Thursday, October 29, 2015

Language teaching and activities...

Language teaching through activities in the ground. Have a look how it would be happen. Language teaching is not too much tough. It depends on the teacher how he or she plan for it.



Tuesday, October 27, 2015

समीक्षा, मूल्यांकन और साहित्य की रचना

आज साहित्य की विभिन्न विधाओं मंे हजारों की तदाद में रचनाएं हो रही हैं। यदि साहित्यिक वैश्विक पटल पर देखें तो रोजदिन साहित्य की रचना विभिन्न माध्यमों में हो रही हैं। वह माध्यम चाहे मुद्रित हो व गैर पारंपरिक हर माध्यम में रचनाएं की जा रही हैं। तकनीक के विकास के साथ ही लेखन की चैहद्दी टूट गई है। अब सोशल मीडिया में भी साहित्यिक रचनाएं लगातार हो रही हैं। लेखक अब किसी भी संपादक, पत्र-पत्रिका आदि का मुंहताज नहीं रहा। जो लिखता है वो प्रकाशित व वेबकास्ट करता है। वेबकाटिंग और अभिव्यक्त करने में आज कई सारी बाधाएं खत्म हो चुकी हैं। जो लिखेगा वो छपेगा। जो छपेगा वेा लिखेगा। इस सिद्धंात पर लोग लिख और छप रहे हैं। वह छपना चाहे आपके फेसबुक पेज हो, ब्लाॅग पर हो या फिर लिंगडेन आदि वेब पन्नों पर हो, कुल मिलाकर लोग लिख रहे हैं। धड़ाधड़ लिखना और बाजार में फेंकना जारी है। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि जो चीजें लिखी जा रही हैं क्या उन्हें हम साहित्य मानें यानी त्वरित टिप्पणियों की श्रेणी में रखें। सवाल यह भी उठता है कि वर्तमान समय में लिखी जा रही कविताएं, कहानियां, व्यंग्य, टिप्पणियां क्या साहित्य में गिनें या महज गद्य की विधाओं की रचनाओं के खांचे में डालें। अब एक अहम सवाल यह भी उठता है कि जो लिखा जा रहा है क्या उसका मूल्यांकन,समीक्षाएं,जांच पड़ताल जैसी कोई चीज हो भी रही है या नहीं। क्योंकि जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसकी महत्ता और औचित्य का निरीक्षण करना भी आवश्यक है। दूसरे शब्दों मंे उपरोक्त माध्यमों मंे लिखी जा रही रचनाओं का समुचित मूल्यांकन और समीक्षा होना जरूरी है।
एक ओर पारंपरिक प्रकाशन घराने हैं जहां किताबों को प्रकाशित करने से पूर्व संपादक मंडल यदि है तो, में रखा जाता है। जब संपादक मंडल किसी भी पांडुलिपि को छपने योग्य समझती है तब वह अनुमोदन देती है। लेकिन आज जिस तेजी से प्रकाशन घरानों मंे इजाफा हुआ है उसी रफ्तार से संपादक मंडल सिमटते गए हैं। अब वहां संपादक नाम का जीव अव्वल तो रहा नहीं और यदि है भी तो उसकी हैसियत दंत विहीन कर दी गई है। ऐसे में किताबें छापना एक अन्य व्यवसाय की भांति ही उत्पाद वस्तु मंे तब्दील हो चुकी है। जहां कंटेंट से ज्यादा मुद्रा अहम हो चुका है। यह किसी से भी दबा छुपा तथ्य नहीं रहा है कि ले देकर किताबें छापी जा रही हैं। ऐसे में क्या लिख गया है, कैसे लिखा गया है, आदि की जांच करने वाला कोई नहीं हैं। तुर्रा यह कि लेक्चरर व्यवसाय में किताबें छपीं हों जिसपर प्वांइंट मिला करती हैं इस नियम के बाद जहां कहीं से भी जैसे भी हो कुछ भी छपा लो साथ ही पीएचडी थिसिस भी छपा कर अंक लेने मंे लगे हैं।
आज लेखक बिना इंतजार किए तुरत फुरत में छप जाना चाहता है। जिस आनन-फानन में छपता है उसी जल्दबाजी मंे पुस्तक लोकार्पण कराना भी उसकी सूची मंे शामिल होता है। दस बीस काॅपी लेकर अपने स्वजन परिजनों मंे बांट कर शांत हो जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में एक अहम बिंदु कहीं पीछे छूट जाती है किताब व रचना का मूल्यांकन। यहां भी बड़ा झोल है। अपने परिचितों से समीक्षा करा कर किसी पत्रिका में भेज देना भी खासा आम परिघटना है। यदि समीक्षा नहीं छपी तो रात की नींद खराब हो जाती है। इसलिए अपनों से आग्रह कर समीक्षाएं भी लिखा ली जाती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि किताब की समीक्षा की जा रही है या पुस्तक परिचय लिखा जा रहा है क्योंकि अमूमन समाचार पत्रों में छपने वाली समीक्षाएं दरअसल पुस्तक परिचय हुआ करती हैं। क्या समीक्षा छह सौ से हजार शब्दों में संभव है? इस हकीकत से भी हम नहीं बच सकते कि विभिन्न पत्रों मंे छपने वाली पुस्तक समीक्षाएं आज सिर्फ परिचयात्मक लेख मंे परिवर्तित हो चुकी हैं। उसमंे समीक्षा के छौंक लगा कर बेचे जा रहे हैं।
यह एक चिंता का विषय है कि समाचार पत्रों में बहुत तेजी से साहित्यिक पन्ने सिमटते चले गए। उसमंे भी भाषायी समाचार पत्रों मंे अंग्रेजी के एक दो अखबारांे में साहित्य के लिए पर्याप्त जगह दी जाती है। उसमें भी साक्षात्कार, समीक्षाएं, आलेख आदि मिल जाती है। इस दृष्टि से हिन्दी के समाचार पत्रों मंे सूखा नजर आता है। एक पन्ने पर समीक्षा, किताब परिचय, लेख सबका एक आस्वाद परोस दिया जाता है। यूं तो एक ही पन्ने पर साहित्य की विविध छटाओं का आस्वाद मिल जाता है लेकिन समस्या यह है कि किसी एक विधा का पूरा विस्तार नहीं हाो पाता। ऐसे में जरूरी है कि हमें साहित्य के लिए समाचार पत्रों,पत्रिकों में समुचित स्थान मुहैया कराया जाए ताकि खुल कर समीक्षा किया जा सके।
कहानी,कविता, व्यंग्य एवं उपन्यास विधा मंे प्रचूर मात्रा में लिखी जा रही हैं। हर साल कम से कम हिन्दी में हजारांे पुस्तकें इन विधाओं मंे छपती हैं। लेकिन जब हम समीक्षा, आलोचना, निबंध की बारी आती है तब यह संख्या सौ के अंदर सिमट जाती है। समीक्षा और आलोचना विधा में न तो पर्याप्त प्रमाणिक किताबें हैं और न समीक्षक ही जो पूर्वग्रह रहित समीक्षाकर्म में लगे हैं। यहां इन पंक्तियों का अन्यथा अर्थ न लिया जाए बल्कि यहां सिर्फ यह कहने की कोशिश की जा रही है कि समीक्षा विधा में भी गंभीर काम होना अभी बाकी है। यूं तो साहित्य की तमाम विधाओं श्रमसाध्य कर्म हैं। लेकिन इससे किसे गुरेज होगा कि समीक्षा, मूल्यांकन उससे भी ज्यादा गंभीरता की मांग करता है। पहला शर्त तो यही कि वह साहित्य प्रेमी हो। साहित्य की समझ रखता हो। और उसमें विभिन्न वादों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं से विलग होकर रचना को परखने की दृष्टि हो। दूसरा उसके पास समुचित समय हो ताकि पढ़कर समीक्षा लिख पाएं। क्योंकि देखा तो यह भी गया है कि कई बार समयाभाव में महज फ्लैप पढ़कर या दस बीस पन्ने पलट कर समीक्षाएं लिख दी जाती हैं।  
दरअसल समीक्षा व आलोचना की गंभीरता आज छिजती जा रही है। यदि एक नजर लेखकीय सत्ता पर डालें तो वहां केवल और केवल लेखन पर ध्यान दिया  जा रहा है। वह रचना कैसी है? किस स्तर की है? उससे कौन सा वर्ग लाभान्वित होने वाला है इसपर भी कोई खास तवज्जो नहीं दिया जाता। पुस्तक लिखने के पीछे व काव्य, कथा सृजन का उद्देश्य क्या है और वह अपने उद्देश्य किस स्तर तक सफल हुआ इसे जांचने परखने वाले बहुत कम हैं। कायदे से इस विधा को और समृद्ध करने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। होता तो यह चाहिए कि जिस तरह से तमाम दक्षता विकास के लिए कार्यशालाएं होती हैं। इसी तर्ज पर हमंे ऐसी कार्यशालाओं आयोजन समय समय पर करना चाहिए जिसका उद्देश्य प्रतिभागियों में रचना समीक्षा एवं आलोचना के कौशल प्रदान किया जा सके। दूसरे शब्दों मंे जिस तरह से काव्य पाठ, कथा लेखन कार्यशालाएं होती हैं उसी तरह समीक्षा-आलोचना प्रशिक्षु कार्यशालाओं की योजना बनाई जा सकती है। इसमें न केवल विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग बल्कि अन्य साहित्यिक संस्थाएं भी अपनी कार्ययोजना में इसे स्थान दे सकती हैं। हर वर्ष शोध पत्रों, सेमिनार, बैठकों आदि का आयोजन तो होता ही है कितना अच्छा हो कि इस विषय पर भी गंभीरता से विमर्श किया जाए। हमारे पास साहित्य अकादमी, हिन्दी अकादमी, आईसीसीआर आदि शैक्षिक और अकादमिक संस्थाएं हैं जो चाहे तो इस कार्य को आगे बढ़ा सकते हैं। क्योंकि इन संस्थाओं के मार्फत एक ओर से साहित्य समाज को मजबूती मिलती है वहीं दूसरी ओर साहित्यकारों की नई पौध भी रोशनी में आती हैं। इन संस्थाओं का कार्य सिर्फ साहित्य छापना ही नहीं होना चाहिए बल्कि साहित्य की परंपरा को भी अग्रसारित करने वाले घटकों को सुदृढता प्रदाना करना भी है।
भारतीय भाषाओं में लिखी जाने वाी रचनाओं को प्रकाशित कर पाठक समाज को सौंपने का काम तो कई सारी संस्थाएं, प्रकाशन संस्थान आदि कर रही हैं। लेकिन रचना समीक्षा-आलोचना की नई पौध तमाम आलोचकीय संसाधनों से लैस हो इसके लिए बहुत कम प्रयास हो रहे हैं। इसका जीता जागता उदाहरण हम छपने वाली विधाओं की किताबों यानी कविता, कहानी, उपन्यास, डायरी, यात्रा वृत्तांत आदि तो बहुतायत मात्रा में मिलेंगी लेकिन उस अनुपात में यदि समीक्षा, आलोचना एवं निबंध आदि विधाओं मंे किताबों की खासा कमी महसूस होती है। एक ओर हिन्दी और भारतीय भाषाओं मंे कविता,कहानी आदि विधाओं को ध्यान में रखते हुए तमाम पत्रिकाएं छप रही हैं। कथा, कथादेश, अवां,पाखी, हंस, वागार्थ,तद्भव,पुस्तक वर्ता, समीक्षा, आलोचना, संदर्भ, आधुनिक साहित्य, समकालीन साहित्य, तीसरी दुनिया, भाषा,आजकल,लमही, साहित्य अमृत,समयांतर आदि। जितनी पत्रिकाएं कविता कहानी आदि विधाओं के लिए छप रही हैं उस दृष्टि से देखें तो आलोचना, समीक्षा की पत्रिकाएं बेहद कम हैं। ये तो कुछ वे पत्रिकाएं हैं जो मुद्रित रूप मंे नियमित छपा करती हैं। वहीं दूसरी ओर इन्हीं के समानांतर सोशल मीडिया के आंगन मंे झांकें तो पाएंगे कि हजार से भी ज्यादा वेब पत्रिकाओं की भरमार है। हर ई पत्रिका अपने आप को अंतरराष्टीय शोध एवं साहित्य की पत्रिका होने का दावा करती हैं। यदि उन ई पत्रिकाओं के कंटेंट पर नजर डालें तो एक बारगी खुशी तो होती है कि कम से कम लोग लिख पढ़ रहे हैं। कुछ पत्रिकाओं मंे अच्छी पठनीय सामग्री भी छापी जा रही हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ पत्रिकाओं मंे महज कविताओं,लंबी कहानियों से कागजों के पेट ही भरे जा रहे हैं।
ई पत्रिकाओं के अलावा कुछ वेब ब्लाॅग भी काफी सक्रिय हैं जहां हमें साहित्य मिल जाया करता है। लेकिन उनके पास आर्थिक मजबूरी ही होगी कि वे मुद्रित रूप में पत्रिका निकाल पाने में सक्षम नहीं हैं। ब्लाॅग, ई पत्रिका, फेसबुक पेज आदि पर रोज दिन कहानियां, कविताएं, व्यंग्य आदि लिखी और वेबकास्ट हो रही हैं। देखना यह है कि जब हिन्दी और साहित्य की करवटों का इतिहास लिखा जाएगा तब क्या इन आभासीय साहित्यों की कहीं कोई चर्चा होगी। क्या इस साहित्य को दस्तावेजित किया जाएगा। सवाल यह भी है कि कविता कहानी,उपन्यास के इस बाढ़ में क्या कोई समीक्षा-आलोचना को भी पार उतारेगा। इस नाव का खेवनहार कौन और कब आएगा?
वर्तमान साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि इन पत्रिकाओं में किस तरह की समीक्षाएं छप व छापी जा रही हैं। इन विषयांे पर भी ठहर कर विमर्श करने की आवश्यकता है। किताब की समीक्षा हो न कि महज पुस्तक परिचय छापा जाए। हालांकि पुस्तक परिचय भी गलत नहीं है क्योंकि इस किस्म की पुस्तकीय परिचय कम समय मंे यह जानने के लिए अच्छा साधन हो सकता है कि फलां किताब किस विषय पर है। लेकिन यदि कोई सम्यक समीक्षा पढ़ना चाहे तो उसके लिए उस तरह के लेख भी प्रकाशित किए जाएं। समीक्षा कैसे की जाए इसकी तालीम यानी कौशल विकास कार्यशालाओं के दौरान नए लेखकों व जिनकी इसमंे रूचि है उन्हें इस विधा की बारीक समझ विकसित करने की आवश्यकता है।
सचपूछा जाए तो किसी भी रचना की समीक्षा, आलोचना या समालोचना करने भी एक कला और कौशल है। इस दक्षता को स्वाध्याय, अध्यवसाय से हासिल किया जा सकता है। लेकिन चुनौती यही है कि आज की तारीख मंे पढ़ने की आदत लगभग जाती रही। लेखक भी कम ही बचे हैं जो स्वयं के लिखे को छोड़ बहुपठ हों। महज पत्रिकाओं, किताबों को उलट पलट लेना संभव है पढ़ने की श्रेणी मंे न आए। पढ़ने की उदासीनता के दौर ने केवल लेखक गुजर रहे हैं बल्कि बच्चे और शिक्षक वर्ग भी पढ़ना तकरीबन भूल चुके हैं। सिर्फ वही पढ़ते हैं जिससे परीक्षा पास हो सके। वही पढ़ना जो नितांत जरूरी हो। यह धारणा गहरे पैठती जा रही है। जबकि एक समय था जब लोग स्वांतः सुखाय के लिए पढ़ा करते थे। आनंद प्राप्ति के लिए पढ़ा करते थे। मनोरंजन के लिए पढ़ा करते थे। जब हम इन्हीं बिंदुओं को आज की तारीख मंे निकष पर कसते हैं तो स्थितियां काफी बदली सी नजर आती हैं। अब लोग मोबाईल में पढ़ते हैं। टेब्लेट्स पर पढ़ते हैं। फेसबुक ट्विटर आदि सोशल साईटों पर लिखा पढ़ते हैं। पढ़ तो यहां भी रहे हैं बस माध्यमों मंे बदलाव आए हैं। लेकिन अभी भी हमारे समाज मंे बड़ी संख्या मंे शिक्षक वर्ग हैं जिन्हें साहित्य न पढ़े हुए एक लंबा वक्त गुजर चुका। जब वे छात्र हुआ करते थे तब उन्होंने निर्मला, गोदान, आधे-अधूरे, गुनाहों के देवता, चीड़ों पर चांदनी आदि साहित्य पढ़े थे। लेकिन वे स्वयं ही बताते हैं कि उस पढ़ने में वो आनंद नहीं था, क्योंकि उस पढ़ने के पीछे परीक्षा पास करने का दबाव था। ऐसे ही कम से कम 2000 शिक्षकों से बातचीत के आधार पर यह कह सकता हूं कि हमारे शिक्षक पढ़ने से दूर हैं। उन्हें पढ़ने का आनंद और पढ़ने में रूचि कैसे पैदा की जाए इस ओर हमें काम करने की आवश्यकता है।
अंत में रचनाएं हजारों की संख्या में हो रही हैं जिसमें छपने वाले पन्नों और बाइट की संख्या गेगा बाइट और टेरा बाइट में हैं। लाखों और करोड़ों पन्नों में छपने वाले साहित्य को छानने और जांचने के लिए कोई न कोई तो उपकरण हमारे पास होने ही चाहिए। ऐसे में पाठकों के लिए यह जानना कितना मुश्किल हो जाता है कि कविता,कहानी,उपन्यास,आलोचना,निबंध आदि मंे किस किताब में किस मुद्दे को उठाया गया है। कौन सी किताब किस कंटेंट को विमर्श के घेरे में लेती है आदि। क्या पाठक जो किताब खरीद रहा है वह उसकी जरूरतों को पूरा भी करता है या नहीं? यानी पाठकीय अपेक्षा पर रचना खरी है या नहीं इसके लिए काफी हद तक पाठकों को किताब तो पढ़नी ही पड़ेगी। लेकिन यदि कोई पाठक बिना ज्यादा समय गवाए यदि किसी भी किताब के बारे मंे जानकारी हासिल करना चाहता है तो उसे समीक्षा व पुस्तकीय परिचय पढ़ कर मिल सकती है। किन्तु अफसोस की बात है कि आज पुस्तकों की गंभीर समीक्षाएं पाठकों को नहीं मिल पा रही हैं। लेखक समुदाय को इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

Wednesday, October 21, 2015

कहानियां लिखते शिक्षक



घटनाएं और कहानियां हर व्यक्ति के जीवन में होती हैं। लिखना का कौशल यूं तो माना लिया जाता है कि यह लेखक,कथाकार, कवि आदि के पास होता है। जो अपने और दूसरों की जिंदगी मंे घटने वाली घटनाओं, बातों को कहानी,उपन्यास आदि विधाओं में दर्ज कर देता है। यह कौशल प्रतिभा और अभ्यास, जिज्ञासा और साहित्यिक रूचि पर भी खासा निर्भर करता है। अभ्यास से लेख कौशल में निखार लाया जा सकता है। इतिहास गवाह है कि साहित्य में कई ऐसे नाम हुए हैं जिन्होंने अपनी लेखन दक्षता को अभ्यास से मार्फत धार दिया है। इस बाबत महावीर प्रसाद द्विवेदी का काम प्रशंसनीय है क्योंकि उन्होंने 1990 से लेकर 1020 तक सरस्वती पत्रिका के संपादकत्व काल में कई समकालीन लेखक, कथाकारों, उपन्यासकारों को मांज-खंघाल कर साहित्य समाज को प्रदान किया। दूसरे शब्दों मंे लेखन ऐसा कर्म है जिसमें लिखते-पढ़ते लिखने की समझ और दक्षता को विकसित की जा सकती है। लिखने के लिए एक शर्त यह भी है कि लिखने वाला अपने समकालीन और पूर्व के लेखन को मनोयोग से पढ़े व पढ़ा हो। अपने पूर्व के लिखे का अनुशरण करना भी ग़लत नहीं है क्योंकि शुरू में हो सकता है वह दूसरे की शैली का अनुकरण करे लेकिन आगे चल कर अभ्यास और स्वविवेक से अपनी खुद की शैली भी विकसित कर सकता है। अमुमन लेखकों ने किया भी है। परसाई जी, हजारी प्रसाद द्विवेदी जी, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि के लेखन से प्रभावित होकर लिखना तो शुरू किया किन्तु कालांतर पर स्वयं की अपनी पहचान भी बनाई।
शिक्षक समाज से हम नागर समाज की अपेक्षा यह होती है कि यह वर्ग पढ़ने-लिखने मंे रूचि ले। स्वयं की समझ और ज्ञान को समयानुकूल अधुनातन करता रहे। यह कसौटी पर जब हम शिक्षक समाज व वर्ग को देखते हैं तब एकबारगी निराशा हाथ लगती है क्योंकि इन पंक्तियों के लेखक को कम से कम 2000 शिक्षकांे से इस मुद्दे पर बातचीत करने का मौका मिला है बल्कि लगातार विमर्श होते ही रहते हैं। इन संवादों से आधार पर कहने की हिमाकत तो कर ही सकता हूं कि इनमें से अधिकांश शिक्षकों ने स्वीकार किया कि उन्हें पढ़े हुए एक लंबा अरसा हो गया। जब वे पढ़ा करते थे तब उन्होंने पाठ्य पुस्तकें पढ़ी थीं लेकिन जाॅब में आने के बाद उन्हें पढ़ने का अवसर नहीं मिलता। इन शिक्षकों की ऐसी ही कार्यशालाआंे मंे हिन्दी शिक्षण को लेकर मेरा अपना अनुभव बताता है कि इनमें पढ़ने की ललक भी लगभग खत्म सी हो गई है। एक कार्यशाला में इन्हें अपनी दिनचर्या लिखने को दिया। उसे देख का यह साफ हो गया  िकवे लोग घर से स्कूल और स्कूल से घर की चक्की में अपना समय व्यतीत कर रहे हैं। इनके जीवन चक्र में पढ़ने का कोई स्थान नहीं था। न तो किताबें थीं और न पत्रिकाएं जिन्हें वे कभी भूलवश खरीदते हों। जब उनकी दिनचर्या जिसे उन्हीं लोगों ने लिखा था जब बातचीत शुरू हुई तो उन्हें अपनी इस आदत पर निराशा भी हुई। उन्होंने स्वीकार किया कि हां उन्हें कोई किताब न पढ़े काफी लंबा वक्त हो चुका है। उन्हें शिक्षा और भाषा में क्या कुछ नई चीजें चल रही हैं उससे वे नवाकिफ हैं। उन्हें पढ़ना चाहिए यह तो उन्हें बोध हुआ लेकिन समय नहीं निकाल पाते।
हमने ऐसे ही पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तकरीबन 200 शिक्षकों की हिन्दी की कार्यशाला में कहानी, कविता, आलेख लेखन का कार्य कराया। विषय की कोई सीमा व चैहद्दी हमने नहीं खींची थी। हमने उन्हें खुला आसमान दिया कि आप जिस भी विधा में लिखना चाहें जो भी लिखना चाहें इसकी पूरी आजादी है। विषय का खुलापन उन्हें पसंद आया। उन्हें यह भी रोचक लगा कि उन्हें लिखने और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का एक अवसर प्रदान किया जा रहा है। कुछ लोगों ने अपनी जिंदगी की घटनाओं को बतौर कहानी लिख डाली। किसी ने निबंध लिखे तो किसी ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम कविता को चुना। हमारे लिए यह एक ख्ुाशी की घड़ी थी कि उन शिक्षकों ने लिखने से परहेज नहीं किया। वरना ऐसे भी अनुभव रहे हैं कि शिक्षकों ने सीधे लिखने से मना कर दिया। वह भी यह कहते हुए कि हम कोई बच्चे व काॅलेज के छात्र नहीं हैं जो लेख, कहानी लिखें। हमंे कार्यशाला के लिए बुलाया गया है तो हमें हिन्दी कैसे पढ़ाई जाए इस पर लेक्चर उपलब्ध कराया जाए। ऐसे शिक्षकों को समझाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी कि भाषा के कौशलांे के विकास और दक्षता प्रदान करने के लिए यह भी जरूरी है कि स्वयं शिक्षक लेखन और सृजन में दिलचस्पी नहीं लेगा तो वह बच्चों को कक्षा में कैसे कल्पनाशीलता और सृजनात्मक अवसर मुहैया करा पाएगा जिसकी वकालत राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 करती है। उन शिक्षकांे को इस कार्य के लिए मानसिकतौर पर तैयार करने में काफी मेहनत करने पड़ी। कुछ बेमन से तो कुछ मन से तैयार हो गए।
जब शिक्षकों ने लिखना शुरू किया तो गोया सन्नाटा छा गया। सब के सब लिखने मंे तल्लीन हो गए। कोई भी आवाज,बाधा उन्हें कबूल नहीं था। तकरीबन पचीस से तीस मिनट के अंदर सभी ने कुछ न कुछ लिखा। अब बारी थी अपने लिखे का वचान करना। क्योंकि इस कार्य के पीछे हमारा उद्देश्य उन्हें साहित्य की विधाओं कहानी, कविता, निबंध के वाचन कौशल से अवगत कराना भी था। ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि शिक्षक/शिक्षिका अपने लिखे को पढ़ते वक्त इनकी भावुक और द्रवित हो जाएंगी कि पढ़ते पढ़ते गला रूंद्ध जाएगा। रोने लगेंगी। इतना ही नहीं सुनने वाले भी रोने लगेंगे। कुछ की कहानियां ;यदि इन्हें कहानी पानी जाए तोद्ध वास्तव में दिल को छूने वाली थीं। इसलिए नहीं कि उन्हें सुन कर रूलाई आ गई। बल्कि इसलिए कि इन कहानियों के लेखकों ने पहली बार अपने जीवन की घटनाओं को एक लेखकीय नजर से देखा था। जिसे उन लोगों ने देखा और भोगा था उसी को वे लोग शब्दों में बयां कर रहे थे। कई कहानियों मंे बेशक कहानी के तय तत्व न दिखाई दें। लेकिन यदि गद्यांश में कहानी के एक दो तत्व भी झांकते नजर आएं तो उन्हें कहानी मान लेने मंे क्या हर्ज है। संभव है इन्हीं शिक्षकों में से कोई अपने अभ्यास और परिश्रम से एक दिन अच्छा कथाकार बन कर उभरे। क्योंकि जरूरी नहीं है कि लेखकीय प्रतिभा लेकर कर ही पैदा हुआ जाए। बल्कि जैसे की पहले भी निवेदित किया जा चुका है कि लेखकीय दक्षता कई बार अभ्यास और स्वाध्याय से भी हासिल की जा सकती है।
हमारी कोशिश बस इतनी भर है कि इन शिक्षकों/शिक्षिकाओं की छुपी लेखकीय प्रतिभा को निखरने और परिमार्जित होने का अवसर मिले। जो लिखेगा वो छपेगा और जो छपेगा वो लिखेगा यानी जब इन्हीं शिक्षकों मंे से कुछ लिखने लगेंगे तब उन्हें अपनी रचना छपने का भी इंतज़ार रहेगा। संभव है उनमें से कुछ की रचनाएं खारिज कर दी जाएं निराशा हाथ लगे और दुबार कलम उठाने से परहेज करें। इसलिए हमने योजना बनाई की क्यों न इनकी लेखनी को एक मंच उपलब्ध कराया जाए जहां वे लोग अपनी रचना को प्रकाशित रूप में देख पाएं और आगे लिखने की प्रेरणा प्राप्त करें।
एक कहानी को कैंसर पीडि़त भाई की डेढ़ साल की जिंदगी पर आधारित कहानी है जिसे पढ़ते हुए लेखिका ज़ार ज़ार रोने लगीं साथ ही पूरा श्रोता समाज भी रोने लगा। इस कहानी को पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है कि एक साधारण व्यक्ति जिन घटनाओं और जीवनानुभवों से गुजरता है। उसे किस शिद्दत से महसूस करता है और लिखने की कोशिश करता है। लिखना दरअसल पूर्वानुभवों को एक बार फिर से जीने जैसा ही होता है। दूसरे शब्दांे मंे लेखक जिन घटनाओं व जीवन के उतर चढ़ को सृजित कर रहा होता है उसे दुबारा से जीने की कोशिश करता है। इस उपक्रम में उन भावदशाओं का उत्पन्न होना भी स्वभाविक है।
कहानियां और कविताएं श्रोता और पाठक वर्ग के ज्यादा करीब रहे हैं। यह इस रूप में भी कि कहानियों की तुरत भावावेश और घटनाओं का उतर चढ़ पाठकों को बांधे रखने में सक्षम होता है। इसलिए इन शिक्षकों के लेखन में कविताओं और कहानियों की संख्या ज्यादा हैं। कुछ कहानियां व कविता कम घोषणाएं और प्रवचननुमा हो गईं जिन्हें इस संकलन में शामिल नहीं किया गया है। जिन निबंधों, कहानियों, कविताओं में ज़रा सेा भी ताज़ापन दिखाई दिया उसे चुन लिया गया है। पाठक स्वयं भी तय कर सकते हैं कि शिक्षक जब कलम उठाता है तो उसकी लेखनी में कहीं न कहीं स्कूल, बच्चे, शिक्षा उनकी परिधि में आदतन आ ही जाते हैं।  

Tuesday, October 20, 2015

पढ़ने से दूर शिक्षक


कौशलेंद्र प्रपन्न
हिन्दी कहानी कई मोड़ मुहानों से गुजर कर यहां तक पहुंची है। लंबी कहानी, लघु कहानी, नई कहानी, आधुनिक कहानी, उत्तर आधुनिक कहानी, प्रगतिशील कहानी आदि संज्ञाओं से हम हिन्दी कहानी आंदोलनों को देखते हैं। इन आंदोलनों को के सूत्रधार जो भी थे लेकिन उनकी प्रतिबद्धताओं से किसी को गुरेज नहीं हो सकता। इनत माम आंदोलनों के पीछे कहानी की धारणाएं भी बदलीं। मान्यताओं मंे भी बदलाव आया। लेकिन जो तत्व नहीं बदले वे हैं कथानक और कहने की शैली। किसी भी कहानी से कथानक को नहीं निकाल सकते। साथ ही कहानी कहने की शैली को भी नकारा नहीं जा सकता।
कहानियां न केवल बच्चों को बल्कि बड़ों को भी प्रभावित करती रही हैं। हम सब ने अपने बचपन में कहानियां जरूर सुनी हैं। यही वजह है कि कहानियों से हमारा लगाव बेहद पुराना है। व्यस्कों को ध्यान में रख कर लिखी गई कहानियों और बच्चों को संज्ञान में रखते हुए लिखी गई कहानियों में काफी अंतर दिखाई देता है। वह फांक न केवल कथावस्तु बल्कि भाषायी एवं प्रस्तुतिकरण के स्तर पर भी साफ दिखाई देती हैं।
व्यस्कों के मनोविनोद के लिए कथाकारों ने न केवल कहानियां लिखीं बल्कि उन्हें प्रकाशित करने और प्रसारित करने के लिए पत्रिकाओं का प्रकाशन भी शुरू किया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी से लेकर विष्णु प्रभाकर,बालकृष्ण देवसरे,प्रकाश मनु, विभा देवसरे, क्षमा शर्मा, रमेश तैलंग, दिविक रमेश आदि ने बाल कहानियों के सिलसिले को आगे बढ़ाया लेकिन जो बात अहम है वह यह भी है कि बाल कहानियों को परोसने वाली पत्रिकाओं की खासा कमी महसूस की जाती रही है। यदि बाल कथा व बाल पत्रिका की तलाश में निकलें तो निराशा ही हाथ लगेंगी। क्योंकि यदि हिन्दी में देखें तो नंदन,बाल हंस,चंपक, चंदामामा को छोड़ को शायद ही कोई और नाम याद आए। दरअसल बाल कहानियों और बाल पत्रिकाओं को बाजार के हिसाब से न तो देखा गया और न ही गंभीरता से इस ओर ध्यान ही दिया गया।
अगर हम भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाली बाली पत्रिकाओं के बारे में जानकारी लेना भी चाहें तो संभव है दस की संख्या पार करते करते हमारे आंखों के सामने अंधेरा छाने लगे। उत्तर भारतीयों के साथ एक समस्या यह भी है कि हम हिन्दी से बाहर झांकना भी मुनासिब नहीं समझते। हमारा दायरा और दरकार भी खासा सीमित हो जाता है। कुछ प्रमुख प्रकाशनों और पत्रिकाओं का तो हम नाम जानते हैं लेकिन स्थानीय स्तर पर प्रसिद्ध पत्रिकाओं के बारे में हमारी समझ और जानकारी छिछली ही रहती है। दूसरे शब्दों मंे कहें तो स्थानीय लघु बाल पत्रिकाओं को वह स्थान नहीं मिल पाता तो महानगर से निकलने वाली पत्रिकाओं को मिला करती हैं।
बाल साहित्य को बढ़ावा देने के लिए राज्य स्तर पर काफी प्रशंसनीय काम हो रहे हैं लेकिन उनकी पहचान और पहुंच अभी भी सीमित है। शैक्षिक दख़ल, दीवार पत्रिका, संदर्भ आदि। यहां गिनाए गए नामों पर न जाएं क्योंकि इनमें शामिल कुछ वे भी पत्रिकाएं हैं जो राष्टीय स्तर पर पहचान बना चुकी हैं। लेकिन यह सौभाग्य उन हजारों पत्रिकाओं को नसीब नहीं है जो पचास, सौ काॅपी छपती हैं, जिन्हें खरीदने वाले भी बड़ी मुश्किल से मिला करते हैं। आर्थिक पक्ष कमजोर होने की वजह से अच्छी और प्रतिष्ठित पत्रिकाएं हमारे बीच नदारत हो गईं। लघु पत्रिकाओं को जीवन दान देने वाले लेखक वर्ग ही प्रमुखता से होते हैं। इन्हें सरकारी प्राण वायु कम ही मिल करती हैं जिसकी वजह है इन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ती है।
क्या किसी बचपन की कल्पना बिना कथा-कहानी की की जा सकती है? क्या कहानियों, पत्रिकाओं के बगैर पढ़ने की आदत विकसित की जा सकती है? बच्चों में पढ़ाने की रूचि विकसित करनी है तो हमें उन्हें बाल साहित्य उपलब्ध कराने होंगे। वहीं हमारे शिक्षकों और अभिभावकों को भी साहित्यिक रूचि को बचाए रखना होगा। यदि वे स्वयं पत्रिकाएं, कहानियां, बाल गीत आदि नहीं पढ़ेंगे तब वे किस प्रकार बच्चों को बाल गीत,बाल कहानी उपलब्ध करा पाएंगे।
इन पंक्तियों के लेखक को अक्सर शिक्षकों से बातचीत करने का मौका मिलता रहा है। उन के साथ बातचीत में जो तथ्य निकल कर आती हैं वे बड़ी चिंताजनक हैं। स्वयं शिक्षक न तो साहित्य पढ़ा करते हैं और न पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने की जोखिम ही उठाते हैं। पढ़ने के नाम पर जब वे छात्र रहे थे तब की पाठ्य पुस्तकें पढ़ी थीं। लेकिन जाॅब में आने के बाद इनका वास्ता पढ़ने से कटता चला गया। इसमंे पीछे वजह यह बताते हैं कि समय नहीं मिलता। स्कूल से घर जाने के बाद इतना समय नहीं मिलता कि वे कोई किताब पढ़ें। लेकिन यह कहानी पूरी नहीं है। क्योंकि कई शिक्षक/शिक्षिकाओं को यह भी मानना है कि पढ़ना तो चाहती हैं लेकिन कौनी सी किताब पढ़ें इसकी न तो जानकारी है और न समझ ही। यानी आंख,नाक,कान बंद कर जीने वाले शिक्षकों की प्रजाति में पढ़ने नाम की चिडि़या पर भी नहीं मारती। यदि पढ़ने का सुझाव दें तो तपाक से कहते हैं आपकी जैसी नौकरी नहीं है कि पढ़ते-लिखते रहें। हमंे काॅपियां भी जांचनी पड़ती हैं, जनगणना, सर्वे जैसे गैर शैक्षिक काम भी निपटाने होते हैं। इनके तर्कों को ध्यान में रखें तो एकबारगी इनके तर्क संगत लगेंगे लेकिन साथ ही यह भी हकीकत ख्ुालेगा कि यह बचने के तौर तरीके हैं। क्यांेकि इन्होंने छात्र जीवन मंे भी पाठ्यपुस्तकों को ही पढ़ना मान कर डिग्रियां हासिल कर लीं। रफ्ता रफ्ता नौकरी भी लग गई।

Monday, October 19, 2015

पांव मेरे जूते आपके


जब पांव मेरे होंगे तो जूत आपके कैसे हो सकते हैं। कैसे कह दूं कि आपके जूते मेरे पांव मंे आ सकते हैं। लेकिन बाजार में यह सब कहना और चुनना पड़ता है। बाजार के अनुसार हम अपनी जरूरतों को बढ़ाते और घटाते हैं। आज हम सभी इसी बाजार के हिस्सा हो चुके हैं। कपड़ों के हिसाब से तन की लंबाई, मुटाई किया करते हैं।
कपड़ा हो या जूता। बड़ा हुआ तो छोटा करा लेते हैं। छोटा हुआ तो किसी और के लिए खरीद लिया करते हैं। सेल के इस माहौल में कुछ और नहीं हो सकता। सेल में खरीद्दारी करेन का जनून किस कदर हावी होता है कि जरूरत न हो तब भी हम बाजार की चपेट में आ ही जाते हैं। न साल नहीं अगले साल पहनेंगे। सर्दी के कपड़े गर्मियों में ही खरीद लेते हैं समझदार किस्म के लोग जो ठहरे। क्यांेकि सर्दी में यही कपड़े महंगे हो जाएंगे इसलिए गर्मी में ही सर्दी के कपड़े खरीद कर जमा कर लेने की आदत से मजबूूर हो चुके हैं। जूता यदि मन मुताबिक दिख गया तो खरीद ही लेते हैं। ज़रा ढीला हुआ तो क्या कपड़े ठूंस कर पहन लेंगे। शर्ट टाईट हुई तो सर्दियों मंे स्वेटर के नीचे पहने लेंगे। इस तरह से हम खरीद्दारी किया करते हैं।
हम बढ़े समझदार हो चुके हैं। समझदारी तो गोया टपका करती है। बाजार में गए नहीं कि कुछ न कुछ तो खरीदना ही है। यह हम मान कर चलते हैं। यही कारण है कि माॅल्स लगातार बेतहाशा खुलते ही जा रहे हैं। देखना यह दिलचस्प होंगा कि यह भेड़चाल कब और कहां जा कर रूकने वाली है।

Thursday, October 15, 2015

हिन्दी की कार्यशाला 12 से 14 अक्टूबर 2015


हिन्दी की कार्यशाला में इस बार 12 से 14 के दरमियान 15 प्रतिभागी थे। इस कार्यशाला में पहले दिन डाॅ रमेश तिवारी, डाॅ जय शंकर शुक्ल और तीसरे दिन श्री कौशलेंद्र प्रपन्न बतौर प्रशिक्षिक थे। पहले दिन कहानी शिक्षण पर डाॅ तिवारी के बातचीत की। वहीं दूसरे दिन डाॅ शुक्ल ने कविता शिक्षण के तौर तरीकों पर विस्तार से गतिविधियों को शामिल कर शिक्षण कौशलों पर संवाद किया। तीसरे दिन श्री कौशलेंद्र प्रपन्न ने भाषा शिक्षण, भाषा कौशल और भाषायी परिवेश और बच्चों के शिक्षण में भाषा के महत्व पर बातचीत की।
उद्देश्यः
     प्रतिभागी शिक्षण कार्यशाला में भाषा की समझ और भाषायी शिक्षण कौशलों से वाकिफ हो सकेंगे
     कहानी कविता और हिन्दी की अन्य विधाओं को कैसे रोचक तरीके से पढ़ाया जाए इसकी जानकारी हासिल कर कक्षा में इस्तमाल कर सकेंगे
     स्वयं और बच्चों में कल्पनाशीलता और रचनात्मकता के अवसर निकाल सकेंगे
तीन दिवसीय हिन्दी की कार्यशाला में कक्षा 4 और 5 के शिक्षक उपस्थित थे। इस कार्यशाला के उद्देश्य जैसा कि उपरोक्त लिखा गया है हमने तीन दिन की कार्यशाला को इसी के अनुरूप बाटा था।
पहले दिन डाॅ रमेश तिवारी ने प्रतिभागियों के साथ कविता शिक्षण पर विस्तार से बातचीत की। उन्होंने गतिविधियों के जरिए कविता शिक्षण पर व्यापक परिचर्चा की। साथ गतिविधियों के मार्फत कैसे पढ़ाया जाए इसे उदाहरण के जरिए प्रस्तुत किया और सामूहिक प्रस्तुति भी कराई गई।
दूसरे दिन डाॅ जय शंकर शुक्ल ने कहानी शिक्षण पर सामूहिक कार्य तो कराया ही साथ ही प्रतिभागियों से कहानी लेखन का कार्य को भी अंजाम दिया गया।
तीसरे दिन श्री कौशलेंद्र प्रपन्न ने भाषा शिक्षण, भाषा कौशल, भाषा का परिवेश, भाषा का समाज और बच्चों में भाषा यानी हिन्दी के संदर्भ में रूचि कैसे पैदा की जाए इस पर बातचीत की। वहीं अंधेर नगरी कविता का नाट्य मंचन भी किया गया।
कौशलेंद्र प्रपन्न

हिन्दी भाषा विभाग

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...