Friday, July 26, 2013

प्राथमिक शिक्षा की चुनौतियां
प्राथमिक शिक्षा जिन अहम चुनौतियों से गुजर रही है उन्हें मोटे तौर पर इन वर्गों में देख सकते हैं-
शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों में लगाया, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, शिक्षकों की रिक्त पदें, दोपहर का भोजन और शिक्षक की मनः स्थिति आदि।
जहां तक गैर शैक्षणिक कार्योंं में लगाए जाने की बात है तो नूपा की रिपोर्ट की मानें तो असम में 32 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 30 फीसदी, बिहार में 22 फीसदी, राजस्थान में 17 फीसदी आदि शिक्षकों को पूरे साल में गैर शैक्षणिक कार्यों में लगाया गया। डाईस की रिपोर्ट जो नूपा ही हर साल छापती है इस रिपोर्ट के अनुसार भी साल भर में किसी राज्य में 17 दिन, 22 दिन और 30 दिन से ज्यादा गैर शैक्षणिक कार्यों में नहीं लगाए गए।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तो बेचारी कहीं पिछड़ ही गई है। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से कराए सर्वे में पाया गया कि कक्षा 6 या 8 में पढ़ने वाले बच्चे कक्षा 1 या 2 री के स्तर के भी गणित व भाषा पढ़ने में असमर्थ हैं।
शिक्षकों के पदों सालों साल से खाली हुईं तो वो खाली ही पड़ी हैं। बिहार में तकरीबन 3 लाख, उत्तर प्रदेश में 2 लाख, झारखंड़ में 78 हजार, दिल्ली में 8 हजार पद रिक्त हैं। ऐसे में तदर्थ शिक्षकों जिसमें शिक्षा मित्र, पैरा टीचर, अनुबंध आदि पर तैनात शिक्षक पढ़ाने का काम कर रहे हैं। दिल्ली मंे ही कई प्राथमिक स्कूल ऐसे हैं जहां दो स्थाई और बाकी के सात आठ अध्यापक अनुबंध पर हैं।
दोपहर का भोजन। इसके बारे में कुछ कहना बेईमानी है। क्योंकि बिहार की घटना तो एक झलक मात्र है। ऐसी स्थिति अमूमन हर राज्य में ही है। कहीं मेढक मिलते हैं तो कहीं छिपकली। हालांकि भोजन के लोभ में काफी बच्चे स्कूल में दाखिल हुए। दाखिले की कहानी तो और भी हैं ममसलन वजीफा मिलने वाले दिन पूरी उपस्थिति होती है। बाकी दिन स्कूल ढनढन बजता है।
मनः स्थिति तो यह है कि पढ़ाने के प्रति अरूचि के शिकार शिक्षक बस एक एक दिन काट रहे हैं। ऐसी स्थिति दिल्ली सहित कई राज्यों की है। जहां पर शिक्षक पढ़ाने की बजाए शिकायतों की पोटली लिए बैठा है। बस आप सवाल करें और वे फूट पड़ते हैं। माना की स्थितियां खराब हैं लेकिन जितने दिन आप स्कूल में होते हैं क्या अपना 100 फीसदी बच्चों के देते हैं यह महत्वपूर्ण है।

Thursday, July 25, 2013


घर सा बनाओ स्कूल
स्कूल खुले तकरीबन एक महीना दिन हो चुके हैं। कैसा लगा छुट्टियों के बाद स्कूल आना। हां छुट्टियों के बाद ज़रा पढ़ाई में मन नहीं लग रहा होगा। लेकिन पढ़ाई तो करनी है। स्कूल तो जाना है। वैसे भी देश के हर बच्चे को शिक्षा पाने का हक जो मिल चुका है। तो अब 6 से 14 साल तक के सभी बच्चे स्कूल जाएं और शिक्षा हासिल करें, इसके लिए सरकार ने आपके लिए कानून जो पास कर दिया है। जिसे शिक्षा का अधिकार कानून 2009 के नाम से जानते हैं।
मगर स्कूल हैं कि आपको अपनी ओर खींचते ही नहीं। स्कूल के नाम पर तरह तरह के बहाने बनाते हैं। ताकि स्कूल न जाना पड़े। लेकिन ज़रा सोचो अगर स्कूल नहीं जाओगे तो तालीस कैसे पाओगे। स्कूल जाना तुम्हें अच्छा लगे। स्कूल तुम्हें डरावने न लगें इसलिए शिक्षा का अधिकार कानून में बताया गया है कि स्कूल को कैसे बच्चों की रूचि के अनुसार बनाया जाए।
स्कूल में खेलने के मैदान हों। लाईब्रेरी हो। आपके क्लास रूम सुंदर सजे- धजे मन मोहक हों इसके लिए भी इस कानून में निर्देश और राय दी गई है। स्कूल की दीवारें, क्लास रूम की दीवारें, पंखे, छत रंगीले हों। दीवारों पर तुम चाहो तो खुद कलाकारी कर सको। जहां बैठते हो वह जगह भी आरामदायक और मजेदार हो इसके लिए आम आगे आ सकते हो।
स्कूल हो घर जैसा कैसे बना सकते हो। हां वैसे ही जैसे घर में आप डाईंग रूम, बेड रूमको सजाते हो वैसे ही अपने स्कूल कके हर कोने, क्लास को अपनी रूचि से सजा सकते हो। आप अपनी बनाई पेंटिंग, माॅडल, चित्र आदि को क्लास रूम में लगा सकते हो।
इतना ही नहीं अगर आप कविता लिखते हो, कोई कहानी या घटना अपने दोस्तों के साथ शेयर करना चाहते हो तो उसे साफ-संुदर हैंडराईटिंग में लिख कर अपने क्लास रूम या नोटिस बोर्ड पर सजा कर चिपका सकते हो। ऐसे करोगे तो खुद को भी अच्छा लगेगा। ज़रा कर के देखो तब तुम्हे अपना स्कूल अपने घर सा लगने लगेगा।
कौशलेंद्र प्रपन्न

Thursday, July 18, 2013

अब लाश उठाएं
जिन बच्चों की जानें गईं वो तो चले गए। आंसुओं से तरबतर आंखों में न खत्म होने वाली उदासी रह गई। मां-बाप बिलबिलाते रहेंगे। राजनीति बतौर जारी रहेगी। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी चलता रहेगा। कुछ सालों बाद रिपोर्ट आ भी गई तो क्या होना कुछ अन्य लोगों पर कार्यवाई होगी बाकी बेफ्रिक बाहर घूम रहे होंगे।
वैसे देखा जाए तो कितनी भी पंक्तियां लिख दी जाएं उसका न तो सरकार पर असर पड़ने वाला है और न जिन्होंने अपनी औलादें खोई हैं उन्हें सान्त्वना मिलने वाली है। बस इतना जरूर है कि हमें एक आत्मतोष मिलेगा कि हमने अपने स्तर पर कुछ तो किया।
ठीक ही तो है बिल्कुल चुप बैठ जाने से तो बेहतर है रिरियाती आवाज ही सही विरोध के स्वर उठेंगे तो किसी न किसी के कानों में टकराएगी ही। सो मौन की संस्कृति को तोड़ते हुए अपने अपने स्तर पर विरोध और लड़ाई लड़नी ही चाहिए ताकि उन बच्चों के साथ साथ उनके मां-बाप को भी महसूस हो कि वो अकेले नहीं हैं।

मिड डे भोजन ने ली फिर बच्चों की जान
एक निजी न्यूज चैनल के अनुसार बिहार में 11 बच्चों की मौत हो गई। माना जा रहा है कि 40 से ज्यादा बच्चे अस्पताल में हैं। यह पहली और आखिरी घटना नहीं है। मिड डे भोजन खाकर देश के विभिन्न राज्यों में बच्चे मौत के शिकार हो चुके हैं। सरकार है कि जागती नहीं। 
शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 और बच्चों के जुड़े मिड डे भोजन दोनों का एक सा हाल है। कहीं खीचड़ी खाकर तो कहीं रोटी और सब्जी खाकर मौत के घट तो बच्चे ही उतरते हैं। वो बच्चे जो निजी स्कूलों में नहीं जा पाते। वे बच्चे जिनके मां-बाप गैर सरकारी स्कूलांे के नखरे नहीं उठा सकते गोवा उनके बच्चे बच्चे नहीं हैं। 
सरकारी स्तर पर कितनी ही स्तर पर कमियां दिखाई देने के बावजूद यदि दुरुस्त नहीं किया जाएगा तो ऐसे बच्चों की संख्या कम होने की बजाए बढ़ेंगे ही। मिड डे भोजन परोसने वाली निजी संगठनों और भोजन मुहैया कराने वाली संस्थाएं इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकतीं। उन्हीं इन मौतों का जिम्मा लेना ही होगा।
गौरतलब बात है कि देश भर में मिड डे भोजन के नाम पर जिस तरह के खाद्यपदार्थ परोसे जाते हैं वो किसी भी कोण से पौष्टिकता के निकष पर खरे नहीं उतरते। इन पंक्तियों के लेखक ने उत्तर प्रदेश, अंध्र प्रदेश, बिहार आदि राज्यों के दौरे के दरमियान पाया कि रोटी अधपकी, सब्जी के नाम पर चने या न्यूटीनेगेट के पनीली सब्जियां परोसी जताती हैं। यू ंतो स्कूल के प्रांगण में कई जगह हप्ते भर के भोजन की सारणी दिखाई देगी कि फलां दिन पूरी-खीर, खीचड़ी, रोटी दाल, आदि मिलेंगी। लेकिन हकीकत बच्चे बताते हैं कि उन्हें क्या मिलता है। जिस जगह पर कुत्ते गस्त मार रहे हों वहीं पास में रोटी भी पक रही हो तो ऐसे में स्वच्छता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
बेहतर हो कि या तो मिड डे भोजन पकना बंद हो या उसकी गुणवत्ता एवं पकने की प्रक्रिया पर खास नजर रखा जाए।

Friday, July 12, 2013



फेसबुक का काव्य संसार

कौन कहता है साहित्य मर रहा है। साहित्य लेखक व पाठक नहीं रहे। ग़लत आरोप है। यह अलग बात है कि जिस तरह के साहित्य की अपेक्षा एक मंजे हुए लेखक समूह से की जाती है वह नदारत है। नदारत इसलिए क्योंकि आज जिस तरह की साहित्य देखने पढ़ने को मिलता है वह आत्ममुग्धता से ग्रस्त है। स्वप्रकटकरण के व्यामोह से लबरेज़ है। काव्य सृजन जितना कठिन कर्म है उतना ही आसान भी। मन के भावों को प्रकट करने में अब महज लय का ध्यान रखना काफी माना जाता है। जिसे नामवर सिंह जैसे आलोचक मानते हैं कि छनद मुक्ति का आशय लय मुक्ति नहीं है। कोई भी कविता छनद मुक्त तो हो सकती है लय मुक्त नहीं। तो इसकी बानगी फेसबंक पर बहुतायत मात्रा में मिलती है। देश के कोने कोने से हिन्दी भाषा, अहिन्दी भाषी सब कविता लिखने में लगे हैं।
कविता व काव्य साहित्य का एक अंग है। संपूर्ण साहित्य कहना अनुचित होगा। पद्य और गद्य। कविता पद्य के पाले मंे बैठती है। कविता के प्राचीन और आधुनिक दोनों ही रूपों से हम बचपन से वाकिफ हैं। बचपन में पाठ्यपुस्तकों में शामिल भवानी प्रसाद मिश्र, सुभद्रा कुमारी चैहान, महादेवी वर्मा, निराला, नागार्जुन आदि से लेकर बच्चन जी की कविताओं का आस्वाद लिया है। तब से काव्य के प्रति एक अनुराग हम सब को रहा है। यह अलग बात है कि पाठ्य पुस्तकों में शामिल कविताओं को पढ़ने की मजबूरीवश पढ़ना पड़ता था। उसकी व्याख्या करनी पड़ती थी। लेकिन, तब बोझ लगने वाली कविताएं बड़े होने पर अपने व्यापक अर्थ गाम्भीर्यता से खुलने लगीं। तुलसी या सूर या फिर कबीर को पढ़ते वक्त लगता था क्या कठिन कविता है। कैसी भाषा है। अब नाहि रहिहों इसि देस गोंसाईं। जैसी भाषा को पढ़ते वक्त कोफ्त होती थी। लेकिन अब उन्हीं भाषिक छटाओं को देख देख, पढ़ पढ़ कर गौरव महसूस होता है कि उन्हीं भाषाओं में ब्रज, मागधी, अवधी, भोजपुरी की व्यापक छटाएं खुल कर खिलती थीं।
सूर तुलसी, कबीर या घनानंद, जायसी को पढ़ना ठीक वैसी ही अनुभूति से भर जाना है जैसे कोई कालीदास, भवभूति, दंड़ी को पढ़ने में मिलता है। जहां संस्कृत के इन विद्धान कवियांे, नाटककारों ने अपनी प्रतिभा का निदर्शन कराया वहीं हिन्दी में भी रीति काल भक्ति काल से होते हुए आधुनिक काल की कविताएं पढ़ते सुनते हुए महसूस की जा सकती हैं। जहां न केवल सांैदर्य वर्णन मिलते हैं बल्कि अन्य रसों का का स्वाद भी चखने को मिलता है। जहां घनानंद, जायसी प्रेम पूर्ण कविताएं लिखते हैं वहीं प्रकारांतर से राजनीति, प्रकृति, धर्म, समाज एवं अर्थ की भी स्थिति भी हमारे सामने खुलती है।
फेसबुक पर कविताओं की रचनाएं खूब देखी जा सकती हैं। रोज दिन सृजित कविताओं को फेसबुक पर पाठकों ‘‘ फ्रैंड लिस्ट में शामिल’’ के बीच परोस कर एक खुशी से भर उठना कि देखिए, पढि़ए और सराहिए कैसे कविता है। दरअसल वे कविताएं प्रेम रस में पगी होती हैं। तुकबंदी प्रधान ये कविताएं क्षणिक आवेश में लिखी चार पांच लाइन की कविताएं बहुत दूरगामी नहीं होतीं। दूरगामी से मतलब है लंबी आयु वाली। कितना अच्छा हो कि जिस तरह फेसबुक पर कविताओं की नदी बहा करती है उस अनुपात में कम ही सही कुछ अच्छी आलोचनाएं, समीक्षाएं लिखी जाए तो अच्छा हो।

Tuesday, July 9, 2013


परीक्षा बड़ ठगनी हम जानी
-कौशलेंद्र प्रपन्न
यूं तो ‘माया बड़ ठगनी हम जानी’ माया के बारे में कहा गया है, लेकिन शिक्षा की दुनिया में परीक्षा किसी माया से किसी भी कोण से कमतर नहीं है। परीक्षा लुभाती है। परीक्षा डराती है। और परीक्षा ही है जो किशोरों और युवाओं की जान भी लेती है। बल्कि कहना चाहिए कि पिछले दस सालों में हमारे  नवनिहालों की जान ले चुकी है। जिन जानों की एफआईआर हुईं वो आंकड़े चीख-चीखकर बताती हैं कि आज की तारीख में परीक्षा मौत के समकक्ष खड़ी हो चुकी है। परीक्षा के चरित्र पर नजर डालें तो नचिकेता को भी परीक्षा की घड़ी को पार करना पड़ा था। वैदिक काल हो या महाकाव्य काल इस समय में भी परीक्षा वजूद में मिलती है। लेकिन आज की परीक्षा और तब की परीक्षा की प्रकृति में बुनियादी अंतर यह था कि उस समय की परीक्षा छात्रों की ज्ञान, समझ, कौशल और सर्वांगीण विकास को परीक्षित करती थीं। साथ ही श्रुति परंपरा में शास्त्रार्थ के जरिए ज्ञान की परीक्षा होती थी। द्रोणाचार्य का पांड़वों की परीक्षा लेना हो या राम की परीक्षा भी समझ और अर्जित ज्ञान का इस्तेमाल व्यवहार की कसौटी पर करने में लिया जाता था। उस समय की परीक्षाएं अंकों, ग्रेड़ों पर आधारित नहीं थीं बल्कि वे परीक्षाएं छात्रों की पठित और स्मृत ज्ञान का व्यावहारिक जीवन में इस्तेमाल पर केंद्रीत हुआ करता था।
समय और समाज की चुनौतियों के आगे परीक्षा की प्रकृति अपना स्वरूप बदलती चली गई। साल का फरवरी-मार्च ख़ासकर 10 वीं और 12 वीं क्लास में पढ़ने वालों की जिंदगी को जीवन-मृत्यु तुल्य दो पाटों में बांट देती है। परीक्षा में बैठने वालों के दिमाग में अभिभावकों और अध्यापकों की ओर से बड़ी चतुराई और ढीठता से ठूंसी जाती है कि यही वो देहरी है जहां से जिंदगी के व्यापक रास्ते खुलते हैं। यदि विफल हुए तो जीवन भर खुद को मांफ नहीं कर पाओगे। न केवल खुद की, बल्कि मां-बाप की आशाओं, उम्मीदों को मटियामेट कर दोगो। परीक्षा देने वाले इन्हीं उम्मीदों, आशाओं और हिदायतों की परतों के साथ विषय की पेचिंदगियों को सहते हुए परीक्षा में बैठते हैं।
परीक्षा को भयावह और मार्केटेबल भी बनाने का चलन देखने में आता है। तकरीबन जनवरी और फरवरी के महिनों में विभिन्न संचार माध्यमों में परीक्षा के बरक्स एक युद्ध सा माहौल बनाया जाता है। परीक्षा न हुआ गोया युद्ध की आशंका से अस्त्र-शस्त्र, तीर-कमान आदि की सफाई संजाई शुरू हो जाती है। उसी तरह से परीक्षा से पहले इतना सोएं, इतना पढ़ें, यह न करें, वह न करें। कोई- कहीं ज्योतिषी तो कहीं मनोचिकित्सक, कहीं डाॅक्टर या फिर विषय विशेषज्ञों के पाचक बांटने तेज हो जाते हैं। बड़ी ही चिंताजनक बात है कि पहले तो अभिभावकों और अध्यापकों की तरफ से पेट में दर्द पैदा की जाती है फिर मर्ज बढ़ाकर चुरनें बांटीं जाती हैं। कितना बेहतर होता कि दर्द ही न पैदा हो इसकी कोशिश की जाती।
कुछ नवाचारी स्कूल हैं मसलन बोध शिक्षा समिति और अरविंद आश्रम में स्थित मिरांबिका जहां किसी भी कक्षा में परीक्षाएं नहीं होतीं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं निकालना चाहिए कि वहां बच्चे कैसे अलगी कक्षा में जाते हैं? तथाकथित सालाना व मासिक परीक्षाएं नहीं होतीं। वहां सतत् मूल्यांकन को अपनाया जाता है। बच्चों की समझ, बौद्धिक स्तर, रूचि आदि के अनुसार विषय पढ़ाए जाते हैं। जिस विषय में बच्चे की जिस स्तर की समझ और क्षमता है उसे उसी स्तर की शिक्षा दी जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन स्थानों पर पुस्तकीय ज्ञान को रोचक और गतिविधि से जोड़कर बच्चों के साथ साझा किया जाता है।  
नेशनल करिकूलम फे्रमवर्क 2005 बच्चों को रटे रटाए तथ्यों को यथावत् उत्तर पुस्तिका पर उगलने के खिलाफ अपनी सिफारिशे दे चुकी है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए एनसीइआरटी की किताबें बनाई गईं। उन किताबों में सवालों की प्रकृति को बदला गया। यहां तक कि अध्यापकों की ओर से गतिविधियां कराने की भी गुंजाईश पैदा की गई। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज भी बच्चे परीक्षा से उतने ही डरते और मरते हैं जितने 2000 के आस-पास अपनी जान दिया करते थे। बल्कि आंकड़े तो घटने की बजाए बढ़े ही हैं। स्कूल स्तर से लेकर काॅलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर दाखिले के लिए छात्रों को परीक्षा के द्वार को पार करने पड़ते हैं। लेकिन जिस संख्या में रिजल्ट से हताश होकर आत्महतया करने की प्रवृत्ति 10 वीं और 12 वीं कक्षाओं में देखी जाती हैं। उतनी अन्य स्तर की परीक्षाओं में नहीं। शिक्षा से संबद्ध विभिन्न निकायों को इस मुहाने को दुरुस्त करना होगा जहां पर हमारे भविष्य के पौध दम तोड़ देते हैं। परीक्षा को डरावनी छवि से निजात दिलाना होगा।

एकांत में नहाते हुए
वो जब नहा रही थी उसी वक्त जीजा झांक रहा  था। कुछ उसके गिले बदन को देख देख कर अपने भाग्य को कोसता जीजा सोच रहा था कि मुझे क्यों नहीं मिली ऐसी संुदर बदना। कि तभी दीवार से कुछ खिसका और उसके आभास हुआ कि कोई है जो झांक रहा है।
झांक रहा है उसे एकांत में नहाते हुए। कोई कौन हो सकता है? घर में केवल दीदी और जीजा ही तो हैं। दीदी देख नहीं सकती। फिर वह दूसरा कौन है। सहज ही था दूसरा कोई और नहीं उसका जीजा ही था। उसने इस वाक्या को दबा दिया कि कहीं दीदी के घर में बवाल न हो जाए। कहीं इसका खामियाजा दीदी को न भुगतना पड़े।
बात आई गई हो गई। लेकिन बात तो बात थी नहीं। वह एक घटना बिन सोचे नहीं घटित नहीं हुई थी। सो एक बार फिर घटित हुई। लेकिन इस बार घर भी उसी का था और बार्थरूम भी। बस झांकने वाला व्यक्ति एक ही था। इस बार उसने विरोध का जोखि़म उठाना ही बेहतर समझा।
वैसे उसका पति कब का दूसरी लड़की के प्रेम में जा चुका था। ले देकर एक अपंग लड़का साथ था। शायद यही वो सहजता और सकून था उसके जीजा की नजर में। सो बाज नहीं आता। जबकि उसके भी जवान बेटी थी और बेटा भी। इस बार उसने सब के सामने यह बात रखने की हिम्मत जुटाई।


बहार ए बाहर
कभी सोचा भी नहीं होगा कि कल जब वो आॅफिस आएंगे तो उनका एसेस राइट छीन ली जाएगी। वो कम्प्यूटर नहीं खोल सकते। गेट से अंदर आने के बाद सब कुछ बदला बदला होगा। साथ काम करने वाले भी उनसे मंुह चुराएंगे। उनकी गलती क्या थी इस पर कोई खुल कर बोलेगा भी नहीं। सब तरफ ख़ामोशी और शांति पसरी होगी। सब को इसका डर सता रहा होगा कि कहीं बात करते कोई नोटिस न कर ले। 
दुनिया भर में 2008 में मंदी के दौरान इस तरह की घटनाएं आम देखी जा रही थीं। रातों रात लोगों के हाथ से नौकरी यूं फिसल रही थी जैसे रेत हो मुट्ठी में। रात काम कर के गए सुबह बे नौकरी हो गए। किसको क्या बताएं। कि घर जल्दी क्यों आ गया वो। 
2008 ही नहीं बल्कि कई कंपनियों में आज भी यह मंजर देखा जा सकता है। कोई कैसे रोतों रात सड़क पर आ जाता है इसका उसे इल्म तक नहीं होता। घर बाहर हर जगह उससे कई सवाल करती आंखें घूरने लगती हैं। न घर में चैन से रह पाता है और न बाहर।
ऐसे में कई लोगों के मधुर प्रणय संबंध खटाई में मिल गए। जो जोड़े शादी के लिए तैयार थे उसपर स्थगन के ग्रहण लग गए। होस्पिटल में किसिम किसिम के बीमार लोग आने लगे। दांत का दर्द। सिर में दर्द। खीझ, चिड़चिड़ापन। गुस्सा आदि इससे सेहद तो खराब हुई ही साथ ही कई रिश्ते दूर चले गए। छः छः माह या साल भर तक लोग तमाम नेटवर्क तलाशते रहे नौकरी के लिए। लेकिन एक टीस एक भूत कि आपको तो निकाला गया था उनका पीछे नहीं छोड़ते थे।
निकाले गए लोगों पर म्ंादी के व्यापक प्रभाव एवं दुष्परिणामों पर सही मायने में न विश्लेषण हुआ और न ही विमर्श ही। अखबारों, मीडिया एवं आम मंचों पर इस मुद्दे पर चर्चा भी गोया सेंसर के शिकार हो गए थे। अखबारों में तो खास कर चेतावनी दी गई थी कि मंदी और इससे जुड़े मामले अखबारों में नहीं दिखने चाहिए। सो नहीं दिखा। दृश्य माध्यमों पर भी इससे जुड़ी ख़बरें नदारत रहीं।
विभिन्न कंपनियों ने मंदी की आड में जम कर कत्ल ए आम मचाया। जिसमें कई निर्दोष जानें भी स्वाहा हो गईं। उन्हें संभलने में साल लग गए। किन्तु यह खेल अभी थमा नहीं है। कंपनी को घाटे से बचाने के तर्क पर यह खेल बतौर जारी है। ऐसे में जान तो कमजोर, असहायों की ही जाती है। जो ‘करीब’ होते हैं उन्हें एक खरोच तक नहीं आती।
ऐसे लाखों कामगरों के लिए सहानुभूत रखना कहां का गुनाह है। और यदि हमसे बन पड़े तो उनकी मदद करना किसी आपदा से प्रभावित पीडि़त की जान बचाने से कम नहीं है।
बोध गया और लाहौरः दर्द एक सा
इधर बोध गया में धमाका उधर लाहौर में भी। इधर मरने वालों की संख्या कम उधर 20 से भी ज्यादा। ख़ून दोनों ही जगह। दोनों ही जमीन पर आतंकी हमला। न वो सुरक्षित और न हम। 
सच है। लाहौर में बाजार था उनके निशाने पर और यहां मंदिर। एक शांति स्थल तो दूसरा भोजन स्थल। शाम में लोग घरों से निकल कर विभिन्न तरह के व्यंजन खाने आए थे। वहीं वहां मन की शांति की तलाश मंे। एक ओर क्षुधा तृप्ति थी तो दूसरी ओर मानसिक। 
उनके लिए दोनांे ही जगह एक समान। सिर्फ और सिर्फ लोग। जिनके बीच दहशत खौफ पैदा करना और खून बहाना मकसद था। जो उन्होंने किया। कत्ल, खून, आतंक न बौद्ध को स्वीकार है और न इस्लाम को। लेकिन ऐसे लोग तमाम धर्माें, संप्रदायों और वादों ने परे अपने ही दर्शन पर चलते हैं। जो चीख, हत्या, ख़ून आदि की ही भाषा बोलता, समझता है। 
या ख़ूदा उन्हें सही इल्म दे।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...