Wednesday, May 22, 2013

तो क्या निराश हुआ जाए
इस वाक्य को सुन कर तकरीबन बीस एक अध्यापकों ने एक स्वर में कहा नहीं। निराश होने की आवश्यकता नहीं। हां यही वाक्य उस वक्त सहारा बना जब कक्षा में संवाद कर रहा था। उनके सवाल, उनकी चिंता, उनकी खीझ, उनकी बेचैनी को सुनते वक्त कुछ पल के लिए लगा मैं उनके दुखते रगों पर हाथ धर दिया। उनकी पीर थोड़ी और दर्दीली हो गई। लेकिन अपनी पीड़ा कह चुकने के बाद सभी बड़े खुश और राहत महसूस रहे थे। बल्कि एक महिला ने कहा भी कि आपसे अपना दर्द साझा कर बहुत अच्छा लग रहा है। वरना हमारी बात सुनता ही कौन है।
दो दो घंटे के सत्र में कई बार ऐसा भी वक्त आया जब मैं ख़ुद को असहाय अनुभव किया। क्योंकि कई बार उनकी बात सोलहो आने सच थे मगर मैं भी कुछ दिलासों, राहत एवं उम्मीद की रोशनी बांटने के सिवा कुछ और नहीं कर सकता था।
सच मायने में यदि यह वर्ग निराश या हताश है तो इसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। क्योंकि इन्हीं के कंधों पर हमारे बच्चे बैठे हैं। ये जैसी दुनिया दिखाएंगे बच्चे संभवतः वैसी ही दुनिया देखेंगे।
फिल्म और बच्चों की दुनिया

‘लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा घोड़े के दुम पे जो मारा हथैाड़ा दौड़ा दौड़ा....’खिलखिलाती अपनी धुन में गाती गुनगुनाती लड़की आज भी इस गाने को सुनते आंखों के आगे घूमने लगती है। वहीं एक दूसरे गाने के बोल उधार लेकर कहूं ‘मां मां मां सुनाओ मुझे वो कहानी जिसमें राजा न हो ना हो रानी...जहां परियां हों आसमानी...’इन गानों की मदद से आगे बढ़ता हूं। इन गानों में समय के साथ साथ बच्चों की मांगों, भूमिकाओं में बदलाव तो आए ही हैं साथ ही बच्चे ज्यादा मुखरता से अपनी दुनिया की झलक देते हैं। वहीं एक ऐसा बच्चा हमारा ध्यान अपनी ओर कुछ इस तरह खींचता है-‘बादल आवारा था वो कहां गया उसे ढूढ़ोंकृहर इक पल का जश्न मनता..’ यह गाना और फिल्म तारे जमीं पर बच्चों की बदहाल स्थिति से रू ब रू कराती है। हर बच्चा खास होता है और बच्चे की अपनी दुनिया। बच्चे की इस दुनिया को हम वयस्क कितनी गंभीरता से लेते हैं इसकी झांकी समय समय पर फिल्मों में मिलती हैं। लेकिन अफसोस की ज्यादा तर फिल्मों में बच्चों का इस्तेमाल महज खाली स्पेस को हलका करने व तलाक जैसे दर्दीले वक्त में लड़ाई के सूत्र के रूप में किए जाते हैं। बहरहाल बच्चों को फिल्मों में किन किन छवियों में कैद किए जाते हैं इसकी पड़ताल जरूरी है। क्योंकि इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कुछ फिल्मों ने बच्चों को लेकर अच्छा और धारदार बहस की शुरुआत की। बच्चों की समस्याओं को लेकर सरकार, न्यायपालिका, जनसमुदाय में एक जागरूकता भी आई।
फिल्मों से समाज का रिश्ता लंबा और काफी करीब का रहा है। कहते हैं कि फिल्मों में वही प्रतिबिंबित किया जाता है जो समाज में घटता है व घट रहा है। इसीलिए फिल्म को समाज का दपर्ण भी कहा गया है। इसमें ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं है। उदाहरण देखने निकलें तो कई फिल्मों की एक लंबी सूची बन सकती है जिसमें समाज, इतिहास, संस्कृति, भाषा आदि की तत्कालीन करवटें, दर्द-पीर साफ सुने-देखे जा सकते हैं। सचपूछें तो हिन्दी सिनेमा में कई फिल्में बड़े प्रसिद्ध उपन्यास, कहानी पर आधृत रहे हैं और उनका महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। पथेर पांचाली, हजार चैरासी की मां, पींजर, पीली छतरी वाली लड़की आदि। जैसा कि पहले भी निवेदन किया जा चुका कि फिल्मों की सूची लंबी हो सकती है। इसलिए यहां सूची बनाने की बजाए उन फिल्मों व दूसरे शब्दों में कहें तो फिल्मों की बुनावट में बच्चा-समाज कहां ज़ज्ब है, उसकी पहचान की जाए। किन्तु यहां स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि आलेख में हम फिल्म और बच्चे के द्वैत की गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करेंगे। क्योंकि बच्चे हमारे समाज के वो दलित, उपेक्षित वर्ग हैं , बल्कि हैं भी, की पहचान फिल्मों में की जाए। इसी मनसा से हिन्दी फिल्मों में बच्चे किस रूप, व्यक्तित्व, रंग एवं भूमिका के साथ इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, इसपर विमर्श करना है। यहां यह भी स्पष्ट कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि दुनिया के हर बच्चे को 0 से 18 आयु वर्ग को वो तमाम अधिकार प्राप्त हैं जो एक आम नागरिक को संविधान प्रदान करता है। किन्तु अफसोस की बात यही है कि इन सांवैधानिक प्रावधानों के बावजूद बच्चे हमारे समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग नजर आते हैं। उस पर तुर्रा यह कि फिल्म निर्माताओं, निर्देशकों के तर्क यह होते हैं कि दर्शक यही देखना चाहता है। यह पूरा सच नहीं है। समाज की धड़कनों, करवटों, छटपटाहटों को एक व्यापक फलक पर लाना और एक वृहद् विमर्श खड़ा करना भी फिल्म का सरोकार है।
अपना शहर और वो नदी
हां सही कह रहा हूं अपना शहर छूट कर भी नहीं छूटता। वो नदी सूखकर भी नहीं सूखती जिसकी कभी लबालब पानी भरा रहता था। पानी के सूखने के बाद भी रेत पर दौड़ते कुछ दूर तक जाना और पानी की आस में घूटने भर पानी में छप छप करना कहां छूट पाता है। न शहर छूटता है और न नदी।
एक नदी हम सब के अंदर बहा करती है। जिसका पानी साफ निर्मल और पारदर्शी होता है। मगर समय के साथ हमने उसको गंदला कर दिया। ताकि कोई हमारी तलहट्टी न देख पाए। सच कहूं तो वो नदी, वो शहर जहां बचपन गुजरे वो कभी पीछे नहीं छूटता। ताउम्र हमारी स्मृतियों में छलकती रहती है।
उदास मना शिक्षक
गर्मी की छुटिटयों में दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग 'इन सर्विस प्रशिक्षण कार्यशालाएं आयोजित कर रही हैं। इन कार्यशालाओं में जीवन कौशल, संप्रेषणीयता, पाठयक्रम, सुरूचिपूर्ण कक्षा अध्यापन, सृजनात्मक लेखन, शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 आदि पर विशेष प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इसके पीछे उददेश्य यही है कि अध्यापकअध्यापिकाएं अपनी दक्षता में वृद्धि कर सकें और स्कूल खुलने पर कक्षा में इस्तेमाल कर सकें। इसका लाभ सीधे-सीधे बच्चों को मिल सके। इन पंकितयों के लेखक को इस कार्यशाला में शिक्षा का अधिकार अधिनियम, जीवन कौशल और सृजनात्मक लेखन पर बातचीत करने का अवसर मिला। तकरीबन 900 अध्यापकअध्यापिकाओं से रू ब रू होने के बाद जो हकीकत सामने आर्इ वह यह कि अध्यापक वर्ग बेहद निराश एवं उदास हैं। उनकी उदासी, निराशा का कारण प्रशासनिक एवं नीतिगत स्तर पर थीं। मसलन शिक्षा के अधिकार अधिनियम बनाते वक्त अध्यापकों की राय क्यों नहीं ली गर्इ। वास्तव में एक कक्षा में 60 से लेकर 80 और 100 बच्चों की उपसिथति और अध्यापक एक। इतने बच्चों को एक अध्यापक कैसे पढ़ा सकता है। सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करती है लेकिन हमारा अधिकांश वक्त कागजी कामों को अंजाम देने में बीत जाता है आदि। इसी तरह की प्रतिकि्रयाएं इन कक्षाओं में सुनने को मिलीं।
सांस लेने की छटपटाहट
शिक्षक जाति में सभी निराश एवं हताश ही हैं ऐसा कहना एक तरह से पूरी प्रजाति के साथ सरलीकरण होगा और ग़लत भी। यह तो हर व्यवसाय में होता है। सभी अपने धंधे से संतुष्ट हों। असंतोष की भावना हर व्यवसाय में देखी जाती है। लेकिन उन्हीं के बीच कुछ फीसदी ऐसे भी कर्मी होते हैं जिन्हें अपने व्यवसाय की निष्ठा, जिम्मेदारी का भरपूर ख़्याल रहता है। ऐसे ही जैसे कि पहले आलेख में उदास मना शिक्षक में लिख कि अध्यापक वर्ग में निराशा ज्यादा है। वहीं 10 फीसदी ऐसे उत्साही शिक्षक भी हैं जो पूरी ईमानदारी के साथ अपना शिक्षक धर्म निभा रहे हैं। यह अलग बात है कि इनकी संख्या कम है। ऐसे ही तकरीबन हर क्लास में दो चार अध्यापक/अध्यापिकाएं मिलीं जिन्हें कक्षा में न पढ़ा पाने का मलाल भी साल रहा था। उनका कहना था मैं पढ़ाना चाहती हूं। लेकिन पिछले एक साल से क़ागजी कामों में उलझी हुई हूं। कई बार लगता है आई तो पढ़ाने थी लेकिन यह क्या कर रही हूं। वहीं एक मास्टर जी ने भी अपनी व्यथा बयां की कि मैं कक्षा में पढ़ाने डूब जाता हूं। बच्चे आनंद लेते हैं लेकिन तभी अक्सर हेटमास्टर साहब की बुलालट आ जाती है और मेरा अध्यापन बीच में ही ठहर जाता है।
उम्मीद की रोशनी और सांस लेने की छटपटाहट ही व्यक्ति को जि़ंदा रखता है। जब तक ऐसे अध्यापक समाज में हैं तब तक उम्मीद पूरी तरह से ख़त्म नहीं मानी जा सकती।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...