Saturday, February 28, 2009

तो क्या निराश हुआ जाए

तो क्या यह सोचते हैं की हालत ख़राब हो तो निराश हो कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाने से कश्ती पार लग जायेगी।
बिल्कुल नही प्रयाश तो करना ही होगा वरना बाद में यह मलाल रह जाएगा की कोशिश की होती तो आज सूरते हाल कुछ और होता।
ज़नाब अन्दर की दुनिया को दुरुस्त रखा तभी जा सकता है जब आप मान और सम्मान के प्रभावों से कुछ खास समाये में ख़ुद को अलग रख सकें।
पर यह कहना आसन है निभना मुस्किल।
पर अगर थान लिया जाए तो क्या मुशिकिल।
चलिए हार के बाद ही जीत आती है अगर विश्वाश डोलने लगे तो इक बार अपने सपने को खोल कर देख लेना चाहिए इससे उर्जा मिलती हुई लगती है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...