Wednesday, December 14, 2016

पुनः परीक्षा भव


कौशलेंद्र प्रपन्न
मानव संसाधन विकास मंत्री ने हाल ही में घोषणा की है कि आने वाले कुछ ही दिनों में शिक्षाविद्ों की एक समिति राष्टीय शिक्षा नीति पेश करेगी। इस समिति में सांसद,शिक्षाविद्, अन्य विशेषज्ञों का शामिल किया गया है। लेकिन इसका खुलासा नहीं  किया गया कि वे कौन से शिक्षाविद्, सांसद एवं सदस्य हैं। संभव है उन नामों से पता चल सके कि इस राष्टीय शिक्षा नीति की पूर्वग्रहों और वैचारिक प्रतिबद्धता का अनुमान लग सके। इन्हें ध्यान में रखते हुए नामों को अभी तक गोपनीय रखा गया हो। गौरतलब है कि राष्टीय शिक्षा नीति पर 2015 में काम शुरू हुआ था। तब स्मृति ईरानी हुआ करती थीं। उस नई राष्टीय शिक्षा नीति को टीएसआर सुब्रमण्यन नेतृत्व कर रहे थे। किसी कारण से इस एनपीई के कुछ पन्ने सुब्रमण्यन ने सोशल मीडिया के पर साझा किया था और आनन फानन में सरकार ने अपनी ओर चालीस पन्नों का एक दस्तावेज नागर समाज के साझा किया था। संभव एनपीई को नई चाल में ढाल कर नागर समाज को सौंपने की योजना बना रही है। शिक्षा में इन बरस काफी कुछ घटी हैं और बल्कि कहना चाहिए तेजी से घट भी रही हैं। हाल ही में एनसीईआरटी ने घोषणा की है कि जल्द ही पूरी देश भर के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले कक्षा से आठवीं तक के बच्चों की सीखने की गति और गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जाएगा। एनसीईआरटी के साथ ही गैर सरकारी संस्था प्रथम की ओर हर साल असर रिपोर्ट छपती रही है जिसमें बताया जाता है कि कितने बच्चे पढ़ पाते हैं, कितने बच्चे लिख पाते हैं, कितने बच्चे महज पढ़ तो लेते हैं लेकिन समझ नहीं पाते आदि। अब यह इसी काम को एनसीईआरटी करने जा रही है जिसका मकसद व्यापक स्तर पर बच्चे क्या पढ़-लिख रहे हैं उसकी जांच की जाए और समाज के सामने उस सच्चाई को लाई जाए जिससे हमारा साबका पड़ता है।
एनसीईआरटी के इस अभियान में गणित और विज्ञान को शिमल किया गया है। मालूम नहीं कि किस शैक्षिक विमर्श के हवाले से भाषा को छोड़ दी गई है। क्या ही बेहतर होता कि जब हम गणित और विज्ञान में बच्चों की समझ जांच ही रहे हैं तो भाषा को भी शामिल कर ली जाए। हालांकि भाषा में बच्चों की गति को मांपने वाली रिपोर्ट वैश्विक स्तर पर जीएमआर और डाईस आदि भी जारी करती रही हैं संभव इसलिए इस बार भाषा की बजाए गणित और विज्ञान को केंद्र में रखा गया।
ध्यान हो कि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति और एनसीईआरटी ने मानव संसाधन मंत्रालय को सिफारिश सौंपर है कि दसवीं की परीक्षा 2017-18 से दुबारा शुरू की जाए। वर्तमान एचआरडी ने इस पर अपनी सहमति भी दे चुकी है। यानी पुनः परीक्षा भव चरितार्थ होता नजर आ रहा है। दसवीं की बोर्ड परीक्षा और किसी भी बच्चे को आठवीं तक फेल न किए जाने के पीछे विमर्श यह हुआ था कि बच्चों में परीक्षा को लेकर एक डर भय पैदा हो चुका है इसे दूर किया जाना चाहिए। क्योंकि परीक्षा के डर की वजह से ही हजारों बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। अपने बच्चों को आत्महत्या से बचाने के लिए परीक्षा की प्रकृति को बदलने की आवश्यकता है। और देखते ही देखते सतत् मूल्यांकन का चलन शुरू हुआ। शिक्षकों की मानें तो आगे चल कर बच्चों में पढ़ने की ललक कम होती चली गई। बच्चों के अंदर की पढ़ने के प्रति दिलचस्पी भी कम होती चली गई। बच्चे स्पष्ट कह देते थे कि आप फेल नहीं कर सकते। फेल कर के दिखाओ जैसी धमकियां देते बच्चे कक्षा में उभरने लगे। शिक्षकों की चिंता भी एक तरह से जायज लगती है कि बच्चों को पढ़ाने में काफी दिक्कतें आ रही हैं जब से उन्हें मालूम चला कि उन्हें फेल नहीं किया जाएगा। वहीं इस नीति का एक दूसरा चेहरा भी सामने आया कि कक्षा 8वीं तक जो बच्चे नीतिगत प्रावधान की वजह से अगली कक्षा में भेज दिए जाते थे अचानक नौंवी कक्षा में फेल होने वाले बच्चों की संख्या में उछाल देखा गया। इसी वर्ष जुलाई में विभिन्न अखबारों ने खबरें लगाईं कि नौंवी तकरीबन 20 हजार बच्चे दिल्ली में फेल हो गए। यह केवल दिल्ली का ही मसला नहीं था बल्कि पूरे देश में बच्चे नौंवी में फेल हो रहे हैं। शिक्षकों और प्रधानाचार्यों का मानना है कि फेल न करने की नीति ने बच्चों को गंभीर पढ़ने से विमुख किया। आने वाला साल 2017 शिक्षा की दृष्टि से ख़ासा महत्वपूर्ण होने वाला है। नई राष्टीय शिक्षा नीति आएगी, बच्चों को दसवीं की परीक्षा देनी होगी। साथ ही कक्षा एक से आठवीं तक के बच्चों की गणित और विज्ञान की समझ की परीक्षा ली जाएगी जिसे राष्टीय स्तर पर साझा किया जाएगा।
शिक्षा में परीक्षा, मूल्यांकन, शिक्षण पद्धति एवं कौशल विकास आदि को अहम अंग माना जाता है। इनमें से कोई भी कड़ी कमजोर होती है तो उसका असर बच्चों पर साफ दिखाई देती है। क्योंकि हमारा अंतिम लक्ष्य बच्चां को निर्भय एवं सृजनात्मक नागरिक बनाना है। यह किसी भी परचे को पास कर अंक व ग्रेड हासिल करने से नहीं आ सकता।


Tuesday, December 13, 2016

उत्तर प्रशिक्षण कार्यशाला अध्यापकीय कक्षा अवलोकन


कौशलेंद्र प्रपन्न

उद्देश्य-
शिक्षक/शिक्षिका प्रशिक्षण उपरांत क्या शिक्षण कार्यशाला में बताए शिक्षण कौशलों का इस्तमाल कर पा रहे हैं?
क्या प्रशिक्षण के पश्चात् शिक्षक अपनी कक्षा में नई शैली का प्रयोग कर रहे हैं?
क्या उन्हें दुबारा कार्यशाला की आवश्यकता है।
हिन्दी शिक्षण कार्यशाला की आवश्यकता और शिक्षकीय शिक्षण कौशल में किस प्रकार हम मदद कर सकते हैं इन्हें ध्यान में रखते हुए कार्यशाला का आयोजन करते हैं। इन कार्यशालाओं में हिन्दी क्षेत्र के प्रख्यात शिक्षक/प्रशिक्षक/कवि/लेखक और कथाकारों को आमंत्रित किया जाता है। दिल्ली के विभिन्न शिक्षण संस्थानों-एनसीईआरटी, एससीईआरटी, डाइर्ट और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों को कार्यशाला का हिस्सा बनाया जाता है।


कार्यशाला के पश्चात् क्या शिक्षकों के शिक्षण कौशल और कक्षायी वातावरण में कोई बदलाव घटते हैं यदि हां तो वह किन स्तरों पर दिखाई देता है, इसका आलोकन हमारे कार्यशाला का एक प्रमुख अंग है। इन उद्देश्यों को पाने व जांचने के लिए हमने अगस्त से दिसबंर के मध्य कुछ विद्यालयों में शिक्षकों की कक्षाओं का अवलोकन किया।

हमने इन अवलोकनों में पाया कि उत्तर प्रशिक्षण कार्यशाला न केवल शिक्षकों के व्यवहार में बदलाव देखे गए बल्कि वे पहले जिस शैली में हिन्दी पढ़ाती/पढ़ाते थे उनमें भी गुणात्मक सुधार पाए गए। कक्षाओं में लिखित और मुद्रित सामग्रियों की बहुतायत मात्रा में उपस्थिति देखी गई। बच्चा कक्षा में ज्यादा से ज्यादा लिखित शब्दों, कहानी, कविता को देखे इसके लिए मैग्जीन और पत्र बनाने का अभ्याय कार्यशाला में कराया गया जिसका उदाहरण हमें कई कक्षाओं में देखने को मिलीं।

कविता कहानी का वाचन और पठन कैसे किया जाए ताकि बच्चों में रूचि जगे इसके लिए कार्यशाला में बताई गई गतिविधियों का प्रयोग शिक्षक/शिक्षिका कक्षा में करते हुए मिले। कुछ कक्षाओं के अवलोकन के बाद हमें महसूस हुआ कि हमें शिक्षकों में प्रस्तुतीकरण और आत्मविश्वास विकास पर भी ध्यान देना चाहिए।








Monday, December 12, 2016

शिक्षा इस बरस उर्फ मारी गई बेचारी


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा में भी कई सारी घटनाएं इस वर्ष घटी हैं जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। इन्हीं घटनाओं से शिक्षा को आने वाले वर्षों में आकार मिलने वाला है। शिक्षा को प्रभावित करने वाले घटकों में राजनीति, अंतरराष्टीय घोषणाएं, राष्टीय स्तर पर की गई पहलकदमियों की परतों को खोलना होगा। भारतीय शिक्षा को गहरे प्रभावित करने वाले तत्वों की पहचान कर उनके निहितार्थों को समझना होगा। शैक्षिक परिदृश्य में 2016 में हुई पहलों को समझने के लिए ठहर कर देखना होगा। पहली अहम घटना राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण और उसकी घोषणा है। हालांकि राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण की घोषणा 2015 में हुई थी लेकिन वह दस्तावेज 2016 के जून में किसी तरह आमजनता के बीच खुल गई। सरकारी स्तर पर आधिकारिक खुलासा नहीं था। इसलिए बाद में सरकार उसे आम जनता की सिफारिशों के लिए जारी की। वहीं सहस्राब्दि विकास लक्ष्य जो 2000 में लॉंच किया गया था। उसके अनुसार 2015 तक सभी बच्चों की बुनियादी शिक्षा का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा, वह 2016 में तय सीमा को बढ़ाकर 2030 किया गया। वहीं मानव संसाधन मंत्रालय को एनसीईआरटी ने सिफारिश दी कि कक्षा आठवीं तक की शिक्षा को मातृभाषा में दी जाए। साथ ही केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने सिफारिश की कि दसवीं की बोर्ड परीक्षा दुबारा से शुरू की जाए। इसे सिफारिश को मंत्रालय ने अपनी स्वीकृति भी दे चुकी है।
नई राष्टीय शिक्षा नीति बनाने की जरूरतों पर लंबे समय से बात चल रही थी। यह काम 1986 के बाद 2015-16 में संभव हो सका। इस दस्तावेज में भाषा,विज्ञान, गणित आदि विषयों की शिक्षण पद्धतियों पर विचार किए गए हैं। लेकिन यह दस्तावेज विवाद के घेरे में तब आया जब इस दस्तावेज समिति के प्रमुख ने स्वयं ही कुछ पन्ने सोशल मीडिया के मार्फत जारी किए। तक सरकार की मजबूरी हो गई कि उस दस्तावेज को आमजनता को उपलब्ध कराया जाए। दिलचस्प बात यह है कि आम जनता से 180 शब्दों में ट्विट के स्वरूप में सुझाव मांगे गए थे। हालांकि जिन्हें इस दस्तावेज में रूचि थी उनसे 31 जुलाई तक सुझाव शामिल करने के दावे किए गए थे। उन्हें किस स्तर और कहां जगह दी गई यह तो मूल नीति दस्तावेज को देखने के बाद ही मालूम होगा। राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण में दावा किया गया कि गांव और ब्लॉक स्तर पर विचार विमर्श के जरिए सुझाव मांगे गए। समाज के विभिन्न एनजीओ और शिक्षा आधिकार कानून के लिए लंबे समय से वकालत करने वाली संस्था आरटीईफोरम ने भी अहम भूमिका निभाई। लेकिन चालीस पेज के दस्तावेज को देखने और अध्ययन करने के बाद आरटीईफोरम के संयोजक श्री अमरीश राय मानते हैं कि यह दस्तावेज ज्यादा उम्मीद नहीं जगाती बल्कि पूर्वग्रहों को ढोने वाली सी लगती है। नई राष्टीय शिक्षा नीति में इतिहास, भाषा और विज्ञान को एक ख़ास नजर से देखने और पढ़ाने की वकालत भी की गई है। शिक्षाविद्ों की नाराजगी भी इस एनसीएफ पर सामने आ चुकी है।
सहस्राब्दि विकास लक्ष्य में शिक्षा को भी शामिल किया गया था। इसमें हमने घोषित किया था कि 2016 तक सभी 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर देंगे। लेकिन हम इस लक्ष्य को पाने में विफल रहे। 2015 में आरटीई के लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर पाए। इसे देखते हुए आरटीई और एमडीजी लक्ष्य अब जिसे सस्टनेबल डेवलप्मेंट सतत विकास लक्ष्य को 2030 तक प्राप्त करने तक धकेल दिया गया है। इस एसडीजी के लक्ष्य के अनुसार अब हम 2030 तक सभी बच्चों को समान, गुणवत्तापूर्ण समेकित शिक्षा प्रदान कर लेंगे। लेकिन इस लक्ष्य को पाने में क्या और किस प्रकार की दिक्कतें आएंगे उस ओर ग्लोबल एजूकेशन मोनेटरिंगे रिपार्ट 2016 का मानना है कि भारत में अभी भी सात करोड़ से ज्यादा बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। यहां तक कि स्कूलां में प्रशिक्षित शिक्षकों कमी है। इस तथ्य को तो सरकारी संस्था नीपा द्वारा जारी डाइस रिपोर्ट में भी देखी जा सकती है। सिर्फ दिल्ली की बात करें तो पांच से छह हजार शिक्षकों के पद खाली हैं। बिहार, राजस्थान, हरियाण, उत्तर प्रदेश बंगाल आदि में चार से पांच लाख पद रिक्त हैं। बिना शिक्षकां के क्या लक्ष्य हासिल कर पाएंगे? क्या तदर्थ शिक्षकों के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर पाएंगे। ये कुछ ऐसे जमीनी सवाल हैं जिनका जवाब हमें देना होगा। स्थाई शिक्षकों को बहाल करने से बचने वाली सरकार तदर्थ शिक्षकों को नियुक्त कर रही है। हाल ही में दिल्ली सरकार ने तदर्थ शिक्षकों के मासिक वेतन में बढ़ोत्तरी कर अब 33,000 देने की घोषणा की है। देखना यह भी दिलचस्प होगा कि क्या अन्य राज्यों में भी तदर्थ शिक्षकों को पांच और दस हजार से आगे जाकर कितने वेतन मिल रहे हैं।
कौशल विकास और डिजिटल इंडिया निर्माण के दौर में शिक्षा को भी इसी राह पर तो हांक दिया गया लेकिन क्या स्कूली रास्ते को उस लायक बनाया गया? क्या शिक्षक स्कूलों में हैं? यदि हैं तो क्या वे स्वयं तकनीक का इस्तमाल कर रहे हैं? महानगरों को छोड़ दिया जाए तो कस्बों और गांवों में स्कूल के भवन कम्प्यूटर चलाने के लिए तैयार हैं? हकीकत यह है कि अभी भी एकल शिक्षकीय स्कूल वजूद में हैं। दो या तीन शिक्षकों के कंधे पर प्राथमिक शिक्षा दौड़ रही है। कौशल विकास को हवा पानी देने के लिए स्कूलों में वोकेशनल यानी रोजगारपरक कोर्स को बढ़ावा दिया जा रहा है। कक्षा तीसरी से रोजगारपरक कोर्स चुनने के विकल्प बच्चों के हाथ में दिए जाने की योजना बन चुकी है। तर्क यह दिया गया कि जो बच्चे शुरू से ही काम करना चाहते हैं उन्हें स्कूलों में ही जीवन कौशल और काम के हुनर प्रदार किए जाएं ताकि स्कूल से बाहर आते ही अपना रोजगार शुरू कर सकें। क्या ऐसा नहीं लगता कि यह आरटीई के प्रावधानों को धत्ता बताना है क्योंकि एक ओर तो 14 वर्षतक के बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान करने की बात की जा रही हैं वहीं हम उन्हें स्कूल बीच में ही छोड़ जाने की स्थिति में काम कौशल का झुनझुना पकड़ा रहे हैं। वर्तमान सरकार की वोकेशनल कोर्स के लागू करने के पीछे की बेचैनी को समझने की आवश्यकता है।
केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने हाल ही में एचआरडी को सिफारिश दी है कि दसवीं की परीक्षा पुनः बहाल की जाए। साथ  ही साथ कक्षा आठवीं तक किसी भी बच्चे को फेल नहीं किए जाने की नीति में बदलाव लाने की मांग की गई। माना गया कि इससे बच्चों में पढ़ने की आदत में गिरावट और डर खत्म हो गया। बच्चों में क्षीण होती पढ़ने की आदत को कैसे विकसित किया जाए इस ओर कोई खास गंभीर विमर्श सुनने और पढ़ने को भी नहीं मिलते। जबकि डिजिटल इंडिया निर्माण पर खासा बहसें सुनी जा सकती हैं। यह भी कितना एकल विकास है कि जहां किताबें लाइब्रेरी तक नहीं पहुंचती लेकिन हम डिजिटल पाठकों की कल्पना से भर गए हैं।


Friday, December 9, 2016

शहर में लाइब्रेरी हुआ करती थी....


कौशलेंद्र प्रपन्न
नालंदा विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी कहते हैं छह माह तक जलती रही थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह ज्ञान-मीमांसा एवं ज्ञान-सृजन की रफ्तार को कम करने की मानवीय विकास के इतिहास में पहली बड़ी घटना के तौर पर दर्ज की जानी चाहिए। किसी भी समाज के बौद्धिक विकास में स्थानीय शैक्षिक संस्थानों और उसकी पुस्तकालयी योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन अफ्सोसनाक बात यही है कि समाज के विकास में पुस्तकालयों को समुचित स्थान नहीं मिल पाया है। आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे पास आमजनता तक पुस्तकालय की पहुंच नहीं बन पाई है। यूं तो विभिन्न शैक्षिक समितियों में पुस्तकालय की महत्ता के गुणगान किए गए हैं, लेकिन हकीकतन वह आज भी शैक्षिक संस्थानों में एक कोने और कमरों में सिमटी ही दिखाई देती है। जब भी किसी सुनियोजित और योजनाबद्ध नगर का निर्माण किया जाता है तब स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक भवन, बाजार आदि की योजना बनाई जाती है लेकिन एक पुस्तकालय भी हो ऐसी चर्चा की सुगबुगाहट सुनाई नहीं देती। आधुनिक शहरों और अत्याधुनिक शहरों की परिकल्पनाकार मॉल्स, फास्ट रेल, यातायात के साधन,वातानुकूलित शॉपिंग सेंटर तो बनाते हैं लेकिन ज्ञान-पुस्तकादि के चाहने वालों को दरकिनार कर दिया जाता है। महानगरों में तो पुस्तकालय नजर नहीं आतीं तो कस्बों और द्वितीय श्रेणी के शहरों में पुस्तकालय की तलाश तो और भी कठिन काम है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि शहरों में तो फिर भी अत्याधुनिक पुस्तकालय नजर आ जाएं लेकिन छोटे शहरों में तो वाचनालय तक ही महदूद कर दिए जाते हैं। जहां पुस्तकालय के नाम पर अखबार और पत्रिकाएं पढ़-पलट सकते हैं। यदि दिल्ली की बात की जाए जो अमेरिकन, ब्रिटिश लाइब्रेरी के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय एवं अन्य कॉलेजीय और विश्वविद्यालयी लाइब्रेरी एवं संसद की लाइब्रेरी को छोड़ दें तो कोई भी लाइब्रेरी नजर नहीं आएंगी। एक बेहद पुरानी लाइब्रेरी लाला हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी जो 1862 में स्थापित हुई थी वह इन दिनों बेहद खस्ता हाल में है, को छोड़कर कोई ऐसी जगह नहीं है जहां पाठक अपने पसंद की किताबें, जर्नल आदि पढ़-पलट पाएं।
 लाला हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी में कहते हैं कि 8000 से भी ज्यादा अत्यंत पुरानी पांडुलिपियां हैं जो अब अपनी मौजूदगी को किसी तरह बचाए हुए हैं। उनकी हालत यह है कि उन्हें उलटने पलटने से डर लगता है कहीं वे पन्ने टूट न जाएं। इसलिए सरकार की नींद अब ख्ुली है कि उन पांडुलिपियों को संरक्षित और डिजिटलाइज किया जाए ताकि उन्हें भविष्य के लिए बचाया जा सके। इस लाइब्रेरी की खासियत है कि यहां अरबी, फारसी, संस्कृत आदि भाषाओं की अत्यंत पुरानी किताबें संरक्षित की गई हैं किन्तु उचित रख रखाव की कमी की वजह से मरनासन्न हैं। उन्हें जिंदा रखने के लिए भारत सरकार ने अब आर्थिक मदद के हाथ बढ़ाएं हैं। यह तो एक लाइब्रेरी की मृत्यु गाथा है।देशा के विभिन्न राज्यों में राज्य स्तरीय पुस्तकालय भी हैं जिन्हें बचाए जाने की आवश्यकता है। मालूम हो कि पहले राजा रजवाड़ों को पढ़ने के शौक बेशक न हो किन्तु छवि ऐसी बनी रहे कि उनके यहां किताबों की इज्जत की जाती है वे अपने महल में एक कोना जिसे पुस्तकालय कहें तो अनुचित नहीं होगा, हुआ करती थी। राजा की मृत्यु के बाद न तो महल महफूज रहे और न वे किताबें हीं। वे भी सत्ता और शासन के साथ ही अपनी रक्षा के लिए मुंह जोहने लगे। राजस्थान के कई इलाकों में आज भी प्राचीन पुस्तकालय हैं जहां बहुत महत्व की पुरानी पांडुलिपियां धूल फांक रही हैं। यदि हमने आज उन्हें नहीं बचाया तो वे हमारी नागरीय ज्ञान-मीमांसा के भूगोल से सदा के लिए गायब हो जाएंगी।
पटना में स्थित ख़ुदा बक्श ओरिएंटल लाइब्रेरी के बारे में कहा जाता हैकि यहां पर फारसी,अरबी, पाली,संस्कृत की जितनी पांडुलिपियां हैं वे देश के किसी भी अन्य पुस्तकालय में मिलना दुर्लभ है। लेकिन इस पुस्तकालय की हालत भी दयनीय और शोचनीय है। कर्मचारियों के पद वर्षों से खाली हैं तो हैं उन्हें भरने की कोशिश नहीं की गई। खाली पदों की समस्या से लाला हरदयाल पुस्तकालय, कोलकाता का राष्टीय पुस्तकालय आदि भी जूझ रहे हैं। शैक्षिक संस्थानों में शिक्षकों के साथ ही लाइब्रेरी प्रोफेशनल्स की बेहद कमी है लेकिन सरकार तदर्थ पर ही काम चला रही है। मालूम हो कि स्कूल, कॉलेजों में कितनी शैक्षिक पदें खाली हैं इस तरह की ख़बरें तो आती रहती हैं लेकिन उन पुस्तकालयों में कितने प्रोफेशनल्स के पोस्ट खाली हैं इस ओर कोई खास रिपोर्ट नजर नहीं आती।
पूरे देश भर में पुस्तकालय विज्ञान में हर साल छात्र-छात्राएं स्नातक और परास्नातक, एम फिल और पीएचडी की उपाधि हासिल कर बाजार में उतर रहे हैं लेकिन वे कहां जा रहे हैं इसका आकड़ा नहीं है। वे सरकारी पुस्तकालयों में तो कार्यरत नजर नहीं आते तो फिर वे कहां हैं? वे निजी शैक्षिक संस्थानों में कम वेतन पर खम रहे हैं। उनकी पुस्तकालय विज्ञान में हासिल दक्षता और कौशल का काफी हिस्सा बेकार जा रहा हैं जो कहीं न कहीं मानवीय दक्षता का क्षरण माना जाएगा। पुस्तकालय विज्ञान के पितामह माने जाने वाले एस आर रंगनाथन आजादी के बाद पुस्तकालय को विज्ञान और विभागीय पहचान दिलाने में अपना योगदान दिया। रंगनाथन का वर्गीकरण सिद्धांत काफी चर्चित काम माना जाता है। इन्होंने कहा था कि पुस्तकालय एक संवर्द्धनशील संस्थान है, हर किताब इस्ताल के लिए हैं और हर पाठक के लिए किताब होती है आदि। उनके पांचों सिद्धांतों पर नजर डालें तो आज न तो पाठकों के पास किताब पढ़ने की ललक बची है और न पुस्तकालय ही उपलब्ध हैं। जहां पुस्तकालय की सुविधा है वहां पाठक नहीं हैं और हां पाठक हैं वहां पुस्तकें नहीं हैं।
पुस्तकालय महज किताबों, पन्नों, ग्रंथों का घर ही तो नहीं होती। पुस्तकालय एक जीता जागता स्वयं में शिक्षण संस्थान हुआ करती है। लेकिन आज पाम टॉप, स्मार्ट फोन और विभिन्न गजट्स के समय में मुद्रित किताबों के प्रयोग बेशक कम हुए हों लेकिन एकबारगी अप्रासंगिक नहीं हुए हैं। क्योंकि विभिन्न प्रकाशन विभाग से हजारों की संख्या में किताबें हर साल छप रही हैं। वे पाठकों तक आएं न आएं लेकिन पुस्तकालयों में जरूर घर बना लेती हैं। देश में जो किताबें छपती हैं उसकी पांच कॉपी कोलकाता राष्टीय पुस्तकालय में जमा करानी पड़ती है। हालात यह हैं कि इस लाइब्र्रेरी में किताबों को रखने की व्यवस्था तक नहीं है। पुरानी इमारत को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए या फिर उन्हें अन्यत्र भवन मुहैया कराया जाए ताकि इस पुस्तकालय के संरक्षणीय उद्देश्य की पूर्ति ते हो।
पुस्तकालय विज्ञान की दुनिया के प्रतिष्ठित प्रोफेसर पी बी मंगला का मानना है कि देश और समाज पेपरलेस सोसायटी की ओर बढ़ रही है लेकिन पेपर हमारी जिंदगी से यूं ही गायब नहीं हो सकतीं। विश्व भर में रोजदिन लाखों पन्ने छप रही हैं और छप रही हैं किताबें इसलिए यह कहना बेबुनियाद है कि किताबें खत्म हो जाएंगी। किताबें तो रहेंगी ही बेशक उसके फॉम बदल जाएं। यही देखने में भी आ रहा है कि ऑन लाइन किताबें खरीदने और पढ़ने वालों का वर्ग अगल है जो लगातार खरीद-पढ़ रहा है। श्री ज्ञानेंद्र सिंह, पुस्तकालयाध्यक्ष, दयाल सिंह कॉलेज ज्ञानेंद्र का मानना है कि आने वाले दस पंद्रह सालों में लाइब्रेरी वही नहीं होगी जो 2000 से पहले थी। आज किताबें ईफॉम में आ चुकी हैं। बल्कि कहूं तो यूजीसी एवं अन्य शैक्षिक संस्थाएं अपनने जर्नल्स ईफॉम में ही उपलब्ध करा रहे हैं। जिन्हें चाहिए वे ऑन लाइन डाउनलोड कर सकते हैं। निश्चित ही आने वाले वर्षों में किताबें इलेक्टॉनिक रूप हांगी। किताबों को पुराना स्वरूप भी रहेगा किन्तु संख्याएं कम हो जाएंगी। पर्यावरण संरक्षकों की मानें तो कागज निर्माण से हमारे पेड़ काटे जाते हैं।ईफॉम से इन्हें दूर कर सकते हैं।
डॉ राघवेंद्र प्रपन्न, महर्षि वाल्मीकि कॉलेज ऑफ एजूकेशन में सहायक प्रोफेसर के तौर पर अध्यापन कर रहे हैं इनका मानना है कि पढ़ना और शिक्षित करना कोई अभियान के माध्यम से जागरूकता तो पैदा की जा सकती हैलेकिन इस दक्षता को विकसित करने और उसे बच्चों तक में प्रवाहित करने में और भी कई तत्व काम करते हैं। बिना पुस्तकालय को बचाए हम इसकी परिकल्पना भी नहीं कर सकते कि समाज में पुस्तक और पुस्तकालय के बगैर बच्चों और व्यस्कों में पढ़ने की आदत को बरकरार रख सकते हैं। इनका मानना है कि पढ़ने की आदत को बचाए बगैर लाइब्रेरी को नहीं बचाया जा सकता। वहीं महर्षि वाल्मीकि कॉलेज ऑफ एजूकेशन के पुस्तकालयाध्यक्ष श्री रेयाज़ का कहना है कि आने वाले समय में पारंपरिक किताबें सेल्फ से गायब हो जाएंगी। लाइब्रेरी में किताबें कम ईफार्म में ज्यादा नॉलेज कंटेनर मिलेंगी। इतना ही नहीं बल्कि पाठकों की आवाजाही भी लाइब्रेरी में कम होगी क्योंकि उन्हें जानकारियां और किताबें तमाम चीजें ऑन लाइन और इलेक्टानिक रूप में मिला जाया करेंगी। इससे भी बड़ी बात यह कि पुस्तकालय तो तब होंगी जब पढ़ने वाले बचेंगे। आने वाले दिनों में पढ़ने की आदत काफी कम होगी। जो भी होगा ई किताबें और ईकंटेनर होंगे।
राजकमल प्रकाशन के प्रबंध संपादक श्री अशोक माहेश्वरी का मानना है कि हार्ड बाउंड में किताबों को पढ़ने का नशा नहीं जाएगा। हां किताबों के साथ चलने वाली किंडल, पॉम टॉप, ईबुक्स आ जाएंगी लेकिन पुरानी किताबें भी रहेंगी। जहां तक लाइब्रेरी के स्वरूपव का मसला है कि लाइब्रेरी में संभव है ऐसे प्रावधान कर दिए जाएं कि एक ओर एक जगह पर पुरानी प्रकाशित किताबें रखी हों और दूसरी ओर ईबुक्स रखी मिलें। लाइब्रेरी में बदलाव ऐसे भी हांगे कि मुद्रित किताबें की खरीद पर असर पड़े वहीं ईबुक्स भी अपनी जगह बना चुकी हांगी।
कहते हैं इसी शहर में एक लाइब्रेरी भी हुआ करती थी। अब उसकी हालत खराब सी है। जैसी विश्व भर में हजारों भाषाएं या तो मर चुकी हैं या फिर मरने की कगार पर हैं। एक लाइब्रेरी का खत्म होना शायद हम आज न समझ पाएं लेकिन जिन्हें किताबों से मुहब्बत है जिन्हें पढ़ने की लत है वे बड़े परेशान होंगे। लेकिन संभावना यह भी है कि उन्हें बहलाने के लिए नए नए किसिम किसिम के ई बुक्स और नॉलेज कंटेनर आ जाएं और पुरानी लाइब्रेरी नई चाल में ढली नजर आए।


Thursday, December 8, 2016

शहर के भूगोल में पुस्तकालय

शहर के भूगोल में पुस्तकालय
 जब शहर के भूगोल से पुस्तकालय खत्म होने लगें और मॉल्स की भरमार होने लगे तो समझिए बड़ी घटना है। किसी भी शहर को ख़ास वहां की प्राचीरें,संस्थाएं,तहजीब,भाषा-बोली,खानपान आदि बनाया करती हैं।
दिल्ली शहर में बसी एक पुरानी बहुत पुरानी लाइब्रेरी हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी अपनी अंतिम सांसें ले रही है। यह लाइब्रेरी 1862 में शुरू हुई। आज यहां उपलब्ध 8,000 से ज्यादा दुर्लभ पुस्तकें, पांडुलिपियां वास्तव में ख्.ाक में मिल रही हैं। इन्हें सुरक्षित करने, संरक्षित करने की ओर अब सरकार की नींद खुली है। कहते हैं इस पुस्तकालय में औरंगजेब की हस्त लिखित पुस्तक तो हैं ही साथ ही कई ऐसी दुर्लभ पुस्तकें जो अरबी फारसी की हैं यहां हैं जिन्हें बचाए जाने की आवश्यकता है।

शहर में इल्म की फसल तभी लहलहा सकती है जब वहां के लोग पुस्तकालयों को बचाने, पनपनें में अपना योगदान दें। आजादी के सत्तर साल बाद भी हमने एक मुकम्मल पुस्तकालीय समाज को रचने में विफल रहे हैं। मॉल्स, फ्लाई ओवर, फास्ट रेल तो चला दीं लेकिन अपने शहर में एक अदद लाइब्रेरी के लिए बेचैन नहीं होते....!!!

Thursday, November 17, 2016

शिक्षा में इन दिनों

कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल ही में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने मानव संसाधन मंत्रालय को अपनी सिफारिशों दी हैं जिसमें स्कूली शिक्षा में एक बड़ा बदलाव आज नहीं बल्कि कुछ वर्षों के बाद जमीन पर दिखाई देगी। यूं तो शिक्षा में नवाचार और बदलाव समय समय पर होते ही रहे हैं जो आज शैक्षिक इतिहास में दर्ज है। जिन सिफारिशों को केब ने एमएचआरडी को सौंपी हैवह शिक्षा की मूल संवेदना और बुनावट को गहरे प्रभावित करने वाली है।केब की सह समिति कौशल और तकनीक ने सुझाव दिए हैं कि कक्षा तीसरी से रोजगारोन्मुख शिक्षा और दक्षता प्रदान की जाए। गौरतलब हैकि हर हाथ को काम और हर हाथ को शिक्षा पर गांधीजी ने वर्धा में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में दी थी। उनका मकसद यही था कि प्राथमिक शिक्षा हासलि करने के बाद बच्चे बेकार न हो जाएं।जब बच्चे अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी कर समाज में लौटें तो उनके हाथ में कोई दक्षता व कौशल होनी चाहिए ताकि वह अपना जीवन सम्मानपूर्वक चला सके। उद्देश्य तो गांधीजी का यह भी था कि रोजगार से कटी शिक्षा अंततः बच्चों को जीवन कौशलों से भी विलगा देती है।मानव संसाधन मंत्रालय इन सिफारिशों को कितनी गंभीरता से अमलीजामा पहनाती है।यह भविष्य तय करेगा किन्तु इतना तो स्पष्ट हैकि जब जब सत्ताएं बदली हैंतब तब शिक्षा को अपने तरीके से बदलने का प्रयास किया गया है।इससे भी इंकार नहीं कर सकते कि वर्तमान सरकार इस काम में पीछे है।इसने भी विभिन्न राज्यों में इतिहास, भाषा, विज्ञान के साथ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और पूर्वग्रहों को बच्चों के बस्ते में डालने की कोशिश की है।वहां उन परिवर्तनों को गिनाना हमारा कत्तई इरादा नहीं है।लेकिन संकेतक के तौर पर हमें समझना लेना जरूरी लगता हैकि शिक्षा को किस प्रकार समाज में अपने वैचारिक पूर्वग्रहों और स्थापना को स्थापित करने के प्रयास हुए हैं।
केब की ओर से सुझाए गए बिंदुओं में प्रमुख यही हैकि कक्षा तीसरी से ही बच्चों को तकनीक और कृषि आदि की दक्षता प्रदान की जाए। इतनी छूट जरूर दी गई हैकि राज्य सरकारें अपनी सांस्कृतिक, आर्थिक,सामाजिक बुनावटों के अनुरूप पाठ्यचर्याका निर्माण कर सकते हैं।इसी कडी में यह भी बताते चलें कि क्या शिक्षा के अधिकार नियम 2009 का उल्लंघन नहीं हैकि एक ओर आरटीई सभी 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को कक्षा आठवीं तक की शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान करती हैवहीं हम बच्चों को प्रकारांतर से काम,रेजगार की ओर हांक रहे हैं।कि बच्चे 5 वीं तक पहुंचते न पहुंचते शिक्षा बेशक पूरी न करें काम पर पहले लग जाए।ंक्योंकि जैसे ही हम उन्हें काम करने के कौशलों में दक्षता प्रदान कर देंगेवैसे ही उनके अभिभावकों के दबाव शिक्षा को चुनने की बजाए काम को चुनने के लिए प्रेरित करेंगे।सरकार के इस काम में राष्टीय खुला विद्यालय साथ देगा। प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो अनिल सद्गोपाल के शब्दों को उधार ले कर कहूं तो आरटीई और रोजगारपरक जिसे वोकेशनल एजूकेशन का नाम दे रहे हैं वह दरअसल बच्चों को शिक्षा के अधिकार ने वंचित रखने का परोक्ष कदम है। और सरकार पर एजेंडे पर जोरशोर से काम कर रही है। यही वजह है कि आज उच्च शिक्षा में रूचि रखने और पढ़ने वालों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ने की बजाए घट ही रही है। यदि न्यूपा व प्रथम की रिपोर्ट के हवाले से कहें तो हर साल स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के कारणों की पड़ताल करें तो पाते हैं कि जिन बच्चों के माध्यम से घरां में आर्थिक मदद मिलती है उन बच्चों को स्कूल भेजने से अभिभावक कतराते हैं। अब कल्पना की जा सकती है कि जब बच्चे तीसरी कक्षा से ही दक्षता हासिल कर लेंगे त बवे कितने समय तक काम से बच रह सकते हैं। इस ओर सरकार को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
दूसरी बड़ी शैक्षिक चिंता व घटना कह लें वह है कि राष्टीय स्वयं सेवक संघ का तकनीक और विज्ञान शाखा विज्ञान भारती ने विभिन्न स्कूलों में वैदिक गणित और विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान पर एक राष्टीय स्तर पर परीक्षा का आयोजन बीस नवंबर को करने वाली है। इस परीक्षा में देश के तकरीबन 2000 सरकारी और गैर सरकार स्कूलों को शामिल किया जाएगा। अनुमान लगा सकते हैं कि इन स्कूलों के लगभग 140,000 बच्चे जो कक्षा छठी से ग्यारहवीं में पढ़ते हैं, वे हिस्सा लेंगे। तीन घंटे तक बच्चों से इस परीक्षा में विज्ञान में भारतीय योगदान और डॉ कलाम का जीवन से संबंधित सवाल पूछे जाएंगे। गौरतलब है कि इस परीक्षा की येजना बनाने और सवालों के निर्माण में विज्ञान-भारती अकेली नहीं है बल्कि उसके साथ केंद्रीय विद्यालय, दिल्ली पब्लिक स्कूल, नवोदय विद्यालय, अमेटी इंटरनेशनल भी शामिल हैं। इन स्कूलों ने अपने शिक्षकों को निर्देश भी जारी किए हैं कि बच्चों को इन विषयों की तैयारी के लिए अलग से इंतजाम करें। क्या बच्चों पर पहले से पाठ्यपुस्तकों की सामग्री कम थी जो इन्हें भी उनके कंधे पर डाला जा रहा है। यह तो एक सवाल है दूसरा सवाल इससे ज्यादा गंभीर है कि कहीं यह एक खास वैचारिक वर्गों का शिक्षा पर लंबी रणीतिक काबीज होने की शुरुआत तो नहीं है?
शिक्षा में वैचारिक प्रतिबद्धता और पूर्वग्रहों को ऐसे ही दबे छूपे रास्तों से प्रवेश दिलाया जाता है। आमजनता को यह एक मामूली सी घटना लगती है लेकिन इसके खतरे हम आज भांप पाने में सक्षम नहीं होते जो बीस-तीस सालों में भयंकर रूप ले लेता है। शिक्षा को ऐसे पूर्वग्रह घूसपैठियों से किसी भी सूरत में बचाने की आवश्यकता है। प्राथमिक शिक्षा निश्चित ही किसी भी देश-समाज की चरित्र को तय करती है। यदि मिट्टी ही रेतीली,भूरभूरी होगी तो क्या हम उससे एक मुकम्मल विकसित और विज्ञान सम्मत तर्कशील समाज का निर्माण कर सकते हैं? संभव है हमारा सपना और हकीकत दोनों ही टकराएं। इसमें टूटना तो सपने को ही है। हकीकत तो हकीकत है ही कि सरकारें किस प्रकार से वैज्ञानिक चिंतन का गला घोंटकर असहिष्णु समाज का निर्माण करती है जिसमें बच्चों/बच्चियों के बीच शैक्षिक भेदभाव किए जाते हैं।


Tuesday, November 15, 2016

मैनेजरनुमा व्यक्ति का हस्तक्षेप




पिछले दिनों एक कार्यशाला में मैनेजरनुमा व्यक्ति के लगातार हस्तक्षेप करने की वजह से खिन्नता हुई। जबकि कार्यशाला की पूरी रूपरेखा एक हप्ते पहले ही उन्हें और कॉडिनेटर के साथ साझा किया था। यदि वे उस डॉक्यूमेंट से गुजरे होते तो काफी हद तक उनके हस्तक्षेप कम हो जाते।
कार्यशाला के बीच में जब आप पूरे रफ्तार होते हैं और उस वक्त कोई बार बार यह टोकाटाकी करने लगे कि ऐसे पढ़ाइए, यह भी कराएं, वह भी करा दें आदि तो कोफ्त होती है। उसपर तुर्रा यह कि जिन्हें शिक्षा और भाषा कीह समझ ज़रा सी भी नहीं थी। लेकिन शायद यह भी समझने की आवश्यकता है कि आज शिक्षा इन्हीं लोगों के हाथ में है।

Wednesday, November 9, 2016

भाषायी विविधत का उत्सव


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारा देश-समाज विविधताओं का देश है। यह विविधता विभिन्न स्तरों एवं स्वरूपों में देखी और समझी जा सकती है। मसलन भाषा,संस्कृति, लोक बोलियां, पहनावे,खान-पान आदि। वैसी ही विविधता हमें शिक्षा के क्षेत्र में भी नजर आती है। यही कारण है कि हमें देश के विभिन्न राज्यों की विविधता अपनी ओर खींचती है। हम उसके मोहपाश से दूर नहीं जा पाते। हमारी भाषायी और सांस्कृतिक विविधता ही वह जादू है जिसके अप्रत्यक्ष डोर से बंधे होते हैं। हमें इसी समाज में विविध भाषायी छटाओं का आनंद भी मिलता है जहां ‘पैले जाणा’, ‘कछुओ नाहि’ ‘दूर नइखे, नियरे बा हो’, ‘पाणी पी लो’ ‘रोट्टी खाणी है’ आदि को भी सुन सकते हैं। भाषायी विविधता एक किस्म से हमारी भाषायी विविधतापूर्ण संस्कृति की पहचान भी कराती है। यदि हम इस विविधता के उत्सव को भाषायी विविधता की परिधि में सीमित कर के विमर्श कर सकें तो वह एक दिलचस्प होगा। जहां हमारी पाठ्यपुस्तकें, पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्याएं भाषायी विविधता की वकालत करती हैं वहीं कक्षायी स्थिति का अवलोकन करें तो वह विविधता एक या दो भाषा में सिमट कर रह जाती है। यहां हमारी भाषायी विविधता और सैद्धांतिक स्थापनाएं पीछे रह जाती हैं जब हम बच्चों को मानक भाषा की ओर हांक देते हैं। जबकि राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000 और 2005 बड़ी ही शिद्दत से भाषायी विविधता की वकालत करती है। यहां तक कि कोठारी आयोग की सिफारिशें भी भाषायी विविधता की अस्मिता को संरक्षित करने की बात करती नजर आती है। लेकिन सवाल फिर वहीं खड़ा नजर आता है कि तो क्या वजह है कि कक्षा- स्कूल में वह बच्चों तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा है। यहां पर भाषायी वर्चस्व और भाषा का बाजारीय दबाव नजर आता है जो काफी हद तक भाषायी चरित्र और जरूरतों को तय करता है। स्कूली स्तर पर भाषा के चुनाव में हमें रोजगारोन्मुख भाषा के दबदबा दिखाई देती है।
हमारी स्कूली भाषा और समाज में बरती जाने वाली भाषा के बीच एक अस्पष्ट और कई बार साफ फांक नजर आती है। यदि हमने स्कूली भाषा और समाज में इस्तमाल की जाने वाली भाषा के अंतर को नहीं पाटा तो वह इन्हीं इदो वर्गां में टंगी भाषा मिलेगी। बच्चों भी इन्हीं दो पोल पर टंगी भाषायी रस्सी पर करतब करते मिलेंगे। हमें बड़ी ही सावधानी से बच्चों को भाषायी विविधता के स्वाद भी चखाने हैं। इसमें एक बड़ी दिक्कत यह आती है कि एक ओर भाषा के शुद्धतावादी जिसे मानकीकृत भाषा के प्रति अधिक राग है वे हमेशा ही मानक भाषा की सिफारिश करते हैं। वे मानते हैं कि विभिन्न बोलियां, उप भाषाएं मूलतः मानक भाषा को खराब करती हैं। यही स्थापनाएं शिक्षकों में भी संचारित होती हैं। कई कार्यशालाओं में ऐसे प्रश्नों से रू ब रू होने का मौका मिला है जिसमें शिक्षक कहते मिले हैं कि बोलियां तो भाषा को खत्म कर देंगे, बोलियां हमारी शुद्ध भाषा को गंदला कर देंगी। सचूपछा जाए तो उनकी इस चिंता का निराकरण भाषावैज्ञानिकों, शिक्षाविद्ों को करना चाहिए ताकि भ्रम की स्थिति न बनी रहे। क्यांकि शिक्षक स्वयं भ्रम में होगा तो वह यह तय कर पाने में असमर्थ होगा कि उसे कक्षा और समाज की विभिन्न भाषाओं के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित करे।
भाषायी विविधता का उत्सव स्कूलों और कॉलेज स्तर पर आयोजित करने की आवश्यकता है। इन कार्यशालाओं और उत्सवों में विभिन्न भाषा-बोलियों के रचनाकारों को आमंत्रित करना होगा ताकि जो अभिव्यक्तियां, लोकोक्तियां, मुहावरे हमारी मानक भाषा से गायब हो चुकी हैं उन्हीं भाषा की मुख्यधारा में लाई जा सके। बच्चों और बड़ों के भाषायी भूगोल से जिन शब्दों, अभिव्यक्तियों को बाहर कर दिया गया या हो चुके हैं उन्हें दुबारा परिधि में लाना होगा। गौरतलब है कि आज नागर समाज के बीच से विविध भाषा संपदा तकरीबन खत्म सी हो गई है। हमारी मातृभाषाएं भी इस दौड़ में पिछड़ रही है। जब कभी मातृभाषा का इस्तमाल करना होता है तब सच्चे,कोमल शब्दों को बड़ी मुश्किल से याद करना पड़ता है। यह स्थिति बच्चों के साथ ही बड़ों की भी है।
भारतीय भाषाओं में छपने वाले साहित्य में विविधता को देखें तो हमें कई छटाएं मिलेंगी जो मानक भाषा से नदारत हो चुकी हैं। हमें साहित्य के माध्यम से भारतीस भाषाओं और बोलियों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। अन्यथा वह समय दूर नहीं है जब हमारी हजारों बोलियां और गैर मानक भाषाएं अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेंगी। कई मर्तबा तो ऐसा भी हुआ है कि हम अपनी मातृभाषा को मानक भाषा के आगे छुपा देते हैं। जबकि हमारी बोलियां, भाषायी विविधता हमारे अभिव्यक्ति को सुदृढ़ ही करती हैं। लेकिन हमें अपनी बोली,भाषा के इस्तमाल करने में कहीं शर्म और हीनता महसूस होती है जो गैर मानक भाषा के लिए हानिकारक है।
देश भर में भाषोत्सव का आयोजन हा जिससे क्षेत्रीय और मानक भाषा के बीच की दूरी को कम की जा सके। यूं तो साहित्योत्सव का आयोजन लिटरेचर फेस्टीवल के नाम से शुरू हो चुका है। लेकिन उस आयोजन में एक ख़ास भाषा का वर्चस्व साफ देखा और महसूस किया जा सकता है। क्योंकि उस मंच पर बोलियों,उप बोलियों और गैर मानक भाषा को खेदर दिया जाता है। स्थानीय स्तर पर कॉलेजों और विश्वविद्यालों के हिन्दी विभाग एवं राज्य स्तरीय संस्कृति और भाषा विभाग इस किस्म के भाषोत्सव को प्रोत्साहित कर सकते हैं। यहां राजनीति इच्छा शक्ति को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। क्योंकि विभागीय आथि्र्ाक सीमाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हालांकि हर अकादमिक सत्र के लिए आर्थिक सहायकता राशि का प्रावधान होता ही है। इसी के तहत विभिन्न गोष्ठियों और सम्मेलनों का आयोजन विभाग करते हैं। उन्हीं मदों में भाषोत्सव नाम कुछ और भी सोचा जा सकता है लेकिन हमें इसे करने की आवश्यकता है। यदि हम भाषायी विविधता का उत्सव मनाना चाहते हैं तो। क्योंकि अकादमिक भूगोल से बहुत तेजी से भाषायी वैविध्यता खत्म हो रही है। इसका एक प्रमाण उच्च शैक्षिक संस्थानों में होने वाले भाषायी शोधों को देख का अनुमान लगाया जा सकता है। जितने शोध मानक भाषा में होते हैं क्या उसका एक छोटा सा हिस्सा भी बोलियों और गैर मानकीकृत भाषा की झोली में आती है। विचारणीय मसला है कि हमें शोधों की संख्या और उसकी गुणवत्ता बढ़ानी होगी। यहां एक सवाल पैदा होता है कि गैर मानकीकृत भाषा जिसमें हजारों बोलियां शिमल हैं उस बोली के आधिकारिक ज्ञाता एवं विद्वान ही नहीं हैं जो उसका मूल्यांकन और मार्गदर्शन कर पाएं तो ऐसे में शोध को मार्गदर्शन कौन करेगा। कहते हैं हिन्दी साहित्य में अवधी, बज्झिका, ब्रज, मैथिली, गढ़वाली, कुम्हौनी आदि बोलियों-भाषाओं के विद्वान जाते रहे। जो स्थान खाली हुआ उसे भरने वाला अब कोई नहीं बचा।


Tuesday, November 8, 2016

मातृभाषा के मार्फत प्राथमिक शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल में राष्टीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् ने नई शिक्षा नीति में बदलाव के लिए अपनी सिफारिश पेश की है कि बच्चों को कक्षा आठवीं तक मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। एक एक गंभीर सिफारिश है जिसे लंबे संमय से नजरअंदाज किया जाता रहा है। गौरतलब है कि वर्धा में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में गांधीजी ने इसकी सिफारिश की थी लेकिन वह अब तक व्यवहार में नहीं आ पाई। गांधीजी के अलाव भी विभिन्न शिक्षा और भाषाविद्ों ने भी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा दिऐ जाने की वकालत कर चुके हैं। प्रो कृष्ण कुमार, मातृभाषा और मानक भाषा पर विमर्श पिछले साल न्यूपा के राष्टीय स्थापना दिवस पर बोला था कि मातृभाषा में बच्चों की कल्पनाशीलता और सृजनाशीलता को बचाई जा सकती है। प्रो कुमार ने इस मसले पर कहा था कि मातृभाषा में बच्चे जिस सहजता के साथ अपने आप को अभिव्यक्ति कर पाते हैं वह वैचारिक अभिव्यक्ति सीखी गई दूसरी भाषा में नहीं आ पाती। शिक्षा-भाषाविद्ों ने माना है कि बच्चे के पास जितनी उसकी मातृभाषा की ताकत होती है वह उतना ही सृजनशील और चिंतन में प्रखर होता है। भाषा वैज्ञानिकों का भी मानना है कि मातृभाषा और मानक भाषा के बीच बच्चों की सीखने की क्षमता मातृभाषा में ज्यादा तेज होती है। किन्तु लगातार बच्चों पर अपनी मातृभाषा छोड़ दूसरी भाषा को बरतने के लिए शिक्षा और समाज बाध्य करता है। ऐसे बच्चों भाषायी संघर्ष में पड़ जाते हैं। इस संघर्ष बच्चों को ताउम्र सहना और जीना पड़ता है। पूरी जिंदगी बच्चा दो भाषाओं की दक्षता और अस्मिता की पहचान के बीच झूलता रहता है। जब भी भाषायी अस्मिता सामने आती है तब वह मातृभाषा की पीछे छोड़ दूसरी मानक भाषाओं को गले लगा लेता है। वह भाषा उसकी अभिव्यक्ति की ताकत बन जाती है जिसमें उसे अच्छी नौकरी और पहचान मिलती है। धीरे धीरे व्यक्ति की मातृभाषा पिछले पायदान पर खड़ी हो जाती है। सामने खड़ी भाषा जिसमें बाजार काम करती है उस भाषा को अपना लेता है।
शिक्षा पर गठित तमाम समितियों, आयोगों जिनमें कोठारी आयोग, राष्टीय शिक्षा नीति, राष्टीय शिक्षा आयोग, राष्टीय शिक्षा नीति की पुनरीक्षा समिति आदि ने भी लगातार शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को ही बनाने की वकालत की, लेकिन फिर क्या वजह है कि आज तक इन सिफारिशों को अमल में नहीं लाया गया या नहीं लाने दिया गया। यहां एक वजह राजनीति हस्तक्षेप एक बड़ा कारण है। वह हस्तक्षेप हमें भाषा के आधार पर राज्यों के विभाजन से शुरू होकर आज तक बतौर जारी है। मातृभाषा और मानक भाषा के बीच एक फांक नजर साफ देख सकते हैं। कक्षा में मातृभाषा के स्तर पर बच्चों के साथ होने वाले भेदभाव भी किसी से छूपे नहीं हैं। इस स्तर पर निजी स्कूलों में जिस तरह से मातृभाषा को दबाकर अंग्रेजी को तवज्जों दी जाती है यह भी किसी भी अभिभावकों से छुपा नहीं है। सिर्फ हिन्दी को छोड़कर बच्चों को कक्षा में अन्य मातृभाषा के इस्तमाल पर मुंह बिचकाए जाते हैं। और तो और गैर अंग्रेजी भाषी बच्चों को दंड़ भी भुगतने पड़ते हैं। ऐसे में मातृभाषा कहीं हाशिए पर धकेल दी जाती है।
कक्षायी अवलोकन बताते हैं कि बच्चां को मातृभाषा के इस्तमाल पर अलिखित ऐसा माहौल दिया जाता है जिसमें मातृभाषा के पनपने और विकसने का अवसर बच्चों से अगल कर दिया जाता है। बच्चे जिस मातृभाषायी परिवेश से कक्षा में आते हैं उन्हें उस भाषायी परिवेश से काट दिया जाता है। तो क्या वजह है कि उनकी मातृभाषा बच पाएगी। सामान्यतौर पर बच्चे अपनी मातृभाषा इस्तमाल सिर्फ अपने घर,परिवार और दोस्तों के बीच ही कर पाते हैं। जैसे ही स्कूली परिसर में दाखिल होते हैं उन्हें अपनी मातृभाषाओं को बाहर करना पड़ता है। बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तब भी शिक्षा उन्हें उनकी मातृभाषा के साथ कैसा बरताव रखा जाए इसकी मदद नहीं करता। दरअसल हमारी पूरी शिक्षा नीतियां, सिफारिशें मातृभाषा के बढ़ावा के लिए नीतिगत मदद तो करती हैं लेकिन अमलीजामा पहनाने की जहां बात आती है वहीं हम पिछड़ने लगते हैं।
विभिन्न शोधों की निष्पत्तियां इस तथ्य को स्थापित कर चुकी हैं कि बच्चे की सर्वांगीण विकास में उसकी मातृभाषा एक बड़ी भूमिका निभाती है। ताउम्र हम अपनी मातृभाषा को नहीं भूल पाते। हम कितनी भी गैर मातृभाषा में दक्षता हासिल कर लें लेकिन जहां तक भाषायी सहजता को प्रश्न है तो हर व्यक्ति अपनी मातृभाषा को चुनता है। लेकिन हमारा नागर समाज और शिक्षायी परिदृश्य मातृभाषा को हमेशा ही पिछले पायदान पर धकेलती नजर आती है। वही वजह है कि मातृभाषा व्यापक विमर्श की परिधि से बाहर हो जाती है। गौरतलब है कि राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000, 2005 बड़ी ही शिद्दत से बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा देनी की सिफारिश करती है।
जब बच्चा कक्षा में अपनी मातृभाषा का इस्तमाल करता है तब बच्चे तो बच्चे शिक्षक भी एक बार हंसे बगैर नहीं रह पाते। मसलन ‘लाइन पार दीजिए’ ‘माथा पेरा रहा है’ आदि वाक्य सुनते हम एक ख़ास राज्य का ठप्पा लगाकर उन्हें उनकी मातृभाषा के प्रयोग पर परोक्षरूप से छलनी लगा देते हैं। दुबार वे बच्चे इन वाक्यों को बोलने से पहले हजार बार सोचते हैं। प्रकारांतर से हम बच्चों के वाचिक अभिव्यक्ति भाषा के एक कौशल से काट देते हैं। जबकि एनसीएफ 2005 एवं गांधीजी की वकालत मातृभाषा को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के तौर पर इस्तमाल करने की थी। कितने बेहतर होता कि इन वाक्यां को प्रोत्साहित करे उन्हें मानक भाषा की ओर मोड़ते। वे कितने धनी होते कि उनके पास दो भाषाएं एक साथ होतीं। लेकिन हमने उन बच्चों से उनकी सहज अभिव्यक्ति की भाषा में मट्ठा डाल दी।

 

Monday, November 7, 2016

छठ के गीत

 छठ के गीत को इस तरह से भी गाने का वक्त आ चुका है। टटकी रचना परोस रहा हूं-
  आंगन में पोखर बनई बो,
 अनत कहीं पूजन न जइबो।
आदित बाबा घर ही में अर्घ्य चढई बो,
अनत कही पूजन न जइबो।
गंगा जमुन भइले दूर अब कहां अर्घ्य चढई बो,
नदिया पोखर सगर बिलई बो।
का कहीं कहा पूजन के जइबो,
गउंवां देहतावा में जइबो।
उहें अर्घ्य चढ़ई बो,
छतवे पर टबवे में नहई बो।
पारक में उख गड़ई बो,
अनत कहीं भटके न जइबो।

Thursday, November 3, 2016

गुनगुनी धूम में चलों कविता कहानी पकाएं


कौशलेंद्र प्रपन्न
दिसंबर का अंतिम पखवाड़ा। आप सभी की स्कूल की छुट्टियों के दिन। आप में से कुछ बाहर घूमने भी जाओगे। कुछ अपने घर में रहेंगे। सर्दी की धूम कितनी प्यारी लगती है जब धूम में बैठकर संतरे, मूंगफली,मूली खाते हो। वैसे ही हम इस धूम में कविता और कहानी सेकेंगे।
आपकी दादी,नानी या दादा, पापा-मम्मी कहानी जरूर सुनाती होंगी। आपको अच्छी भी लगती हैं। ज़रा सोचो आप भी कविता और कहानी बनाओ, बुनो और पका कर मम्मी पापा को सुनाओगे तो कितनी खुशी होगी। अगर चाहते हो कि आप खुद की लिखी कविता और कहानी बुनो तो कुछ जरूरी बातों को ध्यान में रखना होगा।
पहले अपने आस-पास यानी परिवेश को ध्यान से देखो और महसूस करो कि वे आपसे जैसे बातें कर रही हों। कि जैसे अपने बातें आपसे साझा करने के लिए उतावले हो रहे हों। जैसे आपके आस-पास की सर्द हवा, फूल, चिड़िया, पेड़, पार्क में घूमती उड़ती पत्तियां आदि। ये सब आपसे कुछ कहना चाहती हैं। सुनने के लिए उनके पास जाओ। धीरे से उन्हें सहलाओ। देखोगे कि वे पत्तियां आपसे बतियाने लगी हैं।
जब उनके करीब जाओ तो अपने साथ अपनी जेब में कुछ शब्दों को भी लेकर जाओ। जो आप देख और महसूस रहे हो उसे अपने शब्दों में कहने और गुनगुनाने की कोशिश करो। यहीं से कोई कोमल कहानी या कविता निकलेगी। जैसे सर्दी आई सर्दी आई/ओढ़े ठंढ़ की सर्दी आई। वर्दी पहने सर्दी आई। या फिर ऐसी दूसरी पंक्तियां आपको कानों में बजने लगेंगी। पत्तियों को उड़ते, खड़खड़ाते आपने देखा और सुना उन्हें शब्द देना चाहो तो कुछ यूं हो सकता- पत्तियां यूं उड़ती हैं ज्यों उड़ते हैं धूंध घनेरे। खड़खड़ करती पत्तियां आईं/साथ में पत्तियां लाईं। आगे आप खुद कविता को जन्म दे सकते हो। कविताएं ऐसी ही तो बनती और पकती हैं। हमारे आस-पास की चीजें पता नहीं कब कविता में समाने लगती हैं। आप भी बुनो न कोई सुंदर सी कविता।
जहां तक बात कहानी की है तो कहानियां शब्दां के कंधे पर चढ़कर आपतक आती हैं। आपको दूर कहीं ख्यालों में, कल्पनाओं में ले जाती हैं। आपको भी कहानी की दुनिया में अपने दोस्तों को ले जाना है तो बुनों एक अपनी नई कहानी। जैसे एक दिन घास सुबह सुबह बहुत खुश थी। खुश थी कि उसके माथे पर ओस की चमकती बूंदें थीं। सुबह की रोशनी में हीरे की तरह चमकती धूम बेहद खुशी थी। आपकी कहानी फूलों, चिड़ियों पर भी हो सकती है। एक और देखते हैं कहानी की शुरुआत, चिड़ियां चहक चहक कर मिट्टी के कटोरे में रखे पानी में नहा रही थी। पास में ही दाना चुगती दूसरी चिड़िया देख रही थी और बार बार उड़ती और वापस दाना खा कर फिर फिर उड़ जाती।
कहानी या कविता बुनने पकाने के लिए शब्दों की जरूरत पड़ती है जैसे रेटी बनाने के लिए आटा। आपके पास भी शब्द तो होंगे ही। अगर कम हैं तो मम्मी-पापा, दादा-दादी, नान-नानी, दोस्तों या फिर स्कूल में अपनी मैम या सर से मांग सकते हो कि मुझे इस पर कविता लिखनी है कुछ शब्द सुझाएं। अब आपके पास शब्द हैं, पेड़, चिड़िया, सर्दी की धूम, गुनगुनी दुपहरी है। साथ ही खाने को मूली, गाजर,मूंगफली आदि हैं। इन्हें खाते रहो और कविता, कहानी भी पका लो। जब स्कूल खुलें तो इन्हें अपनी जेब में, यादों में लेकर जाना मत भूलना। अपने दोस्तों से जरूर बांटना। आपके दोस्त ही नहीं बल्कि मैम, मम्मी पापा भी सुन कर कह उठेंगे वाह! क्या कहानी पकाई है। इसे चाहो तो किसी पत्रिका और अखबार में भी छपने के लिए भेज सकते हो।



Wednesday, November 2, 2016

जलती हुई शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
आप मरने लगते हैं धीरे धीरे/अगर आप पढ़ते नहीं हैं कोई किताब- पाब्लो नेरूदा की पंक्ति में वह संदेश है जिसे समाज सुन नहीं रहा है या सुनना नहीं चाहता। जिस समाज में किताब और किताब घरों को आग के हवाले किया जाता हो उस समाज की वैचारिक विकास का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। वह समाज और देश कितना दुर्भागा माना जाना चाहिए जहां शिक्षण संस्थान जल रही हों। बल्कि कहा जाए जलाई जा रही हां। यह जलन दो स्तरों पर है। पहला, भौतिक तौर पर शिक्षण्रा संस्थान स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों को आग लगाई जा रही है। दूसरा, शिक्षण संस्थानों को वैचारिक स्तर पर आग के अवाले किया जा रहा है। पहली आग बुनियादी ढांचे को जला कर राख करती है तो दूसरी आग वैचारिक तौर पर कंगाल और राख के ढेर में तब्दील कर देती है। पिछले कुछ महीनों से जम्मू कश्मीर में पहली वाली आग में तमाम स्कूल, कॉलेज जल रहे हैं। बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। बड़े कॉलेज से बाहर हैं। रिपोर्ट बताती हैं कि स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे अपने घरों से बाहर निकल कर जम्मू में स्कूलों में दाखिला लेकर पढ़ रहे हैं। वहीं कॉलेज में ताले लगे हैं। हाल की घटना और भी कष्ट और चिंता बढ़ाने वाली है कि स्कूल और शिक्षक शिक्षण संस्थान के प्रधानाचार्य के घर में आग लगा दी गई। यदि किसी भी समाज को दुखद अतीत बनाना है तो उस समाज की शैक्षिक स्वास्थ्य को खराब कर दिया जाए।
शिक्षा हमें और हमारे समाज को एक आकार देने का काम करती रही है। लेकिन इस आकार को तय करने वाले और कार्यान्वित करने वाले शिक्षा जैसे मुकम्मल औजार का इस्तमाल समाज में आग लगाने में भी करने में भी करते रहे हैं यह इतिहास में दर्ज है। इससे किसी को कोई एतराज नहीं होनी चाहिए कि नागर समाज ने ही अपने हित साधन के लिए शिक्षा का गलत प्रयोग भी किया है। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि शिक्षा को कैसे अपने वैचारिक विस्तार के लिए इस्तमाल किया गया है। कभी पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों के मार्फत हमने इसे अंजाम दिया तो कभी शिक्षण संस्थानों पर वैचारिक घेरेबंदी करके किया। लेकिन यह काम बड़ी ही साफगोई से की जाती रही है। यदि शिक्षा में लगाई गई आग के इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा चिंगारी राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों ने ही आग लगाई है। उन आगों के पीछे मकसद तात्कालिक लक्ष्य को हासिल करना था। सत्ता में आने की चाह और ललसा ने शिक्षण संस्थानों और शिक्षा की मूल प्रकृति को थोड़ा गंदला ही किया।
ख़बर है कि विभिन्न राज्यों में समय समय पर शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में आग तो लगाइ ही गई है साथ ही कैसे बच्चों के बस्ते में पूर्वग्रह भरे जाएं इस पर भी सुनियोजित तरीके से काम किए गए हैं। जो आग-बीज  पांच दस साल पहले बोए गए थे वे अब बच्चों में वृक्ष का रूप ले चुके हैं। कक्षाओं में बच्चे संप्रदाय, धर्म, जाति एवं भाषा आधारित दोस्ती करने के रास्ते पर चल पड़े हैं। जिस शिद्दत से बच्चों के मन में आग रोपे जा रहे हैं उसका अंजाम आने वाले सालों में दिखाई देगा इसके लिए हम नागर समाज को तैयार रहना चाहिए।
जम्मू कश्मीर में जिस तरह से स्कूलों और कॉलेजों को निशाना बनाया जा रहा है वह भयावह है। इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि हमारे बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा कट गए हैं। स्कूलां-कॉलेजों में ताला लगने का अर्थ है हम अपने बच्चों और युवाओं के हाथों में खेल,मनोरंजन और व्यवस्तता का खतरनाक विकल्प दे रहे हैं। जो स्कूल व कॉलेज नहीं जा पा रहे हैं वे कहां व्यस्त हैं यह जानना भी बेहद जरूरी है। क्योंकि उन्हें शिक्षा से विलगा कर हम एक बड़ी चुनौती को बुला रहे हैं। स्थानीय सरकार की ओर से भी पुख़्ता इंतजाम की कमी और कार्यवाई की कमी ही मानी जाएगी कि राज्य में तमाम सरकारी स्कूलां को आग का निशाना बनाया जा रहा है। कोई भी राज्य, समाज व देश तालीम को नजरअंदाज कर के चलती है तो वह विकास पूर्ण नहीं कह सकते। बल्कि राज्य के भौतिक विकास के चेहरे पर एक काला धब्बा ही है जहां की शिक्षण संस्थाएं स्वतंत्र रूप से नहीं चल पा रही हैं।
अगर नजर दौड़ाएं तो पिछले तीन सालों में विभिन्न राज्यों में शिक्षण और अकादमिक संस्थानों पर एक किस्म का कब्जे का दौर रहा है। वह कब्जा भौतिक से कहीं ज्यादा खतरनाक वैचारिक स्तर पर है। विभिन्न सस्थानों पर एक ख़ास वैचारिक प्रतिबद्धता वाले मुखिया को बैठाया गया है ताकि शैक्षिक संस्थानों को इस्तमाल अपने हित साधन में किया जा सके। कभी भाषायी स्तर पर तो कहीं पाठ्यक्रम के स्तर पर यह खेल बतौर जारी है। जो किसी भी लोकतांत्रिक समाज और राज्य के लिए हितकारी नहीं माना जा सकता। हमें इन शैक्षिक संस्थानों को आग से बचाना होगा हमें बच्चों को पूर्वग्रह के पाठों से निजात दिलानी होगी। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यदि हमें वैज्ञानिक सोच और तकनीकतौर पर विकसित समाज का निर्माण करना है तो पूर्वग्रहों और आगजनी से शिक्षण संस्थानों, स्कूल को सुरक्षा प्रदान करना होगा।


Wednesday, October 12, 2016

बचपन का संरक्षण


कौशलेंद्र प्रपन्न
आज की तारीख में बच्चां के बचपन का संरक्षण और देखभाल काफी अहम है। बच्चों पर होने वाले चौतरफा प्रहार की मार को हम आज बेशक नजरअंदाज कर दें लेकिन उसके घातक परिणामों से इंकार नहीं कर सकते। हमनें अनुमान तक नहीं किया है कि नब्बे के दशक के बाद और 2000 के आरम्भिक दौर में बच्चों पर कई प्रकार के दबाव और प्रभावित करने वाले तकनीक उभर कर सामने आए। हमें उन तमाम घटकों की प्रकृति और बुनावट को पहचानने की आवश्यकता है जो बच्चों से बचपन को खत्म करने पर आमादा हैं। इनमें सबसे मजबूत घटक है विभिन्न माध्यमों में बच्चों के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगिताएं। प्रतियोगिताओं से परहेज नहीं है लेकिन उन प्रतियोगिताओं के बाजारीय दर्शन और सिद्धांतों से असहमति रखी जा सकती है। क्योंकि इन प्लेटफॉम पर प्रतियोगिता के साथ कुंठाएं, निराशा, दुःचिता को धीरे से सरका दिया जाता है। दूसरा घटक तकनीक है जिनसे धीरे धीरे बच्चों से उनके पारंपरिक सहगामी क्रियाओं, खेल, मनोरंजनों के माध्यम का गला घोटा दिया। कभी समय था जब बच्चे पत्रिकाएं, कहानी की किताबें आदि पढ़ा करते थे। अब न किताबें रहीं और न घर में पढ़ने का माहौल। इस संस्कृति को विकसित करने में टीवी की बहुत बड़ी भूमिका रही। भूमिका तो सूचना और तकनीक क्रांति की भी कम नहीं रही जिसने हाथों में खेलों के सामान को छीन कर स्मॉट फोन, टेब्लेट्स, आई पैड पकड़ा दिए। फोन में होने को तो वर्ड्स गेम भी होते हैं जिससे अपनी शब्द-भंड़ार को बढ़ाया जा सकता है कि उसकी जगह पर गेम्स खेलने की प्रवृत्ति ज्यादा विकसित होती गई। मोटेतौर पर बच्चों से बचपन छिनने वाले घटकों की पहचान हम इन रूप में कर सकते हैं- सूचना और तकनीक क्रांति, प्रतियोगिताओं का डिजिटलीकरण और हमारे बीच से पढ़ने-सुनने और सुनाने की आदतों को छिजते जाना।
विभिन्न निजी और सरकारी टीवी चैनलों पर बच्चों के लिए बच्चों के कंटेंट के नाम पर जिस प्रकार के जाल बिछाए गए उनमें हमारे अभिभावक,बच्चे, नागर समाज धीरे धीरे फंसते चले गए। हमें कंटेंट के स्तर पर, उसकी प्रस्तुति के स्तर, उसके दर्शन पर सवाल उठाने चाहिए थे लेकिन हमने उन्हें बिना जांच-पड़ताल किए, बगैर विमर्श के अपने अपने घरों में स्वागत किया। उसी का परिणाम है कि अब अभिभावक शिकायत करते हैं कि उनके बच्चे उनकी नहीं सुनते। दिन भर टीवी के सामने बैठे रहते हैं। इसमें दोष सिर्फ बच्चों का ही नहीं है बल्कि अभिभावक भी उतने ही जिम्मेदार हैं क्योंकि जब बच्चों को व्यस्त रखना है तो टीवी ऑन कर देने की शुरुआत भी तो हमने ही की थी। शुरू में बच्चे व्यस्त रहे। हमने अपने काम निपटा लिए। सिर दर्दी से जान छूटी। लेकिन जब वही टीवी के कार्यक्रमों बच्चों की आम जिंदगी में शामिल हो तब हमारे चिंता बढ़ी कितना बेहतर होता कि हमने शुरू में ही इन माध्यमों के इस्तमाल और समय-सीमा पर घर में बातचीत की होती। हालांकि यह जल्दबाजी होगी कि कैसे अनुमान लगा लें कि वह हमारे बच्चों के महत्वपूर्णसमय को खत्म कर रहा है।लेकिन इतनी एहतीयात तो बरती ही जा सकती थी कि जिन चैनलों के हाथों हम अपने बच्चों को सौंप रहे हैं उन्हें खुद देख परख लेते। इसी लापरवाही का नतीजा हैकि बच्चे दिन दिन भर टीवी से चिपके होते हैं। मांए, घर के अन्य सदस्य चिल्लाते रहते हैं लेकिन टीवी देवता बंद नहीं होते।
टीवी पर प्रसारित होने वाले बच्चों के कार्यक्रमों की वेशभूषा पर नजर डालें तो एक दिलचस्प बात यह नजर आएगी कि बड़ों के पहनावे और बच्चों के पहनावे, मेकअप आदि में बुनियादी अंतर खत्म हो चुके हैं। हेयर स्टाइल, वेशभूषा, बोलने के अंदाज आदि सब एक दूसरे में ऐसे मिल चुके हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल होगा। यह कहीं न कहीं बच्चों की सहज दुनिया और उनकी देह भाषा,पहनावे को बड़ी चतुराई से उनसे छीन ली गई। और हम उसी मूर्खता से उन्हें स्वीकारते और स्वीकृति भी देते रहे।
तकनीक के विकास के साथ ही बाजार ने कभी नारा दिया था कर लो दुनिया मुट्ठी में हम उसके पीछे भागने लगे। बच्चों तक के हाथों में मोबाइल आ गए। अब मोबाइल सिर्फ संवाद का माध्यम भर नहीं रहा। बल्कि मनोरंजन के अन्य साधनों के तौर पर भी हमारी मुट्ठी में ऐसे बंधा कि सोना,जगना,बाथरूप जाने तक में साथ होता है।बच्चों हमीं से सीखते हैं जब बच्चे स्वयं देखते हैं कि मां-बाप, भाई बहन सब शौचालय में भी फोन लेकर जाते हैं तो वे क्यों पीछे रहें। तकनीक विकास का फंदा आज इतना कस चुका हैकि हमारा निजी से निजी पल भी उसी के हाथ में है।वही बच्चे भी सीख रहे हैं। सुबह आंखें मीचते,रात सोते हाथ में मोबाइल देख सकते हैं। बच्चों की मुट्ठी से हमने पत्रिकाएं, किताबें छीन कर गजेट्स पकड़ाकर अब रो रहे हैं।
पढ़ने की आदत न केवल बच्चां में खत्म सी हो गई बल्कि बड़ां की जिंदगी से भी लगभग कमतर ही होती चल गई। जब बच्चों में अपने घरों में पत्रिकाओं, किताबों के स्थान पर गजट्स देखेंगे तो उनकी रूचि भी उन्हीं में होगा न कि किताब पढ़ने व पत्रिकाओं में उलटने पलटने में। हम यह दोष दे कर नहीं बच सकते कि आजकल बच्चों को पढ़ने में मन नहीं लगता। बच्चे किताबें नहीं पढ़ते आदि। बच्चों के आस-पास यानी परिवेश से ही पठनीय सामग्रियां खत्म हो गई हैं। जो कुछ सामग्री बची है वह पाठ्यपुस्तकें हैं जिसमें अमूमन उनकी रूचि मुश्किल से जगती है। पाठ्यपुस्तकेत्तर पठनीय सामग्रियों उपलब्ध कराना हमारी जिम्मेदारी बनती है न की बाजार की।
 

Monday, October 3, 2016

पढ़ाने में हर्ज़ नहीं है इन्हें


कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘हम तो नाम के शिक्षक हैं। पढ़ाने से हमारा दूर दूर का कोई वास्ता नहीं है। पिछले एक माह से हम बच्चों के आधार कार्ड, बैंक एकाउंट, राशन कार्ड और बैंक एकाउंट को आधार कार्ड से जोड़ने का काम कर रहे हैं। सच पूछा जाए तो पढ़ाने का तो मौका ही नहीं मिलता। हमारे अधिकारी भी विजिट पर आते हैं तो वे आधार कार्ड, बैंक एकाउंट आदि बने या नहीं चेक करते हैं।’’ एक शिक्षिका ही नहीं बल्कि दिल्ली और दिल्ली के बाहर के शिक्षकों का भी लगभग यही कहना हो सकता है। इन पंक्तियों में कहीं कोई मिलावट काट छांट नहीं की गई है ताकि पाठकों को हकीकत से रू ब रू होने का मौका मिले। गौरतलब है कि इन बातों को कहने का मौका पांच अक्टूबर ही क्यां चुना गया। दरअसल यह तारीख अंतरराष्टीय शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस असवर पर भारतीय शिक्षकों की स्थिति की दिशा क्या है इस पर ठहर कर विचार किया जा सके।
समय और चुनौतियों के संदर्भ में समझने की कोशिश करें तो आजादी के बाद जितनी भी शैक्षिक समितियों को गठन किया गया उनमें शिक्षकों के पक्ष को मजबूती से नहीं उठाया गया। यदि शिक्षकों की बात उठाई गई है तो वह बेहद लचर तरीके से। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा में तो भी जहां कोई कमी दिखी उसके लिए शिक्षकों के गर्दन पकड़े गए। शिक्षक वह जीव होता है जिसकी आत्मा अधिकारियों में बसती है। अधिकारी जब चाहें उसकी गर्दन मरोड़ सकते हैं। जिन पंक्तियों के सहारे बात शुरू की गई थी उससे ने केवल शिक्षक बल्कि अधिकारी, शिक्षक नीति निर्माता भी सहमत होंगे। आधार कार्ड, बैंक एकाउंट आदि के अलावा भी कई काम शिक्षकों से कराए जाते हैं जिन्हें डाइस अपनी रिपोर्ट में हर साल छापा करता है। उन पर नजर डालने पर दिन तो सोलह, सतरह, बीस दिन ही नजर आते हैं लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां करती है।अव्वल तो स्कूलों में आरटीई के अनुसार पर्याप्त शिक्षक तक मयस्सर नहीं हैं जो हैं वे अन्य कामों में जोत दिए गए हैं। उसपर तुर्रा यह कि शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते।
सच यह है कि शिक्षक तो पढ़ाना चाहता है किन्तु उसे व्यवस्था/अधिकारियों की आदेश नहीं पढ़ाने पर मजबूर करते हैं। एक शिक्षक पर चौरतरफा दबाव है। शैक्षिक गुणवत्ता को बरकरार रखे, गैर शैक्षणिक कार्यों को भी अंजाम दे, सैलरी भी समय पर न मांगे आदि। जो लोग शुद्ध रूप से पढ़ाने का मन बनाकर इस पेशे में आए थे वे बेहद निराशा से भर गए हैं। उन्हें इस मनोदशा से निकालना अधिकारियों का पहला काम होना चाहिए। केवल पारंपरिक कार्यशालाओं, सेमिनारों में बैठाकर भाषण, नैतिकता पीलाने की बजाए हकीकत से कैसे सामना किया जाए इसकी क्षमता विकास करने की आवश्यकता है।
कार्यशाला के नाम पर दिल्ली में इसी मई जून माह में नैतिक शिक्षा, जीवन कौशल जैसे दार्शनिक और आत्मिक विकास वाले मुद्दे पर टीजीटी शिक्षकां को प्रशिक्षित किया गया। लेकिन जब एक छात्र ने हाल ही में परीक्षा में न बैठे दिए जाने पर शिक्षक को चाकू से गोद कर मार देता है तो ऐसी स्थिति से कैसे निपटा जाए इसकी तालीम देने की आवश्यकता है। विषयवार भी कार्यशालाएं होती हैं इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन जिस तरीके से इन कार्यशालाओं में विषय के साथ बरताव किया जाता है वह काफी शोचनीय है।
अंतरराष्टीय स्तर पर शिक्षकों की स्थिति को देखें तो भारतीय संदर्भ आंखों में किरकिरी की तरह गड़ने लगता है। क्योंकि जिस देश समाज में शिक्षा को अधिकार बनाने में सौ लगे ऐसे मे बच्चों की शिक्षा की स्थ्ति को सुधारने में पच्चास साल तो लगेंगे ही। हाल में ग्लोबन एजूकेशन मोनिंटरिंग रिपोर्ट 2016 में जिक्र किया गया है कि भारत में अभी सभी के लिए शिक्षा का सपना सपना ही है। इसे पूरा होने में कम से कम 2050 तक इंतजार करना होगा। भारत ने इएफए के लक्ष्य को पीछे 2000, 2010,2015 तीन बार से हासिल नहीं कर पाया है। अब नई तारीख की घोषणा भी हो चुकी है 2030 तक हम सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान कर देंगे।

हम जिनके कंधों पर सवार होकर यह लक्ष्य पाने की इच्छा रख रहे हैं उन कंधों की पहचान भी कर लेनी चाहिए। देश में नब्बे के दशक में तदर्थ, शिक्षा मित्र, पैरा टीचर के नाम से एक नई प्रजाति को जन्म दिया गया। ये वे प्रजातियां थीं जिन्हें कम पगार, कम शैक्षिक योग्यता पर भी कक्षा में धकेला गया। जो आज बतौर जारी है। इससे इंकार नहीं कर सकते कि स्थानीय युवाओं को रोजगार के अवसर मिले। लेकिन शिक्षा जैसे गंभीर मसले को गै प्रशिक्षित, बारहवीं व बी ए पास युवाओं के भरोसे से छोड़ सकते। आज देश के अन्य राज्यों में एकल शिक्षक स्कूल चल रहे हैं। कई तो स्कूल ऐसे भी हैं जहां स्थाइ्र शिक्षक दो और बाकी तदर्थ यानी अस्थाई तौर पर पढ़ा रहे हैं। सरकारी स्कूलों के समानांतर निजी स्कूलों का जाल फैलता जा रहा है।गांव देहात, गली मुहल्ले में निजी स्कूलों का ख्ुलना और उन्हें आिर्थ्ाक मदद पहुंचाने में स्थानीय निकायों के हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता। 

Tuesday, September 27, 2016

शिक्षा के नाम पर शिक्षणशास्त्र की नजर से शिक्षा को समझना


कौशलेंद्र प्रपन्न
मंजूल संयोग ही माना जाएगा कि शिक्षा पर हमपेशा सुश्री ऋतु बाला और श्री राघवेंद्र प्रपन्न ने शिक्षा के नाम पर और ज्ञान का शिक्षण शास्त्र पुस्तकें शिक्षा जगत को दिए हैं। इन दोनों ही पुस्तकों के लेखकद्वय सुश्री ऋतु बाला और राघवेंद्र प्रपन्न निश्चित ही बधाई के पात्र हैं। क्योंकि इन दोनों ने शिक्षा में पिछले दो दशकों से होने वाली हलचलों को ठहर कर पकड़ने और समझने के लिए विभिन्न दस्तावेजों और अध्ययनों को अपनी इन किताबों में शामिल किया है। लेखकद्वय ने शैक्षिक जगत से संबद्ध विभिन्न दस्तावेजों एवं अंतरराष्टीय-राष्टीय दबावों और आर्थिकी पहलुओं की परतों को खोलने का प्रयास भी किया है। शिक्षा के नाम पर आजादी से पूर्व और आजादी के बाद कितना और किस स्तर के काम हुए हैं यह जानना अपने आप में बहुत ही दिलचस्प होगा। शिक्षा के छात्र और शिक्षा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए शिक्षा का इतिहास और राजनीति काफी रूचिकर और रहस्यमय भी रहा है। रहस्यमय इसलिए क्योंकि राजनीति शिक्षा में हस्तक्षेप कर शिक्षा की धार को कुंद करने की ताकत रखती है और इस ताकत को शिक्षा पर आजमाती भी रही है यह समझना जरा मुश्किल काम है। हमें पाठ्यपुस्तकों,पाठ्यचर्याओं और पाठ्यक्रमों के निर्माण प्रक्रिया को किस प्रकार राजनीतिक हस्तक्षेप शिक्षा के उद्देश्य को भ्रमित करती है इसकी झलक हमें ज्ञान का शिक्षा शास्त्र पुस्तक के पहले पाठ में मिलता है। ‘‘भारतीय स्कूली शिक्षा के संदर्भ में सामाजिक विज्ञान के विमर्श की शिक्षा शास्त्रीय विवेचना’’ पाठ में विज्ञान की किताबों में किस तरह सन् 2000, 2002 में पाठ्यपुस्तकों एवं पाठ्यचर्याओं को एक विशेष विचारधारा ने अपनी वैचारिक विस्तार के लिए किताबों को औजार के तौर पर इस्तमाल किया इसकी झांकी सप्रमाण मिलती है। बतौर इसी पाठ से एक और उदाहरण प्रस्तुत है - ‘‘समाज विज्ञान के पाठ्यक्रम सन् 1988 से सन् 2001 के पाठ्यक्रम का मिलान करने पर यह साफ हो जाता है कि पाठ्यपुस्तकों की यह दुर्दशा महज संयोग, असावधानी तथा गैरजानकारी का परिणाम नहीं है बल्कि सन् 2002 का पाठ्यक्रम सैद्धांतिकतौर पर ही इस बात को मान्यता नहीं देगा कि विद्यार्थी, समाजविज्ञान को समाजशास्त्रीय पद्धति से पढ़ सके।’’
हम राजनीति को शिक्षा से अलगाकर शिक्षा की प्रकृति को समझने का दावा कर सकते हैं। सर्वांगीण शैक्षिक समझ की वकालत तभी संभव है जब हम शिक्षा की सामाजिक,राजनीति, परिवेशीय एवं आर्थिक भूगोल को अपनी नजरों से गुजारें और उन तमाम पहलकदमियों,हलचलों को समझने का प्रयास करें जिसे हम इतिहास के हिस्से डाल देते हैं। शैक्षिक जगत का भूगोल भी रोजदिन न सही किन्तु गतिमान तो है ही। परिवर्तन की प्रक्रिया यहां भी घटित हो रही है। शैक्षिक भौगोलिक जमीन भी तेजी से खिसक रही है लेकिन क्योंकि हम गति में हैं इसलिए उन परिवर्तनों से नवाकिफ हैं। जिनका परिणाम आज नहीं बल्कि दस बीस साल बाद हमारी पीढ़ी को भुगतनी होगी। तक्सीम के तकरीबन सत्तर साल बाद भी शिक्षा का चरित्र संदिग्ध ही रहा है। शिक्षा किसके लिए, किसके द्वारा, किसको दिया जा रहा है इस गुत्थी को सुलझाने में हम असफल रहे हैं।
शैक्षिक वैश्विकरण,उदारीकरण, नव उदावाद, बाजारीकरण के दौर में हमें शिक्षा की प्रकृति को समझना बेहद जरूरी है। न केवल शैक्षिक इतिहास बल्कि शिक्षा-समाज, शैक्षिक-राजनीति, शैक्षिक आर्थिकी को भी समझने का प्रयास करना होगा तभी हम वर्तमान की शैक्षिक चरित्र और प्रकृति को कोसने की बजाए शिक्षा से जुड़े उन तमाम घटकों को सुधारने की बात करेंगे जिन्होंने शिक्षा को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई है। दूसरे शब्दों में कहें तो शिक्षा के इतिहास, समाज, चरित्र, वैश्विक बुनावट को समझना होगा।
शिक्षा के नाम पर और ज्ञान का शिक्षा शास्त्र पुस्तकों का स्वागत होना चाहिए क्योंकि इन दो किताबों में लेखकद्वय राघवेंद्र प्रपन्न और ऋतु बाला ने बड़़ी ही शिद्दत से शिक्षा के वर्तमान, इतिहास एवं समाज से टकराने और खरोंच मारने की कोशिश करते हैं।
शिक्षा की मुख्यधारा में किस तरह से शैक्षिक चरित्र निर्धारित करने वाले नीतिकारों और राजनीतिकों ने शैक्षिक विमर्श और पाठ्यपुस्तकों से वंचितों, दलितों,अनुचित जाति और जनजातियों को हाशिए पर रखा इस अंधेरे कोने की ओर ऋतु बाला द्वारा लिखित आलेख पाठ ‘‘स्कूली पाठ्यपुस्तकों में दलित-वंचित वर्ग की छवि’’  में विस्तार से चर्चा मिलती है कि किस प्रकार हमारे पाठ्यपुस्तकों में दलितों, वंचित वर्गों को पढ़ाया जाता है और उससे बच्चों में किस प्रकार की छवियां बनती हैं। लेखिका ने देश के चार राज्यों बिहार, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के हिन्दी की किताबों में वर्णित वंचितों और अनुसूचित जाति और जनजातियां की छवियां को उभारने वाले चित्रों का विश्लेषण किया है जो आंखें खोलने वाला अध्ययन है। बतौर लेखिका- ‘‘ चार राज्यों की 16 पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि अनुसूचित जनजाति का एक भी महिला अथवा पुरुष पात्र ऐसा नहीं है जिसकी चर्चा समूह तथा जनजाति विशेष से हटकर एक व्यक्तित्व के रूप में की गई है। जबकि आदिवासी समाज में कई ऐसे ऐतिहासिक चरित्र हुए हैं जो चर्चित भी रहे हैं तथा आज भी जीवंत हैं मसलन- अकेले बिहार के रांची जिले में 1789 से 1920-21 तक तकरीबन छः चर्चित विद्रोह हुए हैं। परंतु इनका जिक्र तक अध्ययन में शामिल बिहार की पाठ्यपुस्तकों में नहीं मिलता।’’  ऋतु बाला इसी पाठ में आगे लिखती हैं कि चार राज्यों की 16 पाठ्यपुस्तकों ; कक्षा 6 से 8 हिन्दी विषयद्ध  के 2268 पृष्ठों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की कुल हिस्सेदारी 71 पृष्ठों की पायी गई। एक और ध्यान खींचने वाले तथ्य की ओर खींचती हुई ऋतुबाला लिखती हैं कि इन चार राज्यों की हिन्दी की सोलह पाठ्यपुस्तकों में अंबेडकर के कुल तीन चित्र  हैं। जिसमें इन्हें वकील की पोशाक में दिखाया गया हैं कोई बिंब, चिह्न प्रतीक व वाक्यांश ऐसा नहीं है जो बतला सके कि ये अनुसूचित जाति से संबंधित हैं। ऋतुबाला एप्पल की स्थापना को कोट करते हुए लिखती हैं कि महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों की विश्वदृष्टि क्या है इसकी कोई ठोस विवेचना किए बगैर ही पाठ्यपुस्तकों में महिलाआें और अल्पसंख्यकों के योगदान को सीमित कर दिया जाता है। लेखिका बड़ी ही शिद्दत से अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जनजातियों आदि की छवियों की पड़ताल इस पाठ में करती हैं। उन्होंने अपने ही अध्ययन के हवाले से हम नागर समाज का ध्यान उस तथ्य की ओर भी खींचा हैं कि हमारी पाठ्यपुस्तकें ही हद तक इन वंचितों के हित और सकारात्मक छवि निर्माण में मददगार साबित होती हैं या फिर छवि भंजक की भूमिका निभाती हैं।
राघवेंद्र प्रपन्न ‘‘भाषा की शिक्षा शास्त्रीय मीमांसा’’ पाठ में विस्तार से चर्चा करते हैं कि किस प्रकार 1988, 2000 और 2005 की भाषायी विमर्श और स्थापनाओं में बुनियादी अंतर देखने को मिलता है। इससे हमें भाषायी शिक्षा के शैक्षिक दर्शन की झलक मिलती है। जहां एक ओर 1988 की भाषायी शिक्षा की नीति लगभग एक धरातल पर नजर आती है वहीं 2000 की भाषायी स्थापना में बुनियादी फांक नजर आता है। मसलन 2000 की पाठ्यचर्या स्पष्ट मानती है ‘‘ प्राथमिक स्तर के प्रथम दो वर्षों में बच्चों को सुनना,बोलना,पढ़ना और लिखना और सेचने जैसे मूल कौशलों को विकसित करने में मदद करनी होगी।उच्चारण के निर्धारित मानकों के अनुसार मानकीकरण की प्रकिया पर भी विशेष ध्यान देना होगा।’’ वहीं लेखक 2005 की पाठ्यचर्या के हवाले से कहते हैं  ‘‘ कक्षा 3 के बाद मौखिक और लिखित माध्यमों को उच्च स्तरीय संवाद कौशल और आलोचनात्मक चिंतन के विकास के प्रयास हों।’’ राघवेंद्र प्रपन्न इसी पाठ में अन्य लेखकीय विचारों और भाषायी मान्यताओं को भी संदर्भित करते हैं। जेम्स ब्रिटेन की पंक्तियां उद्धृत करते हुए लिखते हैं-‘‘ आरम्भिक वर्षों में बोलने, प्रतिक्रिया करने,विविध तरीकों से अभिव्यक्त करने के मौके भाषा विकास के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी आधार है न कि मानकीकृत भाषा के अनुसार वर्तनी एवं भाषा सुधार।’’  इस तरह से लेखक विभिन्न भाषासमालोचकों भाषाविद्ों के हवाले से विभिन्न पाठ्यचर्याओं में भाषायी दृष्टि और शिक्षा स्थापनों के अंतरों को रेखांकित करने का प्रयास करता है। विभिन्न हिन्दी के पाठ्यपुस्तकों की शिक्षा शास्त्र एवं हकीकतों की ओर ध्यान दिलाते हुए उदाहरणों सहित इस तथ्य की स्थापना करता है कि भाषायी शिक्षा घंटी बदलू तर्ज पर हो रही हैं।
वहीं ऋतु बाला अपनी सुदीर्घ पाठ ‘‘भारतीय शिक्षा-अधिगम प्रक्रिया में संपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ का महत्व’’ में विस्तार से बच्चों की सीखने की प्रक्रिया की चर्चा करती हैं। इस संदर्भ में भारतीय परिवेश की चर्चा तो करती हैं ही हैं। साथ ही विदेशी िंचंतकों को भी बेहतर तरीके से संदर्भगत कोट करती हैं मसलन वाडगाट्स्की के उपागम को रेखांकित करते हुए लिखती हैं कि ‘‘बच्चा जिन सामाजिक परिस्थितियों में विकसित होता है वह न केवल जटिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं की विषयवस्तु बल्कि उसके तंत्र पर भी अपना चिह्न अनिवार्य रूप से छोड़ता है।’’
अब हम दूसरी किताब शिक्षा के नाम पर नजर डालें तो पाएंगे कि लेखकद्वय ऋतुबाल और राघवेंद्र प्रपन्न ने शिक्षा जगत में घटने वाली घटनाओं को केंद्र में लाते हैं। समय समय पर शिक्षा में कब और किस तरह की करवटें घटी हैं इसकी सुगबुगाहटों को इस किताब में सुना जा सकता है। शिक्षा के नाम पर किताब में तकरीबन चालीस निबंधों को शामिल किया गया है। इन निबंधों को समय समय पर विभिन्न शैक्षिक परिघटनाओं पर सामयिक टिप्पणियों के तौर पर की गई हैं जिसे किताब के रूप में लाने से पहले पुनर्पाठ के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। इन लेखों को विभिन्न अखबारों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए लिखी गई हैं। इसलिए स्थान और समय को ध्यान में रखते हुए कायिकतौर पर छोटे आकार में देखे जा सकते हैं। लेकिन आकार में छोटा होने का अर्थ यह नहीं हैं कि कहीं भी किसी कोण से कमतर हों। हालांकि लेखकद्वय की पहली पुस्तक ज्ञान का शिक्षण शास्त्र ज्ञान निर्माण और शैक्षिक अकादमिक विमर्शों को शामिल करने की वजह से पाठों की लंबाई विस्तार की दृष्टि से पाठकों को ठहर कर पढ़ना होगा। लेकिन शिक्षा के नाम पर किताब में स्वतंत्र रूप से लिखे गए लेखों को अलग अलग कर भी पढ़ सकते हैं। ऋतु बाला अपनं लेख तुम्हारा तो हो जाएगा में लिखती हैं कि किस तरह से समाज में लडकियों उसमें भी अनुसूचित जाति के होने के नाते आरक्षण के व्यंग्यबाण सुनने होते हैं। इसके पीछे की मानसिकता क्ी परतें खोलते हुए लिखती हैं कि शिक्षण संस्थाएं अपने सामाजिक सरोकारों के लिहाज से विकास के हाशिए पर खडे लोगों के लिए न्यूनतम संवेदना विकसित करने में असफल रही हैं। ऋतु बाला पाठ्यपुस्तकों कें अंबेडकर में लिखती हैं कि किस प्रकार हमारे पाठ्यपुस्तकों में अंबेडकर की छवि को उकेरी गई हैं।
वहीं राघवेंद्र प्रपन्न का लेख शिक्षक और छात्र का रिश्ता एक अप्रत्यक्ष शैक्षिक सत्ता की ओर पाठकों का ध्यान खींचते हैं। जब  बच्चा कहता है कि फिर आपको पता ही क्या हैं ? इस पर शिक्षकीय सत्ता बाहर आता है कि तुम मेरा अकादमिक रिकार्ड जानते हो? मैंने कहां कहां से पढ़ाई की? किस तरह से शिक्षक हमेशा अपनी सत्ता बच्चों से अलग रखने का प्रयास करता है और जब कोई छात्र इस सत्ता पर सवाल उठता है तब शिक्षक बौखला उठता हैं।
इस भारतीयता से अनजान पाठ में राघवेंद्र प्रपन्न लिखते हैं कि किस प्रकार हिन्दी के नागार्जुन, त्रिलोचन जैसे लेखक स्कूली शिक्षण से बाहर हैं। शिक्षकों को यदि कोई चिंता होती है तो बस पाठ को पूरा कराना है। नागार्जुन के देहांत पर सुबह की सभा में कैसे सभी मौन हैं और उन कवि से अपरिचित हैं शिक्षक समाज इस ओर ठहर कर लेखक विचार करते हैं। साथ ही किस तरह की भारतीयता का परिचय हमारा पाठ्यपुस्तक करा रहा है। इसकी झलक भी हमें मिलती हैं।
पूर्वग्रहों के पाठ में ऋतु बाला दलितों, वंचितों के समाज को कैसे पाठ्यपुस्तकों से सोची समझी रणनीति के तहत बाहर किया गया है इस तरफ एक समझ का झरोखा खोलती हैं। विभिन्न हिन्दी के पाठ्यपुस्तकों में कितना प्रतिशत स्थान दलितों, वंचितां को मिला हैं इस ओर पाठकों को अध्ययन की प्राप्ति से रू ब रू होने का मौका मिलता हैं।
शिक्षा के नाम पर पुस्तक में हालांकि प्रथम लेखिका ऋतु बाला और दूसरे स्थान पर राघवेंद्र प्रपन्न का नाम है। लेकिन लेखों के अनुपात पर नजर डालें तो एक विषमता यहां भी दिखाई देती है। जहां राघवेंद्र प्रपन्न के लेखो की संख्या 29 के आस पास है वहीं ऋतु बाला जी के लेखों की संख्या बीस से भी कम हैं। क्या ऐसा सोच समझ कर किया गया या फिर अनजाने में ऐसा हुआ लेकिन यह बात अखरती है कि इस किताब की प्रथम लेखिका ऋतुबाला जी के ही लेखों की संख्सा कम हैं। हालांकि संख्या से ज्यादा गुणवत्ता की बात की जाए तो इनके लेख कई दूसरे लेखों पर भारी दिखाई देते हैं।
जहां तक किताब की भाषा और शैली की बात करें तो यथा नाम तथा भाषा कहना उचित लगता हैं। क्योंकि शिक्षा के दार्शनिक और सामाजिक चरित्र की विवेचना काव्य भाषा में नहीं हो सकती। पाठकों को इसके लिए भाषायी तौर पर भी खुद को तैयार करना होगा। इतना ही नहीं बल्कि शिक्षा की गहरी समझ पाने के लिए विभिन्न दस्तावेजों, किताबों, उदाहरणों को समझने के लिए समय भी निकाल कर पढ़ना होगा। भाषा गंभीर और सामान्य से हटकर भी मिलेंगी। खासकर जब ज्ञान का शिक्षणशास्त्र पुस्तक से गुजरेंगे। वहीं शिक्षा के नाम पर किताब की भाषा और वाक्य विन्यास साधारण और अखबारी हैं। वहीं ज्ञान का शिक्षण शास्त्र की भाषा पूरी तरह से अकादमिक हिन्दी मानी जाएगी।
और अंत में शिक्षा के नाम पर और ज्ञान का शिक्षण शास्त्र दोनों ही किताबें अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अलहदा हैं। दोनों के केंटेंट और प्रस्तुति भी भिन्न हैं। लेकिन शिक्षा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह दो किताबें शिक्षा की दुनिया में प्रवेश द्वार के तौर पर काम आ सकने की क्षमता रखती हैं।




शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...