Tuesday, February 27, 2018

लिखने से पहले....



कौशलेंद्र प्रपन्न
लिखना कौन नहीं चाहता। हर कोई जिसके पास कहने को कुछ है वह लिख लेना चाहता है। इधर के कुछ सालों में लिखने वालों की एक बाढ़ सी आ गई है। बैंक, कंपनी की नौकरी छोड़ पूरी तरह से लिखने के क्षेत्र में भी उतर चुके हैं। जिन्हें कंपनी में अच्छी सैलरी मिल रही थी उन्हें नौकरी छोड़ लेखन क्षेत्र में  आने की क्या पड़ी थी? सोचिए तो कई कहानी निकल कर आएंगी। उन्हीं कहानियों में लिखने की छटपटाहटें सुनाई देंगी। इसलिए लेखन क्षेत्र में आए क्योंकि कभी वे स्कूल या कॉलेज के दिनों में लिखा करते थे लेकिन नौकरी में आने के बाद लिखने का वक़्त नहीं मिलता। आदि
जो भी लिखने का अपना कार्य क्षेत्र चुना वे यूं ही अचानक नहीं उठ कर नहीं आ गए। बल्कि इस क्षेत्र में उतरने से पहले एक ग्राउंड रिसर्च किया। रिसर्च के साथ ज़रूरतों की पहचान की। साथ यह भी रिसर्च किया कि किस प्रकार की ऑडिएंस यानी पाठक वर्ग है जो वास्तव में पढ़ना चाहता है। पाठक वर्ग किस प्रकार की राईटिंग पढ़ने में दिलचस्पी लेगी आदि। यदि कहानी उपन्यास आदि में रूचि है तो किस प्रकार की कहानी या उपन्यास पाठक पढ़ना चाहता है इसपर उन लेखकों ने अच्छे से रिसर्च किया और फिर कंटेट का चुनाव किया। उदाहरण मांगेंगे तो चेतन भगत, अमीश त्रिवेदी आदि ऐसे नाम हैं जिन्हें बेशक गंभीर साहित्यकार साहित्यकार न मानते हों लेकिन उनकी किताबें लाखों में पढ़ी और खरीदी जाती हैं। एक प्रकाशक और लेखक देनां को ही मुद्रा और प्रसिद्धी हासिल हो रही है।
अंग्रेजी में इस प्रकार के लेखन और लेखकों की राइटिंग 2000 के आस पास शुरू होती है। और देखते ही देखते इनके नाम और किताबें पाठकों को खूब भाने लगीं। देखते ही देखते हिन्दी साहित्य में भी कुछ लेखक जो पहले से लिख तो रहे थे किन्तु बिना मार्केट रिसर्च किए लिखा करते थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि सीमित पाठक वर्ग तक उनकी पहुंच रही। इश्क में शहर होना, प्यार कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं, पतनशील पत्नीयों के नोट्य आदि किताबें 2015 के बाद आई और पाठकों को खूब भाने लगीं। अब के नए लेखक नए नए कथानक और प्रस्तुती के आधार पर ख़ासा चर्चा में हैं।
लेखन से पूर्व रिसर्च और अध्ययन बेहद ज़रूरी चीजों में से एक है। अभ्यास कई बार आपको लेखक बना देता है। लेकिन अभ्यास भर से आप लेखन में ज़्यादा देर तक नहीं रह सकते। आपको खड़े रहने के लिए कंटेंट और कंटेंट की प्रस्तुती पर भी ठहर कर काम करना होता है। तब आपको बाजार हाथों हाथ उठाता है।
आप किसके लिए लिख रहे हैं? क्यों लिख रहे हैं? अपने लेखन से क्या हासिल करना चाहते हैं इन बिंदुओं पर रिसर्च करना बेहद ज़रूरी है वरना लिख कर अपने लैपटॉप या काग़ज़ का पेट ही भरेंगे और एक मुगालता ज़रूर पाल लेंगे कि आप लिखते हैं। यदि आप लिख रहे हैं तो उसका एक पाठक वर्ग भी जहां उस लेखन को पहुंचाना है। लिखना जितना आसान है उतना ही कठिन भी राह है। क्योंकि कुछ भी लिख देने से वे न तो छपती हैं और न ही पढ़ी जाती हैं। बल्कि पठनीय लिखने के लिए लेखकीय प्रतिबद्धता की भी मांग की जाती है।
यदि अख़बार, पत्रिका, जर्नल के लिए लिखना चाहते हैं तो पहले अपने उस टार्गेट अख़बार व पत्रिका को बारीकी से रिसर्च करें कि उसकी प्रकृति कैसी है? किस प्रकार की सामग्री छपती हैं? कहां आप लिख सकते हैं आदि। यदि आप पत्रिका या अख़बार की प्रकृति के अनुरूप लिखते हैं तब छपने की भी संभावनाएं ज़्यादा हो जाती हैं।
बाकी छपने के लिए लिखना ज़रूरी है और लिखने के लिए छपना दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

Monday, February 26, 2018

प्रिये बच्चों (अकाल मौत के शिकार) !!!


प्रिये बच्चों (अकाल मौत के शिकार) !!!
नमन।
क्षमा के साथ यह फोटो साझा कर रहा हूं।
ग़मज़दा हूं। दुखी भी। दोनों ही मौतें हैरान और दुखी करने वाली हैं। एक ओर फिल्मी अदाकारा श्रीदेवी की असामयिक मृत्यु और दूसरी तरफ तुम बच्चों की अकाल मृत्यु। ग़लत समय में मरे तुम। समय का चुनाव सही नहीं था। जब श्रीदेवी की मौत हुई तब तुम्हें नहीं मरना था। समय सही चुनते तो शायद तुम्हारी मौत पर भी कुछ लोग, लोकतंत्र के पहरूएं कुछ संवेदना बयां करते। समाज के राजनीतिक हस्तिष्यां कुछ लिखतीं और बोलतीं। मगर तुम एक साधारण परिवार में जन्मे। साधारण से राज्य के एक शहर मुज़फ्फरपुर के सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। मरना ही था तुम्हें। ट्रक या कोई भी वाहन आसानी से कुचल कर भाग सकती है। जो भाग गई। जिस राज्य में तुमने सांसें लीं। जन्म लिए। पढ़ने का हौसला रखा उस राज्य के मुखिया ने एक शब्द भी तुम्हारी मौत पर नहीं कहा। लेकिन अदाकारा की मौत पर मरसिया ज़रूर पढ़ आए।
तुम्हारी मौत भी असामयिक ही थी। बल्कि ज़्यादा दर्दनाक। सड़क पर तुम छटपटाते रहे होगे। लेकिन मालूम नहीं तुम्हारी सहायता के लिए कितने लोग आए होंगे। लेकिन उधर उनकी मौत पर लोकतंत्र के तीनों प्रमुखों ने अपनी गहरी संवेदना अभिव्यक्त की। उन्हें शायद यह ख़बर भी न मिली हो। क्यांकि तुम्हारी मौत से ठीक बाद उनकी मौत की ख़बर आ गई। निश्चत ही दूसरी वाली ख़बर बडी और वजनी थी। उस ख़बर की रफ््तार में तुम्हारी मौत की ख़बर पिछड़ गई। मुझे अब तक नहीं मालूम कि उस राज्य के शिक्षामंत्री, गृह राज्यमंत्री या किसी अधिकारी ने अपनी संवेदना प्रकट की है। बच्चों तुम्हें तो मरना ही था। या तो अकाल मृत्यु के शिकार होते या फिर भूख से मरते। यदि इन सब से बच भी जाते तो तुम्हें हम जीवन भर मारते रहते। तरीके कुछ भी हो सकते थे।
अब तो लगता है मरना और मौत भी फैशनेबल होनी चाहिए। जब आप मरें तो वह वक़्त भी माकूल हो। कोई बड़ा व्यक्ति न मरा हो। बजट का मौसम न हो। कोई बड़ी घटना न घटी हो। तब तो मरना फलेगा वरना मरे भी और चर्चा भी न हो। यह भी मरना कोई मरना है। बच्चों तुम तो तभी चर्चा में रहते हो जब या तो स्कूल में मरते हो, खाकर मरते हो, शौचालय में हत्या हो जाती है, या फिर मास्टर की मार से मरते हो। पूरी मीडिया तुम्हारी मौत पर मातम मनाती है। नागर समाज भी मोमबत्तियां लेकर कर शहर शहर, नगर नगर घूमते हैं।

Friday, February 23, 2018

टीचर बहनों के नाम खुली चिट्ठी



कौशलेंद्र प्रपन्न
हालांकि मेरी कलाई पर कई बहनों ने राखी न बांधी हो। साथ में बचपन न गुजारी हों। साथ लड़ी-झगड़ी भी न हों। लेकिन उन हज़ारां बहनों के साथ मेरी रिश्ता तभी जुड़ गया जब उन्होंने शिक्षा और शिक्षण में कदम रखा। जब वे डाइट से या फिर बीएड कर रही थीं तब से हमारा रिश्ता बन गया था।
मेरी बहन पिछले कई दिनों परेशान थी। बल्कि है। वैसी ही मैं समझता हूं कई बहने परेशान होती होंगी जब उन्हें क्लास में पढ़ाने जाना होता होगा। जब उनकी क्लास ऑब्जर्ब की जाती होंगी। जब उन्हें कहा जाता होगा कि फलां तारीख को तैयार रहें आपकी क्लास ऑब्जर्ब की जाएगी।
हालांकि क्लास ऑब्जर्ब हो इसमें किसी को भी कोई एतराज़ नहीं हो सकती। लेकिन इस फरमान से उपजे तनाव और चिंता को हम कभी भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। मेरी बहन तनाव में थी। उसकी िंचंता थी कि क्लास रूम ऑब्जर्ब होने हैं उसके लिए पाठ योजना कैसे बनाएं। कैसे क्लास में शिक्षण करें ताकि ऑब्जर्बर खुश हो जाए और अच्छे कमेंट दे कर जाए।
चिंता तो कुछ और होनी चाहिए थी कि मैं अपनी कक्षा को कैसे रोचक तरीके से पढ़ाउं कि बच्चे आनंदविभोर हो जाएं। बच्चां की सहभागिता इस तरह की हो कि बच्चे तो बच्चे मैम भी उसमें शामिल हो जाएं। लेकिन इसके लिए प्लानिंग की ज़रूरत पड़ती है। और प्लानिंग के लिए सोचना होता है। यही सोचने की आदत व चस्का हमारी टीचर बहनां और भाइयों को नहीं दी जाती।
बातचीत में बहने ने बताया कि उसकी कक्षा में बच्चे बहुत शोर करते हैं। उसकी कक्षा के बच्चे उसकी बात नहीं मानते। शांत नहीं बैठते आदि। बहन ने फोन पर अपनी कहानी सुनाई। मैं सुनता रहा। जब रहा नहीं गया तो एक वाक्य कहा ‘‘ तुम क्यों चाहती हो कि बच्चे सुनें? क्यों सोचती हो कि बच्चे कक्षा में चुप्प बैठे रहें। क्यों चाहती हो कि बच्चे तुम्हारी बात मानें?’’ इसपर बहन रूंआंसी हो गई। कहने लगी आप नहीं समझते। प्रिंसिपल डांटती है। एकेडमिक हेट गुस्सा होती है। यदि क्लास में शोर हो रहा होता है।
मुझे मेरी बहन की बातों में सच्चाई तो लगी लेकिन कमी भी मिली। जब वो मान कर चल रही है कि बच्चे शरारती हैं। बच्चे नहीं सुनते यानी कहीं न कहीं वो एक नकारात्मक सोच की गिरफ्त में है। जबकि उसे बच्चों को कैसे मैनेज किया जाए और क्लास में कैसे सकारात्मक माहौल बनाएं इसकी समझ और योजना प्रशिक्षण के दौरान दी जानी चाहिए थी। मुझे बहनों से ज़्यादा प्रशिक्षण संस्थानों की कमी नज़र आती है। हमारे शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान महज शिक्षक बनने की पात्रता तो दे देते हैं। उन्हें दक्षता और शिक्षकीय कौशल प्रदान करने में पिछड़ जाते हैं। यही कारण है कि हज़ारों लाखों टीचर डिग्री तो हासिल कर लेते हैं लेकिन जब क्लास में प्रवेश करते हैं तब उन्हें ख़ासा मुश्किलें आती हैं।
मेरी हज़ारों बहनें याद रखो- क्लास की तुम मालकीन हो। तुम जैसे अपने कीचन को सजा संवार कर रखती हो वैसे ही क्लास को भी सजाना होता है। उन्हें हमेशा डस्टिंग भी करते रहना होता है। तब जा कर आपकी क्लास चमकती है। और आपको अपने कीचन में जाने में तब डर नहीं लगता तब सब साफ सुधरा और आपके मनोनकूल हो। आपको अपनी कक्षा भी अनुकूलित करनी होती है। जो पढ़ाओ पूरी शिद्दत से पढ़ावा। यह चिंता किए बगैर कि कोई ऑब्जर्ब कर रहा है। आप ख्ुद ऑब्जर्बर बनोगी तब आपको किसी से भी डर नहीं लगेगा।
अगर फिर भी डरती हो तो लिखो न यहां पढ़ाने में क्यां डरती हो? क्यों ऑब्जर्ब होने भय खाती हो? मिल कर संवाद करते हैं।

Wednesday, February 21, 2018

कभी देखिएगा शाम




कौशलेंद्र प्रपन्न
किसी शाम आप यूं ही बैठे हैं। कभी मायने कभी। जब से जॉब करने लगे हैं। जब से कॉलेज पूरे हो गए। जब से शादी हो गई आदि आदि। अव्वल तो कई कई दफ़ा आफिस में ही शाम हो जाया करती है। आते तो सुबह हैं जब सूरज उग चुका होता है। दोपहर भी कभी कभी देख लिया करते हैं यदि दफतर से बाहर निकले तो। लेकिन अरसे हो जाते हैं शाम न देखे। शाम देखने का मतलब बिना कुछ करते हुए बस यूं ही एक टक सूरज को ढलते देखना। देखना उसकी कम होती लालिमा को। धीरे धीरे आसमान का रंग बदलना। वैसे यह भी कोई देखना हुआ। आप कह सकते हैं? देखना ही है तो शाम की रौनक देखिए। देखिए बाजार कैसे जगमग जगमग हो रहे हैं। देखिए सड़के कैसे गाड़ियां की लाइट से झिलमिलाने लगती हैं।
शाम भी कोई देखने की चीज होती है। उदास और बेलौस। मगर नहीं कभी देखनी ही हो शाम को तो कन्याकुमारी में देखें। पटाया में देखें। मुंबई या किसी भी समंदर किनारे देखें। या फिर मनाली, कुल्लू या फिर खजियार में देखें कैसे देखते ही देखते पहाड़ी में गुम हो जाता है दिन और कैसे अचानक शाम उतर आती है घाटियों में। देखते ही देखते पहाड़ के घरों में रोशनी जलने लगती है।
ये सब कल्पना नहीं हैं। न ही यह कहानी का कोई प्लॉट है। बल्कि हक़ीकत है। यदि आपने शिद्दत से शाम होती देख ली तो सच में उस शाम को अपनी डायरी या फिर स्मृतियों में संजो लेंगे। लेकिन अफ्सोस कि हमारे पास संजोने को शाम नहीं है। कब सुबह होती है और कब देखते ही देखते शाम हो जाती है इसका एहसास तक नहीं होता।
बड़े बड़े शहरों में तो रात भी कहां होती हैं। कहां होती है अंधेरी रात। अंधेरा देखने के लिए आपको सीमांत में जाना होगा। हर तरफ रोशनी ही रोशनी। कई बार इतनी ज़्यादा रोशनी से आगे मिचमिचाने लगती हैं। कई बार जी चाहता है कुचकुच अंधेरी रात देखें। देखें अंधेरे में आसमान से ताकते तारों को। मगर दिल्ली क आसमान में तारे गोया आते ही नहीं।
कभी गुलमर्ग तो कभी कन्नाताल में शाम और रात दोनों देखी है। रात में इतने सारे तारे कि आंखें कम पड़ जाएं। कितने तारों को आंखें में जगह दी जाए। कहते हैं रात वो भी काली रात डरावनी होती है। मगर मेरी मानें रात कभी भी डरावनी नहीं होती। बल्कि रात जितनी खूबसूरत कोई और नहीं होती।
कभी देखिएगा शाम को। शाम वही जो आपके गांव में मिला करती थी। मिलती थी दूर ख्ेतों में चहलकदमी करती हुई। मैंने भी कभी शाम देखी है। मगर हज़ारों ऐसे लोग हैं जिनका काम इसकी इज़ाजत नहीं देता कि वो शाम देखें। मीडिया हाउस हो या रिसर्च या फिर डॉक्टरी पेशा इसमें हर वक़्त लाइट और लाइअ में काम करने पड़ते हैं। जब अचानक बाहर आते हैं तो आंखें प्राकृतिक रोशनी में चौंधिया जाती हैं।

Tuesday, February 20, 2018

कहानी बुनों तो सही




 कौशलेंद्र प्रपन्न
चित्र में आप दो टीम को पीछे देख रहे हैं। यही वो टीम है जिन्हें निर्णायक मंडल ने आम सहमति से विजेता चुना है। विजेता वे भी कहानी बुनने में। कहानी के बुनकरों को बधाई। संभव है आज के समय में हम कहानी बुनना तो दूर कहानी सुनना और सुनाना जैसे गैर उत्पादक कामों को तवज्जो न दें। लेकिन आने वाली पीढ़ी जब कहानी की मांग करेगी तो क्या देगें हम? सोचिए और पढ़ें आज की बात-
वैसे हमसब कहानी बुनने में तेज हैं। तेजी से कहानियां बुन लिया करते हैं। परिस्थिति जो भी हो। यही कारण है कि हम अपनी बात और कई बार अपनी पीड़ा भी कहानी के ज़रिए कह दिया करते हैं। लेकिन कल्पना कीजिए आपको चार मिनट का मौका मिले और कहा जाए चलिए साहब इस मसले पर कहानी बुनें। तब चुनौती बड़ी हो जाती है।
श्री राम कॉलेज ऑ कॉमर्स के हिन्दी विभाग में स्पंदन कार्यक्रम में सुनने और गुनने को मिला। विभिन्न कॉलेजों से आए छात्रों ने कहानी बुनने में अपनी दक्षता दिखाई। उन तमाम छात्रों ने अपनी काबिलीयत का परिचय दिया जिन्होंने कहानियां बुनीं। कहानी बुनने की प्रक्रिया और उस कालखंड़ का चस्मदीद गवाह बनने का अवसर मिला। कैसे बच्चे कहानियां बुन रहे थे। बल्कि कहानी कह रहे थे।
कहानी बुनने और उसके बाद कहानी कहने में अंतराल इसलिए दिया गया ताकि आपसी तालमेल बैठाया जा सके। गौरतलब है कि कहानी बुनने वाला अकेला कत्तई नहीं था। बल्कि दो लोगों को एक साथ कहानी बुननी थी। है न दिलचस्प !!!
कहा हम साथ साथ चल नहीं पाते। चलते हैं तो लड़खड़ाते हैं। उसपर तुर्रा यह कि दो लोगों को एक साथ कहानी की घटना, संवाद, कथानक और प्रवाह सब खुद ही आपस में तय करना था। इसमें आपसी मंथन, एकीकृत सोच और संवाद को जीवंत बनाने के लिए वाक्यों, संवेदनाओं को होना नितांत ज़रूरी है।
कहानी बुनने की पूरी प्रक्रिया का गवाह रहा तो यह भी जिम्मेदारी बनती है कि मैं आपको बताउं कि कुछ छात्रों ने अच्छी कहानियां बुनीं। कुछ बच्चों के कंटेंट अच्छे थे। तो कुछ ज़्यादा ही जल्छबाज़ी में थे। जल्दबाज़ी बुनने में नहीं थी बल्कि कहानी कहने में थी। यहां अंतर समझते चलें कि कहानी बुनना और कहानी कहना दो अलग अलग कौशलों की मांग करती हैं।
न जाने हमारे छात्र क्यों रफ्तार में थे ज बवे कहानी सुना रहे थे। बहुत तेजी से आगे बढ़ जाना चाहते थे। शायद यहीं पर कहानी सुनने और कहने का आनंद जाता रहता है। हालांकि वक़्त की पाबंदी थी। तय समय में ही कहानी कह देनी थी। सवाल है क्या कहानियां कही जाती हैं? या कहानियां सुनाई जाती हैं। यदि यह अंतर छात्रों में बता दिया जाता तो शायद पवे कहानी बुनने और सुनाने के कौशल से महज दो टीम ही नहीं बलिक और टीम भी पुरस्कृत हो पाती।
बहरहाल जो हो कहानी बुनी गई। कहानी सुनाई गई। सुनने वाले भी अघाए। कहानी सुनकर जिन्हें निर्णय देना था वे भी आनंदित हुए। साधुवाद डॉ रवि शर्मा का जिन्होंने हमेशा ही हिन्दी साहित्य सभा, श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में नवाचार करते रहते हैं।

Thursday, February 15, 2018

कैसे रखें अपनी बातें



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहना एक कला है तो इसे विकसित भी कर सकते हैं। आज काफी वक्ता और प्रोफेशनल इस फील्ड में उतर चुके हैं जो ज्ञान और अनुभव साझा किया करते हैं कि जीवन में कैसे आगे बढ़े। कैसे ऑफिस और घर को मैनेज करें आदि। उसी प्रकार से बाज़ार ऐसे वक्ताओं और प्रोफेशनल से भरे हुए हैं। पैसे दीजिए और गुण सीखिए। कहते हैं यदि आपके पास कहने का हुनर है तो ख़राब से ख़राब कंटेंट को सुना सकते हैं। ज्ञोताओं की भीड भी मिल जाएंगी।
दो बातें प्रमुख हैं बोलने से पहले शब्दां का चयन बेहद ज़रूरी है।उसके बाद अपनी बात को किसी कहानी या कथन से शुरू की जाए तब भी श्रोता सुनते हैं। हां यदि कहानी लंबी हो गई तो बारीयत की स्थिति पैदा हो सकती है। इससे बचने के लिए श्रोताओं को हमेशा नज़रों में रखना होता है।
ज़रूरत इस बात की है कि क्या आपको श्रोताओं के अनुसार बोलना और बतियाना आता है। क्या आप मनोदशा और मनोस्थिति के साथ परिवेश को ध्यान में रखक रबात कर सकते हैं। आज की तारीख़ी हक़ीकत है कि हर कोई बोलना और सुनाना चाहता है। लेकिन कैसे सुनाएं व कैसे बोलें कि हर केई सुनने में दिलचस्पी ले इसके लिए सावधानियां बरतनी पड़ती हैं। साथ ही कहने के कौशल को मांजना होता है। बिना अभ्यास और कौशल के अच्छे कंटेंट बरबाद हो जाते हैं।


Wednesday, February 14, 2018

किताबें रिश्ते बुनती हैं मानें या न मानें



कौशलेंद्र प्रपन्न
आज की ही बात है। मेट्रो में सुबह बैठा किताब पढ़ रहा था। किताब थी ‘‘इमेजिनेशनः नो चाइल्ड लेफ्ट इंभिजिबल’’ एक सज्जन अपने तकरीबन चौदह साला बेटे के साथ मेरी सीट के बगल में बैठे। अपने बेटे से लगातार बात कर रहे थे और मेरी किताब पर भी उनकी नज़र थी।
हालांकि मेट्रो में लगातार हमें ताकीद किया जाता है कि अपरिचितों से बात न करें। आदि लेकिन ऐसे कई मर्तबा हुआ है कि मैंने भी कई बार साथ बैठे वाले ने भी बातचीत का सिलसिला शुरू किया है। कई बार इतनी अच्छी बात और व्यक्ति मिला करते हैं लगता है इनसे तो रोज़ ही मुलाकात होती रही है।
ऐसे ही रफ्ता रफ्ता तीस हज़ारी स्टेशन पर उन्होंने कहा कितनी अच्छी बात लिखी है इस किताब में। कैसे बच्चों से बात करें। नकारात्मक बात न करें। हमेशा प्रोत्साहन वाले अंदाज़ में बच्चों से बात करें। बात करें। भाषा कैसी हो। सचमुच किताबें एक अच्छी दोस्त होती हैं। वो जनाब लगातार बोले जा रहे थे। मुझे भी बुरा नहीं लगा। क्योंकि एक किताब का प्रेमी जो मिला था।
दूसरा वाकया कोलकाता से दिल्ली लौटने के दौरान साथ बैठे फ्लाइट सहयात्री काफी देर के बाद बोल पड़े। कौन सी किताब पढ़ रहे हैं? क्या लिखा है? पाकिस्तान तो हमें बरबाद करने पर तुला है और आप एक पाकिस्तानी लेखिका की किताब पढ़ रहे हैं आदि।
जब उस किताब का मजमून बताया तब थोड़े झेप गए। क्यांकि वह किताब ‘‘1947 दिल्ली से पाकिस्तान भाया पिंड’’ सबूहा ख़ान की आटोबायोग्राफी थी। जिसमें उन्होंने बड़ी ही संजीदगी से तकसीम के मंज़र को भोगा और जीया हुआ यथार्थ लिखा था।
लेकिन अच्छा लगा उनके हाथ में भी एक किताब थी जो हडसन लेन, कैंप, आदि को आधार बनाकर प्रेम आधारित अंग्रेजी की किताब थी। जब मैंने उसे उलट पुलट कर देखा तो बड़ी घोर निराशा हुई। किस प्रकार नवोदित लेखक ने प्रेम और दोस्ती को इन जगहों पर फैला कर बीच बीच में सेक्स का छौंक मार कर लिखा था।
जो भी हो। मैंने तो यही पाया है कि जब भी आप अच्छी किताब पढ़ते हैं तो न केवल आपको बल्कि कई बार सामने वाले की नज़र भी बदल देती है। दोस्ती तो आपको घलुआ में मिल जाया करती है।
अच्छी किताबें और अच्छे दोस्त इस भीड़ में बहुत मुश्किल से मिला करते हैं। उन्हें बचा कर रखना भी ज़रा कठिन होता है। लेकिन चाह लें तो दोनों ही चीजें बचाई जा सकती हैं।

Tuesday, February 13, 2018

प्रेम पहला या दूसरा



कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रेम पहली दफ़ा या दूसरी बार। लेकिन कहते हैं कि प्रेम तो प्रेम होता है। वह न पहला होता है और न दूसरा या फिर आख़िरी। करने वाला प्रेम किस मनसा से कर रहा है। यह भी काफी कुछ तय करता है कि प्रेम का स्वरूप और बारंबारता क्या होगी।
कभी इन पंक्तियों के लेखक से बात करते हुए निर्मल वर्मा जी ने कहा था कि मैंने तो जीवन में दूसरी बार प्यार किया। यह जवाब ज़रा हजम नहीं हुआ। सो आग्रह किया कि कृपया इस वाक्य का खुलासा करें। तब उन्होंने कहा पहली दफ़ा हम अपने मन और चिंतन में प्यार करते हैं। किससे करने वाले हैं। प्रकृति है या मनुष्य। जीव है या जीवन। लेखन है या भ्रमण। दूसरी बार हम सोचे हुए प्यार को एक्जीक्यूट किया करते हैं। तो इस तरह से हम कभी भी पहली बार प्यार नहीं करते।
आज देखें तो व्यक्ति जीवन भर प्यार के लिए तड़पता रहता है। लेकिन सच्चे प्रेम की तलाश में जीवन और जगत रीत जाता है। दरअसल सच्चा और झूठा प्रेम का तय कौन करे। मसला यह भी है। जो हमारे समाज में अश्लील है। वह संभव है दूसरे समाज में एक सामान्य और सहज व्यवहार माना जाए। इसलिए यह तय करना ज़रा मुश्किल है कि कौन सा प्रेम और कौन सी प्रेमाभिव्यक्ति सहज और कौन सी अस्वीकार्य।
समाज और और समय बदलते ही मान्यताएं भी बदल जाती हैं। यह इतनी तेजी से घटित होता है कि हम खुद को संभाल भी नहीं पाते। दो से तीन घंटे में या फिर रातों रात हम वैश्विक नागरिक हो जाते हैं। हमारे खान पान, रहने सहन, पहनावा आदि सबकुछ बदल जाता है। जहां हम भारत में पूरे तन के कपड़े पहने होते हैं और जैसे ही एयरपोर्ट पर उतरते हैं वैसे ही कपड़े कम और कमतर होते जाते हैं। यह देखे बगैर कि जो कपड़ा पहन रहे हैं क्या हमारी बॉडी उसमें अट भी रही है या नहीं। क्योंकि वहां की दुनिया वही पहन रही है इसलिए हमें भी पहनना है। ठीक वैसे ही प्रेम का मसला भी है।
क्योंकि किसी देश व समाज में प्रेम बंधन नहीं है। वस्त्र किसी के चरित्र प्रमाण पत्र नहीं है। वहां हम अपनी सोच और चिंतन छोड़ वहीं की संस्कृति अपनाने लगते हैं। हालांकि इसमें किसी को कोई एतराज़ भी नहीं होगा कि वैश्विक संस्कृति और नागरिकता हमें विश्व बंधुत्व की ओर ले जाती है। ऐसे में दूसरे की संस्कृति भी स्वीकार करने और मान्यता देने का माद््दा हो।

Monday, February 12, 2018

छुपाने को क्या है?


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारे शरीर में छुपाने को क्या है? शायद जैन धर्म के दिगंबर संप्रदाय की मूल स्थापना ही यही है। इस शरीर में कोई भी और कोई भी अंग ढकने छुपाने के लिए नहीं है। लेकिन हम ही हैं कि शरीर के ख़ास अंग को ढक कर रखते हैं। मनोविज्ञान बताता है कि परहेज करने वाली चीजों व मनाही वाली चीजों की ओर हमारा ध्यान ज़्यादा जाया करता है।
अजंता एलोरा, खजुराहो की मूर्तियां इस दर्शन मजबूती प्रदान करती हैं कि नग्नता व निवस्त्र हमेशा अश्लील नहीं होता बल्कि अश्लीलता और श्लीलता देखने वालों की नज़रों में होती हैं। यही कारण है कि सदियों से खजुराहों की मूर्तियां हमारी संस्कृति का हिस्सा रही हैं।
यदि इंडोनेशिया, थाईलैंड आदि जगहों पर जाएं तो वहां काष्ठ-लिंग सरेआम बाजार में मिला करती हैं। शायद वहां उन संस्कृतियों में यह त्याज्य नहीं, अश्लील नहीं बल्कि सामान्य वस्तु के रूप में देखने और स्वीकारने का आग्रह हो। वैसे भारतीय संस्कृति में शिवलिंग की स्थापना और उसका पूजन तो श्रेयस्कर माना गया है। यदि लिंग में कुछ भी छुपाने का होता तो उसकी पूजा न होती।
समाज में समरसता और उच्छृंखलता न व्याप्त हो जाए इसलिए वस्त्रों और ख़ास अंगों को छुपाने और ढकने का चलन व्यवहार में आया हो। वरना हमारे आस पास जीवन जंतु, पशु पक्षी सब के सब दिगंबर अवस्था में ही रहा करते हैं। लेकिन शायद इसलिए भी मनुष्य और पशु में अंतर बताते हुए हमें बताया गया है कि मनुष्य महज मैथुन,भोजन और जीवन नहीं जीया करता बल्कि एक मकसद के लिए जिं़दा रहता है। वह सिर्फ मैथुन नहीं करता बल्कि मानव और समाज कल्याण के लिए परिवार विस्तार के लिए मैथुन कार्य में रत होता है।
ओशा ने अपनी किताब सम्भोग से समाधी में लिखा है कि यदि साधक की जंघा पर नग्न स्त्री बैठ जाए और व्यक्ति विचलित न हो। तब समझना चाहिए वह साधना के लिए तैयार है। वैसे यह कठिन है किन्तु जतो सच्चे साधन होते हैं उन्हें अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण करना आ चुका होता है। उनके लिए क्या वस्त्र और क्या निर्वस्त्रावस्थ्या। सब समान होता है।
 

Friday, February 2, 2018

जब बात हो कहना तो...



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहने को हम दिन भर कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं। लेकिन कभी नहीं सोचा क्या वह सुन रहा है या फिर सिर्फ नज़रें ही हमारे पास हैं। कान तो उसके कुछ और ही सुन रहे होते हैं। आज की तारीख़ी हक़ीकत यही है कि हमें सुनना ही नहीं आता। बल्कि कहना तो यह चाहिए कि हम सुनना ही नहीं चाहते। या फिर हमें कहना नहीं आता। हमें तो यह भी समझना होगा कि क्या हम वास्तव में सुनना चाहते हैं? क्या हमारे पास सुनने की कला या दक्षता जिसे आज कल स्कील कहा करते हैं, हैं? यदि नहीं तो हमें सोचने की आवश्यकता है।
यदि बड़े नहीं सुनते या बच्चे नहीं सुनते तो उसके पीछे कई वज़हें हुआ करती हैं। मसलन कंटेंट की डिलिवरी ठीक नहीं है। केंटेंट का चुनाव ठीक नहीं है। या फिर कहने की शैली प्रभावशाली नहीं है। सुनने का बाह्य एवं अंतर वातावरण नहीं है आदि।
यदि मेरा मनोजगत् अस्थिर है तो शायद मैं अच्छ से अच्छे कंटेंट का सुनना चाह कर भी न सुन सकूं। कहने वाले की शैली भी बेहतरीन है किन्तु मैं सुन नहीं पा रहा हूं। वक़्ता को श्रोता के बहुआयामी घटकों को समझते हुए अपने कंटेंट के चुनाव और डिलिवरी करनी पड़ती है तब कोई श्रोता सुनने में दिलचस्पी ले सकता है।
अक्सर हमारी शिकायत होती है कि फलां सुनता नहीं। सुन नहीं रहा हैआदि। जबकि हम इसके पीछे के मनोविज्ञान को नहीं समझ पाते कि क्योंकर वह सुनने में रूचि नहीं ले रहा है।आज सुनाने वाले हज़ारों हैं।विभिन्न माध्यमों से हमें सुनाना चाहते हैं बल्कि सुना रहे हैं।लेकिन हम जिसे और जितना सुनना चाहते हैंउतना ही सुनते हैं।घर से लेकर स्कूल तक। कॉलेज से लेकर विश्वविद्याल तक। आफिस से लेकर दोस्तों तक सभी लगातार सुनाने में लगे हैं।पिता की चिंता हैकि उनका बच्चा उनका नहीं सुनता। बच्चों की चिंता कि मां-बाप उनकी नहीं सुनते। शिक्षक का मसला कि छात्र नहीं सुनते आदि। यही हाल आफिस में किसी की कोई नहीं सुनता।
नहीं सुनने और कहने बीच एक बरीक सी लाइन होती है।उसे यदि हमने हल कर ली तो मज़ाल हैकि आप कहें तो सामने वाला न सुने।सुनाने वाले के पास वह समझ और कौशल होनी चाहिए कि श्रोता की मनोदशा और बाह्य परिवेश को समझते हुए सुनाए।
हम फिल्मों से लेकर आूम जिं़दगी में ऐसे लोगों की ज़रूर सुनते हैंजिससे हमारी रोज़ मर्रे की जिं़दगी प्रभावित होती हो। जिससे हमें कुछ सीख पाते हैं।वह चाहे खेल खेल में या फिर डॉयलग में सुना जाए। ज़रूरत इस बात की हैकि कहने वाला कितनी शिद्दत से कह रहा हैऔर अपने कंटेंट के साथ किस प्रकार न्याय कर पाता है।

Thursday, February 1, 2018

किससे मिलूं, बात किससे करूं



कौशलेंद्र प्रपन्न
किससे मिलें और किससे बात करूं यह तो हमारी अपनी इच्छा और पसंदगी और नापसंदगी पर निर्भर करता है। इसे कोई और तय नहीं कर सकता। हालांकि कई मर्तबा कोई और तय करने लगता है कि हमें किससे और कितना मिलना है। किससे बात करनी है आदि।
कम से कम हम सब इस बात में आज़ाद हैं कि हमें किससे वास्ता रखना है और किस हद तक किससे मिलना है। यह कोई और नहीं तय कर सकता। लेकिन अफ्सोस कि कई बार यह भी कोई और निर्धारित करने लगता है। कई बार दोस्त, कभी रिश्तेदार आदि। हम बिना जांचें परखें अपनी इच्छा और पसंदगी को मचांन पर रख देते हैं।
मुझे याद आता है हमारे मुहल्ले में एक परिवार रहा करता था। उसे परिवार के यहां कोई मिलने जुलने नहीं जाता था। क्या होली और क्या दशहरा। क्या न्योता क्या पेहानी। सब कुछ बड़ों ने तय कर दिया था।
उस घर में तीन बेटियां और दो बेटे रहा करते थे। बेटियां काबिल और स्कूल जाया करतीं जैसे और लड़कियां जाती थीं। बेटा स्कूल के बाद कॉलेज गया और जॉब करने की उम्र में उसने भी मेहनत की और आज रेलवे में लगा हुआ है। लेकिन उस परिवार से मिलना जुलना न रहा। यह तय किसने किया। एक परिवार ने या कि एक ख़ास मानसिकता ने।
सुना है। उस घर की मालकिन जो तीन बेटियों और एक बेटे की मां थी। पिछले साल अपने ही घर में मृत पाई गई। लोगों को तब पता चला जब घर में से बदबू आने लगी। यह तय करने वाले कौन होते हैं कि किनसे मिला जाए और किनसे मुझे बात करनी है।
यह चुनाव हमारा होता है कि हम किनसे और किनसे नहीं मिलेंगे और किनसे जीवन में साबका रखना है। दोस्तों के चुनाव में सावधानी ज़रूर रखनी चाहिए। कई बार यही दोस्त हमें सच्चे और स्पष्ट छवि देखने में बाधा भी बनते हैं।
जिससे बात करने, मिलने में मुझे या आपको खुशी मिलती हो तो क्यां न मिलें। क्यों न बात करें। क्या इसलिए बात करना बंद कर दें। या फिर मिलना छोड़ दें कि फलां ने ताकीद का था कि वह अच्छा नहीं है। मुझे देख सुन लेनें दें। बाकी आपके हिस्से का सच और छांव हैं। किस पेड़ को चुनते हैं?

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...