Friday, June 29, 2018

हिन्दी मातृभाषी पैंतालीस फीसदी फिर हिन्दी बेगानी




कौशलेंद्र प्रपन्न

हिन्दी को बोलने-बतियाने वालों की संख्या फीसदी में बात की जाए तो पैंतालीस 45 है। कुल जनसंख्या का 45 फीसदी जनता हिन्दी को अपनी मातृभाषा के रूप में बरतती है। बाकी बची भाषाएं, बोलियां भी प्रचलन में हैं। जो खड़ी हिन्दी 45 फीसदी के आगे कमतर सी महसूस करती हैं। गै़र हिन्दी भाषी समाज की बात की जाए तो उन्हें लगता है कि खड़ी हिन्दी उनकी बघेली, भोजपुरी, हरियाणवी, राजस्थानी, गढ़वाली को निगल जाएगी। ऐसा डर आख़िर उन्हें क्यों लगता है? शायद इसलिए क्योंकि हिन्दी कई बार अन्य भारतीय भाषाओं को शुद्धता के तर्क पर स्वीकार नहीं कर पाती। शुद्ध हिन्दी के पैरोकारां को यह कत्तई स्वीकार नहीं कि हिन्दी में गै़र हिन्दी भाषा के शब्द, शैली शामिल हो। उन्हें यह डर रहता है कि इससे शुद्ध खड़ी हिन्दी ख़राब हो जाएगी। जबकि बहुत पहले बहुभाषा और हिन्दी को बरतने वालों ने कहा भी कि हिन्दी और उर्दू गंगा-जमुनी संस्कृति की साझा विरासत की पहचान है। यदि ऐसा है तो हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों को दूरी बनाकर चलने का क्या औचित्य है? साझा संस्कृति में हिन्दी भी कहीं न कहीं बनती, सजती और संवरती रही है। हिन्दी भाषा की सबसे बड़ी ताक़त ही यही रही है कि इसके अपने दामन में उर्दू, संस्कृत, फारसी, भोजपुरी, ब्रज, अवधी आदि भाषाओं को उदारता के साथ स्वीकार किया है। यदि इतिहास में झांक कर देंखें तो पाएंगे कि प्रसिद्ध कथासम्राट प्रेमचंद शुरू में हिन्दी में नहीं लिखा करते थे। वो सोज़े वतन पर पाबंदी लगी और प्रेमचंद हिन्दी में लिखना शुरू करते हैं। हिन्दल्वी, हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग गांधी से लेकर ऋषि दयानंद तक ने की है। यही कारण है कि हिन्दी समय के अनुसार समृद्ध होती गई है।
हिन्दी को बोलने-बरतने वालों की संख्या आज की तारीख़ में लाखों और करोड़ों में हैं। वह देशज दहलीज़ को लांघ कर वैश्विक स्तर पर लोग मिलेंगे जो हिन्दी बोलते-समझते हैं। क्यो वो दुबई हो, बाली हो, थाईलैंड हो, श्रीलंका,मॉरिशस हो इन तमाम जगहों पर हिन्दी भाषा-भाषी लोग सहजता से मिलेंगे। जिन्हीं हिन्दी से रागात्मक संबंध है। उनके लिए हिन्दी मां से कहीं ज़्यादा बढ़कर है। वे जब भी हिन्दी में कहीं उलझते हैं तब वे भारत की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देखते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उन्हें हिन्दी भाषाई मुश्किल दौर से निकलने में भारत के भाषा-भाषी मदद करेंगे। लेकिन यहां हालत यह है कि हिन्दी को या तो बाज़ार में बैठाने के लिए हम आमादा हैं या फिर शुद्ध शाकाहारी किस्म की कोई वस्तु बनाने पर तुले हुए हैं। ऐसे में हानि किसी और की नहीं होती बल्कि हिन्दी का ही नुकसान हम कर रहे होते हैं। हमें आपसी राय और सुझावों के ज़रिए हिन्दी की आंतरिक द्वंद्वों को निपटा कर वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य बनाने के प्रयास करने होंगे। हालांकि कहने वाले कह सकते हैं जनाब हमने कब कसर छोड़ी है। हर साल अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन करते हो हैं। कभी दिल्ली कभी मॉरिशस, कभी लंदन आदि। लेकिन इस हक़ीकत से भी हम मुंह नहीं फेर सकते कि इन सम्मेलनों में होता क्या है? क्या उन सम्मेलनों में शामिल लोगों की सच में इच्छा होती है कि हिन्दी बेहतर बनें? क्या उनका अपना निजी एजेंड़ा नहीं होता कि नई जगह घूम आएं। कुछ निजी रिश्ते बुन आएं ताकि उस देश में दुबारा हिन्दी के कंधे पर सवार होकर टहलने का मौका मिले। इन सम्मेलनों में कुछ रटे रटाए, स्टीरियो टाइप के विषय रखे जाते हैं जिसपर पर्चां की प्रस्तुती होती है। फिर कविता, कहानी, व्यंग्य का दौर चलता है। कविता सुन-सुना कर वाह वाह की अनुगूंज के साथ अगले सम्मेलन की तारीख़ तय हो जाती है। जिनसे इस बार नहीं मिल सके उनके अगले मेले में मुलाकात का वायदा कर आते हैं। हिन्दी वहीं की वहीं खड़ी रह जाती है।

Thursday, June 28, 2018

आग में जलें मगर...




कौशलेंद्र प्रपन्न
जलना अच्छा है। जलन न तो हो हम शायद ठहर जाते हैं। शायद कुछ समय के बाद मरने से लगते हैं। भौतिक मौत नहीं होती बल्कि हमारी गति, विकास, प्रगति ठहर सी जाती है। मनुष्य हैं जो स्वभावतः जलन आ ही जाती है। हम जलते हैं किसी की प्रगति से। किसी की संपदा से। हम जलते हैं किसी की दो गज़ जमीन से। यदि हम कम जलते हैं तो किसी की ज्ञान संपदा से। ज्ञान के लिए जलना, ज्ञान व समझ हासिल करने के लिए जलना कहीं न कहीं हमें आगे बढ़ने में मदद करता है। मगर हमें जिन चीजों से जलना चाहिए उससे नहीं जलते। जलते हैं तो उन चीजों से जो अस्थिई होती हैं। किसी की नई कार से जलने लगते हैं। दूसरे की कार को देखकर अपने आपे से बाहर जाकर लोन लेकर भी समानांतर कार ख़रीद लेते हैं। दूसरे के प्रतिभावान बच्चे से जलने लगते हैं और अपने बच्चे को कोचने लगते हैं। बच्चा का जीना दुभर कर देते हैं। जलन यदि न हो तो हमारी जिं़दगी में एक ठहर सी आ सकती है।
कभी हमारे ऋषि-मुनि दूसरों के तप, योग,साधना आदि से जलते थे। ईर्ष्या उनमें भी होती थी। मगर वह जलन उन्हें और और तपस्या करने, ज्ञान, साधना हासिल करने के लिए प्रेरित करती थीं। वहीं दूसरी ओर असुर शक्तियां ़ऋषियों की तपस्या से जलते थे। क्योंकि वे उस स्तर की साधना नहीं कर पाते थे इसलिए उनकी तपस्या में बाधा पैदा किया करते थे। पूरा का पूरा आर्ष ग्रंर्थ ऐसे उदाहरणों से भरे हुए हैं।
आम जिं़दगी में झांक कर देखें तो हमारी अधिकांश ऊर्जा, ताकत, श्रम आदि दूसरों से प्रतिस्पर्धा में गुज़र जाती है। हालांकि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ग़लत नहीं है इससे कहीं न कहीं हमें आगे बढ़ने, विकसने में मदद करती है। मगर जब प्रतिस्पर्धा सिर्फ और सिर्फ जलन में तब्दील हो जाए तो वह हमारी ही ऊर्जा, और इच्छा शक्ति को खत्म करने लगती है। हम अंदर से खोखले होने लगते हैं। कई बार हमें ख़ुद महसूस नहीं हो पाता कि हम अंदर से कितने जल भुन कर राख हो चुके हैं। जिन वज़हों व जिनकी वजह से जल रहे थे उसकी गति और प्रगति में कोई अंतर नहीं आया बल्कि हम उस जलन में धीरे धीरे बुझते जा रहे हैं। ज्ञान और सूचना आज की तारीख में सबसे बड़ी ताकत है। यदि किसी ने ज्ञान और  सूचना-तकनीक को साध लिया तो मानना चाहिए कि उसके पास हज़ारों हज़ारा हॉर्स पावर की ताकत है।
मानवीय स्वभाव में प्रेम, ईर्ष्या, डाह,क्रोध आदि तो मिले हैं लेकिन ये भाव स्थायी नहीं हैं। इन्हें सश्रम व प्रयास के ज़रिए साधा भी जा सकता है। यह इतना भी कठिन नहीं है कि इसपर जीत न हासिल की जा सके। कई बार हमारा स्वभाव परआलोचना जिसे दूसरों की निंदा के नाम से भी पुकार सकते हैं, उसमें इतना रस मिलने लगता है कि हम अपनी गति, अपना स्वभाव उससे संचालित करने लगते हैं। आप जिससे जल रहे हैं उसे कई बार इसबारे में जानकारी तक नहीं होती और आप हैं कि उनकी चिंता, जलन में न रात सोते हैं और न दिन में चैन की नींद ले पाते हैं।
यदि जलन सात्विक हो तो इससे आर्ष ग्रंर्थों में भी साराहा गया है। सात्विक जलन मनुष्य को आगे बढ़ने और जीवन में आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है। लेकिन जब वही जलन हमारी आंतरिक दुनिया को संचालित करने लगे। हमारे स्वभाव को निर्धारक बन बैठे तब हमारी वास्तविक गति, प्रगति और विकास बाधित होने लगती है। किसी की प्रगति या प्रोन्नति से जलना कैसे और क्यों? क्या इसलिए कि कभी वह हमारी ही स्थिति में हुआ करता था। क्या इसलिए कि आज वह अपने श्रम और ज्ञान की वजह से अब हमारे बीच का नहीं रहा आदि। जलना ही है तो उसकी प्रगति और विकास की प्रक्रिया को अपनाने के लिए होनी चाहिए। जलन इसबात के लिए महसूस हो कि मैं कैसे उसकी गति को हासिल कर सकता हूं। जलन इस बात की हो और आगे की रणनीति बनाने के लिए हो कि हम कैसे बेहतर हो सकते हैं।
आज की तारीख में हमारा अधिकांश श्रम और समय सिर्फ तुलना कर जलन में जाया हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरों के विकास से तो हमें खुश होना चाहिए कि फलां ने आज वह मकाम हासिल की है। हम कैसे वहां तक पहुंच सकते हैं व कैसे अपनी जिं़दगी को और बेहतर बना सकते हैं। आग का बुझ जाना गति का शांत होना ही तो है। जब हमारे अंदर की आग धीमी होने लगती है तब हम धीरे धीरे मरने से लगते हैं। यदि हमें जिं़दा रहना है तो आग को जिं़दा रखना है। जलन को बचाकर रखना है। बस ज़रूरत इस बात को ध्यान में रखने की है कि उस जलन की प्रकृति दूसरों के विकास से डाह के रूप में न हो बल्कि आत्म विकास के लिए हो भी हो। 


Friday, June 22, 2018

सूरज नहीं आता




कौशलेंद्र प्रपन्न 
अब हमारे दरवाज़े और आंगन में सूरज नहीं आता। न तो आंगन में और न ही मुंडेर पर सूरज चढ़ा करता है। कभी वक़्त था जब गर्मियों में सुबह सुबह आंगन और खिड़कियों से कमरों में झांका करता था। नींद ख़ुद ब ख़ुद खुल जाया करती थीं। नींद का क्या है, रात में छत पर सोया करते थे। सुबह चिड़ियों की आवाज़ से या फिर थोड़ी देर चादर तान कर सोते तो अह्ले सुबह सूरज अपनी सेना के साथ छत पर आ धमकते थे। सुबह के साढ़े पांच या छह बजते बजते छत से नीचे उतरना पड़ता। तब सूरज हमारे बेहद करीब हुआ करते थे। सूरज हां वही सूरज जो गर्मियों में निकले की जल्दबाजी होती और शाम देर तक ठहरा करते। कम से कम साढ़े छह और सात बजे तक तो हमारे साथ ही हुआ करते थे। हां तभी गोधूली भी हुआ करती थी। अब न गोधूली रही और न सूरज का इंतज़ार सा रहा। क्योंकि सूरज हमारे आंगन, छत, दहलीज़ से दूर जा चुके हैं। 
हम जहां हैं जहां हमारा घर हुआ करता है। ठीक उसके सामने ऊंची इमारत बन चुकी है। इतनी ऊंची की सूरज को भी ढल लिया है। न तो सुबह सूरज नज़र आता है और न धूप ही आया करती है। कभी मां होती थी तो वो सुबह नहा धोकर जलार्पण किया करती थी। रसोई में जाने से पहले नहा लेती और एक लोटनी पानी सूरज बाबा को चढ़ाकर फिर रसोई का काम करती। अब न सूरज हमारे घर के पास रहे और न उनकी रोशनी हमें मयस्सर है। जब से हमारे घर के सामने हमारे घर के समानांतर ऊंची इमारत बन चुकी है तब से सूरज का बेधड़क आना-जाना रूक सा गया है। बस घर ने निकलने के बाद गली में या फिर सड़क पर आने के बाद सूरज से रू ब रू होता है। कोई और वज़ह नहीं बस यूं ही सूरज को देखकर आंखें मूंद लिया करता हूं। आंखें बंद कर मांफी भी मांग लिया करता हूं कि हमारी ही गलती की वज़ह से अब आपसे हमारी सुबह का प्रणामपाती नहीं हो पाता। आपके और मेरे बीच ऊंची -ऊंची इमारतें खड़ी हो गई हैं। जिनकी वज़ह से हमारे सीधे मुलाकात टल सी गई है। 
यह सिर्फ मेरी या आपकी स्थिति नहीं बल्कि कम से कम महानगरों में रहने वाले हज़ारों लोगों की दास्तां है जिसमें सूरज देखते ही देखते गायब होते जा रहे हैं। उसपर तुर्रा यह कि जैसे जैसे हमारी कॉलोनी, मुहल्ले में पुराने मकान टूट कर बिल्डर के हाथों सौंपे जा रहे हैं उसमें छोटे घरों पर संकट से आ गए हैं। जो घर बीस तीस साल पुराने हो चुके हैं और घरवालों के पास पैसे हैं तो वे घर ख़तरे में हैं। अब छोटे घरों का चलन खत्म होता जा रहा है। घर हो तो पांचख् छह मंजिल का तो होना ही चाहिए। बिल्डर बनाकर अपने लिए एक फ्लारे ले लेता है और आपके सिर पर एक किरायदार बैठा देता है। आप न चाहते हुए भी एक पराए परिवार को अपने सिर पर पनाह देते हैं। यदि खरीदने की ताकत है तो आप ऐसा होने से रोक सकते हैं। लेकिन अमूमन होता नहीं है। 
अभी सूरज को पीछे धकेलने का काम महानगरों, सेकेंड और थर्ड टियर वाले शहरों में बिल्डर कल्चर शुरू हो चुका है। जहां पुराने घरों को तोड़कर नई नई ऊंची- ऊंची इमारतों को जनमा जा रहा है। ऐसे में कई बार लगता है कि लोगां को अपने पुराने मकान कोई लगाव ही न रहा। कभी मां-बाप जिस मुश्किल हालात में घर में कमरे, दुछत्ती, सीढ़ियां जोड़करते थे। उसमें वे स्वयं कई बार ईट तोड़ने, रेत लाने का काम भी कर लिया करते थे। एक एक दीवार में घर के हर सदस्य का योगदान हुआ करता था। ऐसे में यदि एक भी ईट तोड़ने की या बेचने की बात आती तो मां-बाप पहले खड़े हो जाते कि यह मैंने ख़ून पसीने की कमाई से बनाई है कम से कम मेरे जीते जी तो इसे न तो बेच सकते हैं और न तोड़ सकते हैं। लेकिन पुराने लोग जैसे जैसे हमारे बीच से खिसकते गए वैसे वैसे पुराने मकानों को तोड़कर ऊंची इमारतों को तवज्जो दिया जाने लगा। कभी वक़्त तो यह भी था कि एक घर में जिसमें दो से तीन कमरे हुआ करते थे लेकिन उसमें रहने वाले पांच-छह सदस्य होते थे। सब के सब ख्ुश और प्रसन्न। किसी को भी अगल से कमरे का दरकार नहीं होता। वक्त़ ने करवट ली और आज ऊंची इमारतों में पांच-छह कमरे होते हैं लेकिन रहने वाले वही दो या तीन। यदि उदार हुए तो जब तक ज़िंदा हैं मां-बाप रह लिया करते हैं। उसके बाद बच जाते हैं बस मां-बाप। बच्चे बड़े होते ही अपनी राह ले लेते हैं। ऐसे में पांच-छह कमरे यूं ही ढन ढन तवाते रहते हैं। रहने वालों के इंतज़ार में कमरे की साफ सफाई भी कठिन लगने लगता है। 

Wednesday, June 20, 2018

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2018 में श्री अरविंद की शारीरिक शिक्षा हुई शामिल



कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा के उद्देश्य समय और काल की मांग के अनुसार ज़माने से तय होते रहे हैं। आज़ादी पूर्व शिक्षा के मायने और मकसद अलग थे। तब हमें गुलामी की जंजीरों से छुटकारा पाना था। इसलिए तब की शिक्षा और उसके मकसद तत्कालीन ज़रूरतों के अनुसार तय हुए। आज़ादी के पश्चात् हमें देश की नवनिर्मिति के लिए दिशा और दशा तय करने थे। सो हमने कई सारे आयोग बनाए, नीतियां बनाई ताकि देश की शिक्षा राष्ट्रनिर्माण में मददगार हो सकें। ठीक इसी तर्ज़ पर समय समय पर देश के विभिन्न चेत्ताओं ने शिक्षा की दिशा और दशा निर्धारित की। इनमें महर्षि अरविंद, टैगोर, गांधी,जे कृष्णमूर्ति आदि के नाम बड़े सम्मान और एहतराम से लिए जाते हैं। इन्होंने नई शिक्षा नीति और दिशा को ही तय करने में अपनी भूमिका नहीं निभाई बल्कि शिक्षा के स्वरूप तय करने में भी अपने अविस्मरणीय योगदान के लिए जाने जाते हैं।
महर्षि अरविंद शिक्षा के जिन पांच प्रमुख घटकों पर जोर देते हैं उन्हें सरकार और शिक्षा नीति निर्माताओं ने अहमियत दी। श्री अरविंद ख़ासकर आत्मिक, शारीरिक, मानसिक आध्यात्मिक आदि शिक्षा को प्रमुखता विमर्श करते हैं। इनमें भी शारीरिक शिक्षा पर श्री अरविंद इसलिए भी वकालत करते नज़र आते हैं क्योंकि यदि शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेंगे तो शिक्षा कैसे और किस सूरत में हासिल की जा सकती हैं। श्री अरविंद की इस वकालत को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2018 शिद्दत से स्वीकारती है। हालांकि कोठारी आयोग से लेकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968, 1986 आदि ने भी शारीरिक शिक्षा को शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल करने की सिफारिश कर चुकी है।
श्री अरविंद के शारीरिक शिक्षा की सिफारिश को इस रूप में भी समझने की आवश्यकता है कि यदि वर्तमान सरकार शारीरिक शिक्षा को शिक्षा नीति में शामिल करने का नीतिगत मन बना चुकी है तो यह कहीं न कहीं श्री अरविंद की शैक्षिक स्थापनाओं को संस्थागत पहचान और स्वीकृति मिल रही है।
गौरतलब है कि शारीरिक शिक्षा को लंबे समय से हाशिए पर रखा गया है। वह नीतिगत कमियां ही मानी जाएंगी। लेकिन देर से ही सही किन्तु श्री अरविंद की प्रमुख शैक्षिक स्थापनाओं को शिक्षा नीति में प्रमुखता से स्थान दिया जा रहा है।

Tuesday, June 19, 2018

फाईल की गति, अधिकारी ही जानें




 कौशलेंद्र प्रपन्न
कभी हरिशंकर परसाई ने एक कहानी लिखी थी ‘‘ भोलाराम का जीव’’ यह कहानी बड़ी शिद्दत से सरकारी दफ्तर में फाईलों की गति, दशा-दिशा का चित्रण करती है। एक भोलाराम की फाईल कहीं किसी बंड़ल में दब जाती है। उस फाईल की तलाश में यमराज भी धरा धरती पर आते हैं भोलाराम की आत्मा ले जाने। जो भी हो यमराज को भी सरकारी दफ्तर में हज़ारों चक्कर काटने पड़ते हैं। वहीं फाईल पर वोट होना चाहिए जैसे शब्दों और वाक्यों सुनकर वो अपना वाद्ययंत्र रख देते हैं। दफ्तर के बाबू कहते हैं वेट होना चाहिए वोट समझे। इस कहानी को जब भी पढ़ें लगता है आज की ही कहानी कही जा रही है। फाईलों की भी अपनी अपनी किस्मत होती है। कोई कोई फाईल तो समय से चला करती हैं। उनमें कोई दिक्कत नहीं आती। मुकम्म्ल टिप्पणी के साथ फरियादी तक पहुंच जाती हैं। लेकिन ऐसी भी दुर्भागी फाईलें होती हैं जिन्हें इस टेबल से उस टेबल तक सुस्ताना पड़ता है।
हर फाईल को एक नाम यानी नंबर दिया जाता है। जिसे नंबर या डिपाटमेंट्स के नाम से पुकारा जाता है। किस विभाग की फाईल है। कौन इसका अधिकारी है, कौन इसपर एक्शन लेगा यह सब तय होता है। लेकिन कई बार वोट कम होने। सही व्यक्ति की पहचान के बगैर वे फाईलें कहीं किसी टेबल पर हज़ारों फाईलों में दब जाती हैं। जब कोई सुध लेने वाला आता है तब से काफी माथा पच्ची करनी पड़ती है कि फलां फाईल की मूवमेंट क्या है, कहां है? कौन तलाश करेगा। वो भी जब उस फाईल का क्रिएटर लंबी छुट्टी पर चला जाए तो यह एक अगल कहानी बन जाती है।
भला हो डिजिटल युग का कि धीरे धीरे हमारे काग़जात डिजिटल फार्म में तब्दील हो रहे हैं। ऐसे में फाईलों के लोकेशन पता करना ज़्यादा कठिन नहीं है। तकनीक भाषा में आप इसे रिट्रीवल सिस्टम के नाम से पुकार सकते हैं। अगर फाईलों को सही लोकेशन पर रखी जाए तो वे पाथ वे स्टोरेज की तलाश की जा सकती है। लेकिन यदि फाईलों को बेतरतीब से रखी गई हो तो मजाल है आप निकाल पाएं।
डिजिटलाइजेशन ने कम से कम पुराने दस्तावेज़ों, किताबों, पांडुलिपियों आदि को संरक्षित करने, सुरक्षित रखने और करने में मददगार साबित हो रही हैं। लेकिन दो दुनिया समानांतर चल रही हैं। ख़ासकर सरकारी ऑफिस में। यहा अभी भी नीले रंग के हाशिए वाले पन्नों पर टिप्पणियां लिखी जाती हैं। टिप्पणियां तय करती हैं कि फाईल समय पर सही व्यक्ति तक पहुंच जाएगी। टिप्पणियों के लेखक यानी अधिकारियों की भाषा भी नायाब होती है। जानकार बताते हैं कि अधिकारी ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिनके बहुआयामी अर्थ होते हैं। इतने अस्पष्ट की कितनी भी बुद्धि लगा ली जाए आम व्यक्ति उसके मायने नहीं समझ सकता। जब फाईल को पास नहीं करना हो तो ऐसी ही घुमावदार भाषा का इस्तमाल अधिकारी करते हैं। ऐसे ऐसे कमेंट लिख देंगे कि उसकी भाषा बाबूजन भी समझ पाते हैं। उस भाषा को डिकोड करने के लिए बाबुओं की मदद लेनी पड़ती है।
ऐसे ही एक फाईल की गति और दिशा-दशा जानने के लिए पिछले दिनों पूर्वी दिल्ली नगर निगम और दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के दफ्तर का चक्कर काटना हुआ। फाईल की मूवमेंट ही पता नहीं चल पा रहा है। फाईल आख़िरकार हैं कहां? कौन उस फाईल को बपौती मान कर दबाए बैठा है? आदि। उस फाईल के पेट पर कई सारी आधिकारिक भाषा में कमेंट लिखे गए थे। जिस हम आमबुद्धि वाला व्यक्ति शायद समझ न पाए। बाद में वहीं के एक अधिकारी ने समझने में मदद की कि आपकी फाईल फलां साहब के पास है। वे जैसी टिप्पणियां लिखा करते हैं उसे सिर्फ वही समझते हैं। फिर भी कोशिश कर लें शायद अब उनका मूड अच्छा हो। वैसे फाईल निकलवानी हो या काम कराना हो तो दो हज़ार उन्नीस दिसंबर का इंतज़ार करें। मतलब समझाया वो दिसंबर में रिटायर हो रहे हैं।
फाईलों की गति, भाग्य को बांचना इतना भी आसान नहीं होता। बड़े बड़े गुणीजन भी चक्कर खा जाते हैं। हलांकि हरिशंकर परसाई जी ने बड़ी बारीक नज़र से फाईलों के भाग्य को बांचने की कोशिश की है ‘‘ भोलाराम का जीव’’ में। इसे पढ़ना दरअसल फाईलों की गति और सरकारी दफ्तर की कार्यप्रणाली का समझ विकसित करना ही है।

Monday, June 18, 2018

टीम की ताकत...


कौशलेंद्र प्रपन्न
बहुत प्रसिद्ध वाक्य ‘‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता’’ हमसब ने सुना है। इसके अर्थ भी बचपन में ज़रूर रटे व समझे होंगे। जब इस वाक्य के व्यापक मायने की ओर मुड़कर देखते हैं तो कई सारे निहितार्थ समझ में आते हैं। अकेला चना यानी वह व्यक्ति जो समर्थवान तो है लेकिन अपनी ताकत और क्षमता का सही तरीके से इस्तमाल नहीं कर पा रहा है। हालांकि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अकेला बहुत सही प्रदर्शन करते हैं। लेकिन उन्हें टीम में डाल दिया जाए व टीम में काम दिया जाए तो वे टीम-भावना से व टीम में सबके साथ बेहतर कॉडिनेशन से प्रदर्शन नहीं कर पाते। शायद अकेले अकेला अच्छा करते हैं। क्योंकि उसमें किसी और से समायोजन बैठने, कम्यूनिकेशन के दरकार नहीं होते। जितना कि टीम में कॉडिनेशन, कम्यूनिकेशन की आवश्यकता पड़ती है। वे एकला काम करने में विश्वास करते हैं। इस तरह सिंगल पर्फारमर तो होते हैं लेकिन उनमें टीम में काम करने की दक्षता व रूझान की कमी नज़र आती है। ऐसे में टीम लीडर की जिम्मेदारी होती है कि ऐसे इंडिविजूवल पर्फारमर को उसके नेचर और स्कील के अनुरूप काम सौंपे। धीरे धीरे उस व्यक्ति को टीम भावना और टीम वर्क की ओर मोल्ड किया जा सकता है।
वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अकेले में काम करने की बजाए समूह जिसे टीम वर्क कहा जाता है उसमें विश्वास करते हैं। उनमें टीम के अन्य सदस्यों के साथ कैसे इमोशनल और प्रोफेशनल व्यवहार करने हैं इसकी समझ होती है और उसी के अनुरूप व्यवहार भी करते हैं। समूह में काम करने वालों में समायोजन, कम्यूनिकेशन, विज़न और रणनीति बनाने की क्षमता कुछ ज़्यादा विकसित होती है। इन्हीं बुनियादी स्कील के आधार पर ऐसे पर्फारमर बेहतर प्रदर्शन करते हैं। इसमें टीम लीडर की सूझ बुझ की पहचान भी हो जाती है कि क्या उसकी नज़र में सभी सदस्यों की क्षमता और दक्षता की पहचान है या नहीं। क्या लीडर की नज़र में सिर्फ बेहतर प्रदर्शन करने वाले सदस्य ही हैं या वे टीम मेंबर भी हैं जो थोड़े कमतर प्रदर्शन कर पा रहे हैं। जो थोड़े कम प्रदर्शन कर पा रहे हैं क्या उनके लिए लीडर के पास कोई विशेष कार्य नीति, रणनीति है या उन्हें वह नज़रअंदाज़ तो नहीं कर रहा है। आदि ऐसे टीम लीडर की विशेषताएं होती हैं जो टीम में काम करने की भावना को हमेशा हवा दिया करता है। टीम में कैसे कम्यूनिकेट करना है, कैसे कॉडिनेट करना है और ज़रूरत के अनुसार इंफर्मेंशन कब और कैसे देना है आदि की समझ टीम लीडर की विशेषता होती है।
एक बेहतर टीम लीडर कमतर पर्फारमर से भी अच्छा काम ले सकता है। उसके पास हर किस्म के और हर स्तर के मानव संसाधन से काम लेने और व्यक्ति को मोटिवेट करने की दक्षता होती है व लीडर की इसकी अपेक्षा की जा सकती है। एक बेहतर टीम लीडर किसी भी सदस्य को पीछे नहीं छोड़ सकता। वह हर व्यक्ति की वैयक्तिक ख़ासियत को ध्यान में रखता है और समय और स्थान के अनुसार उसे समुचित इस्तमाल करता हे। यदि टीम लीडर में इस प्रकार की विशेषता नहीं है तो कई बार वह व्यक्ति की वैयक्तिक ख़ामियत को जाया कर देता है। इसका परिणाम यह होता है कि उसका एक सदस्य जो अच्छा पर्फारमर था वह धीरे धीरे डाउन होने लगता है। दूसरे शब्दों में वह डिमोटिवेशन का शिकार होना शुरू हो जाता है। इससे न केवल टीम के प्रदर्शन पर असर पड़ता है बल्कि कंपनी और टीम के अन्य सदस्यों पर भी विपरीत प्रभाव छोड़ता है। यदि टीम के मोटिवेशन स्तर को बरकरार रखने हैं कि समय समय पर टीम बिल्डिंग के कुछ एक्सर्साइज कराने चाहिए। कुछ कंपनियां के टीम लीडर व मैनेजर अपनी टीम को दफ्तर के बाहर या भीतर ही कुछ वर्कशॉप या एक्सकर्शन टूर प्लान करते हैं ताकि वर्क से बाहर निकल कर टीम आपस में संवाद कर सकें। इस एक्टीविटी का परिणाम यह होता है कि आफिस के वर्क कल्चर के बाहर निकल कर हर सदस्य एक दूसरे के वैयक्तिक ख़ासियतों से वाकिफ हो पाता है। एक दूसरे को बेहतर तरीके से जान पाता है साथ ही टीम भी भावना विकसित हो पाती है।

Monday, June 11, 2018

लिखते रहे,सुनते रहे और गुनते रहे बच्चे


कौशलेंद्र प्रपन्न
रिपोर्टों की मानें तो भारत में स्कूली स्तर पर बच्चों की लर्निंग स्थिति चिंताजनक है। लेकिन कई बार वास्तविकता इन रिपोर्ट से भिन्न मिलती है। हाल ही में पटना स्थिति बाल भवन में तकरीबन पैंतीस बच्चों की कार्यशाला में बातचीत करने का अवसर मिला। वह भी कुछ घंटे नहीं बल्कि पूरे तीन दिन। पूरे दिन सुबह दस से शाम पांच और छह बच्चे तक बच्चे कार्यशाला से जाने का नाम नहीं ले रहे थे। इस बाल भवन का किलकारी के नाम से जानते हैं। जहां विभिन्न आयु के बच्चे आते हैं। कुछ समर कैंप में तो कुछ पूरे साल। इन बच्चों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए विभिन्न गतिविधियों को अंज़ाम दिया जाता है। इनमें थिएटर, नृत्य, संगीत, नुक्कड़ नाटक, सृजनात्मक लेखन आदि। इन तमाम गतिविधियों से परिसर गुलजार रहा करता है। बच्चों से बातचीत के दौरान यह भी मालूम चला कि इन बच्चों के सुझाव, राय आदि को प्रमुखता से परिसर में स्थान दिया जाता है।
सृजनात्मक लेखन के इन तीन दिनों में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों के जिन मुद्दों पर बातचीत और काम हुए वह वास्तव में उक्त रिपोर्ट को आईना दिखाती हैं। क्या पढ़ना और क्या लिखना इन भाषायी कौशलों में बच्चे ख़ास दक्ष थे। इनकी लिखी कहानियों, कविताओं आदि से गुज़रते हुए ज़रा भी एहसास नहीं होता कि इन्हें लिखने वाले बच्चे कक्षा दूसरी, तीसरी या पांचवीं के हैं। इन बच्चों की लेखन क्षमता और लिखने के प्रति जिज्ञासा और ललक को देखते हुए हमें यह एहसास होता है क्या ये रिपोर्ट आसमान में बनाई जाती हैं? इन रिपोर्ट लेखन में किन्हें नरअंदाज़ किया जाता है? कहां से आते हैं ऐसे डेटा जो बताते हैं कि बच्चे पढ़ नहीं सकते। बच्चे लिख नहीं सकते।
कक्षा दूसरी और तीसरे के बच्चे जब नाटक क्या है और कहानी में क्या महत्वपूर्ण घटक होते है जो कहानी को रोचक बनाते हैं आदि का समुचित और प्रसांगिक विश्लेषण के साथ बताएं तो क्या कहना चाहेंगे। इस प्रकार के जवाबों से तीन दिन रू ब रू होने का अवसर मिला। इनमें यह उत्कंठा प्रबल थी कि मैं कहानी तो लिखता हूं। कविताएं तो लिख लेता हूं लेकिन मंच पर या सब के सामने अच्छे से प्रस्तुत नहीं कर पाता। आप तो बड़े हैं आपने तो कई प्रस्तुतियां देखीं होंगी हमें भी वे कौशल बताएं ताकि हम और बच्चों से पीछे न रहें। हम भी अपनी कहानी को बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर सकें। इन बच्चों की तार्किक क्षमता और तथ्यपरक िंचंतन एक बार के लिए सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम इतने छोटे बच्चों से मिल रहे हैं या एक प्रखर और इतनी छोटी आयु में सृजनशीलता की बारीक बुनावटों को समझ और इस्तमाल कर रहे थे।

Tuesday, June 5, 2018

शिक्षा बिना बोझ के या सिलेबस जटिल का खेल



कौशलेंद्र प्रपन्न
बच्चों को क्या और कितना पढ़ना चाहिए यह राजनीतिक दल तय करेगी या कि शिक्षविद्ों के ऊपर यह जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए। यह एक ऐसा मसला है जिसपर राजनीति धड़ों और अकादमिक समूहों के बीच हमेशा ही तनातनी रही है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना होगा कि मतभिन्नताएं कितनी भी हों। हमारी चिंता के केंद्र में बच्चे के सर्वागींण विकास होना चाहिए। वह किसी भी कीमत पर निभाने के प्रयास करने चाहिए। पूर्व की सरकारें व राजनीतिक दलों ने शिक्षा में बदलाव परिवर्तन के नाम जो भी कदम उठाए हैं उसका विश्लेषण राजनीतिक कम अकामिक स्तर पर होना चाहिए।
हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर ने कहा है कि बच्चों पर करिकूलम के बोझ को करना होगा। हमारे बच्चों पर करिकूलम का बोझ है। बच्चों का विकास अवरूद्ध होता है। 1990 के आस-पास या इससे थोड़ा पीछे जाएं तो प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाविद् प्रो. यशपाल ने एजूकेशन बिदाउट बर्डेन की बात की थी। यानी शिक्षा बिना बोझ के की वकालत न केवल यशपाल ने नीति के स्तर पर की बल्कि पाठ्यपुस्तकों के निर्माण और पाठ्यचर्याओं में भी रद्दोबदल की मांग की थी। यह एक नए ज़िद्द को हमें अकादमिक स्तर पर समझना होगा कि जहां प्रो. यशपाल बस्ते बोझ को कम करने की मांग कर रहे थे वहीं वर्तमान सरकार करिकूलम के बोझ को कम करने की बात कर रही है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के हवाले से कहा तो यह भी जा रहा है कि इस नीति में बच्चों की परीक्षा प्रणाली को भी बदला जाएगा। यानी कक्षा पांचवीं और आठवीं में फेल की प्रक्रिया को बदला जाएगा।
शिक्षा में परिवर्तन न तो कोई नई बात है और न ही अपूर्व घटना। बल्कि शिक्षा का स्वरूप हमेशा ही बदला किया है। शिक्षा का परिप्रेक्ष्य समय और कालानुसार बदलता रहा है। लेकिन जो चीज नहीं बदली है वह है शिक्षा का उद्देश्य। किसी भी कालखंड़ पर नज़र डालें शिक्षा का मकसद एक बेहतर इंसान बनान है। बच्चों को भविष्य के जीवन की तैयारी के रूप में भी शिक्षा के सरोकारों को रेखांकित किया जाता रहा है।
शिक्षा में करिकूलम, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकें तो सहायिका की भूमिका निभाती हैं। ये सहगामी प्रक्रियाएं जिन्हें हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। हम बस इतना कर सकते हैं कि इन सहभागी क्रियाओं को कैसे बेहतर तरीके से इस्तमाल करें ताकि शिक्षा के वृहत्तर मकसद का हासिल किया जा सके।
आज की तारीख़ में शिक्षा के उद्देश्य में यदि कोई बड़ी तक़्सीम हुई है तो वह यही कि हमारा फोकस बदल चुका है। हम पूरी तरह से शिक्षा को नंबरों के पहाड़ पर चढ़ा चुके हैं। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज की तारीख़ में अंकों का मायने हमारे बच्चों की जिं़दगी दिशाएं तय करने लगी हैं। हालांकि कें्रदीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड जिस प्रकार से नबंरों को बढ़ा-चढ़ाकर कर परिणाम घोषित कर रही है इस बाबत उसने इस ग़लती को स्वीकार भी कर चुकी है।
वर्तमान में एमएचआरडी का मानना है कि सरकार ने पहली बार रेखांकित किया है कि बच्चों का सिलेबस जटिल है। इसे हल्का करना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकारें जो अब तक रही हैं क्या उनके संज्ञान में ऐसी बड़ी घटना कभी आई ही नहीं या उन सरकारों की प्राथमिकता सूची में शिक्षा के इतने बड़े बोझ को नज़रअंदाज़ ही किया गया। दरअसल जब जब सरकारें सत्ता में आई हैं उन्होंने शिक्षा को अपना एजेंड़ा ज़रूर बनाया है। बस अंतर इतना रहा कि किसी ने बेहतरी के लिए कदम उठाए तो किसी ने अपने एजेंड़ा को पूरा करने के लिए शिक्षा का इस्माल किया।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...