Thursday, June 23, 2011

...Then leave....


The table are same but dialogue become dry or sweet. In one hand some sole meet on the same time some joint sole hardly to commit fallow partner onto the high way of life.

Life always go go and go ahead. Some people never understand the changed face of the present reality. They always live in their own utopia. weather they are wrong or on the right path in the life they mostly ignore to accept the beauty of today.
Always remember one thing in the life that anything would happen. Now its depends onto the person to person how he or she react or hug the award of our duty. We are free from any fear in doing whatever work we want to do. But we must have to bonded in achieving the reward of our past work.
Kabir says," boya bij babul ke amb kahan se hoi" means our work and action give result as we do the best or lose concern.
just reciting the lines of song from film MERA NAAM ZOKAR,
ik din meet jaayega maati ke mool,
jag me rah jaayega pyaare tere bol,
koi nishaani chod fir duniya se dool......

Wednesday, June 15, 2011

मीडिया के सामने दर्शाक्बतेरू चेहरा

बाबा जहाँ देहरादून के हस्पताल में थे ठीक उसी जगह इक निगमानंद नाम के युवा साधू भी भर्ती था। दोनों के काम इक से थे। जहाँ बाबा भारस्ताचार के खिलाफ लोगों की नज़र में थे वही वो अनाम सा निगमानंद गंगा में गलत उत्खनन को रोकने के लिए पिछले तक़रीबन १०० दिनों से भुख्हद्ताल पर था। लेकिन कितने लोग इस नाम को जान पाए। हलाकि मीडिया ने ही निगमानंद को भी लाइट में लाया जो कहीं उपक्ष के शिकार थे। न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र ने निगमानंद के हड़ताल को तवज्जो दिया।
अफ़सोस के साथ ही कहना पड़ता है कि लोग नाम से भीख देते हैं तो दान भी। मरने पर रोने वाले आखं भी बॉडी की प्रतिष्ट पर उसी मात्र में आशुं बहाते हैं।

Monday, June 13, 2011

खबर की कीमत

खबर कूटने वाला जीव पत्रकार इक दिन खुद पेज पर स्टोरी में तब्दील हो जाता है। मुंबई से प्रकाशित मिड दे के स्पेशल खोजी टीम के अगुवा दे की शनिवार की हम गोली से भुन दी गई। दोष साहब उन्देर्वोर्ल्ड की जमीन की हलचल लोगो के सामने लाया करते थे। यहाँ तक की उनकी रिपोर्टिंग इस कदर प्रमाणिक होती कि मुंबई पोलिसे भी दांग रह जाती। यह ददयों के बस से बहार था कि कोई इस तरह उनकी अंदुरीनी पेंच जनता है। शुरू में धमकी फिर धमकी और अंत में मिली गोली......
इक इमानदार पत्रकार को खामोश कर दिया गया। आज पत्रकारिता के सिपाही वो नहीं रहे जो कभी पत्रकारिता के शुरूआती सफ़र में थे। उनने पत्र को हथियार की तरह इस्तमाल किया। उनको न धमकी न पेड़ खबर की धन्धेबाज़ अपनी रह से डिगा पते थे। लेकिन इक दौर यह भी आये जब पत्रकार और पत्र की साथ राजनीति और अन्दार्वोर्ल्क से हवा। तब कलम रिरियाने लगी।
पकिस्तान में भी पिछले दिनों शहजाद पत्रकार को आतंद के सरगना की बलि चदा दी गई । उस का भी दोष यही था। उसने भी आतंदी संगठन की अन्दर की बातें और प्लान आम कर रहा था। पत्रकार की निष्ठां और जीमेदारी क्या होती है कैसे निभायी जाती है यह इनसे सिखने की जरूरत है।
खबर जान की कीमत पर देने वाले पत्रकार की जरूरत आज ज्यादा है।

Saturday, June 11, 2011

इक दिन जमीन पर औंधे पड़ा सोचता है

हुसैन के इंतकाल पर पता नहीं क्यों बहादुर शाह ज़फर की पंक्ति याद आती है-


कितना बदनसीब है जफर मरने के बाद दो गज जमीन भी ना मिली कूचा ये यार में।


ठीक उसी तरह हुसैन साहिब भी ताउम्र अपनी मिटटी को तडपते रहे। आखिर में अपनी साँस का अंतिम कतरा लन्दन में ली।


रंग को अपनी जीवन की अर्धांगनी बनाने वाली हुसैन साहिब के साथ वही अर्धांगनी अंत तक साथ रही। न बेटा न परिवार के लोग ही साथ थे। अगर कोई साथ था तो वो उनकी कुची और रंगों में भरामन। वैसे भी जींवन की यही सचाई है कि जाते समय या आते वकुत कोई साथ नहीं होता। अकेला आना और अकेले ही रुक्षत होना होता है। न प्रेमिका न पत्नी और ना कोई साथ निभाता है , जो साथ पाले बढे वो सब महज़ कुछ दूर तक हाथ हिला कर मिस यू कह कर अपनी ज़िन्दगी में खूऊ जाते हैं।


कितना मुर्ख है कवि , कलाकार , भयुक जो भावना के कैनात को हकिकित मान बैठता है। सोचता है सार है यही कि कोई बिना स्वार्थ के साथ नहीं होता फिरभी क्यों कर आस लगाये बैठा रहता है।


इक दिन जमीन पर औंधे पड़ा सोचता है.....


क्या मैं बेहोशी में था? आखें खुली तो पाया कि वो सड़क पर किनारे अब तलक वेट कर रहा है......

Thursday, June 9, 2011

बाबा तो लम्बी दौड़ की योजना के साथ आये

योग के साथ बाबा जिस अब सेना तैयार करेंगे। यानि पातंजल योग संसथान में सैनिक तैयार किये जायेंगे। वो भी सशस्त्र। जब ऋषियों को पिछले जमाने में राक्षश तंग करते या राजा ठीक से अपनी भूमिका नहीं निभ्सता तो वो लोग धनुष उठा लिया करते थे।
विशामित्र ने धनुष उठाया। कौतिल्या ने साफ़ कहा कि ब्राहमण पठन पाठन कर सकता है तो जुररत पड़ने पर युद्ध भी कर सकता है।
बाबा जिस श्यास ही सही लेकिन सैनिक की फ़ौज कड़ी करना चाहते हैं। इस्पे होम मिनिस्टर ने गंभीर प्रतिक्रिया दिया , तो अब कानून ही उनसे निपटेगी।
सामने आने लगे बाल्क्रिशन जो नेपाली मूल के हैं लेकिन खुद को भारतीय साबित कर वेदेष घूम आये। कसे जा रहे है। साथ ही बाबा की दावों को अम्रीका ने खारिज किया तो उसके पीछे भी सर्कार कदम उठा चुकीं है।

Monday, June 6, 2011

बाबा की भद

बाबा ने अपनी भद पीता कर रो क्यों पड़े... यह रास्ता खुद ही चुना था। हजारे की रह पर चलना इतना आसान नहीं। पूरी ज़िन्दगी लग जाती है तब हजारे पैदा होते हैं। बाबा ने रार ठान ली कि मैं क्यों नहीं लोकपाल समिति में? मुझे भी कम लोग नहीं जानते। पूरी दुनिया में जान्ने वाले हैं फिर मैं क्यों पीछे रहूँ।
बस यही वो प्रस्थान बिंदु है जहाँ से बाबा की बिछलन शुरू हुई। किसे तरह वो औरतो के पीछे छुपते रहे इसे पूरी दुनिया ने देखा। भक्तो की भीड़ कड़ी कर उनने सोचा कि हम सत्ता से भीड़ लेंगे। सरकार को समर्पित मंत्री बाबा की शक्ति जानते थे इस लिए पहले मनुहार किया। लेकिन नहीं मने तो दंड का प्रयोग किया।
साम, दम, दंड, भेद इन चार बिन्दुयों को अपना कर ब्रिटिश ने हमारे ऊपर राज किया। तो बाबा किसे खेत की मुली हैं।
योग करते , जनता वैसे ही अपने दिलों में बसा राखी थी। बाबा को राजनीती का चस्का पता नहीं किसे ने लगा दिया। वैसे उन्न्ने कोई गलत कदम नहीं उठाया था। लेकिन मंच गलत चुना। उस पर रिथाम्भारा को बैठना आग में घी डालना साबित हुआ।
चलिए इक लम्बी सांस ले और छोड़ें.......
आमीन

Friday, June 3, 2011

इक थी पूजा। वो खूब पढना चाहती थी लेकिन उसकी किस्मत में शायद पढना नहीं लिखा था। पिछले दिनों उससे मुलाक़ात ही हुई थी। कहा मैं पढना चाहती हूँ। बड़े हो कर पढ़ना चाहता है मेरी। वो यूँ तो खामोश रहती लेकिन जवाब आते हुए भी जवाब नहीं डरती थी। बोहोत बोलने पार जवाब देती। रंग तो जैसे उसकी ऊँगली पर नाचती थी क्या ही कमाल कि चित्रकारी करती।


कुछ दिन मुलाक़ात नहीं हुई। इक दिन अचानक नज़र आई । उसके दोस्तों ने कहा इसकी माँ कल रात भवान के पास चली गई। मायूस पूजा चुपचाप देख रही थी कभी उन क्लास को ज़हन में जिसे बसा रखा था। सुए लग गया था कि बस अब ज्यादा दिन यहाँ न आना हो पायेगा।


हुवा भी वही जिसका दर था। पियाकड़ बाप ने उसे किसी कोठी वाले के घर चौका बर्तन के लिए रख दिया। हम चाह कर भी उसे शिक्षा में रोक नहीं पाए। उसके सपने खतम हो गए। असमयेक मौत

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...