Thursday, May 30, 2019

कागा बोली बोले



कौशलेंद्र प्रपन्न
कौवों को लेकर हमारा पूरा आर्ष ग्रंथ भरा हुआ है। लोकचेतना से लेकर दंतकथाएं तक कौवों की बातें, कौवों की कहानी कहती हैं।
कोई इस निगुर्ण को कैसे भूल सकता है, ‘‘कागा सब तन खाइओ, दो नयना मत खाइओ पीया मिलन की आस’’ आबीदा परवीन हों, कुमार गंधर्व हों या फिर अन्य शास्त्रीय गायक सब ने इसे गया है। जब भी इन्हें सुनते हैं वह कौवा याद आ जाता है।
वैसे तो देखने भालने में कोई सुंदर तो होता नहीं है किन्तु यह हमारे घरों के आस-पास ज़रूर सहज उपलब्ध होता है। गांव देहात में यह कथा भी सुनी जाती थी। कि जब सुबह सुबह आंगन में मुंडेर पर बैठ कोई कौवा बोलता था, तो पूछ बैठते थे ‘‘कौन आ रहा है? किसके आने की ख़बर दे रहे हो।’’ तब यही काला बदसूरत माने जाने वाला कौवा एक ख़बरनवीस की तरह होता था। एक डाकिए की भूमिका निभाता था।
अब न आंगन रहे और न मुंडेर। कहां बैठेंगे ये कौवे? बाजे बाजे तो शहर के कौवे बोलना भी नहीं जानते। चुपचाप बिजली की तार पर बैठ जाते हैं या फिर किसी पेड़ की डाल पर बैठे बैठे ताका करते हैं। इन्हें न पानी मयस्सर होता है और खाना। दर ब दर उड़ते रहते हैं।
रामायण में भी इनका जिक्र आता है शायद कागभुसुड़ी के नाम से। वहीं जब भी किसी श्राद्ध के पीड़ की बात आती है तब कौवों को बुलाया जाता है। कहते हैं। जब ये तृप्त हो जाएंगे तो हमारे पुरखों को भी शांति मिलेगी।
पशु पक्षियों से हमारा वास्ता बहुत पुराना रहा है। बल्कि मानव जाति के विकास इतिहास से जुड़ा है। हमें हमारे परिवेश में ज़िंदा जीव जंतुओं को बचाने की भी जिम्मेदारी है। इन्हें बचाएंगे तो शायद पर्यावरण के संतुलन को बना सकेंगे।

Wednesday, May 29, 2019

मिशन मात्रा जी


कौशलेंद्र प्रपन्न
हम सब शिक्षाकर्मी की एक बड़ी चिंता यह होती है कि हमारे बच्चे पढ़ना नहीं जानते। हमारे बच्चों को हिन्दी में ख़ासकर मात्रा लगाने में कठिनाई आती है। यह एक आम एवं ख़ास चिंता है। इस चिंता के साथ हम क्या करते हैं यह महत्वपूर्ण है। अहम तो यह भी है कि बच्चे यदि मात्रा नहीं लगा पाते या उन्हें मात्राओं की समझ नहीं है तो हमारी रणनीति या प्लानिंग क्या हो ताक उन्हें मात्रा में आने वाली दिक्कतों को दूर कर पाएं। वैसे याद हो कि दिल्ली सरकार ने यही कोई दो साल पहले मिशन बुनियाद की शुरुआत की थी। यह मिशन बुनियाद की कक्षाएं मई माह में लगा करती हैं। यूं तो कुछ शिक्षकों के लिए यह अतिरिक्त कार्यभार ही होता है जिन्हें छुट्टियों में भी कक्षाएं लेनी पड़ती हैं। लेकिन उन्हें इस बात खुशी भी होती हो कि उनके अथक प्रयास और बच्चों की लगन देखते हुए बच्चे जब पढ़ने लगते हैं तब उन्हें उतनी थकन न होती हो।
आप किसी भी ऐसी कक्षा में जाकर देखिए सच मानें बच्चे बहुत खुश और प्रसन्नता के साथ पढ़ रहे होते हैं। ऐसी ही एक कक्षा में जाने का मौका इन दिनों मिला। बच्चे ु  ू ि  ी मात्रा लगा कर पढ़ने और लिखने की कोशिश कर रहे थे। शिक्षिका पूरी तल्लीनता के साथ बच्चों को बोर्ड पर शब्दां को लिख और बच्चों से लिखने का काम दे रही थीं। बच्चे उसी उत्साह से नए नए शब्दों बना रहे थे। वे बच्चे एक वर्ण पर मात्राएं लगा कर उन्हें बोल भी रहे थे।
मैंने उनके कहा ‘‘चिड़िया नदी किनारे एक पेड़ पर बैठी थी। क्या कर रही होगी?’’
बच्चों ने जवाब दिया ‘‘वो अपने बच्चों के लिए घर बना रही होगी।’’
‘‘घर वो किन चीजों से बनाती है?’’ मैंने पूछा ‘‘ क्या वो ईट भट्ठे से ईट लाती होगी? क्या वो लकड़ी लकड़ी टाल जाकर लाती होगी?’’
बच्चों ने मना कर दिया। बच्चों ने कहा ‘‘वो मैदान में या खेत में जाकर बाहर से तिनके, घास, रस्सी लाती है। उससे वो घोसला बनाती है।’’
यह संवाद चल ही रहे थे। बीच में मैंने कहा वो जो चिड़िया है उसे लिखना नहीं आता। क्या कोई उस चिड़िया जी की मदद करेगा कि वो लिख कर अपनी बात आप सभी को समझा पाए।
इस कक्षा में उपस्थित तकरीबन चार पांच बच्चियों सामने आने लगीं। उन्होंने लिखने की कोशिश। कुछ ने बिल्कुल सही सही लिखा। हां दो बच्चियां ऐसी थीं जिन्होंने सच्ची को सची लिखा। चोच में चौच लिखा लेकिन जैसे ही इन दोनों से लिखा वैसे ही बाकी कक्षा की बच्चियों ने उसे सुधारने के लिए कहा। और बच्ची बोर्ड के सामने आकर उसे ठीक कर लिख गई। लिखने में प्रति बच्चों में काफी उत्साह देखने को मिला। बल्कि न केवल लिखने के प्रति बल्कि लिखे हुए शब्द को पढ़ने में भी उन्हें आनंद आ रहा था।
लिखते रहे और कहानियां बनाते रहे। इसमें बच्चों की सहभागिता ख़ासा अहम रही। हमने एक शब्द चुना कि आप सभी किस नदी के किनारे रहते हैं। दिल्ली किस नदी के किनारे है। बच्चों ने पहले जमुना कहा फिर सुधार कर यमुना जवाब दिया। फिर हमने इसे कहा ‘‘ चिड़िया को बोलना नहीं आता। कैसे बोले वो यमुना बोले कि जमुना बोले? इस पर बच्चों ने ही जवाब दिया यमुना ठीक रहेगा। तो कहानी आगे बढ़ी ‘‘एक चिड़िया यमुना किनारे के एक पेड़ पर बैठी थी। उस पेड़ पर उसने घोसला बनाना चाहा। इसके लिए उसे कुछ सामान की ज़रूरत थी। वो उड़कर पास के खेत और मैदान में गई वहां से तिनके, घास, पेड़ की टहनी आदि लेकर आई। और उसने अपने छोटे छोटे बच्चों के लिए एक घोसला बनाया।’’
बच्चे इस कहानी को बुनने में अपनी पूरी कल्पना शक्ति का प्रयोग कर रहे थे। बीच बीच में मैं उन्हें सिर्फ सोचने में मदद कर रहा था। बाकी पूरी कहानी उन्हीं की थी। मेरी एक और कोशिश यह थी कि बच्चे जो बोल रहे हैं उसे लिखने और पढ़ने की भी कोशिश करें। इस कहानी में आए नदी, पेड़, तिनाक, घर आदि शब्दों में कहां कहां छोटी और बड़ी मात्राएं लगी हैं उन्हें कैसे बोलेंगे और उन्हें कैसे लिखेंगे इसका अभ्यास भी कराता जा रहा था। बच्चों ज़रा भी यह एहसास नहीं हुआ कि कोई उनके बीच आया और मात्राएं सीखा गया। बच्चों मुंह की आकृति बनाने बिगाड़ने में खूब आनंद उठा रहे थे। कैसे छोटी मात्रा लगाने पर मुंह थोड़ खुलेगा और कम समय लगेगा और बड़ी मात्रा में मुंह ज्यादा खुलेगा और समय भी अधिक लगेगा इस प्रक्रिया के दौरान बच्चों को ख़ासा मजा आया।
शायद इसे ही बड़े बड़े शिक्षाविदों ने खेल खेल में शिक्षा का नाम दिया होगा। इस भाषायी शिक्षण में पता ही नहीं चला कि कब आधा घंटा गुज़र गया और बच्चों को छह मात्राएं यूं ही कहानी के ज़रिए सीखाने का प्रयास किया। लेकिन बच्चे तो बच्चे होते हैं उन्हें एक जुड़ाव सा हो गया। उन्होंने आग्रह किया बल्कि दुबारा आने के लिए जोर दिया कि कल भी आईए। यह तो मालूम नहीं कि कल जा सकूंगा कि नहीं किन्तु आज को जीया और जीने का भरपूर आनंद बच्चों को दिया। एक पारंपरिक कक्षा में भाषा शिक्षण से हट कर उन्हें भी मजा आया और जिन मात्राओं ने उन्हें परेशान कर रखा था वो भी दूर हो गया।
जब भी कोई बच्ची या बच्चा बहुत तेज बोलता या मैं मैं बोलूंगी की आवाज़ बहुत तेज रखता तो मेरा बस इतना कहना था ‘‘ मात्रा रूठ जाएगी’’ मात्रा को तेज आवाज और बहुत सी आवाज पसंद नहीं है। यदि आपको कुछ कहना है तो मात्रा बहन को धीरे से कहो। प्यार से कहो। जब मैंने कहा मात्रा जी या मात्रा बहन जी तो बच्चों की आंखें चमक उठीं। उन्होंने कहा मात्रा जीम ात्रा बहन जी!!! ये क्या? तब मैंने कहा हर मात्रा और हर आवाज़। बल्कि हर शब्द और हर व्यक्ति अपने लिए सम्मान चाहता है इसलिए मात्रा को भी जी लगा कर बोलोगे तो उसे अच्छा लगेगा। जैसे आपलोग मैडम जी बोलते हैं। तब उनकी भी इस बात में सहमति बन गई।

Tuesday, May 28, 2019

बच्चों के सवालः बड़े बेहाल


कौशलेंद्र प्रपन्न
पांच या छह वर्षीय बच्चे सवाल नहीं बल्कि अपने मन की बात किया करते हैं। उनके मन में जो उलझनें हैं उसका समाधान हम वयस्कों की दुनिया से मांगते हैं। हम उनके सवालों के साथ कैसा बरताव करते हैं यह हम पर निर्भर करता है कि हम उन्हें उनके सवालों के साथ एक गुत्थी के साथ छोड़ देते हैं या फिर समाधान की ओर ले जाते हैं। छोटे से छोटा बच्चा भी अपने परिवेश से प्रभावित होता है। इस परिवेश में वे वयस्क भी हैं जो भेदभाव, पूर्वग्रह, जाति-धर्म आदि जैसे वयस्कों की राजनीति भी शामिल है। इन राजनीति से बच्चे कैसे अलग रह सकते हैं। क्योंकि बच्चे किसी आकाश में पल-बढ़ नहीं रहे होते हैं। बल्कि इस क्रूर और कठोर समाज में जीया करते हैं। वह चाहे स्कूल जाते वक़्त बच्चों का समाज हो या फिर पार्क में खेलते हुए अंकल से मिला करता है। हमारा बच्चा समाज में जिन जिन से मिलता है, बातें करता है, वे तमाम लोग हमारे बच्चे की वैचारिक, भौगालिक, सांस्कृतिक समझ को कहीं न कहीं गढ़ने का काम करते हैं। यह सवाल ही लीजिए पुलवामा घटना के बाद मेरे के मित्र के छह वर्षीय बच्चे से बच्चों ने पूछा ‘‘तू मुसलमान है?’’ ’’तूझे तो पाकिस्तान चले जाना चाहिए।’’ वह बच्चा न तो ऐसे सवालों से कभी पूर्व में रू ब रू हो चुका है और न ही ऐसे सवालों के क्या जवाब देने हैं इसके लिए तैयार होता है। जब हम बड़े ऐसे सवालों के लिए तैयार नहीं होते तो वे तो आख़िर बच्चे हैं। लेकिन जो बड़ां की दुनिया में घट रही होती हैं उसकी छोटी ही सही किन्तु एक छटा व छाया बच्चों की दुनिया पर भी पड़ती है। इससे हमें बड़ी सावधानी से निपटना होता है। उस बच्चे के पिता के लिए यह सवाल से ज्यादा अपने और अपनी कौम के अस्तित्व पर सवाल था। जिसने पूरी जिं़दगी, पूरी पीढ़ी इसी जमीन पर गुजारी। पूरी शिद्दत से जिनकी पीढ़ियों ने लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभाई। अचानक उनसे या उनके बच्चों को कोई कहें कि तू पाकिस्तान क्यों नहीं चला जाता तो उस बच्चे या वयस्क के लिए कितनी पीड़ादायक होती होगी इसका महज अनुमान भर लगाया जा सकता है।
पुलवामा की घटना हो या फिर बाबरी मस्जिद की घटना, या फिर जब भी दो देशों के बीच तनाव के माहौल पैदा हुए हैं तब तब ऐसे सवालों बार बार विभिन्न कोनों से उठने लगते हैं। यह सवाल नहीं बल्कि हमारी मनोजगत् और हमारी समाजो-मनोविज्ञान के भूगोल का परिचय देता है। साथ ही हमारी स्कूलिंग और सोशलाइजेशन कहां और किस स्कूल में हुआ है उसका सवाल खड़े करते हैं। हमारी स्वयं की प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलिंग कहां और किस प्रकार हुए हैं यह ख़ासा अहम हैं। यह जीवन भी हमारे विचारों को आकार दिया करते हैं। वापस उस बच्चे के सवाल पर लौटते हैं। पापा हम क्या मुसलमान हैं? हमें पाकिस्तान क्यों जाना चाहिए। हमारी तो दादी, नानी सब यहीं हैं। बच्चे ऐसा क्यों बोलते हैं? आदि आदि। ये कौन लोग हैं या कौन सी विचारधारा है जो कोमल मनों में इस प्रकार की फांक पैदा करन पर आमादा हैं। हमें अपने बच्चों के इन सवालों से काफी संभल कर जवाब देने होंगे। बल्कि यही बच्चे जब बड़े होंगे तो संभव है इस किस्म के सवालों की कड़ी तब भी अटूट इन तक आ जाए। फिर वे अपने बच्चों के सवालों के साथ कैसे न्याय कर पाएं।
ऐसा क्या है इन सवालों में? वो क्या चीज है जो बार बार कुछ अंतराल के बाद अपना सिर उठाया करते हैं? हमें इन सवालों के मनोविज्ञान और समाज विज्ञान को समझना होगा। इन सवालों के पीछे हमारा खु़द का डर झलकता है। हम इन सवालों के ज़रिए कहीं न कहीं अपने मन में गहरे पैठे भय को ही निकाला करते हैं। साथ इस भय के मनोविज्ञान को समझकर दूर करने की बजाए उसे पालने में विश्वास करते हैं। दूसरी बात यह भी सच है कि हम यदि विवेकवान होते तो ऐसे सवालों की प्रकृति को समझते हुए अपने स्तर पर ही इनके समाधान तलाश कर खत्म कर चुके होते। किन्तु होता इससे उलट है। हम अपना विवेक नहीं लगाते बल्कि लगाना नहीं चाहते या फिर जो मंज़र दिखाए गए उसे ही सच मान कर एक पूर्वग्रह बना लेते हैं। बिना इतिहास, मनोविज्ञान का इस्तमाल किए जो भी छवि दिखाई या पेश की गई उसे ही अंतिम सच के तौर पर स्वीकार कर लेते हैं। बल्कि इससे एक कदम आगे बढ़कर अपनी ही पूर्वग्रहों को आगे सरका दिया करते हैं। और इस तरह से कड़ी टूटने की बजाए और मजबूत होती जाती है। इतिहास तो प्रत्यक्ष है ही कि हमने एक ख़ास कौ़म को आज़ाद के वक़्त जिम्मेदार ठहराया। जो सच्चाई एक दल या पार्टी ने हमारे सामने पेश किया उसे मान कर दूसरे पहलू को देखने और समझने की भी कोशिश नहीं की। जबकि विश्व का मानव विकास इतिहास हमारे सामने है कि कोई भी राष्ट्र किसी ख़ास कौ़म या जाति को किसी भी एक घटना का पूरा दारोमदार नहीं मान सकता।
हमने शुरू की थी उस बच्चे के सवाल से जिसने अपने पापा से पूछा था ‘‘क्या हम मुसलमान हैं? ये मुसलमान क्या होता है?’’
उसके पिता ने बताया कि इस बच्चे का बचपन लुधियाना में बीता जहां यह स्कूल जाया करता था वहां वह अरदास में भी शामिल होता था। स्वर्ण मंदिर में भी मत्था टेका। जहां अब रहा करता है दूसरे माले पर गणेश पूजा में शामिल हेता है। वहीं जब पास में जागरण होता है तो पूरी शिद्दत से पूरी रात जगा रहता है। कभी इसे इसका इल्म तक नहीं हुआ कि हम मुसलमान हैं। मुसलमान कोई अनोखी या अगल कौ़म होती है इसकी जानकारी तक नहीं है। इसे क्या बताएं कि मुसलमान क्या है और कौन होते हैं? कितना कठिन दौर जब तीन चार और इससे भी ज्यादा पीढ़ियां जहां रही हों अचानक रातों रात पाकिस्तान भेजने की ज़िद्द के आगे स्वयं शर्मिदा हो रहे हों। आख़िर क्यों जाएं पाकिस्तान या अपने मुसलमान होने पर उन्हें क्योंकर अफ्सोस या छुपाने की नौबत आए। सोचना तो उन्हें चाहिए जो इस प्रकार के सवालों को पैदा किया करते हैं।

Monday, May 27, 2019

पढ़ने का धैर्य




कौशलेंद्र प्रपन्न
शायद दुनिया में यदि कोई कठिन और श्रमसाध्य कार्य है तो वह पढ़ना ही है। कोई भी पढ़ना नहीं चाहता। हर कोई पढ़ाना चाहता है। हर कोई लिखना चाहता है। और हर कोई कहना भरपूर चाहता है लेकिन पढ़ना नहीं चाहता। वह चाहे किसी भी पेशे में क्यों न हो। उस पर यदि कोई शिक्षण पेशे से आता है तो उसे भी इस बात की ज्यादा होती है कि वह बच्चों को पढ़ाना सीखा दे। बच्चे लिखना शुरू करें। शिक्षकों की बड़ी गंभीर चिंता यह होती है कि उसके बच्चे लिखना और पढ़ना नहीं जानते और न ही चाहते हैं। कभी इन सवालों का चेहरा शिक्षकों की ओर मोड़ दें। क्या देखेंगेघ् देखेंगे कि शिक्षक स्वयं पढ़ने की प्रक्रिया से दूर रहना चाहता है। वह स्वयं पढ़ात हुआ कम ही दिखाई देता है। बच्चे अपने समाज में किसे पढ़ते हुए देखते हैं। हमारे बच्चे अपने दादा जीए कभी कभार पापा या मम्मी को किताबें उलटते पलटते देख पाते हैं। वो भी तब जब उनके घर में मम्मी पापा पढ़ने.पढ़ाने से जुड़े हों। वरना घर में हर आधुनिक सामान होता हैं यदि नहीं होतीं तो किताबें ही हमारे घरां में नहीं होतीं। ऐसे में हमारे बच्चे तो बच्चे बड़ों में भी पढ़ने का धैर्य कम होता है।
किसी से भी यह सवाल पूछ लीजिए क्या आप पढ़ते हैंघ् पढ़ते हैं तो क्या पढ़ते हैंघ् जैसे जैसे इस सवाल की गहराई में उतरेंगे वैसे वैसे ऐसे ऐसे उत्तर मिलेंगे जिसे सुनकर ताज्जुब होना लाजमी है कि हम पढ़ते ही नहीं हैं। अपने पास के स्मार्ट फोन पर सिर्फ सूचनाओं और ख़बरों को सरका कर देख लिया करते हैं। कई बार देखकर आगे खिसका देते हैं। कुछ लोग इसे ही पढ़ना मान लेते हैं। कुछ यह भी कहते हुए मिलेंगे कि मैं तो अपने फोन पर ही पूरा की पूरी किताबए ख़बरेंए डॉक्यूमेंट पढ़ता हूं। हालांकि यह भी पढ़ना ही है। इससे इंकार नहीं कर सकते। क्योंकि जैसे जैसे पेपर लेस सोसायटी की बुनियाद रखी है वैसे वैसे किताबें छप तो रही हैं साथ ही उनका डिजिटल रूप भी वेबकास्ट किया जाता है। यानी जो किताबें कागजों पर छपी हैं वैसे ही उस किताब को सॉफ्ट वेयर के ज़रिए डिजिटल फॉम में छापते हैं। यही कारण है कि आज देश भर में ऐसे पाठकों की संख्या लाखों में है जो डिजिटल कंटेंट यानी अख़बारए पत्रिकाएंए किताबें एवं रिपोर्ट आदि पढ़ते हैं। डिजिटल फॉम में छपने वेबकास्ट होनी वाली किताबें मुद्रित किताबों के लिए चुनौतियां पैदा करती हैं। लेकिन फिर भी डिजिटल फॉम के बरक्स मुद्रित किताबें भी खूब पढ़ी और लिखी जा रही हैं। लिखने के पेशे में आने वाले युवा लेखक दरअसल प्राचीन लेखकीय स्कूलों के एक कदम आगे से सीख कर आ रहे हैं। युवा लेखक कागजों पर नोट्स बनाने की बजाए सीधे सीधे लॉपटॉप पर काम किया करते हैं। अपने लैपटॉप पर ही पूरी किताब लिख दिया करते हैं। वही कॉपी व फाइल जितनी बार एडिट करना चाहे कर सकते हैं। फाइनल कॉपी किसी दूसरे व्यक्ति को समीक्षा के लिए भेज देते हैं। रीव्यू करने वाले के कमेंट को देख कर अपनी फाइल को दुरुस्त कर देते हैं। किताब लिखनेए अख़बार छापने के काम को इस डिजिटल तकनीक ने आसान कर दिया। हालांकि एक सवाल यहां यह उठा सकते हैं कि क्या डिजिटल किताबों ने पढ़ने की संख्या को भी क्या आसान किया। संभव है कि जिस रफ्तार से लिखी जा रही हैं उस रफ्तार से पढ़ने वालों की दिलचस्पी नहीं बढ़ी।
पढ़ने की तालीम हमारी मुख्य शिक्षा से हाशिए पर जा चुकी हैं। यही वज़ह है कि तकरीबन तिरपन फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ को पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। यह आंकड़े मानव संसाधन विकास मंत्रालय के हालिया रिपोर्ट में दर्ज़ की गई हैं। इस रिपोर्ट के एत्तर भी अन्य अध्ययन की रिपोर्ट भी हमें बताती हैं कि हमारे बच्चे कक्षा पांचवीं या छह में पढ़ने वाले भी अपनी कक्षानुसार हिन्दी नहीं पढ़ पाते। क्यों नहीं पढ़ पाते यह सवाल हमें नहीं कोचते। इसलिए यह स्थिति बनी हुई है। हमारी शिक्षा और सीखने.सिखाने की प्रक्रिया में पढ़ने पर ज्यादा जोर नहीं देते बल्कि बच्चों को लिखना आ जाए यह अपेक्षा ज्यादा मजबूत होती है। बच्चे पढ़ें कैसेघ् क्या पढ़ें और क्यां पढ़ें इन सवालों को चिंता की परिधि में लाना होगा। पढ़ना एक कला है तो इसे सीख और सिखा भी सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे शिक्षक भी पढ़ने की बारीकि से वाकिफ नहीं हैंं। पढ़ा कैसे जाए और पढ़ने के विभिन्न चरण क्या हों आदि। बच्चे क्या और कैसे पढ़ते हैं इस पैटर्न को भी समझना होगा। यदि आयु और कक्षा स्तरानुसार कंटेंट मुहैया नहीं कराएंगे तो शायद बच्चा पढ़ने से दूर जाने लगे। यदि बच्चे को वर्णए शब्द आदि की पहचान है यदि वह वाक्य तक की यात्रा का आनंद ले सकता है तो वह किसी भी किस्म के टेक्स्ट पढ़ सकता है। यहां तक कि बच्चा अपने पाठ्यपुस्तक के अलावा भी मांग और तलाश कर पढ़ने लगता है। यदि अपना बचपन याद करें तो हम आसानी से पढ़ने के धैर्य और उतावलेपन को समझ और महसूस कर सकते हैं। गर्मी की छृट्टियों में चाचा चौधरीए शॉबूए डॉयमंड कॉमिक्स बुक्स आदि छीन झपट कर एक दिन में दो तीन किताबें पढ़ जाया करते थे। शायद यहां पढ़ने पर पाबंदी नहीं थी। बल्कि कई बार घरों में बड़ों से प्रोत्साहन भी मिला करता था कि जो जितनी ज्यादा किताबें पढ़ेगा उसे उतनी चवन्नी मिलेगी। और हम चवन्नियों की लालच में भर भर गरमी पत्रिकाएं पढ़ जाते थे। मुख्य बात यही है कि यदि हम अपने बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक और उत्साह पैदा कर सके तो पढ़ने का धैर्य भी समय के साथ पैदा हो जाएगा।
न शिक्षा में और न पढ़ने में धैर्य जैसी बात रह गई है। हम हमेशा रफ्तार में होते हैं। हमें बहुत जल्द परिणाम चाहिए होता है जिसे लर्निंग आउट कम के नाम से जानते हैं। लर्निंग आउटकम के अनुसार स्तरानुसार बच्चों में भाषाए गणितए विज्ञान आदि विषयों में बच्चे किस कक्षा में किस स्तर की भाषा कौशल सीख ले इसकी मैपिंग और इंडिकेटर एनसीईआरटी की ओर बनाई जा चुकी है। इसके किस चरण में हमारा बच्चा कहां है यह तय करता है कि हमारे बच्चे भाषा के किस कौशल में कहां ठहरते हैं। हम सभी को इस प्रकार के इंडिकेटर हमें ताकीद करती हैं कि हम भाषा के किस कौशल पर और कितना धैर्यपूर्वक काम करने की आवश्यकता है।
पढ़ने की धारणा पर जब गंभीरता से मंथन करते हैं तो पाते हैं कि हम देखने को भी पढ़ना मान बैठते हैं। मसलन देखा नहीं। यहां यह स्पष्ट है कि वो कहना चाह रहे हैं कि जो भी आपने भेजा व किताब थी उसे उन्होंने अभी पढ़ा नहीं है। बल्कि महज देखा भर है। ठीक उसी प्रकार पढ़ना और अध्ययन में भी बुनियादी अंतर है। इस अंतर को समझना होगा। जब हम पढ़ना कहते हैं तो संभव है उसमें अध्ययन की ख़ासियत कम हो। सिर्फ हम लिखने हुए शब्दों, वाक्यों भर का पढ़कर समझने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जब हम कहते हैं अध्ययन कर रहा हूं तब उसमें सिर्फ पढ़ना भर ही शामिल नहीं होता बल्कि पढ़ने से एक कदम आगे बढ़कर चिंतन-मनन और बहुआयामी अर्थों का गहन िंचत शामिल होता है। आज की तारीख में पढ़ने की कला शायद उन तमाम लोगों के पास हैं जिन्होंने दसवीं बारहवीं की है। किन्त यह कहना सरलीकरण होगा कि उन्हें अध्ययन भी करना आता है। सामान्य बोलचाल में भी हम कह देते हैं मैं इनदिनों फलां पुस्तक का अध्ययन कर रहा हूं। यानी वो सामान्य पढ़ भर नहीं रहे हैं।
पढ़ना और अध्ययन दोनों ही क्रियाएं गंभीरता और धैर्य की मांग की करती हैं। अफ्सोस कि आज हमारे पास धैर्य की कमी है। न हम पढ़ना चाहते हैं और न अध्ययन। यही दो क्रियाएं शिक्षा में इन दिनों कम होती जा रही हैं। पढ़ने और अध्ययन करने वाले कम होते जा रहे हैं। यदि हमारा शिक्षक स्वयं पढ़ता हुआ या अध्ययन से जुड़ा नहीं है तो वह शिक्षा जगत में होने वाले नावचारों और अध्ययनों से परिचित नहीं हो पाएगा। एक बार जब वह अध्ययन से दूर चला जाता है तब वह अपनी पूर्व की पठित सामग्रियों के आधार पर ही शिक्षण करता है। पढ़ाने के लिए पढ़ना भी उतना ही ज़रूरी है जितना खाना पकाने से पूर्व की तैयारी।

Tuesday, May 14, 2019

शिक्षा को गढ़ती राजनीति


कौशलेंद्र प्रपन्न

राजनीति आकाश में न तो निर्मित होती है और न ही समाजेत्तर इसका अनुकरण होता है। राजनीति दरअसल समाज और राष्ट्र का नई दिशा प्रदान करने की ताकत से लबरेज़ होती है। मानव विकास के इतिहास और भूगोल को देखें या फिर अर्थशास्त्र या फिर समाज-संस्कृति को उक्त महत्वपूर्ण आयामों को आकार देने में राजनीति की भूमिका निर्विवादतौर पर अहम रही है। राजनीति ने ही समाज के विकास और विस्थापन की स्थितियां भी पैदा की हैं। क्या इस तथ्य से मुंह मोड़ सकते हैं कि राजनीति ही थी जिसने 1947 के विश्व के इतिहास में दर्ज़ सबसे बड़ी तकसीम का अंजाम दिया। कई बार लगता है राजनीति ने शिक्षा को भी कहीं न कहीं प्रभावित करती रही है। आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद की शिक्षा नीतियों और राजनीति ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति और दिशा को तय करने में ख़ासा अहम भूमिका अदा की हैं। वह चाहे माध्यमिक शिक्षा समिति हो, कोठारी कमिशन हो, राष्ट्रीय शिक्षा नीति हो, या फिर 1977, 1985,1988, 2000 या फिर 2005 की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा ही क्यों न हो इन तमाम समितियों, नीतियों के निर्धारण में राजनीति ने अपने छाप छोड़े हैं। दूसरे शब्दां कहें तो शिक्षा में राजनीतिक हस्तक्षेप को नजरअंदाज नहीं कर सकते। प्रकारांतर से राजनीति की दिशा तय करने में व्यक्ति की प्रमुखता भी रेखांकित की जाती रही है। जो भी व्यक्ति सत्ता में आया वह अपने राजनीतिक स्थापनाओं, मान्याओं को शिक्षा की काया में समाहित करने की पुरजोर कोशिश है। इसी का परिणाम है कि शिक्षा में जाने अनजाने वैसे कंटेंट भी शामिल किए गए जो अपने आप में विवादां को जन्म देने वाले थे। किन्तु क्योंकि सत्ता चाहती थी इसलिए उन्हें पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनाया गया। मिसाल के तौर पर शंगूर आंदोलन को वर्तमान सरकार पाठ्यपुस्तकों में शामिल कर चुकी है। वहीं दूसरी राजनेता ने अपनी आत्मकथा बच्चों के बस्ते में ठूंस दिया। वह दीगर बात है कि वह आत्मकथा क्या कंटेंट के लिहाज से समीक्षित की गई। किस विद्वत् मंडल ने समीक्षा कर अपनी रिपोर्ट सौंपी की यह आत्मकथा पढ़ने-पढ़ाने योग्य है आदि। इस प्रकार राजनीति व्यक्तियों की आत्मकथाएं पाठ्यपुस्तकों में पहले भी शामिल की जाती रही हैं किन्तु उसका अपना ऐतिहासिक और राजनैतिक विकास यात्रा को समझने के औजार के तौर पर जांचा परखा गया और तब शामिल किया गया। यदि पत्रों की बात बात करें तो नेहरू के ख़तों को बतौर पाठ्य सामग्री में शामिल किया गया है इसे पढ़ते-पढ़ाते हुए कई पीढ़ी बड़ी हुई है। राजनैतिक व्यक्तियों की जीवनियां भी शामिल की गईं जिनमें राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, गांधीजी, नेहरू, अब्दुल कलाम आदि। इनकी जीवनियों, संघर्षां से गुजरते हुए कहीं न कहीं हमारे बच्चों को जीवन-संघर्षों की एक झांकी तो मिलती ही है साथ ही भविष्य की रणनीति बनाने में भी मदद मिलती है।
शिक्षा न केवल समाज, बल्कि समाज से जुड़ी हर चीज को आकार दिया करती है। इसे स्वीकारने में ज़़रा भी गुरेज़ नहीं होनी चाहिए कि इस शिक्षा को गढ़ने, आकार देने में राजनीतिक इच्छा शक्ति और पार्टी की बड़ी भूमिका होती है। बल्कि राजनीति शिक्षा की पूरी कुंडली लिखती है। जब जब जो भी सत्ता में आया उसने अपने तई शिक्षा के वर्तमान और भविष्य की रूपरेखा लिखने में पीछे नहीं रहा। एक लंबा इतिहास है जब राजनीति ने शिक्षा की दिशा और दशा को ही मोड़ दिया। ज़्यादा पीछे इतिहास में न भी जाएं तो एक बड़ी राजनीतिक इच्छा शक्ति और राजनीतिक हस्तक्षेप को यहां उदाहरण के तौर पर पेश कर सकते हैं। सन् 2014 में सत्ता में आते ही वर्तमान केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि आगामी एक या दो साल भी अंदर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाएगी। हालांकि यह भी राजनैतिक सच है कि हम हर पांच साल बाद लोकसभा चुनाव में व्यस्त होते हैं। इस व्यस्तता में हम भूल जाते हैं कि हमने पिछली बार क्या क्या घोषणाएं की थीं। उन घोषणाओं के साथ क्या किया यह किसी से भी छूपी नहीं है। सरकार आई और अब नई सरकार गठन का वक़्त भी सिर पर है, लेकिन शिक्षा नीति मालूम नहीं कहां है। जो भी नई सरकार आएगी वह फिर शुरू से इस नीति पर काम करेगी। इस पांच वर्ष में जितने लाभ हासिल करने वाले बच्चे थे वे पांचवीं पास कर छठी कक्षा में और बारहवीं पास कर कॉलेज में चले जाएंगे। कॉलेज से निकल कर जॉब की तलाश में जुट जाएंगे। सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ा कि जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति आनी थी उसके न आने से किन किन को किस प्रकार की क्षति हुई होगी। यह तो एक ताजा तरीन राजनीतिक घटना है। इसके अलावा समय समय पर इससे भी बड़ी घटनाएं शिक्षा जगत में घटती रहती हैं। इस ओर न तो सरकार, न राजनीतिक दलों और न नागर समाज के पेशानी पर बल पड़ता है। अपने अपने कार्यकाल संपन्न कर वे तो चले जाते हैं किन्तु पीछे एक बड़ा सवाल ज़रूर छोड़ जाते हैं कि शिक्षा की दशा और दिशा तय करने वाले किस कदर अगंभीर हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति निर्माण का मसला हो या फिर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या निर्माण, पाठ्यपुस्तक निर्माण आदि के साथ भी जिस प्रकार की गंभीरता की मांग होती है उसके साथ राजनीतिक शक्तियां अपना दल बल इस्तमाल किया करतीं हैं। वह चाहे 2000 से पूर्व की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा हो या फिर उसके बाद की इस दस्तावेजों में भी सत्तारूढ़ पार्टियों ने अपनी दूरगामी वैचारिक पूर्वग्रहों को पीरोने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। यही हालत पाठ्यपुस्तक निर्माण में भी देख सकते हैं। समय समय पर वर्तमान राजनीतिक व्यक्ति को पाठ्यपुस्तकों को शामिल करना, पूर्व के पाठों को हटाने का खेल भी खूब खेला गया है। गौरतलब है कि 2000-2002 में  फलां पृष्ठ को हटाया गया ढिमका पृष्ठ को न पढ़ाने के फरमान जारी किए गए। इन विवादों में कई बार उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने पड़े यह दौर है 2002 का। वर्तमान सरकारें चाहे वो केंद्र की हो या फिर राज्य की अपनी अपनी राजनीति उपलब्धि को बच्चों की पाठ्यपुस्तकों ठूंस दिया गया। इसमें बंगाल, राजस्थान, बिहार आदि राज्य सरकारें शामिल हैं। सरकारें कैसे भूल जाती हैं कि सरकारें आती जाती हैं किन्तु पाठ्यपुस्तकें कम से कम पांच दस और पंद्रह साल तक चला करती हैं। इन्हें पढ़कर लाखों बच्चे युवा और प्रौढ़ बन कर समाज में विभिन्न सेवाओं में आते हैं। वे उन्हीं वैचारिक पूर्वग्रहों को अग्रसारित करने में जुट जाते हैं। जबकि शिक्षा वैज्ञानिक सोच और विवेक निर्माण की वकालत करती है। बच्चों में वैचारिक और बौद्धिक विकास में शिक्षा की अहम भूमिका को कदापि नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
आज़ादी पूर्व के इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि शिक्षा और शिक्षकों की भूमिका और ताकत को हमेशा ही राजनीतिक धड़ों ने अपने हाथों में रखा और उसे अपने स्वार्थ साधक के तौर पर इस्तमाल किया। शिक्षकों की अस्मिता को कमतर करने में भी तत्कालीन सत्ताधारियों ने कोई उठा नहीं रखी। शिक्षकों को नौकरी और वेतनभोगी बनाने के लेकर उन्हें समाज के उस वर्ग में शामिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जहां शिक्षक वेतनभोगी होते ही समाज के अन्य वर्गां के विश्वास खोता रहा। विभिन्न शैक्षणिक समितियों ने शिक्षा की दिशा तय की हो या न की हो लेकिन यदि उनकी सिफारिशों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि नीति, मूल्य, आदर्श की जमीन पर बहुत पुख्ता थीं। यह दीगर बात है कि उन्हें कभी भी अमल में नहीं लाया गया। कोठारी कमिटी की सिफारिशों को ही ले लें। हम आज भी कोठारी आयोग की सिफारिशों की दुहाई दिया करते हैं। वह चाहे बजट को लेकर हो, निकट स्कूल व्यवस्था की हो या फिर शिक्षकःबच्चे अनुपात से संबंधित। हमारी सरकारें सिर्फ इन सिफारिशों के साथ मजाक ही करती रहीं। वहीं 1985-88 पुनरीक्षित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा बड़ी ही शिद्दत से पूर्व प्राथमिक से लेकर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक, माध्यमिक आदि शिक्षा में कला शिक्षा को शामिल करती है। यह दस्तावेज़ मानती है और सिफारिश करती है कि कला की शिक्षा के द्वारा अन्य विषयों को पढ़ाया जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो कला की शिक्षा को अन्य विषयों में पीरोया जाए ताकि कला अलग से पढ़ाने की आवश्यकता ही न पड़े। किन्तु हमने इसे कभी तवज्जो ही नहीं दिया। इसके पीछे के कारणों की परतें खोलें तो पाएंगे कि वह कहीं न कहीं राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी रही है।
तब की वर्तमान सरकार ही हैं जिसने वैश्विक उदारीकरण और वैश्विक बाजार के लिए शिक्षा के दरवाजे खोले गए थे। तब के शिक्षाविदों, शिक्षाकर्मियों ने कोई ख़ास और सशक्त विरोध नहीं किए। पूरा का पूरा विश्वविद्यालय, शिक्षायी नागर समाज मौन था। यही वो प्रस्थान बिंदु हैं जहां से 1986-88 के आस-पास भारतीय शिक्षा में बाजार और वैश्विक बैंकों के लिए ख़ासकर शिक्षा की दहलीज़ सौंपी गई थी। इस ऐतिहासिक घटना पर तत्कालीन अकादमिक महकमा, कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि मौन साधे बैठे थे। तब क्या अनुमान लगा सकते थे कि हमारी सरकारी शिक्षा के समक्ष एक समानांतर शिक्षा संस्थानों की दुकानें खुल जाएंगी जहां आम परिवार का बच्चा प्रवेश करने की सोच भी नहीं सकता। जहां एक ओर बी एड सरकारी संस्थानों में बामुश्किलन 5 से दस हजार में हो किए जा सकते हैं वहीं निजी संस्थानों में छात्रों को अस्सी से नब्बे हजार खर्च करने पड़ते हैं। यह तो एक कोर्स का उदाहरण है पूरे भारतवर्ष के विभिन्न शैक्षणिक कोर्स की फीस पर नजर डालें तो स्थितियां एक के बाद बदत्तर ही मिलेंगी। जहां सामान्य बीए करने के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हजारों में फीस है वहीं निजी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में लाख के पार फीस चली जाती है। ऐसे में जो समर्थ अभिभावक हैं वो तो अपने बच्चों को तथाकथित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर पाते हैं बाकी सब इत्यादि में शामिल हो जाते हैं।
नब्बे के आस- पास ही तदर्थ और अतिथि शिक्षकों के द्वारा प्राथमिक उच्च प्राथमिक आदि स्कूलों में सेवाएं लेने की शुरुआत हुई। यह एक तय समय सीम के लिए विकल्प सुझाए गए थे। लेकिन हमने तो विकल्प को ही प्रमुख मान लिया। आज की तारीख में कोई राज्य छूटा नहीं है जहां तदर्थ और अतिथि शिक्षक नहीं हैं। इन अतिथियों शिक्षकों को हर साल नौ या दस माह के लिए अनुबंध में रखा जाता है और अगले साल इनकी सेवाएं जारी रहेंगी या नहीं इसके प्रति कोई तय नियम या आश्वासन नहीं होता। इस प्रकार अतिथि एवं तदर्थ शिक्षक सालों साल यानी दस पंद्रह साल तक खट रहे हैं। वह प्राथमिक स्कूलों से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय आदि सब जगह हैं। अकेले दिल्ली में तकरीबन 22,000 अतिथि शिक्षक हैं। इन अतिथि और तदर्थ शिक्षकों की दशा और दिशा सुधारने के प्रति कोई गंभीर और सार्थक कदम उठाने से बचती रही है। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि चुनावी माहौल में इन्हें वोट बैंक ज़रूर दिखाई देते हैं इसलिए इन्हें स्थाई करने का चबेना ज़रूर बांटे जाते हैं।
न केवल एक राज्य में बल्कि हर राज्य से सूचनाएं आ रही हैं कि कितने सरकारी स्कूल या तो बंद कर दिए गए या फिर वर्तमान स्कूलों के दूसरे स्कूलों में विलय कर दिया गया। दिल्ली की ही बात करें तो अप्रैल में पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तकरीबन पंद्रह स्कूलों को विलयन से गुजरना पड़ा। वहीं पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली में दस सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए। सरकारी स्कूलों को बचाने एवं मर्ज करने से बचाने के लिए किसी भी राजनीतिक दलों व सरकारों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए। मर्जिंग और बंद होते सरकारी स्कूलों को कैसे बचाई जाए इस बाबत कोई योजना न तो लाई गई और न नीति निर्माता धड़ों में इसके प्रति को सुगबुगाहट नहीं नजर आती है। विभिन्न नागर समाज बंद होते सरकारी स्कूलों को बचाने और मर्ज होते स्कूलों को कैसे अस्तित्व में रख सकें इसके लिए आवाज उठा रही हैं। एक अलग विमर्श का मुद्दा है कि सरकारें इसे जिस हल्के तरीके से ले रही हैं इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उनकी इच्छा शक्ति इन स्कूलों को बचाने से ज्यादा बंद करने की है। उसपर तर्रा तर्क यह दिया जाता है कि बच्चे नहीं हैं। शिक्षकों की कमी है आदि आदि। वर्तमान स्कूलों को गिरा या बंद कर वहां पर पार्किंग की व्यवस्था की जा रही है। इन तर्कां पर नागर समाज सचेत है।
राजनीतिक दलों को कायदे से शिक्षा की व्यवस्था और दिशा निर्माण के लिए ठोस योजना बनाने और उन्हें लागू करने की रणनीति की आवश्यकता है। वरना सरकारें चुनी जाएंगी सत्ता में रहेंगी भी और पांच वर्ष पूरा कर चली भी जाएंगी। शिक्षा ही है जो सरकारों के बनने और जाने से न तो आती है और न जाती है बल्कि शिक्षा हमेशा रहती है। यदि हमने शिक्षा को अपनी चिंता के केंद्र में नहीं रखा तो शायद हमें नहीं मालूम कि हम अपने भविष्य के साथ कैसे बरताव कर रहे हैं।
राजनैतिक -ऐतिहासिक शैक्षिक घोषणाओं की यात्राएं कई बार हमारी समझ और काल-बोध को स्पष्ट करती हैं। शैक्षणिक ऐतिहासिक घोषणाओं में 1990 का जोमेटियन का एजूकेशल फोर ऑल, ईएफए, 2000 का डकार घोषणा पत्र, 2000 का सहस्राब्दि विकास लक्ष्य, 2009 का शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2015 जब हमने सहस्राब्दि विकास लक्ष्य पूरा नहीं कर पाए और नागर समाज ने तय किया कि सतत् विकास लक्ष्य 2030 तक हम शिक्षा में गुणवत्ता, समानता और लैंगिक समतामूलक परिवेश मुहैया करा पाएंगे। उक्त घोषणाएं राजनैतिक ज्यादा थीं शैक्षिक कम। क्योंकि शिक्षा में जो लक्ष्य हासिल करने के लिए समय सीमा तक की गई थी वह हर बार अधूरी और अछूती रह गई। इसके पीछे राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी और रणनीति एवं योजना के स्तर पर कमियों देखी जा सकती हैं। वरना वैश्विक स्तर पर स्वीकृत घोषणाएं क्यों विफल हो गईं। क्यों आज भी भारत में करोड़ें बच्चे बुनियादी शिक्षा से महरूम हैं? क्यों भारत के बच्चे स्कूलों से बाहर हैं? कहां तो हम शिक्षा में समानता, समतामूलक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की बातें करते हैं किन्तु वहीं हक़ीकत यह है कि हमारे लाखों बच्चे अभी भी स्कूलों तक पहुंच नहीं पाए हैं। जो बच्चे स्कूलों में हैं उन्हें ऐसी शिक्षा क्यों नहीं दे पा रहे हैं कि वे भाषा, गणित आदि विषय की बुनियादी दक्षता ग्रहण कर पाएं। तमाम सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट हमें लगातार आईना दिखाती हैं कि बच्चे अपनी कक्षा के अनुरूप पढ़ने-लिखने आदि में पीछे हैं। यदि हमें सतत् विकास लक्ष्य 2030 के लक्ष्य को हासिल करने हैं तो राजनैतिक और नागर समाज की प्रतिबद्धता की आवश्यकता पड़ेगी। हमें पूरी इच्छा शक्ति और कार्ययोजना के साथ प्रबंधन की समझ का इस्तमाल करना होगा।


Monday, May 13, 2019

शिक्षक के कंधे पर लोकतंत्र का महापर्व संपन्न



कौशलेंद्र प्रपन्न
लेकतंत्र का महापर्व व कहें त्यौहार (निर्वाचन आयोग से द्वारा प्रदत्त विज्ञापनों के अनुसार) त्योहार संपन्न हुआ। तकरीबन दो माह चले इस त्योहार में विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों ने न जाने किसको क्या नहीं कहा। इतिहास के मरे मुर्दें उखाड़े। तोर मोर छोर किया। किसी ने चड्ढी के रंग तक देखकर बता दिए। वहीं कई तो राजनेता ऐसे भी रहे जिन्हें शायद चुनाव खत्म होने के बाद अपने बयानों पर शर्म आए। किन्तु शर्म मगर उन्हें नहीं आती। हर पांच साल का तजर्बा है उनके पास। चुनाव खत्म, सारी रंजीशें खत्म। वही राजनेता शाम में किसी होटल या पार्टी में गलबहियां करते भी मिलेंगे। शायद अनुमान लगा सकते हैं वे आपस में शाम में क्या बात करते होंगे।
‘‘छोड़ यार वो मंच था। मंच पर बहुत सारी बातें बोली जाती हैं। और बता बेटा क्या कर रहा हैं आज कल?’’
‘‘लेकिन आपने तो इस बार मुझे क्या क्या नहीं कह दिया।’’
शायद इसी किस्म की बातें होती होंगी। या फिर जो कमजोर राजनेता होंगे वे मुंह सुजा लेते होंगे। मुझे ऐसा बोला वैसा बोला। ऐसे में मंजे हुए कलाकार कहते होंगे यार तुम्हें अभी और सीखने की ज़रूरत है। देखा नहीं फलां राजनेता ने कैसे अपनी जिंदगी बचाने का पूरा माला उन्हें पहना दिया। क्या उन लोगों ने कभी मंच पर किसी को सुनाने से छोड़ा या पीछे रहे। तुम हो कि मुंह फुला कर बैठे हो। ऐसे तो हो गई राजनीति।
 इस त्योहार में कई सारे हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों के श्रम शामिल हैं। उनमें भी हमारे प्राथमिक स्कूली शिक्षक/शिक्षिकाएं। इन्हें तो मार्च से ही चुनावी ड्यूटी में स्कूलों से बाहर निकाल दिया गया था। कुछ अप्रैल से चुनावी प्रक्रिया से जुड़ गए थे। तीन चार कार्यशालाएं कराई गईं। कैसे मतदान कराएं। क्या तरीका अपनाएं। किस प्रकार की दक्षता आपमें हो आदि आदि। आपने सोचा न होगा कि जब एक स्कूल से कोई दो चार शिक्षक चुनावी ड्यूटी पर काम कर रहे थे तब उनकी कक्षाओं के बच्चे क्या करते होंगे? यह भी कोई सवाल है? बच्चे तो बच्चे हैं। कोई भी हांक सकता है। अंजु, मंजु, राकेश महेश, आरिफ कोई भी। लेकिन यह कोई भी बस बच्चों को बांध कर रख सकता है। उन्हें पढ़ाना ज़रा कठिन है। एक तो उनकी खुद की कक्षा उस पर दूसरे शिक्षक की कक्षा अनुमान लगाएं एक कमरे में कम से कम साठ सत्तर बच्चे हो गए। उन्हें पढ़ाएंगे या फिर घेर कर रखेंगे। इन बच्चों को कम से कम डेढ़ माह तक अपने शिक्षक नियमित नहीं मिल पाए। और दस मई से स्कूल की छुट्टियां हो गईं। अब बच्चे इन्हें जुलाई में मिलेंगे। जुलाई के दूसरे हप्ते से बच्चों की परीक्षा यूनिट टेस्ट शुरू हो जाएंगी। उन यूनिट टेस्ट में बच्चों का प्रदर्शन कैसा होगा इसका अनुमान आप लगाएं। सब हमीं नहीं बताएंगे।
हर पांच साल पर या फिर बीच बीच में भी चुनावी ड्यूटी में शिक्षकों को लगा दिया जाता है। इन्हें सम्मानित करते हुए कि आप शिक्षक हैं। पढ़े-लिखे हैं। समझदार किस्म के इंसान हैं। आप ही इस काम के लिए उपयुक्त हैं। चलिए चढ़ जाएं शूली पर। आप मना नहीं कर सकते। यह राष्ट्रीय पर्व है। आएं मिल कर उत्सव मनाएं। हर पर बीमार मां हो या पिता। बच्चा दूधमुंहा हो तो हो। आपको छुट्टी नहीं मिल सकती। अवकाश की तो सोचना भी मत।
हमारे शिक्षक हाल में संपन्न चुनाव के दौरान एक दिन पहले आधी रात तड़के उठकर सुबह चार या पांच बजे वोटिंग सेंटर पर पहुंच गए। उफ्! कहानी थोड़ी पीछे लेकर चलते हैं। एक दिन पूर्व इन शिक्षकों को मुख्य केंद्र पर मशीन, कागजात आदि लेने थे। जहां लंबी लंबी कतारें थीं। कतारों में खड़े खड़े पैर दुखने भी लगे थे। लेकिन बिना उफ् तक किए चुनाव के त्योहार के लिए पंक्ति में लगे थे। किसी तरह सारा समान ढोकर देर रात लौटे। सुबह वोट डालने जहां आप जाते हैं। इस बार में दिल्ली सोती रही। तकरीबन साठ फीसदी वोट ही डाले गए। बाकी के वोट कहां गए? हालांकि सरकार ने बड़े बड़े विज्ञापन लगाए थे ‘‘ वोट डालना है जरूरी, फिर शिमला मसूरी’’ लेकिन बिना शिमला मसूरी गए लोग घरों में बीस डिग्री एसी कर सोते रहे। रंगीन अख़बारी पन्ने पलटते सोशल मीडिया पर रूझान चाटते, खिसकाते रहे। लेकिन वोट डालने नहीं गए। वहीं हमारे शिक्षक अह्ले सुबह उठ कर तड़के वोट मशीन आदि चेक कर बैठ गए।
बदइंतज़ामी की जहां तक बात है तो देर मध्य रात्रि घर लौटे शिक्षक बताते हैं कि तेरह मई को तीन बजे, दो बजे, एक बजे रात लौटे। क्यों भाई वोटिंग तो शाम छह बजे संपन्न हो गए थे। फिर यह रात के एक या दो क्यों बजे घर लौटने में? उनका कहना था। हम मशीन आदि लेकर वापस सेंटर पर गए जहां कोई इंतजाम नहीं था। कोई व्यवस्था नहीं थी। न कोई पंक्ति और न कोई सुनने वाला। हम मशीन को शोनू की तरह गले लगाए बैठे रहे। कोई तो हो जो हमारा नंबर पुकारे और हम शोनू को सौंप कर घर लौटें। रात में घर वापसी का कोई भी इंतजाम नहीं किया गया। अकेली महिलाएं अपने परिचित सहमित्रों के साथ घर लौटीं। मशीन की खराबी तो एक कहानी है ही। साथ ही जहां नर्सरी की आयाएं नियुक्त की गई थीं वहां उनके खाने पीने का भी कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं था।
जो भी हो शिक्षक न हों तो यह पर्व अधूरा सा है। आप इसे फीका भी कह सकते हैं। लोकतंत्र के इस महापर्व को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने में लाखों शिक्षकों ने अपनी ऊर्जा, ताकत, समय लगाया। पता नहीं इन्हें कोई धन्यवाद कहेंगा या नहीं। इसका शुक्रिया अदा कौन निज़ाम करता है। वैसे भी ये प्राथमिक स्कूल के शिक्षक ठहरे। कहां जाएंगे मुंह फेर कर। अगली बार फिर फरमान जारी कर बुला लेंगे। इन फुफाओं, ताउओं को। 

Friday, May 10, 2019

अंकों के पहाड़ पर बौनी परीक्षा



कौशलेंद्र प्रपन्न
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पूर्व चेयरमैंन अशोक गांगुली का मानना है कि अंकों के बाढ़ को देखते हुए हमें अपने मूल्यांकन पद्धति का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। बच्चों के मूल्यांकन की परीक्षा प्रणाली को विश्वसनीय और वैद्धयता प्रदान करने के लिए हमें प्रयास करने होंगे। वहीं प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो. कृष्ण कुमार का मानना है सौ फीसदी अंक हासिल करने की प्रवृत्ति को समझने की कोशिश करें तो यही निकल कर आती है कि हम कैसे प्रश्न पत्र बनाते हैं? और किस प्रकार के उत्तरों का मॉडल हमने तैयार किए हैं। इस मॉडल में बच्चे शत प्रतिशत शत ऐसे हासिल करते हैं कि वे रटे हुए तथ्यों को याद कर पुनर्प्रस्तुत कर देते हैं और उन्हें परीक्षा में सौ फीसदी अंक मिल जाते हैं। इस प्रक्रिया में सृजनशीलता और मौलिक चिंतन कहीं पिछड़ जाता है। जीत उसकी होती है जिसकी रटने की क्षमता और कुशलता ज्यादा है। कृष्ण कुमार का मानन है कि इस समस्या से निपटने का एक रास्ता यह हो सकता है कि हम प्रश्नपत्रों के निर्माण और उत्तर के मॉडल को नए सिरे से गढ़ा जाए। यदि कृष्ण कुमार जी के सुझाए प्रस्ताव की परतें खोलने की कोशिश करें तो पाएंगे कि 2008-9 के आस-पास सीबीएससी के प्रश्न पत्रों का स्वरूप बदला गया। इससे पूर्व सवालों की प्रकृति विश्लेषणात्मक होती थीं। यानी वे प्रश्न पत्र लेखन, चिंतन, सृजनशील मना बच्चों की दक्षता और कौशल का भी मूल्यांकन किया करता था। दीगर बात है कि तब इस प्रकार के प्रश्न पत्र पर देश भर में चर्चा हुई कि बच्चे प्रश्न पत्रों और परीक्षा में फेल होने की वजह से आत्महत्याएं कर रहे हैंं। शिक्षाविद्ों और सीबीएससी को इस गंभरी मसले पर विचार करना चाहिए। बच्चों को परीक्षा और अंक के भय से मुक्ति दिलानी ही होगी। इस बाबात सीबीएससी ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 को आधार बिंदु बनाकर प्रश्नपत्रों की प्रकृति में परिवर्तन किया। बहुवैकल्पिक प्रश्नों के चलन के साथ ही बच्चों के अंकों में उछाल आते सभी ने देखा। देखते ही देखते दसवीं और बारहवीं में बच्चों के प्रदर्शन और अंकां की बाढ़ सी आ गई। तब भी बच्चों में आत्महत्या की घटनाएं रूकी नहीं। फिर भी बच्चे अवसाद और कुंठा में जीने लगे। उनकी निराशा इस बात की थी कि अस्सी, नब्बे तो आए किन्तु पांच या दस अंक कम क्यों रह गए। इस बार तो 400 में 400 और 500 में 500 अंक भी बच्चों ने हासिल किए हैं। उन बच्चों से पूछिए जिनके एक या दो अंक से शत प्रति शत अंक आने से चूक गए। वे बच्चे बड़े निराशा में जी रहे हैं। बच्चे तो बच्चे मां-बाप भी मुंह फुलाकर इधर उधर टहल रहे हैं।
याद कीजिए अस्सी और नब्बे का दशक जब पूरे जिले और राज्य में मुश्किल से दस बीस बच्चों को साठ या सत्तर प्रतिशत अंक आया करते थे। उन बच्चों की तस्वीरें अख़बारों में छपा करती थीं। इन बच्चों को हीरों की तरह लोग जानने लगते थे। वहीं 2000 और 2010 के बाद तो नब्बे पार के बच्चों को भी कोई नहीं पूछता। न आईआईटी, न डीयू और न अन्य प्रोफेशनल संस्थान। इन्हें अपने मनमुताबिक कोर्स के साथ संतोष करना पड़ता है। नीट में भी इन्हें लगता है इनका भविष्य अधर में है। नब्बे पार और अस्सी के इस पार अटके हुए बच्चों से पूछिए और उनके मां-बाप से पूछें तो इनसे ज्यादा कोई और दुखी जन नहीं मिलेंगे। परीक्षा के रिजल्ट आने और एक दो माह तक ऐसे बच्चे चर्चा में रहते हैं उसके बाद ये बच्चे भी गुमनामी में चले जाते हैं। जब मामला गर्म होता है तब तमाम मीडिया वाले इनका साक्षात्कार लेते हैं। इनकी सफलता के मंत्र पूछते हैं। ये अपना भविष्य किस दिशा में बनाना चाहते हैं आदि सवालों के जरिए पूरे पन्ने और बॉक्स में छापा करते हैं। इनके आप्त वचन को प्रेरणा स्रोत की तरह पेश किया जाता है। कैसे इन्होंने ख्ुद को सोशल मीडिया से दूर रखा, कहां से कोचिंग लीं, किस स्कूल में किस टीचर ने ज्यादा मदद की आदि आदि सवाल पूछ कर उसे रेखांकित कर छपने के बाद ये कहां जाते हैं इसकी फॉलो अप स्टोरी कम नहीं देखी और पढ़ी जाती है।
परीक्षा की प्रकृति और उसके चरित्र को तो समझने की आवश्यकता है ही साथ ही हमें परीक्षा के उद्देश्य को भी रेखांकित करने की ज़रूरत है। हम क्यों बच्चों का मूल्यांकन करते हैं? क्यों हमें परीक्षा लेने की आवश्यकता पड़ती है आदि। इसका सीधा जवाब है बिना कारण के कार्य नहीं होते। शिक्षा दी जा रही है तो उसका क्या असर हुआ? बच्चे कितना सीख रहे हैं इसे जांचा भी जाना चाहिए। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को विषयवार तालीम दी जा रही है उसमें से बच्चे कितना ग्रहण कर पा रहे हैं। क्या बच्चों के सीखने-सिखाने में कोई बाधा तो नहीं है किन्हीं वजहों से बच्चे सामान्यतौर पर सीख नहीं पा रहे हों। ऐसे में शिक्षा की मूल प्रकृति पर भी विमर्श करने की आवश्यकता पड़ेगी। क्या हम शिक्षा के माध्यम से सिर्फ विषयों की समझ विकसित करना चाहते हैं या फिर उन विषयों का हमारे आम जीवन में कोई उपयोगिता भी है? क्या हम इतिहास, समाज विज्ञान, विज्ञान व भाषा, गणित को अपनी जिंदगी में शामिल कर और बेहतर बना सकते हैं। शायद सत्तर या अस्सी के दशक में हमारा ध्यान विषयों के साथ ही बच्चों के सर्वांगीण विकास पर केंदीत था। जबकि 1985 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा पुनरीक्षा 1988 के दस्तावेज को देखें तो यह एनसीएफ मानता है कि बच्चों को प्राथमिक स्तर पर भाषा, गणित आदि की समझ विकसित करनी चाहिए। ख़ासकर कक्षा एक से पांचवीं तक में भाषा, गणित, विज्ञान और समाज विज्ञान की शिक्षा दी जाए। वहीं यह दस्तावेज छह कक्षा से आगे अन्य विषयों को भी शामिल किया जाए। 1988 की पुनरीक्षा एनसीएफ मानता है कि कला के जरिए प्राथमिक और उच्च कक्षाओं में बच्चों को शिक्षा दी जाए। देश के ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में भी बच्चों को जानकारी दी जाए। इस मसले पर एनसीएफ 1988 का विशेष जोर है। इन्हीं चिंताओं को 2005 के एनसीएफ में भी स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि 2008-9 में सीबीएसई ने उक्त एनसीएफ का आधार बनाकर परीक्षा के प्रश्न-पत्रों के निर्माण संबंधी संस्तुतियों को आधार बनाया था। एनसीएफ 2005 के जुड़े नेशनल फोकस ग्रुप ऑन एक्जामिनेशन की संस्तुतियों को आधार बनाकर सीबीएससी ने परिवर्तन किए किन्तु वह किस स्तर तक कारगर हुआ इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए।
शिक्षाविद्ां को मानना है कि बहुवैकल्पिक प्रश्न पत्रों में रटने और स्मृतिआाधारित कौशल की ज्यादा आवश्यकता पड़ती है। जिनकी स्मरण शक्ति अच्छी है वे बच्चे इन प्रश्न पत्रों में अधिकाधिक अंक हासिल कर लेते हैं। इन प्रश्न पत्रों में सृजनात्मकता, स्वतंत्र चिंतन और मौलिक चिंतन की संभावना को कम करती है। यही वजह है कि भाषा के पर्चे में भी बच्चे नब्बे पार अंक तो प्राप्त कर लेते हैं किन्तु स्वंतंत्र रूप से भाषा के अन्य कौशलों लेखन,पठन-समझ आदि के स्तर पर पिछड़ते नजर आते हैं। क्योंकि जब हमने भाषा के प्रश्न पत्र को वैकल्पिक बनाया तो वहां चार उत्तरों में से एक सही उत्तर को छांटना होता है। लेकिन जब मौलिक चिंतन और लेखन अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास नहीं के बराबर हो पाता है। नेशनल एचिवमेंट सर्वे, पीसा, डाइस फ्लैस रिपोर्ट, असर आदि की रिर्पोट बताती हैं कि हमारे बच्चे भाषा में लिखना-पढ़ाने कौशल में पीछे रह जाते हैं। जहां एक ओर भाषा स्वंत्रत और मौलिक चिंतन को बढ़ावर देती हैं वहीं गणित तर्कपूर्ण चिंतन और मंथन दक्षता का विकास करते हैं।
वर्तमान अंकीय प्रकृति को बढ़ावा देने वाली परीक्षा प्रणाली कहीं न कहीं बच्चां के स्वतंत्र और मौलिक चिंतन के संवर्द्धन में मददगार साबित होने की बजाए हानिकारक ही हो रही हैं। सिर्फ अंकों के पहाड़ खड़ा करना हमारा मकसद न हो बल्कि अंकों के साथ ही उसी के अनुपात में बच्चों को अपने विषयों की समझ स्तर भी विकसित हो। मूलतः परीक्षा हमारी समझ और अवबोधन के स्तर की जांच भी करती है ऐसा माना गया है। यदि यह मकसद है तो हमें उसी के अनुसार प्रश्न पत्रों के निर्माण की रणनीति भी तैयार करनी होगी। हम परीक्षा और मूल्यांकन से क्या हासिल करना चाहते हैं इसमें भी स्पष्टता लाने की आवश्यकता है। एक ओर विषयी समझ और कौशल की आवश्यकता हक़ीकत है तो दूसरी ओर अंकों की दुनिया भी उतनी साफ और कठोर है। यदि बच्चा कम अंक जिसे अस्सी से नीचे भी मान सकते हैं उन बच्चों को तथाकथित प्रसिद्ध कॉलेज में दाखिला नहीं मिल पाता। ऐसे बच्चे सरकारी कॉलेजों के समानांतर चल रही निजी कॉलेजों की ओर शिक्षा पाने के लिए भागते हैं। दोनों ही कॉलेजों में फीस एक बड़ी चुनौती नजर आती है। जो बच्चे मोटभ् फीस दे सकते हैं वे वहां दाखिल हो जाते हैं। बाकी बच्चे कहां जाते हैं, किन अंधेरे में रह जाते हैं इस ओर भी हमें सोचने की आवश्यकता पड़ेगी।

Wednesday, May 8, 2019

जहां रोशन है दिव्यांग बच्चों की दुनियाः


कौशलेंद्र प्रपन्न
हाई वे, मुख्य सड़क, महानगरीय सड़क, राजमार्ग, साठ फुट्टा रोड़, गली, चौपड़ आदि। इन नामों से कैसी तस्वीर बनती है? यही कि उक्त सारे नाम यातायात के प्रमुख साधनों में से एक हैं। सड़क उनमें से ऐसा मार्ग है जो जमीन पर रेलवे के अतिरिक्त बना करती है। क्या ऐसी भी गली की कल्पना कर सकते हैं जहां आप इंटर करें तो आपके साथ दूसरा कोई भी कंधे से कंधा मिला कर न चल सके। यानी ऐसी गली जहां धूप को भी आने के लिए इंजाजत मांगनी पड़े। जिस गली से बाहर निकलते ही बड़ी, चौड़ी सड़कें शुरू होती हों। जहां से झांकने पर एक चमचमाती नगरी, दुकानें, मॉल्स की दुनिया शुरू हो जाती है। इशारा ऐसी झुग्गी झोपड़ी से हैं जो दोआब में बसे हैं। जहां ज़िंदगी रोशन है। जहां टीवी है, फ्रीज है, साउंड सिस्टम है। बिजली पानी है। और राशन कार्ड भी। जहां गलियों में नालियां ऐसे पसरी हैं गोया सांप की नई प्रजाति पैदा हो गई हों। न केवल दिल्ली बल्कि मुंबई, चैन्नई, कोलकाता आदि तमाम महानगरों में बसी हैं। जहां से रोज काम पर जाने वाले भीड़ में कहां खो जाते हैं इसका अनुमान लगाना ज़रा कठिन होता है। इन्हीं घरों से कई बार हमारे घर चौका बरतन करने वाली आती हैं। कभी सोचा है इनके बच्चे कहां, किन स्कूलों में दाखिल होते हैं। कहां इन्हें नई तालीम मिलती है। आदि। ऐसे ही कुछ सवाल हैं जिनका उत्तर शायद हमें देना होगा।
मोतीलाल नेहरू कैंप, संजय बस्ती, ओखला फेज 1 व 2, नेहरू प्लेस, कालका जी, गोविंदपुरी आदि जगहों पर दो फैक्ट्री के दोआब में गुलजार इन बस्तियों से मजदूर मिला करते हैं। जिनके बदौलत हमारा बड़ा काम हुआ करता है। जब ये वर्ग एक या दो माह के लिए भी गांव-घर चला जाता है तो हमारी आम जिंदगी कहीं न कहीं प्रभावित होती है। हमारे सरकारी स्कूल पर भी विपरीत असर साफ देखे जा सकते हैं। ख़ासकर पर्व त्योहारों पर, गर्मी की छुट्टियों में। जाते एक माह के लिए हैं लेकिन लौटत दो तीन माह बाद हैं। स्कूल टीचर मानते हैं कि हमारी मेहनत खराब हो जाती है। हमें दुबारा से शुरुआत करनी पड़ती है। इन बच्चों के साथ पढ़ने-पढ़ाने की दिक्कत बराबर बनी रहती है। जाने के बाद कब लौटेंगे किसी को भी नहीं पता।
इन कॉलोनियों, कैंप में बसने वाले बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का रख रखाव और मुहैया कराने में कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं लगी हैं। जो बच्चों की शिक्षा और देखभाल करते हैं। एनजीओ के अलावा कुछ सीएसआर की गतिविधियां भी यहां बहुत ही शिद्दत से काम कर रही हैं। ये बिना आवाज़ किए अपने काम में विश्वास करती हैं। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन उनमें से एक है। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन ओखला में आस्था संस्था के मार्फत दिव्यांग बच्चों की बुनियादी तालीम पर काम करती है। आस्था सस्था पिछले तकरीबन पचीस सालों से दिव्यांग बच्चों के विभिन्न मुद्दों और समस्याओं को ध्यान में रख कर गर्दन झुकाए काम में जुटी है। इस संस्था में तकरीबन सौ से ज्यादा बच्चे आते हैं। सेंटर पर आने वाले बच्चों को महज पाठ्यपुस्तकीय शिक्षा मुहैया कराने की बजाए जीवन कौशल की समझ भी दी जाती है। इन दिव्यांग बच्चों को अंधेरी गलियों और आम जीवन की उपेक्षा से निकाल कर समाज और समुदाय से जोड़ा जाता है। इन बच्चों से बात करके तो देखिए जनाब इनके आत्मविश्वास में कमाल का उछाल और जीने की चाहत, उमंग की लहरें देखने-सुनने को मिलेंगी। ऐसे ही बच्चों की छोटी छोटी आंखों में बड़े बड़े सपने भरने और देखने का माद्दा पैदा करने में टेक महिन्द्रा फाउंडेशन पिछले लगभग दस साल से जुड़ा है। यह दीगर बात है कि यह फाउंडेशन काम बोलता है में विश्वास करता है न कि प्रचारित करने में।
नाम बेशक हमारे बच्चों जैसे ही हैं इन बच्चों के। कमल, ज्योति, सानिया आदि आदि। लेकिन ये बच्चे हमारे सामान्य बच्चों से ज़रा अलग हैं। इनकी भी आंखें दो ही हैं लेकिन इन आंखों में देख सकने की रोशनी नहीं है। ऋग्वेद में एक मंत्र में कहा गया है, ‘‘चक्षोरमे चक्षु अस्तु’’ यानी नेत्र में देखने की क्षमता हो। वहीं कुछ बच्चे ऐसे हैं जो अंदर से बेचैन हैं जिन्हें ठहर कर समझने और प्यार करने की आवश्यकता है। ऐसा ही एक बच्चा है ओखला कैंप में। उसने ठहर कर विश्वास के साथ मेरे गाल को अपने कोमल हाथों, अंगुलियों से छुआ, सहलाया और गले लगा। बोल भर बस नहीं फुटे। ऐसे बच्चों के बीच जाकर लगता है हम कितने गुमान और तोर मोर छोर से भरे हैं। हम जिस जहां में रहते हैं वह कोई और दिनया है। एक दुनिया समानांतर भी बसा करती है। इस दुनिया से हम बेखबर न जाने कितनी ही रंजीशें पाले हुए रेज़ डोल रहे हैं। ऐसी दुनिया से बहुत दूर हमने अपने लिए एक अगल आप्राकृतिक दुनिया बसा ली है जहां हम दो चार के बीच हंस बोल लेते हैं। एक दूसरे को लाइक, इग्नोर कर खुश हो लेते हैं। काश कभी इन बच्चों के बीच जा पाते। खुद ब खुद हमारी अंदर की दुनिया साफ हो जाएगी।
पहली बात तो यही कि इन दिव्यांग बच्चों को उनके घरों से निकालना अपने आप में बड़ी समस्या है। और यदि बार अभिभावक विश्वास कर कर संस्था में भेज भी देती है जो कम से कम संवाद की कड़ी जुड़नी शुरू हो जाती है। दूसरे स्तर पर चुनौती तब आती है जब ये बच्चे सामान्य बच्चों के बीच जाते हैं। स्कूल परिसर कितना भी मूल्यपरक बातें कर ले। लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि एक ओर समावेशनी शिक्षा और दिव्यांग बच्चों के लिए स्कूल और शिक्षा एकीकरण करने वाली हो ऐसी घोषणाएं हने कई बार कई दशक पूर्व भी की है। लेकिन जमीनी हक़ीकत बिल्कुल अगल है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...