Friday, November 28, 2014

सरकारी स्कूलों को भी गोद लीजिए


कौशलेंद्र प्रपन्न
माहौल बन चुका है। प्रधानमंत्री जी के पहल पर मंत्रियों और सांसदों से अनुरोध है कि जिस तरह से आदर्श गांव निर्माण के लिए गांवों को गोद लिए जा रहे हैं उसी तर्ज पर यदि सरकारी स्कूलों को भी गोद लिया जाए तो हमारे सरकारी स्कूलों की भी कायापलट हो सकती है। यह तथ्य किसी से भी छूपा नहीं है कि हमारे सरकारी स्कूलों को एक सिरे से नकारा साबित करने में तमाम कोशिशें की जा रही हैं। सच यही है कि आज भी गांव देहात में बच्चे सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर हैं। यह अलग बात है कि जो सरकारी स्कूल गांव- कस्बों में चल रही हैं वो किस हालात में जिंदा हैं इस ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है। सिर्फ और सिर्फ सरकारी स्कूलों के हिस्सा घृणा और उपेक्षा ही मिलती है। यह कितना बेहतर हो कि हमारे स्थानीय निकाय के लोग और सिविल सोसायटी के लोग अपने आस-पास के सरकारी प्राथमिक स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए आगे आएं।
दिल्ली के वेस्ट पटेल नगर में 22 ब्लाॅक में टीन और अल्बेस्टर के नीचे नगर निगम प्रतिभा विद्यालय चल रहा है। इस स्कूल में कई बार हादशे हो चुके हैं। यहां की प्रधानाचार्या ने बताया कि कई बार प्रार्थना के वक्त तो कई बार कक्षा में भी पेड़ और भवन की दीवार गिरने जैसी घटना हो चुकी है। प्रधानाचार्या ने बताया कि इस स्कूल के भवन ‘‘झोपड़ी’’ को खतरनाक घोषित किया जा चुका है। लेकिन अभी तक हम इसी में पढ़ाने के लिए विवश हैं। गौरतलब है कि इस स्कूल में दो स्कूलों के बच्चे/बच्चियां भी पढ़ती हैं। वेस्ट पटेल नगर के 28 एस ब्लाॅक के नगर निगम प्रतिभा विद्यालय के बच्चे भी इसी स्कूल में इसलिए पढ़ते हैं क्योंकि उनके नए बने भवन में दरारें आने की शिकायत आई थी। उसे दुरूस्त करने के नाम पर पिछले दो सालों से उस स्कूल के बच्चे भी इसी स्कूल में सीमित कक्षाओं में बैठते हैं। हालात यह है कि एक कक्षा में दो और तीन कक्षाओं के बच्चे एक साथ बैठते हैं।
वेस्ट पटेल नगर के एस ब्लाॅक की प्रधानाचार्या से बातचीत में पता चला कि इन्होंने जब से भवन में खराबी की शिकायत की है तब से समस्याएं कम होने की बजाए बढ़ी हैं। कई बार शिकायत दर्ज कराने के बावजूद भी कोई देखने वाला नहीं है। नए बने स्कूल भवन में न तो पानी की व्यवस्था है और शौचालय में पानी की भी पूरी आपूर्ति होती है। भवन तो बन गए लेकिन बुनियादी चीजें महज बना दी गईं वो इस्तमाल में नहीं लाई जा सकतीं। स्कूल की दीवार इतनी नीची है कि आस पास के लड़के/ स्थानीय लोग कूद कर अंदर आ जाते हैं और स्कूल की गतिविधियों में व्यवधान पैदा करते हैं। ऐसे में हमारे सरकारी स्कूलों को कौन संभालेगा यह एक गंभीर मसला है।
गंगा को स्वच्छ बनाने के अभियान में जितना पैसा खर्च किया गया और किया जा रहा है काश कि उसका एक अंश भी हमारे सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के लिया मिल पाता तो आज इनकी स्थिति यह नहीं होती। यहां दिल्ली के कुछ स्कूलों की दास्तां बयां की गई है। हम कल्पना कर सकते हैं कि अन्य राज्यों में सरकारी स्कूलों की क्या स्थिति होगी। आरटीई के लागू होने के बाद भी हमारे सरकारी स्कूल तमाम बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। माॅलों के निर्माण में हम पैसे खर्चने से ज़रा भी पीेछे नहीं हटते लेकिन सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने की बात आती है तब हमारा दम फुलने लगता है। तब हम निजी कंपनियों और बाहरी मदद के लिए मुंह ताकने लगते हैं। यदि गंगा को स्वच्छ बनाने और गांव को आदर्श ग्राम के लिए गोद लिए जा सकते हैं तो सरकारी स्कूलों को गोद लेने में हम क्यों हिचकिचा रहे हैं। क्या हमारी प्राथमिका की सूची में स्कूल और प्राथमिक शिक्षा शामिल नहीं हो सकती?
यूं तो निगमित सामाजिक जिम्मेदारी यानी काॅर्पोरेट सोशल रिस्पांसब्लिटी जिसे सीएसआर के नाम से जानते हैं इसके तहत कई सीएसआर गतिविधियां चलाई जा रही हैं। उनमें से टेक महिन्द्रा फाउंडेशन की पहलकदमी को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। टीएमएफ ने पूर्वी दिल्ली नगर निगम के स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बहाल हो सके इसके लिए अप्रैल 2013 में इडीएमसी के साथ एक समझौता पत्र पर दस्तखत किया था। इस बाबत दिलशाद गार्डेन के ए ब्लाॅक में अंतःसेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई। तब से यह संस्थान शिक्षकों की दक्षता विकास को लेकर प्रतिबद्ध है। अब तक इस संस्थान में तकरीबन 1000 शिक्षक और 250 प्रधानाचार्यों की विभिन्न विषयों पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जा चुका है। उसी प्रकार अन्य निजी प्रयास भी सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए चल रही हैं। एक बारगी सरकार के माथे पर ठिकरा फोड़ना तो आसान है लेकिन हमें हमारे निजी और सार्वजनिक प्रयासों पर भी नजर डालना होगा। हमारे माननीय सांसादों, विधायकों की कार्य सूची में सरकारी स्कूलों को कैसे बेहतर बनाया जाए और वो अपने स्तर पर स्कूल को सुचारू बनाने में क्या योगदान कर सकते हैं इसकी योजना बनानी होगी।
स्रकारी स्कूलों में हालात यह हैं कि एक तरफ आरटीई के वकालत और सिफारिशों के बावजूद स्कूलों में पीने का पानी, शौचालय, कक्षा में ब्लैक बोर्ड, खेल के मैदान मयस्सर नहीं हैं। उस तुर्रा यह कि जिसे देखो बिना जमीनी हकीकत को जाने सीधे सीधे सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है इस घडि़याली आंसू बहाने में लगे हैं। कितना बेहतर हो कि स्थानीय नागर समाज अपने पड़ोस के स्कूल को अपनी दक्षता का लाभ मुहैया कराने के लिए आगे आएं। मसलन यदि कोई व्यक्ति एकाउंट, गणित, भाषा, आर्ट एंड का्रफ्ट आदि विषय में अच्छी गति रखता है तो वह सप्ताह या माह में जिस भी दिन उसके पास वक्त हो वह सरकारी स्कूल में बच्चों के साथ अपने अनुभव साझा करंे। स्थानीय नागर समाज अपने सरकारी स्कूलों को गोद लें। सरकार की ओर से जिस तरह की कोशिशें की जा रही हैं उससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं कर सकते।

Wednesday, November 26, 2014

स्कूली शिक्षा में गुणवत्त की बुनियाद



कौशलेंद्र प्रपन्न
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की मांग और अपेक्षा समाज के हर तबकों को है। सामाजिक मंचों और अकादमिक बहसों में भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को केंद्र में रख कर राष्टीय स्तर पर विमर्श जारी है। यह मंथन इसलिए भी जरूरी है , क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सब के लिए शिक्षा का लक्ष्य वर्ष 31 मार्च 2015 अब ज्यादा दूर नहीं है। गौरतलब है कि इएफए और मिलेनियम डेवलप्मेंट लक्ष्य में भी प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता की बात गंभीरता से रखी गई थी। यदि जमीनी हकीकत का जायजा लें तो जिस किस्म की तस्वीरें उभरती हैं वह चिंता बढ़ाने वाली हैं। निश्चित ही हमारे सरकारी स्कूलों में जिस स्तर की शिक्षा बच्चों को दी जा रही है वह मकूल नहीं है। वह शिक्षा नहीं, बल्कि साक्षरता दर में बढ़ोत्तरी ही करने वाला है। यहां दो तरह की स्थितियों पर ध्यान दिया जाएगा जिसे नजरअंदाज कर स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता की प्रकृति का नहीं समझा जा सकता। पहला, पूरे देश में एक उस किस्म के सरकारी स्कूल हैं जिनके पास बच्चे, शिक्षक, लैब, लाइब्रेरी आदि सुविधाएं उपलब्ध हैं। हर साल इनके परीक्षा परिणाम भी बेहतर होते हैं। स्कूल की चाहरदीवारी से लेकर पीने का पानी, शौचालय आदि बुनियादी ढांचा हासिल है। दूसरा, वैसे सरकारी स्कूल हैं जहां न तो पर्याप्त कमरे, पीने का पानी, शौचालय, खेल के मैदान, खिड़कियों में शीशी, दरवाजों में किवाड़ हैं और न बच्चों के अनुपात में शिक्षक। ऐसे माहौल में यदि कहीं किसी स्कूल में कुछ अच्छा हो रहा है तो उसे समाज में लाने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि सकारात्मक सोच को बढ़ावा दिया जाए। उनकी कोशिशों को सराहा जाए। बजाए कि सिर्फ उनकी बुराई ही समाज के सामने रखें।
स्कूल की शैक्षिक गुणवत्ता का दारोमदार सिर्फ शिक्षक के कंधे पर ही नहीं होता बल्कि हमें इसके लिए शिक्षक से हट कर उन संस्थानों की ओर भी देखना होगा जहां शिक्षकों को शिक्षण-प्रशिक्षण की तालीम दी जाती है। डाईट, एससीइआरटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों में चलने वाली सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर भी विमर्श करने की आवश्यकता है। अमूमन शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में जिस किस्म की प्रतिबद्धता और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चल रही है उसे भी दुरुस्त करने की आवश्यकता है। एक किस्म से इन संस्थानों में अकादमिक तालीम तो दी जाती है। लेकिन उन ज्ञान के संक्रमण की प्रक्रिया को कैसे रूचिकर बनाया जाए इस ओर भी गंभीरता से योजना बनाने और अमल में लाने की आवश्यकता है।
दिल्ली में ही नगर निगम और राज्य सरकार की ओर से चलने वाले स्कूलों में झांक कर देखें तो दो छवियां एक साथ दिखाई देती हैं। एक ओर वे स्कूल हैं जिसमें बड़ी ही शिद्दत से शिक्षक/शिक्षिकाएं अपने बच्चों को पढ़ाती हैं। उन स्कूलों में नामांकन के लिए लंबी लाइन लगती है। सिफारिशें आती हैं। हर साल बच्चे विभिन्न प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतते हैं। ऐसा ही एक स्कूल है शालीमार बाग का बी बी ब्लाॅक का नगर निगम प्रतिभा विद्यालय यहां पर जिस तरह से स्कूल को संवारा गया है और बच्चों की शैक्षणिक गति है उसे देखते हुए लगता है कि इन स्कूलों मंे रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम क्यों नहीं जाती। जहां कुछ तो अच्छा हो रहा है लेकिन रिपोर्ट में एकबारगी सरकारी स्कूलों को नकारा साबित करने के लिए ऐसे ही साधनविहीन और खस्ताहाल स्कूलों को चुना जाता है। दूसरे स्कूल वैसे हैं जैसे वजीरपुर जे जे काॅलानी में नगर निगम प्रतिभा विद्यालय जहां स्थानीय असामाजिक तत्वों की आवजाही है। खिड़कियां हैं पर उनमें शीशे नहीं। कक्षों में दरवाजे तक नहीं हैं। पलस्तर न जाने कब हुए होंगे। कक्षाओं में गड्ढ़े हैं। लेकिन उन हालात में भी शिक्षिकाएं पढ़ा रही हैं।
पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अंतर्गत आने वाले स्कूलों में भी अमूमन एक सी कहानी है। एक ओर ए ब्लाॅक दिलशाद गार्डेन में जहां अच्छे भवन हैं। शिक्षक हैं लेकिन बच्चे कम हैं। वहीं ओल्ड सीमापुरा के उर्दू स्कूल में बच्चों के पास बैठने के लिए टाट पट्टी तक मयस्सर नहीं है। एक एक कमरे में दो तीन सेक्शन के बच्चे बैठते हैं। जहां न रोशनी है और न धूप। यदि कुछ है तो महज अंधेरा। सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर यानी गुणवत्ता को बेहतर बनाने की प्रतिबद्धता एक ओर शिक्षकों के कंधों पर है तो वहीं दूसरी ओर प्रशासन को भी अपने गिरेबां में झांकने की आवश्यकता है।
बेहतर प्रशिक्षक के शिक्षकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर मोड़ना मुश्किल है। प्रशिक्षक का काम शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया से जोड़ना है। यदि सिर्फ शैक्षिक पौडागोगी यानी प्रविधि पर जोर दिया जाएगा तो वह प्रशिक्षण कार्यशाला भी ज्यादा कारगार नहीं हो सकती। शिक्षक कार्यशालाओं में प्रशिक्षक का चुनाव भी बेहद चुनौतिपूर्ण काम है। यदि एक ही कार्यशाला में दो अलग अलग विचारों और शिक्षण तकनीक बताया जा रहा है तो वह शिक्षकों के लिए भ्रम पैदा कर सकता है। इसलिए इस बात को भी ध्यान में रखन की आवश्यकता है।
कौशलेंद्र प्रपन्न
भाषा विशेष एवं शिक्षा सलाहकार
अंतः सेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान, टेक महिन्द्रा फाउंडेशन
दिल्ली

Wednesday, November 19, 2014

कक्षा और शिक्षा में संवाद


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा दर्शन और शिक्षा का शिक्षण शास्त्र हमेशा इस बात की गुंजाइश छोडता है कि हम अपनी जिज्ञासा और सवाल कर सकें। शिक्षा दरअसल हमारी जिज्ञासाओं और उत्कंठाओं को उद्दीप्त करने काम करती है। यदि हमारे अंदर सवाल करने और जिज्ञासाओं को शांत करने की छटपटाहट नहीं होगी तो समझना चाहिए हमारे अंदर सीखने की ललक खत्म हो चुकी है। यहीं पर शिक्षा बीच में टूटती नजर आती है। यदि शिक्षा छात्र के मन से सवाल करने की बेचैनीयत ही खत्म कर दे तो वह शिक्षा नहीं हो सकती। यदि उपनिषद् पर नजर डालें तो को अहम्? को नामासि? सवाल से ही जुझता हुआ विद्यार्थी मिलता है। इसी को अहम के जवाब में उपनिषद् की रचना हुई। गुरु जवाब देता है- तत् तत्वं असि। तब विद्यार्थी को महसूस होता है कि अहं ब्राम्हास्मि।
यहां शिक्षा जीवन के बुनियादी सवालों से शुरू होते हैं। उसपर भी संवाद शैली में। यहां किसी भी किस्म का उपदेश, प्रवचन या कोई और माध्यम नहीं अपनाया गया है बल्कि संवाद शैली में यह पूरा का पूरा शैक्षिक प्रक्रिया संपन्न हो रही है। यदि आज की शैक्षिक प्रक्रिया को देखें तो वह उपदेशात्मक ज्यादा बजाए कि वह संवाद शैली में हो। समस्या यही है कि जब हम बातचीत की शैली में किसी को कुछ समझाते हैं तब सुनने वाला जल्द समझ लेता है। लेकिन जैसे ही भाषण के रूप में कोई बात रखते हैं तब की हमारी भाषा भी बदल जाती है।
प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति कक्षा और शिक्षा में संवाद स्थापित करने पर जोर देते थे। इसका अर्थ लेकिन आज की कक्षा का अवलोकन करें तो संवाद की बजाए आदेश और निर्देश दिए जाते हैं। बच्चे उसे मानने पर मजबूर होते हैं। यदि बच्चा इंकार करता तो वह शिक्षक की सत्ता का प्रश्न बन जाता है। यही वजह है कि शिक्षक बच्चे के सवाल व स्वतंत्रता को अपनी सत्तायी चुनौती मान लेता है।
नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005 शिक्षा में संवाद पर खासतौर पर विमर्श करता है। एनसीएफ के आधार बने पाठ्य पुस्तकों पर नजर डालें तो पाएंगे कि इन स्कूली किताबों के संवाद स्थापित करने की पूरी छूट और जगह मुहैया कराई गई है। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि शिक्षक कक्षा में कितना अमल में लाता है। अमूूमन कक्षाओं में शिक्षक महज पाठों के वाचक की भूमिका निभाते पाए जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा पाठों को याद करने और उनका अभ्यास कर परीक्षा में उगलने के लिए तैयार करते हैं। यदि यहां शिक्षक अपनी भूमिका को थोड़ी भी छूट दें तो संवाद करने की उम्मीद जग सकती है।


Tuesday, November 11, 2014

शिक्षा दिवस पर एक सवाल


शिक्षा जीवन को कैसे संवारती है? क्या शिक्षा महज तालीमी समझ विकसित करती है? क्या शिक्षा का लक्ष्य रोजगार मुहैया कराना है या शिक्षा इससे कहीं अधिक है? इस किस्म के सवाल कई बार हमारे सामने आते हैं। लेकिन हम उनका जवाब देने की बजाए महज अपनी बौद्धिक खुजलाहट को मिटाते हैं। यदि नेशनल एजूकेशन नीति को देखें तो पाएंगे कि शिक्षा रोजगार के साथ ही जीवन कौशल भी सीखाती है। शिक्षा से उम्मींद की जाती है कि वो हमें बेहतर जीवन जीने के लिए जीवन दर्शन भी प्रदान करे। लेकिन रोजगार का लक्ष्य इतना बड़ा होता है कि हमें शिक्षा के दूसरे महत्वपूर्ण आयाम पीछे छूट जाते हैं। हम सिर्फ रोजगार के प़क्ष को सुदृढ करने में पूरी शक्ति और प्रयास जाया करते जाते हैं।
सच ही है कि अंततः शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात हमें नौकरी करनी पड़ती हैं। बगैर नौकरी के जीवन यापन संभव नहंीं है। यही वजह है कि मां-बाप अपने बच्चों को किसी भी कीमत पर रोजगार परक शिक्षा दिलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। लेकिन सोचने की बात है कि क्या वह बच्च जिसके लिए मां-बाप अपनी सारी शक्ति और उर्जा लगा देते हैं वह नौकरी पाने के बाद उन्हें याद रख पाता है? क्या अपने साथ उन्हें रखने में दिलचस्पी रखता है? यदि नहीं रखता तो हमने उसे किस प्रकार की शिक्षा प्रदान की है इस पर ठहर कर विचार करना होगा।

Friday, November 7, 2014

हम भी हैं कतार में


जिसे देखो वही कतार में खड़ा
अपनी पारी का करता इंतज़ार रहा,
उम्र गुज़र गई,
आस वहीं की वहीं लटकी रही।
हवा भी इतज़ार में
मकान कुछ नीचे हों तो बहे,
नदी भी खड़ी,
कि जगह मिले तो बहे।
एक हुकारी की प्रतीक्षा में
लड़की खड़ी देहारी पर
बाबू कहें तो सपने पाले
बाबू इंतज़ार में कि बेटे की गर्दन हिले तो जेवार में मान बढ़े।
खेत बेजान पड़ें
कर रहे हैं हल का इंतज़ार,
बैल विश्राम में हाॅफ रहे हैं
दराती घास की लंबाई काटने की प्रतीक्षा में बढ़ रही हैं।
रेड लाईट पर खड़ी कार,
शीशे के पीछे झांकती दो सजल नयन,
एक रुपए के इंतज़ार में बाल खुजलाती खड़ी बुधिया,
मां का स्तन निचोड़ता बच्चा,
आंखों में टंगी उम्मींद,
सब के सब जोह रहे हैं बाट अपनी पारी का।

Thursday, November 6, 2014

गांवों को निगलते शहर


कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रेमचंद, निराला, श्रीलाल शुक्ल, रेणू के गांव अब वही नहीं रहे। गांव खत्म होते जा रहे हैं। इसे आधुनिकीकरण का नाम दें या एक परंपरा, रीति रिवाजों वाले गांवों के खत्म होने पर आंसू बहाएं। शहर की भीड़ और औद्योगिकरण ने गांव का रंग रूप बदल दिया है। वह गांव देश के किसी भी राज्य का क्यों न हो गांव की बुनियादी पहचान लुप्त होता दिखाई दे रहा है। शहर की तमाम चाक चिक्य, फैशन, दिखावा, व्यवहार, चालाकियां, धुर्तता सब कुछ गांव में प्रवेश कर चुका है। गांव के तालाब, नदियां, पोखर खेतों को पाट कर माॅल, दुकान, नए नए उद्योग लगाए जा रहे हैं। वहां का भूगोल भी बहुत तेजी से बदल रहा है। हमारी स्मृतियों में बसे गांव और गांव की छवि भी बदल चुकी है। हम स्वयं महानगर में रहना पसंद करते हैं। लेकिन जब गांव में जाते हैं तो अपने गांव को वही पुराने रंग, चाल ढाल में क्यों देखना चाहते हैं। क्या गांव में रहने वालों को माॅल में ठंढ़ी हवा खाते हुए शाॅपिंगे करने का अधिकार नहीं है? क्या गांववासियों को शहर की सुख सुविधाएं में जीने का हक नहीं है? क्योंकर वो गांव में बजबजाती गलियों में रहने पर विवश हों?
जिस भी गांव के पास से कोई एक्सप्रेस वे दंदनाती सड़क निकलने वाली है या निकल चुकी है उस गांव की किस्मत कहें या चेहरा बड़ी ही तेजी से बदल रहा है। गांव में पक्के मकान बन रहे हैं। खेत काट कर दुकान और माॅल का निर्माण रफ्तार पकड़ चुका है। गाय भैंसे बेची जा चुकी हैं। गली गली मुहल्ले मुहल्ले प्रोपर्टी डिलर बन कर हमारे नवनिहाल बैठ चुके हैं। जिनके पास एकड़ों जमीन हुआ करती थीं। जो गांव के जमींदार हुआ करते थे आज वो जमीनें बड़े बड़े भवन निर्माण कंपनियों को दे कर स्वयं एक छोटे मोटे प्रोपर्टी डिलर बनना स्वीकार किया है। गांवों में भी पक्की सड़कें फैलें इससे किसी को क्या गुरेज होगा। लेकिन इन सड़कों और माॅलों की वजह से यदि हमारी जीवन पद्धति प्रभावित हो रही हो तो हमें गंभीरता से विचार करना होगा।
जब जब शहर या महानगर का विस्तार गांवों तक हुआ है उसमें गांवों को कई स्तरों पर मूल्य चुकाने पड़े हैं। उसमें हमारी जीवन शैली, जीने की शर्तें और खेत खलिहानों को गला घोटा गया है। गांव के स्थानीय लोगों का विस्थापन और दूसरे गांव, शहर से लोगों आगमन यह एक सामान्य प्रक्रिया मानी जाती है। गांव से शहर और महानगर में बसने के लोभ से बहुत कम लोग बच पाए हैं। जिसके पास भी थोड़ी भी संभावना और सुविधा है वो गांव में नहीं रहना चाहता। गांव उसके फैलाव के लिए सीमित आकाश सा लगता है। संभव है यह कुछ हद तक ठीक भी हो। क्योंकि इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि जो सुविधाएं, अवसर हमें शहरों और महानगरों में लिती हैं वह गांव की सीमा से बाहर है। यही कारण रहा है कि गांवों, कस्बों से लोगों का शहर की ओर पलायन जारी रहा है। हर मां-बाप चाहते हैं कि उनकी औलादें अच्छी तालीम और सुख सुविधाओं वाली जिंदगी हासिल करे। मेरे पिताजी ने खुद अपना गांव छोड़ और शहर में जा बसे ताकि बच्चों को शहर की सुविधाएं मिल सकें। हमें अच्छी तालीम मुहैया कराने के लिए स्वयं फटी धोती पहनना स्वीकार किया। अकेले कस्बे में रहना भी चुना। दरअसल गांवों की सीमित संसाधनों और माध्यमों के बीच उड़ान के पंख खुलने मुश्किल से जान पड़ते हैं। इसलिए गांव में रहने और वहां पलायन करने के बीच बहुत बारीक का अंतर होता है।
पिछले दिनों हरिद्वार, डेहरी आॅन सोन, हनुमान गढ़ जाना हुआ। जिन जिन गांवों व शहरों के पास से चैड़ी एक्सप्रेस वे गुजर रही हैं वहां की बुनियादी स्थानीय पहचान खत्म हो रही हैं। उसमें नदी, तालाब, पोखर, खेत आदि शामिल हैं। इसके साथ ही जिस तेजी से गांवों में शहर के संचार माध्यम पांव पसार रहे हैं उस अनुपात में शिक्षा संस्थान नहीं ख्ुाल रहे हैं। शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता उनकी प्राथमिकता की सूची में नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता के बजाए महज गांव कस्बों, छोटे शहरों में शिक्षा की दुकानें खुल रही हैं। ऐसे में कौन गांव में रहना चाहेगा? कौन अपने बच्चों के भविष्य दांव पर लगाएगा। शायद यही वजह है कि शहर के विस्तार ने गांवों को निगलना शुरू कर चुका है। वह दिन दूर नहीं जब गांव हमारी स्मृतियों का हिस्सा भर हुआ करेंगी। किताबों और फिल्मों में गांव देखा और पढ़ा करेंगे।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...