Monday, February 27, 2017

रात बिरात उठ जाते


उन्हें रात बिरात उठने की आदत जो थी,
उठ जाते
लोटा पानी नहीं
रात में भी उनका हाथ
माइक ढूंढ़ा करता।
भोर भिनसार उठ कर कहीं नहीं जाते
बस माइक चाहिए होता था उन्हें
शुरू हो जाते।
आदत से
कौन परेशान नहीं था?
उन्हें देखते
हो हो करने वाले भी खड़े ही हो जाते
उन्हें देखकर उनका पाव भर खून बढ़ जाता।
सुबह सबेरे
नहा धोकर
बबरी झार कर
खड़े हो जाते
कुछ तो ऐसे भी थे
जिन्हें माइक के बिना
खाना पचता न था।
सो अपने घर में भी
मंच लगा रखा था
जब भी उबकाई सी आती
माइक पकड़ लिया करते थे।

Thursday, February 23, 2017

शिक्षक का व्यावसायिक विकास और शिक्षण रूचि


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षक का व्यावसायिक विकास सुनकर आपको किस प्रकार की दक्षता के अंदाज लगते हैं जो शिक्षकों में होने चाहिए। शिक्षण एक व्यवसाय है इसे मानने में कोई परहेज नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अन्य व्यवसायों की तरह ही शिक्षण एक व्यवसाय है। यदि व्यवसाय है तो कुछ व्यावसायिक कौशल की अपेक्षा भी होगी। वे कौन सी दक्षताएं हैं जो हम शिक्षक में होने की अपेक्षा करते हैं। पहली बात तो यही कि शिक्षण को उसने स्वेच्छा से चुना हो। उसके चुनाव किसी प्रकार के दबाव व परिस्थितिवश लिए गए मजबूरी के निर्णय न हों। क्योंकि आज हकीकत यही है कि इस पेशे में बिना पहली प्राथमिकता के शिक्षक दबाववश ज्यादा हैं। कहीं किसी को कोई नौकरी मिलती नजर नहीं आती तो वह इस पेशे में भाग्य आजमाता है। किसी तरह से कोर्स पूरा करने के बाद पढ़ाना भी शुरू कर देते हैं। लेकिन मन में एक कसक के साथ की भाग्य ने साथ नहीं दिया वरना वो किसी कॉलेज, बड़े ओहदे, लाल बत्तीधारी होते। लेकिन कहीं न कहीं संभव है उनके प्रयास में कमी रही होगी। या कोई और वजह जिसकी वजह से वो आज स्कूल में हैं। इस कठोर सच को स्वीकारने में उन्हें सालों लग जाते हैं। शिक्षविदों को मानना है कि ऐसे लोगों की संख्या शिक्षण कर्म में ज्यादा है जिनसे शिक्षा और शिक्षण को संघर्ष करना पड़ता है।
शिक्षण को पढ़ना-पढ़ाना रूचिकर लगे यह एक प्रकारांतर से दक्षता कह सकते हैं। अनुभव बताते हैं कि शिक्षक एक बार शिक्षण में आने के बाद पढ़ना छोड़ देते हैं। इसके पीछे उनके अपने तर्क शास्त्र होते हैं। समय नहीं मिलता। क्या पढ़ें आदि। संभव है उनके सामने पीआरटी से टीजीटी, पीजीटी, उप प्रधानाचार्य, प्रधानाचार्य तक के सफ़र के अलावा कोई और विकास की संभवानाएं खत्म नजर आती हों। काफी हद तक सच्चाई भी है। लेकिन हकीकत तो यह भी है कि जो शिक्षण पढ़ने-पढ़ाने, शोध प्रवृत्ति को होते हैं उनके लिए स्कूल से बाहर काम के खुल आमंत्रण भी होते हैं। जहां वे अपनी शोधपरक रूझान को आकार दे सकते हैं। पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक लेखन, निर्माण की प्रक्रिया से भी जुड़ सकते हैं। कई ऐसे प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के शिक्षक हैं जिनका योगदान एनसीइआरटी की पाठ्यपुस्तक निर्माण में सहभागिता है। अवसर की तलाश करना हर व्यक्ति का अधिकार है। और उस अवसर को सकार करने के लिए प्रयास भी जरूरी है। केवल स्कूल तक खुद को महदूद रखने वाले शिक्षक ही संभव है समय से पहले मृतप्राय से हो जाते हैं।
शिक्षक स्वयं भाषायी कौशल, तकनीक इस्तमाल, सृजनात्मक सोच को स्वीकारने और बढ़ावा देने वाला हो। ऐसे में शिक्षकीय जीवंतता तो बचाई ही जा सकती है साथ ही बच्चों में सृजनात्मकता का प्रवाह भी सहजता के साथ किया जा सकता है। लेकिन अमूमन देखा यही जाता है कि जब किसी दक्षता विकास कार्यशाला में शिक्षकों को आमंत्रित किया जाता है तो उसमें उनकी रूचि न के बराबर होती है। अरूचिपूर्ण सहभागिता की प्रवृत्ति से आए शिक्षकों की उस मनस्थिति को तोड़ने, निर्माण करने की प्रक्रिया काफी चुनौतिपूर्ण होती है। अनुभव बताते हैं कि शिक्षकों के लिए आयोजित होने वाले कार्यशालाओं में शिक्षकों को धकेल कर भेजा जाता है। वे भी आदेश के पालक के तौर पर हिस्सा भी ले लेते हैं। यह देखना भी दिलचस्प होता है कि उनमें से कितने कार्यशाला के पश्चात उन कौशलों का इस्तमाल अपनी कक्षाओं में करते हैं। मुश्किलन बीस फीसदी शिक्षक ही कार्यशालाओं में अपनी रूचि के साथ आते हैं। यही शिक्षक पूरे कार्यशाला में सकारात्मक सोच के साथ सहभागी भी होते हैं। वरना अधिकांश शिक्षक महज समय कैसे कट जाए या ज़रा टटोलें कि जो उन्हें पढ़ाने आया है वह कैसे उन्हें पढ़ाता है। इस प्रवृत्ति के शिक्षक हमेशा कार्यशाला में व्यवधान पैदा करते हैं।
एक बड़ा फांक वहां भी नजर आता है जब एक शिक्षक टटका प्रशिक्षण हासिल कर कक्षाओं में कुछ करना चाहते हैं। लेकिन उन्हें अपने ही सह शिक्षक मित्रों से सुनने को मिलता है कि हम भी पहले ऐसे ही लगन से पढ़ाया करते थे। कुछ दिन की बात है फिर यह भी हमारी तरह हो जाएगा। इस किस्म के नकारात्मक सोच और मानसिक प्रहार में खुद की शिक्षण ललक को बचाए रखना कठिन होता है। जो भी शिक्षक इस माहौल को हावी नहीं होने देते वे बड़ी शिद्दत से आज भी शिक्षण कर रहे हैं। उन्हें कुछ शिक्षकों की वजह से ही शिक्षण पेशे की नाक बची हुई है।
प्रो कृष्ण कुमार अपनी पुस्तक गुलामी शिक्षा और राष्टवाद में इस मसले पर बड़ी गंभीरता से विमर्श करते हैं कि एक शिक्षक की हैसीयत समय के अनुसार घटती रही है। आज वह शिक्षक एक कर्मचारी की तरह हो चुका है जिसपर अधिकारियों के आदेश थोपे जाते हैं। वह महज आदेश पालक बन कर रह गया है। इसके पीछे एक कारण यह है कि वह अपने पेशे को ही हीन दृष्टि से देखता है। ज बवह स्वयं अपने पेशे से उदासीन होगा तो समाज में शिक्षक के मान सम्मान तो घटेंगे ही। शिक्षक बेसहारा और दीनहीन की स्थिति में तब ज्यादा पाता है जब अपने ही सामने और को आगे बढ़ते हुए देखता है। हमें अपने पेशे की पहचान बनाने और बिगाड़ने की पूरी छूट है। हम कैसी पहचान निर्मित कर रहे हैं उसपर ठहर कर सोचना होगा। कृष्ण कुमार उक्त किताब में लिखते हैं कि अधिकांश शिक्षक पेशे में आने के बाद पढ़ने-लिखने से दूर हो जाते हैं जिसकी वजह से आंतरिक परीक्षाओं में पास नहीं हो पाते। आज के संदर्भ में इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि जब राष्टीय व राज्यकीय शिक्षक पात्रता परीक्षाओं में एक या दो फीसदी शिक्षक ही पास हो पाए। इन परिणामों को देखते हुए शिक्षकों के संगठनों से इस किस्म की परीक्षाओं का विरोध करना शुरू किया। जबकि यह एक हकीकत है कि शिक्षक एक बार शिक्षण कर्म में आने के बाद पढ़ना-लिखना छोड़ देता है। यह स्थिति न केवल स्कूली स्तर पर देखे जा सकते हैं बल्कि कॉलेज और विश्वविद्याल स्तर पर लगभग यही स्थिति है। स्कूल स्तर पर तो कोई ऐसा प्रावधान नहीं है कि आपने कितने सेमिनार किए, कहां कहां पेपर पढ़ा, कितने घंटे कक्षाएं लीं। कितनी किताबें लिखीं अिद जिन पर आपकी ग्रोथ निर्भर करती है। यह स्थिति विश्वविद्यालयी स्तर पर शुरू हो चुकी हैं। शिक्षकों की प्रोन्नति उनके पर्चे, सेमिनार,, जर्नल आदि में छपे आलेखों पर निर्भर करते हैं। यदि इस तरह के प्रावधान स्कूलों में भी किया जाए तो संभव है शिक्षक पढ़ने-लिखने में मजबूरन ही सही रूचि लेने लगें।

Wednesday, February 22, 2017

शैक्षिक बजट में उछाल गुणवत्ता बेहाल


कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘सरकार और उसके पीछे खड़ा विश्व बैंक और उसके पीछे खड़ा वैश्विक पूंजीपति वर्ग लोगों को गुणवत्तापूर्ण  शिक्षा न देकर उन्हें केवल साक्षर बनाना, कुछ कौशल सिखाना औश्र इस प्रकार उन्हें एक संसाधन बनाकर अपनी पूंजी को बढ़ाना तथा वैश्विक बाजार पर अपना कब्जा बनाए रखना चाहता है।’’ प्रो अनिल सद्गोपाल ने कहीं लिखा है जिसे आज के संदर्भ में व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। यदि हम इसे सरकारी दस्तावेज में देखने की कोशिश करें तो यह 11 वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिपत्र में स्पष्ट दिया गया है कि माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य अंतरराष्टीय बाजार के लिए कुशल मजदूर पैदा करना है। इस बार के बजट में कौशल विकास का ख़ासा ध्यान दिया गया है। यह कौशल किस क्षेत्र में किनके लिए विकसति करने की बात की जा रही है इसे भी समझने की आवश्यकता है। शिक्षा को इस बार समग्रता में देखें तो पिछले बजटीय वर्ष 2016-17 की तुलना में ज्यादा राशि आबंटित की गई है। लेकिन गहराई देखने पर तथ्य कुछ और ही मिलता है। पिछले साल सकल घरेलु उत्पाद के 0.48 से घटकर 0.47 मिला है। यूं तो शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए 79,686 करोड़ का प्रावधान किया गया है। एक सवाल शिद्दत से उठती रही है कि हर साल शिक्षा के क्षेत्र में सरकार करोड़ों रुपए  खर्च करती है फिर क्या वजह है कि बच्चों को फिर भी लिखने पढ़ने में दिक्कतें आ रही हैं। क्या वजह है कि सरकारी और गैर सरकारी संगठन की ओर किए गए अध्ययन बार बार हमें ताकीद करते हैं कि हम खर्च तो करोड़ों रुपए कर रहे हैं लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से हमें निराशा ही हाथ आ रही है। शिक्षा में गुणवत्ता के मसले को भी समझने की आवश्यकता है क्योंकि यदि सरकार पैसे खर्च कर रही है फिर क्या कारण है कि 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक स्कूलों से बाहर हैं। सरकारी आंकड़ों की बात करें तो 80 लाभ बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। जो बच्चे स्कूलों में दाखिल हैं और स्कूल की पढ़ाई प्राप्त कर रहे हैं उन्हें किस प्रकार की शिक्षा मिल रही है। इस पर हम नागर समाज को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
पिछले वित वर्ष 2016-17 में जहां स्कूली एवं साक्षरता, शिक्षा विभाग को 43896 करोड़ रुपए मुहैया कराए गए थे वहीं 2017-18 वित्त वर्ष में बढ़ाकर 46356 करोड़ रुपए कर दिए गए। इन्हीं वित्त वर्षों में उच्च शिक्षा के मद में भी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जहां 2016-17 में 29703 करोड़ रुपए प्रदान किए गए वहीं 2017-18 में 33330 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। राश्अीय शिक्षा मिशन सर्व शिक्षा अभियान में 2016-17 में 22500 करोड़ रुपए दिए गए वहीं वर्ष 2017-18 में 23500 करोड़ रुपए प्रदान किए गए हैं। वहीं राश्अीय माध्यमिक शिक्षा अभियान को 2016-17 में 3700 करोड़ रुपए मिले थे वहीं 2017-18 में 3830 करोड़ रुपए दिए गए हैं। इन अभियानों में देखा जाए तो हर साल वित्त आवंटन में बढ़ोत्तरी ही दिखाई देती है। यहां एक मौजू सवाल यह उठ सकता है कि इतनी बड़ी राशि का इस्तमाल किस तरीके से हो रहा है? क्या जो राशि राज्य सरकारों तक जा रही हैं वो पूरा सार्थक मदों में खर्च हो रही हैं? हकीकत तो यह है कि हर साल केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर आरोप लगाती है कि उन्होंने दिए गए पैसों का इस्तमाल नहीं किया और मार्च के बाद साठ से अस्सी फीसदी पैसे केंद्र को वापस कर दी जाती हैं। बजटीय प्रावधान को देखते हुए यह आरोप भी नहीं लगा सकते कि इसमें शिक्षक प्रशिक्षण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर खर्च नहीं किए जा रहे हैं। क्योंकि शिक्षण प्रशिक्षण एवं साक्षर भारत जैसे कामों के लिए 2016-17 में जहां 751 करोड़ रुपए प्रदान किए गए वहीं 2017-18 में इस राशि को बढ़ाकर 926 करोड़ रुपए किया गया। संभव है इन्हीं पैसों पर डाइट्स, एससीइआरटी द्वारा शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यशालाओं को अंजाम दिया जाता है। अब यहां एक प्रश्न उठता है कि जब शिक्षक प्रशिक्षण पर भी करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं फिर क्योंकर स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा शिक्षण हो रही है। संभव है कार्यशाला योजना, कार्यशाला की कंटेंट रूपरेखा पर गंभीरता से काम नहीं किया जाता।
केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय संगठनों के स्कूलों पर सरकार का ध्यान ज्यादा है बजाय कि राज्य स्तरीय स्कूलों की स्थिति को सुधारी जाए। क्योंकि हर साल केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों की संख्या बढ़ाई जा रही है। पिछले साल 2016-17 में जहां 3987 स्कूल खोले गए वहीं 2017-18 में 4300 स्कूल खोले गए। गौरतलब है कि इन स्कूलों को सरकारी स्तर पर तमाम सुविधाएं पहले से ही मिली हुई हैं। उन्हें ही और मजबूती प्रदान की जा रही है। जबकि राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही स्कूलों को नजरअंदाज किया जा रहा है। यही कारण है कि विभिन्न राज्यों में सरकार स्कूलों को या तो बंद कर रही है या फिर निजी कंपनियों के हाथों सौंप रही है। राजस्थान में तकरीबन 1800 से ज्यादा स्कूल बंद हो चुके हैं। वहीं उत्तराखंड़ और छत्तीसगढ़ में भी 4000 से ज्यादा सरकारी स्कूलों में या तो ताले लग गए या फिर निजी कंपनियों को दे दिए गए। कितना अच्छा होता कि सरकार इन्हें भी बेहतर बनाने की योजना बनाती। यदि दिल्ली की ही बात करें तो दक्षिणी दिल्ली के हौज़ख़ास इलाके में लक्षमण पब्लिक स्कूल के बगल में चल रही प्राथमिक स्कूल बंद करने की नौबत आ गई थी। अंत में उसे एक निजी संस्था को दे दिया गया और आज वहां चालीस बच्चे हैं। कई बार निजी संस्थाएं मृतप्राय घोषित स्कूलों को जीवित भी की हैं।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की जहां तक बात है तो इसे प्रभावित करने वाले अन्य कई घटक हैं जिसे ठीक करने की आवश्यकता है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार 25ः1 और 30ः1 शिक्षकःबच्चा अनुपात की वकालत की गई है। लेकिन हकीकतन यह नहीं है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में अवलोकन के बाद इन पंक्तियों के लेखक के तौर कह सकता हूं कि कक्षा में पच्चास साठ बच्चे तो आम होते हैं। कई स्कूलों में तो यह भी पाया कि एक ही कमरेनुमा हॉल में दो तीन कक्षाएं एक साथ लग रही हैं। एक ही हॉल में एक कोने मे हिन्दी तो दूसरे कोने में गणित पढ़ाई जा रही है। कमरे की कमी और शिक्षकों की कमी दिल्ली के कई स्कूलों में देखने को मिला। किसी स्कूल में चार पांच शिक्षक हैं जिनमें से एक कार्यालयी कामों को अंजाम देने में लगे होते हैं बाकि के शिक्षक शिक्षण कर रहे होते हैं उनमें से भी बचे हुए शिक्षकों पर बैंक एकाउंट खुलवाने, आधार कार्ड से जोड़ने का काम मिला होता है। कई शिक्षकों से बातचीत हुई जिन्होंने बताया कि कई बार पढ़ाने की तैयार कर कक्षा में आते हैं लेकिन अचाकन बीच में ही बुला लिख जाता है और हमें अन्य कामों में झोंक दिया जाता है। पढ़ाने का तमाम उत्साह धरा का धरा रहा जाता है।
शिक्षकीय प्रशिक्षण की गुणवत्ता पर बार बार सवाल खड़े किए जाते हैं। शिक्षाविदों को मानना है कि हमें अपने शिक्षक शिक्षा प्रशिक्षण संस्थानों को भी बेहतर बनाने की आवश्यकता है। यदि दिल्ली के विभिन्न नौ मंडलीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों डाइट्स की बात करें तो नौ में से सात में गणित, भाषा के स्थाई शिक्षक नहीं हैं। कल्पना की जा सकती है कि अस्थाई शिक्षकों व तदर्थ शिक्षकों के कंधे पर शिक्षण प्रशिक्षण प्रक्रिया को क्या छोड़ा जा सकता है। ठीक इसी तर्ज पर स्कूलों में भी तदर्थ शिक्षकों के भरोसे हम गुणवता की उम्मीद कर रहे हैं।

Monday, February 20, 2017

रचना प्रतिबद्धता के साथ न्याय


लेखक जब अपनी आनुभविक भूमि से बाहर खड़े होकर लिखता है तो संभव है शब्दों की तिलस्मी जाले तो बुन सकता है किन्तु पाठकों को ज्यादा समय तक बांध कर नहीं रख सकता। पाठकों तक पहुंचने के लिए पाठकीय परिवेश, उसकी भाषायीजगत को रचनाओं में बोना पड़ता है ताकि पाठक रचना से गहरे जुड़ सके। यहां कई बार लेखक चूक जाता है। वह जो लिखना चाहता है, जिस भावभूमि से आता है उसकी सृजना करता है। अपनी पसंदगी नापसंदगी को तवज्जो देने वाला लेखक कहीं न कहीं पाठकीय सत्ता और रूच्यालोक को दरकिनार करता है। तात्कालिक प्रसद्धि और क्षणिक प्रचार के लोभ का संवरण करना है तो ज़रा कठिन लेकिन इसका लाभ हमें बाद में मिलता है। अक्सर लेखक तात्कालिक दो कॉलम की प्रसिद्ध पाने की ललक में अपनी रचना प्रक्रिया और रचना प्रतिबद्धता के साथ न्याय नहीं कर पाता।

Wednesday, February 15, 2017

जिंदगी ऑन एयर तीन दिन तीन रात की दास्तां



प्रियदर्शन जी की एक अलग भावभूमि पर बुनी गई मीडिया की दुनिया की कहानी कहती है जिंदगी लाइव। ख़बरों के बाजार में ख़बर बिक्रेता और उसकी व्यक्तिगत जिंदगी के पेचोखम के संघर्ष को बयां करती कहानी कई बार सांसों को रोक लेती है। पढ़ते पढ़ते कई बार महसूस होता है कि पाठक स्वयं वहां उन घटनाओं में शामिल है। हो भी क्यों न लेखक स्वयं इसी पेशे में अपने बाल सफेद किए हैं। उन्हीं की बात जो उन्होंने कहीं लिखी है को दुबारा पढ़ें तो सारा माज़रा साफ हो जाएगा।
‘‘ कोई लेखक अपने समय और समाज से कट कर बड़ा नहीं हो सकता। कोई भी लेखक अगर अपने अनुभव संसार के बाहर जाकर लिखता है, तो वह कुछ कुतूहल भले पैदा कर ले, कुछ वाग्जाल भले खड़ा कर ले, बड़ी रचना नहीं कर सकता। अपने अनुभव की आंच में पककर ही कोई रचना बड़ी होती है।’’ क्यांकि कहानी अंततः एक प्रतिप़क्ष होती है, लेखक से पेज 35,
निःसंदेह जिंदगी लाइव प्रिदर्शन के रोज दिन के अनुभवों के रास्तों से गुजर कर निकली कहानी है। कथाकार ने अपनी परिधि नहीं छोड़ी है। कथानक को आगे बढ़ाने के लिए उप शीर्षकों का इस्तमाल भी दिलचस्प है। कहीं न कहीं वे उप शीर्षक काव्य तो हैं ही आगे की कहानी पढ़ने के लिए उत्सुक भी करते हैं।
पुनः प्रियदर्शन जी को बधाई।


Friday, February 10, 2017

बंद होते स्कूल को बचाना


कौशलेंद्र प्रपन्न
दिल्ली का एक पॉश इलाका हौजख़ास। लक्षमण पब्लिक स्कूल की दीवार से सटे सड़ा एक सरकारी प्राथमिक स्कूल। बगल में दिल्ली पुलिस कॉलोनी। हौजख़ास मेटो स्टेशन से सटा। कभी इस स्कूल में बच्चे खूब हुआ करते थे। जब से मेटो के काम शुरू हुए बच्चों को चौड़ी सड़क पार करने में मुश्किलें आने लगीं। इस स्कूल में आस पास के बच्चे नहीं पढ़ाकरते थे। मसलन पुलिस कॉलोनी, हौजख़ास आदि। यहां बच्चे आया करते थे साकेत, आइआइटी गेट, आर के पुरम की झोपड़ पट्टियों से। कुछ अधिकांश बच्चे एक दो किलो मीटर का रास्ता पैदल तय किया करते थे। कुछ अभिभावक जिनके पास ऑटो हुआ करता था वे अपने बच्चों को ऑटो में छोड़ दिया करते थे।
कभी इस स्कूल में चार से पांच सौ बच्चे और तीस चालीस टीचर हुआ करते थे। वक्त की मार देखिए देखते देखते बच्चे घटने लगे। पिछले साल आलम यह हो गया कि प्रशासन, शिक्षा विभाग ने तय किया कि इस स्कूल को बंद कर दिया जाए। जब बच्चे ही बीस हों तो इतनी बड़ी बिल्डिंग, बिजली,पानी, स्टॉफ पर क्योंकर खर्च किया जाए। स्टॉफ को दूसरे दूसरे स्कूलों में भेज दिया गया। स्कूल में ताला लगने की स्थिति आ गई। एक जीता जागता, खिलखिलाता स्कूल अंतिम सांसें ले रहा था।
एक निजी संस्था टेक मन्द्रि फाउंडेशन ने प्रशासन को प्रस्ताव दिया कि इस स्कूल को बंद न किया जाए। आप चाहें तो हम इसे चलाने की कोशिश करते हैं। आख़िर बात आग बढ़ी लेकिन साथ ही एक संदेह भी कि निजी कंपनी व्यवसायी को देना ख़तरे से खाली नहीं है। वैसे भी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप पर दसियों सवाल खड़े किए जाए रहे हों। ऐसे में शिक्षा विभाग ने कदम उठाया और टेक महिन्द्रा फाउंडेशन ने इस स्कूल में एक अन्य शैक्षिक संस्था के सहयोग से स्कूल की इमारत में से महज चार कमरों में काम करना शुरू किया।
आज की तारीख में इस स्कूल में तकरीबन चालीस बच्चे हैं। नर्सरी, कक्षा 1, 2, 3, 4 और 5 में बच्चे पढ़े रहे हैं। एक और दो को एक साथ और तीन, चार और पांचवीं कक्षा को एक साथ किया गया है। इन बच्चों को देख कर ज़रा भी महसूस नहीं होता कि ये सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। तेज तर्रार सवालों की झड़ी लगाने वाले इन बच्चों की आंखों में सपने हैं। उन सपनों को पूरा करने की ललक और तड़प भी नजर आती है। कभी इन बच्चों से बात करने का मौका मिले तो जान पाएंगे कि पढ़ने के प्रति इनका नजरिया क्या है। विषयवार इनकी गति भी संतोषप्रद है।
राजस्थान, उत्तराखंड़, बंगाल, पंजाब आदि राज्यों में पिछले कुछ सालों में चार हजार से लेकर अट्ठारह हजार सरकारी स्कूलों को बंद किए जा चुके हैं। या फिर सरकारी स्कूलों को इस तर्क पर निजी संस्थानाओं को चलाने के लिए दे दिया गया कि सरकार इन्हें चला पाने में सक्षम नहीं है।
आरटीई लागू हुए तकरीबन छह साल पूरे हो चुके हैं लेकिन अभी भी ऐसे स्कूल हैं जहां पाने का पानी, शौचालय, शिक्षक आदि नहीं हैं। जहां हैं भी वे इस्तमाल के योग्य नहीं हैं। एक बारगी निजी कंपनियों की मदद लेना या उन्हें सरकारी स्कूलों को सौंपना गलत है यदि उनकी मनसा में खोट नहीं है तो। यदि ऐसा ही होता तो जिस स्कूल की चर्चा की गई है वहां स्कूल की काया ही बदल चुकी है। वरना सरकार ने तो हाथ खड़े कर दिए थे।
आज सरकारी स्कूलों को बचाने की जरूरत है। जिस प्रकार से राजनेताओं ने एक एक गांव को गोद लिया और उसकी काय पलट करने की ठानी उसी तर्ज पर यदि सरकारी स्कूलों को स्थानीय निकाय के चयनित प्रतिनिधि गोद ले लें तो सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार संभव है। याद हो कि उत्तर प्रदेश न्यायालय ने दो वर्ष पूर्व आदेश दिए थे कि हर सरकारी अधिकारी को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य होगा। हकीकतन ऐसा अमल में नहीं हुआ। ज़रा कल्पना की जा सकती है कि यदि सरकारी स्कूलों में स्थानीय अधिकारियों के बच्चे आने लगें तो वहां का मंजर कैसे होगा। खुद ब खुद शिक्षक, शिक्षा विभाग में एक आमूल परिवर्तन हो जाएगा।


Wednesday, February 8, 2017

मॉल की शरण में


कौशलेंद्र प्रपन्न
उदास हैं, खाली हैं या फिर अकेला तो मॉल की शरण में जाइए। यहां किसका इंतजार सा है। किसके पास वक्त है आपके अकेलेपन, खुशी, निराशा में साथ होने का। सब के सब अपने अपने अकेलेपन के साथ हैं। जो अकेला नहीं है वह भीड़ में है। भीड़ उसके अंदर इस कदर बैठ चुकी है ि कवह भीड़ से बाहर खुद को न देख पाता है और न पहचान पाता है।
अगर अकेला महसूस कर रहे हैं, निराश हैं, एकाकीपन से भरे हैं तो आपके पास शहर में भटकने और मॉल में घूमने के अलावा क्या कोई और जगह है जहां आप जा सकें। शायद यह हमारी आज की जिंदगी की सबसे बड़ी विड़म्बना है कि जैसे जैसे हम आधुनिक हुए हैं वस्तुओं से घर को दुकान बनाया है वैसे वैसे हम अंदर से इतने खाली और खोखले हो गए हैं कि हर वक्त हम बाहरी चीजों से उस खालीपन को भरने की कोशिश करते हैं।
अखबार में देख कर कि आज महा सेल है। ऑन लाइन और मॉल में भी बस सब कुछ छोड़कर मॉल जा पहुंचते हैं। जिन चीजों की जरूरत भी नहीं होती वह भी पचास और सत्तर प्रतिशत की छूट देखकर खरीद लाते हैं। खरीदते क्या हैं बस मन की बेचैनीयत को सामानों से दबाने का प्रयत्न करते हैं।
अकसर दो या तीन दिन की छुट्टियां एक साथ आती हैं तब हम बाहर भागने का प्रयास करते हैं। दिल्ली की तमाम गाड़ियां उत्तराखंड़, पंजाब, राजस्थान, हिमाचल की ओर दौड़ने लगती हैं। जिनकी जेबें मोटी हैं वे सिंगापुर, बैंकाक, थाईलैंड, श्रीलंका तक दौड़ आते हैं। दौड़ और रफ्तार में रहने वाली हमारी जिंदगी हर वक्त गतिमान रहती है। इस रफ्तार में हम बहुत कुछ खो रहे हैं बल्कि खो चुके हैं इसका एहसास शायद कुछ समय बाद हो या यह भी संभावना है कि इसका इल्म तक न हो और हम एक लंबी यात्रा पर निकल पड़ें।
संभव है यह खालीपन एक महानगरीय शहराती माहौल की उपज हो। लेकिन यह एकाकीपन बहुत तेजी से महानगरीय धड़कनों में घहराती जा रही है। यही कारण है कि युवा तो युवा वयस्क होती पीढ़ी भी अपने अंदर की रिक्कता को मॉल जैसे भीड़ में भरने की कोशिश कर रहे हैं। भला हो आज कल के फोन का जिसके जिस्म में कैमरे अच्छे समा गए हैं। कोई कहीं जाता है घूमता टहलता है उस क्षण को लेंस में कैद कर सब को बताता है कि देखो, जलो, चिढ़ों की वह अकेला नहीं है। कि देखो वह भी भीड़ में है। कि देखो वह भी सेल को लाभ उठा रहा है। कि देखो वह एकाकी नहीं है। जीवन की इस भाग दौड़ में वह भी शामिल है।
छोटे और मंझोले शहरों की जिंदगी भी बदली है वह भी परिवर्तन के साथ कदम ताल कर रहे हैं। लेकिन जिस रफ्तार से महानगर में तब्दीली आई है उसके अनुपात में कम मान सकते हैं। क्योंकि वहां अभी भी दिन भर या शाम में करने के नाम पर घर में काम हुआ करता है। यूं तो घर पर काम यहां भी है लेकिन उसकी प्रकृति अलग है। रविवार की सुबह कामकाज वाली महिलाएं घर के तमाम काम निपटाती हैं। हां चूल्हे से दूर बाजार के खाने की ओर भागती बच्चों, पति की निगाहें पढ़कर चूल्हे का इस्तमाल चाय के लिए की जाती है। वहीं छोटे शहरों में अभी भी घर पर नाश्ता बनाने का चलन बचा हुआ है। लेकिन उन शहरों में भी तेजी से फास्ट फूड घरेलू नाश्तों, शाम के नाश्तों का गला घोट रही हैं। हर गली, मुहल्ले के मुहाने पर चाउमीन, बरगर, मोमोज् की दुकानें बहुतायत में देखी जा सकती हैं।
कुछ अंतरराष्टीय ब्रांड खान-पान, वेशभूषा बनाने वाली कंपनियों ने छोटे और मंझेले शहर को निशाना बना रही हैं। आखिर वे भी तो सूचना और खबर की दुनिया के हिस्सा हैं उन्हें भी देश दुनिया के ब्रांडेड सामान देखने सुनने को मिल रहे हैं। इसलिए अब वो तमाम चीजें शहरां, कस्बों में भी उपलब्ध हैं जो कभी दिल्ली कोलकाता जैसे महानगरों के मुंह जोहना पड़ता था। इसने स्थानीय बाजार और दुकान की बिक्री को प्रभावित किया। दर्जी और चर्मकार की दुकानें खाली होने लगीं। सिलाकर शर्ट व पैंट पहनने का जमाना लद चुका। जूता बनवाकर पहनने वाले कब के बिला चुके। इन कर्मकारों को अपनी जिंदगी बसर करने के लिए अब कुछ और कामों की ओर मुड़ना पड़ रहा है। यही नहीं जेनरल स्टोर को अपनी पहचान और रोजगार बचाने के लिए अन्य सामानों की बिक्री भी करनी पड़ रही है। जब से एक छत के नीचे वातानुकूलित हवा खाते हुए शॉपिंग की लत लगी है तब से जेनरल स्टोर खाली होते चले गए।
हालांकि यह सच है कि परिवर्तन और विकास दोनों एक रेखीय नहीं होती। इसके बहुस्तरीय प्रभाव देखे जा सकते हैं। समाज का विकास और परिवर्तन दोनों एक साथ होते हैं। इसमें दौर में न केवल शहर का भूगोल पुनर्परिभाषित होता है बल्कि वहां की सांस्कृतिक थाती भी नए चोले में ढलती है। फिर इससे किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि शहर की हवा ही खराब हो गई। बच्चे मॉलों में इश्क ला रहे हैं। बच्चों को महानगर की हवा लग गई। इसके लिए भी हमारी मानसिक जमीन तैयार होनी होगी कि शहर का भूगोल बदला है तो वहां का मिजाज भी बदलेगा। उपभोक्ता बाजार के लिए सिर्फ और सिर्फ उपभोक्ता होता है। बाजार को मुनाफा कमाना होता है। चाहे आपकी संस्कृति, संवेदना पिछले रास्ते से कूच कर जाए।
कभी वक्त था जब व्यक्ति उदास होता, अकेला होता तो घर परिवार या दोस्तों के बीच टहल आता। अपनों से अपनी बातें, कसक बांट आता लेकिन आज का दौर ही है कि आपकी बतियां सुनने को कोई तैयार नहीं। हम सब कुछ कहना और अभिव्यक्त करना चाहते हैं। मन की बेचैनी को कह देना चाहते हैं लेकिन सवाल है किससे कहें। हर कोई तो मॉल में सन्नाटा बुनने में लगा है। हर कोई अपने खालीपन को बाजार से भरने में व्यस्त है।


Monday, February 6, 2017

शहर सोता रहा....

शहर सोता रहा....
शहर में कोई हलचल नहीं,
सब सो रहे थे,
पूरा शहर सो रहा था।
मंदिर,गुरुद्वारा,
सब मौन थे,
सुबह घंटे बजते,
सबद होता।
शहर सो रहा था
बीच से चीरती हुई
सड़क निकल गई
बीच शहर से
काली,पतली सड़क।
सड़क के रास्ते जो भी आया
उसे उजड़ना पड़ा।
शहर के बीचों बीच चीरती हुई निकल गई सड़क
दनदनाती गाड़ियां
तेज रफ्तार में
रात के सन्नाटे को चीरती
पास से गुजरती रात।
शहर सो रहा था
रात सोई थी,
सोया था शहर अपनी पूरी नींद में
बस शहर के लोग जगते सुबह सुबह
कि एक तेज रफ्तार ने रौंद दिया था बाबु को
शहर की नींद खुली
शहर सड़कों पर था,
कि भीड़ चाहती थी
सड़क को सज़ा मिले
सड़क खोद दी गई।
लेकिन एक फ्लाइ ओवर हुआ करता था
जहां से गुजर जाती थी सड़क
सरपट,
बिना शहर को जगाए।

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