Sunday, June 16, 2013

पिता मेरे गुरु भी रहे
स्कूल में मेरे पिता क्लास टीचर भी थे। उन्होंने एक अध्यापक और पिता दोनों की भूमिका एक साथ निभाई। क्लास में पिटाई भी खाया और घर पर भी। घर से स्कूल के दरमियान रास्ते भर मुझे वाक्य संरचना, शब्दों और भाषा की दुनिया से परिचय कराते चलते।
भाषा के प्रति रूझान, साहित्य एवं जीवन दर्शन से रू ब रू कराया। उनसे सीखने को बहुत था मगर काफी कुछ छूट गया। जब मैं छोटा था तब अक्सर वो कहा करते थे, मेरी लंगोटी पर तो मेरे बच्चों का अधिकार है लेकिन मेरी ज्ञान संपदा पर नहीं। कितना मुझ से ले सकते हैं, यह उनकी क्षमता पर निर्भर करता है।
पिताजी से भाषा की शुद्धता, जीवन दर्शन और पढ़ाई की महत्ता की तालीम मिली। कई बार उनकी कविता को गुनगुनाते हुए पिताजी को याद कर लिया करता हूं। जब कभी उन्हीं की कविता जो उन्हें अब याद नहीं, गा कर सुनाता हूं तो अंदर तक गदगद हो जाते हैं। उनकी खुशी देख मन आनंदित हो जाता है।  

Wednesday, June 12, 2013

मार्केट @11
नाम बेशक अलग मिल सकते हैं लेकिन आशय, उद्देश्य एक ही है वो यह कि कम दाम में सब्जियां मिल जाएं। जाते जाते दुकानदार अपनी सब्जियां कम दामों में बेच कर घर जाना चाहता है और इसी का फायदा ख़रीद्दार उठाता है।
दिल्ली में विभिन्न इलाकों में अलग-अलग दिन के नाम पर ही बाजार के नाम है। मसलन सोम बाजार, वीर बाजार, रवि बाजार, शुक्र बजार आदि। हर हप्ते के नाम पर बाजार। दिल्ली के बाहर भी ऐसे बाजारों को देख सकते हैं।
हरिद्वार में पीठ नाम है ऐसे बाजारों का। कहीं हाट तो कहीं मीना बाजार। हर बाजार में भीड़ वही, दुकानदारों के साथ मोल भाव करते ग्राहक और ताम-झाम।
दिल्ली में अमूमन अब लोग ऐसे बाजार में रात 11 बजे ज्यादा जाना पसंद करते हैं। क्योंकि इस समय दुकानदार अपनी दुकान बढ़ाकर घर जाना चाहता है। तो जाहिर है जैसे-तैसे सामानांे को बेच कर फारिक होना चाहता है। और इसी का फायदा उठाने वाले रात 11 बजे के आस पास बाजार आया करते हैं। हालत यह होती है कि इस समय भीड़ टकरा रही होती हैं।

Thursday, June 6, 2013

जि़या के ग़म में 12 साला लड़का भी उसी के राह पर
कौन कहता है कि बच्चों में संवेदना नहीं होती। बच्चे खाली स्लेट होते हैं। जो चाहो लिख दो। पढ़ा दो। जि़या ख़ान की आत्महत्या की घटना से हताहत एक 12 वर्षीय बच्चा जो 5 वीं कक्षा में पढ़ता था उसने आत्महत्या कर ली। यह घटना राजस्थान की है।
एक कहानी हरिसुमन विष्ट जी की है जिसमें जो जिक्र करते हैं कि किस तरह विज्ञापनों के होडिंग्स बच्चों के लिए मौत के रास्ते बन कर आते हैं। सच भी है विज्ञापनों, फिल्मी चक्कर में तो अच्छे-अच्छे दिमागदार लोग पड़ जाते हैं तो वह तो महज 12 साला बच्चा ठहरा।
क्या उसे जि़या से प्रेम था? क्या वह उससे शादी करना चाहता था? क्या वह जि़या को सपने में रोज देखा करता था? ये सवाल अब तो उसी के संग चले गए। तमाम सवाल अनुत्तरित। लेकिन हम नागर समाज के सामने वह बच्चा एक बड़ा सवाल जरूर छोड़ गया कि हम नागर समाज में बच्चे किस तरह पल-बढ़ रहे हैं। पर्दे की दुनिया और हकीकत की दुनिया में हम बुनियादी अंतर समझा पाने में कहीं न कहीं विफल हो रहे हैं।

Wednesday, June 5, 2013

पढ़ाने की छटपटाहट

-कौशलेद्र प्रपन्न
शिक्षक जाति में सभी निराश एवं हताश ही हैं ऐसा कहना एक तरह से शिक्षकीय प्रजाति के साथ सरलीकरण होगा और ग़लत भी। यह तो हर व्यवसाय में होता है। सभी अपने धंधे से संतुष्ट हों ऐसा न तो संभव है और न ही हकीकत ही। असंतोष की भावना हर व्यवसाय में देखी जाती है। लेकिन उन्हीं के बीच कुछ फीसदी ऐसे भी कर्मी होते हैं जिन्हें अपने व्यवसाय की निष्ठा, जिम्मेदारी का भरपूर ख़्याल रहता है। लेकिन अनुभव बताते हैं कि उदास मना शिक्षकों की संख्या ज्यादा है। अध्यापक वर्ग की निराशा के पीछे कई बार गैर शैक्षणिक कार्यों, नीतिगत एकरूपता एवं व्यावहारिक न होना भी पाया जाता है। यह कहना उचित नहीं होगा कि पूरा का पूरा शिक्षक समुदाय निराश एवं अरूचि के शिकार हो चुके हैं। इन दिनों छुट्टियों में दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग ‘इन सर्विस’ प्रशिक्षण कार्यशालाएं आयोजित कर रही हैं। इन कार्यशालाओं में जीवन कौशल, संप्रेषणीयता, पाठ्यक्रम, सुरूचिपूर्ण कक्षा अध्यापन, सृजनात्मक लेखन, शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 आदि पर विशेष प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इसके पीछे उद्देश्य यही है कि अध्यापक/अध्यापिकाएं अपनी दक्षता में वृद्धि कर सकें और स्कूल खुलने पर कक्षा में इस्तेमाल कर सकें। इसका लाभ सीधे-सीधे बच्चों को मिल सके। इन पंक्तियों के लेखक को इस कार्यशाला में शिक्षा का अधिकार अधिनियम, जीवन कौशल और सृजनात्मक लेखन पर बातचीत करने का अवसर मिला। तकरीबन 2000 से भी अधिक अध्यापक/अध्यापिकाओं से रू ब रू होने के बाद जो हकीकत सामने आई वह यह कि अध्यापक वर्ग बेहद निराश एवं उदास हैं। उनकी उदासी, निराशा का कारण प्रशासनिक एवं नीतिगत स्तर पर थीं। मसलन शिक्षा के अधिकार अधिनियम बनाते वक्त अध्यापकों की राय क्यों नहीं ली गई। नीति-निर्माताओं को भी कभी कक्षा में पढ़ाने आना चाहिए ताकि वो देख सकें कि कैसे  एक कक्षा में 60, 80 से भी ज्यादा बच्चों को एक अध्यापक पढ़ाता है व पढ़ा सकता है।
इस तरह की शिकायतें, रोष, असंतोष से तकरीबन हर क्लास में दो चार होना पड़ा। लेकिन इन्हीं निराशाओं के बीच कुछ ऐसे अध्यापक/अध्यापिकाएं भी मिलीं जिन्हें कक्षा में न पढ़ा पाने का मलाल भी साल रहा था। उनका कहना था मैं पढ़ाना चाहती हूं। लेकिन पिछले एक साल से क़ागजी कामों में उलझी हुई हूं। कई बार लगता है आई तो पढ़ाने थी, लेकिन यह क्या कर रही हूं। वहीं एक मास्टर जी ने भी अपनी व्यथा बयां की कि मैं कक्षा में पढ़ाने डूब जाता हूं। बच्चे आनंद लेकर पढ़ाता हूं। लेकिन अक्सर हेटमास्टर साहब की बुलालट आ जाती है और मेरा अध्यापन बीच में ही ठहर जाता है।
संवाद के दौरान एक पूर्व कथित वाक्य ‘तो क्या निराश हुआ जाए’ का सहारा लिया और कोशिश की कि बात सकारात्मक राह पर आ जाए। इस वाक्य को सुन कर तकरीबन बीस एक अध्यापकों ने एक स्वर में कहा, नहीं। निराश होने की आवश्यकता नहीं। हां यही वाक्य उस वक्त सहारा बना जब कक्षा में संवाद कर रहा था। उनके सवाल, उनकी चिंता, उनकी खीझ, उनकी बेचैनी को सुनते वक्त कुछ पल के लिए लगा मैंने उनके दुखते रगों पर हाथ धर दिया। उनकी पीर थोड़ी और दर्दीली हो गई। लेकिन अपनी पीड़ा कह चुकने के बाद सभी बड़े खुश और राहत महसूस रहे थे। बल्कि एक महिला ने कहा भी कि आपसे अपना दर्द साझा कर बहुत अच्छा लग रहा है। वरना हमारी बात सुनता ही कौन है। दो दो घंटे के सत्र में कई बार ऐसा भी वक्त आया जब मैंने ख़ुद को असहाय अनुभव किया। क्योंकि कई बार उनकी बात सोलहो आने सच थीं, मगर मैं भी कुछ दिलासों, राहत एवं उम्मीद की रोशनी बांटने के सिवा कुछ और नहीं कर सकता था। सच मायने में यदि यह वर्ग निराश या हताश है तो इसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। क्योंकि इन्हीं के कंधों पर हमारे बच्चे बैठे हैं। ये जैसी दुनिया दिखाएंगे बच्चे संभवतः वैसी ही दुनिया देखेंगे। सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करती है लेकिन हमारा अधिकांश वक्त कागजी कामों को अंजाम देने में बीत जाता है आदि।
अध्यापकों के बीच इस तरह की निराशा के माहौल को हमें सहजता से नहीं लेनी चाहिए। क्योंकि यदि अध्यापक वर्ग इतना निराश एवं हताश होगा तो इसका प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष असर बच्चों पर पड़ेगा इससे इंकार नहीं कर सकते। यूं तो बतौर दस्तावेज आरटीई एक्ट 2009 बेहद संभावनाओं को संजोए हुए है, लेकिन जमीनी हकीकत पर यह फेल होती दिखाई दे रही है। एक ओर बेहतर स्कूली ढ़ांचा, पेयजल, बच्चों के नामांकन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की सिफारिश करता है वहीं सरकारी स्कूलों में इन मापदंड़ों पर अधिकांश फिसलन दिखाई दे रही है। जहां तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करें तो गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से जारी रिपोर्ट दूसरी ही तस्वीर पेश करते हैं। इस तस्वीर में कक्षा 6,7 में पढ़ने वाला बच्चा कक्षा 1 ली के जोड़ घटाव, लिखित वाक्य पढ़ने में असमर्थ हैं। इसके पीछे अध्यापक वर्ग का अपना तर्क है कि जब से किसी भी बच्चे को फेल नहीं कर सकते। कक्षा 8 वीं तक हर बच्चे को अगली कक्षा में भेजना ही है, किसी भी बच्चे का नाम नहीं काट सकते आदि कुछ ऐसे पहलू हैं जहां बच्चों में पढ़ने की ललक और उत्साह कम ही हुआ है। तर्क तो यह भी दिए जा रहे हैं कि मां-बाप कई बार खुद अनुरोध करते हैं कि बच्चे को वर्तमान कक्षा में ही रोक लो। क्योंकि इसे अभी इस स्तर की तालीम ही नहीं मिली है कि वो अगली कक्षा में जाए। लेकिन अध्यापकों का मानना है कि वो नियमतः मजबूर हैं। किसी भी बच्चे को कक्षा में नहीं रोक सकते। लेकिन इन्हीं कक्षाओं में पढ़ाने की लालसा छटपटाते शिक्षक/शिक्षिकाएं भी मिलीं जिससे महसूस हुआ कि उम्मीद की रोशनी और सांस लेने की छटपटाहट अभी इनमें शेष है। इसीलिए जि़ंदा हैं। जब तक ऐसे अध्यापक समाज में हैं तब तक उम्मीद पूरी तरह से ख़त्म नहीं मानी जा सकती।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...