Saturday, December 31, 2011

साल को सलाम

आदतें इतनी जल्दी नहीं बदलतीं . समय का दरकार और लगातार चेक मांगता है. वरना समान गलतियाँ हम दुहराते रहते हैं. परिणाम वाही धाक के तीन पात.
देश के साथ भी यही है. चाहे शिक्षा का अधिकार कानून हो या महिला कानून बिल अब इसी कतार में लोकपाल बिल भी खड़ा हो चुका है. इस के साथ क्या होगा यह आने वाले साल में कुंडली बाची जायेगी. जनता बेवकूफ बनती है और बनती रहेगी. जब तक की वो जागृत नहीं होती.
जागरण इतना आसान नहीं. सोने में जो आनंद मिलता है उसे तोड़ना आसान नहीं. लेकिन आवाज़ लगाना फ़र्ज़ है. अन्ना ने आवाज़ लगे अब देखना है देश की नींद कब टूटेगी.
आने वाला साल हम सब के लिए शुभ हो.
ऋग्वेद का मंत्र साझा करता हूँ-
सम्गाचाध्वम सम्वादावाम संवो मनांची जनानतम...
यानि हम साथ साथ चलें, सामान बोले और हमरी मनांचा सम हो.                  

Thursday, December 29, 2011

टटोलने के दो दिन या पूरा साल

महज दो दिन शेष रह गए हैं. दनादन अखबार अपने पन्नों के पेट भरने लगे हैं इस साल देश के लिए किस एरिया में क्या रहा? क्या प्रगति हुई और क्या और कहना चाहिए चुक कहाँ गए का विश्लेषण जारी है. साहित्य की हर विधा में महारथी रेखांकित करने में जुड़े हैं कविता, कहानी समीक्षा आदि में किस किताब को ज्यादा ताली मिली और किस किताब को समीक्षों की गाली मिली. पिछले पाच सालों में देख रहा हूँ , बच्चों की किताबें कब आइन कैसी आइन या अगर आप जानना चाहें की कहानी या उपन्यास बचूं के लिए किसने लिखी या उसका नाम क्या है यह विश्लेषण इक्सिरे से नदारत है.
हर किसी को इन दिनों देख सकते हैं जो मनन में लगे हैं की उनके लिए यह साल कैसा रहा? कहाँ चूक गए और कहाँ चप्पर्फाद मुनाफा हुवा. अगले साल के लिए कुछ खुद से वायेदे यह नहीं करूँगा, वह कटाई नहीं दुह्रावो  होगा आदि आदि.
साहिब खुद में झाकना इतना आसान नहीं. हम पहले दुसरे के गिरेबान में झांक कर देखते हैं वह कितना नीचे है. जबकि हमहीं धरातल पर नहीं होते.
जो भी हो साल पल दिन घडी हम सभी के लिए शुभ हो. हमारे मान सामान और प्रेम बरक़रार रहे. हमने इस साल कई स्वरों को ख़ू दिया. उन्हें शांति ....               

Tuesday, December 27, 2011

मौत का खौफ

मौत का खौफ बेहद हावी होता है जिस में इंसान पूरी ज़िन्दगी लुका छिपी का खेल खेलता रहता है. कभी दूर भागता है तो कभी सच के रूप में कुबूल करता है. लेकिन हकीकत है की इंसान यदि किसी चीज से डरता है तो वह है मौत. मौत को हमारे कुछ लोगों ने बड़ा ही भावः और दर्दीला बताया है. मौत मायने अंतिम सत्य, अकाट्य परिणति और न जाये क्या क्या बिम्बों में बंधने की कोशिश की गई है. जबकि गीता इन सब पर से पर्दा उठता है-
अजो नित्यं सहस्वतो अयं... न हन्यते हन्यात्ये शरीरे....
अर्जुन को समझाने के उपक्रम में गीता की रचना सच पुचा जाए तो इंसान के मया मोह के बांध को निर्बंध करने की कोशिश है. लेकिन फिर भी हम हैं की उस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते. हाँ, खुद को अजर अमर मान बैठते हैं.
मौत कोई छोटी चीज नहीं. लेकिन बात बात में कह डालते हैं मर गए यार. मौत है ...बला बला जबकि मौत इतनी सस्ती नहीं होती और ना ही भयावह. मौत को तो हमारे षोडश संस्कारों में अंतिम संस्कार मन गया है. जब कोई बुजुर्ग समय पर कुछ करता है तो इक उत्सवा का सा अंतिम यात्रा सजती है. गाजा बाजा भी साथ होता है. हाँ यदि असमय आकाश की और चल पड़ता है तो उसके जाने का गम ज़्यादा होता है. कई सारे काम, जिमीदारियां पीछे रह जाई हैं.
पाश की पंक्ति उधार ले कर कहूँ तो-
मौत खतरनाक नहीं होती,
आग भी नहीं,
खतरनाक होता है,
आखों में सपने का मर जाना....                           

Monday, December 26, 2011

जाने के बाद....

जाने के बाद....
हाँ जाने के बाद सब कुछ बदल जाएगा,
बिस्तर समेत कर दूसरी जगह रख दिया जाएगा,
आपके पीछे आधी लिखी चिट्ठी यूँ ही रद्दी बना दिया जाएगा.
आपके पन्ने यूँ ही फडफडाते रह जायेगे...
बस आप ही नहीं होगें,
उन पन्नों को सम्तेने को,
कोई उसे पढने की जहमत नहीं उठाएगा,
बस कबाड़ मान उठा कर बेच दिया जाएगा.
कोई इस कदर अचानक...
हमारे बीच से,
चला जाए तो कैसा लगता होगा?
शायद इक राहत की साँस,
की चलो चला गया,
खामखा बात काट कर ,
रखता था अपनी बात,
की बीच बहस में खुद पड़ता था,
ये तो बदिया हुवा,
उसके जाए के बाद,
मौक़ा तो मिला,
खुद को आगे बढाने को...
लोग आगे बढ़ने को क्या नहीं करते,
वो गया तो जाते जाते रह तो खाली कर गया....
पर सच है आज भी_
जाने वाला ,
जा कर भी जा नहीं पाता,
दूर हो कर भी होता है पास,
बेशक कटु अनुभव ही सची,
पर होता तो है...                      
     

Sunday, December 25, 2011

लोकार्पण इक किताब का

इक किताब के बहाने कई सरे विचार, भाव और तंतुएं खुद बा खुद खुलतीं चली जातीं हैं. कितने ही भाव और अर्थ भी धुंध लिए जाते हैं. कोई नारी विमर्श तो कोई नारी का देह विमर्श या फिर उत्तराधुनिक महिला का देह द्वन्द वर्णन में चावो, आनंद और काम के भाव धुन्धने वाले भी का म नहीं होते.
लिखने वाला बेशक जिस भी भाव से लिखा हो लेकिन पाठक व आलोचक उसकी लेखिनी में न जाने क्या से क्या भाव और मायने तलाश लेता है. आज की तारीख में एक महिला का लिखना एक सिरे से स्वभोगित जीवन की तस्वीर करार दिया जाता है. जब की खुद आलोचक , लेखक मानते हैं की कई बार पर काया प्रवेश की तरह ही पर भाव गमन भी लेखक करता है.
आज की तारीख में किसी के पास कहने को कुछ भी तो नहीं है. अगर कुछ है तो बस सेल फ़ोन पर गाने, मेस्सगेस ,  आदि डाउनलोड करना होता है. हर मोमेंट के फोटो खीच कर लोगों की तारीफ़ पाना होता है. सिर्फ बताना, अपनी सुनाना न की किसी की सुनने की चाह होती है.
अगर कुह कहना है तो कह डालो बजाये की पहले शिकायत की पुल बंधा जाए फिर हाल समाचार या कहने की बात राखी जाए.              

Saturday, December 24, 2011

ध्यान दें अन्ना जी

अन्ना जी आपका इरादा बेहद तारीफ़ ये काबिल है. आप अपने लिए नहीं बल्कि देश के लिए लड़ रहे हैं. देश की आवाज़ आपके साथ आवाज़ मिला रही है. 
लेकिन बॉम्बे में इतने महंगे मैदान लेने की क्या जरूरत थी. आप ने कहा हम ये पैसा लोगों से चन्दा से लेंगें. आपको पता होगा की हमारी जनता दो पहर में रोटी खाती है तो शाम का कुछ पता नहीं होता. वो बेचारा रात दिन रोटी कपडा और किड्स के फ़ीस जुगाड़ने में यदि घिश देता है. 
कुछ तो यैसे भी हैं जो रात पेट दबा कर सो जाते हैं.  देश के पप्पू क्लास से बाहर कूड़ा चुनता अपनी ज़िन्दगी बसर कर देता है. देश को नै दिश में ले ही जाना है तो अपने देश के अंकुर को ठीक करना होगा. जो स्कूल जाते हैं उनको यह तक नहीं मालुम की इंदिरा सोनिया और गाँधी में कोण ज़िंदा हैं ? कैसी शिक्षा मिल रही है यह किसी से छुपा नहीं है. 
कभी इस तरफ भी ध्यान दें अन्ना जी 
आमीन          

अन्ना जी अन्ना जी....

अन्ना जी अन्ना  जी....
क्या हुवा आपको,
जनता की म्हणत की कमाई,
मांग बॉम्बे में मैदान के किराए भरने ,
बैठने अनशन पर,
क्योँ चलेगये......
अन्ना जी अन्ना जी...
जरा सोच्लेते,
८, ९ लाख रुप्यी बोहोत होते हैं,
जनता अपने घर के मरमत्त कराई दे ,
बच्चे की फ़ीस दे या,....         

Friday, December 23, 2011

इन्सान से....

इन्सान से जगहों के मायने बदल जाते हैं,
तस्वीरों में मुस्कान जजब हो,
सदियों तलक यूँ ही मुस्कान बिखेरते रहते,
साथ में क्लिक करने वाला हाथ भी देख रहा होता,
इक चेहरे को दूर से देख कर कैद करने में उसका भी हाथ है.....
बेहद खुबसूरत चेहरा है...
चेहरे की मुस्कान,
न न मुस्कान नहीं ये हसी साफाक...
हमेशा आपकी और खीचती है.       

Sunday, December 11, 2011

चले जाने पर खालीपन हो

किसी भी समाज में शुन्य तब पैदा होता है जब किसी के चले जाने पर खालीपन हो जाए. किन्तु येसा ही तो नहीं होता. रामानुजन, जजे कृष्णमूर्ति, गाँधी जाते हैं तो दुसरे लोग उस जगह को भराने को आगे आ जाते हैं. यह स्थानापन्न कह सकते हैं. लेकिन दरअसल हकीकत में किसी के जाने की भरपाई नहीं होती. इक इकाई का जाना पूरी तरह से जाना ही मन जाएगा.
यह अकाट्य नियम है की जनम और मृतु दोनों ही अटल है. जनम तो हाथ में होता है की आप किसी जीव को धरती पर स्थापित कर सकते हैं लेकिन उसे अपनी जरूरत के अनुसार रोक नहीं सकते. जिसे ऑफ होना है वो होगा ही. कबीर की पंक्ति याद आती है -
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है , बाहर भीतर पानी,
फुटा कुम्भ जल जल ही सामना ये तट बूझो जयनी.
किसी का हमारे बीच से चला जाना वास्तव में इक रिक्त स्थान छोड़ जाना ही है. बस उसके संघ बिठाये पल, घटनाएं महज हमारे अन्दर गाहे बगाहे बजती रहती हैं. किसी ख़ास अंदाज़, आवाज या उसके बोलने , हसने में जब भी साम्यता मिलते हैं . और हम इक बार उसकी याद में खो जाते हैं.
कभी सोच कर देखें की अचानक कोई शांत हो जाता है. हमारी इस दुनिया से यक पलक उसका कनेक्शन टूट जाता है. फिर लाख कोशिश के बावजूद वो हमारी पकड़ में नहीं आता.                       

Saturday, December 10, 2011

कुछ सवाल

कुछ सवाल बेहद दर्दीले बीते पलों और घ्त्नावो की याद दिलाते हैं. युन्हे याद कर या सवाल को दुहरा कर तकलीफ होती है. मसलन १९४७ के कसूरवार किसे मानें? मस्जिद गिराई गई उसके दोषी किस चेहरे को माने. उसी तरह कैदफा हमारे बीते पल भी सवाल करते हैं. जिनका जवाब बेहतर वाही दे सकता है जो निरपेक्ष हो कर मंथन कर   सके. लेकिन इस काम में इक खतरा है की हम खुद को बचाते हैं और सामने वाले पर दोषारोपण करते हैं.
   दोषारोपण के आगे हमारा विवेक जवाब दे जाता है. दुसरे शब्दों में कहे तो हम अपना पक्ष छुपा कर सापने वाले के सर पर ठीकरा फोड़ते हैं. देश के वर्त्तमान पोलिटिक्स और संसद की करवाई को देख कर भी यह झलक मिल सकती है.  विपक्ष ताल ठोकती है, हमने शासन दो फिर देखो हम चला कर दिखा देंगे. मगर जब सत्ता में होते हैं तब तमाम वायदे भूल जाते हैं. दोष मढना आसन होता है. जीना मुश्किल वो भी सच के साथ.                 

Friday, December 9, 2011

रिश्ते वही जीते हैं जो सच होते

रिश्ते वही  जीते हैं  जो सच होते हैं. सच इन्सान और सन्दर्भ सापेक्ष होते हैं. जब हम कोई रिश्ता बुन रहे होते हैं तब ख्याल नहीं होता की किस शब्द के क्या और कितने गहरे मायने होगें जब आप किसी कारण से अलग रह पर चल पड़ेंगे. लेकिन हम कई सारे वायदे अलफ़ाज़ खर्च देते हैं बिन विचारे.
समय और सन्दर्भ बदल जाने पर यूँही शब्दों के मायने भी अपने अर्थ पीछे दरकिनार कर देते हैं.  जरा सोच कर चलना हर किसी "म्हाज्नाह एन न गतः सह पन्था"    यूँ ही नहीं कहा है.    

Tuesday, December 6, 2011

उनीस साल पहले

उनीस साल पहले अयुध्या में जो कुछ हुवा वो क्या था आज जब यह सवाल सामने होता है तो जबान लाद्खादा जाती है.
पर उसी सरयू के तट पर हज़ारो हज़ार नर नार अपनी पहचान खो कर हम से पूछ रहे हैं क्यूँ जी कैसे हैं आप सब ?
राम के ललाट पर जरुर सिकन आई होगी. बगले झाकते राम को देखा है आपने ?  

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...