Wednesday, January 29, 2014

भगोड़े नहीं थे वो


कौन कहता है कि वो भगोड़े थे। उन्होंने तो सबको यही कहा था कि कल सुबह घर से जाएंगे, लेकिन रात में ही निकल गए। इसमें भगोड़ा की बात कहां से आ गई। बड़ी आसान सी बात भी आपको समझ नहीं आती कि घर बेच कर जा रहे थे। यानी दूसरे शहर। अब इस शहर से उनका दाना पानी खत्म हो गया था। बेटा अपना नया मकान बनाना चाहता था, उसे पैसे की आवश्यकता थी। सो उन्होंने बेटे के लिए अपनी गहरी कमाई से बनाए मकान ही तो बेच रहे थे। आखिर मरने क बाद भी तो यह मकान उसका ही होना था। यह अलग बात है कि जीते जी इस मकान को बेच गए। हां इसे भी बनाने के लिए अपने खेत और रिटायरमेंट के मिले पैसे लगाए थे। अब यह मायने नहीं रखता कि कैसे कैसे एक एक कमरे बनवाए और भर भर दुपहरिया, बरसात में बैठकर काम कराए। एक बार मोह टूटता है तो फिर हम कुछ भी कर देते हैं।
सुबह उनके दरवाजे पर ताला भाई साहब थे। खामोश और निरपेक्ष भाव से टंगे ताले की भी अपनी ही कहानी थी। वो ताला भी मास्टर साहब के घर से मांग कर लाए गए थे कि कल नया खरीद कर वापस कर दूंगा। तो ताले की भी मजबूरी रही होगी शायद। वो लटका था और कई कहानी रात की कह रहा था। वो तो रातों रात चले गए और लोगों की बातें, शिकायतें सुनने के लिए इसे लटका गए। ताला भी आखिर मजबूत दिल वाला था। वो भी बिना बेचैन हुए सब की बातें, लानतें सुन रहा था। लोग यही तो कह रहे थे कि बिना बताए चले गए। मेरा 10 हजार उनके पास था। तो कोई कहता मेरी साइकिल उनके पास थी। बैंक पास के साव जी भी आ गए कहने लगे एक महिने से राशन ले रहे थे अचानक पैसे लेकर भाग गए।
अरे भाई आप भी कहां रहते हैं? इसी दुनिया में रहिए। जब उन्हें मकान बेच कर जाना ही था तो फिर इस शहर और शहर के लोगों स ेअब क्या लेना देना। क्यों भला वो पैसे लौटाते? क्यों किसी से लिए उधार चुक्ता कर जाते। कौन उनसे पैसे लेने नए शहर जाएगा। कुछ दिन की ही तो बात है लोग बोल बोल कर थक जाएंगे। धीरे धीरे भूल जाएंगे। जैसे बसंतु वाली घटना अब किसे याद है। सब भूल ही तो गए। मान लिया कि अब वो पैसे नहीं मिलेंगे। यह भी संतोष कर लिया कि आकर दिखाए यहां। मगर जिसके पैसे लेकर बसंतु गया वो तो रो ही रहे थे। कईयों की गहरी कमाई लेकर चंपत हो गए थे बसंतु। मगर कहते हैं न कि समय इज द बेस्ट पेन हिलर सो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
याद आता है कैसे इस मुहल्ले में सबों ने धीरे धीरे मकान- दुकान, बच्चे करिअर बनाए थे। स्कूटर से कार तक का सफर तय किया था दुलुकन बाबु ने। और पंडीजी के घर में कैसे पहली बार मजमा लगा था जब दिल्ली की बहुरिया आई थी। इन्हीं गलियों में खेल कर सभी के बच्चे जवान दाढ़ी मूछ वाले हुए थे। सर्दियों में रजाई दुकान से नहीं आती थी लोगों के घर से मांग कर आती थीं रात भर के लिए। दाल-सब्जी और चीनी की मित्रता थी घरों में। यह सब अब आंखों के आगे घूमनेे लगे हैं। हर कोई हर किसी के रिश्तेदार से भी परिचित था इस मुहल्ले में। सब कुछ सारे रिश्ते तार तार कर कैस कोई जा सकता है।

Monday, January 27, 2014

आदरणीय यमराज जी,

आदरणीय यमराज जी,
सादर चरण स्पर्श। सबसे पहले तो मांफी मांगता हूं कि मुझे जिस तरह से स्कूल में पत्र लिखना सिखाया गया था उसी तरह लिख रहा हूं। और कौन कौन से संबोधन लिखने चाहिए इसका इल्म नहीं है मुझे। मैं आपको पत्र इसलिए लिख रहा हूं कि मुझे आपसे कुछ बात करनी है। आप चैंके नहीं। मैं नचिकेता नहीं हूं कि तीन वरदानों में आपसे आपकी नगरी का रहस्य मांग बैठूं।
आगे बात यह है कि यमराज जी आप कई बार बिना बताए बिना किसी सूचना के आधमकते हैं ऐसे में बहुत अफरा तफरी मच जाती है। बहुत से काम अधूरे रह जाते हैं। कितना अच्छा हो कि आप आने से पहले थोड़ी सूचना बरसा सकें। इससे कम से कम इतना तो हम कर ही सकते हैं कि थोड़ी तैयारी कर लें। मगर यह कहना भी उचित न हो क्यांेकि आपके बारे में यही सुना है कि आप बिना बताए ही आ जाते हैं। कोई सूचना नहीं कोई खबर नहीं। बस आपके भेजे दूत आते हैं और लेकर चले जाते हैं।
आईटी का जमाना का है। लैपटाॅप, आईपैड, वाइ फाई कई साधन आ चुके हैं। आप चाहें तो वाट्स एप्प, विवर, जैसे चैट माध्यमों का इस्तेमाल कर सकते हैं। अब तो विवर पर काॅल का भी पैसा नहीं लगता। आईएसडी हो या एसटीडी कोई काॅल बड़े आराम से कर सकते हैं। काॅल न सही कम से कम एक एसएमएस ही टपका दें ताकि दे सकें कि आप आने वाले हैं।
बुरा न मानें प्रभू होता क्या है कि आप जब अचानक आते हैं तब बुरा लगता है। इसलिए बुरा लगता है क्योंकि आपके साथ जाने के बाद कितनों के लिए उधार बिना चुकता किए रह जाते हैं। कितनों से किया गया वायदा यूं ही धरा का धरा रह जाता है। जिनसे उधार लिए हैं उन्हें चुका कर न जाओं तो खामखा बुराई करते हैं। क्या पता मेरे जाने के बाद मेरे परिजन उसे लौटाएं या नहीं। बिना वजह आप पूछेंगे कि फलां फलां को उधार कर के आए हो जाओं वापस और लौटा कर आओ। इसलिए प्रभू पूर्व सूचना दें तो इस तरह के काम निपटान में आसानी होगी।
मान्यवर! टापकी व्यवस्था में हजारों लोग काम कर रहे होंगे। मैं चाहता हूं कि वहां भी निठल्ला न बैठूं सो अपना सीवी भेज रहा हूं। आपके सिस्टम में कुछ काम मिल जाए तो मरना सफल हो जाएगा। मैं लेख, कविता, कहानी और साक्षात्कार आदि लिखता हूं। आप चाहें तो जिन्हें कविता पसंद हो उन्हें कविताएं सुनाउं। जिन्हें बोर करना हो तो ऐसी भी रचनाएं मेरे पास हैं जैसे जैसे लंबे लेख। जिन्हें सुन कर ही प्रताडि़त किया जा सकता है। सर जी डक्यूमेंटशन भी करता हूं। पूरे साल का लेखा जोखा फोटू सहित तैयार कर दूंगा ताकि आपको ज्यादा मेहनत न करनी पड़े। आपका दस्तावेजीकरण का काम भी बखूबी कर सकता हूं। आप कहें तो पीपीटी भी बना दूंगा प्रभू। सीधे उसको प्रेजेंट कर सकते हैं। उसमें विजुअल भी डाल दूंगा ताकि देखने वाले को पूरा का पूरा विश्वास हो सके। यदि आपके पास प्रोजेक्टर की व्यवस्था नहीं है तो ज़रा भी संकोच न करें प्रभू मैं अपने साथ लेकर आ जाउंगा। ओह! भूल गया था कि आपके पास खाली हाथ ही जाना पड़ता है सो मजबूर हूं। यह व्यवस्था तो आपको खुद ही करनी पड़ेगी।
हां एक बात और कहना चाहता हूं कि मैं रिपोटिंग भी कर लेता हूं। यदि चाहें तो आपके नगर वासियों को लाइव व प्रिंट रिपोर्ट भी मुहैया करा सकता हूं। आप कहेंगे तो किसी बड़ी हस्ती का इंटरव्यू भी ले लूंगा। बहुत साल अखबारों में गुजारे हैं सो इसका भी अनुभव है।
आपकी विश्वास पात्र

Friday, January 24, 2014

फेल कर के दिखाओ
‘बच्चों में डर खत्म हो गया है। वो पास के गुजरते हैं और गुटका थूक कर चले जाते हैं। पढ़ने में उनका मन नहीं लगता। मैडम पास तो कर ही दोगो। फेल नहीं नहीं कर सकते। यह बात बच्चों और उनके पेरेंट्स दोनों को मालूम है। इसलिए बच्चों में पढ़ने की लालसा खत्म हो गई है। हमारे हाथ बंधे हैं। हम किसी को भी कक्षा में रोक नहीं सकते। हर किसी को चाहे उसे आता हो या नहीं हमें उसे दूसरी कक्षा में धकेलना ही पड़ता है।’
जिस डर और विचारों को लिखा गया यह लेखक की पंक्तियां नहीं हैं बल्कि ये विचार कई अध्यापकों के हैं। वो कहते हैं कि पेपर में कई बार हमें गाने लिखे मिलते हैं। कुछ बच्चों ने स्पष्ट लिखा कि फेल कर के दिखाओ। उन्हें मालूम है कि शिक्षक के बस में फेल करना नहीं है।
आरटीई की बुनियाद में यह भी है कि कक्षा 8 वीं तक किसी भी बच्चे को फेल नहीं कर सकते। सभी बच्चों को आठवीं तक मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा देना सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन विचार करने की बात है कि क्या यह शिक्षा है या साक्षरता। क्या शिक्षा डर सिखाती है या मुक्ति?
शिक्षा क्या मूल्य देती है या हमें पूर्वाग्रही बनाने में मदद करती है। विचार तो करना ही होगा यदि बच्चों में जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है तो कहां और कौन इसके लिए जिम्मेदार है इसकी पहचान कर उसे दुरूस्त करना ही होगा।
अध्यापिकाओं एवं अध्यापकों को जेंडर सेंसेटाइजेशन, मूल्यपरक शिक्षा और आरटीई पर बातचीत करते हुए दिल्ली के सरकारी स्कूलों के टीचर्स के साथ




Monday, January 20, 2014

बाॅस की प्रकृति


कौशलेंद्र प्रपन्न
मैं ही क्या दुनिया के हज़ारों- हज़ार लोग अपने बाॅस की प्रकृति से न केवल प्रभावित होते हैं बल्कि त्रस्त भी होते हैं। कुछ के बाॅस जीवन में प्रेरक बन कर आते हैं तो कुछ की जिं़दगी में सुनामी बन कर। बाॅस राय, वर्मा, शर्मा, जुनेजा, तनेजा, तिवारी, कपूर और भी अन्य उपनाम के रूप में हो सकते हैं। तत्वत: बाॅस की प्रकृति में कोई ख़ास अंतर नहीं होता। क्योंकि स्वभावतः बाॅस अपने नीचे काम करने वाले को गोया इंसान ही नहीं मानते। यदि बाॅस रात के 1 बजे काॅल करे तो भी काम होना चाहिए। उनके घर के काम भी हंस हंस के जो करे वो सबसे ज्यादा करीब होता है। स्वभाविक भी है जो हर वक्त बाॅस के आस-पास टघरता है वो बाॅस को कैसे नहीं याद रहेगा। वैसे कहा जाता है कि घोड़े के पिछाड़ी और बाॅस के अगाड़ी कभी नहीं आना चाहिए, लेकिन आज की तारीख में कई ऐसे महारथी हैं जो बाॅस की कृपा से कहां से कहां पहुंच चुके हैं। कुछ करिअर में उछाल का आनंद ले रहे हैं जो कुछ जाॅब से भी हाथ धो चुके हैं। कई के बाॅस अपनी आॅख की किरकिरी को कहीं और भी टिकने नहीं देते।
बाॅस दरअसल नेता होता है। नेता माने नयति इति नेता। जो सदा सर्वदा आगे ले जाने वाला हो। यानी नेता व बाॅस वो होता है जो समाज को रास्ता दिखाए और आगे ले जाए। यदि नेता की दृष्टि स्पष्ट न हो या पूर्वग्रह का शिकार हो जाए तो उस कंपनी व संस्था के साथ ही वहां काम करने वाले अन्य कर्मचारियों के लिए लाभकरी नहीं माना जा सकता। मैनेजमेंट के छात्र व वेत्ता बेहतर बता सकते हैं कि एक बाॅस की प्रकृति यानी उसका स्वभाव किस तरह से न केवल बाॅस के लिए बल्कि संस्था के लिए भी हानिकारक साबित होता है। बतौर बाॅस की अपनी कुछ सनकें भी होती हैं। वो अपने ज्ञान, समझ, कौशल के आगे अपने अंदर काम करने वालों को ज़रा भी तवज्जो नहीं देता। बल्कि कई बार अपनी गलती को न वो स्वीकारता है और न वह नवज्ञान से खुद को ताज़ा करता है। क्योंकि ऐसा करने से उसका अहम उसे रोकता है। और इस तरह से ख़ुद को सही साबित करने के उपक्रम में अपने अंदर काम करने वाले को गलत साबित करने के तमाम हथकंड़े अपनाता है।
बाॅस की प्रकृति कैसी हो, एक बाॅस के अंदर किस किस तरह के गुण होने चाहिए आदि सवालों का जवाब तो मैनेजमेंट के जानकार दे सकते हैं, लेकिन एक आम धारणा की दृष्टि से देखें तो बाॅस की क्लालिटी कंपनी को बेहतर ढंग से चलाने की होनी चाहिए। प्रबंधन के तमाम गुर उसे आना चाहिए कब किसी की भावना को सहलाना है, कब किस के साथ सख्ती बरतनी है? किस के साथ कब कैसे बर्ताव करना है आदि ऐसी बुनियादी मांगें होती हैं जिनपर बाॅस को खरा उतरना चाहिए। लेकिन आज की तारीख में अधिकतर प्रोन्नति, उछाल किन गुणों के आधार पर होते हंै यह किसी से भी छुपा नहीं है। जब कोई बाॅस की नजरों में चढ़ जाता है या पसंद आ जाता है तब बाॅस जो कुछ भी करता है वही नियम बन जाते हैं। वही सही होता है।
हां समाज में देखा जाता है कि बाॅस कई बार आत्महत्या करने पर भी मजबूर कर देता है। व्यक्ति मानसिक रूप से इतना परेशान हो जाता है कि वह आत्महत्या तक सोचने लगता है। यह किसी भी नजर से न तो मानवीय है और न उचित ही। लेकिन आम जीवन में बाॅस ऐसे भी आते हैं कि आप न तो आॅफिस में चैन से काम कर सकते हैं और न घर में सुस्ता सकते हैं। नींद में भी बाॅस की बातें, ताने और चेहरे आपको सोन नहीं देते। एक बार बाॅस की नजर में आप नकारे हो गए तो लाख कोशिश कर लें वह आपको उसी चश्में देखता है। दरअसल बाॅस वह कुर्सी होती है जिसपर सबकी आशा भरी निगाह लगी होती है। वह चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक। कब बाॅस बदले की हम अपनी तरह से काम करें। अपनी फाइल आगे बढ़ाएं आदि उम्मींदें कितनों की पूरी होती हैं यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि आने वाला बाॅस किस पाले है।
सचपूछा जाए तो बाॅस की कुर्सी पर बैठना कोई आसान काम नहीं होता। पहले तो बाॅस की कुर्सी के लायक खुद को साबित करना पड़ता है और फिर सब को खुश रखने की चुनौती से भी सामना करना पड़ता है। सच तो यह भी है कि कुर्सी कभी भी सभी को खुश नहीं रख सकती। लेकिन इन्हीं चुनौतयों के बीच एक मकूल रास्ता भी निकलता है कि कैसे आप मानवीय रहते हुए अपनी बाॅसीय प्रकृति को जीते रहें। यानी कंपनी, आफिस काम भी चलता रहे और आप किसी की जिंदगी को नर्क बनाने से बचें। क्योंकि एक खराब बाॅस न केवल एक की जिंदगी को प्रभावित करता है कि बल्कि प्रकारांतर से उसके साथ परिवार, मित्र और समाज को भी खासे चपेट में लेता है। एक बार यदि बाॅस इन बिंदुओं पर सोचों तो शायद उनकी आंखें खुलें।

Friday, January 17, 2014

किताब का आधार नंबर


कौशलेंद्र प्रपन्न
हर किताब की अपनी अलग पहचान और छवि होती है। कोई कहानी, उपन्यास, आलोचना, निबंध, लघु कहानी, होती हैं तो कुछ महाकाव्य, खंड़ काव्य तो कुछ वृहद ग्रंथ। हर किताब अपनी निजी बुनावट की वजह से अलग ही दिखाई देती हैं। इन किताबों को जन्म देने वाला लेखक तय करता है कि कौन सी किताब की क्या रूपरेखा होगी और किस किताब की रचनात्मक गति क्या होगी। एक बार जब किताब का बीज किसी सृजक के मन में पड़ता है बस वहीं से किताब का जन्म होता है। किताब के गर्भाधान से लेकर उसके सोलहों संस्कार तक उसका जन्मदाता यानी लेखक जुड़ा होता है कि जैसे पिता अपनी संतान से जुड़ा होता है। हां यह कहना ज़रा मुश्किल है कि किताब का अंतिम संस्कार होता भी है या नहीं। जब जर्जर अवस्था में किताब पहुंच जाती है तब उसे लाइब्रेरी से तो विड आउट कर दिया जाता है। लेकिन वह पाठकों के मन से आउट नहीं हो पाती। कई किताबें बड़ी सौभाग्यशाली होती हैं जिनका पुनप्र्रकाशन भी होता है। इस बात से इंकार करना कठिन है कि किताबें भी मानव जीवन में ख़ास स्थान रखती हैं। किताबों  बगैर जीवन की कल्पना करना एक खाली कमरे से कम नहीं है। निर्मल वर्मा ने कभी कहा था कि वे शहर बड़े दुर्भागे हैं जिनके पास अतीत के खंड़हर नहीं हैं। उसी तरह कह सकते हैं कि जिस घर में किताबें नहीं हैं वे घर बड़े दुर्भागे होते हैं। जिस घर में किताबें होती हैं वहां एक शब्दों की दुनिया सांस लेती है। किताबों से हमारा वास्ता गोया कई सदियों का है। हर किताब की अपनी पर्सनालिटी होती है। कुछ किताबें अंतर्मुखी होती हैं और तो कुछ बहिर्मुखी।
एक बार लेखक जब किताबों का आकार, देह देता है उसी वक्त वह किताब गर्भवत् शिशु की तरह अपनी आयु भी लेकर आता है। एक लेखक किताब की विधा खुद तय करता है। बल्कि कहना चाहिए रचना की विधा कौन सी हो यह लेखक पर निर्भर करता है। वह गद्य,पद्य की किस विधा में किताब को जन्म देना चाहता है यह पूरी तरह से लेखक के विवेक, कौशल और गति पर निर्भर करता है। क्योंकि लेखक को ही आगे किताब को पूरी यष्टि प्रदान करनी है इसलिए लेखक से बेहतर कोई दूसरा यह तय नहीं कर सकता कि रचना किन पाठकों के लिए है। लेखक अपनी रचना का सृजक अवश्य होता है लेकिन उसे समाज में लाने वाला प्रकाशक होता है। ठीक उसी तरह जैसे बच्चा अस्पताल में जन्म लेता है। प्रकाशक किताब के नैन नक्श, आकार प्रकार, रूपसज्जा आदि करता है। एक मुकम्मल पहनावे के साथ यानी बुक जैकेट जिसे कवर पेज करते हैं, के बाद छापता है। याद करें कि यदि किताब भी एक पर्सनालिटी है तो उसकी भी कोई पहचान होनी चाहिए। जैसे हर इंसान को सरकारी पहचान के लिए पहचान पत्र, आधार नंबर, पासपोर्ट मिलता है व बनाना पड़ता है उसी तरह किताबें भी भीड़ में खो न जाएं इसलिए उन्हें भी प्रकाशक एक आधार नंबर यानी आइ एस बी एन नंबर प्रदान करता है। यह हर किताब को मिलना आवश्यक है।
लेखक अपनी ओर से कहानी, उपन्यास आदि में पात्रों, घटनाओं, चरित्र चित्रण आदि को तय कर देता है। तब किताब का जन्म हो जाता है। उसके बाद वह किताब पाठकों, आलोचकों के हाथ में आ जाती है। किताब कैसी है, उसकी भाषा, शैली, कथानक आदि की आलोचना, तुलना एवं समीक्षा का दौर शुरू होता है। दूसरे शब्दों मंे कहें तो बच्चा जन्म लेने के बाद मां की गोद से निकल कर जब समाज में आता है तब उसका मूल्यांकन समाज करता है। बच्चे के संस्कार, मूल्य, परवरिश आदि की जांच पड़ताल समाज के हिस्से होता है। साथ ही समाज का जिम्मा न केवल जांच-पड़ताल करना है, बल्कि किताब का सही मूल्यांकन हो इसकी भी जिम्मेदारी समाज की है। लेखक ने तो जो लिखना था वह उसने लिख दिया। अब यह उत्तरदायित्व समाज यानी किताब का समाज ‘पाठक, आलोचक सेे बनता है’, का बन जाता है कि किताब में बनाई गई दुनिया में क्या कमी रह गई। किस स्तर पर किताब कमजोर रह गई। लेखक से कहां चूक हो गई आदि कमजोर पहलुओं की ओर लेखक का ध्यान दिलाना आलोचक का मकसद होता है। इसके साथ ही दूसरे लेखकों को रास्ता दिखाना भी उद्देश्य होता है जो लेखन कर्म से जुड़े हैं। यदि कोई किताब लिख रहा है तो पूर्व के लेखकों की कमियों से कैसे बचा जाए इस ओर भी इंशारा करने का दायित्व आलोचक एवं पाठक का होता है। प्रतिक्रिया वह सूराख है जहां से पाठकों की बात लेखक तक पहुंचती है। पाठक जिस किताब को पढ़ते हुए बोर होने लगे तो समझना चाहिए कि कहीं न कहीं लेखक से कोताही बरती गई है। वरना किताब का जादू तो पाठक को अपनी ओर खींचने के लिए काफी होना चाहिए।
हर किताब की अपनी मैग्नेटिक शक्तियां होती है। मैग्नेटिक शक्तियां ही तो होती हैं जिसकी वजह से हजारों, लाखों पाठक अमुक किताब को पढ़ने के लिए मूल पाठ से लेकर अनूदित भाषा तक में किताब को तलाशते हैं। देवकी नंदन खत्री की किताब चंद्रकान्ता संतति को पढ़ने के लिए पाठकों ने हिन्दी सीखी। यह प्रेमचंद को पढ़ने के लिए गैरहिन्दी भाषा पाठको ने या हिन्दी सीखी या फिर अनुवाद का इंतजार किया। किताब की जादुई शक्तियां ही थीं कि उसे भाषायी चैहद्दी से बाहर भी पाठकों का एक बड़ वर्ग मिला। विश्व की कई क्लासिक साहित्य हैं जिनके अनुवाद कई भाषाओं में इसलिए हुए कि पाठकों की मांग समुद्र की सीमा को भी पार कर गए। हालिया किताब हैरी पाॅटर के साथ जुड़े पाठकों की घटना के साथ किताब की मैग्नेटिक ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। यदि किताब में कंटेंट ताकतवर नहीं होगा तो वह हजारों लाखों की किताबों की भीड़ में खो जाएगी। आज दुनिया में रोजदिन हजारों लाखों किताबें जन्म लेती हैं और कहीं अंधेरे में खो जाती हैं। काफी हद तक लेखक पर निर्भर करता है कि उसकी रचना व किताब भीड़ में खो जाए या भीड़ में भी अपनी पहचान बनाए रखे।
जो लोग इस डर व आशंका से ग्रस्त हैं कि किताबों की मौत हो चुकी है। इंटरनेट के आ जाने से किताबें मर रही हैं, पाठक वर्ग सिमटते जा रहे हैं आदि सवाल सच पूछा जाए तो सही नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा ही होता तो हर साल प्रकाशक किताबें न छापता और न लेखक लिखता। इसके बरक्स किताबें लिखी भी जा रही हैं और छप भी रही हैं। यह अलग विमर्श का मुद ्द हो सकता है कि छपने वाली तमाम किताबें अपनी पहचान बनाने सफल हो पाती हैं या नहीं। क्या वे अपनी पूरी उम्र जी पाती हैं या अकाल मृत्यु को प्राप्त होती हैं।
विश्व पुस्तक मेला का समय पास आ रहा है। हर प्रकाशक लेखक चाहता है कि उसकी किताब इस विश्व पुस्तक मेले में आ जाए। हर स्तर पर कोशिशें तेज हो गई हैं। प्रकाशक रात दिन एक कर बेहतर कलेवर में किताबें छापने में लगा है। किताब के कलेवर, साज सज्जा भी उतना ही जरूरी है जितना की कंटेट। इसलिए कवर पेज डिजाइनर की भी भूमिका से मंुह नहीं मोड़ सकते। एक किताब की सफलता के पीछे कई लोगों का हाथ होता है। यही पर्याप्त नहीं है कि लेखक ने अच्छी व बुरा किताब लिखी। बल्कि उसे प्रकाशक, डिजाइनर, वितरक दुकानदार ने क्या अपनी पूरी जिम्मेदारी का निर्वहन किया। क्योंकि यह पूरी कड़ी है। कहीं भी कोई कड़ी कमजोर रह गई तो किताब लिखे जाने और छपे जाने के बाद भी अंधेरे की जिंदगी बसर करने पर मजबूर हो सकती है।

Thursday, January 16, 2014

आलोचना उपेक्षिता


आलोचनाएं यदि सार्थक हों तो साहितय व रचना को एक व्यापक विस्तार मिलता है। बल्कि न केवल रचना सर्वजनीन होती है अपितु लेखक को भी दृष्टि मिलती है कि वो आगे इन बातों को ध्यान अपनी रचना रखे। एक पाठक भी रचना का सही समीक्षक होता है किन्तु उसे किन शब्दों और किन कमियों की वजह से रचना कमजोर रह गई उस ओर इशारे करने का व्याकरण और भाषा की कमी होती है। यदि पाठक के पास उसकी बात कहने की भाषा हो तो आलोचक की कमी न महसूस हो।
साहित्य, कला, रंगकर्म, फिल्म आदि ऐसी विधाएं हैं जहां समीक्षा, आलोचना, प्रतिक्रियाएं खास महत्व रखती हैं। यदि आलोचना गंभीरता से हो तो रचना में निखार आने की पूरी संभावना होती है। साहतय मे माना जाता है कि आलोचनाएं मुंह देख कर की जाती हैं। मधुर भी रहे और छप भी जाए। बेशक उस आलोचना से न लेखक को कुछ व्यापता है और न पाठक को। कुछ बड़े आलोचकों व कहें लेखकों का मानना है कि हिन्दी में तो आलोचना नाम की कोई चीज है ही नहीं। यदि आलोचना के नाम पर कुछ हो भी रहा है तो वह महज समीक्षाएं हो रही हैं। मेरा तो मानना है कि वह समीक्षाएं भी नहीं हैं वे महज पुस्तक परिचय तक ही सीमित हैं। फलां किताब में इतने पाठ हैं। इस पाठ में यह है। इतने पात्र हैं। उन पात्रों की भाषा यह है आदि। समीक्षा थोड़ी आगे बढ़ी तो किताब में लेखक व रचनाकार ने भाषा के साथ न्याय किया है। शैली रोचक है। कथानक अच्छी है या किसी और किताब की छाया प्रतीत होती है। इससे आगे निकल कर समीक्षाएं कोई मुकम्मल रोशनी आने वाले लेखकों को नहीं देतीं।
हर साल अंतिम पखवाड़े में अखबारों में पूरे साल की महत्वपूर्ण किताबों की सूची और विन्डो शाॅपिंग सी समीक्षा करने का चलन है। जिसमें किसी भी एक दो किताब पर चार पांच लाइन लिख कर आगे बढ़ जाने की परंपरा है। उस समीक्षा का कोई खास मायने नहीं रह जाता। इस तरह की समीक्षाओं की विश्वसनीयता भी कोई ज्यादा नहीं होतीं क्योंकि समीक्षक की सूची में कमोबेश वही किताब स्थान ले पाती हैं जो या तो बहुत चर्चित रहीं या फिर जाने माने नाम रहे। बाकी पत्रिकाओं, अखबारों में तो समीक्षा के काॅलम में भी किताबें बाहर कर दी जाती हैं। पुस्तकें मिलीं काॅलम में कहीं पड़ी किताबें जरूर यह गुहार लगाती हैं कि हम पर भी नजर इनायत हो सरकार। मगर काॅलम की सीमा और वैचारिक झुकाव के आगे वे किताबें महज प्रकाशन स्थान, वर्ष, पेज, मूल्य की सूचनाओं से आगे नहीं जा पातीं।
साहित्य की पत्रिका हो या गैर साहित्यिक दोनों ही स्थानों पर पुस्तक की आलोचना की जगहें सिमटती गई हैं। आलोचना के स्थान पर समीक्षाएं व कह लें परिचय ही छपती हैं। एक बात और भी है कि लेखक ही जब समीक्षक हो जाता है तब यह काम ज़रा गंभीरता की मांग करता है। एक लेखक के जौर पर उसकी अपनी पूर्वग्रहें भी होंगी। जिससे निजात पाना थोड़ा कठिन होता है। आलोचना कर्म माना गया है कि लेखने से कहीं ज्यादा कठिन और श्रमसाध्य है। उसमें रचनाओं को पढ़ने की समझ, भाषा, कहने की कला और रचनाओं के बीच में छुपी कमियों को पकड़ने का कौशल होना चाहिए तभी एक लेखक आलोचना कर्म में सफल हो सकता है।
अव्वल तो आज अपनी किताब के नाम पर कुछ गिने चुने लेखकों की पढ़ने की आदत सी बन गई है। जब हम दूसरे लेखकों को पढ़ते हैं तब पता चलता है कि कौन क्या लिख रहा है केसा लिख रहा है। लेकिन लेखकों के मध्य भी पढ़ने के अपने पूर्वग्रह देखे जा सकते हैं। यह पूर्वग्रह न केवल पढ़ने के स्तर पर हैं बल्कि रचना की समीक्षाएं और राय बनाने तक दिखाई देती हैं। यदि किसी किताब की खरी खरी आलोचना की जाए तो संभव है संपादक उसे या तो छापेगा ही नहीं या फिर उसके धार को कुंद कर छापेगा। संपादन के नाम पर रचना की हत्या कोई आम बात नहीं है। यह अकसर देखा जाता है कि रचनाओं को संपादन की मार भी खूब सहनी पड़ती हैं। उस संपादन के आगे रचना विवश और असहाय हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो रचनाओं के साथ कई स्तरों पर भेदभाव होता है। लेखन से लेकर संपादन और समीक्षा तक। रचनाएं हाशिए पर धकेल दी जाती हैं। हाशिए पर खड़ी रचनाएं अपने साथ न्याय की आवाज किस अदालत में उठाए। कहां उसकी सुनी जाएगी। यह भी गंभीर मुद्दा है। क्योंकि रचनाकार मानता है कि एक बार रचना का जन्म हो चुका व छप चुकी उसके बाद उससे लेखक की दूरी स्वभाविक हो जाती है। वहीं संपादक रचना को अपनी संपत्ति माने तो उसके साथ समुचित बर्ताव करे लेकिन वह तो फलां लेखक की है। फलां धड़े की है बांटकर रचना को विलगा देता है।
कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य आदि रचनाओं की समीक्षाएं अमुमन अखबारों एवं पत्रिकाओं में देखने-पढ़ने को मिल जाती हैं लेकिन बाल साहित्य, बाल लेखन यानी बच्चों के लिए लिखी गई रचनाओं को तो आलोचक गोया रचना ही नहीं मानते। मानो यह भी कोई साहित्य है इस ओर ध्यान देना जैसे बचकाना कर्म है। आलोचना और समीक्षा के आंगन में वही पुस्तकें व लेखक स्थान ले पाते हैं जो किसी न किसी तरह से पाठक का ध्यान खींच पाने में सुल हुए हैं। ऐसी बहुत सी किताबें हर साल छपती हैं जो किसी की निगाह में भी नहीं आ पातीं और गोदाम में या फिर लेखक के स्वजनांे के घर में शोभा बढ़ाती हैं।
आलोचना उपेक्षिता रचना और रचनाकार की मनःस्थिति को भी समझने की आवश्यकता है। एक रचनाकार अपने आप को ईश्वर मान लेता है। वही भाग्यविधाता है अपनी रचनायी दुनिया का। यह सही है कि वही सृष्टिकर्ता है अपनी रचना संसार कां वही तय करता है अपने पात्रों की नियति और परिणति। वही उत्थान और पतन भी लिख डालता है जिसके आगे रचना नतमस्तक होती है। लेकिन इससे आगे जाकर सोचने की बात यह है कि क्या लेखक लिखने से पूर्व इस बिन्दु पर भी ठहर कर सोचता है कि उसकी रचना की मांग है भी या नहीं? उसकी रचना रचना के उद्देश्य को पूरी करती है या नहीं? क्या पाठक वर्ग उससे कुछ जीवन मूल्य हासिल कर पाएगा या नहीं? आदि सवाल कटू तो हैं पर जरूरी भी हैं। कई बार लेखक मान कर चलता है कि उसका कर्म महज लेखन तक सीमित है। चाहे आलोचक पढ़े या न पढ़ वह उसकी जिम्मेदारी नहीं है। जबकि होना यह चाहिए कि लेखक को इस जोखिम को भी अपने कंधे पर लेना चाहिए।
व्यंग्य की ही बात करें तो परसाई, शरद जोशी, अंजनी चैहान, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेमजनमेजय, लालितय ललित, सुभाष चंदर, हरीश नवल आदि ने क्या लिखा और वो व्यंग्य को कितना सवंर्द्धित करते हैं इसकी भी बिना वैचारिक पूर्वग्रह के समीक्षा की मांग करती है। जो भी व्यंग्य लिख रहा है व अन्य रचनाओं में गति रखता है उसके पास भाषा है इससे तो इंकार नहीं कर सकते। हां विचार करने की बात यह है कि क्या वह लेखक अपनी रचना के साथ पूरा न्याय कर रहा है। क्या उसकी लेखनी रचना आज की चुनौतियों का सामना करने में समर्थ है? क्योंकि महज यह कह देने भर से बात नहीं बनती कि फलां के पास भाषा है, शैली है और कहने को बहुत कुछ है। कहना यह भी पडे़गा कि क्या जो वह कह रहा है वह लेखन की परंपरा को अग्रसारित करने योग्य है भी या नहीं।
समकालीन आलोचकों व समीक्षकों के इशारे भी समझने की आवश्यकता है। समीक्षक किस मानसिक बुनावट के तहत कह रहा है उसे भी समझना होगा। क्या वह रचना के हित में है? क्या वह सिर्फ कलम चलाने और छपने के लिए समीक्षा कर रहा है या उसकी समीक्षा के पीछे उद्देश्य रचना की जांच पड़ताल करना है। वैयक्तिक रूचियां और रूझान भी कई बार रचना को हाशिए पर खड़ी कर देती हैं। इसलिए आलोचना वैसी की जाए जिससे कोई सार्थक दृष्टि न केवल लेखक को मिले बल्कि पाठक को भी पाठ को समझने में मददगार साबित हो। इसलिए ग्रंथों को समझने के लिए भाष्य लिखे जाते हैं, टिकाएं लिखी जाती हैं। लेकिन एक आम किताब को समझने के लिए भाष्य न सही समुचित औजार तो आलोचक दे ही सकता है जिससे आप लेखक की रचना को बेहतर समझ सकें।
कौशलेंद्र प्रपन्न

Wednesday, January 15, 2014

हम न मरब मरीहें संसारा


हम में से कितने ऐसे हैं जो सोचते हैं कि वो नहीं मरेंगे। तकरीबन सब यही सोचतते हैं कि हमें तो मरना ही है। आज या कि कल। मरना तो चींटी भी नहीं चाहती। संसार का कोई भी प्राणी भला क्यों मरना चाहेगा यहां कि सुख सुविधा और चाक चिक्य को छोड़ कर अज्ञात स्थान में क्यों जाना चाहेगा। फिर ये कबीर को क्या हो गया? उन्होंने ऐसी बात क्यों लिखी कि हम न मरब। मरीहैं संसार। कुछ तो दर्शन विमर्श रहा होगा कबीर के अंदरूनी जगत में।
हां पंच तत्व तो पंच तत्वों मे मिल जाएंगे। भौतिक मौत तो हो जाएगी। शरीर तो खत्म हो जाएगा। लेकिन जनाब जिससे प्रेम किया। वो तो प्रेम बरकरार रहेगा। वो तो आपके लिए नम होगी या होगी। ऐसे में आप लोगों के दिलो दिमाग में बसे ही रहेंगे। किसी से उधार लिया, किसी को जीवन भर खूब कोसा, गालियां दीं। तरक्की के लिए किसी को धकेला। भाई का हक हडप लिया जो जीवन भर किया वह तो आपके जाने बाद भी बना रहेगा। कम से कम मरनी पर न बोलें लोग लेकिन बाद में तो बोलेंगे ही। स्याला फलां फलां को बहुत सताया।
अच्छी व बुरी दोनों ही स्मृतिया ंहम अपने पीछे छोड़ जाते हैं। जो नहीं जाता साथ वह आपका जीवन भर का रुपया पैसा नहीं जाता। जो साथ जाता है वह बस आप ही होते हैं। आपके साथ न सहोदर, सहोदरी जाती है न पिता-माता, पत्नी, प्रेमिका कोई भी तो नहीं जाता। जाता है निपट अकेला लंगड़ा सुपना।
जीवन के विस्तार और लंबी सड़क पर हमें तय करना होता है कि हमें कहां तक जाना है। जाने क रास्ते भी खुद ही तय करने होते हैं। अपने लिए मंजिल भी हमें ही चुनना होता है। यह अलग बात है कि कभी कभी मंजिल आपको चुनती है। लेकिन यह तो तय करना ही होगा कि हमारी अपनी सीमाएं क्या हैं और हम कहां तक क्या कर सकते हैं। क्योंकि मरने के बाद कोई नहीं पूछने वाला कि आपने फलां काम अधूरा क्यों छोड़ दिया। वैसे कहने वाले कहते हैं कम से कम बेटी का ब्याह तो कर जाता। बेचारी पर डाल कर चला गया। तो सुनना तो पड़ेगा ही। कबीर ने गलत नहीं कहा मरीहैं संसारा। हमारे लए संसार मरेगा। यानी संसार को जो आपने परेशान किया उसके लिए लोग आपको कोसेंगे। जिसके लिए आप मरे वो आपके लिए मरेगा।

Tuesday, January 14, 2014

टोल के बाद की सड़क


कौशलेंद्र प्रपन्न
जी यदि आप दिल्ली छोड़कर हरियाणा, यूपी या उत्तरा खंड़ की ओर निकलते हैं तब एक अलग दुनिया से वास्ता पड़ता है। नोएडा से आगरा एक्सप्रेस वे पर दौड़ना जितना मजा आता है वह मजा किर किरा तब होता जाता है जब मथुरा, वृंदावन, आगरा की देसी सड़कों पर उतरते हैं। वही मंजर हरियाणा के बहादुरगढ़ छोड़ते झझ्झर की ओर निकलते हैं तब भी कमाल की सड़क मिलती है। लेकिन जैसे ही प्रतापगढ़ की ओर मुड़ते हैं वैसे ही सड़क का सौंदर्य जाता रहता है। चलिए गाजियाबाद की ओर से हरिद्वार की ओर ले चलते हैं। राज नगर एक्सटेंशन तक रोड़ वाकई अच्छी है। जैसे ही मोदी नगर और मुरादनगर की ओर दौड़ते हैं तब सड़क का समाज शास्त्र का दर्शन होता है। मुजफ्फरनगर से रूड़की की ओर निकलते हैं तब टोल रोड़ पर सरपट दौड़ते हुए कुछ ही घंटों में रूड़की पहुंच जाते हैं। लेकिन रास्ते में जैसे ही टोल रोड़ खत्म होता है वैसे ही गांव की या कहें कस्बाई सड़कों से रू ब रू होते हैं।
तेज रफ्तार के लिए हम ज्यादा पैसे देते हैं। तब जाकर वैसी सड़कें मुहैया होती हैं। वहीं एक सवाल यह भी उठता है कि क्या हम आम सड़कों के लिए पैसे नहीं देते? क्या हम सालाना रोड़ टैक्स नहीं भरते? यदि भरते हैं सरकार की जेब तो फिर टोल वाली रोड़ जैसी आम सड़कें आम जनता को क्यों नहीं मिलतीं। फ्लाईओवर, टोल रोड़ और सबवे की ज्यूं पूरे देश में बाढ़ सी आ गई है। जिस भी शहर को देखों विकास की दौड़ में अपनी पहचान एवं सौंदर्य की कीमत चुका रहे हैं। मुजफ्फरनगर से जैसे ही रूड़की की ओर बढ़ते हैं वैसे की प्रकृति के की जा रही छेड़छाड़ के नजारे दिखाई देंगे। सड़क के दोनों ओर हजारों पेड़ काटे जा रहे हैं। काट काट कर बुग्गी, टैक्टर आदि में भरे जा रहे हैं। पूछने पर पता चला रोड़ चैड़ी की जा रही है। दरअसल पैसे वसूलने के बहाने निकाले जा रहे हैं। टोल का बिस्तार होना है। हम खुश होंगे कि कम समय में हरिद्वार आदि शहरों में पहुंच सकते हैं। सवाल सामने यही है कि इसके लिए प्राइवेट कंपनियों को आम सड़कें देने का क्या तुक है। क्या सरकार अपने आप को इस काम के लिए असमर्थ मान चुकी है। शायद इसी का नाम है पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप पीपीपी। आज यह माडल तकरीबन हर सार्वजनिक क्षेत्रों में देखा जा सकता है। वह चाहे शिक्षा, स्वास्थ्य, जन सेवाएं ही क्यों हों।
सड़क पर चलने और सुरक्षित चलने का अधिकार हर नागरिक को है। अपनी मंजिल तक सुरक्षित और स्वस्थ्य पहुंचे इसकी जिम्मेदारी हर राज्य सरकार की भी उतनी ही है जितनी केंद्र सरकार की। मगर आज पीपीपी माडल पर हर क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं वह एकबारगी गलत नहीं तो पूरी तरह से उपयुक्त भी नहीं हैं। जिन सड़कों को बनाने व टोल रोड़ बनाने की जिम्मेदारी दी गई क्या उनकी क्रेडिबिलिटी भी परखी गई हैं? क्या वे जिस तरह की सड़कें भारत में बना रहे हैं वह भारतीय गाडि़यों के लिए उपयुक्त हैं आदि ऐसी वास्वकिताएं जिन से मंुह नहीं मोड़ सकते।
रूड़की के बाद जैसे ही हरिद्वार की ओर मुड़ते हैं वैसे ही बादराबाद के बाद सड़के के दोनों तरफ विकास के चिह्न दिखाई देते हैं और दिखाई देने लगता है शहर के सौंदर्यबोध का कत्ल जारी है। गंगा नहर के दोनों ओर लंबे और उंचे यूकलिप्टस के पेड़ सालों सालों से खड़े थे। जो शहर और नहर दोनों को एक बेहतरीन रूप देते थे। लेकिन गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से लेकर श्रद्धानंद द्वार और प्रेमनगर आश्रम होते हुए डैम तक सारे पेड़ काटे जा चुके हैं। देखने में एक बारगी बियाबान, पेड़ विहीन सड़कों को जन्म दिया जा रहा है।

Monday, January 13, 2014

जेंडर विमर्श और मूल्यपरक शिक्षा पर संवाद


कक्षा में साठ के आस-पास शिक्षक और शिक्षिकाएं थीं। इस शिक्षकों और शिक्षिकाओं के बीच जेंडर सेंसेटाइजेशन पर संवाद करना था। जिन मूल बहानों से मई में रू ब रू हुआ था वही बहाने यहां भी खडत्रे हुए। मसलन बहुत सर्दी है। ठिठुर रहे हैं। सर क्या पढ़ाओंगे। छोड़ो भी क्या पढ़ाओंगे। जेंडर वेडर बस यूं ही है। आप भी मजे करो हमें भी छोड़े धूप सेकने दो। मई में गर्मी का बहाना था। दिसम्बर में सर्दी आ खड़ी हुई थी। मगर संवाद तो करना ही था। लेकिन कक्षा में उपस्थित शिक्षक/शिक्षिकाओं को संवाद के लिए उकसाना एक बड़ी चुनौती थी।
संवाद के लिए उन्हें कुरेदना पड़ा। आपमें से कितने ऐसे हैं जो मानते हैं कि पत्नियां कोई भी निर्णय लेने में स्वतंत्र होती हैं। पति की उनके निर्णय में कितनी भूमिका होती है। अपने पति को अपने निर्णय प्रक्रिया में कितना स्थान देती हैं। बस क्या था कई हाथ खड़े ही गए। नाम रहने देते हैं। उनकी बातें यहां रखते हैं। ‘ मैं तो निर्णय लेने में उनका तब मदद लेती हूं जब निर्णय को टालता होता है।’ ‘हमें निर्णय लेने में अपनी भूमिका व जिम्मेदारी को छुपाना होता है तब हम उन पर डाल देते हैं।’
‘निर्णय तो उनका ही होता है। हम तो बस उनके निर्णय को फाॅलो करते हैं।’ ‘ सर आप भी जानते हो। एक ही छत के नीचे रहना है। कौन चिक चिक सहना चाहेगा सो जो निर्णय पति लेते हैं हम उसे स्वीकार लेते हैं।’
इसी तरह की बातें कक्षा में उभर कर आईं। जब मैंने कहा महिलाएं भी सदियों से गुलाम रही हैं। उन्हें इस गुलामी से मुक्ति के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा की पंक्ति रखीं ‘ चुप्पी की संस्कृति ही गुलामी को अग्रसारित करती है’ यदि गुलामी को तोड़ना है तो चुप्पी तोड़नी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा ने उत्पीडि़तों का शिक्षा शास्त्र पुस्तक लिखा उसे पढ़ कर जिस तरह की चेतना जागती है वही अपनी मुक्ति की राह बना पाते हैं। साथ ही उन्हें जाॅन स्टुआॅर्ट मिल की पुस्तक स्त्री और पराधीनता को साइट किया। कुछ स्त्रियों की आंखें विस्फारित हुईं। मगर वहीं शिक्षकों के तेवर बदल चूके थे। ये सब बेकार की बातें हैं। पुरूष प्रधान समाज है। लुगाइयां घर में ही अच्छी लगती हैं। इसी तरह के तर्क कक्षा में तैर रहे थे।
जेंड़र संवेदनशीलता पर लंबी बातचीत हुई मगर शिक्षकों की सोच गोया अभी भी 19 वीं सदी में डोल रही थीं। कक्षा में कैसे इस तरह के विमर्श को वे लोग हैंडल करते होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल वो नई सोच और शिक्षा के नए विमर्श को अपने दिमाग में उतरने की इज़ाजत ही नहीं देना चाहते थे। बहरहाल यदि शिक्षिकाओं में इसके प्रति थोड़ी भी चेतना जागती है तो उम्मींद की किरण बनी रहेगी।
जेंडर विमर्श और मूल्यपरक शिक्षा पर संवाद
कक्षा में साठ के आस-पास शिक्षक और शिक्षिकाएं थीं। इस शिक्षकों और शिक्षिकाओं के बीच जेंडर सेंसेटाइजेशन पर संवाद करना था। जिन मूल बहानों से मई में रू ब रू हुआ था वही बहाने यहां भी खडत्रे हुए। मसलन बहुत सर्दी है। ठिठुर रहे हैं। सर क्या पढ़ाओंगे। छोड़ो भी क्या पढ़ाओंगे। जेंडर वेडर बस यूं ही है। आप भी मजे करो हमें भी छोड़े धूप सेकने दो। मई में गर्मी का बहाना था। दिसम्बर में सर्दी आ खड़ी हुई थी। मगर संवाद तो करना ही था। लेकिन कक्षा में उपस्थित शिक्षक/शिक्षिकाओं को संवाद के लिए उकसाना एक बड़ी चुनौती थी।
संवाद के लिए उन्हें कुरेदना पड़ा। आपमें से कितने ऐसे हैं जो मानते हैं कि पत्नियां कोई भी निर्णय लेने में स्वतंत्र होती हैं। पति की उनके निर्णय में कितनी भूमिका होती है। अपने पति को अपने निर्णय प्रक्रिया में कितना स्थान देती हैं। बस क्या था कई हाथ खड़े ही गए। नाम रहने देते हैं। उनकी बातें यहां रखते हैं। ‘ मैं तो निर्णय लेने में उनका तब मदद लेती हूं जब निर्णय को टालता होता है।’ ‘हमें निर्णय लेने में अपनी भूमिका व जिम्मेदारी को छुपाना होता है तब हम उन पर डाल देते हैं।’
‘निर्णय तो उनका ही होता है। हम तो बस उनके निर्णय को फाॅलो करते हैं।’ ‘ सर आप भी जानते हो। एक ही छत के नीचे रहना है। कौन चिक चिक सहना चाहेगा सो जो निर्णय पति लेते हैं हम उसे स्वीकार लेते हैं।’
इसी तरह की बातें कक्षा में उभर कर आईं। जब मैंने कहा महिलाएं भी सदियों से गुलाम रही हैं। उन्हें इस गुलामी से मुक्ति के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा की पंक्ति रखीं ‘ चुप्पी की संस्कृति ही गुलामी को अग्रसारित करती है’ यदि गुलामी को तोड़ना है तो चुप्पी तोड़नी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा ने उत्पीडि़तों का शिक्षा शास्त्र पुस्तक लिखा उसे पढ़ कर जिस तरह की चेतना जागती है वही अपनी मुक्ति की राह बना पाते हैं। साथ ही उन्हें जाॅन स्टुआॅर्ट मिल की पुस्तक स्त्री और पराधीनता को साइट किया। कुछ स्त्रियों की आंखें विस्फारित हुईं। मगर वहीं शिक्षकों के तेवर बदल चूके थे। ये सब बेकार की बातें हैं। पुरूष प्रधान समाज है। लुगाइयां घर में ही अच्छी लगती हैं। इसी तरह के तर्क कक्षा में तैर रहे थे।
जेंड़र संवेदनशीलता पर लंबी बातचीत हुई मगर शिक्षकों की सोच गोया अभी भी 19 वीं सदी में डोल रही थीं। कक्षा में कैसे इस तरह के विमर्श को वे लोग हैंडल करते होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल वो नई सोच और शिक्षा के नए विमर्श को अपने दिमाग में उतरने की इज़ाजत ही नहीं देना चाहते थे। बहरहाल यदि शिक्षिकाओं में इसके प्रति थोड़ी भी चेतना जागती है तो उम्मींद की किरण बनी रहेगी।

Tuesday, January 7, 2014

हिन्दी को बचाएं ही क्यों


विश्व हिन्दी साहित्य पुरस्कार सम्मामन समारोह में यूं तो कई बातें अमह रहीं जिन्हें स्वीकारना और अपनाना पड़ेंगा। पहली बात तो यही कि कोई अल्पावधि में भी कैसे अपनी पूरी गति, मति बनाए रखते हुए वर्तमान में अपनी जगह बना सकता है। दूसरी पुरस्कारों में ताज़ातरीन व्यक्तित्वों को तरजीह देना मसलन स्व दीनानाथ मिश्र के नाम पर पुरस्कार दिया जाना भी शामिल है, इस वर्ष सुशील सिद्धांत को यह सम्मान मिला। तीसरी बात कि व्यक्तिगत आग्रह और अनुरोध पर कितने लोग आपके साथ खड़े हो जाते हैं, यह आशीष कंधवे से सीखी जा सकती है जो इस विश्व हिन्दी साहित्य परिषद् के जन्मदाता है। और मुख्य बात यह भी कि राहुल देव जैसे धाकड़ पत्रकार की फटकार कार्यक्रम में उपस्थित तमाम लेखकों ने न केवल सुना बल्कि उन्हें उनकी फटकार के लिए साधुवाद भी दिया।
कार्यक्रम में डायस पर विराजमान बीएल गौड, हीरामन, महेश दर्पण, राहुल देव, मृदुला सिन्हा, हरीश नवल एवं संचालक हरीश अरोड़ा ने जिस बेहतरीन ढंग से पूरे कार्यक्रम में संचालित किया वह वाकई काबिले तारीफ कह सकते हैं।
महेश दर्पण, हीरामन, राहुल देव और मृदुला जी ने जिस अंदाज़ और ठसक के साथ अपनी बात रखी उसे सुनने के लिए हिन्दी साहित्यकारों को जिगरा चाहिए। हिन्दी साहित्य के इतिहास से लेकर वर्तमान और भविष्य की ओर ले जाने वाले वक्तव्यों पर नजर डालें तो एक बारगी या तो अतीत गौरव के बोझ से दब जाएंगे या फिर भविष्य की चुनौतियों एवं हिन्दी की बदहाली को लेकर दुश्चिंता में डूब जाएंगे।
हीरामन जी को कोट करने के मोह से रोक नहीं पा रहा हूं। सो लीजिए, मैं भारत से गांधी और हिन्दी मांगता हूं। क्योंकि यह हमारी भूमि रही है। हमने यहीं से हिन्दी को जाना, माना और पहचाना। यदि आपके यहां हिन्दी नहीं रहेगी तो हमारे यहां से क्या उम्मींद कर सकते हैं।
राहुल देव ने कटू किन्तु हकीकत बयां कर के लोगों को झकझोर दिया। यह झकझोरना अकसर गैर हिन्दी वाले जब करते हैं तब हमारी तंद्रा टूटती है। हमारा हिन्दीपन जागता है और हम कहते हैं आपने हिन्दी के लिए किया ही क्या है? आपको हिन्दी के बारे में जानकारी ही कितनी है आदि सवालों के ढाल से खुद को बचाने की कोशिश करते हैं। सचपूछा जाए तो हिन्दी के बचाने की चिंता किसे है, कौन अपनी रीढ़ दधीच बनाना चाहता है। यह भी विचार का विषय है। क्या महज पुरस्कारों के वितरण से हिन्दी की रक्षा की जा सकती है या कि कोई और तरीका इज़ाद करना होगा।
क्या वास्तव में हिन्दी मर रही है या उसे संरक्षित करने का समय आ गया है? यह कौन से लोग हैं जो हिन्दी की मौत पर रोटी सेक रहे हैं उनकी भी पहचान जरूरी है। हरीश नवल ने जो बात कही कि हर शब्दों को हिन्दी मंे जो ऐत्तर हिन्दी के हैं उन्हें कबूल करने में परहेज क्यों तो हमें विचार करना होगा कि क्या वास्तव में हिन्दी को चलायमान रखने के लिए हमें यह भी जोखिम उठाना होगा।
गोपालदास नेपाली सम्मान से सम्मानित डाॅ लालित्य ललित, सुशील सिद्धांत या कि अन्य सम्मानित लेखकों से हिन्दी समाज और ज्यादा अपेक्षाएं नहीं की जानी चाहिए। की जानी चाहिए क्योंकि उन्हें यह सम्मान इसलिए नहीं मिला कि वो महज लेखक हैं बल्कि इसलिए भी मिला कि वो हिन्दी की चिंता भी करते हैं। लालित्य ललित कविता, व्यंग्य, आलेख से लेकर वाचन परंपरा के भी वाहक हैं उनसे तो सामाजिक को और भी उम्मींद बंधती हैं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...