Wednesday, December 14, 2016

पुनः परीक्षा भव


कौशलेंद्र प्रपन्न
मानव संसाधन विकास मंत्री ने हाल ही में घोषणा की है कि आने वाले कुछ ही दिनों में शिक्षाविद्ों की एक समिति राष्टीय शिक्षा नीति पेश करेगी। इस समिति में सांसद,शिक्षाविद्, अन्य विशेषज्ञों का शामिल किया गया है। लेकिन इसका खुलासा नहीं  किया गया कि वे कौन से शिक्षाविद्, सांसद एवं सदस्य हैं। संभव है उन नामों से पता चल सके कि इस राष्टीय शिक्षा नीति की पूर्वग्रहों और वैचारिक प्रतिबद्धता का अनुमान लग सके। इन्हें ध्यान में रखते हुए नामों को अभी तक गोपनीय रखा गया हो। गौरतलब है कि राष्टीय शिक्षा नीति पर 2015 में काम शुरू हुआ था। तब स्मृति ईरानी हुआ करती थीं। उस नई राष्टीय शिक्षा नीति को टीएसआर सुब्रमण्यन नेतृत्व कर रहे थे। किसी कारण से इस एनपीई के कुछ पन्ने सुब्रमण्यन ने सोशल मीडिया के पर साझा किया था और आनन फानन में सरकार ने अपनी ओर चालीस पन्नों का एक दस्तावेज नागर समाज के साझा किया था। संभव एनपीई को नई चाल में ढाल कर नागर समाज को सौंपने की योजना बना रही है। शिक्षा में इन बरस काफी कुछ घटी हैं और बल्कि कहना चाहिए तेजी से घट भी रही हैं। हाल ही में एनसीईआरटी ने घोषणा की है कि जल्द ही पूरी देश भर के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले कक्षा से आठवीं तक के बच्चों की सीखने की गति और गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जाएगा। एनसीईआरटी के साथ ही गैर सरकारी संस्था प्रथम की ओर हर साल असर रिपोर्ट छपती रही है जिसमें बताया जाता है कि कितने बच्चे पढ़ पाते हैं, कितने बच्चे लिख पाते हैं, कितने बच्चे महज पढ़ तो लेते हैं लेकिन समझ नहीं पाते आदि। अब यह इसी काम को एनसीईआरटी करने जा रही है जिसका मकसद व्यापक स्तर पर बच्चे क्या पढ़-लिख रहे हैं उसकी जांच की जाए और समाज के सामने उस सच्चाई को लाई जाए जिससे हमारा साबका पड़ता है।
एनसीईआरटी के इस अभियान में गणित और विज्ञान को शिमल किया गया है। मालूम नहीं कि किस शैक्षिक विमर्श के हवाले से भाषा को छोड़ दी गई है। क्या ही बेहतर होता कि जब हम गणित और विज्ञान में बच्चों की समझ जांच ही रहे हैं तो भाषा को भी शामिल कर ली जाए। हालांकि भाषा में बच्चों की गति को मांपने वाली रिपोर्ट वैश्विक स्तर पर जीएमआर और डाईस आदि भी जारी करती रही हैं संभव इसलिए इस बार भाषा की बजाए गणित और विज्ञान को केंद्र में रखा गया।
ध्यान हो कि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति और एनसीईआरटी ने मानव संसाधन मंत्रालय को सिफारिश सौंपर है कि दसवीं की परीक्षा 2017-18 से दुबारा शुरू की जाए। वर्तमान एचआरडी ने इस पर अपनी सहमति भी दे चुकी है। यानी पुनः परीक्षा भव चरितार्थ होता नजर आ रहा है। दसवीं की बोर्ड परीक्षा और किसी भी बच्चे को आठवीं तक फेल न किए जाने के पीछे विमर्श यह हुआ था कि बच्चों में परीक्षा को लेकर एक डर भय पैदा हो चुका है इसे दूर किया जाना चाहिए। क्योंकि परीक्षा के डर की वजह से ही हजारों बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। अपने बच्चों को आत्महत्या से बचाने के लिए परीक्षा की प्रकृति को बदलने की आवश्यकता है। और देखते ही देखते सतत् मूल्यांकन का चलन शुरू हुआ। शिक्षकों की मानें तो आगे चल कर बच्चों में पढ़ने की ललक कम होती चली गई। बच्चों के अंदर की पढ़ने के प्रति दिलचस्पी भी कम होती चली गई। बच्चे स्पष्ट कह देते थे कि आप फेल नहीं कर सकते। फेल कर के दिखाओ जैसी धमकियां देते बच्चे कक्षा में उभरने लगे। शिक्षकों की चिंता भी एक तरह से जायज लगती है कि बच्चों को पढ़ाने में काफी दिक्कतें आ रही हैं जब से उन्हें मालूम चला कि उन्हें फेल नहीं किया जाएगा। वहीं इस नीति का एक दूसरा चेहरा भी सामने आया कि कक्षा 8वीं तक जो बच्चे नीतिगत प्रावधान की वजह से अगली कक्षा में भेज दिए जाते थे अचानक नौंवी कक्षा में फेल होने वाले बच्चों की संख्या में उछाल देखा गया। इसी वर्ष जुलाई में विभिन्न अखबारों ने खबरें लगाईं कि नौंवी तकरीबन 20 हजार बच्चे दिल्ली में फेल हो गए। यह केवल दिल्ली का ही मसला नहीं था बल्कि पूरे देश में बच्चे नौंवी में फेल हो रहे हैं। शिक्षकों और प्रधानाचार्यों का मानना है कि फेल न करने की नीति ने बच्चों को गंभीर पढ़ने से विमुख किया। आने वाला साल 2017 शिक्षा की दृष्टि से ख़ासा महत्वपूर्ण होने वाला है। नई राष्टीय शिक्षा नीति आएगी, बच्चों को दसवीं की परीक्षा देनी होगी। साथ ही कक्षा एक से आठवीं तक के बच्चों की गणित और विज्ञान की समझ की परीक्षा ली जाएगी जिसे राष्टीय स्तर पर साझा किया जाएगा।
शिक्षा में परीक्षा, मूल्यांकन, शिक्षण पद्धति एवं कौशल विकास आदि को अहम अंग माना जाता है। इनमें से कोई भी कड़ी कमजोर होती है तो उसका असर बच्चों पर साफ दिखाई देती है। क्योंकि हमारा अंतिम लक्ष्य बच्चां को निर्भय एवं सृजनात्मक नागरिक बनाना है। यह किसी भी परचे को पास कर अंक व ग्रेड हासिल करने से नहीं आ सकता।


Tuesday, December 13, 2016

उत्तर प्रशिक्षण कार्यशाला अध्यापकीय कक्षा अवलोकन


कौशलेंद्र प्रपन्न

उद्देश्य-
शिक्षक/शिक्षिका प्रशिक्षण उपरांत क्या शिक्षण कार्यशाला में बताए शिक्षण कौशलों का इस्तमाल कर पा रहे हैं?
क्या प्रशिक्षण के पश्चात् शिक्षक अपनी कक्षा में नई शैली का प्रयोग कर रहे हैं?
क्या उन्हें दुबारा कार्यशाला की आवश्यकता है।
हिन्दी शिक्षण कार्यशाला की आवश्यकता और शिक्षकीय शिक्षण कौशल में किस प्रकार हम मदद कर सकते हैं इन्हें ध्यान में रखते हुए कार्यशाला का आयोजन करते हैं। इन कार्यशालाओं में हिन्दी क्षेत्र के प्रख्यात शिक्षक/प्रशिक्षक/कवि/लेखक और कथाकारों को आमंत्रित किया जाता है। दिल्ली के विभिन्न शिक्षण संस्थानों-एनसीईआरटी, एससीईआरटी, डाइर्ट और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों को कार्यशाला का हिस्सा बनाया जाता है।


कार्यशाला के पश्चात् क्या शिक्षकों के शिक्षण कौशल और कक्षायी वातावरण में कोई बदलाव घटते हैं यदि हां तो वह किन स्तरों पर दिखाई देता है, इसका आलोकन हमारे कार्यशाला का एक प्रमुख अंग है। इन उद्देश्यों को पाने व जांचने के लिए हमने अगस्त से दिसबंर के मध्य कुछ विद्यालयों में शिक्षकों की कक्षाओं का अवलोकन किया।

हमने इन अवलोकनों में पाया कि उत्तर प्रशिक्षण कार्यशाला न केवल शिक्षकों के व्यवहार में बदलाव देखे गए बल्कि वे पहले जिस शैली में हिन्दी पढ़ाती/पढ़ाते थे उनमें भी गुणात्मक सुधार पाए गए। कक्षाओं में लिखित और मुद्रित सामग्रियों की बहुतायत मात्रा में उपस्थिति देखी गई। बच्चा कक्षा में ज्यादा से ज्यादा लिखित शब्दों, कहानी, कविता को देखे इसके लिए मैग्जीन और पत्र बनाने का अभ्याय कार्यशाला में कराया गया जिसका उदाहरण हमें कई कक्षाओं में देखने को मिलीं।

कविता कहानी का वाचन और पठन कैसे किया जाए ताकि बच्चों में रूचि जगे इसके लिए कार्यशाला में बताई गई गतिविधियों का प्रयोग शिक्षक/शिक्षिका कक्षा में करते हुए मिले। कुछ कक्षाओं के अवलोकन के बाद हमें महसूस हुआ कि हमें शिक्षकों में प्रस्तुतीकरण और आत्मविश्वास विकास पर भी ध्यान देना चाहिए।








Monday, December 12, 2016

शिक्षा इस बरस उर्फ मारी गई बेचारी


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा में भी कई सारी घटनाएं इस वर्ष घटी हैं जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। इन्हीं घटनाओं से शिक्षा को आने वाले वर्षों में आकार मिलने वाला है। शिक्षा को प्रभावित करने वाले घटकों में राजनीति, अंतरराष्टीय घोषणाएं, राष्टीय स्तर पर की गई पहलकदमियों की परतों को खोलना होगा। भारतीय शिक्षा को गहरे प्रभावित करने वाले तत्वों की पहचान कर उनके निहितार्थों को समझना होगा। शैक्षिक परिदृश्य में 2016 में हुई पहलों को समझने के लिए ठहर कर देखना होगा। पहली अहम घटना राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण और उसकी घोषणा है। हालांकि राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण की घोषणा 2015 में हुई थी लेकिन वह दस्तावेज 2016 के जून में किसी तरह आमजनता के बीच खुल गई। सरकारी स्तर पर आधिकारिक खुलासा नहीं था। इसलिए बाद में सरकार उसे आम जनता की सिफारिशों के लिए जारी की। वहीं सहस्राब्दि विकास लक्ष्य जो 2000 में लॉंच किया गया था। उसके अनुसार 2015 तक सभी बच्चों की बुनियादी शिक्षा का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा, वह 2016 में तय सीमा को बढ़ाकर 2030 किया गया। वहीं मानव संसाधन मंत्रालय को एनसीईआरटी ने सिफारिश दी कि कक्षा आठवीं तक की शिक्षा को मातृभाषा में दी जाए। साथ ही केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने सिफारिश की कि दसवीं की बोर्ड परीक्षा दुबारा से शुरू की जाए। इसे सिफारिश को मंत्रालय ने अपनी स्वीकृति भी दे चुकी है।
नई राष्टीय शिक्षा नीति बनाने की जरूरतों पर लंबे समय से बात चल रही थी। यह काम 1986 के बाद 2015-16 में संभव हो सका। इस दस्तावेज में भाषा,विज्ञान, गणित आदि विषयों की शिक्षण पद्धतियों पर विचार किए गए हैं। लेकिन यह दस्तावेज विवाद के घेरे में तब आया जब इस दस्तावेज समिति के प्रमुख ने स्वयं ही कुछ पन्ने सोशल मीडिया के मार्फत जारी किए। तक सरकार की मजबूरी हो गई कि उस दस्तावेज को आमजनता को उपलब्ध कराया जाए। दिलचस्प बात यह है कि आम जनता से 180 शब्दों में ट्विट के स्वरूप में सुझाव मांगे गए थे। हालांकि जिन्हें इस दस्तावेज में रूचि थी उनसे 31 जुलाई तक सुझाव शामिल करने के दावे किए गए थे। उन्हें किस स्तर और कहां जगह दी गई यह तो मूल नीति दस्तावेज को देखने के बाद ही मालूम होगा। राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण में दावा किया गया कि गांव और ब्लॉक स्तर पर विचार विमर्श के जरिए सुझाव मांगे गए। समाज के विभिन्न एनजीओ और शिक्षा आधिकार कानून के लिए लंबे समय से वकालत करने वाली संस्था आरटीईफोरम ने भी अहम भूमिका निभाई। लेकिन चालीस पेज के दस्तावेज को देखने और अध्ययन करने के बाद आरटीईफोरम के संयोजक श्री अमरीश राय मानते हैं कि यह दस्तावेज ज्यादा उम्मीद नहीं जगाती बल्कि पूर्वग्रहों को ढोने वाली सी लगती है। नई राष्टीय शिक्षा नीति में इतिहास, भाषा और विज्ञान को एक ख़ास नजर से देखने और पढ़ाने की वकालत भी की गई है। शिक्षाविद्ों की नाराजगी भी इस एनसीएफ पर सामने आ चुकी है।
सहस्राब्दि विकास लक्ष्य में शिक्षा को भी शामिल किया गया था। इसमें हमने घोषित किया था कि 2016 तक सभी 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर देंगे। लेकिन हम इस लक्ष्य को पाने में विफल रहे। 2015 में आरटीई के लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर पाए। इसे देखते हुए आरटीई और एमडीजी लक्ष्य अब जिसे सस्टनेबल डेवलप्मेंट सतत विकास लक्ष्य को 2030 तक प्राप्त करने तक धकेल दिया गया है। इस एसडीजी के लक्ष्य के अनुसार अब हम 2030 तक सभी बच्चों को समान, गुणवत्तापूर्ण समेकित शिक्षा प्रदान कर लेंगे। लेकिन इस लक्ष्य को पाने में क्या और किस प्रकार की दिक्कतें आएंगे उस ओर ग्लोबल एजूकेशन मोनेटरिंगे रिपार्ट 2016 का मानना है कि भारत में अभी भी सात करोड़ से ज्यादा बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। यहां तक कि स्कूलां में प्रशिक्षित शिक्षकों कमी है। इस तथ्य को तो सरकारी संस्था नीपा द्वारा जारी डाइस रिपोर्ट में भी देखी जा सकती है। सिर्फ दिल्ली की बात करें तो पांच से छह हजार शिक्षकों के पद खाली हैं। बिहार, राजस्थान, हरियाण, उत्तर प्रदेश बंगाल आदि में चार से पांच लाख पद रिक्त हैं। बिना शिक्षकां के क्या लक्ष्य हासिल कर पाएंगे? क्या तदर्थ शिक्षकों के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर पाएंगे। ये कुछ ऐसे जमीनी सवाल हैं जिनका जवाब हमें देना होगा। स्थाई शिक्षकों को बहाल करने से बचने वाली सरकार तदर्थ शिक्षकों को नियुक्त कर रही है। हाल ही में दिल्ली सरकार ने तदर्थ शिक्षकों के मासिक वेतन में बढ़ोत्तरी कर अब 33,000 देने की घोषणा की है। देखना यह भी दिलचस्प होगा कि क्या अन्य राज्यों में भी तदर्थ शिक्षकों को पांच और दस हजार से आगे जाकर कितने वेतन मिल रहे हैं।
कौशल विकास और डिजिटल इंडिया निर्माण के दौर में शिक्षा को भी इसी राह पर तो हांक दिया गया लेकिन क्या स्कूली रास्ते को उस लायक बनाया गया? क्या शिक्षक स्कूलों में हैं? यदि हैं तो क्या वे स्वयं तकनीक का इस्तमाल कर रहे हैं? महानगरों को छोड़ दिया जाए तो कस्बों और गांवों में स्कूल के भवन कम्प्यूटर चलाने के लिए तैयार हैं? हकीकत यह है कि अभी भी एकल शिक्षकीय स्कूल वजूद में हैं। दो या तीन शिक्षकों के कंधे पर प्राथमिक शिक्षा दौड़ रही है। कौशल विकास को हवा पानी देने के लिए स्कूलों में वोकेशनल यानी रोजगारपरक कोर्स को बढ़ावा दिया जा रहा है। कक्षा तीसरी से रोजगारपरक कोर्स चुनने के विकल्प बच्चों के हाथ में दिए जाने की योजना बन चुकी है। तर्क यह दिया गया कि जो बच्चे शुरू से ही काम करना चाहते हैं उन्हें स्कूलों में ही जीवन कौशल और काम के हुनर प्रदार किए जाएं ताकि स्कूल से बाहर आते ही अपना रोजगार शुरू कर सकें। क्या ऐसा नहीं लगता कि यह आरटीई के प्रावधानों को धत्ता बताना है क्योंकि एक ओर तो 14 वर्षतक के बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान करने की बात की जा रही हैं वहीं हम उन्हें स्कूल बीच में ही छोड़ जाने की स्थिति में काम कौशल का झुनझुना पकड़ा रहे हैं। वर्तमान सरकार की वोकेशनल कोर्स के लागू करने के पीछे की बेचैनी को समझने की आवश्यकता है।
केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने हाल ही में एचआरडी को सिफारिश दी है कि दसवीं की परीक्षा पुनः बहाल की जाए। साथ  ही साथ कक्षा आठवीं तक किसी भी बच्चे को फेल नहीं किए जाने की नीति में बदलाव लाने की मांग की गई। माना गया कि इससे बच्चों में पढ़ने की आदत में गिरावट और डर खत्म हो गया। बच्चों में क्षीण होती पढ़ने की आदत को कैसे विकसित किया जाए इस ओर कोई खास गंभीर विमर्श सुनने और पढ़ने को भी नहीं मिलते। जबकि डिजिटल इंडिया निर्माण पर खासा बहसें सुनी जा सकती हैं। यह भी कितना एकल विकास है कि जहां किताबें लाइब्रेरी तक नहीं पहुंचती लेकिन हम डिजिटल पाठकों की कल्पना से भर गए हैं।


Friday, December 9, 2016

शहर में लाइब्रेरी हुआ करती थी....


कौशलेंद्र प्रपन्न
नालंदा विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी कहते हैं छह माह तक जलती रही थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह ज्ञान-मीमांसा एवं ज्ञान-सृजन की रफ्तार को कम करने की मानवीय विकास के इतिहास में पहली बड़ी घटना के तौर पर दर्ज की जानी चाहिए। किसी भी समाज के बौद्धिक विकास में स्थानीय शैक्षिक संस्थानों और उसकी पुस्तकालयी योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन अफ्सोसनाक बात यही है कि समाज के विकास में पुस्तकालयों को समुचित स्थान नहीं मिल पाया है। आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे पास आमजनता तक पुस्तकालय की पहुंच नहीं बन पाई है। यूं तो विभिन्न शैक्षिक समितियों में पुस्तकालय की महत्ता के गुणगान किए गए हैं, लेकिन हकीकतन वह आज भी शैक्षिक संस्थानों में एक कोने और कमरों में सिमटी ही दिखाई देती है। जब भी किसी सुनियोजित और योजनाबद्ध नगर का निर्माण किया जाता है तब स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक भवन, बाजार आदि की योजना बनाई जाती है लेकिन एक पुस्तकालय भी हो ऐसी चर्चा की सुगबुगाहट सुनाई नहीं देती। आधुनिक शहरों और अत्याधुनिक शहरों की परिकल्पनाकार मॉल्स, फास्ट रेल, यातायात के साधन,वातानुकूलित शॉपिंग सेंटर तो बनाते हैं लेकिन ज्ञान-पुस्तकादि के चाहने वालों को दरकिनार कर दिया जाता है। महानगरों में तो पुस्तकालय नजर नहीं आतीं तो कस्बों और द्वितीय श्रेणी के शहरों में पुस्तकालय की तलाश तो और भी कठिन काम है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि शहरों में तो फिर भी अत्याधुनिक पुस्तकालय नजर आ जाएं लेकिन छोटे शहरों में तो वाचनालय तक ही महदूद कर दिए जाते हैं। जहां पुस्तकालय के नाम पर अखबार और पत्रिकाएं पढ़-पलट सकते हैं। यदि दिल्ली की बात की जाए जो अमेरिकन, ब्रिटिश लाइब्रेरी के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय एवं अन्य कॉलेजीय और विश्वविद्यालयी लाइब्रेरी एवं संसद की लाइब्रेरी को छोड़ दें तो कोई भी लाइब्रेरी नजर नहीं आएंगी। एक बेहद पुरानी लाइब्रेरी लाला हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी जो 1862 में स्थापित हुई थी वह इन दिनों बेहद खस्ता हाल में है, को छोड़कर कोई ऐसी जगह नहीं है जहां पाठक अपने पसंद की किताबें, जर्नल आदि पढ़-पलट पाएं।
 लाला हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी में कहते हैं कि 8000 से भी ज्यादा अत्यंत पुरानी पांडुलिपियां हैं जो अब अपनी मौजूदगी को किसी तरह बचाए हुए हैं। उनकी हालत यह है कि उन्हें उलटने पलटने से डर लगता है कहीं वे पन्ने टूट न जाएं। इसलिए सरकार की नींद अब ख्ुली है कि उन पांडुलिपियों को संरक्षित और डिजिटलाइज किया जाए ताकि उन्हें भविष्य के लिए बचाया जा सके। इस लाइब्रेरी की खासियत है कि यहां अरबी, फारसी, संस्कृत आदि भाषाओं की अत्यंत पुरानी किताबें संरक्षित की गई हैं किन्तु उचित रख रखाव की कमी की वजह से मरनासन्न हैं। उन्हें जिंदा रखने के लिए भारत सरकार ने अब आर्थिक मदद के हाथ बढ़ाएं हैं। यह तो एक लाइब्रेरी की मृत्यु गाथा है।देशा के विभिन्न राज्यों में राज्य स्तरीय पुस्तकालय भी हैं जिन्हें बचाए जाने की आवश्यकता है। मालूम हो कि पहले राजा रजवाड़ों को पढ़ने के शौक बेशक न हो किन्तु छवि ऐसी बनी रहे कि उनके यहां किताबों की इज्जत की जाती है वे अपने महल में एक कोना जिसे पुस्तकालय कहें तो अनुचित नहीं होगा, हुआ करती थी। राजा की मृत्यु के बाद न तो महल महफूज रहे और न वे किताबें हीं। वे भी सत्ता और शासन के साथ ही अपनी रक्षा के लिए मुंह जोहने लगे। राजस्थान के कई इलाकों में आज भी प्राचीन पुस्तकालय हैं जहां बहुत महत्व की पुरानी पांडुलिपियां धूल फांक रही हैं। यदि हमने आज उन्हें नहीं बचाया तो वे हमारी नागरीय ज्ञान-मीमांसा के भूगोल से सदा के लिए गायब हो जाएंगी।
पटना में स्थित ख़ुदा बक्श ओरिएंटल लाइब्रेरी के बारे में कहा जाता हैकि यहां पर फारसी,अरबी, पाली,संस्कृत की जितनी पांडुलिपियां हैं वे देश के किसी भी अन्य पुस्तकालय में मिलना दुर्लभ है। लेकिन इस पुस्तकालय की हालत भी दयनीय और शोचनीय है। कर्मचारियों के पद वर्षों से खाली हैं तो हैं उन्हें भरने की कोशिश नहीं की गई। खाली पदों की समस्या से लाला हरदयाल पुस्तकालय, कोलकाता का राष्टीय पुस्तकालय आदि भी जूझ रहे हैं। शैक्षिक संस्थानों में शिक्षकों के साथ ही लाइब्रेरी प्रोफेशनल्स की बेहद कमी है लेकिन सरकार तदर्थ पर ही काम चला रही है। मालूम हो कि स्कूल, कॉलेजों में कितनी शैक्षिक पदें खाली हैं इस तरह की ख़बरें तो आती रहती हैं लेकिन उन पुस्तकालयों में कितने प्रोफेशनल्स के पोस्ट खाली हैं इस ओर कोई खास रिपोर्ट नजर नहीं आती।
पूरे देश भर में पुस्तकालय विज्ञान में हर साल छात्र-छात्राएं स्नातक और परास्नातक, एम फिल और पीएचडी की उपाधि हासिल कर बाजार में उतर रहे हैं लेकिन वे कहां जा रहे हैं इसका आकड़ा नहीं है। वे सरकारी पुस्तकालयों में तो कार्यरत नजर नहीं आते तो फिर वे कहां हैं? वे निजी शैक्षिक संस्थानों में कम वेतन पर खम रहे हैं। उनकी पुस्तकालय विज्ञान में हासिल दक्षता और कौशल का काफी हिस्सा बेकार जा रहा हैं जो कहीं न कहीं मानवीय दक्षता का क्षरण माना जाएगा। पुस्तकालय विज्ञान के पितामह माने जाने वाले एस आर रंगनाथन आजादी के बाद पुस्तकालय को विज्ञान और विभागीय पहचान दिलाने में अपना योगदान दिया। रंगनाथन का वर्गीकरण सिद्धांत काफी चर्चित काम माना जाता है। इन्होंने कहा था कि पुस्तकालय एक संवर्द्धनशील संस्थान है, हर किताब इस्ताल के लिए हैं और हर पाठक के लिए किताब होती है आदि। उनके पांचों सिद्धांतों पर नजर डालें तो आज न तो पाठकों के पास किताब पढ़ने की ललक बची है और न पुस्तकालय ही उपलब्ध हैं। जहां पुस्तकालय की सुविधा है वहां पाठक नहीं हैं और हां पाठक हैं वहां पुस्तकें नहीं हैं।
पुस्तकालय महज किताबों, पन्नों, ग्रंथों का घर ही तो नहीं होती। पुस्तकालय एक जीता जागता स्वयं में शिक्षण संस्थान हुआ करती है। लेकिन आज पाम टॉप, स्मार्ट फोन और विभिन्न गजट्स के समय में मुद्रित किताबों के प्रयोग बेशक कम हुए हों लेकिन एकबारगी अप्रासंगिक नहीं हुए हैं। क्योंकि विभिन्न प्रकाशन विभाग से हजारों की संख्या में किताबें हर साल छप रही हैं। वे पाठकों तक आएं न आएं लेकिन पुस्तकालयों में जरूर घर बना लेती हैं। देश में जो किताबें छपती हैं उसकी पांच कॉपी कोलकाता राष्टीय पुस्तकालय में जमा करानी पड़ती है। हालात यह हैं कि इस लाइब्र्रेरी में किताबों को रखने की व्यवस्था तक नहीं है। पुरानी इमारत को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए या फिर उन्हें अन्यत्र भवन मुहैया कराया जाए ताकि इस पुस्तकालय के संरक्षणीय उद्देश्य की पूर्ति ते हो।
पुस्तकालय विज्ञान की दुनिया के प्रतिष्ठित प्रोफेसर पी बी मंगला का मानना है कि देश और समाज पेपरलेस सोसायटी की ओर बढ़ रही है लेकिन पेपर हमारी जिंदगी से यूं ही गायब नहीं हो सकतीं। विश्व भर में रोजदिन लाखों पन्ने छप रही हैं और छप रही हैं किताबें इसलिए यह कहना बेबुनियाद है कि किताबें खत्म हो जाएंगी। किताबें तो रहेंगी ही बेशक उसके फॉम बदल जाएं। यही देखने में भी आ रहा है कि ऑन लाइन किताबें खरीदने और पढ़ने वालों का वर्ग अगल है जो लगातार खरीद-पढ़ रहा है। श्री ज्ञानेंद्र सिंह, पुस्तकालयाध्यक्ष, दयाल सिंह कॉलेज ज्ञानेंद्र का मानना है कि आने वाले दस पंद्रह सालों में लाइब्रेरी वही नहीं होगी जो 2000 से पहले थी। आज किताबें ईफॉम में आ चुकी हैं। बल्कि कहूं तो यूजीसी एवं अन्य शैक्षिक संस्थाएं अपनने जर्नल्स ईफॉम में ही उपलब्ध करा रहे हैं। जिन्हें चाहिए वे ऑन लाइन डाउनलोड कर सकते हैं। निश्चित ही आने वाले वर्षों में किताबें इलेक्टॉनिक रूप हांगी। किताबों को पुराना स्वरूप भी रहेगा किन्तु संख्याएं कम हो जाएंगी। पर्यावरण संरक्षकों की मानें तो कागज निर्माण से हमारे पेड़ काटे जाते हैं।ईफॉम से इन्हें दूर कर सकते हैं।
डॉ राघवेंद्र प्रपन्न, महर्षि वाल्मीकि कॉलेज ऑफ एजूकेशन में सहायक प्रोफेसर के तौर पर अध्यापन कर रहे हैं इनका मानना है कि पढ़ना और शिक्षित करना कोई अभियान के माध्यम से जागरूकता तो पैदा की जा सकती हैलेकिन इस दक्षता को विकसित करने और उसे बच्चों तक में प्रवाहित करने में और भी कई तत्व काम करते हैं। बिना पुस्तकालय को बचाए हम इसकी परिकल्पना भी नहीं कर सकते कि समाज में पुस्तक और पुस्तकालय के बगैर बच्चों और व्यस्कों में पढ़ने की आदत को बरकरार रख सकते हैं। इनका मानना है कि पढ़ने की आदत को बचाए बगैर लाइब्रेरी को नहीं बचाया जा सकता। वहीं महर्षि वाल्मीकि कॉलेज ऑफ एजूकेशन के पुस्तकालयाध्यक्ष श्री रेयाज़ का कहना है कि आने वाले समय में पारंपरिक किताबें सेल्फ से गायब हो जाएंगी। लाइब्रेरी में किताबें कम ईफार्म में ज्यादा नॉलेज कंटेनर मिलेंगी। इतना ही नहीं बल्कि पाठकों की आवाजाही भी लाइब्रेरी में कम होगी क्योंकि उन्हें जानकारियां और किताबें तमाम चीजें ऑन लाइन और इलेक्टानिक रूप में मिला जाया करेंगी। इससे भी बड़ी बात यह कि पुस्तकालय तो तब होंगी जब पढ़ने वाले बचेंगे। आने वाले दिनों में पढ़ने की आदत काफी कम होगी। जो भी होगा ई किताबें और ईकंटेनर होंगे।
राजकमल प्रकाशन के प्रबंध संपादक श्री अशोक माहेश्वरी का मानना है कि हार्ड बाउंड में किताबों को पढ़ने का नशा नहीं जाएगा। हां किताबों के साथ चलने वाली किंडल, पॉम टॉप, ईबुक्स आ जाएंगी लेकिन पुरानी किताबें भी रहेंगी। जहां तक लाइब्रेरी के स्वरूपव का मसला है कि लाइब्रेरी में संभव है ऐसे प्रावधान कर दिए जाएं कि एक ओर एक जगह पर पुरानी प्रकाशित किताबें रखी हों और दूसरी ओर ईबुक्स रखी मिलें। लाइब्रेरी में बदलाव ऐसे भी हांगे कि मुद्रित किताबें की खरीद पर असर पड़े वहीं ईबुक्स भी अपनी जगह बना चुकी हांगी।
कहते हैं इसी शहर में एक लाइब्रेरी भी हुआ करती थी। अब उसकी हालत खराब सी है। जैसी विश्व भर में हजारों भाषाएं या तो मर चुकी हैं या फिर मरने की कगार पर हैं। एक लाइब्रेरी का खत्म होना शायद हम आज न समझ पाएं लेकिन जिन्हें किताबों से मुहब्बत है जिन्हें पढ़ने की लत है वे बड़े परेशान होंगे। लेकिन संभावना यह भी है कि उन्हें बहलाने के लिए नए नए किसिम किसिम के ई बुक्स और नॉलेज कंटेनर आ जाएं और पुरानी लाइब्रेरी नई चाल में ढली नजर आए।


Thursday, December 8, 2016

शहर के भूगोल में पुस्तकालय

शहर के भूगोल में पुस्तकालय
 जब शहर के भूगोल से पुस्तकालय खत्म होने लगें और मॉल्स की भरमार होने लगे तो समझिए बड़ी घटना है। किसी भी शहर को ख़ास वहां की प्राचीरें,संस्थाएं,तहजीब,भाषा-बोली,खानपान आदि बनाया करती हैं।
दिल्ली शहर में बसी एक पुरानी बहुत पुरानी लाइब्रेरी हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी अपनी अंतिम सांसें ले रही है। यह लाइब्रेरी 1862 में शुरू हुई। आज यहां उपलब्ध 8,000 से ज्यादा दुर्लभ पुस्तकें, पांडुलिपियां वास्तव में ख्.ाक में मिल रही हैं। इन्हें सुरक्षित करने, संरक्षित करने की ओर अब सरकार की नींद खुली है। कहते हैं इस पुस्तकालय में औरंगजेब की हस्त लिखित पुस्तक तो हैं ही साथ ही कई ऐसी दुर्लभ पुस्तकें जो अरबी फारसी की हैं यहां हैं जिन्हें बचाए जाने की आवश्यकता है।

शहर में इल्म की फसल तभी लहलहा सकती है जब वहां के लोग पुस्तकालयों को बचाने, पनपनें में अपना योगदान दें। आजादी के सत्तर साल बाद भी हमने एक मुकम्मल पुस्तकालीय समाज को रचने में विफल रहे हैं। मॉल्स, फ्लाई ओवर, फास्ट रेल तो चला दीं लेकिन अपने शहर में एक अदद लाइब्रेरी के लिए बेचैन नहीं होते....!!!

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...