Tuesday, November 13, 2012

इस बरस भी देवता घर उदास
तुलसी गई सूख,
जोरने वाला नहीं कोई दीया,
मेरे घर के देवता घर में लगा है ताला। 
इस बरस किसी ने नहीं बनाया घरौंदा,
चुक्के में लाई खील बतासेनहीं भरे,
खाली है घर,
घर का छत सूना,
कभी छोड़ा करते थे पटाखे,
शोर पर नाराज होते थे पिता,
अब खामोश हैं पिता दूसरे शहर में।
इस बरस घर उदास है और मन सूना,
पर क्या करें,
रेल गाडि़यां तो बढ़ीं बेतहाशा मेरे भी शहर के लिए,
पर अपने शहर से दूर नहीं रह पाने की छटपटाहट है,
अच्छे हैं वे दोस्त वे संगी साथी जो हैं अपने ही शहर में,
इस बरस भी घर सूना है
देवता घर उदास।

Friday, October 26, 2012


 हाशिए पर बिलबिलाते और बाल अधिकार से वंचित बच्चे
-कौशलेंद्र प्रपन्न
सड़क पर एक बच्चा नाक पोछते हुए सूखी नजरों से बड़ों को बड़ी उम्मींद से देखता है। देखता है कि उसे कुछ पैसे दे दें या रोटी खिला दें। ऐसे में उस बच्चे को दुत्कार मिलती है। उपेक्षा मिलता है। चोर-लफाड़े, और न जाने किस किस तरह के विशेषणों से नवाजे जाते हैं। ये वो बच्चे हैं जिनका घर यदि घर की संज्ञा दी जा सकती है तो, फ्लाई ओवर, रेलवे स्टेशन, बस अड़्डे, सड़क के किनारे, पार्क आदि हुआ करता है। ऐसे लाखों बच्चे देश भर में कहीं भी कभी भी चलते-फिरते नजर आते हैं। हम वयस्क जो उन्हें हिकारत की नजर से देखते हैं दरअसल यह हमारे विकास के गाल पर तमाचा से कम नहीं है। इन्हीं बच्चों में से खासकर लड़कियों को कहां तक शोषण का शिकार होना पड़ता है इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। लड़कियां तो लड़कियां लड़के भी शारीरिक और मानसिक शोषण के शिकार होते हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि इनकी फरियाद कहीं नहीं सुनी जाती। ऐसे ही बच्चे रोज तकरीबन 100 की तदाद में हमारे बीच से लापता हो जाते हैं लेकिन उन्हें तलाशने की पुरजोर कोशिश तक नहीं होती। एक अनुमान के अनुसार देश से 55,000 बच्चे गायब हो जाते हैं लेकिन सरकार को मामूल तक नहीं पड़ता कि आखिर इतने सारे बच्चे कहां गए। सरकार की नींद तब खुलती है जब न्यायपालिका आंख में अंगूली डाल कहती है, देखो इतने सारे बच्चे गायब है पता करो कहां गए? किस हालत में हैं। तब सरकार की नींद जबरन खुलती है। गायब होने वाले बच्चों के पारिवारिक पृष्ठभूमि भी खासे अहम भूमिका निभाता है उन्हें पता लगाने में। गुम होने वाले बच्चे यदि गरीब तबके के हुए तो संभव है ताउम्र उनके मां-बाप, अभिभावक बच्चे के लिए तड़पते मर जाएं। लेकिन वहीं अमीर घर के बच्चे हुए तो उस बच्चे को ढूंढ़ निकालने के लिए पूरी प्रशासनिक तंत्र लगा दिया जाता है। लोकतंत्र के चार स्तम्भ माने गए हैं। एक न्यायपालिका और दूसरा जिसे चैथा स्तम्भ भी कहते हैं, मीडिया को शामिल किया जाता है। न्यायपालिका समाज में घटने वाली ऐसी घटनाओं जिससे आम जनता की सांवैधिनिक अधिकारांे का हनन होता हो तो वह खुद संज्ञान लेते हुए कदम उठा सकती है। मीडिया भी समाज के अंदर की हलचलों को करवटों को अपनी नजर से देखता पकड़ता और समाज के व्यापक फलक पर परोसता है ताकि नीति नियंताओं, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि उस मुद्दे को गंभीरता से लें और समुचित कार्यवाई करें।हाल सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र एवं राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि राज्यों से गायब होने वाले बच्चों के बारे में पता करें एवं कोर्ट को इस बाबत सुचित करें। गौरतलब है कि कोर्ट ने देश से 55,000 हजार बच्चों के गायब होने के मामले पर संज्ञान लेते हुए केंद्र एवं राज्य दोनों ही सरकारों को आदेश जारी किया।
बच्चों का हमारे समाज,देश से इतनी बड़ी संख्या में लापता होना एक गंभीर मामला है। बच्चे रातों रात शहर के भूगोल और सरकारी एवं प्रशासनिक तंत्र के नेटवर्क से गायब हो जाते हैं। मगर गुम हुए बच्चों की खबर कहीं नहीं लगती। गुम हुए बच्चों में से कितने बच्चों को खोज लिया गया इसका भी कोई ठोस जानकारी न के बराबर उपलब्ध है। दिल्ली में बीते सात महिनों में तकरीबन 935 बच्चे शहर से गायब हो गए। हमारे नवनिहाल हमारी चिंता के विषय न बनें तो यह एक गंभीर मसला है। गौरतलब है  कि काॅमन वेल्थ गेम से पहले दिल्ली से 2000 से भी ज्यादा बच्चे गायब हुए थे। हमारे आप-पास से इतनी संख्या में बच्चे गायब होकर आखिर कहां जाते हैं? यदि 2006 में गायब होने वाले लड़के एवं लड़कियों की संख्या की बात करें तो 4118 लड़के गुम हुए थे जिनमें से 3446 बच्चों को खोज लिया गया लेकिन सवाल यह उठता है कि 672 बच्चे आखिर कहां हैं? लड़कियों की संख्या पर नजर डालें तो 2910 लड़कियां गुम हुई थीं जिनमें से 2196 लड़कियों को ढूंढ लिया गया, लेकिन फिर सवाल यहां पैदा होता है कि 714 लड़कियों के साथ क्या हुआ। क्या उन्हें देह व्यापार में धकेल दिया गया? उनकी हत्या कर दी गई? या फिर बाल मजदूरी में डाल दिया गया? क्या हुआ उन न मिले बच्चों के साथ। यह सवाल आज भी मुंह खोलकर खड़ा है। गौरतलब है कि हमारे देश में हर साल तकरीबन 44,475 बच्चे हर साल लापता होते हैं। जिनमें से 11,000 बच्चों के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिल पाती। वहीं दूसरी ओर गृहमंत्रालय ने स्वीकार किया कि 2008-10 के बीच देश के 392 जिलों से 1,17000 बच्चे गायब हुए थे। यदि गायब होने वाले बच्चों की लिंग की दृष्टि से देखें तो लड़कियों की संख्या ज्यादा है। यहां एक बात स्पष्ट है कि लड़कियों की गुमशुदगी के पीछे कई निहितार्थ होते हैं।
देश के नीति-निर्माताओं एवं नीति-नियंताओं ने बच्चों के अधिकार को लेकर अपनी संजीदगी दिखाई थी जिसका परिणाम यह हुआ कि 1974 में राष्टीय बाल नीति निर्माण करने की पहलकदमी हुई। लेकिन यह कदम सुस्त पड़कर रूक गया। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय एक बार फिर से कमर कसकर राष्टीय बाल नीति बनाने के लिए तैयार है। गौरतलब है कि 22 अगस्त 1974 को सरकार को लगा था कि देश को एक अलग और मुकम्मल बाल नीति की आवश्यकता है। लेकिन अगर, मगर, किंतु व तात्कालिक पचोखम में उलझ कर यह प्राथमिकता ठंढ़े बस्ते में डाल दिया गया था। अगस्त में  महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने ज्ञापन दिया था कि इस नीति निर्माण में यदि आम जनता को कोई सुझाव देना है तो वो फलां फलां ई मेल एवं डाक पते पर भेज सकते हैं। पहली नजर में यह लोकतांत्रित प्रक्रिया दिखाई देती है। लेकिन दरअसल ‘होईहैं वही जो राम रचि रखा’ यानी सरकार जिस मनसा के साथ इस नीति को लेकर आ रही है परिणाम इस पर काफी निर्भर करता है। यदि मंत्रालय के वेब साईट पर उपलब्ध डाफ्ट पेपर से गुजरें तो पाएंगे कि इसमें जवाबदेही पूरी तरह से राज्य सरकार के मत्थे थोप कर केंद्र सरकार अलग खड़ी नजर आती है। इस पूरे प्रपत्र के अवलोकन के बाद यह साफ हो जाता है कि इस नीति में यह प्रावधान का कहीं एक पंक्ति में भी जिक्र नहीं है कि यदि इस नीति का उल्लंघन किसी स्तर पर हो रहा है तो ऐसे में किस के प्रति कार्यवाई होगी। वह कार्यवाई करने का अधिकार किसका होगा। क्योंकि इस नीति में कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं है कि किस विभाग, अधिकारी को न्यायिक अधिकार प्राप्त होगा।
इस डाफ्ट के प्रेम्बल्स में वही सारे वायदे,घोषणाएं एवं वचनों को शामिल किए गए हैं जो 1989 में संयुक्त राष्ट बाल अधिकार की सार्वभौमिक घोषणा में स्वीकार की गई थी। 1989 इस यूएनसीआरसी की घोषणा के अनुसार बच्चों को निम्न चार अधिकार दिए गए हैं- जीवन का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, विकास का अधिकार और सहभागिता का अधिकार। आज जब बाल नीति निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई है तो उन्हीं वचनों को दुहराया गया है। इस प्रपत्र पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि वो तमाम आदर्शपरक परिस्थितियों, अधिकारों, व्यवहारों को दुहराया गया है जिसकी ओर हमारा संविधान नजर खींचता है। मसलन बच्चों को बिना किसी भेदभाव के गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा, सुरक्षा, भोजन, व्यक्तित्व विकास, संवेदनात्मक,संवेगात्मक,मानसिक विकास के माहौल मुहैया कराया जाएगा। इसमें राज्य सरकार किसी भी बच्चे/बच्चियों को वंचित नहीं रखेगा। राज्य सरकार यह भी सुनिश्चित करेगी कि उनके क्षेत्र में किसी भी बच्चे के साथ किसी भी किस्म के भेदभाव ;जाति,वर्ग,वर्ण,धर्म,संप्रदाय,भाषा-बोली,संस्कृति आदि के आधार परद्ध नहीं हो रहा है। सभी बच्चों को शिक्षा, विकास, सुरक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाएं मिलें इसके लिए राज्य सरकार का पूरी तरह से जिम्मेदार ठकराया गया है।
भारत में बच्चों को लेकर सरकार पहले भी संजीदा हुई है जिसके पदचाप हमें दिखाई देते हैं लेकिन वे महज पदचाप ही बन कर रह गए। यूं तो बच्चों के देह व्यापार रोकने के लिए बने कानून 1956, बाल विवाह निषेध कानून 1929, बाल मजदूरी निषेध कानून 1986, जे.जे. एक्ट 2000, 86 वां संविधान संशोधन 2002 जो हर बच्चे को 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा पाने का हक पर बल देता है। 2009 शिक्षा का अधिकार कानून बना और 1 अप्रैल 2010 को लागू तो हो गया लेकिन अभी भी उसके अपेक्षित परिणाम आने बाकी हैं। इतने तमाम सांवैधानिक अधिकारों के बावजूद बच्चे एवं बच्चियों के साथ जिस तरह की घृणित व्यवहार की घटनाएं देखने- सुनने में आती हैं वह शर्मनाक बात है। विश्व के अधिसंख्य बच्चे उपेक्षा के शिकार होते रहे हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि युद्ध,विस्थापन,पलायन आदि में बच्चे और महिलाएं सबसे अधिक मूल्य चुकाते हैं। बच्चे वो ईकाई हैं जिनपर समस्त देश यह कहते, घोषित करते थकता नहीं कि बच्चे देश के भविष्य हैं। बच्चों के कंधे पर देश एवं समाज का भविष्य आधारित है। अब इस घोषणा की रोशनी में भारत में बच्चों को लेकर उठाए गए कदमांे को परखने की आवश्यकता है।
यह दुर्भाग्य ही कहना होगा कि 2000 तक बच्चों के अधिकार, सुरक्षा को लेकर देश में कोई स्वतंत्र आयोग तक नहीं था। आखिर बच्चों की बात, पीड़ा को कहां उठाया जाता। अंततः सरकार ने राष्टीय बाल आयोग का गठन किया। 2000 आते आते हमारे माननीय सांसदों, नीति निर्माताओं को यह भी ख्याल आया बल्कि कहना चाहिए सरकार को कई स्तरों से इस ओर ध्यान खींचने की कोशिश की गई कि साहब बच्चों के अधिकारों, उनकी समस्याओं,उनके साथ होने वाले अमानीय घटनाओं को सुनने-निवारण करने के लिए संविधान में मौलिक अधिकार के बरक्स एक नई नीति, कानून की आवश्यकता है। तब दोनों ही सदनों ने 2000 में जुबिनाइल जस्टिस एक्ट 2000 ;जे.जे.एक्ट 2000द्ध बनाया गया। जे.जे. एक्ट 2000 विस्तार से बच्चों के अधिकारों और उनके साथ सरकार और प्रशासन के रूख को आईना दिखाता है। इस एक्ट में कहा गया कि यदि पुलिस किसी नाबालिक बच्चे को किसी जुर्म में गिरफ्तार करने जाएगी तो क्या क्या एहतियात बरतने होंगे। एक्ट कहता है कि पुलिस अपनी वर्दी में नहीं जाएगी। बच्चों के साथ पुलिस थाने में पूछताछ नहीं करेगी। सााि ही 24 घंटे के अंदर पुलिस को तथाकथित अपराधी बच्चे को मजिस्टेट के सामने पेश करना होगा आदि। यह अलग विमर्श का विषय है कि वास्तव में पुलिस का रवैया बच्चों के प्रति किस प्रकार का होता है। यदि याद करें तो मध्य प्रदेश में मई के महीने में थाने में ही बच्चे का कान उखाड़ लिया गया था। वहीं अन्य राज्यों में भी बच्चों के साथ पुलिस किस कदर बरताव करती है यह किसी से छूपा नहीं है। इन्हीं बर्तावों को देखते हुए बच्चों को मानवाधिकार के हनन को रोकने के लिए राष्टीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ;एनसीपीसीआरद्धका गठन किया गया।
एक ओर देश के संविधान की धारा 14, 15, 21, 21 ए, 23, 24 और 45 खासकर बच्चों की सुरक्षा, भेदभाव रहित, समान अवसर, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाने और समानता का हक तो देती है लेकिन व्यवहारिकता में देखने में नहीं आता। संविधान के प्रावधानों की रोशनी में देखें तो इस बाल नीति के तानाबाना में एक समतामूलक,समान अवसर, बिना भेदभाव के सभी वर्ग के बच्चों की सुरक्षा,शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की वचनबद्धता दुहराई गई है। अब देखना यह है कि क्या इस नीति से वास्तव में बच्चों की जिंदगी में बदलाव आ पाएंगे।
गौरतलब है कि बच्चे वो दीर्घ कालीन पूंजी निवेश हैं जो 15- 20 साल बाद मैच्योर होते हैं। लेकिन हम इस पूंजी को यूं ही गंवाते रहते हैं। उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा तक मुहैया नहीं कराते। एजूकेशन मिलेनियम डेवलप्मेंट गोल ‘ एमडीजी’ का लक्ष्य एक और दो हर बच्चे को ‘0 से 18 साल’ शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के साथ ही विकास एवं सहभागिता की बात करता है। न केवल बात करता है बल्कि दुनिया के तमाम विकसित एवं विकासशील देशों ने लक्ष्य बनाया था कि 2000 एवं 2015 तक यह लक्ष्य हासिल कर लेंगे। किन्तु अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि अभी भी यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार दो देशों के अन्तर्कलह एवं अपाताकाल की स्थिति में 20 मिलियन बच्चे अपने घर से बेघर हो गए। वहीं हर साल 150 मिलियन लड़कियां एवं 73 मिलियन लड़के दुनिया भर में शारीरिक शोषण एवं बलात्कार के शिकार होते हैं। स्थिति यहीं नहीं थमती बल्कि बच्चों पर होने वाले अत्याचार व कहें शोषण एवं दुव्र्यवहार और भी आगे जाते हैं। वार्षिक आंकड़ों पर नजर डालें तो पाते हैं कि 500 मिलियन एवं 1.5 बिलियन बच्चे किसी न किसी तरह के हिंसा के शिकार होते हैं। घरेलू हिंसा की बात करें तो हरेक साल 275 मिलियन बच्चे इसके चमेट में आते हैं। न्यायालयों सरकारी नीतियों को धत्ता बताते हुए हमने खतरनाक किस्म के माने जाने वाले कमों में भी 115 मिलियन बच्चों को झोंका है। इतने व्यापक स्तर पर जब बच्चों के साथ भेदभाव एवं अमानवीय बरताव हो रहे हों तो ऐसी स्थिति में यह मुद्दा खासे गंभीर एवं विचारणीय बन जाता है। 

लेखक परिचय-
;नेशनल कैम्पेन काडिनेटर हैद्ध
नेशनल कोइलीएशन फोर एजूकेशन ‘एनसीई’

Tuesday, October 23, 2012

"श ब्दों के नए मैनेजर
-कौषलेंद्र प्रपन्न
पिछले दस साल में हिंदी में कितने नए युवा नेखकों को प्रकाषकों ने छापा? कितने युवा कथाकारों, उपन्यासकारों की कृतियां 5,000 से ज्यादा प्रति बिकीं? क्या आप बता सकते हैं कि कितने युवा कथाकारों, कवियों की पृश्ठभूमि साहित्यिक रही है। यानी जिनकी रूचि, षिक्षा आदि साहित्य में हुआ हो और उन्होंने रचनाएं स्वतंत्र रूप से लिखनी षुरू कीं। सवाल और भी उठ सकते हैं लेकिन यहां सवालों से बड़ी जो बात है वह यह कि एक तरफ हिंदी में बड़े ही गिने चुने नाम आएंगे जिनकी किताबें साल भर में 5000 से अधिक बिकी हों। बिक्री पर न भी जाएं तो उनकी पठनीयता कितने पाठकों तक रही इसका अंदाजा लगाना हमारा मकसद नहीं बल्कि, इसकेे पीछे की मुख्य बात को उजागर करना है। दूसरी ओर अंग्रेजी को लेकर हमारे अंदर जिस तरह की नफरत भरी हुई है वही भाशा आज की तारीख में हमारे खास युवाओं को न केवल पैसे, प्रसिद्धि बल्कि एक अलग पहचान दिला रही है। वो न तो किसी साहित्य घराने से ताल्लुक रखते हैं और न ही जिन्होंने कभी पढ़ाई के दौरान लिट्रेचर को बहुत चाव से पढ़ा ही होगा। लेकिन उन्होंने जो रास्ता चुना वह उन्हें अच्छी नौकरी, पैसे, इज्जत एवं समाज में एक पाठक वर्ग मुहैया कराया। उन्होंने पेषे के तौर पर बेषक मैनेजमेंट, काॅल सेंटर, आई आई टी व अन्य दूसरे क्षेत्रों का चुनाव किया हो, लेकिन एक अच्छी नौकरी पा लेने के बाद उन्होंने लिखने की भूख मिटाने की ठानी। आज चेतन भगत को लेखन की दुनिया में आए 10 साल भी मुष्किल से हुए हैं, लेकिन आज उसके पास पैसे, प्रतिश्ठा, पाठक वर्ग एवं प्रकाषक सब हैं। चेतन हों या करन बजाज या फिर मंडर कोकटे इन्हें मालूम था कि नौकरी में रहते पैसे कमाए जाए सकते हैं जो तकरीबन सभी आईआईटीयन कमा रहे हैं। मुझमें क्या खासियत है जो उनसे अलग पहचान दिला सकती है। उन्होंने अपने अंदर षब्दों की अपार षक्तिपूंज को जगाया और आज देखते ही देखते बाजार तो बाजार यहां तक कि हिंदी व अन्य क्षेत्रिय भाशाओं के लेखकों को सोचने पर मजबूर किया।
हिंदी व अन्य क्षेत्रिय भाशाओं में एक युवा लेखक की उम्र 20 से लेकर 50-55 तक की होती है। बेषक महाषय की किताबें कहानी, कविता एवं उपन्यास बाजार में हों, लेकिन उनकी पहचान हिंदी में युवा लेखक की ही रहती है। जब तक किसी मठ से उन्हें प्रमाणित न कर दिया जाए कि फलां ने क्या खूब लिखा है। कुछ पुरस्कार उनकी झोली में हो तो बात में वजन तौलने वाले भी खड़े हो जाते हैं। वहीं अग्रेजी में कुछ अलग फिज़़ा है। यहां जो 24 साल का अनाम लेखक भी अपनी किताब की सेलिंग के आधार पर अपनी पहचान बना लेता है। पिछले 10 सालों में जिस प्रकार से अंग्रेजी में लेखक उभरे हैं उसे देख कर एक तोश जरूर होता है कि जो पाठक की कमी का रोना रोते हैं उनके इस रोदन के पीछे क्या वजह हो सकती है। दरअसल हिंदी में पहले लिखना षुरू करते हैं फिर बाजार और प्रकाषक की मांग देखते हैं। जबकि अंग्रेजी में लेखक पहले पाठक वर्ग को ध्यान में रखते हैं फिर विशय का चुनाव करते हंै। किस प्रकार की राइटिंग युवाओं को भाएगी उसकी पहचान कर फिर कलम उठाते हैं। लेकिन हिंदी में जरा स्थिति उलट है पहले हम अपने मन की लिखते हैं। वही लिखते हैं जिसे पूर्व के लेखकों ने लिखा है। इसके पीछे एक कारण यह हो सकता है कि नए लेखक को सदर्भ के तौर पर सामग्री मिल जाती है। फिर वह पूर्व के कथानक को नए संदर्भों में रच डालता है। उसे इस बात से कोई खास लेना नहीं होता कि इसको पढ़ने वाले पसंद भी करेंगे या नहीं। प्रकाषक कभी भी घाटे का सौदा आखिर क्यों करें। पैसे फसाना कोई नहीं चाहता। वह देखता है कि फलां लेखक की किताब पिछले साल कितनी बिकी थी। उसकी नई पांडूलिपि पर जुवा खेला जा सकता है। इसलिए चेतन भगत, किरण बाजपेई व अन्य अंग्रजी लेखकों को बड़ी से बड़ी एवं छोटी प्रकाषन कंपनियां छापने से गुरेज नहीं करतीं।
अगर गौर से इन नए युवा षब्दों के मैनेजरों की रचनाओं की कथानकों उनके द्वारा चुनी गई प्लाट को गंभीरता से देखें तो पाएंगी कि उनके प्लाट अमूमन काॅलेज के प्रांगण में पलने, बनने, टूटने वाले प्रेम के इर्द- गिर्द घूमते हैं। थोड़ा- सा मसाला और सरल भाशा में परोसने की कला में माहिर षब्द मैनेजर आज पाठकों के बीच स्थान तो बना ही चुके हैं वहीं प्रकाषकों के भरोमंद लेखक भी। वहीं हिंदी में विपिन चंद पांडेय, नीलाक्षी सिंह, संजय कुंदन, कुंदन आदि को कुछ खास प्रकाषकों के अलावा कितनों ने छापने में दिलचस्पी दिखाई। साथ ही सवाल यह भी है कि इन युवा लेखकों की किताबें बाजार में अपने दम पर कितनी निकल पाईं। यह एक व्यावहारिक पहलू है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज यदि हिंदी या अन्य भारतीय भाशाओं में पाठकों की कमी की बात प्रमुखता से उठाई जा रही है तो इसके पीछे के अन्य बुनियादी कारणों का भी पड़ताल करना जरूरी होगा।
निर्मल वर्मा ने इन पंक्तियों के लेखक से एक बातचीत में कहा था कि लेखक को विशय का चुनाव बड़ी ही सावधानी से करना चाहिए। विशय कोई भी धांसू या फिसड्डी नहीं होते। बल्कि यह लेखक पर निर्भर करता है कि उसने जिस विशय को चुना है उसके साथ पूरी ईमानदारी बरती या नहीं। हिदंी में इन दिनों नए युवा लेखकों की फसल लहलहा रही है। बड़े लेखकों को इन नए कलमों से काफी उम्मीद है। उनकी नजर में आज की लेखनी नए तेवर, कथानक एवं षैली में ताजगी के साथ दस्तक दे रहे हैं। आज के हिंदी व अन्य भाशायी युवा लेखकों के पास भी अंग्रेजी वर्ग के लेखकों के बरक्स विशय हैं। वो भी उतनी ही बखूबी कलम चलाने के हुनर में माहिर हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि तुरंत एक वर्ग सामने झंड़ा लेकर खड़ा हो जाएगा कि यह भी कोई साहित्य है। इससे साहित्य की हानि होगी। षुद्धता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि ऐसे लेखकों को दूर रखा जाए। वहीं दूसरी तरफ लिखने की पूरी छूट है जो लिखों, खूब लिखों, खूब बिको और नाम कमाओं के सिद्धांत पर चला जाता है। आज जरूरत है कि अन्य भाशाओं में भी युवा लेखकों के साथ ही कलम के सिद्धों को लिखने से पूर्व पाठक वर्ग की रूचि, बिक्री के लिए विशय के चुनाव के वक्त चूजी हों तो हिंदी व अन्य भाशाओं में भी पाठकों की कमी नहीं है। अंग्रेजी के हाल के बेस्ट सेलर किताबों की अनुदित कृतियां बाजार में खूब बिक रही हैं। उसके भी पाठक हैं। प्रकाषकों ने भी अंग्रेजी के बेस्ट राईटरों को अनुवाद कर छापने में परहेज नहीं किया।
 
बाल-साहित्य से प्रभावित बचपन 
-कौशलेंद्र प्रपन्न
आज हमारे पास ऐसे कितने दादा-दादी, नाना-नानी, मां-बाप हैं जो बच्चों को कहानियां सुनाते हैं? यदि सुनाते भी हैं तो वे कहानियां कौन- सी होती हैं? साथ ही कुछ और भी इसी तरह के अन्य सवाल यहां उठने लाज़मी हैं। कथा कहानियों से बच्चों का संबंध बेहद पुराना है। वही वजह है कि आज भी हमारे अंदर कोई न कोई कहानी जिं़दा है जो हमने बचपन में सुनी थी। बड़ी ही दुख के साथ कहना पड़ता है कि आज के बच्चों को कहानियों का स्वाद न के बराबर मिल पा रहा है। कहानी के नाम पर नैतिकता, मूल्य व आदर्श आदि ठूंसने को बेताब कहानी व बाल साहित्य अटी हुई हैं। हर कहानी के बाद सवाल इस कहानी से कया सीख मिलती है? क्या हर कहानी के पीछे कोई न कोई सीख मिलना जरूरी है? क्या कहानियां महज कोई न कोई शिक्षा, नैतिकता व संदेश देने के लिए ही लिखी जाती हैं या फिर कुछ कहानियां महज मनोरंजन के लिए भी होती हैं? कथासत्सई, पंचतंत्र, बेताल पचीसी, तेनाली राम, अकबर बीरबल, चंदामामा, नल-दमयंती, सवित्री आदि की कथा परंपरा भारत में बेहद पुरानी हैं। लेकिन समय के साथ कहानियों के कथावस्तुओं में बदलाव देखे जा सकते हैं।
बाल साहित्य व बच्चों को विमर्श की परिधि में रख कर जो भी साहित्य लिखे गए हैं वो दरअसल बच्चों के लिए नहीं, बल्कि बड़ों के द्वारा बड़ों को संबोधित लेखन ज्यादा मिलता है। इन साहित्यों में बच्चे महज चिंता के तौर पर उभर कर आते हैं। यदि हम हिंदी साहित्य के इतिहास के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, काल ख्ंाड़ यानी 1900 से 1920 तक पर एक विहंगमदृष्टि डालें तो पाते हैं कि ‘सरस्वती’ पत्रिका में द्विवेदी के संपादकत्व काल 1903-1920 तक में उस समय के  समकालीन लेखकों, साहित्यकारों, कवियों आदि की रचनाओं को व्यापक स्तर पर सुधार कर प्रकाशित किया जा रहा था। इस काल ख्ंाड़ में बाल- लेखन में कौन कौन सक्रिय थे इसकी जानकारी साहित्येतिहास में नगण्य है। यदि समग्रता से इस काल खंड़ व इससे पूर्व भारतेंदु काल में तो कुछ रचनाएं मिल भी जाती हैं पर उसे पर्याप्त नहीं कह सकते। हालांकि भारतेंदु ने ‘बाल बोधिनी’ पत्रिका निकाल रहे थे लेकिन बाकी के रचनाकार तकरीबन बाल- साहित्य पर सम्यक लेखन न के बराबर किया है। द्विवेदी काल खंड़ से निकल कर जब हम प्रेमचंद की रचनाओं को टटोलते हैं तो इनके साहित्य में बाल मनोविज्ञान और बाल जगत् पर केंद्रीत रचनाएं मिलने लगती हैं। इनकी कहानी गिल्ली डंड़ा, ईदगाह का हामिद आज भी कई कोणों से विवेचित होता रहा है। साथ ही ‘मंत्र’ कहानी को भी भुल नहीं सकते। वहीं दूसरी ओर विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक की कहानी ‘काकी’, सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ ख़ासे महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। इससे आगे विष्णु प्रभाकर, सत्यार्थी, नागार्जुन आदि ने भी बाल साहित्य को नजरअंदाज नहीं किया। इन्होंने भी बच्चों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के लिए कहानियां, कविताएं लिखीं। साथ ही निरंकार देव, कृष्ण कुमार के संपादकद्वे द्वारा तैयार बच्चों के लिए कविता की किताबें मिलती हैं। इसके साथ ही बच्चों की सौ कहानियां, बाल कथा, बच्चों की रोचक कहानियों का दौर भी मिलता है। 1970 के दशक में बालकृष्ण देवसरे, विभा देवसरे, प्रकाश मनु, कृष्ण कुमार आदि ने बच्चों की जरूरतों, रूचियों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के लिए रचनाएं कीं।
बाल- साहित्य की व्यापक विवेचना करने से पहले हमें भारतीय भाषाओं के साथ ही अंग्रेजी में भारतीय लेखकों की रचनाओं को भी विमर्श में शामिल करना होगा। जिस प्रचूरता से हिंदी के अलावा भारत की अन्य भाषाओं में रचनाएं मिलती हैं उससे एक संतोष जरूर मिलता है कि कम से कम भारत में बाल साहित्य उपेक्षित नहीं है। चंदामामा, नंदन, बाल- हंस, पराग आदि पत्रिकाएं साक्षी हैं कि सत्तर के दशक के बाद के बच्चों को इन पत्रिकाओं का साथ मिला। वहीं अंग्रेजी में आर के नारायण की लेखनी धुआंधार चल रही थी। ‘मालगुडीडेज’ इसका जीता जागता उदाहरण है। इस उपन्यास की लोकप्रियता ने ही दूरदर्शन पर धारावाहिक प्रसारण को विविश किया। इनके पात्रों को जीवंतता तो मिली ही साथ ही खासे प्रसिद्ध भी हुए। वहीं दूसरी ओर गुलज़ार के योगदान को भी कमतर नहीं कह सकते। ‘पोटली वाले बाबा’, ‘सिंदबाद’, ‘मोगली’ आदि के गीत एवं कहानियां न केवल कर्णप्रिय हुईं। बल्कि बच्चों में बेहद पसंद की गईं। ‘चड्डी पहन के फूल खिला है फूल खिला है’ अभी तक बच्चों एवं बड़ों को गुदगुदाते हैं। वहीं सिदबाद जहाजी का टाइटिल साॅंग ‘डोले रे डोले डोले डोले रे/ अगर मगर डोले नैया भंवर भंवर जाय रे पानी’। गुलज़ार ने बच्चों के लिए जिस प्रतिबद्धता से बाल गीत, कविताएं लिखीं वह आज तलक लोगों की स्मृतियों में कैद हैं।
पं विष्णु शर्मा रचित पंचतंत्र की विभिन्न कहानियों को आधार बनाकर अलग-अलग लेखकों ने अपनी परिकल्पना के छौंक लगा कर पुनर्सृजित किया। खरगोश और कछुए की दौड़, प्यासा कौआं, लोभी पंडि़त, लालची लोमड़ी, ईमानदारी का फल, आदि कुछ ऐसी प्रसिद्ध कहानियां हैं जिसे 1960 के दशक से लेकर आज भी बच्चे पढ़कर आनंदित होते हैं। इन कहानियों की खूबी यही है कि इनमें जीव जंतु, सामान्य प्राणि शामिल हैं। इसके पीछे नैतिक शिक्षा देने का उदेश्य तो है ही साथ ही बच्चों का मनोरंजन करना भी एक महत्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक है। तेनालीराम, अकबर बीरबल, शाबू, चाचा चैधरी, मामा-भांजा आदि बाद की चित्र कथाएं भी बच्चों में खासे लोकप्रिय हुईं। लेकिन जो आनंद एवं पढ़ने की लालसा पंचतंत्र की कहानियों को लेकर मिलती हैं वह इन चित्रकथाओं में कम है। इन चित्रकथाओं को पढ़ने वाले बच्चे मां-बाप, अभिभावकों से छुप कर किताब में दबा कर अकेले में पढ़ते थे। जबकि पंत्रतंत्र की कहानियों की किताबें अभिभावक स्वयं खरीद कर देते थे। इसके पीछे क्या कारण है। वजह यही था कि इनमें साकाल, शाबू, एवं अन्य पात्र हिंसक, बच्चों में आक्रामक्ता, गुस्सा आदि के भाव को जागृत करने में मदद करते थे। हिंसा, घृणा, आक्रामक्ता जैसे भाव को पहले इन चित्रकथाओं में स्थान मिला। जब इस तरह की कथा शृंखलाएं पसंद की जाने लगीं तब इन्हीं का दृश्य श्रव्य माध्यमों में ढ़ाल कर परोसा जाने लगा। 
बच्चों के खेल खिलौनों के निर्माता जहां कभी प्रेमचंद के हामिद के संगी साथी सिपाही, मौलवी, चिमटा, मिट्टी के हाथी घोड़े, विभिन्न जीव जंतुओं के माध्यम से बच्चों का मनोरंजन करते थे। लेकिन जैसे जैसे तकनीक में बदलाव आया मशीनें आईं उसके बाद मिट्टी के खिलौनों का कायाकल्प हो गया। वो अब चीनी मिट्टी की चमचमाती सफेद रंगों वाली आवरणों में बच्चों के बीच जगह बनाने लगी। मिट्टी के खिलौनों का रंग रूप बदला। साथ ही खिलौने की मुद्राएं बदलीं। बंदूक, गन, हेलिकाॅप्टर, युद्धपोत, कार, चमकीली विदेशी फूरे बालों वाली गुडि़या बच्चों की गोद में खेलने लगी। एक तो बदलाव यह था दूसरा था हिंसा प्रधान पात्रों के साथ सचल खिलौने जो चाबी से गतिविधियां करती थीं। इसमें बच्चों को खुद से ज्यादा कुछ नहीं करना था। बस चाबी भरो और बंदर ढोल बजाने लगता था। यह वह प्रस्थान बिंदु हैं जहां से भारतीय बाल खिलौनों के बाजार में एक महत्वपूर्ण करवट लेने की आहट सुनाई पड़ती है।
बच्चों के खिलौनों के बाजार का जिक्र करना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनके लिए जिस तरह के खिलौने, वीडियों गेम बाजार में छाने लगे उसके प्रति हमने ध्यान नहीं दिया। वे ऐसे गेम थे जो बच्चों में चुपके चुपके हिंसात्मकता, क्रोध, घृणा आदि के भाव पैदा कर रहे थे। लेकिन बड़ों की दुनिया इसके परिणामों से बेखबर थी। बच्चे आक्रामक्ता में जब स्कूल, घर यार दोस्तों में उसी दृश्य की पुनरावृत्ति करने लगे तब हमारे कान खड़े हुए। लेकिन तब भी हमने रक्षात्मक कदम उठाने की बजाए बच्चों को वैसी ही गेम, खेल खिलौने ला कर उनकी जिद्द को पूरा करते रहे।
बच्चों के खेल खिलौने के बाद चलते चलते दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वारा परोसी जा रही सामग्रियों पर नजर डालना अन्यथा न होगा। छः से दस साल के आयु वर्ग के बच्चों से बातचीत में साफतौर पर एक बात निकल कर आई कि टीवी पर गंदी चीजें दिखाई जाती हैं। उनकी दृष्टि में जो गंदी चीजें थीं उस पर गौर करें- हिंसा, मार- काट, ख़ून, हत्या, चोरी करना, किडनैप, प्यार आदि। इनकी सूची में शामिल प्यार को छोड़कर बाकी चीजें तो समझ आईं। लेकिन प्यार को बच्चों ने गंदी चीजों में क्यों शामिल किया? इसपर बातचीत में ही निकल कर उसका जवाब आया। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि लड़की को छेड़ना, फूल देना, चिट्ठी देना आदि टीवी से सीखा है जिसके लिए मम्मी-पापा मारते हैं। इसलिए यह गंदी चीज है। इस बातचीत में कालका जी मंदिर के पास रहने वाला संजय, अंजलि और नेहरू प्लेस झुग्गियों में रहने वाली पूजा, प्रशांत, अनिल, विजय सेवालाल, सौरभ आदि बच्चे शामिल थे। यदि समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं की ओर से कराए गए रिसर्च परिणामों पर नजर डालें तो आंकड़े बताते हैं कि बच्चों के कोमल मन पर सबसे ज्यादा प्रभाव दृश्य-श्रव्य माध्यम चाहे वह टीवी हो या वीडियो गेम आदि का पड़ता है। बच्चों में चिड़चिड़ापन, हिंसात्मक प्रवृत्ति को भी इसी माध्यम से हवा पानी मिलती है। रिपोर्ट तो यहां तक कहते हैं कि बच्चों ने कितना समय टीवी के सामने जाया किया। हालांकि टीवी के प्रभाव से बच्चे तो बच्चे यहां तक कि बड़े भी अछूते नहीं हैं। टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की कथावस्तु, संवाद, चित्रण आदि पर नजर डालें तो साफ पता चल जाएगा कि इन कार्यक्रमों के जरिए हमारे आम जीवन पर किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है। भाषा से लेकर आम बोलचाल, रहन- सहन, बरताव सब प्रभावित होते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि रीति-रिवाज़ भी ख़ासे प्रभावित हुए हैं।
अब हम अपने मुख्य चिंता पर पुनः लौटते हैं बाल साहित्य को भी श्रव्य दृश्य माध्यमों ने कहीं न कहीं प्रभावित किया। अव्वल तो स्कूल जाने और लौट कर आने के बाद होमवर्क और थोड़ी सी पढ़ाई के बाद जो समय हाथ में बचा वह टीवी देखने में गुजर जाती हैं। बहुत सीमित बच्चे हैं जो इस तरह की दिनचर्या में बाल-कहानी, बाल-उपन्यास, बाल कविताएं व बच्चों की पत्रिकाओं को पढ़ते हों। यह अलग बात है कि अंग्रेजी भाषा ने अपनी चमत्कारिक छटा में बच्चों को खिंचने में कुछ हद तक सफल रही है। मसलन हैरी पोटर की श्र्ृंखला बद्ध उपन्यास जो सात से आठ सौ पेज से कम नहीं हैं बच्चों ने अभिभावकों को खरीदने पर विवश किया। कई ऐसे बच्चे मिले जिन्होंने दो से तीन दिन के अंदर मोटी किताब खत्म कर दी। यहां लेखक की कौशल एवं प्रस्तुतिकरण की दाद देनी पड़ेगी कि उसने न केवल यूरोप बल्कि एशियन देशों के बच्चों को भी पढ़ने पर विवश किया। और देखते ही देखते इस उपन्यास पर झटपट फिल्म भी आ गई। जो मज़ा पढ़ने में आता है वह अलग बात है। लेकिन पढ़ी हुई घटनाओं को पर्दे पर आवाज़, सचल रूप में देखने का एक अलग आनंद है जो बच्चों ने उठाया। यहां पाठक और पुस्तक के बीच भाषा बाधा नहीं बन पाई। देखते ही देखते इस उपन्यास को कुछ प्रकाशन संस्थानों ने हिंदी में अनुवाद करा कर पाठकों को मुहैया करा रहे हैं।
एक मुख्य सवाल यहां उठता है कि किन बच्चों को कहानियों की आवश्यकता है। किन बच्चों को घरों में कहानियां सुनाई जाती हैं ? किन स्कूलों में बच्चों को कहानी की कक्षा उपलब्ध है? किन स्कूलों में कोई कथा वाचक होता हैं? शायद कोई स्कूल ऐसा न मिले जहां कथा वाचक हो। जबकि बच्चों को इच्छाओं को टटोलें तो पाएंगे कि उन्हें कहानियां बेहद पसंद आती हैं। वो अपने अपने माता- पिता, टीचर से कहानी सुनाने की जि़द करते हैं लेकिन अक्सर उन्हें डांट कर चुप्प करा देते हैं। ज्यादा हुआ तो कोई कहानी अनमने से कहानी किताब उठाई और पढ़ डालते हैं। जबकि कहानी पढ़ी नहीं बल्कि कही जाती है। कहने की कला नहीं आती तो वो बच्चों को नहीं बांध पाएंगे। बच्चों को कहानियां कहीं न कहीं बेहद अंदर तक छूती हैं। जिन्हें वो ताउम्र नहीं भूल पाते। लेकिन जरूरत इस बात की है कि कहानियां संपूर्ण आंगिक मुद्राओं के साथ सुनाई जाए। लेकिन अफ्सोस कि कथा वाचन की कौशलों से अनभिज्ञ अध्यापक/अध्यापिका या अभिभावक आनन-फानन में कहानियां पढ़कर सुना देते हैं। यहीं पर कहानी की हत्या हो जाती है। 
 

Monday, October 22, 2012

ठहरा हुआ शहर
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तकरीबन छब्बीस साल पहले सन् 1984 से पहले मेरा शहर, मेरा मुहल्ला आबाद था। इधर डालमिया कारखाने का बंद होना था कि उधर एक-एक कर लोगों का शहर से पलायन शुरू कर चुका था। सबसे पहले बड़े ओहदे पर काम करने वाले अफसर शहर छोड़ कर जाने लगे। देखते ही देखते शहर एकबारगी खाली- खाली- सा लगने लगा। यूं तो शहर कभी खाली नहीं होता, रोज़ लोग आते रहते हैं और सपने बुनते लोगों से शहर हमेशा आबाद रहता है। लेकिन कारखाने का बंद होना था कि गोया मेरे शहर की रफ्तार बल्कि यूं कहें उसकी जिंदगी ठहर- सी गई थी। कारोबार, दुकानों, मकानों में रहने वाले लोग अचानक बेकार से हो गए थे। दुकानों पर भीड़ खत्म होने लगी थी। महंगी चीजें खरीदने वालों के टोटे पड़ने लगे। बाजार सूना- सूना रहने लगा। वैसे तो बाजार में बल्ब लटकाए सब्जी, फल, कपड़े बेचने वाले दुकान तो लगाते थे, लेकिन पहले वाली बात नहीं रह गई थी। हर कोई ...

Saturday, August 4, 2012

Out of record and Nats right too
History is proof that in India one community is out of government. They are surviving in our society with this tag " Khanabadosh" "Zippsi" and so on. In every city,town or in cepatil of India. They live side of of the road. They have their own transportation. Their van is their home and all. Now we can able to recognise them. Usually they work making iron tools. 
In history they fight with invaders. But in Mugal era they also fight for the nation. After the independence still they have not right which are provided by Indian constitution. They have not fundamental right too. Their children do not go in any school. They are not registered in voter list. Ironically our government have not any welfare policy for them. Right to education is far from their children. They too will work their traditional work. They will not go and take basic education too.

Tuesday, June 26, 2012

सवाल शिक्षक के निराले
शिक्षा का अधिकार कानून 2009 पर दो दिन दे कार्यशाला में प्रक्षिशन देते हुवे शिक्षक वर्ग से जिस तरह के सवाल आ रहे थे उसे सुन कर अनुमान लगाया जा सकता है कि  यह वर्ग सिर्फ बुनियादी कमियों को रोना रो कर अपनी जिमेदारी से पल्ला झड़ना बेहतर जनता है. पंखा नहीं है, लाइट नहीं है, बच्चे नहीं है, आदि सवाल  तो पूछे गए लेकिन  इक  लड़की ने पुचा आप शिक्षक  व् स्कूल  इतना रोचक  लुभावन  क्यों  नहीं   की बच्चे  भागे च्च्ले आयें. इस सवाल पर शिक्षक  व् शिक्षाक्य वर्ग  टूट पड़े .  आज के बच्चे  पीढ़ी का वामन करने लगे.
जब विद्यालय प्रबंधन समिति के काम व् जिमेद्दारी पर सत्र शुरू हुवा तो सबसे पहले इसका विरोध इसी वर्ग ने किया. ये अनपढ़ , ना समझ  हमें बताएँगे स्कूल कैसे चलाना है? बह्हल ,  शिक्षकों को   सकारात्मक  ढंग  से शिक्षा का अधिकार कानून  को समझना और पढना होगा. जब यह वर्ग  साथ  देगा और अपनी सहभागिता  देगा तभी 2015 सब पढ़े सब सब स्कूल  जायगे का सपना पूरा हो सकेगा.                  

Thursday, May 17, 2012

Hello all of Education lover. We should see how much education get in 2012-13 budget. Today our education system is fighting not only with money shortage but teachers posts are too important issues in several states. 
sharing my story on education in budget 2012-13 which have published in YOJANA hindi and recently webcast in this web magazine 
http://www.swargvibha.in/aalekh/aalekh_writers/kaushlendra%20prapann.html

Sunday, May 13, 2012

Today Aameer khan's program based on child abuse and we parents. How we can save our children. Its important now a days because parents have not too much time to give proper company with our kids. That is why some closest person take advantage and they did wrong with our kids.
NCPCR JJAct 2007 and in state level SCPCR are too active to take action onto such type of cases. Although, we have NCPCR and JJ Act 2007 but still children are suffering from such incident almost every day in our country. Does not matter the place, name, form or cast and society. what is there in the form, name, cast or face. Matter is we have to aware and rise our voice onto this issues.
If you see two months before Times of India published on story on this issue. That report show that 58% children abused every day in our country by family members or closed relatives. It is not a good treatment with our coming future seeds.
Think Think and Than Act.

Thursday, May 10, 2012

शिक्षा का अधिकार कानून लोक सभा में हुवा पास 
राज्य सभा के बाद अब लोक सभा में भी शिक्षा का अधिकार कानून आखिरकार पास हो गया. इस कानून के तहत गौतलब है की कुछ गैर्परामारिक शक्षिक संतान चाहते थे की इससे दूर रखा जाए सो वो दूर ही रहे. मसलन मदरसे और वैदिक संस्थान को आरटी ई के बाहर रखा गया है. 
सवाल  शिक्षा के अधिकार कानून के  तहत अब 0 से 6 आयु वर्ग के बच्चों को भी शामिल किये जाए की बात उठानी चाहिए. मगर अभी यह मुद्दा ठंढे बसते में है. खैर , कम से कम 6 से 14 साल के बच्चों को शिक्षा मिले इसको सुनिषित करना होगा.        

Wednesday, May 2, 2012

दरअसल  जीवन में इक बार ही इक  ही समय  में कई चीजें घाट रही होती हैं. इनको प्रबंधित  करना पड़ता है . जो डूबा हो वही बता सकता है की कैसे कोई घहरे पानी में जीवन बचा सकता है 

Tuesday, May 1, 2012

ग्लोबल एक्शन वीक का समापन २८ अप्रैल को 


डेल्ही सहित देश  के अन्य राज्यों मसलन हरयाणा, मुंबई, उड़ीसा, उत्तराँचल, झारखण्ड आदि में बड़ी ही सफलता के साथ ग्लोबल एक्शन वीक मनाया गया. डेल्ही के जनकपुरी स्थित नगर निगम प्रतिभा विद्यालय सी ५ में २८ अप्रैल को मनाया गया. इस कार्यक्रम में उनिस्को के भारत में प्रतिनधि श्री शिरंग्रू, शिक्षा अधिकारी श्री अलीसेर उम्मेर, उनिसफ़ के प्रोग्राम अधिकारी युकोको फूजी मारो के साथ भुत्पुर्य मेयर पृथ्वी राज सहह्नी, वर्त्तमान कांसलर अनीता ममतानी मौजूद थीं.
डेल्ही के साथ ही उड़ीसा में भी जोरो खरोस के साथ मनाया गया. वहीँ झारखण्ड के बोकारो में हमारे प्रतिनिधि संजय सिंह ने लोकल प्रिमरी स्कूल में ग्लोबल एक्शन वीक का कार्यक्रम किया. वहीँ उत्तर प्रदेश के मेरठ में मुकेश कुमार और संजीव की अगुवाई में कार्यक्रम संपन्न हुवा.  वहीँ मुंबई में विनोद सातवे ने विभिन्न विद्यालयों में ग्लोबल एक्शन वीक के तहत पेंटिंग के साथ कार्यक्रम किया.              




जी पुरे देश में तक़रीबन ११ राज्यों में २२ से २८ अप्रैल के बीच ग्लोबल एक्शन वीक मनाया गया. ऊपर जिन  तस्वीरों   को देख रहे हैं ये ग्लोबल एक्शन वीक २०१२ के हैं. इस साल ० से ६ आयु वर्ग के बच्चों के देखभाल और शिक्षा पर केन्द्रित था. देल्ल्ही के जनकपुरी के निगम प्रतिभा विद्यालय सी५  में में २८ को मनाया गया.
इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि उनिस्को के भारत में प्रमुख श्री शिन्गेरू थे. वहीँ मंच में साथ थीं उनिसफ़ की भारत में शिक्षा विभाग में प्रोग्राम ऑफिसर उकाको फूजी मूरी. साथ ही वर्तमान कांस्लेर अनीता ममतानी मौजूद थीं.
झारखण्ड, मुंबई , उड़ीसा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश आदि जगहों में ग्लोबल एक्शन वीक मनाया गया.
यह अवसर होता है हर साल राज नेतावो को याद दिलाना की साहब आप लोगों ने डकार में सहमती पात्र पर दस्तखत किया था की २०१५ तक ० से ६ आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा मिल जायेगी. मगर अभी यह लक्ष्य दूर है.
कार्यक्रम के बाद राज्यों में महामहीम राजपाल को ज्ञापन चार्टर सौपा गया.       



   

Friday, April 13, 2012

शिक्षा के अधिकार कानून के आगे हार गई पब्लिक लामबंद

शिक्षा के अधिकार कानून यूँ तो लागू हुवे कुछ साल यानि २००९ में , बीत गए. लेकिन सरकारी स्कूल को छोड़ कर पब्लिक स्कूल और केंद्रीय विद्यालय आदि इसकी परिधि से बाहर थे. पब्लिक स्कूल के तर्क थे की हम इस स्थिथि में नहीं है की २५ फीसदी गरीब बच्चों को मुफ्त में पढ़ा सकें. सरकार की और से दिए ऑफर किये पैसे २१०० रूपये काफी नहीं लगा उन्हें. 
आखिरकार न्यायालय की और से फहल हुई और अब पब्लिक स्कूल को भी अपने यहाँ २५ फीसदी गरीब साधन हीन बचों को शिक्षा देनी पड़ेगी. 
बहस यह भी उठ रही है की क्या गरीब माँ बाप उस बच्चे के बाकि स्कूल के खर्च वहां कर पायेंगे? क्या गारंटी है की ये बच्छे कुछ दिने के बाद द्रौप आयुत में शामिल हो जाएँ?
जो भी हो कम से कम अवसर तो मिला. बुनियादी तालीम तो हाथ में आई. ग्लोबल एक्शन वीक हर साल २३ लस २८ अप्रैल को मनायाजता है. इस के पीछे युद्श्य ग्लोबल कोलितिओं आफ एदुकतिओन पर दुनिया के तमाम नेतायों ने दस्थ्खत किया था की २०१५ तक हम सभी बच्चे के (० से ६ साल के उम्र)  बुनियादी शिक्षा दे दी जायेगी. हकीकत जो भी हो अभी भी लाख से ज्यादा बच्छे स्कूल से बहार हैं.            

Thursday, April 5, 2012

ग्लोवल एक्शन वीक २३ अप्रैल से २९ अप्रैल तक

गौरतलब है की न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में भूख, कुपोषण, जन्मते बाल मृतु दर काफी है. २००१ में ९१४ लडकिय जन्मते मर जाती थीं वहीँ यह फीसदी कम होने के स्थान पर २०११ में यह आकड़ा ९४६ तक पहुच गया है. शिक्षा , स्वाथ्य, सुरक्षा भूख आदि से बच्चों को निजाद दिलाने के लिए विश्व के नेतावो ने नेशनल कोन्वेन्तिओन ऑफ़ चिल्ड रिघ्ट्स की घोषणा की थी. यानि २०१५ तक दुनिया के तमाम  बच्चे  शिक्षा, भूख, स्वाथ्य से वंचित नहीं रहेंगे. लेकिन आकडे बताते हैं की अभी भी देश के ८० लाख से भी अधिक बच्चे जनमते ही मर जाते हैं. इनमे लड़कियों की संख्या अधिक है. जनम के पहले २९ घंटे खासे अहम् होते हैं. इसी दौरान तमाम तरह के खतरे बच्चों पर होते हैं. यदि इस समय हमने संभल कर बच्चों को निकल लिया फिर वो जी जाते हैं.
ग्लोवल एक्शन वीक २३ से 29  अप्रैल को पुरे देश में एअर्ली चिल्धूद केयर एंड एदुकतिओन पर केन्द्रित कार्यक्रम करने जा रही है. इस दौरान पिक्टुरेस, स्लोगन, कहानी, बाल केन्द्रित प्रोग्राम आयोजित होंगे. इस के पीछे लक्ष्य आम लोगों के साथ ही सरकार के बीच जागरूकता पैदा करना है.
गौरतलब है की राईट तो एदुकतिओन शिक्षा का अधिकार २००९ महज ६ से १४ साल के बच्चों की शिक्षा की बात करता है. सवाल युथ्ता है की ० से  ६ साल के बच्चों को किसके कंधे पर डालें. ० से ६ साल के बच्चों को संजयान लेते हुवे ग्लोवल एक्शन वीक शुरू के ० से ३ साल के बच्चों की शिक्षा , स्वथ्या का मुदा ले कर आवाज बुलंद कर रहा है.
० से ३ साल का टाइम वो होता है जिसमे बच्चों को स्वाथ्य के प्रति खासे सजग होना होता है. लेकिन दुर्भाग्य है की इसी आयु के बच्चे ज्यादा काल के गाल में समां जाते हैं.                      

Sunday, April 1, 2012

समीक्षक की नज़र में

समीक्षक की नज़र में हर किताब टेक्स्ट किसी तिलस्म से कम नहीं होती. हर पेज हर शब्द हर विचार नए आयाम देता है. यदि समीक्षक किसी किताब को पूर्वाग्रह से पड़ता है तो वो किताब के साथ न्याय नहीं कर सकता. समीक्षा को तथास्त हो कर किताब की समीक्षा करनी चाहिए. किताब की भाषा, विचार, प्रस्तुति, शैली आदि की शाताएं पाठकों के सामने रखना चाहिए.
पाठक आखिर किताब क्यों पढ़े? पाठक किताब से क्या ले सकता है? आदि सवालों के जवाब तलाश कर समीक्षा में दिखने की कोशिश करनी चाहिए. इक होती है समीक्षा, आलोचना, समालोचना, पुस्तक परीचे आदि. इन सब में अंतर होता है. आलोचना, समालोचना जो की पुस्तक की गहराई से जाच पड़ताल करी है. जिसको किसी पत्रिका में जगह मिलती है. लेकिन पुस्तक को रोज दिन प्रकाशित होने वाली अखबारों में पुस्तक परीचे को जगह मिलती है.
पुस्तक परीचे में समीक्षा किताब की इक चलते चलते परिचय लिखता है. वहीँ समीक्षा जो पत्रिका के लिए लिखी जाती है वो आलोचना या समालोचना कह सकते हैं.
पाठक के लिए जरुरी यह है की वो पड़ने के लिए किस किताब का चुना करे. आज इस हकीकत से मुह नहीं मोड़ सकते की टाइम वो भी पड़ने के लिए किसी के पास नहीं है. यदि कोई टाइम निकलाता है तो उस टाइम का सही युप्योग हो सके. इस लिए वह समीक्षा पद कर किताब का चयन कर सकता है.
इस लिहाज से समीक्षक को गंभीर और संतुलित हो कर किताब की समीक्षक की भूमिका निभानी चाहिए                          

Thursday, March 22, 2012

बजट के पैसे कितने मिलते हैं स्कूल के बच्चों के लिए

इक खबर और रिपोर्ट के अनुसार बजट में शिक्षा की बेहतरी के लिए सर्वशिक्षा के मद में हर साल इजाफा हो रहा है लेकिन प्रथम के इक रिपोर्ट की मानें तो मिलने वाले पैसों का अधिकांश भाग रंगे पुताई, रजिस्टर, स्कूल के मरमात में खर्च हो जाते हैं. अगर फीसदी पैसे की बात करें की कितना भाग बच्चों की शिक्षा पर खर्च होता है तो ताजुब होगा सिफर है महज ६ फीसदी ही शिक्षा की बेहतरी पर होता है.
प्रथम ने 14,२८३ हज़ार स्कूल को अपने सतुदी के लिए चुना जिसमे यह हकीकत सामने आया. गौरतलब है की सरकार हर साल सर्वार्शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा, उचा शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए पैसों को बढ़ाती रही है. इस बार २०११-१२ की तुलना में २९ फीसदी ज्यादा मिले लेकिन हकीकत यह है. २००९-१० में जहाँ २००,४ करोड़ रूपये मिले यहीं २०१० में ४,२६९ करोड़ रूपये मिले. यदि रूपये पर नज़र डालें तो पायेंगे की हर साल बजट में कमी नहीं है. तो सवाल उठता है फिर पैसे जाते कहाँ है? क्यों स्कूल को शिक्षा के मद में मिले पैसे को इस्तेमाल अन्य कामों में करना पद रहा है ?
बहरहाल, पैसे जहाँ भी जिस के भी जेब में जा रहे हैं वह बच्चों के पहुच से काफी दूर है.  
          

Saturday, March 17, 2012

ज़िन्दगी कभी ...

ज़िन्दगी कभी ..
.आगे तो कभी काफी आगे निकल जाती है ,
पीछे कई सारे सवाल फेक जाती है,
धुन्ध्ते रहते हैं हम लोग,
मैथ खुजाते,
बाल नोचते,
सुलझाने को ज़िन्दगी की गुथी.
कई बार ज़िन्दगी हम से आगे निकल जाती है-
तो कभी हम ज़िन्दगी से आगे,
मुद मुद कर आखें,
महसूस करते हैं,
राह के पथिक को,
जो मिले इक बार,
वो जुदा ना हो पाए.             

Friday, March 16, 2012

2012-13 के बजट शिक्षा को कितना मिला



संसद में दादा के दिए भाषण से शब्द उधर लें तो नीचे के तथ्य सामने आते हैं- 
शिक्षा का अधिकार और सर्व शिक्षा अभियान हेतु 2012-13 के बजट अनुमान में 25,555 करोड़ रुपये के आवंटन का प्रस्‍ताव है, जो कि 2011-12 की तुलना में 21.7 प्रतिशत अधिक है।
·         12वीं योजना में मॉडल स्‍कूलों के रूप में ब्‍लॉक स्‍तर पर 6 हजार स्‍कूलों की स्‍थापना का प्रस्‍ताव है।
·         राष्‍ट्रीय माध्‍यमिक शिक्षा अभियान हेतु 3,124 करोड़ रुपये उपलब्‍ध कराए गए हैं, जो कि 2011-12 के बजट अनुमान की तुलना में 29 प्रतिशत अधिक है।
गौरतलब है की इस पुरे बजट में प्राथमिक और कॉलेज के साथ ही शोध संसथान को क्या मिला यह इक्सिरे से गायब है. 
शोध और युनिवेर्सिटी स्तर की शिक्षा के सुधार के लिए साफ साफ़ कोई संकेत नहीं मिलते. इसके पीछे शिक्षा को किस संजीदगी से लिया जाता है इस का पता चलता है. यह हकीकत किसी से छुपा नहीं की आज जितनी आवश्यकता बाज़ार को दुरुस्त करने की है उससे जरा भी कम जरूरत शिक्षा को नहीं है. दिन प्रतिदिन देश की प्राथमिक और युनिवेर्सिटी की शिक्षा महंगी और स्तरहीन होती जा रही उस की चिंता सरकार को न जाने क्यूँ नहीं है.     


Thursday, March 15, 2012

रेल मंत्री तो ट्रैक से उतार दिए गए

दीदी के नहीं मान कर रेल मंत्री ने देखलिया की पानी में रखकर मगर से बैर नहीं किया जाता. लेकिन पता नहीं द्विवेदी ने क्या सोच कर रेल को इचू से बह्हर निकालने पर तुले थे बेचारे खुद बाहर कर दिए गए. गौरतलब हो की रेल मंत्रालय ने पिछले १० सालों में किसी किस्म के किराए में इजाफा नहीं किया था. इसके पीछे हर कोई अपने सर पर ठीकरा नहीं फोड़ना चाहते थे सो किराए में इजाफा के रिश्क नहीं लिया. मगर किसी न किसी को तो रेल विभाग को संजान में लेना था.
अब चीर इंतज़ार वित् बजट आने वाला है. आज की रात सरकार, बाज़ार, कंपनी, घर आदि के लिए बेहद गहरा है. कल यानि १६ मार्च २०१२ की दुपहरी सब के लिए तपिश लाने वाली है. हर सेक्टर को कल कितना मिलने वाला है इस तरफ नज़रें टिकी है.
क्या शिक्षा की बेहतरी के लिए वित् मंत्री कुछ ठीक ठाक आवंटन करने वाले हैं? बस कल इन्सभी पर से पर्दा उठने वाला है. इक बात तो जाहिर है की यदि स्कूल शिक्षा ठीक नहीं किया गया तो देश महज साक्षर बन सकता है शिक्षित नहीं.              

Sunday, February 19, 2012

फिल्म भी दर्पण होते हैं समाज के हलचल दर्ज है

फिल्म बिधा भी कम मसक्कत के नहीं हैं. इस विधा में  भी शोध और दिमागी  कसरत  करना  पड़ता है. पथेर पाचाली आज भी दुनिया के १० क्लास्सिक फिल्म में शामिल है. फ़िल्में भी अपने समाज की धरकनें जज्ब करती है. टाइम गुजर जाने के बाद  जब हम इन फिल्मस के कथानक देश काल पर नज़र डालते हैं तो उस काल, देश के तमाम उठा पथक की जानकारी मिलती है. आलम आरा, हरिश्चंद्र, दो बीघा जमीन, नदिया के पार, शोले आदि यूँ तो लिस्ट लम्बी हो सकती है. लेकिन यहं लिस्ट बनाना न तो मकसद है और न ही जरूरी.
सवाल है फिल्म्स देखते टाइम हम महज़ आनंद उठा कर घर आ जाते हैं. निर्देशक के मेसेज को हॉल में ही दफना कर आते हैं. साहित्य हो या कला के दुसरे दर्पण हर दर्पण में अपने समाज के हलचल कैद होते हैं. पेज थ्री, पिंजर, नो ओने किल जसिका, लगन फिल्म्स को देखते हुवे हम उस बीते काल खंड के हिस्सा हो जाते हैं. यह समय के साथ यात्रा का सुख फिल्म, साहित्य, कविता, पेंटिंग आदि कला की विद्यां ही दे सकती है. हर विधा के अपने आनंद है और जोखिम भी.
फिल्म के साथ इक बात है वो है पढने से दूर जाते मानस को भी शरण में बुलाती है. पढने के लिए समय चाहिए. धर्य की दरकार होती है. लेकिन फिल्म्स को देखने के लिए इतने इंतज़ार की जरूरत नहीं होती. वीर ज़रा, बोर्डर, ग़दर आदि फिलेम्स को देखने जाएँ तो यह मान कर चलें की फिलेम्स के निर्देशक की नज़र पुर्ग्रह मुक्त नहीं होते. यहाँ दर्शक को खुली आखें ले कर जाना चाहिए. हर विधा के साथ यह जोखिम होता है. रचनाकार यदि पुयुराग्रह से ग्रषित है तो वो घटन को अपने नज़र से देखेगा और प्रस्तुत करेगा.
जो भी हो फिल्मस की आलोचना जितनी भी की जाये लेकिन इससे उसकी उपाद्यता को नज़रन्दाज नहीं कर सकते.                                    

Friday, February 17, 2012

इक शिक्षा सामानांतर बोध

शिक्षा के शेत्र में कई तरह के नवाचार चल रहे हैं. लेकिन फिरभी स्कूल बच्चों को  अपनी तरफ  खीच नहीं पा रही है तो यह सोचने की बात है की क्या वजह है. यही सवाल १९८७ में बोध शिक्षा समीति के संस्थापक योगेन्द्र जी को खीचा. काम करने की नै दिशा दी. आज इस बोध संस्था की सपने पुरे राजस्थान में फल फुल रहे हैं.
जयपुराने २० किलो मीटर पहले  बोध परिसर काम के सूक्ष्म तत्वों पर काम करती है. उन सपनो को साकार करने के लिए उसने राजस्थान सरकार के पिलोत प्रोजेक्ट के साथ हाथ मिल्या. आज की तारीख में जयपुर के अलग अलग सरकारी स्कूल में बोध अपनी योजना चला रही है. जिसमें बोध के शिक्षक सरकारी स्कूल के शिक्षक के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. बच्चों में पढने के प्रति ललक तो बढ़ी ही है साथ ही समुदय के लोगों में भी इक युथास  दिखाई देती हैं. 
भाति पुर और आमापुर के गरीब परिवार की बच्चे यहाँ अपनी तालीम के खाब पुरे कर रहे हैं. १९८७ में योगेन्द्र जी ने जैसे जिस तरह की कठिन हालात में बोध की शुरुयात की यह इक प्रेरणा का विषय है. आज आमा पुर का शाला पूरी तरह से समुदाय की हाथों में है. 
शिक्षा में यैसे नवाचार के लिए रस्ते निकालने ही होंगे. बोध न्च्फ़ २००५ को आधार बना कर परीक्षा से शिक्षा को मुक्त करने की मुहीम में जुटी है . बोध परिसर में बच्चों को ध्यान में रखा गया है. वह चाहे क्लास रूम हो या पठान पाठन की सामग्री हर उन चीजों में इक न इक न्यू तकनीक की, समझ की, नवाचार की झलक मिलती है. 
kaas बोध के साथ हमारी शिक्षा के मुगलों को विचार करना होगा.                          

Tuesday, February 14, 2012

नौटियाल गए....शहरयार भी चले गए....

नौटियाल गए....शहरयार भी चले गए....साहित्य हो या आम जीवन किसी के जाने के बाद वो लोग बेहद याद  आते  हैं. वहीँ दूसरी और खास बात यह की राम दरश मिश्र जी को उनकी आम के पत्ते के लिए व्यास पुरस्कार मिला.
साहित्यकार जब भी अपनी गवई अनुभवों को कागज़ पर आकार देता है वो पाठकों को तो काफी करिईब लगता है साथ ही वह अनुभवों का नवीकरण भी होता है.   
हम कितने भी शहरी हो लें लेकिन हमारी स्मृति में हमारा गावों और गावों के पल हमेशा साथ रहते हैं. साहित्यकार कुछ भी नहीं करता बल्कि वो हमारी स्म्रित्यों में पड़ी यूँही यादों को सहता और ताज़ा कर देता है. हम सभी को लेखक की बातें अपनी लगती हैं.    

Thursday, February 9, 2012

तुम मुझे मरने की गलती मत करना

यूँ तो पुनिश्मेंट पर हाई कार्ट ने पाबंदी लगा राखी है. लेकिन उनसब के बावजूद स्कूल में इस किस्म की घटनाएँ घटती रहती हैं. 
सहनशीलता दोनों ही तरफ घटी हैं. शिक्षक भी और छात्र भी दोनों ही आज कल अशांत हो चुके हैं. इक तरफ मानसिक तो दूसरी तरफ शारीरिक और समाज की और से शिक्षा और बच्चों पर दब्वो बढता जा रहा है. इसी का परिणाम है, इस किस्म की घटनाएं.
दुसरे शब्दों में कहें तो क्लास्स्रूम की प्रकृति को समझने की बेहद जरुरत है. तनावों, दाबों को पार करते हुवे बच्चों को गढ़ना इक जोखिम भरा काम है.    

Saturday, January 28, 2012

इक अदद दुम्म

मुझ को भी इक दुम्म दे दो,
मैं भी डोलता फिरून,
आगे पीछे,
हर उन जगह,
जहाँ उचाही मिल सके.
जिनके दुम्म सुन्दर थे,
कोमल,
लहरदार उनको मिला,
जो उन्न्ने चाहा,
उम्मीद से ज्यादा उछाल.
मेरे से नहीं हिलाय्गे दुम्म,
जब भी देखता हूँ अपने दुम्म्म,
श्रम  आती है,
हिलाना ही नहीं आता.
हे इश्वर!
मुझे भी दे न इक अदद दुम्म,
दिन भर हिलाता रहूँ    
             

Thursday, January 26, 2012

झाकी में गायब अंदमान निकोबार, लक्ष द्वीप

६३ वीं गणतंत्र पर भी हमारे ही देश के कुछ भाग गायब रहते हैं. बिहार, पंजाब, नागालैंड आदि राज्य तो दिखी. इसके साथ ही अन्य राज्य भी झाकी में शामिल हुवे. लेकिन अपने ही देश के अंदमान निकोबार, लक्ष द्वीप इक्सीरे से नदारत रहे. 
जब की जनपथ राज पथ पर देश के तमाम राज्यों को प्रदर्शन का पूरा पूरा हक़ है. यदि वो इस काबील नहीं की कदम ताल मिला सकें तो अन्यां विकसीत राज्यों को उनको तैयार करने का बीड़ा उठाना चाहिये. कम से कम वो भी भी तो देखें. 
पुरे साल ख़बरों से तो गायब रहते ही हैं कम से कम साल में इक बार राज पथ पर देश के सामने देखें. वर्ना वो हमारे आम जन जीवन से यूँ ही कटे अलग थलग पड़े रहेंगे. इस अलगावो को पाटने का जीमा हमारा होना चाहिए. पिछले             

Tuesday, January 24, 2012

बिन पढ़े ताला किताब पर

२३ जनवरी के तिमेस ऑफ़ इंडिया के एडिट पेज पर लीड स्टोरी पढने को मजबूर करता है. लेखक ने लिखा है १९८६ में सेतानिक वर्सेस को बिन पढ़े राजीव गाँधी ने फरमान जारी कर दिया. भारत पहला देश बन गया जिसने इस किताब पर पाबंदी लगादी. उसके बाद पुरे देश में फरमान की कतार लग गई. अकेले सलमान नहीं हैं जिनको लिखे की कीमत चुकानी पद रही है. दूसरी और तसलीमा जी भी हैं. इतेफाकन दोनों का रिश्ता भारत से गहरा रहा है. अपनी मिटटी की नमी देश से दूर रह कर भी भूल नहीं पाते. गाहे बगाहे कविता, कहानी, युपन्यास में आ ही जाता है. 
बड़ी दुर्भागया की बात है किसी की रचना को पढ़े बिना उस पर पढने की पाबंदी लगा देना किसी भी सभ्य समाज की सकारात्मक लक्षण नहीं कहे जा सकते. किसी लेखक ने क्या लिखा उसे पढने औ सुनने की शक्श्मता तो होनी चाहिए. आलोचना, प्र्तालोचना इक स्वत समाज के लक्षण हैं. लेकिन जब समाज में कुछ कट्टर वादी विचार के पोषक की अंगुली पर देश के नायक नाचने लगें तो उस देश और नायाक पर शक होना कोई बड़ी बात नहीं. 
मत भिन्नता रखना सब का हक़ है. किसी के सर कलम करने या उसकी अभिवक्ति की पर क़तर देना सहिष्णुता नहीं कही जा सकती. 
हमने विचार करना होगा की हमें हांकने वाले सही हैं या हम खुद खाली कनस्तर हो चुके हैं.                     

रहिमन धागा....

यूँ तो रहीम साहब ने आज से कई शताब्दी पहले कहा था, रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चित्काए टूटे तो फिर ना जुड़े जुड़े गत पद जाए.
सब दिन होवाहीं न इक समाना. '
रामिमान चुप व्ह्यें बैठिये देखि दिनन को फेर. नीके दिन जब आइहें बनत न लगिहें देर' 
       

Sunday, January 22, 2012

बच्चे जो कह्हरा नहीं पढ़ पाते

यूँ तो कई रिपोर्ट यह सच दिखा चुकी हैं की देश के लाखों बच्चे स्कूल तो जाते हैं लेकिन जहाँ तक तालीम की गुणवत्ता की बात है वहां वो बेहद ही कमजोर हैं. ५, ६ या ८ क्लास में पढ़ते हैं लेकिन वो क्लास १,२ के पथ पर फिसल जाते हैं. 
इन्फोसिक या प्रथम की रिपोर्ट की माने तो देश के उम्दा स्कूल के बच्चे भी बेहद ही ख़राब शिक्षा पा रहे हैं. उन्हें किस तरह की शिक्षा मिल रही है इस और उस पार की झलक मिलती है की हम अपने बच्चों को की किस्म की शिक्षा दी जा रही है. 
दाखिला तो बढ़ा है लेकिन शिक्षा की गुणवता देखते ही देखते नीचे जा चुकी है. उसे बेहतर करने में कोण अपनी बुमिका पहचानेगा. शिक्षक भी इसमें शामिल है. इसके साथ ही लोकल ऑथरिटी को भी अपनी जिमीदारी निभानी पड़ेगी.         

Saturday, January 21, 2012

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद-
मालुम नहीं था,
अपने ही लोग,
नोच कर ले जायेगे,
तेरे जाने के बाद...
तेरी दी साडी,
गहने,
सब कुछ ले गए नोच कर,
जब बिस्तर पर रोऊ रही होती हूँ तो अब नहीं जागता पूरी रात कोई.
नल पर तुम्हारे संग,
           

Friday, January 20, 2012

बच्चों की सुनेगे तो वो हमरी सुनेगे

हम बच्चों की नहीं सुनते. उनकी बात को बच्चों की बात मान कर दरकिनार कर देते हैं. जबकि सुनने की आदत बच्चे हमीं से सीखते हैं सुनने की आदत. लेकिन जब वो खुद देखते हैं की हमीं सुनना नहीं बल्किन केवल बोलना चाहते हैं तो बच्चे वाही सीखते हैं. 
बोलना भी कला है तो सुनना भी कोई कम धैर्य की और कला नहीं है. सुनना दरअसल बोलने की लिए अछि पाठशाला है. जो सुनने में बैचैनियत महसूस करते हैं वो बेहतर बोलने वाले नहीं हो सकते.
बोलने की लिए पठन  और मनन बेहद जरुरी है. जो भी बेहतरीन वक्ता हुवे हैं उनसे बोलने की कला सीखी जा सकती है. किस तरह से रोचक और सारगर्भित बनाएं यह पढने और सुनने से सीखी जा सकती है.            

Sunday, January 15, 2012

विवाद उठाना भी कला

विवाद बखेड़ा जो भी नाम दें यह भी इक कला है. जो इस कला में माहिर हैं वो हमेशा दिमाग इस बात में लगाते हैं की अब किस पर विवाद उठायागे. टीवी में चेहरे देखने की आदत हो जाती है.
यदि कुछ दिनों से चर्चे में नहीं होते तो नींद नहीं आती. फिर दिमाग के घोड़े दौडाते हैं की क्या किया जाये. अब उड़ीसा के मुख्यमंत्री के नाम कितनो को याद होता है. चेहरे तो श्याद ही किसी को याद हो. यहीं लालू जी का चेहरा देश विदेश में लोग जानते हैं . उन्हें मालुम है की विवाद में कैसे रहा जाए.
टीवी में छाए रहने के कई तरकीब है. चप्पल , स्याही, तमाचा कुछ भी उछाल दो फिर देखिये कैसे नेशनल न्यूज़ में चा जाते हैं. विवाद में खड़े होना जीगर वालों की बात होती है. अखबार, न्यूज़ चानेल हर जगह लोग आलोचना करते हैं आप बिन खर्च के चा जाते हैं.
विवाद संवाद हीनता की स्थिटती में पैदा होता है. कई लोग इसी का खाते हैं. विवाद भी खड़ा karna इक कला है                 

Saturday, January 14, 2012

रुश्दी को रोक और बाबा पर श्याही

रुश्दी को डेल्ही आने पर रोक और बाबा रामदेव पर स्याही  फेका  जाना हमारे अन्दर की कातरता और खीझ ही है. यदि संवाद नहीं होता तो विवाद खड़ा होता है.
रुश्दी   इक  विचार  उत्पादक  हैं. विचार देने वाला सम्मानिनिया होना चाहिए. लेकिन जयपुर में उसे न आने के सरे इंतज़ाम किये जा रहे हैं. जबकि लेखाका  बन्धनों  से मुक्त  होता है. लेकिन समाज का हिस्सा होने के नाते कुछ मूल्या की जिम्मेदारी उस पर भी होती है. किन्तु हम कितने अशिस्नु है की  आलोचना को सह  नहीं पाते. और किसी पर स्याही फेक कर विरोध दर्ज करते है तो किसी पर चप्पल और जुटे.
सहधी की ह्त्या दरअसल गाँधी की विचारो की ह्त्या थी. यही रुश्दी के साथ हो  रहा है. बाबा रामदेव पर स्याही उछालना संवाद  हीनता   है.          

Thursday, January 12, 2012

Tuesday, January 10, 2012

आज रात वो चाहती

आज रात वो चाहती  थी-
नीद ले पूरी ,
दिन भर काम कर थक गई थी,
पिछले दो दिनों से सो नहीं पाई थी.
न नुचे-
न चुसे,
न मसोसे आज की रात,
चाहती है पूरी आँख भर नींद.
लेकिन उसकी इक्षा पूरी नहीं हुई 
नहीं बच पाई-
आधी नींद में उठाई गई आज की रात,
उठाई गई काछी रात,
सहलाई गई,
रुलाई  गई.
रुलाई गई
प्यार पर रोई पूरी रात,
समझ नहीं पाई क्या yahi प्यार है,
जिसका दंभ भरता  है पूरी रात  पुरुष.
बचावो बचावो की पुकार किस को सुनाये-
साथ में सोव्या,
देता है वचन,
वो गले में लटका जेवर है उसका,
टूट जाए तो दुनिया बेवा कहेगी,
मेरे रहने से तू है सुरक्षित,
माकूल प्यार करता हूँ.
इन्हीं वचनों का अचरा में बंधे,
देखती है सपने,
पोचती है आंसूं ,
लाख चाते हुवे भी नहीं मोड़ पाती उससे अपना मुह,
करवट फेर कर सोती तो है,
पर जाने कब,
सुभा उसी में सिमटी मिला करती है...
                
          
     

Saturday, January 7, 2012

दीवार बोल उठी

फ़र्ज़ करें अगर दीवार बोलने लगे तो क्या क्या बोल जायेगी. सब कुछ जो दीवार के पीछे होता है. पतली गली जिस को दीवार अलगाती है. उस तरफ की बात्यें भी जगजाहिर हो जायेगी. कितनो की धडकनें रुक जायेगी. कुछ तो बेवा हो फिरेंगें.
कल यूँ ही कुछ हवा. अचानक दीवार हिलने लगी. मुझे लगा भूकंप होगा. थम जाएगा. मगर भूकंप से भी ज्यादा था. दीवार जो बोलने को बेताब हो रही थी.
कहने लगी-
अबे क्या सोच रह है? तेरी पगार बढ़ेगी या उसके हिस्से में जाएगा मोटा उछाल. तुझे ठेंगा मिलेगा या उसको न्यू कार की चाबी. इस बार क्या वो फिर दो तीन ट्रिप विदेश का लगाएगी और तू देश के सड़ेले शहर में घूम आएगा.
दीवार बोहोत बोल रही थी. जरा भी सोहा नहीं रह था. मैंने कहा चुप कर बदजात. तू कब से बोलने लगी. अब तलक तो सुनना ही तेरा काम था. ये जबान कब चलाने लगी. तुझे बोलने का सहूर कहाँ है जो बोलने को बेक़रार है.
इतना सुनना था की दीवार भी आखीर हमहे बीच ही तो रहती है. गुस्सा आ गया. मुह बिचकाते हुवे कहा,
मैंने सूना है कल तुझे नीला लिफाफा मिलने वाला है...
अब मुझे काटो तो खून नहीं. मुह लिए बैठ गया.
इस पर दुबारा दीवार के जबान चल पड़े सूना तो यह भी है शैली को इस बार बॉस ने तीन बार विदेश यात्रा की पलान्न की है. उसे तो इस बार के ट्रिप में बहाद कीमती चीजें भी दी है. तू तो बस अपनी चोच मत ही खोला कर सारा किया कराया चौपट कर देता है. उसको देख, जहां जितना बोलना होता है उतना ही खुलती है. और इक तू ही शुरू हुवा नहीं की बस शताब्दी फेल करता है.
सुनते सुनते था गया. मन में आया की इक लात मर कर इस दीवार को ही बीच से गिरा दूँ. उधर जो हो रहा है वो दीखता ह्राहे. मगर पैर में मोच जो आ गया.  

Friday, January 6, 2012

यूँ ही इकदा

कई दफा हम कहीं जाना नहीं चाहते लेकिन घर में बैठ कर मन भी नहीं लगता. यैसे में क्या करते हैं हम? कुछ पुरानी यादों की गठरी खोल कर झाड पोच करने लगते हैं. उन्हीं में से चाँद , धुल भरी पगडण्डी, सर्दी की शाम, समंदर की पचाद खाती लहरें सब के सब याद आने लगते हैं. उनमे से भी हम सुखद, ताज़ा यादों को गोद में ले कर सहलाने लगते हैं. उन्हीं पुराणी यादों में कुछ देर सुस्ता कर वापस आने का मन बनाते हैं. लेकिन इतनी आसानी से पुराणी यादें कहाँ पीछा चूद्तीं हैं.
बरबस साथ द्रविंग रूम में आ धमकती हैं. फिर देखिये क्या ही मंजर होता है. कल की यादें मुह बाए कड़ी अपनी और बुलाती है वहीँ वर्त्तमान ताकीद करता है खबरदार जो पीछे मुड़े ह्म्म्म. हम बेचारे अपना मुह लिए बैठ जाते हैं .सर्दी में अजान बोहोत मनमोहक लगता है. वो भी दोपहर वाली. दूर से गुजरती ट्रेन की आवाज़ और इकबारगी लम्बी ट्रेन फिसलती हवी आखों से ओझल हो जाती है. उन ट्रेनों में बैठे लोग हर किसी की आखों में किसी में मिलने, बतियाने, की चाह, किसी से बिछुड़े पल की ताज़ी आह सुबकती दिखाई देती है.
ट्रेन भी मजेदार होती है. कईयों की आखों में आसूं उपादा कर सिटी बजाती अपनी धुन में ट्रैक पर भागती रहती है. हम भी तो उसी की मानिंद भाग ही रहे हैं. पर कई बार पता नहीं चल पता की उतरना किस स्टेशन पर है. अनजाने में गलत जगह उतर जाते हैं.                       

जो लिखे सो दिखे

जो लिखा जाए वो पढ़ा भी जाए इससे लिखने वाले को उत्साह तो मिलता ही है साथ ही यह भी मालुम चलता है की जो लिखा वो संप्रेषित हुवा या नही. यह तबी पता चलता है जब पढने वाले को बिना ज्यादा दिमाग कसरत किये समझ आ जाए.
साहित्य लिखने में कुछ लोग बेहद मशगुल होते है. जो मन में आये रुचे बस वाही लिखते हैं. यह जाचे बिना की पाठक को क्या हासिल होगा. यैसे लेखक महज लिखने का काम करते हैं.  यैसे ही लेखक आरोप लगाते हैं की पाठक आज कल पाठक कम हो गए. जबकि पाठक क्यों वो पढ़े जिसमे कुछ ना मिले.
पाठक वही पढना चाहता है जिसे उससे कुछ मिले.           

Thursday, January 5, 2012

कितनी साड़ी चाहतें,
कुछ उम्मीदें,
इक टूटन,
इक ही जखम,
ता उम्र साथ रहता है.      

Monday, January 2, 2012

खबर की मंदी

खबर की मंदी हाँ सही सुना. मंदी ने न केवल अर्थ तंत्र को झकझोर कर रख दिया बल्कि मीडिया को भी नहीं बक्शा. कई नामी गिरामी पत्रकार बंधू बांधुनी पत्रकारिता में जीवन खपाने के बाद भी मंदी में बाहर अपने लिए रोटी तलाशते नज़र आये. बल्कि आ भी रहे हैं. उस पर बलिहारी यह की उन बह्दुयों के जाने की खबर कोई कहीं छापने को राजी नहीं. जिनने मंदी पर खूब स्तोटी अपने हाथों से पेज पर लगाए मगर उस खबर की तीस तब महसूस हुई जब वो इक दिन खुद बाहर हो गए.
मंदी के नाम पर अखबार घराने खूब जम कर खेल फरुखाबादी खेले. पेज कम किये, स्टाफ को नोऊ काम कहा, और भी खबरे रहीं मगर उनको पूछने वाला आज कोई नहीं. २००८ की मंदी ने बहुतों की उम्मीदों पर पानी ही नहीं फेरे बल्कि उनको मीडिया से मोह भंग किया. कोई पढाने चले गए. कुछ ने अपने पुराने काम पर लौट आये.
बड़े बड़े संपादक बंधुयों को देखा वो साहित्य सृजन, शोध करने कराने में जुट गए. वाही लोग कहीं ना काहीं जौर्नालिस्म के संसथान में हेड बन गए. नए पत्रकारों को मीडिया के  गुर सिखाने लगे.
समय रहते भूल सुधार ली वरना...                  

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...