Saturday, February 26, 2011

पिछड़े मासूम बच्चों पर दोहरी जिम्मेदारी




-कौशलेंद्र प्रपन्न

दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर निगम की ओर से मान्यता प्राप्त निजी प्राथमिक स्कूलों ने सरकारी आदेश की जिस तरह खिल्ली उड़ाई उसे देख कर स्पष्ट हो जाता है कि सरकार जब इन स्कूलों में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के लिए ‘कुल दाखिले का 25 फीसदी सीट’ आरक्षित होगा। लेकिन इन स्कूलों ने सरकारी आदेश का जिस तरह नजरअंदाज़ कर रही है उससे एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाता है कि इन स्कूलों पर सरकार कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं कर पा रही है। गौरतलब है कि इन निजी स्कूलों को स्कूल बनाने के लिए सरकार की ओर से रियायती दामों पर जमीन मुहैया कराई है। नगर निगम की ओर से ऐसे 757 स्कूलों को आदेश जारी किया था। लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के सामने स्कूल जाने, शिक्षा ग्रहण करने में कैसी और किस तरह की परेशानियां का सामने करना पड़ता है। यदि यह समझ लिया जाए तो हम लाखों बच्चों को स्कूल की परीधी में ला सकते हैं। लेकिन इन बच्चों को शिक्षित करने की जिस प्रकार की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है उसमें कहीं बहुत बड़ा फांक है। ‘शिक्षा के अधिकार’ कानून लागू होने के बाद उम्मीद और लक्ष्य तो बनी है कि राज्य एवं केंद्र सरकार शिक्षा की पहंुच वंचित और विकास के हाशिए पर पड़े बच्चों तक पहुंचाने में सफल होगी। सरकारी तंत्र के साथ ही साथ इसी के समानांतर गैर सरकारी संस्थाएं भी शिक्षा के प्रसार- प्रचार के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। विदेशी अनुदानों की सहायता से चलने वाली शैक्षिक योजनाओं पर हर साल लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। ताकि देश के 80 मिलियन बच्चे कम से कम प्राथमिक स्तर की शिक्षा तो हासिल कर लें। लेकिन हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था ‘प्रथम’ की ओर से कराए गए अध्ययन की रिपोर्ट की मानें तो देश के बच्चे जो पांचवीं कक्षा में पढ़ते हैं, उनमें से आधे से ज्यादा बच्चे पहली, दूसरी कक्षा के गणित के सवाल हल नहीं कर सकते। जहां तक हिंदी और अन्य भाषाओं का मामला है उसमें भी कोई खास सार्थक परिणाम नहीं मिले हैं। लिखने- पढ़ने के कौशल में भी पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे साधारण से साधारण पंक्तियां न तो लिख सकते हैं और न ही पढ़ सकते हैं। इससे यह अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है कि जो बच्चे स्कूल में तालीम के लिए जाते हैं उन्हें किस तरह की शिक्षा मिल रही है। लेकिन सरकार सर्वशिक्षा अभियान, आंगन बाड़ी, मीड डे मील आदि परियोजनाओें के जरिए देश के शेष बच्चों को स्कूल में दाखिल करना चाहती है। याद हो कि 2000 में सरकार ने 2010 तक का लक्ष्य रखा था कि इस साल तक स्कूल एवं शिक्षा से वंचित बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ दिया जाएगा। लेकिन अफ्सोस के साथ कहना पड़ता है कि पूर्व निर्धारित समय सीमा तक लक्ष्य पूर्ति न होते देख दुबारा 2015 तक का समय सीमा तय किया गया है।
यह बड़ी चिंता की बात है कि आज़ादी के तकरीबन 63 साल बाद भी शिक्षा और बच्चे हमारे मुख्य प्राथमिकता की सूची में नहीं हैं। महज सरकारी घोषणाओं के आधार पर शिक्षा को बेहतर बनाने का सपना देखना व्यर्थ है। लेकिन तमाम आदेशों को धत्ता बताते हुए दिल्ली के कई निजी स्कूलों ने साफतौर से ऐसा करने से मना कर दिया। दिल्ली के शिक्षा मंत्री अवरिंदर सिंह लवली ने कड़ा रूख अपनाते हुए कहा कि जो स्कूल इस आदेश का उल्लंघन करेंगी उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती है। इसके पीछे शिक्षा मंत्री का तर्क था कि जिन स्कूलों को रियायत मूल्य पर जमीनें मुहैया कराई गई हैं। उन्हें सरकार के इस आदेश का पालन करना होगा वरना उन पर कानून की अवमानना करने के जुर्म में आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है। सरकार की इस रूख के बाबत निजी स्कूलों ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा कि हम 25 फीसदी बच्चे को पूर्णतः निःशुल्क शिक्षा, वर्दी, काॅपी-किताबें उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं। या तो सरकार हमें फीस बढ़ाने की अनुमति दे या फिर 25 फीसदी बच्चों को निःशुल्क नामांकन से हमें मुक्त करे। सरकार की ओर से जारी प्रस्ताव में कहा गया है कि सरकार ऐसे कुल बच्चों के लिए प्रति बच्चा 1,000 से 1,300 रुपए स्कूल को देगी। लेकिन इस पर निजी स्कूलों के प्रबंधकीए संगठनों ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि यह राशि बहुत कम है इसमें तमाम सुविधाएं हम नहीं दे सकते। प्रकारांतर से निजी स्कूलों के प्रबंधन एवं सरकारी तंत्र के बीच एक परोक्ष लड़ाई चल रही है।
गौरतलब है कि आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चे ‘ईडब्ल्यूएस’ कोटे में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या कोई कम नहीं है। उस पर इस कोटे की सुविधा लेने वाले के लिए जिन दस्तावेजों की आवश्यकता पड़ रही है उसे देख कर नहीं लगता कि वास्तव में ऐसे बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता। सरकार की ओर से जारी आवश्यक दस्तावेजों में जन्म प्रमाण पत्र, आवास प्रमाण, वोटर पहचान पत्र, सालाना 1 लाख से कम की आमदनी को सिद्ध करने वाले प्रमाण को शामिल किया गया है। मुख्य सवाल अब यह उठता है कि जिन परिवारों के बच्चे सड़क किनारे, पार्क व फ्लाईओवर आदि सार्वजनिक स्थानों पर रहते हैं जिन्हें स्थानीय प्रशासन एवं पुलिस रोज भगाती हो तो ऐसे में उनके बच्चे कहां और किस स्कूल में पढ़ने जा सकते हैं। एक सर्वे के अनुसार अकेली दिल्ली में ऐसे बच्चों की 5 लाख से भी ज्यादा संख्या है जो सड़क पर ही जन्मते और बड़े होते हैं। उनका मुख्य काम कबाड़ चुनना, किसी दुकान पर काम करना और परिवार के भरण पोषण में अपनी कमाई सौंपना है। यदि ऐसे बच्चे स्कूल चले जाएंगे तो वैसी स्थिति में उनके घर में खाने-खाने को लाले पड़ जाएंगे।
‘सेव द चिल्डन’ गैर सरकारी संस्था, दिल्ली के विभिन्न इलाकों में ऐसे बच्चों को शिक्षा, चिकित्सा आदि मुहैया कराने में जुटी है। इस संस्था की ओर चलाई जा रही नेहरू प्लेस एवं लाजपत नगर के केंद्रों पर इस तरह के बच्चों को बुनियादी सुधार के बाद स्कूलों में 25 फीसदी आरक्षित कोटे में नामांकन कराने की योजना पर काम चल रही है। इस संस्था के प्रोग्राम आॅफिसर प्रदीप कुमार कहते हैं कि इन बच्चों को जिस प्रकार के माहौल मिले हुए हैं वह न केवल यूनीसेफ के ‘बाल अधिकार’ प्रस्ताव के खिलाफ है बल्कि मानवीय स्तर पर भी स्वीकारणीय नहीं कह सकते। नेहरू प्लेस डीडीए पार्क और कालका जी मंदिर के साथ ही एमटीएनएल के पास छोटे-छोटे टेंटों, झुग्गियों में रहने वाले संजू, अंजलि, पूजा, बादल आदि बच्चों से बाते करना बेहद रोचक होगा। इन बच्चों में पढ़ने की ललक को देखते हुए लगता है काश इन्हें मुख्य स्कूलों में दाखिला मिल जाए। अपनी इच्छा और पढ़ने की चाह को पूरा कर सकें। वहीं दूसरी ओर रामकिसन, रवि, दीपचंद जैसे दुर्भागे बच्चे भी हैं जिन्हें पढ़ने की तमन्ना तो है किंतु इन 9,11,13 वर्षीय बच्चोें के कंधे पर पूरे घर की परवरिश की जिम्मेदारी होती है। पिता या मां इन्हें पढ़ने नहीं भेजते। क्योंकि स्कूल चला गया तो घर का खर्च कैसे चलेगा। इन बच्चों को पहली लड़ाई अपने घर में मां-बा पके खिलाफ लड़नी पड़ती है।

Monday, February 21, 2011

पढ़ने की ललक ने ली मासूम की जान


कौशलेंद्र प्रपन्न

मम्मी- पापा मुझे माफ कर देना मैं दुनिया छोड़ कर जा रहा हूं। मैं पढ़ना चाहता था। पढ़कर डाक्टर बनने की इच्छा थी ताकि मैं गरीबों की मदद कर सकूं। लेकिन मेरी किस्मत में शायद यह नहीं लिखा था।’ इन शब्दों, वाक्यों पर नजर डालें तो एक ऐसी बेबसी दिखाई देगी जो किसी भी सभ्य एवं शिक्षित समाज के गाल पर थप्पड़ से ज़रा भी कम नहीं होगा। क्यों इन पंक्तियों लिखना वाला बच्चा महज आठवीं कक्षा में पढ़ता था, लेकिन घर माली स्थिति खराब होने की वजह से स्कूल से बाहर कर दिया गया। गोया यह बच्चा उस निजी स्कूल की कालीन में पेबंद की की तरह था। यह घटना कहीं और नहीं बल्कि देश की राजधानी महानगर दिल्ली में केंद्र एवं राज्य सरकार के साथ ही अन्य तमाम आयोगों के नाक के नीचे आठवीं क्लास में पढ़ने वाला एक बच्चा स्कूल प्रशासन की ओर से फीस न दिए जाने पर स्कूल न आने के आदेश सुनने के बाद मायूस हो कर पंखे से लटक गया। दरअसल बच्चे की मां उसी स्कूल में कभी बतौर नर्स काम किया करती थी। लेकिन किन्हीं वजहों से उससे इस्तीफा ले लिया गया। जाते- जाते सकूल प्रशासन की ओर से आश्वासन दी गई कि उसके बच्चे को 12 वीं कक्षा तक स्कूल में निःशुल्क शिक्षा, किताब एवं स्कूल डेस दी जाएगी। लेकिन समय के साथ प्रशासन की नजर बदल गई। और हप्ते भर पहले आदेश दिया गया कि दो माह की फीस 12,000 एक हप्ते के अंदर जमा करना होगा वरना स्कूल में बैठने नहीं दिया जाएगा। उस बच्चे के पिता साधारण से किसी कंपनी में बेहद ही कम पैसे पर काम करते हैं। इतनी बड़ी रकम चुकाने में अपनी असमर्थता दिखाई। बस क्या था प्रशासन ने साफ शब्दों में सुना दिया कि फीस नही ंतो स्कूल में बैठने नहीं दिया जाएगा। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के सामने स्कूल जाने, शिक्षा ग्रहण करने में कैसी और किस तरह की परेशानियां का सामने करना पड़ता है। यदि यह समझ लिया जाए तो हम लाखों बच्चों को स्कूल की परीधी में ला सकते हैं। लेकिन इन बच्चों को शिक्षित करने की जिस प्रकार की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है उसमें कहीं बहुत बड़ा फांक है। सरकार ने तो पिछले साल 1 अप्रैल 2010 से शिक्षा के अधिकार कानून लागू कर चुकी है। इस कानून से कम से कम इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि राज्य एवं केंद्र सरकार शिक्षा की आवश्यकता को गंभीरता से ले रही है। सरकारी तंत्र के साथ ही साथ इसी के समानांतर गैर सरकारी संस्थाएं भी शिक्षा के प्रसार- प्रचार के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। विदेशी अनुदानों की सहायता से चलने वाली शैक्षिक योजनाओं पर हर साल लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं।एक ओर सरकार देश के हर बच्चों को शिक्षा, स्कूल एवं ज्ञान की परीधी में लाने के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाएं चला रही हैं। शिक्षा को कानूनी तौर पर बुनियादी अधिकार घोषित किए जाने के बावजूद भी हकीकत यह है कि अभी भी देश में 80 मिलियन बच्चे स्कूल ही नहीं जाते। जो जाते हैं उन्हें किस स्तर की शिक्षा, स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों से वास्ता पड़ता है इसका एक जीता जागता उदाहरण हम एक गैर सरकारी संस्था पहल की ओर से की गई सर्वेक्षण रिपोर्ट को देख कर लगा सकते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के विभिन्न राज्यों में स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा इस गुणवत्ता की है कि पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा पहली व दूसरी कक्षा के गणित के सवाल हल नहीं कर सकता। भाषा हिंदी व अंग्रेजी तो और दूर की कौड़ी है। इन्हें हिंदी व अंग्रेजी लिखने, बोलने, पढ़ने आदि तालीम ही नहीं दी जाती। ऐसे में अनुमान लगाना कठिन नहीं कि हमारे भविष्य के युवाओं को किस स्तर एवं गुणवत्ता वाली समान शिक्षा मिल रही है। हालांकि सरकार बार बार अपनी प्रतिबद्धता तो दुहराती रही है कि सरकार हर बच्चे को बिना किसी भेद भाव के सबको समान शिक्षा मुहैया कराने के प्रति वचनबद्ध है। लेकिन सच्चाई यह है कि जिस प्रकार की शिक्षा सरकारी स्कूलों में बच्चों को दी जाती है उसके स्तर एवं गुणवत्ता परखने और पुनर्मूल्यांकन कर नीतियों एवं कार्यवाही में परिवत्र्तन लाने की आवश्यकता है वरना एक ओर सरकार सर्व शिक्षा अभियान, आंगन बाड़ी, हर बच्चा पढ़ेगा जीवन में आगे बढ़ेगा जैसे कर्णप्रिय जयकार के सिवा और कुछ नहीं होगा। गौरतलब है कि जनवरी और फरवरी के शुरू के दो हप्ते में तमाम अभिभावकों ने विभिन्न स्कूलों के दरवाजे पर कतार में खड़े होकर फार्म की प्रक्रिया पूरी की। लाॅटी जैसे जूए वाले खेल के जरिए बच्चों के दाखिले का फैसला लिया गया। जिन बच्चों के नाम आए वो तो न्यारे हुए बाकी को तो मायूस प्रशासन, सरकारी नीतियों को कासने के सिवाए कोई और रास्ता नहीं दिखा। दिल्ली सरकार की ओर शिक्षा मंत्री अवरिदर सिंह लवली ने कुछ शिकायतों के आधार पर कि फलां फलां स्कूल आर्थिक एवं समाजिक स्तर पर पिछड़े बच्चों के नामांकन में आरक्षण वाले कोटे में दाखिला देने से मना कर रहे हैं। इन शिकायतों के मद्दे नजर शिक्षा मंत्री ने कड़े कदम उठाते हुए आदेश जारी किया कि यदि कोई गैर-सरकारी स्कूल आरक्षित कोटे में दाखिले से मना करती है तो उसके खिलाफ आपराधिक कारवाई की जा सकती है। क्योंकि पिछले साल शिक्षा कानून बन जाने के बाद आदेश की अवहेलना करने पर कड़ी नजर होगी। लेकिन निजी स्कूलों के प्रबंधकीए समितियों ने सरकारी के प्रस्ताव व आदेश को मानने से एक सिरे से नकार दिया। इस इंकार के पीछे उनके तर्क यह थे कि हम महंगाई के इस दौर में सभी ईवीएस के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, किताब एवं वर्दी मुहैया कराने में असमर्थ हैं। सरकार की ओर प्रस्तावित सहायता राशि 1000-1300 काफी नहीं हैं। या तो सरकार हमें इस आदेश से बरी करे या सहायता राशि बढ़ाए। यदि हमें सरकार स्कूल फीस बढ़ाने की अनुमति देती है तो हम इस पर विचार कर सकते हैं। ज़रा सोचें एक ही देश में जहां एक ओर पूरी तरह से एसी की ठंढ़ी हवाओं में बच्चे पढ़ते हैं जिनके लिए हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहीं दूसरी ओर साधनविहीन ऐसे सरकारी स्कूलों की संख्या कोई कम नहीं हैं जहां पीने के लिए पानी शौचालय तक के लिए बच्चे- बच्चियों को खुले में या रोड़ पार कर जाना पड़ता है। बहार घात लगाए बैठे दरिंदे इन्हें दबोच लेते हैं। इसमें सीधे तौर से सरकार एवं उसकी नीतियां जिम्मेदार मानी जाएंगी। जो सस्ती दरों पर निजी कंपनियों, घरानों को स्कूल खोलने की अनुमति तो दे देती है लेकिन सरकार के आदेश नहीं मानते लेकिन सरकार कुछ ठोस कदम नहीं उठा पाती। यदि गौर करें तो आज शिक्षा एवं स्कूल पूरी तरह से काॅरपोरेट सेक्टर में तबदील हो चुका है यहां पढ़ाने वाले अध्यापक/ अध्यापिका शुद्ध रूप से प्रोफेसनल हो चुके होते हैं। इन्हें नैतिकता, मूल्य व कर्म की प्रतिबद्धता थोथी चीज लगती है। अगर इसके वजहों की गहराई में जाएं तो पाते हैं कि जहां जिन संस्थाओं ‘शिक्षा प्रशिक्षण’ से निकल कर आज के शिक्षक व शिक्षिका आती हैं वहां भी जिस प्रकार का अध्यापन किया जाता है वह भी शक के घेरे से बाहर नहीं कह सकते।

Thursday, February 17, 2011

शिक्षा में अब और पीछे नहीं रहेगा बिहार


-कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाओं में जब पिछड़े राज्यों की बात चलती है तब सबसे पहले बिहार का नाम लेने में कोई भी पीछे नहीं रहता। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि यदि हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट की मानें तो बिहार देश का पहला राज्य बन गया है जहां के 70,000 सरकारी प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में तमाम जानकारियां आॅनलाईन कर दी गई हैं। यह काम नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिशटेशन आॅन एलिमेंटी एजुकेशन के तहत चलाई गई परियोजना की सहायता से पूरा हुआ है। बिहार के तमाम गांव, जिलों आदि में चल रही विभिन्न सरकारी स्कूलों के बारे में बुनियादी जानकारियां स्कूलरिपोर्टकाॅर्ड्स नाम की वेब साइट में दिखी जा सकती हंै। इस साइट पर स्कूल से जुड़ी हर तरह की सूचना मिलेंगी। मसलन कितने स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय, ब्लैक बोर्ड, अध्यापक, भवन की स्थिति आदि। राज्य सरकार की इस कोशिश एवं प्रयत्न से अन्य राज्य सरकारों को सीख लेनी चाहिए कि वे भी अपने राज्यों में किस तरह से शिक्षा के अधिकार कानून को अमली जामा पहनाने में मदद कर सकते हैं।
राज्य सरकार द्वारा संचालित 70,000 प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में एक स्थान पर तमाम सूचनाएं उपलब्ध कराना कोई आसान काम नहीं है। उस पर भी वहां जहां पिछले कई सालों से शिक्षा दिन प्रति दिन बद से बदत्तर होती मानी जा रही थी। लेकिन यह वही राज्य है जिसने साबित कर दिया कि यदि जज़्बा हो तो पुरानी इमारत को दुरूस्त किया जा सकता है। लेकिन शर्त यह है कि हमें इसके लिए प्रतिबद्ध होना होगा। वरना शिक्षा में न केवल बिहार बल्कि अमूमन देश के अन्य राज्यों में भी गिरावट साफ देखी जा सकती है। गौरतलब है कि इस राज्य में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय कभी विश्व प्रसिद्ध ज्ञान केंद्रों में गिना जाता था। लेकिन समय के साथ नालंदा विश्वविद्यालय अपनी चमक खोता चला गया। किंतु नोबल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन एवं राज्य व केंद्र सरकारों की अथक प्रयासों की वजह से एक बार फिर से नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित किया जा रहा है। इस काम में नेशनल नाॅलेज कमिशन की भी भूमिका सराहनीय मानी जा सकती है।
शिक्षा की दशा एवं दिशा किसी भी समाज, राज्य व देश की प्रगति को टटोलने में खासे मदद करती है। जिस भी समाज में लोग अधिक से अधिक शिक्षित होंगे वहां की जनचेतना उतनी ही विकसित और सृजनात्मक होगी। यह स्थापित बात है कि जनता शिक्षित हो तो वह अपने एवं समाज के विकास में बेहतर योगादान कर सकता है। कभी समय था बिहार शिक्षा के लिए जाना जाता था। लेकिन अस्सी के दशक से धीरे-धीरे गिरावट दर्ज की जाने लगी। शिक्षा की गिरती साख को बचाने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति भी कमजोर पड़ती चली गई। क्योंकि यदि सरकार चाहे तो किसी भी सूरत में शिक्षा ही नहीं कानून व्यवस्था तक को सुचारू रूप से चला सकता है। लेकिन जब राजनैतिक इच्छा शक्ति महज अपने राजनैतिक हैसयित बढ़ाने, समाज को विभिन्न मुद्दों पर बरगलाने में लगी हो तो ऐसी सरकार से किस तरह की प्रगति की उम्मीद की जा सकती है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र, सत्येंद्र प्रसाद एवं भगवत आजाद के मुख्यमंत्रित्व काल में शिक्षा की इतनी दयनीय स्थिति नहीं थी जितनी लालू प्रसाद एवं राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ। नब्बे के दशक में बिहार का भाग्य नए ढंग से लिख जाने लगा। इस काल में महज लूटपाट, चोरी चमारी, घोटालों एवं रिश्वतखोरी को खूब हवा मिला। इन सरकारों को केवल स्व उन्नति एवं हित साध नही प्रमुख था। समाज एवं वहां की जनता की बुनियादी जरूरतों को दरकिनार किया गया।
बिहार में शिक्षा मतलब नकल से उपजी प्रतिभा का कलंक माथे पर लगने लगा। यदि किसी ने अस्सी फीसदी अंक प्राप्त किया तो उसे संदेह एवं शंका की नजर से देखा जाना बेहद ही आम बात थी। चाहे वह बोलचाल में हो या कार्यालयी स्तर पर हर जगह बिहार से पढ़कर आने वाले छात्रों को भेदीय नजर का सामना करना पड़ता था। लेकिन पिछले पांच सालों में नितिश सरकार की नजर शिक्षा को दुरुस्त करने पर गई और समय के साथ इस सरकार की कोशिश एवं प्रयासों के परिणाम सामने आने लगे। स्कूलों में बच्चियों को साइकिल बांटा जाना एक तरह से शिक्षा व स्कूल को घर के दरवाजे पर ला खड़ा करना ही था। गांव, कस्बे व छोटे शहरों में स्कूल जाने में लड़कियों को किस तरह की नजरों, अवरोधों का सामना करना पड़ता है।

Saturday, February 12, 2011

न चिट्ठी ना लेटर बाॅक्स

चिट्ठी ना लेटर बाॅक्स
-कौशलेंद्र
अआधुनिक तकनीक का हमारे आम जन जीवन पर कुछ इस तरह प्रहार हुआ कि हमारे बीच से कई महत्वपूर्ण चीजें घिसती हुई खत्म होने के कगार पर हैं। चिट्ठी-पत्री, पोस्टमैन, लैटर बाॅक्स आदि अब कम ही देखे जाते हैं। हालांकि इसके उलट तर्क पोस्टल डिपार्टमेंट की ओर आते रहते हंै कि चिट्ठयों का आना-जाना बतौर जारी है। यह अलग बात है कि वो चिट्ठयां कौन- सी हैं? वो कौन से लोग बचे रह गए हैं जो आज पत्र लिखते और जवाब पाने के इंतजार में हप्ता काट देते हैं। यदि इसके जड़ में जाएं तो शायद ऐसे लोगों की संख्या बेहद कम हो। लेकिन उनकी भी ज़िद है कि वो चिट्ठी लिखेंगे ही। जब तक चिट्ठी पत्री लिखने वाले बचेंगे तब तक डाकिए को गली मुहल्ले में चक्कर मारना ही पड़ेगा। देश के कई गांव, शहर, कस्बे में लेटर बाॅक्स की क्या स्थिति है जानना हो तो कभी दीवार या दरवाजे पर लटके लेटर बाॅक्स के पेट में हाथ डाल कर खंघालें तो पाएंगे कि हाथ में कुछ भी नहीं आता। महज चिड़ियों के पंख, बच्चों के डाले कागज या फिर किसी प्रोडक्ट के पंप्लेट्स या किसी रेस्तरां के मेन्यू के सिवा कुछ नहीं मिलता। कसौली, हिमाचल प्रदेश के मुख्य डाकमास्टर एम एस डांगी बताते हैं कि इधर पांच छः सालों में अचानक चिट्ठियां कम हो गई हैं। पहले पर्व- त्योहारों एवं नए साल पर बधाई कार्ड आया करते थे। लेकिन अब तो वह भी कम हो गए। क्यों ऐसा हुआ? इस पर डांगी जी बताते हैं कि मोबाइल घर- घर में आ जाने से चिट्ठी- पत्री का चलन धीमा पड़ गया। अब तो लोग पलक झपकते अपने रिश्तेदारों से फोन पर बातें कर लेते हैं। जो बातें पहले चिट्ठी में लिखी जाती थीं वही और उससे भी ज्यादा बातें अब फोन पर हो जाती हैं। डांगी जी बताते हैं कि आज से दस साल पहले दिन में दो बार डाक निकालना पड़ता था। लेकिन आज एक बार में भी मुश्किल से दो या चार डाक ही मिल पाते हंै। महानगर, शहर, कस्बे और गांवों में बसने वाले लोग धीरे-धीरे आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल करते- करते पारंपरिक चलन को पीछे छोड़ते चले गए। महानगरों की बात तो छोड़ ही दें अब तो आलम यह है कि गांव में भी डाक बाबु कम ही नजर आते हैं। कुरियर कंपनी की शाखाएं वहां भी खुल चुकी हैं। डाक व्यवस्था के समानांतर कुरियर सेवा देखते ही देखते देश के कोने- कोने में पैर फैला चुके हंै। वहां भी मोबाइल क्रांति की हलचलें साफतौर पर सुनी जा सकती हैं। देखते ही देखते खेत- खलिहान, पहाड़ की चोटी, मैदानी इलाके हर जगह सूचना, संप्रेषण तकनीक और नेटवर्क के जाल बिछते चले गए। हर दस कदम पर फलां -फलां मोबाइल सेवा प्रदाताओं के टाॅवर छतों पर खड़े नजर आ जाएंगे। उसके दुष्प्रभावों को अनदेखा करते हुए हम खुश होते हैं कि अब बात करते वक्त आवाज नहीं कटती। नेटवर्क की समस्या नहीं आती। उस पर जिनके छत पर टाॅवर लगते हैं उन्हें मोटी राशि भी मिलती है। इसी के बरक्स यदि हम चिट्ठी पत्री के युग को देखें तो पाएंगे कि इन चिट्ठियों के आने-जाने में जो भी वक्त लगता था उसमें हम सब्र से काम लेते थे। एक धैय था। लेकिन आज यदि कोई मोबाइल न उठाए तो एक डर सताने लगता है। गुस्से में लगातार फोन करते रहते हैं। देखते हैं कब तक फोन नहीं उठाता। उस पर उलाहना भी तैयार रहता है ‘क्या बात है किससे इतनी लंबी बात हो रही थी?’ इस एक वाक्य में तमाम रस मौजूद हैं किसी को भी दिन भर काटने के लिए बहुत है। यहां निश्चित ही हमने चैन खोया है। दूसरों के हाथ में अपनी जिंदगी की घंटी पकड़ा दी है जब वो चाहें बजा सकते हैं। चिट्ठी में जो लिखते थे वह हाल समाचार, खुशी, ग़म सब पत्र पढ़ते वक्त जैसे सजीव हो उठते थे। लिखने वाले का चेहरा, हाव- भाव उभरने लगता था। चिट्ठी पत्री के जरीए खासे बहसें वैचारिक मत वाद-विवाद चला करते थे। लेखक-पाठक के बीच एक रिश्ता कायम करने में पत्रों की भी अहम भूमिका रही है। बड़े से बड़े लेखक, कवि, राजनेता आदि कई बार अपनी मतभिन्नता को मिटाने के लिए पत्र-व्यवहार का ही सहारा लिया करते थे। जो आज खासे महत्व के माने जाते हैं। चिट्ठी-पत्री एक तरह से दस्तावेज भी हुआ करती थीं। लेकिन जैसे- जैसे तकनीक का हमारे जन-जीवन में दखलअंदाजी शुरू हुई हम धीरे-धीरे आलसी होते चले गए। जहां कभी महिने में तीन चार चिट्ठियां पिता-पुत्र के बीच हुआ करती थीं। वह घिसते-घिसते दो, फिर एक और यह अंतराल दो महिने में एक और आखिर में दोनों ही ओर से चिट्ठियों का सिलसिला बंद हो गया। तर्क यह दिया जाने लगा कि फोन पर तो बात हो ही जाती है। कौन लिखने बैठे? जितनी देर में एक चिट्ठी लिखूंगा उतनी देर में तो ढेर सारी बातें हो जाएंगी। इस तर्क ने हमें किस- किस स्तर पर खरोचा है इसका जिक्र यहां आवश्यक नहीं है। किंतु मोबाइल ने हमें बेवजह झूठ बोलने, बहाने मारने की तालीम दिया। इसका एहसास हमें हो न हो, लेकिन सच्चाई तो यही है कि हम होते कहीं है लेकिन बताते कहीं और हैं। उस पर यह पूछने वाले पर गुस्सा भी आता है कि कहां हैं? पिछले दिनों मुझे कुछ चिट्ठियां लेटर बाॅक्स में डालनी थी। इस बाबत मैं लेटर बाॅक्स की तलाश में पूरे इलाके में चक्कर काट आया। लेकिन कहीं लेटर बाॅक्स नहीं मिला। हां ईजी रिचार्ज के बाॅक्स जरूर नजर आए। जहां गाहे बगाहे फोन, इंटरनेट के बिल भरा है। मैं तंग आकर जस्ट डाॅयल हेल्प लाईन को फोन कर पूछा कि मेरे इलाके में लेटर बाॅक्स कहां पर है? उसने पोस्ट आॅफिस का पता तो बताया, लेकिन मेरे आस-पास लेटर- बाॅक्स का पता बताने में असमर्थता जाहिर की। आखिरकर मैंने अपने इलाके के डाक घर जाकर पूछने की ठानी। वहां पहले तो मेरे सवाल पर ही मुख्य डाकमास्टर हॅंस पड़े, गोया मैंने क्या पूछ लिया? फिर शांत होने पर बताया कि आपके इलाके में लेटर बाॅक्स पहले था, लेकिन हर बार वहां के बच्चों ने तोड़ दिया। कोई देखने भालने वाला नहीं है। इसलिए दुबारा नहीं लगा। वैसे भी आपके इलाके में कम ही डाक आते-जाते हैं। बिलावजह एक आदमी का श्रम बेकार जाता था। यह भी कितनी अजीब बात है कि कुछ मुख्य डाक घर को छोड़कर शहर के अन्य डाक घरों में दिन भर में मुश्किल से चार पांच ग्रहाक ही आते हैं। इन्हीं चीजों को ध्यान रखते हुए सरकार ने कुछ साल पहले डाक घरों में न्यू ईयर के कार्ड, कुछ अन्य टिकट रखने एवं बेचने के साथ ग्राहकों को आकर्षित करने वाली सरकारी योजनाओं, बचत खाते आदि खोलने की व्यवस्था की थी। यह तो नहीं मालूम सरकार की यह कोशिश क्या रंग लाई। लेकिन इतना तो साफ है कि जिस रफ्तार से चिटठी- पत्री हमारे आम जन जीवन से दूर हो रही हैं ऐसे में एक समय ऐसा भी आएगा जब डाकिया, डाक घर और लेटर बाॅक्स महज कथाओं में सिमट जाएंगी। डाक का न आना या लेटर बाॅक्स का नदारत होना यह एक ऐस सामाजिक परिवर्तन की ओर इशारा करता है। जो हमारे बीच से धीर-धीरे ही सही किंतु दूर जा रहा है। यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें पुरानी चीजें अपना अस्तित्व खोकर नए रंग रूप में ढलने पर मजबूर होंगी। जो नहीं ढलेगा वह कैसे बचेगा। श्रीकांत वर्मा की कविता उधार लेकर कहूं तो ‘जो रचेगा वह कैसे बचेगा’ चिट्ठी, ख़तूत, पत्र एवं ऐसे ही अन्य और भी समानार्थी शब्द मिल सकती हैं जिसमें हमारा अतीत बंद हुआ करता था। किताबों के बीच छूपा कर प्रेम पत्र देना, पढ़ना, लिखना हमारी स्मृतियों में रची बसी हैं। साहित्य में चिट्ठी का खास स्थान रहा है। कालिदास हों या जायसी, भ्रमर गीत हो या विनय पत्रिका या अन्य आधुनिक काव्य धारा। हर जगह चिट्ठी अपनी छाप छोड़ती रही है। नेहरू ने जेल से इंदिरा को जो पत्र लिखा वह आज भी प्रासंगिक है। ‘पिता का पत्र पुत्र के नाम’ या फिर अब्राहम लिंकन के ख़त आज भी हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी लिखी चिट्ठियां समाचार प्रेषित करने का माध्यम मात्र नहीं थीं बल्कि वह संवाद स्थापित करने में खास भूमिका निभाती थीं। वह संवाद चाहे पुत्र या पुत्र के साथ हो या आम जनता के साथ वह एक सशक्त माध्यम तो था ही। यहां तक कि प्राचीन भारतीय सभ्यता पर नजर डालें तो पाएंगे कि संदेश पहुंचाने का काम पहले हरकारे किया करते थे। वो चिट्ठी यदि आम जनता को संबोधित होती तो जोर जोर से पढ़ कर सुनाया जाता। हरकारे पैदल, घोड़े से चला करते थे। जैसे ही हमारे पास तकनीक आया वैसे वैसे संदेश के माध्यम में बदलाव देखा जाने लगा। हिंदी फिल्मों में इस चिट्ठी को लेकर हर काल खंड़ में गीत लिखे गए। एक तरफ ‘चिट्ठयां हो तो हर कोई बांचे भाग्य न बांचे कोए,,,’सुन सकते हैं वहीं ‘चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई। बड़े दिनों के बाद हम बेवतनों को’,,,,साथ ही नब्बे के दशक में ‘चिट्ठी आती है, हमें तड़पाती है, लिखो कब आओगे,,,कि ये दिल सूना सूना है।’ चिट्ठी को लेकर एक और बेहद संजीदा ग़ज़ल हालांकि प्रकृति से रहस्यवादी एवं जीवन के उस पहलू की ओर हमारा ध्यान खींचती है जिसे हम बड़ा ही भयावह मानते हंै। वह है मृत्यु। किंतु यह गीत जिं़दगी से रु ब रु कराती है ‘चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश, जहां तुम चले गए। इस दिल पर लगा के ठेस कि हां तुम चले

Friday, February 11, 2011

रंजिश नहीं

शिकायत तुम्हे है मुझ से,
गिला नहीं मुझे तुम से,
कुछ बात रही दरमियाँ,
और फासले पसर गए।

Monday, February 7, 2011

संतो

संतो

-कौशलेंद्र
प्रपन्नआत्मा तो अमर है न बाबा। तो क्या आत्मा मरती भी नहीं? बाबा, फिर तो जनमती भी नहीं होगी आत्मा? आपका शास्त्र क्या कहता है बाबा? बाबा मौन थे। बस लगातार संतो बोले जा रहा था। यानी बाबा, मैंने जो प्यार किया वह भी नहीं मरेगा? लेकिन मेरा प्यार तो दम तोड़ दिया बाबा। इसका क्या मतलब? प्यार आत्मा नहीं है? प्यार मरणशील है? क्योंकि प्यार होता है यानी जनमता है तो वह फिर मरेगा भी। यही कहना चाहते हैं बाबा? पेड़ के नीचे ही अपनी धुनी रमाए बैठने वाले बाबा को संतो ने पकड़ लिया था। बाबा चाह कर भी उससे अपना पिंड़ नहीं छुड़ा पा रहे थे। बाबा! ईशोपनिषद्् में यही कहा है न कि आत्मा जगत् में मौजूद हर चल- अचल वस्तुओं, जीव-जंतुओं आदि में होती है। इसका मतलब यही हुआ न कि चाकू, ब्लेड, रस्सी हर चीज में आत्मा है। हमारी नस- नाड़ियों में भी वही आत्मा वास करती है। जब तक आत्मा ब्लेड़ या रस्री में है तभी तक वह आत्मा हमारी नस- नाड़ियों में बहने वाली आत्मा से अलग है। पर हम बाबा आत्मा को अलग करने वाले कौन होते हैं? बस बाबा। बस। मैं समझ गया। पेड़ और सड़क के किनारे खड़ा पोल यहां तक कि चायवाला, बस का कंडक्टर सब की नजरें बस एक चेहरे की तलाश में खामोश थीं। लेकिन वह चेहरा कहीं नहीं मिला। अचानक नहीं गायब हुआ था संतोष। बल्कि गुप्ता जी ने उसे सड़क से उठवाया था। सभी तो उसके साथ थे। लेकिन कोई भी साथ नहीं था। या सभी के होते हुए भी किसी का नहीं था। वह सबसे अलग था। पेड़ से लिपटकर भी पेड़ को अपना न बना सका। शायद अपना बनाने की कला उसे नहीं आती थी। ‘वह सब के बीच रह कर भी किसी का न हो सका।’ पेड़ ने ज़रा हिलते हुए अपनी बात रखी।‘जब तक जहां रहा लोगों ने उसे चाहा भी और नापसंद भी किया।’‘वह लोगों को तो हंसाता था, लेकिन कब लोग उसकी बात पर पीठ पीछे हंसते उसे मालूम ही नहीं चलता।’ पेड़ अपनी बात गोया वहां खड़े लोगों को बताना चाहता हो।जब भी दूर चला जाता उसे याद करने वाले बेहद ही कम लोग होते। जो याद करते वो बस इसलिए कि सीधा-साधा इंसान है। आज की चाल से बेखबर। किसे पता चल पाया कि आखिर के दिनों में उनके बीच क्या पसर गया था कि वो साथ होते हुए भी एक फांक के साथ रहे। संतो को जब भी उसकी बात याद आती ‘तुमने मुझसे जो वायदे किए थे कि मैं ये कर लूंगा, वो कर लूंगा। मैं तो वही देख रही हूं। लेकिन मुझे नहीं दिखता। मैं ऐसे पिछड़े इंसान के साथ नहीं रह सकती। मैं जीवन में सफल व्यक्ति के साथ शादी करना चाहती हूं। तुम जैसे स्टील स्टगलर के साथ अपना जीवन बरबाद नहीं कर सकती। जब मुझे अच्छे लड़के मिल सकते हैं, बल्कि मिल रहे हैं। तो फिर मैं क्यों तुम्हें लूं ? मैं उसे क्यों न लूं जिसकी अच्छी सेलरी, लाइफ स्टाइल और समाज में एक स्थान है। तुम्हारे पास मुझे देने के लिए है ही क्या। सिवाए शब्दों के।’ संतो जब बेचैन होता तो सीधे बाबा के पास पहुंच जाता। अपनी पूरी टीस उनके सामने खोल देता। बाबा को उसने यह सब क्यों बताया यह तो संतो ही बता सकता था। लेकिन बाबा के पास बैठ कर कुछ देर वह सांस ले पाता था। शायद यह एक वजह हो कि संतो अक्सर चुप रहता। बस उतना ही बोलता जितने से काम चल जाए। यह तो उसे भी खुद मालूम था कि जो उसने बोला वह पूरा नहीं कर पाया। और देखते ही देखते दस साल कैसे गुजर गए उसे एहसास बहुत बाद में हुआ। जब पानी नाक तक छू चुका था। और अंत में वह बेखबर ही रह गया। उसके लिए भी जिसको उसने अपने करियर, जिंदगी, रिश्तों और सबसे अलग और खास माना। उसे जिन दिनों करियर बनाना था, जिंदगी संवारनी थी। उसने इन पर ध्यान देने की बजाए उसे खुश रखने, मिलने- जुलने और गैरजरूरी चीजों में लगा रहा। यही कारण था कि वह उससे भी छिटकता चला गया। दूर जाने या होने की शुरुआत कब हुई इसका एहसास तब हुआ जब हाथ से तोता उड़ चुका था। उसने संतो को धोखे में कभी नहीं रखा। शुरू से ही कहा करती थी कि जब तुम सफल हो जाओगे तब शादी करूंगी। नहीं कर सके तो उसमें तुम दोषी होगे मैं नहीं। अब काफी वक्त गुजर चुका है। इंतजार की मेरी अपनी सीमाएं हैं। ‘सुन रहे हो संतो!’गोया संतो के पांव के नीचे से जमीन खिसक गई हो। बस पलकें जल्दी-जल्दी मटमटाने लगा था। उसने बीच में टोका भी, ‘क्या हुआ गुस्सा आ रहा है?’‘बोलो अपनी बात भी रखो।’लेकिन वह एक ही बात पर अटक गया था। ‘मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। मुझे अकेला मत छोड़ो। तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी का कोई मतलब नहीं।’ और बोलते-बोलते सांसे तेज हो जातीं। आवाज तेजी के साथ लड़खड़ाने लगती। ‘क्या हुआ तबीयत तो ठीक है? मैं तुम्हें दुखी नहीं देख सकती। लेकिन तुम्हारे साथ रहना मुश्किल है।’ डसकी आवाज और शब्दों में स्थिर चित्त की झलक मिल रही थी। कभी समझाने की कोशिश करती तो कभी थोड़ी कड़ाई से बात रखती, ‘रोने या प्यार की भीख मांगने से नहीं मिलता। जितना मैं साथ दे सकती थी। मैंने दिया। लेकिन अब जी भर चुका है। वैसे मैं तुम्हारे साथ हमेशा हूं। बेशक तुमसे शादी न करूं।’ ‘चलो मैं देती हूं कुछ और समय। लेकिन जो पिछले दस साल में नहीं कर पाए क्या भरोसा है कि दो तीन महीने में वो सब कुछ कर लोगे। कोई कारू का खजाना मिल जाए तो शायद सोच भी सकते हैं। बस मैं इसलिए समय दे रही हूं कि कल को मुझे दोषी न ठहराओं की मैं छोड़ कर चली गई। बल्कि इसके जिम्मेदार तुम खुद होगे। वैसे भी किस मुंह से मुझे कोसोगे, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मैंने कितना त्याग किया। लाइफ में मैंने कभी समझौता करना नहीं जानती थी। लेकिन तुम्हारे साथ रह कर मैं समझौता और पैसे की कमी में कैसे घुट घुट कर जीया जाता है यह जरूर भोग चुकी हूं। वैसे तुम किस मुंह से मुझ से शादी की बात करते हो। ज़रा अपने दिल पर हाथ रख कर पूछो कि क्या तुम्हारे साथ मुझे शादी करनी चाहिए?’अंतिम समय में उसके और संतो के बीच इन पंक्तियों ने बसेरा बना लिया था। जब भी संतो को उसकी बातें याद आतीं बस अचानक बैठे-बैठे आंखों से झर-झर आंसू बहने लगते। बहुत पूछने पर भी कुछ नहीं बताता था। बस बस स्टैंड की ओर मुंह किए एक टक देखता रहता। कि शायद वो उसी स्टाॅप पर किसी दिन उतर कर उससे मिलने आएगी। लेकिन संतो की टंगी निगाहें अंत तक वैसी ही टंगी रह गई। पेड़ चुप। चैराहे के खम्भे पर जलती वेपर लैंप खामोश था। चाय की दुकान पर सुबह बैठने वाले भी चाहते थे कि कुछ तो पता चले क्या हुआ संतो को? चारों ओर नजरें दौड़ाने के बावजूद भी वह चेहरा नजर नहीं आया। उसकी मैली कुचैली चादर और फटे कपड़े डाल पर टंगे फड़फड़ा रहे थे। पेड़ ने अपने झड़े पत्तों और फिर पतझड़ के समय अपनी नंगी डालें दिखाते हुए संतो से बड़ी ही आत्मीयता से कहा था, ‘इंतजार कर संतो, देखना फिर मेरी डालें हरी- भरी हो जाएंगी।’‘बसंत फिर इन डालों से लिपट अटखेलियां करेगी।’ ‘मुझे देखो, कितनी खरोचें, घाव, वार सहता हूं। लोग अपनी पेट की आग बुझाने के लिए या पैसे की लोभ में काट कर ले जाते हैं। लेकिन फिर भी तन कर खड़ा हूं।’ ‘मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन मेरे सूखे डालों पर भी हरियाली छाएंगी।’ लेकिन संतो के दिमाग में एक ही बात बार-बार कौंध जाया करती जो उसने आखिरी मर्तबा उसके मुंह से सुना था- ‘किसी के लिए मर तो नहीं जाओगे। लाखों लोग मरते हैं। लेकिन उनके साथ कोई मरता तो नहीं।’ ‘तुम अपनी लाइफ बरबाद मत करो। तुम भी किसी से शादी कर लो।’‘साथ रहते- रहते तो इंसान को पत्थर, पेड़- पौधों से भी प्यार हो जाता है। फिर वो तो इंसान होगी। वो भी तुम्हें बहुत प्यार करेगी।’ ‘मुझ में ऐसी क्या खास बात है जो मेरे पीछे पागल की तरह कर रहे हो।’ ‘औरत सिर्फ औरत होती है। पहली दूसरी महज संख्याएं बदलती हैं। भावनाएं कहां बदल पाती हैं। हर औरत को पति के सामने बिछ जाना ही होता है।’’औरत की इच्छा हो न हो यह मायने नहीं रखता। वह अपने पति को मसलने, मरोड़ने निचोड़ने से कभी रोक नहीं पाती।’‘फिर तो शारीरिक बनावट और प्रकृति है आगे जो भी घटता है उसमें औरत को साथ देना ही पड़ता है।’‘मैं भी तुम्हें भूल नहीं सकती। जब तक सांसें चलेंगी तुमसे दूर नहीं हो सकती। लाख मैं दूर रहूंगी, लेकिन तुम्हें दुखी नहीं देख सकती।’ जब- तब संतो एकांत में जोर- जोर चिल्लाने लगता-‘तुम अपना निर्णन लेने में स्वतंत्र थी। तुम्हें जो अच्छा लगा वो तुमने लिया। मैं भी अपनी जिंदगी के फैसले लेने में आजाद हूं। मैं किसी और के साथ अब नहीं बांट सकता।’उसकी इन एकल संवादों को सुनने वालों में कुत्ता, पेड़, लैंप, बस स्टैंड होते थे जिसे सुनना था वही नहीं थी। ‘ओफ्!’ अब तो संतो की ईट से लिखी सड़कों पर कुछ तारीखें, कुछ घटनाओं का वर्णन शेष रह गए हैं। उसे कुछ भी परवाह नहीं रहता। जब वह बीच सड़क पर लिखने में तल्लीन होता। गाड़ियां लाख हाॅन बजातीं रहतीं, लेकिन तब तक वह अपना लेखन नहीं छोड़ता जब तक पूरा नहीं कर लेता। कहने को वह मानसिकतौर से विक्षिप्त- सा था। लेकिन बिना किसी वजह के किसी को भी गाली- गलौज नहीं करता था। लोग उसे वकील कहा करते थे।कभी- कभार बाबा रामदेव को कहीं नवली चालन करते देखा होगा सो कभी सुर पकड़ता तो नवली करने लगता। साथ ही रोज़ वह जगदीश की चाय दुकान पर प्लास्टिक का मग लेकर हाजिर हो जाता। काफी दिन तक उसकी मिट्टी पड़ी रही। पिछले पंद्रह दिनों से किसी ने उस बाॅडी का क्लेम नहीं किया था। सो पुलिस भी परेशान कि इस बाॅडी को कब तक रखें। सोलहवें दिन पुलिस क्रिमेशन करने वाली थी। लेकिन उसकी लाश इतनी भी खराब नहीं थी कि अपरिचित लोगों के हाथों पंचतत्व में विलीन हो। गुप्ता जी को किसी ने बताया अस्पताल में एक लावारिश लाश पड़ी है। हो न हो संतो हो। बस इतना सुनना था कि गुप्ता जी सब कुछ छोड़कर अस्पताल पहुंच गए। पुलिसिया कार्यवाई के बाद चेहरा देखा जो वीभत्स हो चुका था। कोई भी पहचान नहीं सकता था। अचानक गुप्ता जी को उसके दाहिने हाथ पर लिखा नाम दिखा उसके बाद उन्हें ज़रा भी शक नहीं हुआ कि यह संतो नहीं है। जब दाहसंस्कार के लिए श्मशान घाट जाने की बात आई तो चार कंधे तैयार नहीं हुए। सभी बहाना बना कर पीड़ छुड़ा गए। बहुत देर बाद एक रिक्शा वाला ब्रजमोहन ने कहा,‘क्या किस्मत थी संतो की कि अंतिम यात्रा पर जाने के लिए चार कंधे भी मयस्सर नहीं।’और सिर पर अंगोछा बांध कर खड़ा हो गया। दाह संस्कार के बाद गुप्ता जी ने विधिवत मुंड़न कराया। जितना बन सकता था उन्होंने संतो के लिए किया। वैसे सब यही सोचते थे कि आखिर गुप्ता जी यह सब क्यों कर रहे हैं? संतो आखिर उनका लगता ही क्या था? लेकिन इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं था। शायद उन्होंने एक दुकानदार का फर्ज निभाया था। जब संतो अच्छा भला था तब वह उनकी दुकान से उसके लिए चाॅक्लेट, बिस्कुट आदि खरीदा करता था। उनकी दुकान पर लगा टेलिफोन गवाह है कि उसने कौन- सी घटना यहां साझा नहीं की थी। घर-परिवार, अपनी लाइफ की प्लानिंग वगैरह वगैरह।कहीं और जा कर भी कहां पहुंचा/दूर जा कर भी यहीं कहीं भटकता रहा/प्यार में संवरा तो नहीं/बिखरता ही रहा/कभी खुद पर हंसता रहा/खिल्ली उड़ाता रहा/लेकिन उसे न हंसा सका। भाग कर भी क्या जा सका कहीं/न उससे दूर जा सका/न स्मृतियों से मिट ही सका।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...