Tuesday, May 19, 2009

भाषा का पेड़

भाषा का पेड़ जब लगाया तब बाबा बोहुत खुश हुवे लेकिन उनके सामने सारे के सारे आपस में लड़ने लगेने यह सोचा नही था। आज वो बेहद गमगीन थे। भाषा कि सभी पेड़ आपस में झगड़ रही थीं मैं सुंदर नही मैं बेहतर, मुझे जयादा लोग पसंद करते हैं, न न मुझे ज्यादा लोग लिखते पढ़ते हैं। तो मैं हुई न तुम सब से बेहतर। बोल बोल चुप हो गई न लगता है तुम लोगों ने अपनी हार मान ली है। बिना रुके उन भाषावो में से इक बोले जा रही थी,। बाद में पता चला वो इंग्लिश थी।
पर बाबा को यह सब देखा नही जा रहा था। उन्होंने सब को बुला कर कहा तुम सब मेरी बगिया के फूल हो आपस में झडो मत। प्यार से रहना सीखो। साडी भाष्यें अची हैं।
भाषायें समझ गईं। साथ साथ रहने लगीं।

Monday, May 11, 2009

रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ नही हूँ

मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत !
क्या जाने कब
इस दुरूह चक्रव्यूह में
अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय !
अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी
बड़े-बड़े महारथी
अकेली निहत्थी आवाज़ को
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें
तब मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया
उसके हाथों में
ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता हूँ !
मैं रथ का टूटा पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जाने
सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले !

बिल्कुल भरती जी ने सही लिखा की न मामूली से चीज भी न जाने कब काम आ जाए कुछ कह नही सकते। हर इन्सान अपने अपने रन लड़ ही तो रहा है।

कुछ लोग यैसे ही हुवा करते हैं

कुछ लोग यैसे ही हुवा करते हैं जिनके लिए न बना ही नहीं। यैसे लोगो को आज के चालाक लोग बेवकूफ कहा करते हैं। और तो और साहब लोग इन महासये को जितना हो सकता है उसे करते हैं ऊपर से मुर्ख समझते है। क्या है कि उनकी सहजता को ये लोग नासमझी मानते हैं।

क्या कीजियेगा साहिब ये लोग होते है यैसे हैं कि ठोकर खा कर भी हेल्प के लिए आगे आ जाते है।

Wednesday, May 6, 2009

फिल्मी गीतों में केवल बुरे अल्फाज़ धुन्धने निकला जाए तो सब के सब बुरे ही नज़र आयेंगे। लेकिन येसा नही है कई गीत यैसे हैं जिसे आज भी गुनगुना कर जी हल्का होता है। केवल गीतों में हल्केपन को तलाशा जाए तो यह अलग बात है। दर्शन भी है, जीवन भी है साथ ही चुहल है सरे तो जीवन के रंग ही तो हैं कोई क्या इन रंगों से ख़ुद को विल्गा सकता है। संभतः नही।

जाने वो कोण सा देश जहाँ तुम चले गए , न चिट्ठी न संदेश जाने वो कोण सा देश जहाँ तुम चले गए

Monday, May 4, 2009

गीत बोल हरतरह के हुवा करते हैं
यह आप पर निर्भर करता है की उसका किस तरह से इस्तमाल करते हैं।
बोल तो इक लड़की को देर्खा तो येसा लगा
जैसे उजली किरण
जैसे वन में हिरन
जैसे मन्दिर में हो इक जलता दिया
इन शब्दों में क्या ही गहरी है
कोई हिन्दी का मास्टर अलंकार पढ़ते समाये इन लीनो का प्रयोज कर ही सकता है।

Sunday, May 3, 2009

मंदी की दसा को समझें

मंदी पहले से ज़यादा गंभीर होती जा रही है। सरकार ने इसे गंभीरता से नही लिया तो हालत और भी बिगड़ ही जायेगी। देखा गए तो सरकार से अपने तरफ़ से कोशिश कर रही है पर वो पर्याप्त नही कहा जा सकता। कपनियां इस मंदी से निपटने के लिए जो रास्ता अपना रहे हैं उसे क्या नाम किया जाए। प्रस्ताव आए है की लोग महीने में १० १८ दिन कम करे और ५० फिसिदी सैलरी लें। दूसरी बात यह कही जा रही है की १० से १८ माह छुट्टी ले कर ट्रेनिंग लें और सैलरी के २५ फीसदी घर बैठ कर लें। जब बाज़ार की हालत थी होगी या कंपनी दुरुद्स्त हो जायेगी तब उन्हें काम पर रख लिया जाएगा।
येसी हालत को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है

मंदी भगा मंदी भगा

मंदी भगा मंदी भगा,
कोई कंपनी नै दिला,
जॉब दिला जॉब दिला
मंदी भगा मंदी भगा।
बाज़ार की हालत दुरुस्त बना,
मंदी भगा मंदी भगा,
लिकुदिटी तो बहा,
मंदी भगा मंदी भगा,
यन्न रुपिया

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...