Friday, June 23, 2017




विडुआ : शेखर जोशी की रचना का बाल मंचन
प्यारे लाल हॉल में शेखर जोशी की रचना विडुआ का बाल मंचन देखकर ज़रा भी महसूस नहीं हुआ कि इसे बच्चों ने कितनी शिद्दत से जीया। इस नाटक के सह निर्देशक श्री गौरव वर्मा ने अपनी आवाज और निर्देशन से जीवंत बना दिया। गौरव वर्मा सचमुच पूर्वी दिल्ली नगर निगम स्कूल के हजारों शिक्षक, अधिकारियों और दोस्तों को यह संदेश देने में कामयाब रहे कि अपनी रूचि को पंख लगा सकते हैं।
विडुआ पहली बार सुनने में अर्थ स्पष्ट नहीं करता। जैसे पंचलाइट वैसे ही विडियो को विडुआ कहा गया। गांव की भाषा,बोली, पहनाने के साथ बच्चों ने इस कथानक को िंजंदा कर दिया।
मंचन के बाद दिल्ली हिन्दी अकादमी की उपाध्यक्ष सुश्री मैत्रयी पुष्पा और सचिव डॉ जीत राम भट्ट ने फूल दे कर स्वागत किया। दिल्ली अकादमी ने ग्रीष्म कालीन बाल नाट्य रंग महोत्सव का आयोजन किया जिसमें दो सौ से भी ज्यादा बच्चों ने हिस्सा लिया।

Thursday, June 22, 2017

लिंग बदलो


बचपन में,
बदल देता था
तमाम लिंग।
लड़का-लड़की,
वचन भी बदल देता था,
एक को बहुवचन में।
मास्टर जी-
सीखाते,
लिंग वचन बदलो
और झट से बदल देता था दुनिया के लिंग।
अब जब
बड़ा हो गया हूं
एक लिंग भी नहीं बदल पाता।
स्त्री लिंग-पुंलंग में-
सीखी तालीम,
सब गड़बडत्र हो गई।
िंलंग बोध-
गोया भूल सा गया हूं,
सब के सब नपुंसक लिंग नजर आते हैं।

Wednesday, June 21, 2017

टेक महिन्द्रा फाउंडेशन में योग दिवस



वैश्विक स्तर पर योग दिवस पर उल्लास और प्रसन्नता देखी गई। हजारों लाखों की संख्या में लोगों ने योग यानी आसन कर एक अच्छा संदेश दिया। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन ,में  दिल्ली के अंतःसेवाकालीन अध्यापक शिक्षा संस्थान में भी योग गुरू राम लवण जी के निरीक्षण में योग के विभिन्न आयामों पर चर्चा हुई और सौ से ज्यादा शिक्षकों ने आसन कर बच्चों के बीच योग पहुंचाने की वजनबद्धता प्रकट की।

Tuesday, June 20, 2017

शिक्षक बिना पगार कब तक पढ़ाए

कौशलेंद्र प्रपन्न
दिल्ली व दिल्ली के बाहर विभिन्न राज्यों में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों को नियमित वेतन नहीं मिल पाते। अब तो यह ख़बर भी नहीं बनती। यदि ख़बर बनती भी है तो वह महज अन्य ख़बरों की मंड़ी में शामिल हो जाती है। यदि दिल्ली की बात करें तो पूर्वी दिल्ली नगर निगम के प्राथमिक शिक्षकों को अमुमन हर तीन चार माह पर वेतन मिला करती हैं। यह सिलसिला पिछले तकरीबन तीन साल से बतौर बिना रूकी जारी है। गौर करें कि शिक्षक दो या तीन ही वजहों से ख़बरों में आता है। या तो वह धराना प्रदर्शन कर रहा होता है या फिर परीक्षा में परिणाम ख़राब आए हों। जब गुणवतापूर्ण शिक्षा की तहकीकात होती है और बच्चे अपने कक्षानुरूप समझ नहीं रखते तब शिक्षक की गर्दन मापी जाती है। पूरे साल शिक्षक किन हालातों में शिक्षण करता है इसकी ख़बर लेने कोई नहीं आता। जो आते भी हैं तो वे नसीहतों के गट्ठर लाद कर चले जाते हैं। रिपोर्ट में बताई जाती है कि शिक्षक ठीक से पढ़ाते नहीं हैं इसलिए परीक्षा परिणाम ख़राब हुए। क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की कि वह शिक्षक बच्चे आधार कार्ड बनवाने और बैंक के खातों के साथ संबद्ध कराने में कितना समय बरबाद कर चुका है। क्या यह जानने की जरूरत महसूस की गई कि शिक्षक कितने और किस स्तर के बच्चों के साथ वह काम कर रहा है। हालांकि आरटीई कानून के बाद बच्चों को उम्र के अनुसार कक्षा में नामांकन देने का आदेश है। लेकिन यहां सवाल उठता है कि क्या एक कक्षा में बहुस्तरीय और बहुभाषी बच्चे हैं उनमें नए आए उम्र के अनुसार उन्हें कैसे पढ़ाया जाए इसकी तालीम व प्रशिक्षण उन्हें दिया गया। यदि ऐसा नहीं हुआ तो बच्चे कक्षा में पिछड़ेंगे। इसके लिए हमें जमीनीतौर पर शिक्षकों की दक्षता को बढ़ाने की आवश्यकता है न कि उन्हें पानी पी पीकर कोसते रहें।
इन दिनों पूर्वी दिल्ली नगर निगम तकरीबन 55,000 शिक्षक पिछले तीन माह से बिना वेतन के काम कर रहे हैं यह घटना अब उनके लिए नई नहीं है।लेकिन एक सवाल खडा हैकि कोई कितनी बार और कितने माह तक बिना वेतन के अपनी नैतिक और पेशेगत प्रतिबद्धता को बनाए रख सकता है।उन्हें भी बाल बच्चे पालने हैंहजार किस्म के खर्च हैं जिन्हें उठाने हैं आखिर वे कभी तो प्रदर्शन करेंगे। कभी तो कहीं तो आवाज उठाएंगे। गौरतलब हो कि जब भी शिक्षक सडक पर अपनी आवाज उठाकर कर उतरता हैतब यही बात गूंजती हैकि इन्हें तो पढ़ाना चाहिए। इन्हीं की वजह से बच्चे पढ़ नहीं पाते। इनकी नौकरी आधी दिन की होती हैआदि। यदि ऐसा ही हैतो क्यों न ऐसी बात करने वाले शिक्षक बन जाते हैं। उपदेश और हकीकत में इस पेशे को चुनने में काफी अंतर हैं
शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशाला में कुछ प्राथमिक शिक्षकों से बातचीत के दौरान मालूम चला कि पिछले साल नोट बंदी का असर स्कूलों पर भी देखा गया एकबारगी बात समझ में नहीं आई। नेटबंदी का असर सकूलां पर कैसे? तब शिक्षकों ने खुलासा किया कि जिन बच्चों के मां-बाप देहाड़ी मजदूर थे वे काम न मिलने की वजह से अपने गांव लौट गए। कक्षाएं खाली होती चली गईं। दिसंबर की छुट्टियों के बाद जो बच्चे घर गए वे लौटकर नहीं आए। हमें इतना दुख हुआ कि फलां बच्चा पढ़ने में कितना अच्छा था लेकिन अब वह स्कूल में नहीं है।कहीं किसी खेत व मचान पर काम कर रहा होगा। दिसंबर तक जहां कक्षाओं में पचास बच्चे थे वही जनवरी के बाद बीस बाइस रह गए। जो बच्चे छूट गए वो शिक्षा से ही गायब हो जाएंगे। यह स्थिति सिर्फ दिल्ली की नहीं हैबल्कि देश के विभिन्न राज्यों के महानगरों व मंझोले किस्म के शहरांं के स्कूलों के हैं। शिक्षक पढ़ाना तो चाहते हैं लेकिन या तो स्कूल में बच्चे नहीं हैं या फिर हैं भी तो उन्हें स्कूल और कक्षा से बाहर कर दिया गया।

Friday, June 16, 2017

शाबाश सूर्योदय!!! यूं ही अपनी सोच को हवा पानी दो...


उसकी बातें खोलती परतें बचपन की
सूर्योदय ने कहा ‘‘अंकल! आपके पास दस रुपए हैं?’’
मैंने कहा ‘‘हां है, क्या करोगे?’’
उसने कहा ‘‘दीजिए।’’ और उसने वो दस रुपए लगकर बल्टी हाथ में लिए बच्चे को पकड़ा दिया।’’ बच्चे ने खाने की बात कर रहा था।
मैंने पूछा ‘‘ऐसा क्यों किया सूर्योदय?’’
उसने जवाब दिया ‘‘ पापा उसे पांच रुपए देते हैं। पांच रुपए क्या आता है अंकल आप ही बताओ?’’
सूर्योदय ने आगे अपने बातें जारी रखीं।
उसने पूछा ‘‘क्या मैं आपसे कुछ पूछ सकता हूं?’’
और उसने सवाल पूछने शुरू किए।
‘‘अंकल पाकिस्तान का नाम पाकिस्तान क्यां और कब पड़ा?’’
मैंने उसे इतिहास की हकीकत को आसान बनाते हुए जवाब देने की कोशिश की। फिर मैंने यह जांचने की कोशिश की कि क्या उसे मेरी बात समझ में आई। और मैंने पाया कि उसे मेरी बात समझ में आ रही हैं।
‘‘अंकल चीन ने हम पर क्यों हमला किया? नेहरू जी ने क्या जवाब दिया था?’’
फिर मैंने उसे इन ऐतिहासिक तथ्यों से रू ब रू कराने की कोशिश की।
सूर्योदय के सवाल अभी रूके नहीं थे। उसके सवाल मुझे किसी और स्तर पर सोचने की ओर धकेल रहे थे।
और इस तरह से सूर्योदय से मेरी बातचीत तकरीबन आधे घंटे चली होगी। उस चर्चा के दौरान मालूम चला कि एक दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे की सोच और चिंतन प्रक्रिया कितनी तेज और किस दिशा में जा रही है। उम्र से बच्चे की दुनिया को आंकने की बजाए उसकी चिंतन भूमि को ध्यान में रखना चाहिए।
शाबाश सूर्योदय यूं ही अपनी सोच को हवा पानी दो

Wednesday, June 14, 2017

रचना का विद्रोह और लेखकीय प्रतिबद्धता


कौशलेंद्र प्रपन्न
लेखक व कवि या फिर कलाकार की रचनाएं यदि प्रसिद्धी के शिखर पर बैठाती हैं तो वहीं उसे देश-निकाला तक दे देती हैं। लेखक को दर ब दर भटकने को भी मजबूर करने की ताकत उसकी रचनाएं रखती हैं। लेखक व कलाकार को  विस्थापित करने की क्षमता से भरपूर रचनाएं अपनी शक्ति के आधार पर वैश्विक पटल पर पहचानी जाती है और लेखक उसके कंधे पर चढ़कर विश्व की अन्य भाषाओं के मार्फत पाठकों तक पहुंचता है। एक ओर तस्लीमा नसरीन, सलमान रूश्दी, कल मुर्गी आदि लेखक हैं जिन्हें अपनी रचना की वजह से पराई जमीन पर जीवन बसर करने पर मजबूर हैं। कुछ को तो अपनी जिंदगी से ही हाथ धोनी पड़ गई। वहीं उर्दू की कलमकार इस्मत चुग्ताई को 1941 में लिखी कहानी की वजह से लाहौर हाई कोर्ट में मुकदमा का सामना करना पड़ा।
ये रचनाएं भी अजीब होती हैं। जब तक लेखक के जेहन में रहती हैं तब बेइंत्तेहां परेशान करती हैं कागज पर उतरने के लिए और जब लेखक उतार देता है तो वही रचनाएं खिलाफ में खड़ी हो जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो रचनाएं वो ताकत रखती हैं कि वो एक बड़े पाठक वर्ग तक जुड़ सकें। अभिव्यक्ति की इस बेचैनी को लेखक,कवि,कलाकार, पत्रकार से बेहतर और कौन समझ सकता है। यही वो लोग हैं जिन्हें शब्दों की सृजना का परिणाम भी इसी भावभूमि और दुनिया में स्वीकार करने पड़ते हैं। इसे अभिव्यक्ति का खतरा उठाना के रूप में पहचाना गया है। हर लेखक,कवि, कलाकार व पत्रकार महज लिखने के लिए नहीं लिखता। बल्कि वह अपने समाज, संस्कृति, परिवेश की घटनाओं, बजबजाहटों एवं छटपटाहटों को अपनी रचनाओं में प्रकट करता है। जब लेखक अपनी रचना में वर्तमान समय की चुनौतियों को दर्ज करता है तो प्रकारांतर से एक इतिहास का अध्याय ही लिख रहा होता है। उसे यदि उसकी रचना लेखक के खिलाफ खड़ी होती है तो हो इसकी चिंता लेखक को नहीं सताती। उसे निर्भय होकर वर्तमान के टकराहटों से बचने की बजाए अभिव्यक्त करना होता है।
इतिहास गवाह है कि लेखक,कवि, कलाकार एवं पत्रकार आदि क्यां लिखते हैं? यह सवाल कई मर्तबा लेखक को परेशान करती रही है। कई लेखकों ने इसका जवाब भी देने की कोशिश की है। यदि साहित्यकारों, साहित्य के सिद्धांतकारों की मानें तो कोई भी कवि, लेखक कुछ तय लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के महत ही लिखने के लिए विवश होता है। यश, कीर्ति, प्रसिद्धि, धन, भार्या प्रीत आदि। दूसरे शब्दों में कहें तो लेखक यश प्राप्ति, धन प्राप्ति, भार्या को रूचे आदि उद्देश्यों के लिए लिखता है। रचनाएं किसी न किसी उद्देश्य के लिए ही लिखी जाती हैं। यह काफी हद तक लेखक व कवि पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना से क्या अपेक्षा करता है। क्या उसे महज प्रसिद्धि की चाह है या उसे धन की भी मांग है। बाजार लेखक को धन और प्रसिद्धि दोनों ही दिलाने में सक्षम है। लेखक यदि बाजार की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए लेखन करता है तो उसे उक्त दोनां ही अपेक्षाओं की पूर्ति हो जाती है। लेकिन लेखक समाज में उसे वह स्थान नहीं मिल पाता जिसकी उम्मीद की जाती है। क्योंकि लेखक समाज जानता है कि फलां लेखक किस दबाव व मानसिकता के गिरफ्त में फलां रचना कर रहा है।
इस्मत चुग्ताई तो एक उदाहरण हैं ऐसे ही मंटो, कृष्णा सोबती, कृशन चंदर, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव, उषा प्रियंवद, ममता कालिया, गीताश्री, प्रज्ञा आदि लेखिकाएं क्यों लिखती हैं और क्यों इनकी रचनाएं समय की शिला पर एक अमिट छाप छोड़ने की ताकत रखती हैं। निश्चित ही इनकी रचनाएं उनके व्यक्तित्व से आग निकल कर पाठक समाज के समक्ष एक नई छवि निर्मित करती हैं। हर लेखक/लेखिका की अपनी बनाई और रचनागत छवियां होती हैं जिससे उसे ताउम्र टकराना ही होता है। अपने समय और इतिहास से टकराने की ताकत रखने वाला रचनाकार ही लंबी दूरी तक अपनी रचना के कारण याद किया जाता है। तात्कालिक प्रसिद्धि व प्रभाव में लिखी गई रचनाएं समय के बाद अपनी चमक खो देती हैं।
कहानियां,कविताएं, उपन्यास,यात्रा संस्मरण आदि विधाओं में लिखी जाने वाली भावप्रवण अभिव्यक्तियां जब पाठकों तक पहुंचती हैं तब वह अपनी पूरी ताकत के साथ उपस्थित होती हैं। एक बार लेखक,कवि, पत्रकार की कलम से लिखी जाने के बाद रचनाएं उसके हाथ से निकल जाती हैं। उन रचनाओं पर लेखक का भी अधिकार नहीं होता। अब वह पाठक समाज की हो कर रह जाती हैं। कभी निर्मल वर्मा ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि एक बार लेखक जब कुछ लिख लेता है और वह प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंच जाती है उसके बाद उन रचनाओं पर लेखक से ज्यादा अधिकार पाठक वर्ग का होता है। लेखक एक रचना करने के बाद वह दूसरी रचना में तल्लीन हो जाता है। उसे लेखक के तौर जो कहना था वह कह चुका। पाठक की पूरी छूट है कि वह उसकी रचना का किस रूप मेंं, किस स्तर पर अर्थ की परतें खोल पाने में सक्षम हो पाता है।
विश्व के कई लेखक, कवि, कलाकार, पत्रकार एवं चित्रकार अपनी ही रचनाओं की ताकत के आगे झुकने पर मजबूर हुए हैं। उन्हें देश, समाज, परिवार, और घर छोड़कर विस्थापित की जिंदगी बसर करनी पड़ी है। कुछ नामां का जिक्र भर यहां किया गया है। किन्तु यह मसला इतना आसान नहीं है जितना यह देखने में आता है। क्योंकि रचनाएं ही हैं जो किसी को नोबल पुरस्कार, साहित्य आकदमी, ज्ञानपीठ आदि पुरस्कारों से सम्मानित कराती हैं तो वहीं दूसरी ओर लेखक को अपन रचनाओं की ताकत व बगावत के सामने घुटने टेकने पड़ते हैं। कोर्ट कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ते हैं। तो क्या लेखक इस भय से लिखना छोड़ दे। क्या लेखक विचार की अभिव्यक्ति के खतरे उठाने छोड़ दे। संभव है लेखक निर्भर होकर लेखन प्रक्रिया में जुड़ा होता है। उसे इसकी चीज की परवाह नहीं होती कि उसकी रचना उसके खिलाफ खड़ी होने वाली है या उसके साथ खड़ी होगी। लेखक कोई भी हो वह सिर्फ अपने पाठक के लिए लिखता है। भारतीय भाषाओं के लेखक,कवि, कलाकार एवं पत्रकार पाठक समाज के लिए लिखता है। उसके लेखन में वैश्विक चिंताएं होती हैं जिसका पाठक वर्ग व्यापक होता है। यह पाठक वर्ग पर निर्भर करता है वह रचना को किस रूप में अर्थ ग्रहण कर रहा है।
रचना की ताकत और रचना का विद्रोह कई बार इस स्तर पर भी निर्भर करता है कि लेखक व कवि किस भाव दशा और उद्देश्य के स्तर पर रचना रच रहा है। रचना सृजन के पीछे हर लेखक का अपना मकसद होता है। कुछ लेखक महज विवाद के लिए लिखते हैं तो कुछ लेखक बाजार की मांग के अनुसार लेखन करते हैं काफी हद तक ऐसे लेखकों की रचनाएं विवाद, पाठकीय ध्यान तो केद्रीत कर पाती हैं लेकिन आलोचकीय दिष्ट उनकी रचना के गायब होती हैं।


Tuesday, June 6, 2017

खिलाफ़ हैं आज मेरी ही कविताएं


मेरी ही कविताओं ने आज खिलाफत छेड़ दी
मेरे ही सामने खड़ी हो गईं तन कर,
सवाल करती हैं
पूछती हैं वो अनुभव किसका था
जिसमें तुमने हमें डुबोया,
पूछती हैं मेरी ही कविताएं
कि वो तर्जबा किसका था जिसे तुमने मुझमें उतारा।
मेरी ही कविताएं आज खिलाफ में खड़ी हैं-
कहती हैं वो हवाएं,
वो तंज़ करती बातें
कहां से लाए थे
कहां से लाए थे
वे एहसासात
जिसमें सिसकियां थीं,
वो तडपन थी,
वो किसका था।
मेरी ही कविताएं आज खड़ी हैं-
मेरे ही बरक्स
सवाल करती हैं
कि वो घटनाएं किसकी थीं
जिसे तुमने अपने नाम कर लिया,
वो बातें किसकी थीं
जिसमें हमें डूबोया,
बता तो ज़रा
वो तोहमत किसकी थी
जो हम पर मढ़ा।
मेरी ही खिलाफ़त पर उतारू
कविताएं
साक्ष्य मांगती हैं
कि वो किनकी हैं
जो लिखे हैं
ख़ाली पन्नों पर
जिनपर आज सवाल उठते हैं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...