Wednesday, February 25, 2015

छपी हुई किताबें



कौशलेंद्र प्रपन्न
पुस्तकें होती ही हैं पाठकों के लिए। और लेखक भी पाठकों के लिए ही लिखता है। यह अलग बात है कि आज जिस रफ्तार से किताबंे लिखी और छापी जा रही हैं उसका एक उद्देश्य ख़ास पुरस्कार, सम्मान पाना भी प्रकारांतर से लेखकीय मनसा होता है। मनसा तो यह भी होता है कि किस तरह अपनी किताब का प्रमोशन करूं कि ज्यादा से ज्यादा प्रतियां बिकें और अखबारों में उसकी समीक्षा की झड़ी लग जाए। लेकिन लेखक भूल जाता है कि किताबें अपनी कंटेंट और शिल्प की वजह से ख़्याति हासिल करता है न कि हथकंड़े अपनाने से। हथकंड़ों से कुछ प्रतियां तो लाइब्रेरी में खरीदवाई जा सकती हैं, लेकिन वह पाठकों के पहंुच से दूर ही होती हैं। महज विश्व पुस्तक मेले में बहुतायत मात्रा में पुस्तकों के लोकार्पण का भी मामला नहीं है बल्कि हर पुस्तक मेले में इस तरह की कवायदें हुआ करती हैं। लेकिन इस हकीकत से भी मुंह नहीं फेर सकते कि जिस रफ्तार से किताबों का लोकार्पण पुस्तक मेले में हुआ करते हैं वे उसी तेजी के साथ काल के गाल में भी समा जाती हैं।
कोई भी किताब अपनी गुणवत्ता और कंटेट के बदौलत वर्षांे वर्षों तक पढ़ी और पुनव्र्याख्यायित होती रही हैं। ईदगाह, उसने कहा था, दो बैलों की कथा, सूखा, चित्रलेखा, स्मृति की रेखाएं, चीफ की दावत, दोपहर का भोजन, जिंदगी और जांेक आदि हमारे सामने उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत हैं। इनके लेखकों ने तथाकथित कोई चलताउ प्रयास अपनी रचना को लेकर नहीं की। बल्कि उनकी रचना खुद अपनी पठनीयता की पैरवी करती हैं। लेखक के प्रयास किताब की कथानक के आगे कम पड़ जाती हैं। लेखक का वास्ता महज लिखने तक होता है। लिख लिए जाने के बाद किताब पर हक और दावेदारी लेखक से ज्यादा पाठक-समाज की हो जाती है। पाठक - और प्रबुद्ध समाज उस लिखे हुए शब्द-विचार समाज को ही सच्चाई मान कर चलता है। लेखक लिख लिए जाने के बाद दूसरी किताब पर काम शुरू कर देता है। निर्मल वर्मा के साथ इन पंक्तियों के लेखक ने सरस्वती सम्मान मिलने पर बातचीत की थी तो उन्होंने कहा था कि लेखक के तौर पर मुझे जो कहना था वह मैंने अपनी किताबों में लिख चुका हूं। एक बार पुस्तक लिख लेने के बाद मैं अपनी अगली किताब की परिकल्पना में जुट जाता हूं। एक लेखक के तौर पर क्योंकि पूर्व किताब में उसे जो और जितना कहना था वह कह चुका। अब उसके हाथ से वह किताब निकल चुकी। हां यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि लेखक अपनी पूर्व स्थापनाओं को पुनर्परिभाषित करना चाहता है तब वह पूरक किताब लिखता है।
आज लेखन भी बाजार का हिस्सा बन चुका है। जो जितना और जिस गंभीरता के साथ बाजार के अर्थशास्त्र को समझते हुए लेखन करता है उसकी लिखी किताब उसी अनुपात में लेखक को अर्थ एवं ख्याति को लौटाता है। यहां बाजार को ध्यान में रखकर लेखन का अर्थ यह है कि पाठक जिस तरह के लेखन को पढ़ना चाहता है लेखक उसी तरह का लेखन करता है। ऐसे लेखक अब हिन्दी में भी तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसे लेखकों को बाजार भी हाथों हाथ लेती है। ऐसे लेखन का मूल्यांकन होना अभी शेष है। जब इतिहास ऐसे लेखन का मूल्यांकन करेगा तब पता चलेगा कि अमुक लेखक की कृति कितना सार्थक है व समय के प्रवाह में लिखी गई तात्कालिक रचना है।
कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य आदि ऐसी खुली जगह और संभावनाएं हैं जिस क्षेत्र में अमूूमन लेखक हाथ आजमाता है। कविता की भूमि इस दृष्टि से ज्यादा उर्वरा है। इस क्षेत्र में लेखनी तेजी से चल रही है। जैसा कि कहा जा चुका है कि रचना किस स्तर की है और उसकी प्रासंगिकता कितनी है इसका विश्लेषण करने पर ही मालूम चल सकता है। लेकिन एक प्रवृत्ति व जल्दबाजी देखी जाती है कि किसी भी पुस्तक मेले में जब कोई पुस्तक लोकार्पित होती है मंचासीन लेखक, अतिथि, वक्ता बड़ी ही विकल होकर किताब और लेखक की तुलना या तो पूर्व के बड़े लेखकों से कर लेखक को खुश करने की कोशिश करते हैं या फिर पहली ही किताब पर लानत मलानत देने लग जाते हैं। निराशा, कुंठा, अकेलापन आदि भावदशाओं के दबावों में लिखने से बचने के टोटके और मंत्र भी बतलाने से नहीं हिचकते। पहली बात तो यही कि फलां ने लिखने की कोशिश तो की। उसकी इस कोशिश की सराहना करने की बजाए उसके उत्साह पर मट्ठा डालना उचित नहीं है। आज की तारीख में लेखक के पास छपने और प्रकाशन के कई सारे विकल्प उपलब्ध हैं। एक ओर लेखक या तो अपनी जेब से खर्च कर 10,000 से 15,000 में किताब छपा लेता है और उसका लोकार्पण खर्च भी वहन करता है। इस तरह से उसकी किताब और लेखन तो रोशनी में आ गई। लेकिन अपनी लिखी हुई संपदा पर ठहर कर सोचना का वक्त नहीं मिल पाता। ऐसी किताबें अमूमन परिचितों, स्वजनों को उपहार देने की काम आया करती हैं।
एक स्थिति तो स्पष्ट है कि लेखक को जैसे ही प्रकाशन के विकल्प सोशल मीडिया एवं अन्य प्रकाशक का मिला प्रकाशन जगत के एकछत्र राज्य से मुक्ति महसूस किया। क्योंकि जैसे ही प्रकाशन का विकेंद्रीकरण हुआ एक लाभ तो यह हुआ ही कि छोटे-मोटे प्रकाशकों की दुकानें भी चल पड़ीं। लेखकों को भी छपने की संभावनाएं खुलीं। एक अलग बात है कि बड़े प्रकाशकों की संपादकीय टीम की लंबी लाईन से मुक्ति तो  मिली। लेकिन इसका असर किताबों की गुणवत्ता पर दिखायी देने लगा। ऐसी ऐसी किताबें कविता, कहानी, आलोचना व उपन्यास की भी छपने लगीं जिन्हें देख,पढ़कर लगता है कि यह विधा के साथ न्याय नहीं हुआ।
लिखना अपने आप में एक श्रमसाध्य कर्म है। इसके साथ ही लिखना एक गंभीर चुनौती भी है। हमारे समाज और समय में जो भी लेखन कर रहे हैं और जिन्हें गंभीर माना जाता है वो छपवाने से ज्यादा लेखन पर ध्यान देते हैं। यूं तो माना जाता है कि यदि कोई चीज लिखी जा रही है तो वह छपे भी ताकि पाठकों तक लेखन पहुंचे। जो लिखेगा वो छपेगा। जो छपेगा वो लिखेगा इससे किसे गुरेज हो सकता है कि लिखा वही जाए जिसकी पाठनीयता हो और लिखे हुए शब्द की सार्थकता एंव लेखन बयां करे।
लिखने के लिए लेखक के पास खुला आसमान है। वह कागज पर लिखे और छपवाए या आभासीय मंच पर लिखे। लिखना ज्यादा महत्वपूर्ण है। आज हजारों हजार गेगा बाइट में रोज दिन लिखे हुए शब्द प्रकाशित और प्रसारत हो रही हैं। पाठकों के सामने मुश्किल घड़ी यह है कि कौन सी चीज पढ़े और किसी न पढ़े। देखा जो यह भी गया है कि लेखक अपने क्षेत्र के अलावा दूसरी चीजें नहीं पढ़ते। उसपर तुर्रा यह वजह बताई जाती हैं कि पढ़ने का वक्त नहीं मिलता व आज कल बहुत स्तरहीन लेखन हो रहा है। यदि थोड़ा पीेछे जाएं और पुराने लेखकों की बातचीत पर गौर करें तो वे लोग जितना ध्यान लिखने पर दिया करते थे उतना ही ध्यान पढ़ने पर भी देते थे। अपने क्षेत्र और विधा में क्या चीजें लिखी जा रही हैं यदि इसका इल्म नहीं है तो उसकी आलोचना और दशा-दिशा की जानकारी नहीं मिल पाती।

Monday, February 16, 2015

मेले में पुस्तक- विमोचन



कौशलेंद्र प्रपन्न
इन दिनों पुस्तक मेला चल रहा है। हर दिन कम से कम 50 पुस्तकों का विमोचन तो हो ही रहा है ऐसा मान कर चलते हैं। कुछ किताबों का लोकार्पण पूर्व तयशुदा कार्यक्रमों में दर्ज है। उन विमोचन कार्यक्रम में विमोचनकर्ता का नाम भी दिया गया है। उन से उम्मींद की जाती है कि विमोचनकर्ता तथाकथित पुस्तक को पढ़कर आएंगे। लेकिन निराशा तब होती है जब वे भी यूं ही किताब के फ्लैप पढ़कर बोलते हैं। यहां तक भी चलता है। लेकिन जब वे लेखक के बारे में बोलते हैं तब उनकी अनभिज्ञता सामने आती है। लेखक के साथ ही लेखन पर बोलते वक्त उनके होमवर्क की झलक मिलती है।
यदि पुस्तक मेले में पुस्तक विमोचन के चरित्र को देखें तो दो तस्वीरें दिखाई देंगी। पहला, पुस्तक विमोचनकर्ता और पुस्तक पूर्व निर्धारित होती हैं। वक्ता भी पहले से तय होते हैं। जैसा कि नेशनल बुक टस्ट के कार्यक्रमों में साहित्य मंच और लेखक मंच, आॅथर काॅनर आदि में पहले से पुस्तक विमोचन, वक्ता, संचालक, मुख्य अतिथि आदि तय हैं। लेकिन उनमें से भी अंतिम समय में या तो संचालक नहीं होता, या फिर किन्हीं कारणों से मुख्य अतिथि नहीं आते। ऐसे में आनन फानन में जो तथाकथित नामी लेखक, कवि नजर आता है उसे पकड़ कर बैठा दिया जाता है। ऐसे में वक्ता, संचालक, मुख्य अतिथि की परेशानी और तैयार की कमी दिखाई देती है। लेकिन ऐसे में वे अचानक मंच पर बैठा दिए गए अतिथि की मनोदशा को समझा जा सकता है। ताज्जुब तो तब होता है कि जब पूर्व निर्धारित वक्ता, मुख्य अतिथि किताब पढ़कर नहीं आते। वजह जो भी हो लेकिन लेखक के साथ न्याय नहीं हो पाता।
पूरे मेले में कुछ लेखक,कवि, पत्रकार यूं ही पूरे दिन टहलते हुए मिल जाएंगे। इनकी संख्या तीस से पचास की होगी। जो कभी किसी स्टाॅल पर तो कभी किसी और स्टाॅल पर नजर आते हैं। दरअसल अवकाश प्राप्त हमारे लेखक, कवि, आलोचक अपनी दिनचर्या में नौ दिन शामिल कर लेते हैं। दो फायदे होते हैं, एक लोगों से मुलाकात हो जाती है। दूसरी पूरे दिन नई नई किताबों के घूंघट उठाने का मौका भी हाथ लग जाता है। कहीं किताबें मिल जाती हैं तो कहीं शाॅल, मानदेय आदि।
दूसरा, ऐसे पुस्तक विमोचन होते हैं जिन्हें ने.बी.टी के मंच नहीं मिल पाए। वे प्रकाशक, लेखक अपने स्टाॅल पर ही खड़े होकर पुस्तक विमोचन कर देते हैं। इनके लेखक तो तय होते हैं लेकिन विमोचनकर्ता तय नहीं होते। जहां कोई कवि, लेखक, पत्रकार नजर आ गए उन्हें वहीं से पकड़कर स्टाॅल तक खींच लिया जाता है। हाथों में किताब की प्रति पकड़ा दिया जाता है। फोटो खींच कर तुरंत सोशल मीडिया, फेसबुक पर चेप दिया जाता है फलां फलां के हाथों पुस्तक का लोकार्पण पुस्तक मेले में। और देखते ही देखते चंद लाइक और कमेंट भी मिल जाते हैं। ऐसे माहौल में पुस्तक विमोचनकर्ता को कई बार लेखक का नाम भी नहीं जानता हालांकि उसकी भी मजबूरी समझी जा सकती है। जब ऐसे समय में पकड़कर पुस्तक विमोचन के लिए खड़ा कर दिया जाए।
पुस्तक प्रकाशन जगत में विकेंद्रीकरण का यह लाभ हुआ कि बड़े बड़े प्रकाशकों की एकछत्रता टूटी वहीं छोटे छोटे प्रकाशकों की दुकान चल पड़ी। एक किताब दस हजार से पंद्रह हजार में छप जाती है। इन प्रकाशकों को काम मिलना शुरू हो गया। साथ ही लेखकों को भी लंबे इंतजार से निजात मिल गया। लेकिन इस प्रक्रिया में कहीं न कहीं गुणवत्ता प्रभावित हुई। किताबें छपें इससे किसी को गुरेज नहीं लेकिन किताब वाकई किताब की गुणवत्ता भी पूरी करे। आज जिस रफ्तार से किताबें छप रही हैं उससे एक चीज से स्पष्ट है कि किताबों की दुनिया अभी सूखी नहीं है। यह अलग विमर्श का मसला कि रोज दिन छपने वाली किताबों का पाठक वर्ग कौन है? क्या इन किताबों को संज्ञान में ली भी जाती हैं या नहीं?
अमूमन किताबें विमोचन के बाद गुमनामी में खो जाती हैं। कहीं उनकी समीक्षा, आलोचना नहीं होती। बस अपने करीबी दोस्तों, रिश्तेदारों को भेंट करने में काम आती हैं। यदि कहीं पहंुच है तो उसकी पुस्तक परिचय छप जाती है। वरना जिस तरह से इन किताबों का प्रकाशन,विमोचन होता है उसी तरह से कहीं सेल्फ में पड़ी रहती हैं।
एकबारगी यह आरोप भी जाता रहा है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट की दुनिया में किताबों पर खतरा मंड़रा रहा है। किताबें खूब अच्छी तदाद में छापी और पढ़ी जा रही हैं। किताबें के प्रकाशकों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकाशन जगत में विकेंद्रीकरण का लाभ लेखकों को मिला है। यह अलग बात है कि उसके लिए लेखक को अपनी जेब से खर्च करने पड़ते हैं। पाठक और किताबों का रिश्ता गहरा रहा है। वह कहीं से भी छपे यदि किताब में दम है तो वह पाठकों तक पहुंच ही जाती है। यदि लेखक-प्रकाशक मिल कर साझा प्रयास करें तो किताबों की महत्ता और पहुंच और ज्यादा हो सकती है। वह इस तरह कि किताबों का भी प्रचार किया जाए। आज की तारीख में सोशल मीडिया सूचना के प्रसारण और विस्तार में अच्छी खासी भूमिका निभा रहा है। सही समय पर सही किताब का प्रमोशन जरूरी है वरना अच्छी से अच्छी किताबें पाठकों तक नहीं पहुंच पातीं।


Thursday, February 12, 2015

जेंडर विमर्श और मूल्यपरक शिक्षा पर संवाद


कक्षा में साठ के आस-पास शिक्षक और शिक्षिकाएं थीं। इस शिक्षकों और शिक्षिकाओं के बीच जेंडर सेंसेटाइजेशन पर संवाद करना था। जिन मूल बहानों से मई में रू ब रू हुआ था वही बहाने यहां भी खडत्रे हुए। मसलन बहुत सर्दी है। ठिठुर रहे हैं। सर क्या पढ़ाओंगे। छोड़ो भी क्या पढ़ाओंगे। जेंडर वेडर बस यूं ही है। आप भी मजे करो हमें भी छोड़े धूप सेकने दो। मई में गर्मी का बहाना था। दिसम्बर में सर्दी आ खड़ी हुई थी। मगर संवाद तो करना ही था। लेकिन कक्षा में उपस्थित शिक्षक/शिक्षिकाओं को संवाद के लिए उकसाना एक बड़ी चुनौती थी।
संवाद के लिए उन्हें कुरेदना पड़ा। आपमें से कितने ऐसे हैं जो मानते हैं कि पत्नियां कोई भी निर्णय लेने में स्वतंत्र होती हैं। पति की उनके निर्णय में कितनी भूमिका होती है। अपने पति को अपने निर्णय प्रक्रिया में कितना स्थान देती हैं। बस क्या था कई हाथ खड़े ही गए। नाम रहने देते हैं। उनकी बातें यहां रखते हैं। ‘ मैं तो निर्णय लेने में उनका तब मदद लेती हूं जब निर्णय को टालता होता है।’ ‘हमें निर्णय लेने में अपनी भूमिका व जिम्मेदारी को छुपाना होता है तब हम उन पर डाल देते हैं।’
‘निर्णय तो उनका ही होता है। हम तो बस उनके निर्णय को फाॅलो करते हैं।’ ‘ सर आप भी जानते हो। एक ही छत के नीचे रहना है। कौन चिक चिक सहना चाहेगा सो जो निर्णय पति लेते हैं हम उसे स्वीकार लेते हैं।’
इसी तरह की बातें कक्षा में उभर कर आईं। जब मैंने कहा महिलाएं भी सदियों से गुलाम रही हैं। उन्हें इस गुलामी से मुक्ति के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा की पंक्ति रखीं ‘ चुप्पी की संस्कृति ही गुलामी को अग्रसारित करती है’ यदि गुलामी को तोड़ना है तो चुप्पी तोड़नी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा ने उत्पीडि़तों का शिक्षा शास्त्र पुस्तक लिखा उसे पढ़ कर जिस तरह की चेतना जागती है वही अपनी मुक्ति की राह बना पाते हैं। साथ ही उन्हें जाॅन स्टुआॅर्ट मिल की पुस्तक स्त्री और पराधीनता को साइट किया। कुछ स्त्रियों की आंखें विस्फारित हुईं। मगर वहीं शिक्षकों के तेवर बदल चूके थे। ये सब बेकार की बातें हैं। पुरूष प्रधान समाज है। लुगाइयां घर में ही अच्छी लगती हैं। इसी तरह के तर्क कक्षा में तैर रहे थे।
जेंड़र संवेदनशीलता पर लंबी बातचीत हुई मगर शिक्षकों की सोच गोया अभी भी 19 वीं सदी में डोल रही थीं। कक्षा में कैसे इस तरह के विमर्श को वे लोग हैंडल करते होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल वो नई सोच और शिक्षा के नए विमर्श को अपने दिमाग में उतरने की इज़ाजत ही नहीं देना चाहते थे। बहरहाल यदि शिक्षिकाओं में इसके प्रति थोड़ी भी चेतना जागती है तो उम्मींद की किरण बनी रहेगी।
जेंडर विमर्श और मूल्यपरक शिक्षा पर संवाद
कक्षा में साठ के आस-पास शिक्षक और शिक्षिकाएं थीं। इस शिक्षकों और शिक्षिकाओं के बीच जेंडर सेंसेटाइजेशन पर संवाद करना था। जिन मूल बहानों से मई में रू ब रू हुआ था वही बहाने यहां भी खडत्रे हुए। मसलन बहुत सर्दी है। ठिठुर रहे हैं। सर क्या पढ़ाओंगे। छोड़ो भी क्या पढ़ाओंगे। जेंडर वेडर बस यूं ही है। आप भी मजे करो हमें भी छोड़े धूप सेकने दो। मई में गर्मी का बहाना था। दिसम्बर में सर्दी आ खड़ी हुई थी। मगर संवाद तो करना ही था। लेकिन कक्षा में उपस्थित शिक्षक/शिक्षिकाओं को संवाद के लिए उकसाना एक बड़ी चुनौती थी।
संवाद के लिए उन्हें कुरेदना पड़ा। आपमें से कितने ऐसे हैं जो मानते हैं कि पत्नियां कोई भी निर्णय लेने में स्वतंत्र होती हैं। पति की उनके निर्णय में कितनी भूमिका होती है। अपने पति को अपने निर्णय प्रक्रिया में कितना स्थान देती हैं। बस क्या था कई हाथ खड़े ही गए। नाम रहने देते हैं। उनकी बातें यहां रखते हैं। ‘ मैं तो निर्णय लेने में उनका तब मदद लेती हूं जब निर्णय को टालता होता है।’ ‘हमें निर्णय लेने में अपनी भूमिका व जिम्मेदारी को छुपाना होता है तब हम उन पर डाल देते हैं।’
‘निर्णय तो उनका ही होता है। हम तो बस उनके निर्णय को फाॅलो करते हैं।’ ‘ सर आप भी जानते हो। एक ही छत के नीचे रहना है। कौन चिक चिक सहना चाहेगा सो जो निर्णय पति लेते हैं हम उसे स्वीकार लेते हैं।’
इसी तरह की बातें कक्षा में उभर कर आईं। जब मैंने कहा महिलाएं भी सदियों से गुलाम रही हैं। उन्हें इस गुलामी से मुक्ति के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा की पंक्ति रखीं ‘ चुप्पी की संस्कृति ही गुलामी को अग्रसारित करती है’ यदि गुलामी को तोड़ना है तो चुप्पी तोड़नी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा ने उत्पीडि़तों का शिक्षा शास्त्र पुस्तक लिखा उसे पढ़ कर जिस तरह की चेतना जागती है वही अपनी मुक्ति की राह बना पाते हैं। साथ ही उन्हें जाॅन स्टुआॅर्ट मिल की पुस्तक स्त्री और पराधीनता को साइट किया। कुछ स्त्रियों की आंखें विस्फारित हुईं। मगर वहीं शिक्षकों के तेवर बदल चूके थे। ये सब बेकार की बातें हैं। पुरूष प्रधान समाज है। लुगाइयां घर में ही अच्छी लगती हैं। इसी तरह के तर्क कक्षा में तैर रहे थे।
जेंड़र संवेदनशीलता पर लंबी बातचीत हुई मगर शिक्षकों की सोच गोया अभी भी 19 वीं सदी में डोल रही थीं। कक्षा में कैसे इस तरह के विमर्श को वे लोग हैंडल करते होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल वो नई सोच और शिक्षा के नए विमर्श को अपने दिमाग में उतरने की इज़ाजत ही नहीं देना चाहते थे। बहरहाल यदि शिक्षिकाओं में इसके प्रति थोड़ी भी चेतना जागती है तो उम्मींद की किरण बनी रहेगी।

बहार ए बाहर


कभी सोचा भी नहीं होगा कि कल जब वो आॅफिस आएंगे तो उनका एसेस राइट छीन ली जाएगी। वो कम्प्यूटर नहीं खोल सकते। गेट से अंदर आने के बाद सब कुछ बदला बदला होगा। साथ काम करने वाले भी उनसे मंुह चुराएंगे। उनकी गलती क्या थी इस पर कोई खुल कर बोलेगा भी नहीं। सब तरफ ख़ामोशी और शांति पसरी होगी। सब को इसका डर सता रहा होगा कि कहीं बात करते कोई नोटिस न कर ले। 
दुनिया भर में 2008 में मंदी के दौरान इस तरह की घटनाएं आम देखी जा रही थीं। रातों रात लोगों के हाथ से नौकरी यूं फिसल रही थी जैसे रेत हो मुट्ठी में। रात काम कर के गए सुबह बे नौकरी हो गए। किसको क्या बताएं। कि घर जल्दी क्यों आ गया वो। 
2008 ही नहीं बल्कि कई कंपनियों में आज भी यह मंजर देखा जा सकता है। कोई कैसे रोतों रात सड़क पर आ जाता है इसका उसे इल्म तक नहीं होता। घर बाहर हर जगह उससे कई सवाल करती आंखें घूरने लगती हैं। न घर में चैन से रह पाता है औ...

आंकड़ों से बाहर बच्चे और यूनेस्को-यूनिसेफ रिपोर्ट



कौशलेंद्र प्रपन्न
इस सच्चायी से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि आज भी हमारे लाखों बच्चे स्कूली शिक्षा हासिल करने से महरूम हैं। इसकी संख्या हजारों में नहीं बल्कि लाखों में है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय पिछले साल स्वीकार कर चुकी है कि देश में तकरीबन 80 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। लेकिन यूनेस्कों और यूनिसेफ की हालिया साझा रिपोर्ट ‘फिक्सिंग द ब्रोकेन प्राॅमिस आॅफ एजुकेशन फाॅर आॅलः फाइंंिडग्स द ग्लोबल इनीशिएटिव आॅन आउट आॅफ स्कूल चिल्डेन’ में बताया गया है कि 2000 से 2012 के बीच स्कूलों से बाहर बच्चों की संख्या में कमी आई है। रिपोर्ट की मानें तो भारत में 2000 से 2012 से बीच स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या 1.6 करोड़ की कमी आई है। आंकड़ों के पहाड़ पर खड़े हो कर सच्चाई नहीं दिखाई देती। पिछले साल 2014 में जब एमएचआरडी ने 80 लाख बच्चों की स्कूल से बाहर होने का आंकड़ा प्रस्तुत किया था तब देश के अन्य गैर सरकारी संस्थाओं के कान खड़े हो गए थे। उन्होंने इन आंकड़ों की जमीनी हकीकत का पता लगाया जिसमें मालूम हुआ कि अकेले भारत में 7 करोड़ 80 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं।
सहस्राब्दि विकास लक्ष्य एमडीजी और सबके लिए शिक्षा इएफए 1990 और 2000 में तय किया गया था कि आगामी 2015 तक सभी बच्चों ‘6 से 14 साल तक के’ बुनियादी शिक्षा हासिल करा चुकेंगे। लेकिन वत्र्तमान सच्चाई यह है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के लागू होने के बाद भी हमारे 7 करोड़ से ज्यादा बच्चे बुनियादी शिक्षा से वंचित हैं। दरअसल 1990 में ‘सब के लिए शिक्षा’ एवं ‘सहस्राब्दि विकास लक्ष्य 2000’ में तय किया गया था कि हम अपने तमाम बच्चों को 2015 तक प्राथमिक शिक्षा मुहैया करा देंगे। लेकिन हकीकत यह है कि अभी भी प्राथमिक शिक्षायी तालीम से बच्चे महरूम हैं।
गौरतलब है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 और इएफए 1990 एवं एमडीजी गोल 2000 का लक्ष्य था कि हम सभी बच्चों को कम से कम बुनियादी शिक्षा यानी कक्षा एक से आठवीं तक की तालीम प्रदान करेंगे। लेकिन बुनियादी शिक्षा को बीच में छोड़ देने वाले बच्चों की ओर देखें तो पाएंगे कि सबसे बड़ा कारण उन स्कूलों में शौचालय का न होना है। स्कूलों में शौचालय का न होना खासकर बच्चियों के लिए ज्यादा परेशानी का सबब बनता है। ‘असर’ या ‘डाईस’ की फ्लैश रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि इन्हीं कारणों से बच्चियां स्कूल नहीं जा पातीं। सत्र के बीच में स्कूल छोड़ जाने के पीछे कई कारणों में से एक शौचालय का न होना है। वहीं आर्थिक कारण भी प्रमुखता से रेखांकित किए गए हैं। बच्चे स्कूल नहीं जा पाते या स्कूल बीच में छोड़ देते हैं तो इसमें जितना दोषी सरकार है उससे कहीं ज्यादा नागर समाज भी है। जब हम एक शहर के सुंदरीकरण की योजना बनाते हैं तब स्वीमिंग पुल, जीम खाना, माॅल की योजना तो बनाते हैं लेकिन स्कूल और बच्चे हमारी चिंता से बाहर होते हैं। उसपर तुर्रा यह कि निजी स्कूलों को जितना तवज्जो दिया जाता है क्या हम सरकारी स्कूलों के प्रयासों की सराहना करते हैं? सच पूछा जाए तो हम सरकारी स्कूलों की बेहतरी के लिए नागर समाज न तो जागरूक है और न ही प्रयासरत।
यूनिसेफ और यूनेस्को की इस साझा रिपोर्ट की मानें तो भारत में 5.881 करोड़ लड़कियां और 6.371 करोड़ लड़के प्राथमिक कक्षाओं के छात्र-छात्रा हैं। रिपोर्ट के अनुसार 2011 तक प्राथमिक कक्षाओं के उम्र के 14 लाख बच्चे भारत में स्कूल नहीं जाते। जिनमें 18 फीसदी लड़कियां और 14 फीसदी लड़कों की संख्या है। गौरतलब है कि इन आंकड़ों की सच्चाई आंकें तो इन संख्याओं से ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर मिलेंगे। यदि सरकारी और गैर सरकारी आंकड़ों की रोशनी में देखें तो एमएचआरडी की 2012-13 और 2013-14 की रिपोर्ट देखें तो पाएंगे कि अभी भी 80 लाख बच्चे स्कूल बाहर हैं। हैरानी की बात यह है कि पिछले साल तक जो संख्या 80 लाख थी वह छः माह के भीतर इतनी तेजी से कम कैसे हो गई। इन आंकड़ों से शेष बच्चे बाहर हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। हां नामांकन की संख्या तो बढ़ी तो बढ़ी हैं लेकिन बीच में ही स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या भी कोई कम नहीं है।
स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता और बुनियादी शिक्षा मुहैया करा पाएं यह हमारी प्रमुख चिंता रही है। यही वजह है कि हमने शिक्षा के अधिकार अधिनियम बनाया। हमने 1990 में इएफए का लक्ष्य निर्धारित किया और 2000 में सहस्राब्दि लक्ष्य में बच्चों की बुनियादी शिक्षा की प्रमुखता से वकालत की। लेकिन आंकड़ों से बाहर बच्चों को कैसे स्कूली शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ें इसके लिए हमें रणनीति बनाने की आवश्यकता है। मालूम हो कि 31 मार्च 2015 तक सब के लिए शिक्षा और आरटीई के लक्ष्यों को हासिल करने की अंतिम तारीख है।


शिक्षक सम्मान एवार्ड 2014-15



टेक महिन्द्रा फाउंडोशन की ओर हर साल 25 शिक्षकों को यह सम्मान दिया जाता है। इस वर्ष भी यह कार्यक्रम 28 जनवरी को इंडिया हैबिटेट सेंटर में संपन्न हुआ। कार्यक्रम का संचालन कौशलेंद्र प्रपन्न और हरदीप का था। इस कार्यक्रम को आयुक्त पूर्वी दिल्ली, दक्षिणी दिल्ली, एवं शिक्षा निदेशक का हासिल हुआ। 








शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...