Friday, February 26, 2010

रंग प्यार के

बिन भेद वाले रंग,

जिस रंग में न हो भेद किसी कौम या कि धर्म कि,

रंग हो तो बस प्रेम और स्नेह कि,

क्या उस पर क्या उन पर सब पर,

रंग हो इक सा।

वह रंग न डाले-

कोई भी यैसे रंग जिस में,

दिख जाये उपरी प्यार कि,

मुस्कान।

आप सभी को रंग प्यार के मुबारक।

Friday, February 19, 2010

ज़िन्दगी यूँ ही चलेगी

ज़िन्दगी यूँ ही चलेगी , चुकी हम किसी से समझोता नहीं करते। जबकि ज़िन्दगी में तो सुख दुःख तो पहिया के समान चलते रहते है। लेकिन हम तो सुख का दामन हाथ से निकलने नहीं देते। हमारी कोशिश तो यही होती है कि हम बेहतर ज़िन्दगी जीयें। लेकिन हम जैसा चाहते हैं वैसा हर समय कहाँ होता है। कोई जिसे आप या हम बेहद करीब मानते हैं जब उससे रुखसत की बरी आती है तब दिल बैठना शुरू होजाता है ।

छह कर भी उससे दूर नहीं जा पाते। लाख मनन कर लेते हैं कि यह गलत है लेकिन दिमाग हमेशा से ही बस अपने बारे में ही सोचता है। यैसे में प्यार, नफरत, दूरिय, सब के सब रह रह कर चहलकदमी कर ने लगते हैं। यैसे में कोई खुद के अपने प्रिय से को अलग कर सकता है। अलग होने या करने के लिए मनन, चिंतन जैसे भावुक पलों को बिलकुल भूलना पड़ता है। कठोर हो कर सोचना होत्ता है।

मन क्या करे उसे जब इन्द्रिय अपनी और खेचती हैं तो वह रुक नहीं पाटा। यही वो पल होता है जब इन्सान खुद को धुखा देता है। खुद के साथ झूठ बोलता है। जब की मनन हकीकत जनता है। बस दिल इसे शिकार नहीं कर पाटा।

जब की यह सच है कि इन्सान को अपनी जमीन देखनी चाहिए।

Friday, February 12, 2010

कुम्भ में स्नान

कुम्भ में स्नान को लेकर जिस तरह से भीड़ हरिद्वार में जमा हुई है उसे देख कर लगता है समस्त देश गंगा के तट पर जमा है। देश की आर्थिक, सामाजिक या फिर राजनीतिक हालत जो भी हो हमें स्नान करने से वास्ता है। वहां की जनता परेशां होती है हो। स्कूल, कॉलेज बंद रहें तो हों। मगर स्नान में किसी भी किस्म की बदिन्ताज़मी बर्दास्त नहीं होगी।

कुम्भ में अखाड़ों में पहले मैं पहले मैं की लड़ाई में किसे कदर आम जन को भय से गुजरना होता है उसका अंदाजा लगा सकते हैं। मगर न तो सरकार और न ही अखाड़ों को इससे कोई खास लेना होता है और न ही स्नान करने वालों को।

साधू समाज को समाज के प्रति भी कोई जिम्माधारी होती है है तो उसका पालन किया जाना चाहिय। लेकिन साधू समाज का वास्ता स्नान से ज़यादा होता है। काश वो लोग समाज की सर्स्कृति व् धर्म या फिर संस्कार के लिए स्चूलों में नैतिक मूल्यों का प्रसार करें तो कम से कम आज के बच्चों में कुछ मूल्य, संस्कार या फिर भारतीय धरोहरों के बारे में लगाओ पैदा करने में रूचि जागेगी। लेकिन इस काम के लिए मेहनत करना होगा। साधू समाज को धार्मिक कर्मकांडों से फुरशत ही कहाँ है जो इस काम में समय दे सकें।

Wednesday, February 10, 2010

बेगुन हुवा ब्रिंजल

बेगुन हुवा ब्रिंजल, आखिर जनता और जैव संबर्धित उत्पाद पर चल रहे विवाद का अंत हो गया। जय राम रमेश ने आख़िरकार जैव आधरित बैगन के उत्पाद को लेकर सरकार के कदम का खुलासा कर दिया। पहले तो रमेश १० फरबरी को येलन करने वाले थे लेकिन इक दिन पहले ९ तारीख को ही घोषणा कर दी कि फ़िलहाल भारत में जैव आधरित उत्पाद के लिए प्रयाप्त समय नहीं है।

इस एरिया में अभी जाँच पड़ताल करना बाकि है। पूरी तरह से सुरक्षित है इस बात की पुस्ती जब तक नहीं हो जाती इस मौसदे को सरकार आगे नहीं बध्यागी।

यानि बैगुन का भरता निकल गया। हो भी क्यों न बिना पूरी तहकीकात के बेगुन की जैविक खेती का मन बनालेने से तो बात नहीं बन जाती। इसीलिए इस परियोजना को मुह की खानी पड़ी। जानकारों का मानना है कि इस पारकर कि खेती से न केवल इन्सान पर बल्कि जीव जनत्वों पर भी बुरा असर पद सकता है। अमरीका में कपास की जैविक खेती के दौरान पाया गया कि जिन जनत्वों ने उस पौद्ध को खाया था उनकी या तो मौत हो गई या फिर उनकी किडनी में खराबी पायी गई। यैसे में बिना पर्याप्त जाच पड़ताल के आनन् फानन में सरकार इस मौसदे को अमली जामा पहनना चाह रही थी।

मगर देश की जनता और खुद देश के ११ राज्यों ने जैविक बैगुन की खेती के खिलाफ आवाज बुलंद कि की हम अपने यहाँ जैविक खेती नहीं होने देंगे।

Monday, February 8, 2010

कुम्भ में चक्षु स्नान करने वाले

कुम्भ में चक्षु स्नान करने वाले

चक्षु स्नान करने वालों की अची खबर ली है। सही है कि कुछ लोग नहाने कम नहाते हुए का देह दर्शन करने आते हैं और देह दर्शन से तृप्त होकर अपने अपने घर लौट जाते हैं। इस कर्म में क्या बूढ़े और क्या बच्चे, क्या मीडिया कर्मी और क्या आमजन सब के सब यहाँ नंगे हैं।

आपकी इस टिपण्णी पर कुछ लोग जिनकी चमड़ी अभी नर्म होगी उन्हें ज़रा चुभ सकती है। चलिए कम से कम सुधर जाये तो सार्थक हो। आदते इतनी ज़ल्दी कहाँ जाती है। जाते जाते टाइम लग जाता है।

Wednesday, February 3, 2010

चंद सवाल यूँ ही टंगे रहते हैं

हाँ कुछ सवाल यूँ ही हमारे आगे टंगे रहते हैं गोया किसी ने उन्हें कह रखा हैं कि जब तक न कहा जाये तब तक यूँ ही बने रहना है।
मसलन क्या प्यार महज किसी का बे इन्तहां चाह ही है? क्या उस चाह को इतना प्यार करना गुनाह है कि किसी दिन यही बोल पड़े कि यार इतना प्यार मत किया करो।
कभी कभी लगता है कि इक सीमा प्यार में होती है। गर किसी को ज़यादा प्यार करेंगे तो संभो है वो सोचने लगे कि आखिर माज़रा क्या है?
इसलिए बंधू यह सवाल हमेशा ही तंग जाते हैं कि कहीं आप के प्यार को सामने वाला आपकी कमजोरी तो नहीं मान बैठा है? कहीं आपका प्यार उसे खीझ तो पैदा नहीं करती? सवालों की लम्बी कतार लग सकती है। मगर खतम नहीं होगा सवाल।
सो ज़रा सोच तो लें क्या प्यार उतना ही दिया या किया जाए जितना पाच जाये।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...