Tuesday, January 31, 2017

लेखक गढ़ने की परंपरा का अंत


महेश दर्पण जी से मुलाकात एक अंश
प्रसिद्ध कथाकार महेश दर्पण जी के साथ औपचारिक और अनौपचारिक बातचीत का अवसर मिला। कहानी बुनने,लिखने, कहने सुनाने को लेकर काफी गंभीर और लंबी हुई। संस्मरण के दौर भी चले जिसमें उन्होंने साझा किया कि जैनेंद्र जी ने जिस उपन्यास को अधूरा छोड़ा दिया था जिसे पूरा करने के लिए उन पर दबाव बन रहे थे अंत में महेश जी ने गणेश की भूमिका स्वीकार की और उस उपन्यास को सुन कर लिखा। उपन्यास कोई और नहीं बल्कि दशार्क था।
महेश जी ने कहानी से लेकर संपादकों की दुनिया भी साझा की कि कभी राजेंद्र माथुर, रघुवीर सहाय, अज्ञेय प्रियदर्शन जैसे संपादक भी हुए जिन्होंने लेखक बनाए। बल्कि लेखकों की कॉपी को मांज खंघाल कर तैयार किया। प्रियदर्शन जी की चर्चा जब चली तो जनसत्ता कैसे छूट सकता था। उस समय की बातें भी हुईं। प्रियदर्शन जी किस शिद्दत से कॉपियां ठीक करते थे और लेखक से बात कर उसकी कमियां भी बताया करते थे और इस प्रकार से लेखक गढ़े जाते थे जो अब यह परंपरा खत्म हो गई।  

Tuesday, January 24, 2017

शिक्षा में गुणवत्ता और तदर्थ शिक्षक


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा में गुणवत्ता की मांग तो की जाती है लेकिन किनके कंधे पर सवार होकर शैक्षिक गुणवत्ता आती है इसे नजरअंदाज करते हैं। शिक्षा में बेहतरी के लिए प्रशिक्षण उद्देश्यों को कैसे हासिल की जाए इन्हें ध्यान में रखते हुए देश भर में मंडलीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों की संस्थापना 1988 में की गई। इन संस्थानों का मकसद शिक्षा में आने वाले प्रशिक्षु छात्रों को बेहतर प्रशिक्षण प्रदान किया जाए ताकि स्कूली स्तर पर शिक्षा की स्थिति को दुरुस्त की जा सके। दिल्ली में नौ डाइट खोले गए। आज इन नौ डाइट में से सात में पूर्णकालिक प्रधानाचार्य नहीं हैं। कई डाइट में पूर्णकालिक गणित, हिन्दी आदि विषय के प्राध्यापक नहीं हैं। इन संस्थानों में तदर्थ शिक्षकों के जरिए प्रशिक्षण कार्य को अंजाम दिया जा रहा हैं। इन संस्थानों में रिक्तयां लंबे समय से खाली हैं। जिन्हें पूर्णकालिक प्रध्यापकों से भरने की बजाए तदर्थ शिक्षकों से भरा गया है। नब्बे के दशक में शिक्षा में तदर्थ शिक्षकों जिसे शिक्षा मित्र, पैरा टीचर आदि के नाम से जानते हैं देखते ही देखते शिक्षा जगत में छा गए। स्थाई शिक्षकों के कमी आज न केवल शिक्षण संस्थानों में हैं बल्कि स्कूलों और कॉलेज में भी है। सिर्फ दिल्ली की बात करें तो स्कूलों में कम से कम पांच हजार पद खाली हैं।
प्रो अनिल सद्गोपाल तदर्थ शिक्षकों के पीछे की नीति को अपनी किताब ‘‘शिक्षा में बदलाव के सवाल’’ के पाठ ‘शिक्षा नीति का संकट’ में लिखते हैं कि विश्व बैंक की नीति के कारण शिक्षकों का भविष्य भी खतरे में हैं। बैंक का एक दस्तावेज कहता है कि शिक्षक की नौकरी कभी भी स्थायी न हो और वे ठेके पर लिए जाएं। इन पंक्तियों की रोशनी यह समझना आसान है कि क्यांकर नब्बे के दशक में शिक्षा में सरकार तदर्थ जिसे ठेके पर रखने की बात की गई है ,उसपर जोर दं रही थी। बल्कि दे भी रही है। आज की तारीख में स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, शिक्षण संस्थानों में तदर्थ पर शिक्षकों की भर्ती की जाती है। डाइट जिसका जिक्र किया गया वहां गणित, भाषा, विज्ञान के स्थायी शिक्षकों के पद वर्षों से खाली हैं। वहीं प्राचार्य के बिना ही नौ से सात डाइट चल रही हैं। और तो और शिक्षा में कहने को तो हर साल बजट में बढ़ोतरी हो रही है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद का अभी भी तीन प्रतिशत ही बैठता है। उस पर भी केवल दो प्रतिशत खर्च शिक्षक प्रशिक्षण में और शिक्षा के कुछ साधनों पर हो रही हैं।
हमने 1960 के आस पास ही घोषणा की थी कि पंद्रह सालों में हर बच्चे को प्राथमिक शिक्षा कक्षा एक से आठवीं तक की शिक्षा मुहैया करा देंगे। वह पंद्रह साल कब का जाता रहा। 1995 में एक बार फिर घोषित किया कि 2005 तक सभी बच्चे प्राथमिक शिक्षा पा लेंगे। लेकिन शिक्षा के अधिकार कानून लागू हुए छह साल गुजर चुके लेकिन आज भी 7 करोड़ से ज्यादा बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। वैश्विक स्तर पर हुई घोषणाओं में हमने हस्ताक्षर कर कबूल किया था कि 2015 तक देश के सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करा देंगे लेकिन यह तय सीमा भी हाथ से छूट गई। अब 2030 तक जिसे सस्टनेबल डेवलप्मेंट गोल ‘एस डी जी’ के नाम से घोषणा हुई है। इसके अनुसार हम लोग 2030 तक सभी बच्चों को समान, गुणवतापूर्ण शिक्षा प्रदान कर देंगे।

Monday, January 23, 2017

अच्छा हुआ गालिब...

तुम इस जमाने में न हुए,
होते तो जाया ही परेशां होते,
हमने खींच दी है एक रेखा
मोटी रेखा
तुम्हारे और तुलसी के बीच।
रेख्ता और दोहे के बीच भी खोद दी है जमीन
तुम तो उर्दू और हिन्दी के पैरोकार ठहरे
हमने उसे भी ढाह दी है,
हिन्दी को इस मार रखा और उर्दू को उस पार फेंक दी है।
अच्छा ही हुआ गालिब...
होते तो जार जार रेते,
हमने तो रंगों, फूलों और तो और
भाषा को भी बांट दी है
बड़ा हिस्सा इस पार
छोटा हिस्सा उस पार।

Monday, January 16, 2017

उत्तर मेला सुस्ताती किताबें


कौशलेंद्र प्रपन्न
किताबों का मेला संपन्न हुआ। मेले के बाद किताबें, प्रकाशक,लेखक, आलोचक, पाठक आदि सब सुस्ता रहे होंगे। किताबें तो खासकर। किताबों के बीच एक शोर, एक उत्साह जरूर कुलबुला रहा होगा कि किसको कितने पाठकों ने उलटा पलटा और किसे अपने साथ ले गए। जो खरीदी गईं, उनकी भी अपनी कहानी है। उनके पन्नों को कब मौका मिलेगा जब पाठक उन्हें पढ़ेगा। आलोचक पढ़कर उस पर कब और क्या लिखेगा यह भी दिलचस्प है। मेले के बाद शुरू होती है सच्ची कहानी किताब की। आलमारियों में पड़ी रहेंगी या हाथों में भी आएंगी। हाथ में तो आ गईं क्या वे शिद्दत से पढ़ी जाएंगी? किस लिए और किसके लिए पढ़ी जाएंगी? हर किताब को पाठक और आलोचक मिले यह जरूरी नहीं। क्योंकि हर साल, हर मेले में लाखों किताबें छपती और कहां चली जाती हैं पता भी नहीं चलता।
पुस्तक मेले में हर पांच कदम पर किताबों का लोकार्पण हआ करता है। लोकार्पण कहें या कवर देखाई पर चार पांच लोग हाथ बांधें खड़े हो जाते हैं। हर किसी की अपनी रूचि और पढ़ने की दिलचस्पी होती है। किसी के पास कहानी,कविता,उपन्यास की किताबें होती हैं तो कोई आलोचना, समीक्षा, निबंध परक किताबों से अपनी झोली भरता है। देखा गया है कि कविता,कहानी,उपन्यास की किताबें ज्यादा खरीदी और बिकती हैं। इनकी तुलना में आलोचना, शिक्षा, निबंध आदि कम खरीदी जाती हैं। अव्वल तो यह विधा पहले से ही कोनों में सिमटी होती हैं उसपर प्रकाशक भी कोई खास ध्यान प्रयास नहीं करता। लघुकथाओं, कहानियों, चटकदार किस्म की किताबों और लेखकों को प्रकाशक दुल्हे, दुल्हन की तरह सजाता और प्रस्तुत करता है। यह विभिन्न प्रकाशकों के स्टॉल पर यह नजारा आम है। अपने अपने प्रिय लेखकों उसमें भी जो चेहरे टीवी स्क्रीन पर आते जाते रहते हैं उन्हें बुलाकर बैठा लेते हैं। इसका एक लाभ तो उन्हें जरूर मिलता है कि पाठक उन चेहरों के साथ फोटो उतारने और उनकी किताब पर हस्ताक्षर लेने के लोभ में कम से कम उनके स्टॉल पर आते हैं। जब पाठक आ गया तो नजर भी दौड़ाता है। कम से कम जिन किताबों के बारे में सोशल मीडिया पर पढ़ा व देखा होता है। एक दो किताबें भी खरीद लेता है।
किताबों का मेला कई कोणों से खास होती हैं। एक तो एक ही छत के नीचे तमाम किताबें,लेखक, प्रकाशक, पाठक, आलोचक मिल जाते हैं। उनसे मिलने का सुख भी पूरा हो जाता है। साथ ही जिन्हें सिर्फ पढ़ा है उनसे बात करने का अवसर भी मिल जाता है। आलम तो यह भी होता है कि हर दूसरी तीसरी गली के बाद किसी स्टॉल पर अनायास या सायास दुबारा भी टकराते लेखक मिल जाते हैं। दिलचस्प तो यह भी है कि दिल्ली के कुछ लेखक पूरे मेले में पूरे दिन रहते हैं। वे किसी ने किसी स्टॉल, लेखक मंच, साहित्य मंच आदि पर बोलते बतियाते भी नजर आएंगे।
सवाल यह उठ सकता है कि यदि विश्व पुस्तक मेले में इतनी भीड़ आती है, किताबें खरीदती है तो फिर इस बात को रोना क्योंकर सुनाई देती है कि पाठक नहीं रहे। खासकर हिन्दी में पाठकों की कमी है। किताबें खरीदी नहीं जातीं आदि। दरअसल यह सवाल से ज्यादा आत्म रूदन अधिक है। इस रूदाली में लेखक,प्रकाशक ज्यादा है। उनके भी अपने निहितार्थ हैं। इसे समझने की आवश्यकता है।
इस बार भी पुस्तक मेले में हजारों किताबें आईं। कुछ को लोकार्पित होने का मौका भी मिला। लेकिन अभी भी कई किताबें ऐसी रह गईं जिन्हें पाठकों का इंतजार ही रहा। जैसा की पहले लिखा जा चुका कि शिक्षा,बाल साहित्य, डायरी, यात्रा-वृतांत आदि की किताबें उपेक्षित ही रहीं। बाल साहित्य के नाम पर बाल कविताएं, कहानियां ही नहीं होंती। न केवल बाल मंडप में कुछेक नाटक, कथा वाचन से बाल साहित्य को प्राण वायु मिलने वाली है। प्रकाश मनु, दिविक रमेश, शेरजंग गर्ग, क्षमा शर्मा, रमेश तैलंग आदि नामों की सूची में और लेखकों के नाम जुड़ने हांगे।
पुस्तक मेले के बाद किताबों की एक दूसरी यात्रा शुरू होती है। इस यात्रा में लेखक और प्रकाशक की भूमिका खासा महत्वपूर्ण होती है। वह यात्रा समीक्षा की होती है। विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं में छपने वाली समीक्षाओं में लेखक अपनी किताब की समीक्षा भी छपाना चाहता है। कई बार दोस्तों से अनुरोध कर समीक्षाएं लिखवाता है तो कई बार स्वयं प्रकाशक किताबें अखबारों,पत्रिकाओं को भेजता है। संपादक अपनी रूचि पसंदगी और लेखकीय गुणवत्ता को तरजीह देते हुए किताबें समीक्षकों को भेजे देता हैं।यहां भी कई किताबें संपादकों की आलमारियों में अपनी पारी का इंतजार करती रहती हैं। वे किताबें कितनी सौभग्यशाली होती हैं जिन्हें समीक्षाओं की नजर से गुजरने का मौका मिल पाता है।
चलो कि अब मेला खत्म हुआ। बिखरी रहेंगी कुछ यादें, कुछ पन्ने, कुछ बातें, कुछ कड़वाहटें आस पास। कुछ किताबें निराश करेंगी तो कुछ को बार बार पढ़ने की इच्छा होगी। कुछ चेहरे सुखद और अपनेपन के भाव वाले होंगे तो कुछ को देख कर ही खिन्नता होगी। लेकिन हैं तो वे भी इसी मेले का हिस्सा जिसे भूल नहीं सकते।
किताबों को मेला हर बरस लगेगा। लेखक, प्रकाशक, पाठक भी हांगे लेकिन संभव है इस बार जो पाठक-दर्शक की भूमिका में थे वे अगले साल लेखक की श्रेणी में खड़े मिलें। इसलिए किसी को भी कमतर नहीं मानना चाहिए। संभावनाएं और सपनों को दबा नहीं सकते। इस बार जिन्हें उपेक्षा मिली। प्रकाशक ने जिसे लेखक नहीं माना हो सकता है वही किसी और प्रकाशक का प्रिय लेखक के तौर पर उभरे। आज लोग प्रोफेशनली लेखक भी बनाने में गुरेज नहीं करते। अधिकार रहे हैं अब चाहते हैं कि उन्हें लोग लेखक के तौर पर भी जानें, मानें तो प्रकाशक उपलब्घ हैं। आपकी सामाजिक पहुंच और पद आपको लेखक बनने में मदद कर सकता है। आपकी किताब की प्रतियां भी खूब बिकेंगी। आपकी किताब पर बोलने, लिखने वाले भी बिन मांगे मिलेंगे। बस शर्त यह है कि आप एक बार लिखने की इच्छा तो बताएं। आप नहीं लिख सकते तो भी कोई बात नहीं लिखने वाले भी मिल जाएंगे। वे लेखक पर्दे के पीछे होगा सामने हांगे आप।
उत्तर मेला किताब कथा यही तो है कि हर लेखक प्रकाशक मेले के बाद क्या पाया, कितना पाया और क्या पाना शेष रह गया इसका हिसाब-किताब लगाएंगे। पाठक भी जब मनन करेगा तो उसे कुछ तो हासिल जरूर होना चाहिए कि जिन किताबों को खरीदा है वह कितना लाभकरी है। क्या केवल नाम देख-पढ़कर किताबें खरीद लीं और बाद में उसे पढ़ेगा या नहीं ? काफी हद तक यह निर्भर करता है कि लेखक ने जिस कंटेंट को उठाया है उसके साथ उसने न्याय किया की नहीं। क्या कंटेंट को छू कर आग निकल गया या उसकी गंभीरता को बरकरार रख सका आदि। किताबें निश्चित ही बोला करती हैं। वे बोलती हैं कि हम जिस समय में जी रहें हैं वह डिजिटल युग है। हजारों हजार पन्ने एक छोटे से डिवाइस में रखी और पढ़ी जा सकती है। सहेजने की क्षमता और संग्रह भी बढ़ी है क्या ऐसे दौर में मुद्रित किताबें बचेंगी या उनका स्वरूप नई चाल तकनीक में ढल जाएगी।


Tuesday, January 10, 2017

अगर आप पढ़ते नहीं कोई किताब....


कौशलेंद्र प्रपन्न
किताबें तो पाठकों के लिए ही होती हैं। पाठक किताबों के लिए। पुस्तकालय विज्ञान के ज्ञाता और भारतीय संदर्भ में जिन्हें पितामह माना है एस आर रंगनाथन ने यह स्थापना की थी कि हर किताब पाठकों के लिए है और हर पाठक के लिए किताबें होती हैं। किताबें पाठकों के बीच से यदि नदारत हो रही हैं तो इसकी छूटी हुई कड़ी की पहचान जरूरी है। एस आर रंगनाथन ने यह भी कहा था कि पुस्तकालय एक संवर्धनशील संस्था है जो निरंतर वृद्धि करती है। लेकिन आज के संदर्भ में देखें तो पुस्तकालय हमारी आम जिंदगी से कटती ही जा रही हैं। मॉल्स, फास्ट रेल, शॅापिंग कॉम्पलेक्स आदि का निर्माण हो रहा है लेकिन एक अदद पुस्तकालय हमारी चेतना से छूटती जा रही है।
किताबों का महाकुंभ नई दिनों दिल्ली में लगा है। इस महाकुंभ में देश-विदेश के पाठक रोजदिन स्नात हो रहे हैं। लेखकों, साहित्यकारों, कवियों के लिए मिलन स्थल में तब्दील हो चुका यह मेला सच पूछें तो किताबों के खरीद फरोख्त से ज्यादा मिलने जुलने के महा अवसर में परिवर्तित हो चुका है। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि किताबें कितनी खरीदी और पढ़ी जाती हैं। यूं तो पाठकों के हाथों में विभिन्न प्रकाशन घरानों की थैलियां टंगी हैं जिनमें कहानी, उपन्यास, निबंध, यात्रा वृतांत आदि की किताबों से अटी हुई हैं। इस मेले में सबके अपने अपने मकसद हैं सबकी अपनी अपनी रूचियां हैं। कोई लेखक से मिलने भर की तमन्ना पाले इत्थे उत्थे भटक रहा है तो कोई लेखक-प्रकाशक की कड़ी में स्वयं को जोड़ने की जुगत में है।
लेखक-प्रकाशक-पाठकों के बीच पढ़ने की लालसा भी बढ़ती नजर आ रही है। उससे भी कहीं आगे बढ़कर देखें तो अपनी दो चार किताबों की प्रतियां हाथ में लिए विमोचन के लिए लेखक दर ब दर भटकते हुआ भी नजर आ जाएंगे। हर लेखक,कवि, साहित्यकार की दिली ख्.वाहिश है कि उसकी किताब इस पुस्तक में मेले में लोकार्पित नहीं हुई तो उसका जीना बेकार है। लोकार्पण का सुकुचित स्वरूप हमें किसी भी पुस्तक मेले में साफ देखने को मिलते हैं। वह लोकार्पण से ज्यादा कवर पेज की मुंह देखाई सी होती हैं। उसपर किताब पर बोलने वाले कोई खास तैयारी व पढ़कर नहीं आए हुए होते हैं। शीर्षक देखकर और ज्यादा हुआ तो फ्लैप पर लिखी कुछ पंक्तियों को पढ़कर बोलने की संस्कृति अधिक दिखाई देती है। सवाल यह उठ सकती है कि इस लोकार्पण के निहितार्थ क्या हैं? किसको क्या हासिल होता है? आदि। पाठक तो इस लोकार्पण प्रक्रिया में दर्शक भर की भूमिका निभाता है।
किताबों के जानकार और किताबी दुनिया को करीब से समझने वाले प्रकाशक, लेखक, समीक्षकख् पत्रकार आदि मानते हैं कि किताबें कभी खत्म नहीं होंगी। किताबें के स्वरूप बेशक बदली हुई होंगी लेकिन किताबें का अस्तित्व रहेंगी। ज्ञान और सूचना को कंटेनर बदल सकता है लेकिन उसकी मांग खत्म नहीं होगी। विमर्शकार मानते हैं कि पन्ने दर पन्न पलटने के दिन बेशक लद सकते हैं लेकिन किताबों की दुनिया हमारे बीच बनी रहेगी। याद करें अस्सी का दशक और नब्बे का दशक जब कम्प्यूटर का प्रवेश किताबी और हमारी जिंदगी में हो रहा था। हम डर रहे थे और आवाज बलंद कर रहे थे कि किताबें मर जाएंगी। किताबों का स्थान तकनीक ले लेगा आदि। लेकिन क्या ऐसा शत प्रति शत हुआ? क्या किताबें नहीं छप रहीं हैं? छप रही हैं बल्कि पहले से ज्यादा रोचक और रंगीन कलेवर में छप रही हैं। जिस रफ्तार और कम समय में छप रही हैं इसका हमने अनुमान भी नहीं लगाया था। हजारों हजार की संख्या में सुरूचिपूर्ण तरीके से किताबें छप रही हैं और अपने पाठकों के हाथों में भी आ रही हैं। हां अंतर यह आया है कि मुद्रित के साथ ही इलेक्टॉनिक फार्म में भी वेबकास्ट, टेलिकॉस्ट हो रही हैं। किताबें छपते छपते ऑन लाइन भी उपलब्ध करा दी जाती हैं। इसे हमसब किताबों के वैश्विक व्यक्तित्व कहें तो कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।
किताबें छपती और कहां चली जाती हैं इसका अंदाजा लगाना कई बार भारी काम लगता है। जानकार बताते हैं कि किताबें अधिकतर लेखक और लेखक मित्रों और पुस्तकालयों में पनाह लेती हैं। माना तो यह भी जाता है कि वे किताबें बेहद सौभाग्यशाली होती हैं जिन्हें पाठक मिलते हैं। जिन्हें बंद आलमारी में कैंद से मुक्ति मिलती है।किताबें पढ़ने के लिए होती हैं न कि आलमारी में शोभा बढ़ाने के लिए लिखी छापी जाती हैं। पाब्लो नेरूदा की एक पंक्ति किताबों और पाठकों के रिश्ते का सारा मंजर बयां करता हैआप धीरे धीरे मरने लगते हैं, अगर आप करते नहीं कोई यात्रा, अगर आप पढ़ते नहीं कोई किताब...।


Monday, January 9, 2017

अपना -अपना कुंआ


हम सब के अपना- अपना कुंआ बनाते हैं। उसी में ताउम्र रहते भी हैं। कुछ लोग हैं जो उसकी परिधि को तोड़कर बाहर आ पाते हैं। कुंआ कोई भी हो, कहीं का भी हो लेकिन होता तो कुंआ ही है। यानी हमारी अपनी चुनी हुई सुरक्षित जगह जहां हम अपनी क्षमताओं और दुर्बलताओं के साथ जीने के लिए चुन लेते हैं। हमें अपने कुंए ही सीमा को पहनाने होंगे और पहचान कर उसके बाहर आने की कोशिश करनी चाहिए। जो अपने कुंए से जितनी जल्दी बाहर आ जाए वह उसके लिए बेहतर होता है। लेकिन यह सवाल भी बड़ा मौजू है कि हम क्यों अपने बनाए कुंए में भी रहना चाहते हैं। क्यों हम अपने कुंए की सीमा को नहीं तोड़ पाते हैं? दरअसल हम एक सुरक्षित स्थान और वातावरण में जीने के आदि हो चुके होते हैं। हमें उस परिवेश के बाहर ही दुनिया नहीं सुहाती इसलिए हम अपने कुंए में रहना पसंद करते हैं। लेकिन सच यह भी है कि जिसने भी अपने कुंए की पहचान कर उससे बाहर आने की कोशिश की है वह पहले अपने वातावरण और परिवेश से ही लड़ा है। अपनी कमजोरियों, आदतों और मजबूतियों से रू ब रू हुआ है। यहां हमें हमारी सीमाएं नजर आती हैं। हमें हमारी क्षमताओं का एहसास होता है। हम कुछ देर के लिए नई परिस्थितियों में ढलने और चुनौतियों का सामना करने से डरते हैं। यह डर ही हमें हमारे कुंए में बनाए रखता है।
हर पेशे की भी अपनी सीमाएं और चुनौतियां होती हैं जिन्हें पहचानने की आवश्यकता है। उस पेशे के लोग कई बार अपनी सीमाआें और कुंआ को बरकरार ही रखने में सहजता महसूस करते हैं। मसलन अध्यापक,लेखक, पत्रकार आदि। अध्यापक बहुत कम बार अपने कुंए से बाहर आने की कोशिश करते हैं। उनका तर्क यह होता है कि हमें तो पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता। कब पढ़ें? बच्चे पढ़ना नहीं चाहते। गैर शैक्षिक कामों में हमें लगा दिया जाता है आदि। इन तर्कों के पीछे हकीकत तो है लेकिन उससे ज्यादा एक सुरक्षित रहने और स्वयं को लाचार साबित करने की लालसा अधिक है। यहां हमने अपने लिए कुंआ का निर्माण किया कि परिस्थिति ही ऐसी है कि इससे बाहर नहीं निकल सकते। पढ़ने के लिए समय ही नहीं मिलता। गैर शैक्षिक कामों में झोंक दिया जाता है। जबकि कोशिश की जाए तो न केवल पढ़ने के अवसर निकाले जा सकते हैं बल्कि पढ़ाने के लिए भी समय तलाशे जा सकते हैं। लेकिन हमें हमारे तर्क वह कुंआ प्रदान करते हैं जिसमें हम उन्हीं तर्कों की आड़ में जीना और रहना सीख लेते हैं। यही परिस्थिति हमें सकून देने लगती है। यदि कोई बाहरी परिस्थिति व व्यक्ति हस्तक्षेप करता है व कुंए की पहचान करता है तब हम आक्रोशित हो जाते हैं। हमें लगता है कोई हमें कठोर आईना दिखा रहा है। जबकि उसने सिर्फ हमें हमारे कुंए की पहचान कराई है। ठीक उसी प्रकार लेखकों के भी अपने बनाए कुंआ होता है। उसी में उम्र भर जीता है। लेखकों के अपने तर्क जनित कुंए हैं। मसलन पाठक नहीं रहे। लोग किताबों से दूर जा रहे हैं। किताबों के मूल्य ज्यादा हैं। प्रकाशक की दुनिया लेखक की दुनिया को नियंत्रित करती है आदि। इन तर्कों के पीछे सच्चाई नहीं है ऐसा नहीं कह सकते। लेकिन क्या इन सच्चाइयों को स्थाई मान कर हाथ पर हाथ धर कर प्रयास करना छोड़ देना चाहिए? क्या लेखकों को अपनी सीमा में रह कर बाजारानुकूल लिखना शुरू कर देना चाहिए? आदि ऐसे प्रश्न हैं जिनसे लेखकों को टकराने की आवश्यकता है।
नए ज्ञान, नई तकनीक, संचार के नए माध्यमों को भी सब के अपने कुंओं से लड़ना पड़ता है। हर काल खंड़ में तकनीक, ज्ञान, संचार को एक संघर्ष के दौर से गुजरते हुए अपनी सीमाओं को तोड़ना ही पड़ा है। वर्तमान समय में भी तकनीक और ज्ञान-सूचना के संप्रेषण को उस मानसिक कुंए से रू ब रू होना पड़ रहा है जिन्हें लगता है कि तकनीक के विकास ने पाठकों को खत्म कर दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो तकनीक हमारी जीवन शैली को सहज बनाने में कुछ बने बनाए चौहद्दियों फलांगती है। इसमें कुछ दीवारें ढहती हैं। आधुनिक संदर्भ में ज्ञान व सूचना के महज प्रारूप् कंटेनर बदले हैं उसके उद्देश्य वही है पाठकों तक पहुंचना। वह चाहे ऑन लाइन हो, पाम टॉप हो, किंडल हो या आईपैड यदि किताबें पढ़ी जा रही हैं तो हमें क्यों न खुश होना चाहिए कि लोग पढ़ तो रहे हैं। स्वरूप कोई सा भी हो। यदि मुद्रित सामग्री या किताबें नहीं पढ़ी जा रही हैं तो उसे छापने में क्योंकर प्रकाशक पैसे लगाने लगे।
हम अपने जीवन में भी कई कुंए बना कर उसी अपनी जिंदगी बसर करते हैं। उसी में रह जाते हैं। हमें अपने कुंए से बाहर आना होगा तभी हमें हमारी क्षमता एवं कौशल को विकसने का अवसर मिल पाएगा। वरना ताउम्र यही तर्क बुनते रहेंगे कि अवसर नहीं मिला वरना क्षमता तो थी ही। यदि क्षमता है तो अपनी सीमा को पहचना कर उसे तोड़ विकसित भी करना होगा। कहीं मलाल न रह जाए कि वक्त नहीं मिला। वक्त निकलाने पड़ते हैं स्वयं की पहचान बनाने और विकसित करने के लिए परिवेश निर्माण भी काफी हद तक हम पर निर्भर करता है। तर्क और मनोरचना करना आसान है जिससे हम अपने चेतन मन को तो समझा लेते हैं लेकिन अचेतन मन हमेशा हमें ही दुत्कारता है।

Monday, January 2, 2017

समंदर को मालूम है


फिर भी बार बार
किनारों पर सिर फोड़ता सदियों से लेटा है
वहीं के वहीं
बस लहरें तेज उछाल मारती
किनारों से टकरातीं।
कभी सुस्ताने की इच्छा भी नहीं होती,
रात दिन चारों पहर
पछाड़ खाता,
टकराता रहता है।
बार बार मन करता झकझोरा कर पूछूं उससे
क्यों जी कभी सोते नहीं
क्भी जब भी देखो टकराते रहते हो,
दर्द नहीं होता,
मलाल भी नहीं
कि बार बार किनारों से टकरा कर क्या होता है हासिल?
कभी कभी विकराल हो जाते हों
गोया गुस्सा हो अपनी ही लहरों से
फेंक आते हो किनारों पर
पर यह क्या किनारे उसे अपनाते नहीं
वापस लौट आती हैं तुम्हारी ही गोद में।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...