Wednesday, March 26, 2014

घोषणाओं से आगे जाए शिक्षा


कौशलेन्द्र प्रपन्न
हमने कई बार कई मंचों पर घोषणा की कि हम फलां तारीख तक शिक्षा को सर्व सुलभ बना देंगे। उन्हीं घोषणाओं में प्रमुख घोषणों को याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा। पहली घोषणा हमने 1990 में सेनेगल में की। जिसे हम ‘सब के लिए शिक्षा’ यानी ईएफए के नाम से जानते हैं। इसमें छः लक्ष्य रखे गए थे। जिसमें 2000 तक सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा बिना किसी भेदभाव के समान अवसर के साथ मुहैया कराएंगे। इन छः लक्ष्यों को कबूलने वाले देशों में भारत भी शामिल था। 2000 में हमने देखा कि अभी काफी लक्ष्यों को हासिल करने में हम पीछे हैं। इसलिए हमें और समय चाहिए। सो डकार में तय किया गया कि 2015 तक हम इएफए के लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। इएफए के साथ ही हमने 2000 में मिलेनियम डेवलप्मेंट गोल में भी सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान करेंगे इसकी प्रतिबद्धता दुहराई थी। हमारी घोषणाओं और अंतिम तारीख की दूरी कमती जा रही थी। सो हमने सरकारी पहल की और सर्व शिक्षा अभियान चलाया ताकि कम से कम बुनियादी शिक्षा के लक्ष्य को हासिल किया जा सके। यही प्रतिबद्धताएं थीं जिनकी वजह से हमने 2002 में एक ऐतिहासिक कदम उठाया और भारतीय संविधान में 86 वां संशोधन कर मौलिक अधिकारों में शिक्षा को शामिल किया। हमने अपनी घोषणा को कानून में दर्ज किया और हमने समाज को बताया कि अब हम सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा का अधिकार कानूून संगत बना रहे हैं। 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित हुआ और 1 अप्रैल 2010 को यह पूरे देश में लागू हुआ। याद हो कि हमारे सामने 2015 का लक्ष्य बार बार चीख चीख कर कह रहा है कि अब समय बड़ी तेजी से भाग रहा है कहीं ऐसा न हो कि इस बार भी हम झूठे साबित हों। इसलिए सर्वशिक्षा अभियान के अलावे हमने शिक्षा के अधिकार अधिनियम से ठीक कुछ माह पहले राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का आगाज़ भी किया ताकि कई स्तरों पर लक्ष्य को हासिल करने के प्रयास हो सकें। 31 मार्च 2013 पिछले साल जा चुका है हमने तय किया था कि इस तारीख तक आरटीई एक्ट लागू हो।
सब के लिए शिक्षा यानी ‘इएफए’ के छः के छः लक्ष्यों के निकष पर भारत की बुनियादी शिक्षा को परखने की कोशिश करें तो निराशा के सिवाए कुछ भी हाथ नहीं लगता। क्योंकि अभी भी सरकारी आंकड़ों के अनुसार 80 लाख बच्चे शिक्षा और स्कूल के पहुंच से बाहर हैं। गैर सरकारी संस्था की रिपोर्ट की मानें तो यह संख्या 7 करोड़ अस्सी लाख से भी कहीं ज्यादा ठहरता है। नामांकन दरों में सर्व शिक्षा अभियान का यह असर जरूर हुआ कि बच्चे स्कूलों में दाखिल हुए। लेकिन बीच में ही शिक्षा और स्कूल न पूरी करने वालों बच्चों की संख्या भी रूकी नहीं। स्कूल बीच में छोड़ने वालों बच्चों और बच्चियों की संख्या भी लाखों में है। वहीं मध्याहन भोजन की गुणवत्ता, वर्दी, शिक्षा पर नजर डालें तो जो चित्र हमारे सामने उभरती है वह भी बहुत संतोषजनक नहीं कह सकते। हर साल मिड डे मील खाकर कई राज्यों में बच्चे बीमार हुए, और मर चुके हैं। इन पहलकदमियों के पीछे हमारा मकसद यही था कि किसी भी तरह बच्चों को स्कूल तक लाया जाए। बच्चे आए भी और स्कूल बीच में छोड़कर जाने भी लगे। स्कूल छोड़कर जाने वाले बच्चों के कारणों पर नजर डालें तो पाएंगे कि स्कूल का रोचक वातावरण का न होना। स्कूल और घर के बीच की दूरी का होना, अभिभावकों की ओर से अरूचिपूर्ण बर्ताव का होना आदि ऐसे कारण रहे जिनकी वजह से बच्चे स्कूल का स्वाद नहीं चख पाए। शिक्षा का अधिनियन 2009 बड़ी शिद्दत से स्कूल को चाइल्ड फ्रैंडली वातावरण मुहैया कराने की ओर हमारा ध्यान खींचता है। यह कहता है कि हर स्कूल में कम से कम शौचालय, पीने का पानी, स्कूल की चाहरदीवारी, कक्षाएं, खेल के मैदान, पुस्तकालय आदि हों। स्कूल का वातावरण ऐसा हो कि बच्चे भागने की बजाए स्कूल आने के लिए लालायित हों। लेकिन पिछले तीन सालों की गैर सरकारी संस्थाओं के अध्ययन रिपोर्ट को देखें तो अधिकांश सरकारी स्कूल इन 10 बिंदुओं पर खरे नहीं उतरते। अव्वल तो सरकारी स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं हैं और जहां हैं वे या तो प्रशिक्षित नहीं हैं। यदि प्रशिक्षित हैं तो उन्हें गैर शैक्षणिक कार्यों में इस कदर झोंक दिया जाता है कि वो पठन पाठन से दूर हैं। कई राज्यों में आज भी लाखों पद खाली पड़े हैं। दिल्ली भी इससे अछूती नहीं है। यहां भी चार हजार से भी ज्यादा प्रधानाचार्य, शिक्षक आदि के पद खाली पड़े हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, झारखंड़ आदि राज्यों में तो 2 से तीन लाख पद रिक्त हैं। कल्पना कर सकते हैं कि जिन स्कूलों में पूरे शिक्षक ही नहीं हैं वहां किस प्रकार की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा रही होगी। शिक्षकों  की नियुक्ति को लेकर कई बार राज्य सरकारों को न्यायालय की ओर से झाड़ पड़ चुकी है। कई बार सचिवों को तलब भी किया गया कि बताएं कि अब तक पदों को क्यों नहीं भरा गया? आपके पास इस समस्या से निपटने के क्या उपाय व योजना है। मगर हमारी नींद नहीं ख्ुाली। उच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि क्यों न यदि राज्य सरकार इसमें अक्षम है तो कोर्ट इसे अपने हाथ में ले। लेकिन राज्य सरकारें अभी भी नींद से नहीं जगी हैं। 2015 अब हमसे दूर नहीं हैं जब हमें विश्व और भारत को भी साबित करना है कि सभी बच्चे शिक्षा हासिल कर रहे हैं। सभी 6-14 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चे अपनी कक्षा 1 से 8 कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। दुर्भाग्य ही कहना होगा कि तमाम घोषणाओं और योजनाओं के बाद भी हमारे महज 80 लाख बच्चे सरकारी नजरों में स्कूल नहीं जाते।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करें तो स्वयं सरकारी आंकड़े भी स्वीकार चुके हैं कि हमारे बच्चों को कक्षा 8 वीं तो पढ़ते हैं लेकिन उन्हें कक्षा 1 के स्तर की शिक्षा यानी भाषा, गणित और विज्ञान की समझ हम नहीं दे पाए हैं। ऐसे लाखों बच्चे हैं जिन्हें सिर्फ वर्णों की पहचान भर है। ऐसे बच्चे वर्ण तो बोल लेते हैं, कुछ बच्चे लिख भी लेते हैं लेकिन समझ की बात करें तो उन्हें लिखे हुए गद्य को पढ़कर समझने की क्षमता नहीं है। नेशनल काॅसिल आफ एजूकेशन रिसर्च एंड टेनिंग ‘एनसीइआरटी’ की ओर बच्चों में खासकर प्रारम्भिक कक्षाओं में भाषा को पढ़ने और शब्दों की पहचान के साथ समझने के स्तर को लेकर सर्वे आयोजित किया जिसमें पाया गया कि 86 फीसदी बच्चे शब्दों को पहचानने में सक्षम थे। वहीं 65 फीसदी बच्चे सुने हुए गद्यांश को समझने में सक्षम थे और 59 फीसदी बच्चे पढ़े हुए गद्यांश को समझने में सक्षम हैं। वहीं एक और दूसरी गैर सरकारी संस्था की ओर से हुए अध्ययन रिपोर्ट पर नजर डालें तो चित्र कुछ और उभरती है एएसइआर की ओर से प्रारम्भिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों में पढ़ने के स्तर को लेकर एक सर्वे किया गया। इस सर्वे की मानें तो 52 फीसदी बच्चे जो कक्षा 5 वीं में पढ़ते हैं, लेकिन उनमें कक्षा 2 री के पाठ पढ़ने की क्षमता नहीं होती। यहां तक कि तकरीबन एक तिहाई बच्चे बुनियादी जोड़ घटाव भी नहीं कर सकते। एएसइआर की ओर की गए सर्वे की मानें तो 2010 में जहां कक्षा 5 वीं के 50.7 फीसदी बच्चे कक्षा 2 री स्तर के पाठ पढ़ सकते थे वहीं यह प्रतिशत 2012 में घटकर 41.7 फीसदी पर गिर चुका है। बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हमें आजा़दी के बाद भी प्रारम्भिक पठन- लेखन स्तर में कोई संतोषजनक उपलब्धि हासिल नहीं हो सकी है। लेकिन यह महज साक्षरता में उछाल शिक्षा का लक्ष्य नहीं है। बल्कि साक्षरता के साथ ही बच्चों में पढ़ने और लिखने की क्षमता भी होनी चाहिए। प्रारम्भिक पठन- लेखन के विविध संदर्भों पर नजर डालें तो स्पष्ट होगा कि प्रारम्भिक कक्षों में शिक्षकों का विशेष ध्यान बच्चोें में अक्षरों को पढ़ने के कौशल विकसित करने में होता है। दूसरे चरण में हमारा ध्यान बच्चांे में पढ़े हुए अक्षर को लिखने का कौशल प्रदान करना होता है। बच्चे को न केवल भाषा में बल्कि शिक्षा के मूल उद्देश्यों को हासिल करने में एक कदम आगे बढ़ाने के लिए बुनियादी स्तर पर ही मेहनत करने की आवश्यकता है। लेकिन उन्हें अपने स्तर की न तो भाषा की समझ है और न ही अन्य विषयों में गति। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चा स्कूल और सरकारी आंकड़ों में तो बढ़त हासिल की है लेकिन हकीकत यह है कि वे बच्चे कुछ अन्य कारणों से स्कूल में बने रहते हैं।
देश इन दिनों लोक सभा के चुनाव में व्यस्त है। तमाम तंत्र चुनाव की नैया पार करने में जुटी हैं। शिक्षा इनके मसौदे में यदि है भी तो खानापूर्ति से ज्यादा नहीं है। ऐसे में क्या हम 2015 के लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे यह एक गंभीर सवाल हमारे सामने है। क्या हमने जो घोषणाएं 1990 और 2000 में अंतरराष्टीय स्तर पर की थी उसे पूरे करने के लिए हमारी सरकार वचनबद्ध है और यदि है तो उसे पाने के लिए समुचित और पर्याप्त प्रयास हो रहे हैं? इन सवालों को टाल तो सकते हैं किन्तु बच नहीं सकते। राजनैतिक इच्छा शक्ति की भी बात आती है कि क्या हम अपनी घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने के प्रति सजग और जागरूक हैं। वरना जिस तरह से पीछे हमने कई डेड लाइनें पूरी नहीं हैं वैसे ही एक बार फिर हम और समय की मांग कर बैठें।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...