Thursday, December 31, 2015

हिन्दी शिक्षक-शिक्षण कार्यशालाओं का सफ़र





कौशलेंद्र प्रपन्न
इस वर्ष के अकादमिक सत्र में मैंने तकरीबन 50 यानी तीन दिवसीय 150 दिन हिन्दी शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन किया। इन कार्यशालाओं में मैंने तकरीबन 550 से ज्यादा शिक्षकों को हिन्दी पढ़ाने की तौर तरीकों और बारीकियों पर दक्ष किया।
पूर्वी दिल्ल नगर निगम के प्राथमिक शिक्षकों के साथ ही लुधियाना,नीमराण़्ाा, जोधपुर आदि जगहों पर तीन दिवसीय कार्यशालाओं के दौरान पाया कि हिन्दी शिक्षण में हमारे शिक्षक सक्षम नहीं हैं। आज भी हमारी हिन्दी पुरानी शैली और तरीकों के मार्फत ही पढ़ाई जा रही है। वही वर्णमालाओं को रटवाना, परिचय देना, वाक्य निर्माण के शुष्क तरीकों के जरिए शिक्षक पढ़ा रहे हैं। इन्होंने हिन्दी की कक्षा और स्वयं को नए तकनीक से नहीं जोड़ा। और तो और इन्होंने अपनी शिक्षकीय कौशलों मंे बहुत विकास किया है।
जहां तक गतिविधियों के जरिए हिन्दी पढ़ाने की बात है तो वहां हमारे शिक्षकों के अनुभव खाली ही हैं। किस प्रकार हिन्दी शिक्षण को कक्षाओं में रोचक बनाएं इसको लेकर शिक्षकों में एक लंबी उदासीनता दिखाई देती है। जबकि हमारा समाज बदला है। हमारे जीने और चीजों को समझने के नजरिए में भी तब्दीली आई है लेकिन जो कुछ अभी भी वही चल रहा है वह है सूर तुलसीख् कबीर को पढ़ाने का ढर्रा।
हिन्दी को कैसे रोचक ढंग से पढ़ाएं ताकि को बच्चो को हिन्दी लुभाए इस ओर हमारे शिक्षक अभी पीछे हैं। हालांकि यह कहना सतही होगा किन्तु हकीकत यही है कि हिन्दी के शिक्षक अभी भी अपने अतीत में जी और सीखने की परंपरा में ही सांसें ले रहे हैं।
शिक्षण एक कौशल है इससे किसे गुरेज हो सकता है। यदि शिक्षण कौशल और दक्षता है तो उसे हासिल भी किया जा सकता है। इसकी तालीम हमारे शिक्षकों को सेवापूर्व शिक्षक प्रशिक्षक संस्थानों मंे दी जाती रही हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि उन संस्थानों मंे भी अभी भी पुराने तरीके से ही बच्चों और हिन्दी को देखने की आदत है। यही वजह है कि नए नए प्रशिक्षण हासिल शिक्षकांे मंे तो उत्साह देख्ेा जाते हैं लेकिन जैसे जैसे पुराने होते जाते हैं वैसे वैसे अपने पुराने सहयोगियों के रास्ते चलने लगते हैं। जिन कमियों और खामियों को लेकर नए शिक्षक आ रहे हैं उन्हें किसी ने दुरुस्त नहीं किया गया। यही कारण है कि वर्तनी की गलतियां, वाक्यों के निर्माण आदि बारीक बातों मंे हमारे शिक्षक विफल होते हैं। उदाहरण के तौर पर जब मैंने इन कक्षाओं में प्रतिभागियों से श्रुत लेख लिखवाए तो इक्कीस शब्दों मंे से बारह, पंद्रह शब्द से आगे नहीं बढ़ पाए। अशुद्धियां काफी थीं। महज तीन प्रतिशत शिक्षकों ने ही अठारह का आंकड़ा पार कर पाए। यह बतलाता है कि किस तरह से श्रुत लेखक लिखवाने और शब्दों के लेखन परंपरा खत्म होती चली गई। लेखन,वाचन और श्रवण इन तीनांे ही स्तरों पर शिक्षकों की दक्षता बढ़ाने की जरूरत महसूस की गई।
अब यदि कहानी- कविता पढ़ाने की शैली में भी रोचकाता की कमी पाई गई। आज भी अधिकांश शिक्षक पुराने ही तरीके से कहानी को पढ़ और पढ़ाने का काम कर रहे हैं। तू पढ़ा की शैली में बच्चे कितना सीखते हैं यह किसी से भी छूपा नहीं है। इन्हें कहानी पढ़ाने, कविता के उच्चारण पर खासा मेहनत करनी पड़ी। जब उन्होंने स्वयं कार्यशाला के बाद कहा कि सर आपने जिस तरीके से कहानी व कविता पढ़ाई उसमें आनंद आ गया। हमने कभी ऐसे नहीं पढ़ाया। तब मेरा जवाब होता था कि आपकी कक्षा के बच्चे भी जब इसी जोश के साथ आपको आपकी शिक्षण पर टिप्पणियां दें इसकी उम्मीद और प्रयास करने चाहिए।
मैंने इन तमाम विभिन्न परिवेश और स्थान के शिक्षकों के साथ कार्यशालाओं के दौरान सीखा कि अभी भी हिन्दी पढ़ाने में हमारे शिक्षकों को काफी दिक्कतें आती हैं। उन्हें हिन्दी पढ़ाने और पढ़ने के आनंद से दूर रखा गया है। कितना अच्छा होता कि उन्हें पढ़ाने और पढ़ाने के कर्म में ही इस्तमाल किया जाता।
आगामी वर्ष मंे मैंने भी योजना बनाई है कि हिन्दी शिक्षण और शिक्षका को कैसे पढ़ने के प्रति आकर्षण पैदा कर सकूं। किस तरह से और गतिविधियां इन्हें मदद कर सकती हैं इसपर काम किया जाए। हिन्दी दरअसल इन्हीं प्राथमिक शिक्षकों के कंधे पर आगे बढ़ेगी। महज सम्मेलन, पुरस्कार, मेलों के जरिए हिन्दी न तो दुरुस्त होगी और न आगे पढ़ी और पढ़ाई जाएगी।
कविता को पढ़ाने के तौर तरीकों को लेकर बहुत बड़ी समस्या है। कविताएं अपने आप में एक अभिव्यक्ति का सशक्त साधन है यदि हमारे शिक्ष कइस कला को सीख लें तो भाषा शिक्षण और कविता शिक्षण में कोई खास दिक्कतें नहीं आएंगी। कविता विधा को पढ़ाने और पढ़ने के तौर तरीकों पर चर्चा की। कविता कैसे लिखी जाए और कविता का वाचन कैसे किया जाए इस पर सत्र में विस्तार पर विमर्श किया गया। कविता को पढ़ाने के दौरान किस प्रकार की बारीकियों को ध्यान मंे रखा जाए इस ओर भी कार्य किया गया। कविता शिक्षण और कविता लेखन के कौशल के साथ ही कविता वाचन के कौशलों पर विस्तार से विमर्श किया गया। कविता का पाठ कैसे करें और कविता शिक्षण में थिएटर को कैसे शामिल करें इसपर चर्चा हुई।





Wednesday, December 30, 2015

पूर्वी दिल्ली में बिन वेतन पढ़ाते शिक्षक


कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले तीन माह से पूर्वी दिल्ली नगर निगम के प्राथमिक शिक्षकों को वेतन नहीं मिले हैं। यह इसी तीन माह की बात नहीं है, बल्कि हर साल की यही स्थिति है। जनवरी फरवरी और मार्च में तो और भी बुरा हाल होता है। यह आलम देश की राजधानी दिल्ली के शिक्षकों की है। पूर्वी दिल्ली और दिल्ली के दूसरे निगमों के शिक्षकों की भी स्थिति लगभग एक सी है। पूर्वी दिल्ली के नगर निगम में पढ़ाने वाले शिक्षक हर्ष भारद्वाज हों या संदीप त्यागी, हिना कौसर  हों या शशि किरण इन तमाम शिक्षक/शिक्षिकों को विलम्ब से वेतन मिलने पर आक्रोश तो है ही साथ ही चिंता भी है कि तीन तीन माह तक बिना वेतन के कैसे घर चलाया जाए। कैसे कोई अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धता और अपने आत्मबल को बरकरार रख सकता है। सुना था कि दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों में शिक्षकों के वेतन लेट लतीफ मिला करते हैं। लेकिन जब देश की राजधानी में यह हाल है तो देश के अन्य राज्यों में शिक्षक कैसे जीवन और शिक्षण के बीच तालमेल बैठा पाते  होंगे।
समाज में शिक्षकों को उनकी जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता और कर्तव्य की ओर तो ख्ुाल कर बोला जाता है लेकिन जब शिक्षकांे को सैलरी नहीं मिल रही है तब उनके लिए समाज खामोश है। जब हमारा शिक्षक वर्ग खाली पेट होगा और कक्षा में शिक्षण कर्म करेगा तब उसके लिए समाज में आवाज उठाया जाना हमारा फर्ज है। लेकिन हम नागर समाज के लोग इस मसले पर मौन साधे बैठे हैं। दरअसल शिक्षक समाज को दबाने और दमित करने की रणनीति और प्रयास हमेशा से ही होते आए हैं। इनके हक और पेट के लिए बहुत कम ही लोग कमर कस कर आगे आते हैं। विभिन्न राज्यों से आने वाली तस्वीरें और ख़बरें हमारी नींद नहीं उड़ाती जब उनपर गोरू डांगर के मानिंद लाठियंा और पानी के बौछार किए जाते हैं। इस में बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा सब एक ही मंच पर खड़े नजर आते हैं। इन राज्य सरकारों ने जब भी मौका मिला है उन्होंने शिक्षकों के वेतन और सुविधाओं को लेकर उठने वाली आवाज को दबाने की कोशिश ही की है।
लाठियां न केवल वेतन मांगे जाने पर बरसायी गई हैं बल्कि सालों साल संविदा यानी कांट्रेक्ट पर खटने वाले शिक्षकों की ओर स्थाई करने की मांग आई हो उसे बड़ी क्रूरता से कुचला गया है। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि हमारे शिक्षक किस दौर से गुजर रहे हैं। एक ओर तमाम सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपे जाने की आंधी चल रही है। विभिन्न राज्यों में सरकारी स्कूल धड़ल्ले से बंद हो रही हैं। राजस्थान में तकरीबन 18000, उत्तराखंड़ में 4300, छत्तीसगढ़ में 3300 आदि स्कूल बंद किए जा चुके हैं। गौरतलब बात यह है कि इसके खिलाफ समाज में कोई पुख्ता आवाजा व विरोध नहीं हुए हैं। कुछ गैर सरकारी संस्थानों ने अपनी आपत्ति दर्ज जरूर कराईं किन्तु उनकी आवाज अनसुनी कर दी गई।
प्रो कृष्ण कुमार अपनी किताब गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद में बड़ी ही गंभीरता से उठाते हैं कि किस प्रकार शिक्षक की सत्ता और व्यक्तित्व को कमतर किया गया। शिक्षा विभाग में शिक्षक की हैसियत एक दीनहीन कर्मचारी से ज्यादा नहीं होती। कृष्ण कुमार इस किताब में जिक्र करते हैं कि वेतन के स्तर पर बीस और पचास रुपए दिया जाता था। वहीं स्कूल निरीक्षक का पगार ज्यादा होता था। शिक्षा का आर्थिक प़क्ष पर अभी तक विशेष काम नहीं हुआ है। जहां कोठारी आयोग ने 1964-66 में जीडीपी का छी फीसदी देने की बात की थी किन्तु आज भी हम उसे पाने में असफल रहे हैं।
यदि शिक्षकों की सैलरी की ओर नजर दौड़ाएं तो इस मायने में बिहार,उत्तर प्रदेश में तो विलंब की खबरें सुनी जाती थीं। लेकिन देश की राजधानी में भी प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों को तीन चार माह से वेतन नहीं मिलने की ओर न तो सरकार की ओर से और न मीडिया की ओर कोई मजबूत आवाज उठाने की खबर आई है। राज्य सरकार सीधे अपना बचान करते हुए केंद्र सरकार के मत्थे ठीकरा फोड़ा करती है। राज्य सरकार का तर्क है कि हमारे पास इतना बजट नहीं है कि हम अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन दे पाएं। जब से दिल्ली के नगर निगमों को चार भागों में बांटा गया है तब से पूर्वी दिल्ली नगर निगम अपने शिक्षकों को समय पर वेतन देने में पिछड़ रही है। पूर्वी दिल्ली नगर निगम में न केवल शिक्षकों की सैलरी समय पर नहीं मिल रही है बल्कि तमाम शिक्षा विभाग के अधिकारियों की सैलरी भी विलंब से मिला करती हैं।
शिक्षकों पर पानी के बौछार और लाठियां हर राज्य में बरसायी जाती हैं। जब जब शिक्षकों ने अपनी सैलरी, सेवाओं के बाबत आवाज उठाई हैं तब तब राज्य व केंद्र सरकार बचाव और आक्रामक रूपधारण लेती हैं। माना जाता है कि प्राथमिक शिक्षा और शिक्षकों को बाजार के हाथ में सौंपने का खेल 1986 से ही शुरू हो चुका था। राज्य और केंद्र सरकारों ने पैसे बचाने और बाजार को सरकारी स्कूलों में प्रवेश दिलाने के लिए ही पीपीपी माॅडल पर जोर देना शुरू किया। साथ ही प्राथमिक शिक्षा और स्कूलों को निजी हाथों मंे सौंपे जाने की घटना कम से कम भारत की जमीन के लिए नई थी। आज विभिन्न निजी संस्थाएं सरकारी स्कूलों को अपने हाथ में लेने के लिए तैयार हैं बल्कि ले भी चुकी हैं। वह दिन दूर नहीं जब सरकारी के शिक्षकों पर भी यह बादल घहराए। यदि समय रहते संभले नहीं तो सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को भी अनुबंधों पर खटने के लिए तैयार रहना चाहिए।

हिन्दी पढ़ाने में गतिविधि




तीन दिन की हिन्द की कार्यशाला में हिन्दी को गतिविधियों के मार्फत कैसे रोचक बनाया जाए इस बाबत विभिन्न किस्म की गतिविधियां कराई जा सकती हैं।
वर्णमालााओं का शिक्षण हो या कविता शिक्षण इन तमाम विधाओं को पढ़ाने के दौरान गतिविधियांे को शामिल कर बेहतर और रोचक बनाया जा सकता है।
जिस चित्र को देख रहे हैं इसमें शिक्षक कहानी की प्रस्तुति की जा रही है। यह कार्य सामूहिक कार्य है। विभिन्न लोगों के द्वारा सामूहिक कार्य किया गया।
हिन्दी शिक्षण में गतिविधियों को शामिल करने का जज़्बा न हो तो वह हिन्दी को रोचक नहीं बनाया जा सकता।

Tuesday, December 29, 2015

प्रचार और चर्चा से बाहर खड़ी किताबें


कौशलेंद्र प्रपन्न
आज की तारीख में साहित्य भी एक प्रोडक्ट है जिस तरह से बाजार में विभिन्न प्रोडक्ट को बेचने के लिए रणनीति बनाई जाती है उसी तर्ज पर किताबों को बेचने और प्रचार करने के लिए प्रयास किए जाते हैं। इसमें प्रकाशक,लेखक और पाठक तीनों ही शामिल होते हैं। दूसरे शब्दों मंे कहें तो अच्छी से अच्छी से किताब भी पाठकों तक नहीं पहुंच पाती यदि उसका प्रचार और प्रसार समुचित न किया जाए। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि प्रकाशक अपने उत्पाद को बेचने के लिए किस तरह की रणनीति बनाता है। लेखक भी अपनी किताब को प्रमोट करने के लिए विभिन्न तरह के प्रयास किया करता है। वह सोशल मीडिया,प्रिंट मीडिया और तमाम माध्यमों के मार्फत अपनी किताब को पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश करता है। अब सवाल यह है कि जो प्रकाशक व लेखक अपनी किताब व प्रोडक्ट के प्रचार नहीं करते क्या वह पठनीय नहीं हैं? क्या ऐसी हजारों किताबें नहीं लिखी जा रही हैं जो प्रचार से दूर शोर से बाहर अपनी पठनीयता के बावजूद अंधेरे में गुम हो जाती हैं। निश्चित ही बिना प्रचारित ऐसी किताबें हर साल छपती और किसी अंधेरे कोने में सिमट कर रह जाती हैं जिन्हें कायदे से पढ़ने जाने की आवश्यकता है। साहित्य तमाम विधाओं में हजारों की संख्या में किताबें हर साल लिखी और छापी जाती हैं। वह चाहे कहानी,कविता,उपन्यास,निबंध,यात्रा संस्मरण,व्यंग्य आदि ही क्यों हो। साल के अंत में मूल्यांकन का दौर शुरू होता है कि उन किताबों में से कौन सी किताब ज्यादा चर्चा व मांग में रही। किस किताब ने पाठकों को अपनी ओर खींचा आदि। वहीं समग्रता में कहें तो यह काल ख्ंाड़ किताब और किताब के कंटेंट और लेखकीय सफलता और विफलता के पड़ताल का समय होता है। कई बार लेखक स्वयं यह मूल्यांकन करता है। कई बार दूसरे धड़ों के लोग इस काम को अंजाम दिया करते हैं। वे दूसरे कौन लोग हैं उनकी पहचान जरूरी है। ये दूसरे वे लोग हैं जो लगातार साल भर विभिन्न विधाओं में छपने वाली किताबों की समीक्षाओं, मांगों और पाठकों के रूझानों की पड़ताल किया करते हैं। छपने वाली किताबों पर नजर रखने वाला सबसे बड़ा चैकीदार स्वयं लेखक भी होता है। दूसरे लेखक क्या लिख रहे हैं, कैसे लिख रहे हैं एवं नए आयामों से किनका चिंतन इन दिनों ज्यादा सराहा जा रहा है आदि पर पैनी नजर रखते हैं। इसलिए साल के आखिरी पखवाड़े में इन लेखकों से राय ली जाती है कि आपकी नजर में इस बरस कौन कौन सी किताबें हैं जिन्होंने अपनी पठनीयता बरकरार रखीं जैसे सवालों का जवाब स्वयं देते हैं। हालांकि कई लेखक चलते चलते यह भी जवाब दे देते हैं कि दूसरे लेखकों को पढ़ने का मौका नहीं मिला। यह बड़ी दुखद बात है। क्योंकि यदि लेखक ही दूसरों की रचनाओं को नहीं पढ़ेगा तो पाठकों से क्या उम्मीद की जा सकती है। पहली और महत्पूर्ण बात तो यही है कि स्वयं लेखक की भी आंखें खुली रहनी चाहिए कि उनके क्षेत्र में इन दिनों क्या लिखी जा रही हैं, कैसी लिखी जा रही है। लेखक की प्रतिबद्धता सिर्फ लिखने तक महदूद नहीं होती बल्कि लेखक अपने आस पास लिखी जाने वाली रचनाओं पर नजर रखना तक फैली हुई है।
वर्ष 2015 में किस विधा में किस लेखक की किताब चर्चित रही इसे जानना भी दिलचस्प होगा। विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में वर्ष का अंतिम हप्ता इन्हीं पड़तालों मंे दिया जाता है। इस बार की चर्चित किताबों पर लेखकों की राय मानें तो कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि मंे पर्याप्त संतोषजनक लेखन हुआ। इनमें एक सावधानी यहां यह बरतनी चाहिए कि जिन किताबों की चर्चा की जा रही है क्या वह चुनाव निष्पक्ष हुआ है या वैचारिक रूझान से ग्रसित है। क्या लेखक बिरादरी ने एक खास खेमे को बढ़ाने और दूसरे को नजरअंदाज करने की मनसा से किसी किताब की ज्यादा चर्चा तो नहीं की और दूसरी किताबों को तवज्जों तक नहीं दिया। यहां पाठकों को तय करने दिया जाना चाहिए कि उनकी नजर में कौन सी किताब उनकी अपेक्षाआंे को पूरी कर पाईं। क्योंकि पाठक को एक किताब से क्या उम्मीद होती है? किताबें पाठक को क्या देती हैं? लेखक अपने किताब से क्या पाता है? अंततः किताब से समाज को क्या मिलता है आदि सवाल कई बार उठते हैं जिसका जवाब लेखक,आलोचक अपनी समझ और अनुभव से देने की कोशिश करता है। एक लेखक के तौर पर लेखक जो कुछ भी लिखता है उसकी पूर्वपीठिका तो बनाता ही है साथ ही वह अपनी लेखकीय योजना में यह भी जरूर शामिल करता है कि इस किताब से वह क्या और किसे अपनी बात रखना चाह रहा है। जब वह एक बार यह तय कर लेता है कि उसकी रचना के पाठक वर्ग कौन हैं? पाठक वर्ग की अपेक्षा लेखक से क्या है? आदि सवालों पर विमर्श करने के बाद लेखन करता है तब उस किताब की प्रासंगिकता और प्रसार ज्यादा से ज्यादा जनसमूह तक होता है। पाठकों को किताब से बहुआयामी अपेक्षाएं होती हैं। यदि बहुअपेक्षाओं मंे से दो चार उम्मीदें भी पूरी होती है तो पाठक को छला जाने का भाव नहीं घेरता। वरना किताब खरीदे जाने और पढ़े जाने के बाद यह महसूस हो कि लेखक ने वह बात व विचार स्थापित नहीं कर पाया जिसकी योजना व छवि किताब की शुरुआत में बनाई गई थी। सचपूछा जाए तो लेखकीय संसार को समझने और स्थापित करने में पाठकों का बड़ा हाथ होता है। जो लेखक अपने पाठक को नजरअंदाज करता है तो उसकी किताब पाठकों की आंखों से उतर जाती है।
यदि वर्ष 2015 की चर्चित किताबों पर नजर डालें तो निश्चित ही प्रभात रंजन की कोठागोई, संजीव की फांस, रक्तचाप और अन्य कविताएं-पंकज चतुर्वेद, अपने ही देश में-मदन कश्यप, पिता भी होते हैं मां- रजत रानी मीनू, फतेहपुर की डायरी, स्वप्न साजिश और स्त्री-गीता श्री, ऐ गंगा तुम बहती हो क्यों-विवके मिश्र, अनिहायारे तलछटी में चमका-अल्पना मिश्र, प्रियदर्शन की बारिश,धुआं और दोस्त, दिविक रमेश की मां गांव मंे है आदि किताबें अपनी ओर पाठकों का ध्यान खींचती हैं।
वहीं व्यंग्य विधा की बात की जाए तो लालित्य ललित की जिंदगी तेरे नाम डाॅंिलंग, अरविंद कुमार खेडे का भूतपूर्व का भूत, मधु आचार्य आशावादी का, आकाश के पार, सुधाकर पाठक का जिंदगी कुछ यूं ही, मले जैन की ढाक के तीन पात, मीना अरोड़ की सेल्फ पर पड़ी किताब, अरविंद तिवारी की मंत्री की बिंदी, रहीं। वहीं कविताओं के क्षेत्र में देखें तो नए पुरानांे की भी कविताओं की संख्या काफी है।
आज की तारीख में मुद्रित किताबों की बात की जाए तो हजारों और लाखों में छप और प्रसारित हो रही हैं। लेकिन किताबों के उस जखीरे से कितनी किताबों के दिन बिहुरते हैं। कितनी किताबों को पाठक मिल पाते हैं? यह एक गंभीर विमर्श का मसला है। तकनीक के इस प्रसारीय युग में प्रकाशन से लेकर वेबकास्ट, टेलीकास्ट, ब्राड कास्ट के युग मंे पाठकों की सीमाओं को भी समझना होगा। समय में कोई आॅल्टरेशन नहीं हुआ है। समय सीमित है। उसी समय में से टीवी, मोबाइल,लैपटाॅप,टेबलेट्स आदि के लिए भी समय निकल चुके हैं। अब कल्पना कीजिए कि एक पाठक के पास इन सब चीजों के बाद कितना समय बचता है। क्या तब समय की इस मारामारी में पढ़ने के समय की पहचान कर सकते हैं। समाज में आमजनता क्या पढती है इसकी पड़ताल करें तो पाएंगे कि सुबह को छपने वाली शाम तक रद्दी के हवाल होने वाले अखबार को पढ़कर यह मान लिया जाता है कि वे पढ़ते हैं। हालांकि खुश होना चाहिए कि कम से कम कुछ पढ़ी जा रही हैं। लेकिन अकादमिक धड़ों से पढ़ने की उम्मीद जब बंधती है तब हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। हम उनसे गंभीर पठन की आशा करते हैं। लेकिन आमतौर पर पढ़ने वाले पाठकों में किताब ;कहानी,कविता,उपन्यास,निबंध,यात्रा संस्मरण आदिद्ध पढ़ने लालसा अभी बची हुई है।
किताब को महज पन्ना दर पन्न बांचना और किनारे कर देना संभव है पढ़ना नहीं है। बल्कि पढ़ना दरअसल समझना भी है। जब हम कोई किताब पढ़ते हैं तो हमारे साथ उस किताब की हर पंक्ति, शब्द, भाव हमसे एकाकार हो रहे होते हैं। यदि किताब ऐसा नहीं करती तो यह किताब का दोष नहीं बल्कि लेखक की कमी मानी जाती है। किताब से पाठक का रिश्ता बेहद गहरा होता है। इस संबंध को कसावदार और उष्मीय बनाने का काम लेखकीय क्षमता और कौशल किया करती हैं। यदि लेखक की शैली,कथ्य,परिवेश,संवाद आदि सुसंबद्ध और सुनियोजित नहीं हैं तभी किताब की असामयिक मौत हो जाती है। वह पुस्तक लाख बड़े नाम की हो लेकिन पाठक को आकर्षित करने मंे विफल रहती है। संभव है इस तरह की चुनौतियां हैं जिसे यदि लेखक अपने ध्यान में रखे तो न वो और न उसकी रचना पाठकों से दूर हो सकती है।
समालोचना और वर्ष के साहित्यिक विवेचना जब भी होती है जो भी करता है उससे काफी कुछ छूट जाने की भी पूरी संभावनाएं रहती हैं। यह इस रूप में भी समझने की आवश्यकता है कि जो जिस विधा और क्षेत्र से जुड़ा है उस क्षेत्र की किताबों के बारे में तो जानकारी होती है लेकिन अन्य विधाओं में कौन सी बेहतरीन किताब लिखी गई वह उस आलोचक की दृष्टि से ओझल हो जाया करती हैं। यदि भाषा, शिक्षा, अर्थतंत्र, बाल साहित्य,पत्रकारिता जैसे विषयों की ओर देखते हैं तो इन क्षेत्रों में आई किताबों की जानकारी इन आलेखों, समीक्षाओं में नहीं मिलतीं। उन किताबों के कंटेंट की मांग है कि उन्हें भी ठहर कर पढ़ा जाए। ज़रा देखने की कोशिश की जाए क्या उनमें लेखक ने अपने विषय से न्याय किया यदि किया तो क्यों उनकी चर्चा नहीं हुई।

Thursday, December 24, 2015

डिजिटल इंडिया में अंकीय भाषायी पहचान


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारा समाज और भाषायी परिवेश बहुत तेजी से करवटों के दौर से गुजर रहा है। हमारा समाज ज्ञान और सूचना को भोजपत्र,पेपाइरस,ताम्रपत्र,क्ले टेब्लेट्स आदि से होता हुआ टेरा बाइट्य,गेगा बाइट्स के समय तक का सफ़र तय कर चुका है। इस काल खंड़ में हमारी भाषा,तकनीक,माध्यम आदि भी बदले हैं। बदला है तो हमारा समाज भी। यदि नहीं बदला है तो ख़ुद को अभिव्यक्त करने की छटपटाहटें, बेचैनीयत और जो कहा गया, जो कथ्य है उसे कैसे आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाई जाए इसके लिए माध्यम का चुनाव। मुद्रण का प्रकाशन, लेखन और संरक्षण के माध्यम और तकनीक में दिनों दिन सुधार और विकास हुए हैं। उत्तरोत्तर हमारी समझ और ज्ञान को संप्रेषित करने का जरिया भी बदला है। विद्यालयी, विश्वविद्यालयी कक्षाओं से लेकर समाज का ग्राह्य समूह की भाषा भी बदली है। डिजिटल इंडिया में यदि भाषायी सरोकार और भाषायी हस्तक्षेप को देखने-समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि डिजिटल इंडिया में खुद को अभिव्यक्त करने की हमारी भाषा भी ख़ासा बदल चुकी है। डिजिटल इंडिया मंे भाषा का संकुचन भी दिखाई देता है। लंबे लंबे वाक्य, लंबे साहित्य के स्थान पर लघु स्वरूप चलन मंे आ चुका है। लंबी कहानियों, कविताओं की भाषा और काया भी संकुचित हो गई है। कभी चांद का मुंह टेढ़ा है, अंधेरे में जैसी कविताएं लंबी होने के बावजूद भी सुपाठ्य थीं। आज लघु कविताएं,कहानियां कई बार अपने कथ्य के बल पर नहीं बल्कि प्रचार के कंधे पर सवार होकर पाठकों तक पहुंच बनाया करती है। यह अंतर स्पष्ट दिखाई देता है।
कक्षा और कक्षा के बाहर के समाज में भाषायी चरित्र में भी रद्दो बदल देखे जा सकते हैं। भाषा को सहज और सरल बनाने के तर्क पर भाषा को कहीं गंदला ही किया गया है। समाज में एक ऐसा वर्चस्वशाली वर्ग भी है जो लगातार बच्चों की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में ख़ालिस पाक हिन्दी के शब्दों को ही देखना चाहता है। उस समृद्ध भाषायी दर्शन का गला घोटकर अन्य बोली भाषा के शब्दों को हिन्दी के आंगन से बेदख़ल करने पर आमादा है। इसे भाषा शास्त्र की दृष्टि से स्वीकार नहीं किया जा सकता। एक लंबे अकादमिक और शिक्षा शास्त्रीय विमर्श में भी इस परिघटना को सकारात्मक नजरिए से नहीं लिया गया। प्राथमिक कक्षा से लेकर उच्च शिक्षा में भी भाषा को लेकर एक नया रूख़ देखने को मिल जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो स्कूल से लेकर काॅलेज तक में भाषा का एक रेखीय विकास देख सकते हैं। जहां भाषायी शुद्धता के नाम पर जिस प्रकार के बदलाव किए जा रहे हैं वह भाषा के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। भाषायी विकास में साहित्य के अहम योगदान को नकारा नहीं जा सकता। बाजारीय दबाव ने साहित्य शिक्षण और साहित्य पठन-पाठन को लघुकृत और छिछला ही किया है। यदि 2006 का समय याद हो तो केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने दसवीं और बारहवीं कक्षा की भाषायी परीक्षा में बहुवैकल्पिक प्रश्नों का सिलसिला चलाया। इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि बच्चों को भाषा मंे काफी दिक्कतें आती हैं। इसलिए उन्हें बहुवैकल्पिक प्रश्न दिए जाएं ताकि बच्चे आसानी से समझ और लिख सकें। इसी का परिणाम था कि बच्चों ने बहुवैकल्पिक उत्तरों मंे से एक को छांट कर अस्सी और नब्बे प्रतिशत अंक तो लाने लगे किन्तु भाषायी दक्षता छितराती चली गई। भाषायी दक्षता से मायने लिखने,पढ़ने और बोलने जैसे कौशलों से ये बच्चे वंचित होने लगे। न तो वे शुद्ध लिख पाते हैं और न बेहतर तरीके से बोल ही पाते हैं। यह ऐसा किशोर वर्ग तैयार होने लगे जिनके पास न हिन्दी थी और अंग्रेजी। न ही उन्हें अपनी मातृभाषा पर ही अधिकार रहा। क्योंकि मातृभाषा कहीं न कहीं उन्हें हीन लगने लगे। न तो मातृभाषा मंे रोजगार था और न आगे की पढ़ाई मंे कोई सकारात्मक मदद ही मिलने की रोशनी दिखाई दे रही थी। ऐसे में बच्चों ने हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के स्थान पर गैर भारतीय भाषाओं को प्रथम पसंद के तौर पर पढ़ना शुरू किया। इसकी झलक किसी भी निजी स्कूलों में कक्षा छह और आठवीं मंे बच्चे फ्रैंच, जर्मन, मदारियन आदि भाषाएं पढ़ने लगे। यहीं से अपनी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं से हमारे युवाओं का मोह भंग होने लगा। क्योंकि उक्त भाषाओं में न केवल अंक मिल रहे थे बल्कि इन भाषाओं मंे उन्हंे रोजगार की संभावनाएं भी ज्यादा दिखाई गईं। बाजार की भाषा को पाठ्यक्रमों और भाषा नीतियों में तवज्जो दिया जाना इस बात की ओर संकेत है कि भाषा शिक्षण और अध्ययन महज स्वांतःसुखाए नहीं हो सकता बल्कि यदि युवाओं को भाषा रोटी नहीं दे सकती तो उस भाषा को क्यों पढ़ा जाए। भाषा नीति ने भी भाषा के विकास में बाधा पैदा किए हैं। भाषा संरक्षण आयोग और समितियों ने अपना कर्तव्य बखूबी नहीं निभाया जिसका परिणाम है कि आज भाषाएं दिन प्रतिदिन मर रही हैं और अप्रासंगिक हो रही हैं।
डिजिटल इंडिया व सूचना संप्रेषण तकनीक दोनों मंे गहरा रिश्ता है। इन दिनों को एक साथ एक मंच पर समझने की आवश्यकता है। इन दोनों में एक तत्व समान यह है कि समाज को किस प्रकार से सूचना तकनीक और उपकरणों से जोड़ कर समाज को अत्यंत आधुनिक समाज की ओर हांक दिया जाए। जहां सब कुछ सत्यं शिवं और संुदरम् है। आईसीटी का हमारे समाने सिर्फ उजला पक्ष ही परोसा जा रहा है। इस उजले पक्ष को देखकर अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि आने वाला समाज किस तेजी से अपने मूल्यों, सूचना को कितना और किसे साझा किया जाए इसपर विचार किए बस साझा करने पर उतारू हो जाए। सूचना संप्रेषण तकनीक ने निश्चित तौर पर हमारे कामकाज को गहरे तक बदलने का माद्दा रखता है और काफी हद तक बदल भी दिया है। यह बदलाव हमारे रोजमर्रंे की जिंदगी में भी घट रही हैं। कामकाज की शैली तो बदली ही है साथ ही हमारी आम और निजी जिंदगी के मायने और निजता भी प्रभावित हुई है। बदलाव के दौर मंे निजी और आम की परतें तकरीबन खत्म हो गई हैं। इस डिजिटल इंडिया की भाषा में बदलाव बहुत तेजी से घटित हुए हैं। यहां भाषा अपनी पुरानी काया लेकर नहीं है बल्कि यहां भाषा अंकों यानी डिजिट में मौजूद है। हर किसी की अभिव्यक्ति और उपस्थिति एवं पहचान अंकीय हो गई है। दूसरे शब्दांे मंे हमारी पहचान भोजपुरी,मैथिली, अवधी, पंजाबी भाषी से हट कर अंकों में हो गई है। वह आधार नंबर, पासपोर्ट, राशन कार्ड वगैरह। क्या एक इंसान की पहचान महज अंकों मंे सिमट गई है।

Tuesday, December 22, 2015

ढूंढ़ता रहा रोआन घर


महलों में होता था एक कोप भवन
रानियां जब उदास होतीं रो आती थीं
मन हो जाता था हल्का
रूठ गईं रानियां तो मना आते थे राजा।
घरों के मानचित्र में ढूंढ़ता रहा रोआन घर
जब कभी कोई रोना चाहे तो चला जाए
घर के मानचित्र में मिलता है देवता घर
जब घर का मानचित्र बनाया जाए।
घरों में रोआन घर भी बनाया जाए
जब कोई भारी हो रो आए
मन का बोझ शांत हो जाए
देखना राजमिस्त्री कोई छेद न छोड़ जाए।

Monday, December 21, 2015

छपेगा वही जो लिखेगा


उन्होंने लिखा,छपे और चर्चित हो गए। देखते ही देखते बेस्ट सेलर भी हो गए। जिधर देखिए उधर ही चर्चा का बाजार गरम कर गए। हर दस सौ पाठकों में से अस्सी के हाथ में उनकी किताब। ऐसे लेखक लिखते नहीं छपने का हुनर जाना करते हैं। प्रकाशक इंतजार में होते हैं कि कब उनकी कलम से शब्द गिरें और कब लपक लें। इधर लिखे नहीं कि उधर छपे। इस तरह के साहित्य का बाजार इन दिनों ख़ासा गरम है। हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य और किताबों की दुनिया एक साथ चलती हुई भी अलग है। एक ओर वह लिखता है और साल दो साल में स्थापित लेखक बन बैठता है। पूरा समाज उसे पढ़ने और बांचने के सुख से वंचित नहीं रहना चाहता। इस शोर में कोई भी उस साहित्य की महत्ता और चरित्र पर ध्यान नहीं देता। बस छपे हुए को बेस्ट सेलर को तमगा दिलाना चाहता है। साहित्य और लेखक की दुनिया बेहद संकीर्ण और सीमित और है तो वहीं बहुत व्यापक ख्ुाला आसमान के समान है। एक दो किताब लिखकर खुद को महान लेखक मानने वाले लेखक भी कम नहीं है। मुगालते में जीना और खुद को दूसरी दुनिया का मानना उनके कई सारे शगलों में से एक हुआ करता हैं।
विश्व पुस्तक मेला दूर नहीं है। इन दिनों युद्ध स्तर पर किताबों के कवर पेज,डिजाइनिंग, पेज सेटिंग आदि के काम विभिन्न प्रकाशन घरानों में चल रहे होंगे। कौन कौन की किताब इस बार के मेले में लाए जा सकते हैं इस रणनीति पर भी काम चल रहा होगा। हर लेखक की यही कोशिश होगी कि पुस्तक मेले में उनकी किताब छप जाए और बेहतर हो। कहीं किसी स्टाल पर उसका लोकार्पण हो जाए तो सोने में सुहागा। हर लेखक अपने अपने अंदाज और शैली में अपने प्रकाशक को लुभाने में लगे होंगे ताििक इस बरस तो किताब आए जाए।
कभी किताब लिखना और छपना एक बड़ी घटना हुआ करती थी। किसी की किताब छपती थी तो लेखक का नाम और सम्मान हुआ करता था। किताब ाके छपना श्रम साध्य और चुनाव का मसला तो होता ही था साथ ही संपादकीय मंड़ल से गुजरना एक स्वीकृति का भाव पैदा किया करता था। हर प्रकाशक के पास एक संपादकीय समूह होते थे जो छपने वाली पांडुलिपि की बारीकी से जांच पड़ताल किया करते थे और तब उस पांडुलिपि को छपने की इज़ाजत मिला करती थी। ऐसे में किसी की किताब बड़े बड़े नामी गिरामी लेखकों, संपादकों के टीम से गुजरा करती थी। यह एक प्रमाणिकता और विश्वसनीयता की पहचान हुआ करती थी। ऐसे में छपना एक चुनौती भी हुआ करती थी।
कुछ वर्ष पहले जब तकनीक और छपाई की मशीनें पुरानी हुआ करती थीं तब यह व्यवसाय कुछ खास लोगों तक केंद्रीत हुआ करती थी। लेकिन जैसे जैसे प्रकाशन तकनीक आया किताबों को प्रकाशन जगत खासे प्रभावित हुआ और बदलाव के दौर से गुजर रहा है। कभी समय था जब पिं्रटिर होते थे और एक एक शब्दों को जोड़ कर छपाई के फाॅमां बनाया करते थे। लेकिन अब प्रकाशन जगत में उन दिक्कतों से निजात मिल गई। इसी के साथ ही प्रकाशकों के केंद्रीत व्यवसाय में विकेंद्रीकरण हुआ और छोटे बड़े प्रकाशकों का जन्म हुआ। इसके साथ ही प्रकाशन की दुनिया में एक क्रांति और गुणवत्ता में गिरावट का सिलसिला भी शुरू हुआ।
लेखकों को छपने की चिंता थीं और प्रकाशक को किताब छापनी थी। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से प्रकाशक और लेखका का एक नया रिश्ता कायम हुआ। प्रकाशक के लिए लेखक महज किताब रूपी माल था और लेखक के लिए प्रकाशक दुकानदार जहां किताबें बेचनी थीं। कितनी काॅपियां बिका करती हैं इसका अनुमान लेखक को नहीं लगता। प्रकाशक लेखकीय किताब को जैसे तैसे एनकेन प्रकारेण खपाता है। उसपर यदि लेखक राॅयलटी मांगे तो किताब छपने की संभावना समझिए खत्म हो गई। आज हकीकत यह है कि लेखक पैसे देकर किताबें छपवाते हैं। प्रकाशक किताबें छाप कर पचास, सौ काॅपी लेखक को दे देता है। कितनी काॅपी बिकती है इसका हिसाब लेखक नहीं मांग सकता। लेखकीय सत्ता को सबसे बड़ी चुनौती प्रकाशन घराने से मिलती है। दूसरी चुनौती पाठकों की ओर मिलती है।

Saturday, December 19, 2015

किताब से अपेक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
पाठक को एक किताब से क्या उम्मीद होती है? किताबें पाठक को क्या देती है? लेखक अपने किताब से क्या पाता है? और अंततः किताब से समाज को क्या मिलता है आदि सवाल कई बार उठते हैं जिसका जवाब लेखक,आलोचक अपनी समझ और अनुभव से देने की कोशिश करते हैं। एक लेखक के तौर पर लेखक जो कुछ भी लिखता है उसकी पूर्वपीठिका तो बनाता ही है साथ ही वह अपनी लेखकीय योजना में यह भी जरूर शामिल करता है कि इस किताब से वह क्या और किसे अपनी बात रखना चाह रहा है। जब वह एक बार यह तय कर लेता है कि उसकी रचना के पाठक वर्ग कौन हैं? लेखक से पाठक वर्ग की अपेक्षा क्या है? आदि सवालों पर विमर्श करने के बाद लेखन करता है तब उस किताब की प्रासंगिकता और प्रसार ज्यादा से ज्यादा जनसमूह तक होती है। पाठकों को किताब से बहुआयामी अपेक्षाएं होती हैं। यदि बहुअपेक्षाओं मंे से दो चार उम्मीदें भी पूरी होती हैं तो पाठक को छला जाने का भाव नहीं घेरता। वरना किताब खरीदे जाने और पढ़े जाने के बाद यह महसूस हो कि लेखक ने वह बात व विचार स्थापित नहीं कर पाया जिसकी योजना व छवि किताब की शुरुआत में बनाई गई थी। सचपूछा जाए तो लेखकीय संसार को समझने और स्थापित करने में पाठकों को बड़ा हाथ होता है। जो लेखक अपने पाठक को नजरअंदाज करता है तो उसकी किताब पाठकों की आंखों से उतर जाती है।
आज की तारीख में मुद्रित किताबों की बात की जाए तो हजारों और लाखों में छप और प्रसारित हो रही हैं। वहीं टेरा बाइर्ट,पीटा बाईट, जीटा बाइट, योटा बाईट और जियोप बाईट मतदाद में वेब और गैर वेबीय पत्रिकाओं और किताबों का वेबकास्टींग हो रही हों तो ऐसे में पाठकों को सूचनाओं और किताबों के अंबार में अपने लिए मकूल सूचना और विधा का चुनाव एक कठिन काम है। यह भी दिलचस्प है कि किताबों के उस जखीरे से कितनी किताबों के दिन बिहुरते हैं। कितनी किताबों को पाठक मिल पाते हैं? यह एक गंभीर विमर्श का मसला है। तकनीक के इस प्रसाीय युग में प्रकाशन से लेकर वेबकास्ट, टेलीकास्ट, ब्राड कास्ट के युग मंे पाठकों की सीमाओं को भी समझना होगा। समय में कोई आॅल्टरेशन नहीं हुआ है। समय सीमित है। उसी समय में से टीवी, मोबाइल,लैपटाॅप,टेबलेट्स आदि के लिए भी समय निकल चुके हैं। अब कल्पना कीजिए कि एक पाठक के पास इन सब चीजों के बाद कितना समय बचता है। क्या तब समय की इस मारामारी में पढ़ने के समय की पहचान कर सकते हैं। प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षक/शिक्षिकाओं से बातचीत के आधार पर कह सकता हूं कि सौ में से बामुश्किलन दस शिक्षक शिक्षण व्यवसाय में आने बाद कुछ पढ़ते हैं। समाज में आमजनता क्या पढती है इसी पड़ताल करें तो पाएंगे कि सुबह करो छपने वाली शाम तक रद्दी के हवाल होने वाले अखबार को पढ़कर यह मान लिया जाता है कि वे पढ़ते हैं। हालांकि खुश होना चाहिए कि कम से कम कुछ पढ़ी जा रही हैं। लेकिन अकादमिक धड़ों से पढ़ने की उम्मीद जब बंधती है तब हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। हम उनसे गंभीर पठन की आशा करते हैं। लेकिन आमतौर पर पढ़ने वाले पाठकों में किताब ;कहानी,कविता,उपन्यास,निबंध,यात्रा संस्मरण आदिद्ध पढ़ने लालसा अभी बची हुई है।

Friday, December 18, 2015

कहानी तुम बढ़ती रहना


कहानी क्या है? कैसे लिखी जाती है कहानियां? क्या मैं कहानी लिख सकता हूं/लिख सकती हूं? ऐसे सवाल अकसर पूछे जाते हैं। और इसका जवाब भी तकरबन एक सा ही हुआ करता है। हां क्यों नहीं। कभी कहानी लिखी है? क्या आपने कहानियां पढ़ी हैं आदि। उसपर जवाब आता है हां पढ़ी तो है लेकिन लिख नहीं पाता। पढ़ना अलग चीज है और अपनी आपबीती लिखना और उस पर पाठकों को पसंद आए यह एक चुनौती है। लेकिन हर कोई कहानी तो कहता ही है। बच्चा हो या बड़ा अपने जीवन में कहानियां तो जरूर बुनी होंगी। कहानी बुनने में बच्चों की कोई सानी नहीं। बच्चों को यदि अवसर दी जाए तो बच्चे बेहतरीन कहानियां बनाते है। बस उन्हें इसके लिए समय दिया जाए। बड़े भी कहानियां बनाते हैं लेकिन इनकी कहानियों मंे वो ताजापन और टटकापन नहीं होता। वे पढ़ी हुई या इस दुनिया की चालाकियों भरी कहानियां लिख दिया करते हैं। सच्चे अर्थाें में पूछा जाए तो कहानियां लिखी नहीं जातीं बल्कि कहानियां तो बैठ कर सुनने और सुनाने की चीज होती है। कहानियां कहना भी अपने आप मंे अनूठा कौशल है। जो इस कौश मंे दक्ष है उनसे कहानी सुनने का आनंद ही कुछ और है। किस्सागो की अपनी जमात है जो घूम घूम कर कहानियां सुनाया करती हैं।
भारत में भी कहानियां सुनने और सुनानेवालों की एक लंबी कड़ी है। गांव देहात मंे आज भी लंबी लंब कहानियां सुनाने वाले मिल जाएंगे। जो शाम ढलते ही दलान में हुक्का और चाय के साथ कहानियों का दौर चलाते हैं। किसान दिन भर की थकन को कहानियों मंे घोलकर थकान उतारते हैं। यह अलग बात है कि अब की कहानियां और उन कहानियों के कथानक में बहुत तेजी से बदलाव देखे जा सकते है। अब की कहानियां नए तेवर के साथ लिखी और सुनाई जा रही हैं। हाल ही में बिहार के दूर दराज़ इलाके के एक सज्जन ने कहा कि अरे यार कहां रहते हो। चिट्ठी पतरी छोड़ो वाट्सएप पर फोटो भेजो। किस जामने में रहते हो। स्मार्ट फोन नहीं है तो उधार ले लो। कहानी यहां से शुरू होती है। आज गांव गांव के बच्चे भी फोटो शेयर, फेसबुक पर फोटो डालने लगे हैं।
कभी चचा हुआ करते थे जो चिट्ठी लिखा करते थे। पूरे दिन डाकिए का इंतजार किया करते थे। लेकिन अब डाकिया भी कभी कभार ही नजर आया करता है। सो इंटरनेट सेंटरनेट पर अपने लिए अपनी कहानी खुद ही गढ़नी पड़ती है। रेाज दिन नई कहानी, नए पात्रों को जगाना होता है। नई कहानी लिखनी होती है।
आज की कहानियां संदर्भों को बदल चुकी हैं। कहानियों की भूमि भी तब्दील हो चुकी है। नए जामने के नए कथानकों वाले कथाकार हैं। जो लप्रेक लिखा करते हैं। यानी लघु प्रेम कथाएं। प्रेम भला लघु हुआ करती हैं। प्रेम की आयु तो दीर्घ होती है। लेकिन वक्त किसके पास है जो लंबी कहानी पढ़े और सुने। सेा कहानियों की काया भी सिमट कर एकहरी हो गई है। सामाजिक टूटन, बिछोह, सन्नाटा और संत्रास ज्यादा है। इसलिए कई बार मोहन राकेश लिखित आधे अधूरे नाटक के पात्र साफ नजर आते हैं। हर कोई जुनेजा, तनेजा,वर्मा में अपनी पूर्ण तमन्ना देखा करता है।

भक्तिकालीन साहित्य विमर्शकारों पर विहंगम नजर



हिन्दी साहित्य के समग्र इतिहास पर नजर डालें तो एक बेहद रोचक साहित्यिक यात्रा का दर्शन और आनंद मिलता है। क्योंकि हिन्दी साहित्य कई मोड़ मुहानों से होती हुई आधुनिक काल उत्तर आधुनिक काल तक का सफ़र तय कर पाई है। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो एक तत्व स्पष्ट दिखाई देती है और वह है विभिन्न विधागत् विशिष्टता और शैलीगत ख़ासियत की वजह से विभिन्न काल खड़ों व साहित्यिक वर्गों में बांटा जाना।  हिन्दी साहित्येतिहासकारों की एक लंबी शृंखला हिन्दी साहित्य को भी मिली है जिन्होंने काफी जतन और श्रम के बाद इतिहास लिखा। उसमें मिश्र बंधु हों, ग्रियर्सन हों, गार्दा द ताशी हों, रामचंद्र शुक्ल हों, हजारी प्रसाद द्विेदी हों आदि तमाम इतिहासकारों ने साहित्य की प्रवृत्तिओं और रचनाकारों की रचनाओं को पहचान कर उसकी परिवेशीय और कालिक विशेषताओं कोरेखांकित किया है। यदि उन साहित्येतिहास पर दृष्ट डालें तो पाएंगे कि अमुमन वे इतिहास तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों और रूझानों के मूल्यांकन के पश्चात् उस साहित्य को ख़ास वर्ग में समेट रख दिया गया है। आदीकाल,रीतिकाल, भक्तिकाल, आधुनिक काल मोटो तौर पर तो एक आम पाठकों को सही विभाजन समझ में आता है। किन्तु जब एक साहित्यिक पाठक की दृष्टि से साहित्येतिहास पर नजर दौड़ाएं तो वह इतिहास कई उपवर्गों में बटी मिलेंगी। काल खंड़ांे के विभाजन में भी ऐकमतता नहीं मिलेगी। इन समस्त विभाजनांे मंे एक चीज जो हमेशा ही केंद्र में रही हैं वह है काव्य और काव्य का आस्वाद लेने वाला पाठ वर्ग। यह पाठक वर्ग जब भी जिस भी रचनाकार की ओर उपेक्षित हुआ है वह रचना पाठक वर्ग से कटती चली गई है। ऐकांतिक रचना स्वांतः सुखाए तो हो सकती है पाठकों का लुभाने मंे विफल मानी जाती हैं। जब रचनाएं आमजन की वकालत और समकालीन सामाजिक उथल पुथल पर हस्ते़ा करती है तभी रचनाएं त्रिकालातीत होती हैं। भक्तिकाल और भक्तिकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, वैचारिक भूमि पर हजारों पन्ने खरचे जा चुके हैं। विभिन्न शैक्षिक संस्थानों मंे इस विषय शोध दर शोध हो चुके हैं। फिर भी भक्तिकाल के कई ऐसे कोने शोध की मांगे करते हैं। भक्तिकाल पर जितना और जितनी बार विमर्श किया जाए एक नई रोशनी और समझ का प्रस्फुटन होता है।
कमलिनी पाणिग्रही ने भक्तिकाल पर समग्र चिंतनीय हस्तक्षेप करने वाले अपनी क्षमता और श्रम का परिचय देती हैंै किन्तु इस पुस्तक में बड़ी ही शिद्दत से भक्तिकालीन संत-कवियों की समग्र चिंतनीय पक्ष को उद्घाटित करने की कोशिश की गई है। यूं तो भक्तिकाल को जैसे कि हम सुनते-पढ़ते आए हैं यह साहित्य का स्वर्णकाल था। तथाकथित स्वर्ण काल की विवेचना अपेक्षित है। भक्तिकाल के कवियों-संतों की वैचारिक प्रासंगिकता और संदर्भ, परिवेशीय दृष्टि और समय सापेक्षीय मयाने की परतें खोलती यह किताब गंभीरता से पढ़े जाने की मांग करती है। इस किताब में सिलसिलेवार तरीके से ठहर कर एक एक कवियों पर विमर्श किया गया है। सूर,तुलसी, दादू दयाल, रैदास, कबीर आदि की साहित्यिक और आध्यात्मिक प्रसंगों और संदर्भों पर विचार करने से पूर्व इन कवियों की वैचारिक और साहित्यिक सरोकारों की पड़ताल की गई है। इसे लेखिका कमलिनी पाणिग्रही ने ‘भक्ति साहित्य मे आधुनिकता और जीवन-मूल्य’ आमुख में विस्तार से किताब की पूरी परिकल्पना और पाठ योजना का जिक्र करती हैं। कमलिनी पाणिग्रही के अनुसार सर्वप्रथम प्रथम अध्याय प्रमुख भक्त कवियों की रचनाओं और उनकी आधुनिक उपादेयता एक संक्षिप्त परिचय के अंतर्गत प्रमुख भक्ति कवियों के जीवन, दर्शन व काव्य का परिचयात्मक विवरण दिया गया है। परिचय के द्वादा वस्तुतः मूल विषय का लघु कार्य किया गया है। बारह अध्यायों में विभक्त यह पुस्तक विस्तार और गंभीरता से विभिन्न कवियों पर विमर्श करता है। इन बारह आंगनों वाली पुस्तक में मीरा, जायसी,सूरदास,रसखान,रहीम,दादूदयाल,गुरुनानकदेव, नामदेव आदि कवियों को खिलने का अवसर मुहैया कराया गया है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि भक्तिकाल को स्वर्णकाल किस मनोदशा और वैचारिक प्रतिबद्धता की ओर संकेत करता है। इसे समझना अत्यंत आवश्यक है कि भक्तिकाल को किन लोगों ने स्वर्ण काल माना व स्थापित किया। यदि इतिहासकारों ने नजर से इस काल को समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि भक्तिकाल को स्वर्णकाल कहने व मानने के पीछे एक गहरी राजनीति चालें काम कर रही थीं। वह राजनीतिक पूर्वग्रह यह था कि भारतीय जनमानस को इस मुगालते में रखा जाए कि वे भक्ति भाव और आध्यात्म की ओर प्रवृत्ति समाज है। वह वह समाज है जिसका अधिकांश समय पूजा पाठ एवं आध्यात्मिक कार्यों में लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे राजकर्ताओं ने इसे बखूबी समझा और भारतीय को इस गर्व का एहसास कराते रहने में अपनी बेहतरी समझी। इस प्रवृत्ति की एक इतिहासकार की व्याख्या में समझना चाहें तो एक अर्थ यह निकलता है कि क्योंकि भारतीय जनमानस आध्यात्म में रमी हुई थी उन्हें यह साबित करना था कि प्रशासन और कार्यप्रणाली को सुचारू रूप से चलाने का तजुर्बा उनके पास नहीं है इसलिए हम उनके प्रशासनिक कार्यों को देखेंगे। यदि समग्रता में देखें तो भक्तिकाल प्रकारांतर से आध्यात्म की दृष्टि से खासा महत्वपूर्ण मानी जाती है। भक्तिकालतत्कालीन राजाओं व शासकों की पूरी कोशिश यही थी कि किस प्रकार निर्विवादपूर्ण तरीके से शासन किया जाए। ऐसी तभी संभव हो सका जब भारतीय समाज व जनमानस पूरी तरह से आध्यात्म में डूबी हुई थी।
भक्तिकाल को स्वर्णकाल क्यों कहा गया क्योंकि इस काल में दर्शन, आध्यात्म, भक्तिपूर्ण साहित्य की रचनाएं हुईं? क्या इसलिए क्योंकि इस काल खंड़ मंे कबीर, जायसी, दादू दयाल, गुरुनानक,रैदास, तुलसी, सूरदास जैसे स्वनामधन्य भक्तिकालीन संत कवियों से जमकर अपने समय में एक मजबूत हस्तक्षेप किया। साहित्य के मार्फत ही सही किन्तु समाज की जड़ चेतना को जागृत करने की कोशिश की। कबीर जैसे समाजचेत्ता संत और कवि की रचनाएं समाज को झकझोरने का काम कर रही थीं। इस काल मंे रची गई रचनाओं की सामाजिक दरकारों पर विमर्श करें तो पाएंगे कि अमूमन सभी कवियांे ने वत्र्तमान कालीन समाज और सत्ता से टकराने के लिए तैयार थे। यदि एकाध संत कवियांे से छोड़ दें तो बाकी की रचनाएं अपने समय की जकड़नों, टकराहटों, बजबजाहटों को दर्ज कर रही थीं। न केवल विरोध कर रही थीं बल्कि आम जनमानस को प्रेरित भी कर रही थीं। भक्तिकाल की समाजोसांस्कृतिक बेचैनीयत को भी रचनाओं में स्थान दिया गया। कबीर,नामदेव, रैदास आदि कवियों की रचनाओं में समाज वाचाल हो उठता है उसकी ध्वनि हमें तत्कालीन कवियों सुनाई देती है। डाॅ कमलिनी पाणिग्रही ने इस पुस्तक में बड़ी ही शिद्दत से ग्यारह कवियों की मनोभौमिक और रचनात्मक सरोकारों की विवेचना की है।
डाॅ कमलिनी पुस्तक के अमुख और उसके उपरांत प्रथम अध्याय में विस्तार से पुस्तक की योजना और पाठों के बारे में बताती हैं। वेा लिखती हैं कि आज के ढ़ोंगी,पोंगा पंडि़त बने तथाकथित संत महात्माओं की तरह भक्त संतों ने लोगों को गुमराह नहीं किया, उनको ठगा नहीं,उन्हें प्रताडि़त नहीं किया,अच्छाई का आवरण ओढ़कर मानवीयता की हत्या नहीं की। आज संत कहलाने वाले ढ़ोंगी स्त्रियों के प्रति कुदृष्टि रखते हैं,व्यभिचार करते हैं,उनका यौन शोषण करते हैं,उनकी मजबूरी एवं जरूरतों का फायदा उठाते हैं आदि। डाॅ कमलिनी पाणिग्रही ने भक्तिकालीन कवियों की सामाजिक संदर्भ में ंिचंतन सरोकारों को भी केंद्र रखती हैं।
आशा की जानी चाहिए कि यह पुस्तक निश्चित ही एक नई भूमि से परिचय कराने वाली होगी। भक्तिकाल के तमाम कवियों के उन अनावृत्त कोनों, मुहानों से पाठकों को रू ब रू कराएगी। सुदीर्घ चिंतन प्रक्रिया से प्रसूत इस पुस्तक को भक्तिकाल पर आने वाले समय मे शोध छात्रों को मार्गदर्शन प्रदान होगा।

भाषा भूगोल परिवेश




भाषा क्यांे जरूरी है इस पर विमर्श करना और कक्षा में कैसे उसे स्थानांतरित किया जाए इसकी समझ विकसित करने बेहद जरूरी है। शिक्षकों को हिन्दी पढ़ाने के दौरान लिखने,पढ़ने और बोलने में बच्चों को परेशानी होती है। वर्णों को कैसे पढ़ाया जाए? बच्चों को लिखने में समस्या आती है इसे कैसे ठीक करें। बच्चों को वर्णों को बोलने में दिक्कतें आती हैं उन्हें कैसे सही उच्चारण सीखाएं इस तरह के सवालों से अकसर रू ब रू होना पड़ा है। फिर विचार किया कि क्यों न पहले दिन इन्हीं मसलों को विमर्श के लिए चुना जाए। भाषा क्या है? भाषा शिक्षण के दरमियाान किस किस्म की सावधानियां बरतनी चाहिए इस ओर हमें गंभीरता से विचार करना होगा। हमंे इस बात की ओर भी काम करने की आवश्कता है कि एक शिक्षक जब भाषा की कक्षा मंे प्रवेश करता है तब उसकी स्वयं की कैसी तैयारी होनी चाहिए। भाषा शिक्षण को लेकर काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कक्षा में हिन्दी पढ़ाने के दौरान शिक्षकों को वर्तनी, वर्णमालाएं, उच्चारण आदि शिक्षण में दिक्कतें आती हैं। इसके मद्दे नजर हमने हिन्दी शिक्षण के तौर तरीकों पर विमर्श किया। कक्षा में हिन्दी कैसे पढ़ाई जाए यह एक गंभीर मसला है। तमाम सेमिनारों सब कुछ होती हैं लेकिन भाषा को लेकर कोई खास कार्य नहीं होता। भाषा समाज, भाषा की राजनीति, भाषायी परिवेश आदि पर विस्तार से चर्चा और गतिविधियों का आयोजन किया गया। भाषा को प्रभावित करने वाले तत्वों को कैसे नियंत्रित किया जाए एवं बहुभाषी कक्षा में शिक्षक कैसे पढ़ाए इसपर चर्चा की गई। भाषा शिक्षण में क्या और कौन से तत्व ध्यान में रखे जाएं ताकि भाषा शिक्षण रोचक हो जाए इस पर विस्तार से चर्चा की गई। भाषा कौशल के दौरान वाचन,लेखन,उच्चारण और पठन आदि को दुरूस्त किया जाए।
भाषा
भूगोल
परिवेश
समाज
संस्कृति


Monday, December 14, 2015

कविता ऐसे पढ़ाएं


कविता को पढ़ाने का अपना अलग तौर तरीका होता है। जो औजार कहानी और भाषा पढ़ाने में इस्तमाल की जा सकती है वही औजार कविता मंे अप्रासंगिक हो सकती है। कविता पढ़ाने के दौरान शिक्षकों से अपेक्षा होती है कि शिक्षक को स्वयं कविता आनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि शिक्षक को कविता याद हो। जो कविता कक्षा में पढ़ाना है वह उन्हें याद हो। ताकि शिक्षण के दौरान किताब न देखनी पड़े। क्योंकि जैसे ही नजरें किताब मंे होती हैं कविता का एक प्रमुख अंग भाव भंगिमा अधूरी रह जाती है। कविता को शिक्षक केवल उच्चारण भर कर देने से नहीं पढ़ा सकता। बल्कि कविता पढ़ाते वक्त पूरी मौखिक मुद्राएं प्रयोग में आनी चाहिए। हालांकि यहां यह सवाल उठ सकता है कि क्या सभी कविताओं के वाचन में भाव भंगिमाएं जरूरी हैं? क्या हर कविता को गायी ही जाए? क्या हर कविता को पढ़ाते वक्त नाटकीयता जरूरी है आदि। इस सवाल का जवाब यही होगा कि नहीं हर कविता शिक्षण मंे जरूरी नहीं है किन्तु कविता शिक्षण मंे भावभंगिमा का खासा महत्व है। वरना शब्द और कविताएं अकाल मौत के शिकार हो जाती हैं। संभावना इस बात की भी होती है कि कवित अपनी पूरी यष्टि के साथ श्रोता तक न पहुंच पाए।
कविता शिक्षण में वाचन शैली और अभिनय शैली का बड़ा महत्व है। शब्दों और वाक्यांे का वाचन किस स्वर और घात-बलाघात के साथ करना है इसको ध्यान में रखना चाहिए। यदि वीर रस की कविता है तो उसके हर शब्द में एक हुंकार और ओज लाने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसी कविताओं मंे शब्दों का उच्चारण उच्च होता है। जैसे ‘ख्ूाब लड़ी मर्दानी वो तो झंासी वाली रानी थी।’ इसे पढ़ाते वक्त शिक्षक के हाथ, भावी मुद्रा आक्रामक और तेज हों। वहीं हवा हूं हवा मैं बसंती हवा हूं कविता पढ़ानी हो तो यहां शब्द कोमल है नरम हैं इसे ख्याल रखते हुए वाचन करना और करना चाहिए।
कविता जिस रस की है उसे उसी रसानुसार पढ़ाने से कविता बच्चों तक पहुंच सकती है। वरना वह कविता महज वाचन ही हो कर रह जाएगी। पाया गया है कि कइ्र बार शिक्षक स्वयं कविता के वाचन में दक्ष नहीं होते इसलिए कक्षा में वे मौन वाचन किया करते हैं। ऐसे में शिक्षकों को स्वयं सीखने की आवश्यकता है कि कविता को कैसे पढ़ें और शब्दों का उच्चारण स्पष्ट कैसे करें।

Friday, December 11, 2015

शिक्षक की गुणवता और कौशल


समाज के समुचित विकास और संवद्र्धन में शिक्षा,सुरक्षा, स्वास्थ्य आदि को शामिल किया जाता है। इनमें से कोई भी कड़ी यदि कमजोर पड़ती है तो यह समझना चाहिए कि समाज व देश का विकास सही और समुचित दिशा में नहीं हो रहा है। यदि उपरोक्त किसी भी एक के विकास पर ध्यान दिया जा रहा है तो इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि उस समाज का सर्वांगीण विकास नहीं हो रहा है। सरकारें आती जाती हैं लेकिन प्रतिबद्धताएं, समस्याएं, चिंताएं यथावत् समाधान के इंतज़ार में अपनी जगह बरकरार रहती हैं। हमने आजादी के बाद भी यह दुहराना नहीं भूले कि समाज का विकास करना है तो शिक्षा को दुरुस्त करना होगा। वह 1952 की समिति हो, 1964-66 की कोठारी आयोग की संस्तुतियां हों, 1968 की राष्टीय शिक्षा नीति हो, 1986 की राष्टीय शिक्षा नीति हो, 1990-92 की आचार्य राममूर्ति पुनरीक्षा समिति हो, 2002 की संविधान के 86 वें संशोधन के पश्चात् प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकारों में 21 ए को शामिल करना हो आदि। इन उपरोक्त समितियों, आयोगों और घोषणाओं की रोशनी में हमें यह देखने की आवश्यकता है कि क्या हमने इन संस्तुतियों को प्राथमिक शिक्षा को बेहतर करने क लिए किस प्रतिबद्धता के साथ काम किया। सरकारें आती और जाती रहीं। हर सरकार ने घोषणाएं खूब कीं किन्तु प्राथमिक शिक्षा की दशा दिशा अभी भी हमारे तय लक्ष्य से दूर है। यहां यह भी बताते चलें कि 1968 में यह बात कही और स्वीकारी गई थी कि 1986 तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर दी जाएगी। समय और लक्ष्य को बढ़ाया ही गया यह शिक्षा के विकास क्रम पर नजर डालें तो साफतौर पर दिखाई देता है। सन् 1986 भी हमारे हाथ से निकल गया। सन् 1990 मंे सेनेगल में संपन्न अंतरराष्टीय शिक्षा सम्मेलन में विश्व के तमाम देशांे से स्वीकारा और हस्ताक्षर कर कबूल किया कि 2000 तक हम देश के सभी बच्चों को ;6 से 14 आयुवर्ग केद्ध बुनियादी शिक्षा प्रदान कर देंगे। इस दस्तावेज पर भारत ने भी दस्तख़त किए थे। भारत में इस घोषणा को लागू करने में दो वर्ष का अतिरिक्त समय लगा यानी 1992 में भारत इस दस्तावेज को अमलीजामा पहनाता है। यहां दिखाई देती है कि हमारे राजनीतिक धड़ों को शिक्षा की चिंता कितनी थी। हमंे राजनीतिक इच्छा शक्ति का भी परिचय मिलता है कि हमने अब तक शिक्षा का मौलिक अधिकार तक नहीं माना था। हालांकि प्रो. कृष्ण कुमार अपनी किताब गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद में इस मसले को उठाते हैं और कहते हैं कि ‘शिक्षा का अधिकार कानून को बनने मंे सौ वर्ष का समय लगा। गोपाल कृष्ण गोखले ने 1910 में शिक्षा के अधिकार की आवाज उठाई थी लेकिन उसे कानूनी रूप मिलने में एक लंबा वक्त लगा। ;6गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद, पेज द्ध बहरहाल शिक्षा मंे गुणवता की चिंता से चिंतातुर आवाजा हमें सेनेगल के सम्मेलन में सभी के लिए शिक्षा यानी ईएफए की 6 घोषणाओं व लक्ष्यों में सुनाई देती है। छह लक्ष्यों मंे अंतिम लक्ष्य गुुणवतापूर्ण शिक्षा को स्थान मिला है।
गौरतलब है कि 2002 में संविधान में 86 वां संशोधन के बाद मौलिक अधिकारों में धारा 21 में ए जोड़ा गया और कहा गया ‘निःशुल्क एवं अनिवार्य बुनियादी शिक्षा का अधिकार’ सभी बच्चों ;6 से 14 आयुवर्ग केद्ध को प्रदान किया जाएगा। जैसा की सभी को मालूम है कि यह संशोधन कानून 2009 में बना। यानी भारत के तमाम बच्चों को मौलिक शिक्षा का अधिकार 2009 में मिला। इसी तारीख को तय किया गया कि सभी राज्यों मंे यह 31 मार्च 2013 तक लागू हो जाएगा। यह तय समय सीमा गुजरे भी आज लगभग तीस वर्ष हो चुके हैं। हकीकत यह है कि हमारे देश के लगभग जैसा कि भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि आज भी अस्सी लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। दूसरे शब्दों मंे कहें तो भारत के कुल बच्चों की जनसंख्या में से अस्सी लाख बच्चों प्राथमिक शिक्षा हासिल करने से महरूम हैं। जब इस आंकड़े को गैर सरकारी संस्थानों, प्रथम, आरटीई फोरम, ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट आदि ने जांचा तो पाया गया कि यह संख्या 5 करोड़ के आस पास बैठती है। आंकड़ों में बात करने वाली सरकार यह तो जरूर पेश करती है कि आरटीई के लागू होने से स्कूलों में बच्चों के नामांकन दर मंे खासा उछाल आया है। लेकिन बीच में स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ी है। आरटीई फोरम की वार्षिक सम्मेलन में जारी रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण इलाकों की बच्चियों में स्कूल बीच में छोड़ने की संख्या बढ़ी है। इसके पीछे वजह स्वच्छ और शौचालय का न होना प्रमुख है। ;27,28 मार्च 2015, राष्टीय शिक्षा अधिकार सम्मेलन,रिपोर्ट द्ध वहीं सरकारी शैक्षिक संस्था नीपा की ओर जारी डाइस की रिपोर्ट कभी इस ओर हमारा ध्यान खीचती है कि गांवों और शहरों मंे स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में लड़कियांे की संख्या अधिक है। वजह स्कूल का गांव से दूर होना, स्कूल में पीने का पानी और शौचालय का न होना, टीचर की कमी है। ; 2013-14,2014-15 की डाइस की रिपोर्ट द्ध गौरतलब है कि यह रिपोर्ट स्कूली शिक्षकों द्वारा ही भरवाई जाती हैं। देश भर में सरकारी स्कूलों मंे यह कवायद हर साल होती है और यह दस्तावेज किसी की नजर में नहीं चढ़ती। न ही इसपर कोई ख़ास गंभीर कदम ही उठाए जाते हैं। डाइस की रिपोर्ट सरकारी स्कूलों के शिक्षक और प्रधानाचार्य के द्वारा ही तैयार की जाती है इसलिए इस दस्तावेज को खास तवज्जो दी जानी चाहिए।

रिश्तों के पायदान पर

गठबंधन
इन दिनांे लगा हूं समझने में
रिश्तों का समीकरण
रिश्तों की फुसफुसाहट
गठबंधन संबंधों का।
धीमे कदमों से चलता हूं
रिश्तों के पायदान पर
फिर कुछ आहटें
कुछ सिसकन
आ ही जाती है पावों तले।
बहुत तेजी से सिमट रही है दुनिया रिश्तों की
अमरिका और ताकतवर पड़ोसियेां की बीच के फासले पतली हो रही है
एक ही धरती पर खड़े हो रहे हैं शक्तिमान देश
मेरे परदेसी।
घर में ही बन रहा है टापू
नव खे कर मिलते हैं
पूछते हैं कैसे हो
चल रही है कैसी जिंदगी?
पूछ नहीं रहे
बता रहे हैं अंतर को समझ रहा हूं इन दिनों।
कितनी रफ्तार है
बदलते रिश्ते के मायने का पकड़ना मुश्किल लगता है
एक सूत्र पकड़ता हूं तो दूसरा
छिटक जाता है
जब तक पहली गुत्थी सुलझता हूं
कि तब तलक दूसरा उलाहने देने लगता है।
घर समाज से बाहर नजर नहीं आता
व्ही सारी चालें
तिकड़में
देख रहा हूं
आंगन में
उसे मनाओ
तो दूसरा रूस जाता है।
इन दिनों रिश्तों की बंदिशें सुन रहा हूं
सुन रहा हूं दबे पांव
कुचली जाती संवेदना
चिटकती उष्मा
जो लगाई थी मां
हम सब की मतारी
वह चूल्हा बुझ सा रहा है
कहने को आंगन खुशगवार है
कहने को नन्हीं पायल आज भी बज रहा है
लेकिन कान बदल गए।
इन दिनों रिश्तों के संतुलन को बनाने में लगा हूं
लगा हूं ताकत को तौलने में
कब कौन गठबंधन आकार ले ले
किसका पलड़ा भारी हो जाए
कौन किसे अपने खेमे से बेदखल कर दे।

Thursday, December 10, 2015

मरें तो उत्सव हो

मरना भी कितना आसान हो गया है। बबुआ देखो आज मरना भी खेल नहीं तो और क्याबन कर रह गया है। जिसे देखो वही मरने पर उतारू है। कोई कहीं मरता है तो कोई किसी पर मरता है। मरने का बहाना चाहिए बस। कहीं सुंदरी पर कई पैसे पर, कहीं पद पर लेकिन मरना जारी है। मरने के तौर तरीके भी बदले गए। केाई स्मार्ट फोन पर मरता है। कोई स्मार्ट फोन की वजह से मरता है।
हैरत में न पड़ें बस मरने का सबब चाहिए। मरने के सामानों की दुकानें अब आधुनिक होने चाहिए। एसी कमरे में मरे। माॅल मंे मरें। मरें तो उत्सव हो। पार्टी हो। मरो भी तो ऐसे मरो कि लोग ज़ार ज़ार रोएं। मरने के तकनीक भी विकसित हों। हंसते हंसते मरें। हंसने पर मरें। आईए एक शोध का प्रस्ताव तो रखें।
सुखद,आनंदपूर्ण और लक्जुरिएस मौत के सामान यहां मिलते हैं। बस मरने की इच्छा प्रकट करें। बाजार हाजि़र। सर मरने के लिए लोन चाहते हैं? कितनी किश्ते चाहेंगे। आदि बाजार में मरना भी कितना सुखद है। चारों और तमाश ही तमाशा।

उच्च शिक्षा की गुणवता और जमीनी तल्ख़ हकीकत


कौशलेंद्र प्रपन्न
शैक्षिक विमर्श में गुणवता की बात जैसे ही शुरू होती वैसे ही हमारा इशारा शिक्षकों पर जाता है। गोया शिक्षा में जो भी घट रहा है उसमें शिक्षकों की अहम भूमिका होती है। दरअसल शिक्षा जगत में यदि कोई सबसे नीचले पायदान पर खड़ा कोई जीव है तो वह शिक्षक ही है। यह वह जीव है जिसपर हर किसी का जोर चलता है। बस इसी जीव की आवाज शिक्षा जगत में अनसुनी कर दी जाती है। इस जीव की हैसियत तो पूछिए मत, कभी इनके वेतन पर तो कभी इनकी निष्ठा पर भी सवाल उठते रहे हंै। शिक्षा में शिक्षकों की स्थिति हमेशा ही शोचनीय रहा है। प्रो कृष्ण कुमार अपनी किताबगुलामी शिक्षा और राष्टवाद में चर्चा करते हैं कि जिन कारकों ने शिक्षकों को एक कमजोर पेशागत पहचान और हैसियत बख्शी है, उनमें एक पाठ्यचर्या के मामले में उसका कोई हाथ होना भी था। औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा लाए गए नौकरशाही में यह बात निहित थी कि पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों से संबंधित सारे फैसले वरिष्ठ प्रशासकों द्वारा ही लिया जाता था। यदि गंभीरता से विचार करें तो यही सिलसिला केवल प्राथमिक कथाओं में दिखाई देती है बल्कि उच्च शिक्षण संस्थानों में भी लगभग समान स्थितियां नजर आती हैं। भारत में केवल उच्च शिक्षा बल्कि प्राथमिक शिक्षा दोनों की गुणवत्ता मंे कोई खास अंतर नहीं है। क्योंकि तमाम सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों की ओर से कराए गए सर्वेक्षण बताते हैं कि प्राथमिक स्तर पर बच्चों मंे अपनी कक्षानुसार पढ़ने-समझने और लिखने आदि कौशलों में बच्चे पीछे हैं। अपनी कक्षा और आयु के अनुसार उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता। यहां पढ़ने लिखने से तात्पर्य है बच्चे जिन पंक्तियांे को पढ़ते हैं उसका मायने नहीं समझ पाते। दरअसल पढ़ना और समझना दोनों युग्म में आया करती हैं। शिक्षा शास्त्र में पढ़ना अकेले नहीं आता। पढ़ना समझने के कौशल के साथ ही मुकम्मल होता है। असर की रिपोर्ट हो या डाईस की रिपोर्ट इन तमाम रिपोर्ट में सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की जमीनी हकीकत क्या है। इस ओर ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट जीएमआर 2013-14, 2014-15 पर नजर दौड़ांए तो पाएंगे कि सरकारी स्कूलों में कक्षा छहः में पढ़ने वाला बच्चा कक्षा दूसरी के स्तर की हिन्दी नहीं पढ़ पाता। यही हाल गणित का भी है। दूसरे शब्दों मंे कहें तो तमाम विषयों में बच्चे काफी दिक्कतों का सामना करते हैं।
माना जाता है कि उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयी शिक्षा की बुनियाद प्राथमिक शिक्षा हुआ करती है। यदि प्राथमिक शिक्षा यानी बुनियादी शिक्षा की जमीन को मुआयना करें तो पाते हैं कि अभी भी हमारे देश के तकरीबन 80 लाख सरकारी आंकड़ों के अनुसार किन्तु हकीकत में विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं के अनुसार यह संख्या सात करोड़ से भी ज्यादा है। वहीं जो बच्चे स्कूल में जा रहे हैं उन्हें किस तरह की शिक्षा मिल रही है उसकी विश्वसनीयता और गुणवता  किस स्तर की है। यह एक चिंता की बात है कि खुद शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को भारत में स्थान लेने में तकरीबन सौ वर्ष का समय लगा। माना जाता है कि 1910 में गोपाल कृष्ण गोखले ने सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा का अधिकार मिले, की आवाज उठाई थी किन्तु वह आवाज अनसुनी ही रह गई। गांधी जी ने भी 1932 में शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन वर्धा में यह मुद्दा उठाया था लेकिन तब भी यह मसला राजनीति के हत्थे चढ़ गया। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम को संविधान में स्थान 2002 में 86वां संशोधन के बाद मिला। हालांकि अभी आरटीई को अभी पांच वर्ष ही हुए हैं क्योंकि यह 1 अप्रैल 2010 में लागू हुआ था और इस वर्ष यह पांच साल का तय समय सीमा पूरा हो चुका है। लेकिन आज भी हमारे लाखों बच्चे स्कूलों से  बाहर हैं और और जो स्कूल भी रहे थे उनमें से बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों में लड़कियों की संख्या ज्यादा है।
उच्च शिक्षा यानी विश्वविद्यालयीए शिक्षा और उसकी गुणवत्ता की बात पर नजर डालें तो निराशा होती है। जहां हम प्राथमिक शिक्षा में पिछड़ते नजर रहे हैं तो उच्च शिक्षा में भी लगभग यही स्थिति दिखाई देती है। हाल मंे ही टाईम्स हाईयर वल्र्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2015-16 के अनुसार भारत के विश्वविद्यालों की गिनती 200 से 300 के बीच होती है। दूसरे शब्दों में हमारे विश्वविद्यालय इस योग्य भी नहीं हैं कि विश्व स्तर पर गिनी जाने वाले संस्थानों में हमारे संस्थान काफी पीछे हैं। यदि हमारे संस्थान शामिल भी होते हैं तो उनमें आईआईसी और आई आईआईटी हैं। यदि हमें मानविकी संस्थान की बात करें तो तमाम भारतीय विश्वविद्यालय कहीं दौड़ में भी नजर नहीं आते। उसमें भी गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, राष्टीय संस्कृत संस्थान, लाल बहादुर संस्कृत विद्यापीठ आदि की स्थिति और भी शोचनीय है। जब दिल्ली विश्वविद्यालय एवंत माम केंद्रीय विश्वविद्यालय इस सूची में नीचे से अपनी जगह सुनिश्चित करते हैं।
उच्च शिक्षण संस्थान ख़ासकर अपने यहां शोध,पठन-पाठन के लिए जाने जाते हैं। जब हम विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों में शोध,शिक्षण और विभागीय स्थिति पर नजर दौड़ाते हैं तो जमीनी तल्ख़ हकीकत से रू रू होते हैं जिससे हम मुंह नहीं मोड़ सकते। एक ओर चीन के विश्वविद्यालयों में एक अकादमिक सत्र में 22,000 पीएचडी स्काॅलर देश को देता हैं वहीं भारत में यह संख्या महज 8,000 है। एक बारगी तर्क किया जा सकता है कि हम संख्या नहीं बल्कि गुणवता में विश्वास करते हैं इसलिए संख्या की बजाए शोध की गंभीरता और महत्ता पर ध्यान देते हैं। इस लिहाज से भी हमारे शोध कमतर ही निकलते हैं। कम से कम मानविकी विषयों को लेकर तो यह बात कही जा सकती है कि जिस किस्म की शोध प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं उसकी उपादेयता महज पन्नों में नजर आती हैं।इतना ही नहीं हमारे यहां उच्च शिक्षा में होने वाले शोधों के स्तर और उसकी सामाजिक उपादेयता एवं दरकार हमेशा ही शंक के घेरे में रहे हैं। यह बेबुनियाद भी नहीं हैं क्योंकि यदि कालिदास के साहित्य में वनस्पति और जीव जंतु, प्रसाद के उपन्यास में नारी चित्रण,प्रेमचंद की कहानियों में दलित विमर्श सरीखे विषय ऐकांतिक विमर्श और एक कल्पित दुनिया का सृजन सा लगता है। यदि शोध का समाजिक सरोकारों वाले शोध के बराबर हैं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...