कभी लड़की का ग़लत नहीं चाहा। न वो उसे हल्के में लेता था। बात ही ऐसी थी कि वो उससे दूर नहीं जा सका। चिट्टी लिखी, मैसेज लिखे, ख़त कह लें क्या नहीं लिखा ।इन तमाम जरिए से अपने स्नेह और लगाव का इजहार किया।
बस ग़लती इतनी सी हो गई कि एक बार गले लगाने की मुहलत मांगी और गले लग कर कानों में कह दिया ‘‘आई लव यू’’
तमतमाई लड़की रूम से बाहर तो चली गई लेकिन उसके पीछे छोड़ गई एक दहकता हुआ सवाल और सवाल से भी बड़ा बवाल। देखते ही देखते उस तीन अल्फ़ाज़ों के ख़मियाजे भुगतने के लिए फरमान आए गए। शायद यह पहली बार हुआ था।
उसे इसकी ज़रा भी भनक नहीं थी कि मसला इतना गहरा और लहक रहा है। अगले ही हप्ते बोलचाल बंद। न देखा देखी और न बातचीत।
बातचीत तो तब भी नहीं हुई जब उसे उस तीन लेटर के लिए कमिटी में बुलाया गया। कहानी खुली तो लंबी कहानी निकली।
हाथ पांव जोड़े। माफी मांगी। आइंदा ऐसा वैसा नहीं करेगा कसमें खाईं और कानूनन कार्यवाई की वायदेनामा पर दस्तख़त किए। उस तीन शब्द ने उसे देखते ही देखते ज़लालत की स्थिति में ला खड़ा किया।
एक बार नजर उठा कर देखा भी उसने। लेकिन उन आंखों में परिचय की रेखाएं गायब थीं। था कुछ तो बस अपरिचय और हिकारत।
जो हो। वो लड़की आज भी याद आती है उसे। याद आए भी क्यों न उसका मनसा ख़राब नहीं था। उसने तो बस इतना ही चाहा कि जो रागात्मक रेसे उसके मन में हैं उसे भी एहसास कराए। न तो परेशान करना उसका मकसद था। और न किसी भी किस्म की दिक्कत पैदा करने की। बस यहीं मात खा गया। और अपनी ही नज़रों में गिरता रहा रोज़दिन।

Friday, November 16, 2018

चुनाव में मीडिया



कौशलेंद्र प्रपन्न
जब जब देश में कोई भी चुनाव होता है तब तब मीडिया के रूख़ बदलते नज़र आते हैं। मीडिया यानी पिं्रट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों के ही चरित्र को समझना दिलचस्प होगा। कवर स्टोरी से लेकर, इन्टरव्यू, फीचर, ख़बरें, आम सभाओं को कवर करती स्टोरी पूरे अख़बार में छाई रहती हैं। इन राजनीतिक ख़बरों, हलचलों, आम सभाओं, राजनेताओं के साक्षात्कारों से अख़बार और न्यूज चैनल लबालब भरे होते हैं। इन दिनों ख़बरों के चुनाव और प्रस्तुति की शैली, पेज का निर्धारणा आदि मीडिया के व्यापक सामाजिक दरकार की परतें खोलने लगती हैं। पहले पन्ने पर जिन ख़बरों को प्रमुखता से होना था कहीं अंदर के पन्नों पर सिंगल कॉलम या डब्ल कॉलम में नजर आती हैं। उन ख़बरों पर कितनों की नज़र पड़ती है इससे हमारा कोई ख़ास वास्ता नहीं होता। अख़बार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इन दिनों अपने रिपोर्टर को विभिन्न राजनीति दलों के दफ्तारों और बीटों पर बांट देता है। हर राजनीति दलों के कुछ चहेते रिपोर्टर होते हैं जो प्रमुखता से उनकी ख़बरें किया करते हैं। ठीक वैसे ही गन माईक लेकर इन राजनीतिक दलों के दफ्तरों में प्रेस कॉफ्रेंस को कवर करते हैं। यहां प्रेस कॉफ्रेंस में जैसे सवाल जवाब हुआ करते हैं उन पर भी नजर डालना दरपेश होगा। हंसी ठिठोली से शुरू होकर सवालों तक की यात्राएं दिखाई देंगे। यहां शिकवे शिकायत भीं खूब होती हैं। तुमने हमारे उस सवाल के जवाब को ठीक नहीं छापा। बॉक्स में लेते तो ज्यादा प्रभावी होता आदि आदि।
चुनावी मौसम में अख़बारों के पन्नों पर बिखरी राजनीतिक ख़बरों के भार से समाज की अन्य प्रमुख घटनाएं, गतिविधियां कहीं दब जाती हैं। वह चाहे शिक्षा, कृषि, विज्ञान, संस्कृति या फिर व्यापार की ही क्यों न हो अपनी मौत मर जाती हैं। अख़बारी भाषा में कहें तो किल कर दी जाती हैं। कई बार ख़बरें मार दी जाती हैं तो कई मर जाती हैं। ख़बर की भी अपनी एक गति और जीवन होता है। तत्काल प्रभाव और असर वाली ख़बरें यदि समय पर नहीं लगीं तो वो फिर अगले या उससे अगले दिन उसकी प्रासंगिकता ही खत्म हो जाती है। लेकिन हमें इसकी चिंता ज़्यादा नहीं होती। हमारी चिंता इस बात की होती है कि यदि फलां दल की ख़बर, आम सभा कवर नहीं किया गया तो मीडिया को संभव है कोपभाजन का शिकार न होना पड़ जाए। यदि अख़बार ने किसी ख़ास दल की गतिविधियों, आम सभाओं को कवर नहीं करने पीछे रह जाए तो संभव है तत्काल विज्ञापन पर रोक लग जाए। अख़बारों में छपने वाली राजनीतिक ख़बरों की प्रस्तुति पर नज़र डालें तो पाएंगे कि कई बार एक सिंगल कॉलम की ख़बर भी आधे पेजे की ख़बर पर भारी पड़ती है। 

Thursday, November 15, 2018

बहन का ननद बन जाना



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहते हैं बहनों के बिना क्या बपचन और क्या जीवन। बिना बहनों से लड़े झगड़े यदि बचपन काट दी तो वह भी जीना है? बहनों के साथ खेलना, लड़ना-मारना पीटना, लात मुक्का सब खेल के हिस्से हुआ करते हैं। कभी उसकी कापी के पन्ने फाड़ना, कभी चोटी खिंचना और कभी उससे लिपट कर रोना और मां-पिताजी से बचाने का गुहार लगाना इतना सब कुछ तो होता बहनों के साथ। और देखते ही देखते एक दिन कोई बाहर का लड़का कर बहन का हाथ पकड़ ले जाता है। हम अचानक एक नए रिश्ते में बंध जाते हैं।
बहनों की भी दोहरी भूमिका हो जाती है। एक ओर मां-बाप, भाई बहन तो दूसरी ओर ठीक इसके उलट इन लॉ, माता-पिता की नई पहचान लिए नए चेहरे बहन को अपनी ओर खींचने लगते हैं। बहन दो घरों की डोर के बीच एक पुल बन जाया करती है। न इसे छोड़ सकती है। न उसे नाराज़ कर सकती है। दोनों ही कोनों पर बंधी बहन डोलने लगती है। भाई को मनाए कि पति को? फादर इन लॉ की मान रखे या पिताजी की इज्जत को बचाए। कितना मुश्किल होता है बहनों के लिए दो अलग अलग धाराओं के बीच खुद को डूबने और बहने से बचा पाना।
जब भाई बहन की शादी के बाद मिलता है तब बहन के सवाल और खेल बदल चुके होते हैं। वो अब पति को बुरा न लग जाए इसलिए भाई से गुजारिश करती है उनके भी बात कर लिया करो। बाहर बाबूजी बैठे हैं कुछ देर उनसे भी बातचीत कर लो। बेशक तुम्हारी इच्छा नहीं है लेकिन क्या करूं इन्हीं के साथ रहना है।
पति के जन्म दिन पर फोन कर के कहती है भाई आज उनका बार्थडे समय निकाल कर फोन कर देना। वरना सुनाते रहेंगे मुझे कोई पूछता नहीं। तुम्हारे घर वाले सिर्फ तुमने वास्ता रखते हैं आदि आदि। बहन के इस मनुहार पर गुस्सा नहीं आता बल्कि उसकी स्थिति पर सोचने और विचारने का मन करता है। क्या ये वही नीरू है जो इतनी अल्हड़ हुआ करती थी। जिसे अपना जन्म दिन याद नहीं रहता था मगर आज उनके जन्म दिन पर कितना चिंतित है।
बहन शादी के बाद ननद बन जाती है। ननद यानी उसकी अपेक्षाएं, उसकी उम्मीदों, उसकी इच्छाएं कहीं और से संचालित और निर्धारित होने लगती हैं। न चाहते हुए भी मान खोजती है। न चाहते हुए भी उम्मीद करती है कि भाई का फोन आए तो मैं जाउं। भौजाई फोन कर बुलाएं तो भाई के बच्चे को देखा आउं। बस यहीं एक फांस अटकी हुई है। भाई तो सोचता है बहन तो मेरी बहन है उस जब पहले बुलावे की चिंता नहीं थी तो अब क्यों मुंह फुलाकर बैठी है कि भाई ने फोन नहीं किया। शुरू में बहन को फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन जब से ननद बनी है तब से इन लॉ आदि ने यह उसके दिमाग में ठूंसा है कि ऐसे कैसे जाओगी? क्या तुम्हारी कोई इज्जत नहीं? क्या तुम ऐसे ही उठ उठाकर चली जाओगी भाई भौजाई के घर? बुलावा और न्योता तो आने दो।
न्योता और बुलहटे के इंतजार में कई बार बहन पिछड़ती चली जाती है। इतनी पीछे छूट जाया करती हैं बहने की फिर वो भाइयो के दायरे से ही कई बार दूर निकल जाती हैं। यह प्रक्रिया इतनी तेजी से चलती है कि न वे समझ पाती हैं और न भाई ही।
बहने जब ननद बन जाती हैं तब इनकी भूमिका बदल जाया करती हैं। उनकी प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं। बहन से ननद में तब्दील हुई बहन को भी कई जगहों पर एडजस्ट करना होता है। साथ ही नई भूमिका की अपनी चुनौतियां होती हैं जिसके बीच सामंजस्य बैठना पड़ता है। बहन का ननद हो जाना कई दफ़ा उसके व्यवहार में भी झलकने लगती है और बोलचाल में भी। धीरे धीरे फोन का कम होना और हप्ते से माह और माह से और लंबी चुप्पी पसरने लगती है। काश की बहने ननद की भूमिका में रहते हुए बहन की भूमिका को भी निभा पाएं तो कितना बेहतर हो।
इसके साथ ही ऐसा नहीं है कि भाई भाई ही रहता है इसके व्यवहार में भी परिवर्तनी देखे जा सकते हैं। भाई जैसे पहले बहनों से बेबाकी से बात किया करता था उस बेबाकीपन में कहीं न कहीं तब्दीली दर्ज होने लगती है। फिर तो दोनों ही पक्षों से तर्क कुतर्क और आरोप प्रत्यारोप के खेल शुरू हो जाते हैं। इसे दूसरे शब्दों में ऐसे समझें कि भाई-बहनों के बीच अभिधा, व्यंजना और लक्षण में बातें होने लगती हैं। सीधी बात कम घूमाकर बातें की जाती हैं। यदि आपकी भाषायी समझ कम है तो व्यंजना को पकड़ नहीं पाएंगे।

Tuesday, November 13, 2018

बच्चों से संवाद के सरोकार


कौशलेंद्र प्रपन्न

बच्चों से हम कब बात करते हैं? कहां बात करते हैं? कैसे बात करते हैं आदि सवाल आज की तारीख़ में खत्म होती कड़ी नज़र आती है। संवाद के नाम पर हम शायद उन्हें आदेश दे रहे होते हैं, सूचनाएं परोस रहे होते हैं या फिर उनसे रोजनामचा ले रहे होते हैं। बताओं कि आज स्कूल में क्या हुआ? यह भी बताओं कि ट्यूशन में क्या पढ़ा आदि। क्या इसे संवाद की श्रेणी में रखें? क्या हम इसे मुकम्म्ल संवाद मानें? जहां तक जे.कृष्णमूर्ति का मानना है कि हम संवाद प्रकृति के तमाम चीजों से किया करते हैं। हम पेड़ पौधों, पहाड़, जीव-जंतुओं से भी चाहें तो कर सकते हैं। और ये तमाम तत्व हमारे संवाद में हिस्सा भी लेते हैं। लेकिन हम बच्चों से संवाद स्थापित नहीं करते। जैसा कि ऊपर कहा गया हम बच्चों से संवाद करने की बजाए सूचनाओं का आदान प्रदान ज़्यादा किया करते हैं। ऊपर से बच्चों पर आरोप लगाते थकते नहीं हैं कि बच्चे सुनते नहीं हैं। बच्चे हमारी बातों में दिलचस्पी नहीं लेते। सोचना हमें है कि यदि हम सुनना चाहते हैं तो हमें कहना भी आना चाहिए। कैसे कहें और कितना कहें, कब कहें इसकी समझ हमें विकासित करनी होगी। पहली बात तो यही कि हम स्वयं सुनना नहीं चाहते। यानी भाषा के एक कौशल सुनने मे ंहम कितने कमजोर हैं और दोषी बच्चों को ठहराते हैं कि बच्चे सुनते नहीं हैं। हम कब उन्हें कहते हैं उसका समय, स्थान, और परिवेश का भी ख़्याल नहीं रखते। जब मेहमान आए हुए होते हैं तब हम कहते हैं अजी ये तो सुनता नहीं है। स्कूल से आने के बाद सामान कपड़े इधर उधर फेंक देता है। पढ़ने में तो ज़रा भी इसका मन नहीं लगता। एक हमारा समय था इस उम्र में हम कितने गंभीर थे। मजाल है हम अपने मां-बाप को जवाब दे दें। ऐसे सोचने वाली बात यह है कि क्या आपका बच्चा उस वक़्त सुन रहा है या सुनने का स्वांग कर रहा है। दरअसल वक़्त हम बच्चे से संवाद स्थापित करने की बजाए अपनी आपबीती और बच्चे की दुनिया की उपेक्षा और अस्वीकार्यता औरों के समक्ष रख रहे होते हैं। हमें अनुमान नहीं होता कि इस पूरी प्रक्रिया में बच्चा कहीं न कहीं स्वयं को उपेक्षित और हेय मानने और समझने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चे अंदर ही अंदर कुंठित होने लगता है। जब पापा या मम्मी को मेरी बुराई ही करनी है तो करें। मैं तो ऐसी ही हूं। हम अंजाने में बच्चे की अस्मिता और सम्मान को ठेस पहुंचा रहे होते हैं। हमें इसका ख़मियाज़ा आगे चल कर भुगतना पड़ता है। जब बच्चा उच्च या माध्यमिक स्कूल में आ जाता है। अब वह खुल कर अपना तर्क रखने लगता है। आपसे भी तर्क और प्रतितर्क करने लगता है। तब हमें महसूस होता है कि यह हमसे जबाव लड़ा रहा है। जबकि वह जबान नहीं लड़ा रहा है बल्कि वह समझने की कोशिश करता है कि जो चीज पापा-मम्मी को पसंद नहीं है वह हमारे लिए कैसे हितकर हो सकते हैं।
आज की तारीख़ी हक़ीकत यह है कि बच्चों के आत्मस्वाभिमान को हम तवज्जो नहीं देते। बल्कि अपनी प्रतिष्ठा और आत्मपहचान को ज़्यादा अहम मान बैठते हैं। यदि बच्चा फेल हो जाए या आपके कहने पर कोई कविता, कहानी दूसरों को न सुना पाए तो यह आपके लिए प्रतिष्ठा की बात हो सकती है। क्या हमने उस वक़्त बच्चे की पसंदगी पूछी? क्या बच्चे का बाह्य संसार अभी कविता व कहानी सुनाने के लिए मकूल है? हमें इन बातों को भी ध्यान में रखने होंगे। लेकिन हम जिस प्रकार की प्रतिस्पर्धा की दुनिया में सांसें ले रहे हैं ऐसे में ही माहौल में हमारा बच्चा भी जी रहा है। अक्सर हमारी तुलना के खेल बचपन से ही शुरू हो जाते हैं जिसका दबाव मां-बाप पर और आगे चल कर बच्चों में संक्रमित होते नज़र आते हैंं। मसलन हर बच्चे की अपनी प्रकृति होती है वह उसी तरह विकसित होता है। कुछ बच्चे जल्दी बोलने और चलने लगते हैं। हम अपने भाग्य और बच्चों के बरताव पर चिल्लाने लगते हैं कि हमारा बच्चा तो बोलता ही है। फलां का देखो इससे छोटा है मगर साफ बोलता है। चलने भी लगा है। हमें धैर्य से काम लेने की आवश्यकता है।
जैसा कि ऊपर प्रमुखता से इस बात की तस्दीक की गई कि बच्चों से संवाद स्थापित की जाए न कि सूचनाओं का आदान प्रदान। यदि ठहर पर मंथन करें तो पाएंगे कि बच्चों से संवाद करने की संभावनाएं दिन प्रति दिन कमतर होती जा रहा हैं। बच्चों से संवाद की कड़ी जब अभिभावकों के हाथ से निकल कर बाजार के हाथ में आ जाती है तब स्थिति बिगड़ने लगती है। बाजार अपनी शर्तां पर, अपने तरीके से बच्चों से संवाद कम अपना कन्ज्यूमर बनाने लगता है। वह अपने प्रोडक्ट्स के उपभोक्ता तैयार करने लगता है। यही कारण है कि हमारे घरों में बच्चे हमारी कम बाजार और विज्ञापन की भाषा ज़्यादा जल्दी समझने और बोलने लगते हैं। बाजार की यही तो ताकत है कि बाल मनोविज्ञान का इस्तमाल इन्हीं उपभोक्ताओं को फांसने में करता है। हम धीरे धीरे बच्चों की भाषायी और संवादी परिधि से बाहर होने लगते हैं। जब हमारे हाथ से बाल-संवाद की डोर छूटने लगती है तब हमारी िंचंता बढ़ने लगती है। हम आनन-फानन में टीवी के रिमोट छुपाने लगते हैं।

Monday, November 12, 2018

उम्र के उस पड़ाव पर...



कौशलेंद्र प्रपन्न
उम्र हम पर कब भारी पड़ने लगे यह हम कुछ भी तय रूप में नहीं कह सकते। प्रसिद्ध कथाकार,पत्रकार प्रियदर्शन जी की एक कविता से उधार लेकर शब्दों में बांधना चाहूं तो यह होगा कि उम्र हमारी कनपट्टियों से उतरा करती है। यानी सफेदी के साथ एहसास पुख़्ता होने लगता है कि हम अब उम्रदराज़ होने लगे। पता नहीं चलता कि कब हमारी कनट्टियों के काले कलम सफेद होने लगे। जिसे हम रंग रोगन से छुपाने की पूरी कोशिश करते हैं लेकिन सफेदी है कि छुपाए नहीं छुपती।
उम्र के साथ कुछ ज़रूरी पहचान हमारे व्यक्तित्व में आने लगते हैं। मसलन जल्दी चीजें भूलने लगना। ब्लड प्रेशर का बढ़ना, मधुमेह के गिरफ्त में आने लगना आदि। बच्चे बड़े होने लगते हैं। उनकी कॉलेज की पढाई खत्म होकर नौकरी पेशे की चिंता हमारी िंचंता होने लगती है।
यदि सही कॉलेज मिल गए तो तीसरे साल की चिंता कैम्पस प्लेसमेंट में अच्छी कंपनी उठा ले जाए। जॉब का पैकेज अच्छा हो। अगर सरकारी नौकरी मिल जाए और भी अच्छा। सरकारी नौकरी से खुद रिटायर होकर एक मकान तक नहीं बना पाते लेकिन बच्चों के लिए सरकारी नौकरी की उम्मीद पाले बैठे होते हैं।
देश के किसी भी कोने में घूम आएं हर सरकारी क्वाटर का नैन नक्श तकरीबन एक से ही होते हैं। अपनी अपनी पहचान दूर से ही हो जाया करती हैं। रिटायरमेंट के करीब पहुंचने पर एहसास मजबूत होने लगता है कि यार हमने तो जीवन में कुछ किया नहीं कम से कम मेरा बच्चा तो कर ले। मैंने ये नहीं किया, वो नहीं किया आदि आदि के मलालों से भरे हुए हम फिर बच्चों को अपनी कहानियां सुनाया करते हैं।
लाचारगी और दूसरों पर निर्भरता बढ़ने लगती है। यदि बच्चा दूसरे शहर में नौकरी कर रहा है तब हमारी मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं। हम चाहते हैं कि साल में कई दफा चक्कर काटा करे। पर्व त्येहार पर बाल बच्चों के साथ आया करे। लेकिन यह भूल जाते हैं कि हमारा बच्चा जिस कंपनी में काम कर रहा है वहां छुट्टियों की कितनी दिक्कत होती है। लेकिन हम यह समझ नहीं पाते। तकरार यहां भी होती है दो पीढ़ियों के दरमयान।
कई बार हमारी उम्र हमारी आदतों, रोज दिन के कामों और स्वभावों को भी ख़ासा प्रभावित करता है। हम अक्सर छोटी छोटी बात पर नाराज़ हो जाया करते हैं। हमें लगता है कि हमारी तो कोई सुनता ही नहीं। हमने क्या अपने जीवन में यूं ही बाल सफेद किए हैं। मगर होता इससे उलट है। कभी कभी हमें दोनों की ही स्थितियों को समझने की आवश्यकता होती है।

Thursday, November 8, 2018

वो जो एक शहर था



कौशलेंद्र प्रपन्न
शहर क्या पूरा का पूरा इतिहास समेटे सदियों से खड़ा था शहर। शहर के बीचों बीच एक लंबी,चौड़ी झील कहें, तालाब कहें जो भी नाम दें पुराना झील हुआ करता था। जब भी शहर में कोई कार्यक्रम होता। कोई मेला लगता या फिर जलसा होता तो इसी झील के किनारे लोग इकत्र हुआ करते थे। मेला,ठेला, अपरंपार भीड़ का स्वागत यह शहर किया करता था। इतिहास को अपनी प्रगति और अस्तित्व के साथ ओढ़े हुए जिं़दा था। इसी शहर में एक बड़ी फैक्ट्री भी हुआ करती थी जिससे इस शहर की पहचान थी।
शहर के बीचों बीच एक नदी भी हुआ करती थी, बल्कि नदी नहीं यह नद हुआ करता था। देशभर में तीन ही नद हैं जिसमें से एक नद था। बल्कि है। लेकिन समय के साथ वह नद भी महज बरसाती नदी सी हो गई है। सिर्फ साल में कुछ ही माह इसमें भर भर कर पानी हुआ करते हैं।
इस शहर को भी ऐतिहासिक नाम मिला हुआ था क्योंकि इसी शहर के तट पर बाणभट्ट के कुछ पाठ लिखे गए थे। यह देहरी घाट हुआ करता था यह इस शहर का पुराना नाम है। जो बाद में देहरी हुआ, फिर कालांतर में डेहरी हुआ। और जब अंग्रेज आए तो इसका नाम डेहरी ऑन सोन पुकारना शुरू किया। क्योंकि यह शहर पर सोन के किनारे बसा था इसलिए इसे डेहरी ऑन सोन नाम दे दिया। संभव है जिस प्रकार से शहरों के नाम बदले जा रहे हैं इस शहर को भी नामबदलुओं की नज़र न लग जाए। और इस शहर का नाम देहरी ऑन सूत्रपुत्र कर दिया जाए।
शहरों के नाम बदलने की संस्कृति में उन तमाम शहरों को डर है बल्कि शहर भी डरे हुए हैं कि कभी भी उन्हें नया नाम दिया जा सकता है। एक सवाल पूछने का मन कर रहा है कि वॉट इज देयर इन द नेम? वॉट इज देयर इन पर फॉम? आदि। नाम से ज़्यादा मायने काम रखा करता है। लेकिन कहते हैं फैशन के दौर में नाम ही बिका करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो नाम पर ख़राब से ख़राब चीजें भी अच्छे दामों पर बिक जाया करती हैं।
दूसरा मेरे शहर में पुराने कुछ एक ही मूर्तिया हुआ करती थीं। जैसे डेहरी पड़ाव। इस मैदान से लगा था गांधी मैदान। संभव है आने वाले दिनों में गांधी के बगल में ही कुछ और लोगों की मूर्तियां रातों रात लगा दी जाएं और नए नाम से पुकारने के फरमान जारी कर दी जाएं।
शहर को बसने और विकसने में वक़्त लगा करता है। धीरे धीरे शहर की पहचान वहां की सांस्कृतिक और सामाजिक बुनावट से हुआ करती है। जिस शहर में कभी बारह पत्थल, बीएमपी, झांबरमल गली हुआ करती थी। वहीं राजपुतान मुहल्ला भी होता था। याद नहीं है लेकिन उसी शहर में एक हिस्सा मुसलमानों का भी हुआ करता था। जिसे कोई ख़ास नाम मयस्सर नहीं था। बस उसे मुसलमानों के मुहल्ले से जाना जाता था। धीरे धीरे उस मुहल्ले को भी नज़र लगने लगी। माना जाता है कि शहर के बसने की प्रक्रिया में कई सारी चीजें, मान्यताएं साथ साथ रचने बसने लगती हैं। मंदिर, गुरूद्वारा, मस्जिद आदि। वहीं छोटी-छोटी दुकानों का भी जन्म होता है। देखते ही देखते वहीं पुरानी दुकानें शहर की पहचान बन जाया करती हैं।
जब एक शहर अपना रंग रूप बदला करता है तो उसके साथ बहुत सी चीजें अपने आप बदलाव की प्रक्रिया से गुजरने लगती हैं। कहते हैं जब टिहरी को डूबोने की प्लानिंग हो रही थी तब वहां के निवासियों ने काफी विरोध किया था। वहां के पत्रकार, लेखक, कवि, कथाकारों ने अपनी अपनी रचनाओं और कलमों से इस विकास को रोकने का प्रयास किया मगर सत्ता और सरकार सबपर भारी पड़ी। दिवाली का ही दिन था जिस दिन टिहरी जलमग्न हो गई थी। वह एक शहर का डूबना भर नहीं था बल्कि उस शहर के साथ एक इतिहास भी जल में समा गया था। वहां ही संस्कृति और मान्यताएं, कथा कहानियों भी एक साथ जलमय हो गईं। जब कभी भी शहर का नाम बदला जाए या शहरों को मूर्तियों का शहर बनाया जाए तब वहां के निवासियों की भी राय ली जाए।

Thursday, November 1, 2018

हिन्दी से अंग्रेजी की यात्रा


हिन्दी से अंग्रेजी की यात्रा
कौशलेंद्र प्रपन्न
पूरी जिं़दगी याने जितनी पढ़ाई लिखाई की वो सब हिन्दी में ही की। हिन्दी में पढ़ना-लिखना, सोचना, बोलना भाषा के चारों कौशलों का काम हिन्दी में रही। सो हिन्दी भाषा के तौर पर दक्षता हासिल की ली। अंग्रेजी को कभी उतना तवज्जो नहीं दी। जबकि देनी चाहिए थी। मेरे पिता अंग्रेजी के ही अध्यापक रहे। हमें स्कूल और घर पर अंग्रेजी और हिन्दी दोनों ही भाषाएं पढ़ाईं। लेकिन बचपना ही कहेंगे कि अंग्रेजी के प्रति अनुराग नहीं जग पाया। न लिखने को लेकर और न पढ़ने और बोलने के स्तर पर। ऐसा भी नहीं था कि अंग्रेजी से कोई गुरेज था बल्कि एक लापरवाही थी कि अंग्रेजी पर ध्यान नहीं दिया।
अब जब बतौर भाषाकर्मी के नाते सोचता और अमल करने की वकालत करता हूं तो महसूस होता है कि हमें किसी भी भाषा के बैर नहीं है। न ही होना चाहिए बल्कि भाषा के लिहाज से एक बेहतर इंसान बनने के लिए बहुभाषी होना ही चाहिए। यह एहसास तब हुआ जब प्रोफेशनली भूमिका बदली। जब तक भाषा विशेषज्ञ था तब अलग ही चश्में से देखा करता था। लेकिन जब से मैंनेजर व लीडर की भूमिका में आया तब महसूस हुआ कि यदि बहुजन तक पहुंचना है तो बहुभाषी होना नितांत ज़रूरी है।
मेरे जीवन में भाषायी और चिंतन तौर पर 360 डिग्री पर परिवर्तन घटित हुआ जब मार्च में मैं आईआरमा में प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और लीडरशीप की को कोर्स के लिए गया। वो चार दिन अंग्रेजी में सुनना, बोलने की कोशिश करना आदि बेहतर रहा। वहीं से शायद अंग्रेजी के प्रति राग पैदा हुआ। मैंने अपने आप से वायदा किया कि अब मैं अंग्रेजी से भी मुहब्बत किया करूंगा। यह भाषा भी हमारी है और हमें सीखनी ही चाहिए।
तब का दिन और आज का दिन अंग्रेजी बोलने, सुनने और पढ़ने के अभ्यास को बढ़ा दिया। ज़्यादा से ज़्यादा अंग्रेजी में कंटेंट पढ़ना और बोलने की कोशिश शुरू हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि 23 मार्च को एक संस्थान में देश के विभिन्न राज्यों से टीचर और टीचर प्रशिक्षक उपस्थिति थे। पहले से मालूम नहीं था कि वहां हिन्दी भाषी कम होंगे। ज़्यादा तर दक्षिण भारतीय थे। मैंने जब देखा तो लगा मुझे मेरी हिन्दी यहां काम नहीं आएगी बल्कि अंग्रेजी की मदद चाहिए। और मैंने कंटेंट वही रखा और शुरू हो गया अंग्रेजी में। शाम साढ़े पांच बजे तक चले से सत्र के बाद मैंने लोगों से पूछा क्या उन तक पहुंच सका? क्या मेरी बात उनक तक संप्रेषित हो पाई? तो लोगों ने साफतौर पर कहा कि हां उन्हें मेरी बात ही समझ में नहीं बल्कि जो मैंने उन्हें दिया वो भी ख़ासा मायने वाला था।
अहमदाबाद के बाद यह पहला मौका था जब मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक तकरीबन पांच घंटे अंग्रेजी में व्याख्यान दिए। हिन्दी बीच बीच में छौंक के तौर पर आई। उन दिन मेरा हौसला और बढ़ गया।
अंत में यह कहना चाहता हूं कि जिस भाषा से भागता रहा आख़िर में उसी भाषा को अपनाकर आज खुश भी हूं और अभिभूत भी कि आज मेरे पास दो सशक्त भाषाएं हैं जिनके कंधे पर सवार होकर दुनिया को देख और समझ सकता हूं। मैंने यह जरूर किया कि अंग्रेजी के चैनल, व्याख्यान, इंटरव्यूज आदि देखने पढ़ने शुरू किए ताकि ज़्याद से ज़्यादा अंग्रेजी की तमीज़ और ध्वनियां, नजाकत और मुहावरे कानों में पड़े। जब भी कुछ नया वाक्य या मुहावरे सुनता उसे कहीं न कहीं किसी न किसी के सामने उगल देता। मेरे साथ काम करने वालों को लग गया कि कुछ तो है। कुछ है जो मुझमें घटा है। कुछ है जो मुझमें नया हुआ है। कुछ तो तब्दीली हुई है कि आज कल मेरी भाषा पर अंग्रेजी तारी हो रही है। तैर रही है। साथियों ने पूछा भी कि आख़िर क्या हुआ? क्या हुआ ऐसा कि आज कल मैं अंग्रेजी में बोलने बतियाने लगा हूं। ऐसे क्या हुआ और क्या किया एक माह या दो माह में मेरी भाषा पर नजर आने वाली बारीक ही सही किन्तु अंतर लोगों की नजरों से ओझल नहीं रह सकीं। कुछ ने पूछा भी ऐसा क्या किया व क्या कर रहा हूं कि अंग्रेजी में बोलने, लिखने लगे। सिर्फ और सिर्फ इतना कह सका कि जो बात बड़ी शिद्दत और चिंता से पिताजी कहा करते थे लेकिन कभी नहीं माना बस अब वो कर रहा में। कभी भी देर नहीं है। जब भी अपने प्रति हम सचेत हो जाते हैं तभी से बदलाव घटित होने लगता है।

Wednesday, October 31, 2018

मैं वो शहर बोल रहा हूं...



कौशलेंद्र प्रपन्न
लोकतंत्र के चारों पहरूएं रहा करते हैं। राजपथ और तमाम प्रथम पुरुष के निवास स्थान हुआ करते हैं। हां मैं ही शहर बोल रहा हूं जहां संसद में पास हुआ करती हैं सभी ज़रूरी कानून और लागू भी किए जाते हैं पूरे देश में। हां मैं वहीं से बोल रहा हूं। जहां साफ सफ्फाक लोग बसा करते हैं।
मैं उसी शहर से बोल रहा हूं। मेरे शहर का मौसम इन दिनों ज़रा ख़राब चल रहा है। मेरे शहर के पुल भी इन दिनों परेशान, धुंधले से हो गए हैं। न पुल न सड़क और पेड़ देख जा सकते हैं। सब के सब गोया धुंध के चादर में लिपटे हैं।
सुबह स्कूल जाते बच्चे। दफ्तर की ओर दौड़ते लोग, मजदूर सभी परेशान आंखों को मलते, खखारते नजर आते हैं। बच्चों को तो सांस लेने में भी परेशानी हो रही है। बुढ़े भी तो इसमें शामिल हैं। उन्हें भी सुबह टहलने की आदत बदलनी पड़ी है।
मैं कई बार सोचता हूं शहर कैसे शहर है। हालांकि मैं महानगर से बोल रहा हूं। उस महानगर से जहां सपने पलते हैं। ख़ाब जिंदा रखने की कीमत सेहद से चुकानी पड़ती है। सेहद भी गंवाई और सपने भी अधूरे रह गए तो इससे तो अच्छा था हम किसी छोटे शहर में ही रह लेते।
लेकिन क्या कोई ऐसा शहर बचा है जहां प्रदूषण न हो। क्या कोई ऐसा महानगर भारत में बचा है  जहां की हवा शुद्ध और सांसों में भरने के लिए ठीक हो। मेरे सवालों पर हंस सकते हैं। मुझे बेवकूफ मान सकते हैं। मानने में कोई हर्ज नहीं लेकिन मेरे सवालों और चिंताओं पर गौर कीजिए मैं गलत नहीं हूं। आप कहेंगे वाह! यह भी कोई बात हुई? हमने तुम्हें सपने दिए। सपनों को पूरा करने के लिए संसाधन दिए। और क्या चाहिए तुम्हें।
तुम्हें फास्ट रेल दिए। चार और आठ लेन की सड़कें दीं। रात भर चलने और जलने वाली गाड़ियां दीं। और भी तुम्हें चाहिए? क्या चाहते हो आख़िर?
एक चमचमाती सड़क किसे मयस्सर है आज? हर शहर और नगर, गांव और कस्बा चाहते हैं उनके यहां मॉल्स खुलें, मेट्रो दौड़े और तो और तुम्हें भी ऑन लाइन शॉपिंग का आनंद लेना है जो कुछ तो चुकाने होंगे। तुम्हें तुम्हारे शहर से दर्जी, नाई, जूता साज़, परचून की दुकानें मैं वापस लेता हूं। लेता हूं तुमसे वो तमाम स्थानीय सुविधाएं जिनमें तुम पले बढ़े थे। तुम्हें देता हूं घर बैठे शॉपिंग का मजा। पिज्जा और बरगर, मोमोज और मैक्रोनी का स्वाद। बस तुम्हें छोड़ने होंगे मौलवी साहब की छोटी सी दुकान, मास्टर सैलून से बाहर आना होगा। फिर मत कहना हमारे शहर से मास्टर सैलून की दुकान बंद हो गई और महंगी दुकाने खुल गईं जहां हजामत बनाने के पच्चास और सौ रुपए देने पड़ते हैं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...