Saturday, August 27, 2011

संसद में शरद भड़के बॉक्स यानि टीवी न्यूज़ चैनल पर

शरद जी ने कहा तिरंगा का खुल कर माखौल उदायाजा रहा है. रात में  भी तिरंगा लेकर लोग घूम रहे हैं. वहीँ शरद  ने अपनी नाराजगी न्यूज़ चैनल को ले कर अपनी एसिडिटी निकाली. 
यह अलग बात है  की न्यूज़ घराना काफी तेज़ी से साख खोटी रही है चाहे वो मर्डोक की वज़ह से हो या और दुसरे जरिये....
मगर न्यूज़  घराने से लोग डरते और बचते रहे हैं. लेकिन इस की भूमिका जो कुछ साल पहले थी अब कुछ सुधर के साथ है.
पूर्वग्रह ज़ल्द नहीं धुलता तो खामियाजा कुबूल करना होगा.

Wednesday, August 17, 2011

इक आवाज़ इक उम्मीद का नाम अन्ना

अन्ना फैशन नहीं हैं. कभी सुना था की कुवर बाबु को कहा जाता था अस्सी saal की उम्र में भी तलवार चमकती थी. विरोधियों के दांत खाते कर देते थे. ठीक वाही हाल है अन्ना जी में.
अन्ना  जी की इक आवाज़ में वो माद्दा है जो तमाम युवा और सभी पीढ़ी को इक धागे में पिरो दें. बल्कि पुरो रहे हैं. 
इन आगाज़ को   देख कर इक बार गाँधी की याद दिलाते हैं.
अगर दिल में  न हो किसी भी तरह के पेच तो मजाल है कोई उस आवाज़ को दबा दे.
जब आवाज़  उठेगी तो उसकी उष्मा में दाग पिघल कर पानी होना ही होगा.  

Sunday, August 7, 2011

खुदा ने फरमाया,

खुदा ने फरमाया,
बता तेरी राजा क्या  है,
थोड़ी आखें झुका,
बोला,
मेरे दोस्त की आखें,
महफूज़ रखना,
दर्द, पीर और अश्रु न छु पायें,
उन आखों में लरजते प्यार औ मनुहार,
फबते हैं....
खुदा ने कहा कुछ नहीं बस, 
सर पर हाथ फेर गायब हुवे,
आमीन  
        

Saturday, August 6, 2011

मर्डोक के कब्र पर इक अर्जी

मर्डोक के कब्र पर इक अर्जी 

या खुदा आपकी करनी पूरी दुनिया के पत्रकारिता को इक रंग में रंग  गया. 
न्यूज़ ऑफ़ थे वर्ल्ड बंद हवा,
कुछ जो साँस ली रहे थे, 
उन्हें बचाया जा सकता है.     

इक बूंद जो अब की तब -कब .....

  इक बूंद जो अब की तब -कब ..... 
जीवन में हमारे कई काम और कई प्रोजेक्ट यूँ ही लटके होते हैं अनिर्णय के शिकार. पकने की प्रतीक्षा में. आसमान से तो टपक गए लेकिन बिजली के तार पर लटक गए. कब टपकेंगे. इंतज़ार में होते हैं.
हम वेट करते हैं कब गिरोगे मेरे दोस्त ,  और कब तक इंतज़ार करना होगा. पके फल पेड़ से गिरते हैं तब न पेड़ रोता है और न फल.
दोनों को पता होता है गिरना तो है मगर समय पर. समय से पहले कोई बिछुड़ जाए या चाहए रुक्षत तो पीड़ा तो होगी ही.
इस अलगावो को कोई मुकम्मल नाम देना कोई ख़ास मायेने नहीं पर इस टपकने की हुक  टा उम्र सहनी पड़ती है.       

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...