Friday, May 19, 2017

आईटी सेक्टर कर्मियों की छंटनी शुरू


सूचना तकनीक सेवा में इन दिनों अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं। आईटी कंपनियों में इन दिनों बड़ी तेजी से उच्च पदों पर कर्मियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। एलिक्जर, एचसीएल,टेक महिन्द्रा आदि ने अपने कर्मियों की छंटनी शुरू कर दी है। कुछ कंपनियों में वीपी स्तर के कर्मियों को एचआर बुलाकर विकल्प दे रही हैं कि छह माह या साल भर की सैलरी लेकर कल से आना बंद कर दें। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि जिन्हें इस विकल्प से गुजरना पड़ रहा होगा उनपर क्या गुजर रही होगी। हालांकि अभी जिन लोगों को यह विकल्प दिया गया है उनकी सैलरी करोड़ रुपए तो हैं ही। यह एक कौशल विकास भारत की दूसरी तस्वीर है। एक ओर स्कील इंडिया पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं वहीं उसी देश में जॉब्स जा रही हैं। लोग बेरोजगार भी हो रहे हैं। आईटी सेक्टर के जानकार ताकीद कर रहे हैं कि यह एक वैश्विक मंदी का दौर है। सन् 2008-10 के दरमियान आई मंदी की पुनरावृत्ति है। विशेषज्ञों को मानना है कि आने वाले तीन साल तक हर साल दस लाख से भी ज्यादा नौकरियां कम से कम आईटी सेक्टर में खत्म होने वाली हैं। मैक्कींसे की जनवरी में आई रिपोर्ट की मानें तो भारत में आईटी सेक्टर ने 3.7 मिलियन जॉब्स प्रदान की हैं। लेकिन इस रिपोर्ट में यह भी हिदायत दी गई है कि आने वाले दो तीन सालों में इनमें से आधी अप्रासंगिक हो जाएंगी। यानी आईटी के जिस क्षेत्र में आज कर्मचारी काम कर रहे हैं कल उन्हें नई तकनीक का सामना करना होगा जिसके लिए वे तैयार नहीं होंगे। इस बाबत उन लोगों की नौकरियों पर तलवार लटकी हुई है।

Thursday, May 11, 2017

दक्षिणभर बैठी बेचूआ की माई-

ताक रही है लगातार
बरस बीते
बरसात गई,
घुरना जो गया
लौटा नहीं।
सुना है-
उसकी एक सुन्नर पतोहू है,
सेवा टहल करती,
उमीर गुजर रही है।

Wednesday, May 10, 2017

सरकारी स्कूलों में छुट्टियां


सरकारी स्कूल अब तकरीबन सवा महिने के बाद खुलेंगी। शिक्षकों को भी इन अवकाश में घर जाने, घुमने फिरने का मौका मिलेगा और बच्चों को भी। बच्चे अपनी अपनी नानी, दादी के गांव जाएंगे। कुछ समय के लिए शहराती बरतावों से दूर गांव की हवा खाकर आएंगे। जिनके पास उड़ने के पैसे हैं वे देश विदेश घूम कर आएंगे। और जो यहीं रह जाएंगे वो अपने अपने घरों में रहेंगे। कुढ़ेंगे और कोसेंगे।
शिक्षकों के पास इन छृट्टियों का सही इस्तमाल की कोई येजना तय नहीं होती। अपनी व्यावसायिक कौशल विकास, दक्षता आदि की योजना न होने के कारण वे वहीं के वहीं रह जाते हैं। जबकि सरकारी स्तर पर इन छृट्टियों में कुछ कार्यशालाओं को आयोजन होता है जिसमें वे बेमन और दबाव में आया करते हैं। जबकि उनकी खुद की इच्छा होनी चाहिए ताकि वे अपना प्रोफेशनल विकास कर सकें।
शिक्षक वर्ग में यह सवा महिने पूरी तरह से छृट्टियों के तौर पर आते हैं। इनका इस्तमाल वे केवल घर-देहात घूमने और घर ठीक कराने में लगाते हैं। जबकि होना यह भी चाहिए कि वे अपने इस समय का सदुपयोग अपनी दक्षता और व्यावसायिक विकास के लिए भी करें। अमूमन देखा तो यही जाता है कि वे घरेलू कामों और निजी व्यस्तता में अपने प्रोफेशन को भूल जाते हैं।

सिमट गई


सिमट गई कहन
अपनी खुशी भी बयां करते हैं
वाट्सएप के मार्फत,
ग़म ग़र हो कोई तो भी,
फेंक आते हैं
किसी सोशल प्लेटफॉम पर।
बजबजाते रहते हैं,
कुढते भी रहते हैं ख्ुदी में
न किसी से कुछ कहते हैं
न सुनते हैं किसी की,
बस मुंह फुलाए घूमते हैं।
ये कैसा दौर है बाबुजी
अकेले में चाहते हैं
किसी दूर ख़ाब को जीने की
चाह पूरी जीते हैं
मगर आकाशीय मंचों
रिश्तों में तलाशते हैं
कुछ पल सकून के,
कुछ चाहते जो रहती हैं दूर।
ये ऐसा ही दौर आया है बाबुजी,
न पास रहते जी पाते
न ही दूर ही रह सकते,
तो फिर कहीं दूर निकल जाते हैं,
एक सकून की तलाश में।
कहीं क्या जाएं,
कहते हैं
गरमी है
आज ज्यादा घर में ही रहें
सरदी है काफी
कहां जाएं
किसी से मिलने।

Friday, May 5, 2017

बर्फ का पिघलना


सिर्फ पहाड़ां पर ही बर्फ नहीं पिघलते। बल्कि रिश्तां के दरमियान भी बर्फ मेल्ट होते हैं। कोई भी रिश्ता स्थाई भाव में नहीं रह सकता। स्थाई जब कुछ है ही नहीं तो रिश्ते कैसे एकल, एकांत में पनप सकते हैं। रिश्तों को पनपने के लिए समाज और व्यक्ति की दरकार होती है।
देश और समाज के बीच भी एक आइस बर्क बन जाता है जिसका इल्म हमें नहीं होता। यह धीरे धीरे मजबूत होता है। इसकी गहराई का अनुमान भी कई बार नहीं होता। और हमारे रिश्तों का जहाज इससे टकरा जाता है।
आप लाख तर्जेबेकार कैप्टन हों। आप के पास हजारों घंटों का अनुभव हो। लेकिन एक चूक, एक ग़लती जहाज को डूबोने के लिए काफी होती है। रिश्तें भी तो ऐसे ही होते हैं। यदि हमने रिश्ते की गहराई और जड़ को ठीक से नहीं समझा तो वह रिश्ता आइसबर्क से टकरा कर डूब जाता है।
पाकिस्तान और भारत का रिश्ता ही लीजिए तकरीबन सत्तर साल से यह आइस एक पहाड़ बना है। इसे एक दिन में न तो तोड़ सकते हैं और न ही पिघला ही सकते हैं। दरपेश बात यह है कि क्या हमारी कोशिश पूरी है कि हम रिश्ते को ठीक करना चाहते हैं। ग़लतियां किसी भी रही उसका ख़ामियाज़ा तो बड़े स्तर पर समाज और वहां-यहां के नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है।
इतिहास में अटकी हुई चेतना न तो समाज, न व्यक्ति और न ही देश हित में होती है। हमें अतीत में अटकी हुई चेतना से आगे निकला ही पड़ता है। इतिहास हमें इसकी समझ देता है कि अतीत की ग़लतियों को ध्यान में रखते हुए कैसे बेहतर आज का निर्माण कर सकते हैं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...