Saturday, February 28, 2009

मस्जिद के पिछवाडे आकर॥

ईटों की दीवार से लगकर,

पथराए कानो पे,

अपने होठ लगाकर,

इक बूढे अल्लाह का मातम करती हैं,

जो अपने आदम की सारी नस्लें उनकी कोख में रखकर,

गुलजार की लाइन बात रहा हूँ इन में ज़ज्बात सोती है।

तो क्या निराश हुआ जाए

तो क्या यह सोचते हैं की हालत ख़राब हो तो निराश हो कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाने से कश्ती पार लग जायेगी।
बिल्कुल नही प्रयाश तो करना ही होगा वरना बाद में यह मलाल रह जाएगा की कोशिश की होती तो आज सूरते हाल कुछ और होता।
ज़नाब अन्दर की दुनिया को दुरुस्त रखा तभी जा सकता है जब आप मान और सम्मान के प्रभावों से कुछ खास समाये में ख़ुद को अलग रख सकें।
पर यह कहना आसन है निभना मुस्किल।
पर अगर थान लिया जाए तो क्या मुशिकिल।
चलिए हार के बाद ही जीत आती है अगर विश्वाश डोलने लगे तो इक बार अपने सपने को खोल कर देख लेना चाहिए इससे उर्जा मिलती हुई लगती है।

Thursday, February 26, 2009

मन्दिर के बहने

मन्दिर कब कहाँ कैसे तैयार होजये आप तै नही कर सकते। उसपर तर्क यह देना की हिंदू हो कर येसी बात करते हो जब मस्जिद बन सकता है, गुरूद्वारे तैयार हो सकते हैं तो मन्दिर बनने में रोड़ा कैसे कोई अटका सकता। दरसल हमारे देश में धर्म के नाम पर संपत्ति, पैसे यूँ ही बर्बाद किया जाता है।
अगर मंदिरों में चादावे पर नज़र डालें तो आखें फटी रह जाएँगी। तिरुपति मन्दिर में सालाना कोरोड़ से भी जयादा कमी होती है। इस साल जनवरी में साईं बाबा में मन्दिर में इतना चदवा आया की वह तिरुपति को पीछे धकेल दिया जाएगा




Friday, February 20, 2009

सपने क्या यूँ ही टुटा कर्तवे हैं

सपने तो यूँ ही आखों में आ आ कर बिखर जाया करते हैं, तो क्या सपने देखना हम छोड़ दे नही बिल्कुल नही।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...