Sunday, December 31, 2017

साल का अंतिम दिन




कौशलेंद्र प्रपन्न
कोई नई बात नहीं। हर साल ही यह आया करता है। लोग धड़ल्ले से जगह जगह जा कर सूचना फेंके जा रहे हैं। कोई फलां रिसॉर्ट में, कोई गोवा, तो कोई न्यूयार्क में नए साल में टहल रहे हैं। जो बच गए वो अपने घर, गांव, शहर में अपने काम में लगे हैं।
किसान खेतों में आलू, गाजर, गन्ने काट, उखड़ रहा है। महिलाएं बुग्गी हांकती हुई बाज़ार जा रही हैं गन्ने बेचने। नज़र नज़र और जरूरत की बात है। स्थान और जीवन की प्राथमिकताओं की बात है।
फर्ज़ कीजिए आप गांव में हैं तो वहां नए साल के लिए क्या करेंगे। क्या आप मॉल्स में जाएंगे? क्या आप मोमोज खाएंगे या घर में बैठे घर के बने खाना खा कर कल फिर खेत पर जाने की तैयारी करेंगे। अपनी अपनी जीवन की चुनौतियां हैं और जीवन के रंग हैं।
महज कैलेंडर की तारीखें नहीं बदलतीं बल्कि हमारी एक आदत और अगले साल फिसल जाती है। हमारी रूचियां और प्रौढ़ हो जाती हैं। हम ज़रा और वयस्क हो जाते हैं। हमारी दृष्टि और साफ हो जाती है।
कई बार हम अतीत के पन्नों को पलटने में ही नए साल यानी वर्तमान को बोझिल करते रहते हैं। जबकि पिछले पन्ने को फाड़ कर आगे नई इबादत लिखनी चाहिए। जो शब्द पिछले साल खोखले रहे गए थे उन्हें अर्थ से लबालब करने की ललक हो तो नए साल की किताब को और रोचक बनाया जा सकता है।
 

Friday, December 29, 2017

बाल साहित्य कोई न ख़बर लेवनहार



कौशलेंद्र प्रपन्न
वर्ष अपने अंतिम चरण में है। वयस्कों के साहित्य की समीक्षा की जा रही है। इस वर्ष कविता,कहानी, उपन्यास आदि विधाओं में कौन कौन सी किताबें प्रमुख रहीं।
हाल ही में पत्रकार व लेखक पंकज चतुर्वेदी जी ने पूछा कि बाल किताबों के नाम, कवर पेज और प्रकाशक लेखक सहित सूचित करें। यह एक बड़ा सवाल और उलझन पैदा करने वाला था। मैंने इस वर्ष की प्रमुख बाल किताबों की सूची बनाने में सफल नहीं रहा। थक हार कर कुछ बाल पत्रिकाओं के नाम तो गिना सका लेकिन किताबों के नाम नहीं बता सका।
क्या यह मेरी व्यक्तिगत हार है? क्या यह मेरी निजी असफलता है कि मैं बाल किताबों की पहचान व सूची नहीं बना सका? मुझे लगता है कि पूरे वर्ष हम वयस्कों की किताबों पर तो भरपूर बल्कि कुछ ज़्यादा ही वक़्त दिया करते हैं। लेकिन जब बाल साहित्य की बात आती है वैसे ही वयस्क नदारत हो जाते हैं।
पिछले दिनों जब अख़बार और पत्रिका तलाश रहा था तब बाल साहित्य के नाम पर पारंपरिक कहानियां मिलीं। पिछले पांच - छह सालों से अख़बारों के साल के अंतिम हप्तों में साहित्य विश्लेषण देखता रहा हूं जिनमें कहानी,उपन्यास, कविता आदि की चर्चा खूब होती रही है। बस उपेक्षित तो बाल साहित्य रहा करता है।

Thursday, December 28, 2017

जाल समेटा करने का समय...


कौशलेंद्र प्रपन्न
पता नहीं कहां कहां, कब, कैसे किसी को ठेस पहुंचा किया हमने। कहां न जाने हम गिरे। कहीं अपनी नज़रों में। तो भी दूसरों की नज़र में। अब गिरता तो गिरना है। वह जहां भी हुआ हो। उन उन लोगों से उन स्थानों पर पूरी संजीदगी के साथ और शिद्दत से मॉफी मांग लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।
हम अपने तमाम कर्मां, गुण-अवगुणों के स्वयं मूल्यांकनकर्ता होते हैं। हमें कभी न कभी। किसी ने किसी के सामने अपनी ग़लतियों को कबूल कर लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वक़्त निकल जाए और आप ग्लानि में सांसें लेते रहें।
हर साल, हर पल अपने साथ कई किस्म के तज़र्बे ले कर आया करता है। कुछ सुखद होते हैं तो कुछ टीस देने वाली। चेहरे तो हंसते रहते हैं लेकिन अंदर की नदी कहीं सूख रही होती है। आत्मबल कमजोर हो रहा होता है।
कितना बेहतर हो कि हम अपनी कमियों, ग़लतियों को स्वीकार कर लें और आत्मग्लानि से बच जाएं। सो यह काम हमें कर ही लेना चाहिए।
सुखद बातों को हम अक्सर याद रख लिया करते हैं। लेकिन जो छूट जाती है वह किसी कोने में पड़ी सुबकती रहती है। वह दुखद या कष्ट देने वाली घटनाएं हुआ करती हैं। मगर गौर से देखें तो वह पल भी तो हमारा ही हिस्सा हुआ करता था।
बस इतनी सी बात है जब भी हम अपनी बात, एहसास को स्वीकार कर और सही व्यक्ति तक पहुंचा देते हैं तब हमारी ख़्वाहिश पूरी हो जाती है। 

Tuesday, December 26, 2017

भीड़ में मैं या कि तुम


कौशलेंद्र प्रपन्न
जब से छुट्टियों को मौसम आया है तब से लोग दिल्ली छोड़ उड़ने में लगे हैं। जो उड़ नहीं सकते वो रेंग रहे हैं। जो रेंग नहीं सकते वे घिसट कर चलने लगे हैं।
दिल्ली को कोना कोना भीड़ में तब्दील हो चुका है। हर सड़क हर मॉल्स सजे हुए हैं। सड़कें कराह रही हैं। जिधर देखो उधर भीड़ ही भीड़ गाड़ियां ही गाड़ियां।
शायद हम कितने थक जाते हैं। पूरे साल काम करते करते। काम न भी करें तो छुट्टियों का इंतज़ार कुछ इस तरह होता है गोया इसके बगैर हम कितने अधूरे हैं।
आज कल ऑफिस में साथी कम हैं। शोर कम है। सभी कहीं न कहीं भीड़ का हिस्स बने हुए हैं। जहां होटल 500, 2000 में मिला करते हैं। वहीं उनके रेट आसमान छू रहे हैं।
होटल वाले, गाड़ी वाले। टै्रवल एजेंट सब के सब बिजी हैं। सर अभी बहुत महंगे हैं। आफ मौसम तो अब होता कहां है।
देश विदेश हर जगह लोग उड़ने को बेताब हैं। जिन्हें विदेश नहीं लिखा व मिला वो देश में ही अंतरदेशीय उड़ान भर रहे हैं।
हम इतना खाली पहले कभी नहीं थे। जितने अब होते जा रहे हैं। नाते रिश्तेदार कहीं खो गए। किसी से मिलने की न तो ललक बची और न वक्त। चाव तो कब की जाती रही।
बाहरी शोर से हमने अपने आप को भरना शुरू कर दिया है।

Monday, December 25, 2017

13,०० सरकारी स्कूल महाराष्ट्र में बंद 
खबर है कि महाराष्ट्र के पुणे के आस पास तक़रीबन 13,00 सरकारी स्कूल बंद हो गए .
शिक्षामंत्री का कहना है कि शिक्षा की गुणवत्ता काम होना मुख्या वजह है स्कूल में बच्चे नहीं हैं.
तर्क पर हँसा जाए या दुखी .

Wednesday, December 20, 2017

परीक्षा से डरी बच्चियां




कौशलेंद्र प्रपन्न
मेट्रो में सुबह का समय। सीट पर खचाखच भीड़। लेकिन सीट मिल गई। मैं अपनी किताब 100 संपादकीय 1978 से 2016 तक द हिदू पढ़ने लगा। मेरे पास बैठी लड़की और उसके दोस्त आपस में बात कर रहे थे। मैं सुनना भी नहीं चाह रहा था। लेकिन कुछ पंक्तियां कोनों से टकरा रही थीं।
‘‘यार! सुबह तीन बजे से जगी हूं। नींद नहीं आ रही थी। मम्मी बार बार कह रही थी पढ़े ले।’’
‘‘नींद गहरी आ रही थी।’’ ‘‘कल रात से सिर में बहुत दर्द हो रहा है।’’
आपसी बातें और तेज होने लगीं। बीच बीच में मैं नज़रे उठा कर उन्हें देखता तो ‘‘शॉरी अंकल’’
‘‘अंकल डिस्टब हो रहे हैं।’’
‘‘मैंने कहा कोई बात नहीं। कहां पढ़ती हैं? क्या कर रही हैं?’’
वे बच्चे इंटिरियर डिजाइनिंग का कोर्स महारानी बाग से कर रहे हैं। आज उनका पेपर डिजाइनिंग का था। सिद्धांत और प्रैक्टिल दोनों।
मैंने बातचीत का सिलसिला जारी रखा। क्यों डर लग रहा है।कितनी पढ़ाई हुई आदि।
मैंने बस उनके डर को हल्का करने के मकसद से कहा कि जब परीक्षा में प्रश्न पत्र आए तो पहले सवालों को पढ़ने और उसकी भाषा को समझने की कोशिश करना कि क्या पूछा जा रहा है।उसके अनुसार अपनी पढ़ाई को इस्तमाल करना। मॉल्स गए हो, शोरूम में जाते हो, वहां देखा होगा इंटिरियर डिजाइनिंग कैसी होती है।उन्हें एक बार ध्यान से याद करना। काफी हद तक तुम्हारे सवालां के जवाब निकलने शुरू हो जाएंगे। आदि
बातचीत में उन्हें परीक्षा के डर से बाहर निकालना था। उन्हें परीक्षा की प्रकृति और चरित्र पर बात कर उनके मन को हल्का करना था। मैंने उन्हें कहा कि परीक्षा क्या जांचना चाहती है।परीक्षा में हम क्या मूल्यांकन करना चाहते हैं?आदि उद्देश्य स्पष्ट हों तो परीक्षा डराती नहीं।
बातचीत में मालूम ही नहीं चला कि कब कशमीरी गेट आ गया।लेकिन जाते जाते बच्चों ने जो स्माइल दी और कहा, ‘‘ अंकल जी आपने आज हमारा दिन बना दिया’’हम से कोई इस तरह परीक्षा पर बात ही नहीं करता। हर कोई डराते हैं।
मुझे लगता हैअपने बच्चों से परीक्षा और शिक्षा के मायने पर रूक कर बात करनी चाहिए। संभव हैहम बच्चों को डिप्रेशन और तनाव से बाहर निकाल सकें।

Tuesday, December 19, 2017

किताब लोकार्पण के दिन दूर नहीं



कौशलेंद्र प्रपन्न
विश्व पुस्तक मेला आने वाला है। बल्कि तारीख भी तय है। 6 से 14 जनवरी। मेल, व्टास्एप, मेसेज आदि से नई नई किताबों की सूचनाएं आने लगी हैं।
कोई अपनी कविता संग्रह, कोई कहानी संग्रह,उपन्यास, निबंध आदि लेकर आ रहे हैं। एक सुखद घटना है। कम से कम लोग साल भर लग कर किताब लिख रहे हैं।
किताबें लिखी जा रही हैं। किताबें छप भी रही हैं। पाठक भी तो आस-पास ही हैं। कुछ खरीद कर पढ़ने वाले हैं तो कुछ उपहार में मिली किताब को अपनी आलमारी में रखने के लिए उतावले हैं। सबके अपने अपने पसंद और रूचियां हैं। वे उस किताब को जरूर खरीद कर पढ़ने वाले हैं।
आलोचक, समीक्षक, वाचक भी तैयार हैं। जैसे ही उन्हें किताब मिलेगी वो शुरू हो जाएंगे। पढ़ना, लिखना और बोलना तीनों कौशल की शुरुआत हो जाएगी।
कुछ की किताबें पत्रिका,अख़बार आदि में दो कॉलम, तीन कॉलम या फिर तीन पेज की जगह पा जाएंगी। जो समीक्षा से बाहर रह जाएंगी वो अपनों के बीच पढ़ी और चर्चा में शामिल होंगी।
से तैयार हो जाइए। पुस्तक मेला और किताबों के लोकार्पण समारोह में। आइएगा जरूर। क्या पता आपको अपने पसंद की किताब हाथ लग जाए।

Monday, December 18, 2017

800 से ज्यादा बंद कर दिए गए सरकारी स्कूल



कौशलेंद्र प्रपन्न
राज्य उड़िया। गांव,जिला मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जी का चुनावी क्षेत्र। गांव भी आदिवासियों का। उसमें भी सरकारी स्कूल। कौन आवाज उठाए। बच्चे किसके आदिवासियों के। उन्हें पढ़ने-लिखने से क्या हासिल होगा। क्या वे पढ़-लिखकर कलक्टर बनेंगे?क्या वे राजनेता बनेंगे? मालूम नहीं। लेकिन उनके चुनानी क्षेत्र में पिछले शुक्रवार की ख़बर के अनुसार 800 से ज्यादा सरकारी स्कूलों में ताला लगा दिया गया।
सरकारी स्कूलों में ताला लगने की यह कोई नहीं ख़बर नहीं है। वैसे में जब एक प्रचारमंत्री वोट डाल कर रोड शो करते हों। ऐसे में जहां आम लोगों से उनकी सरकारी शिक्षा के रास्ते बंद किए जाते हों। क्या फर्क पड़ता है? किसे फर्क पड़ेगा?
सरकारी आती जाती हैं। लेकिन शिक्षा, बच्चे, समाज वहीं का वहीं रह जाता है। उसपर आदिवासी समाज से हमने वन संपदा तो हसोत ही ली। उनसे शिक्षा के अधिकार को भी अपने कब्जे में कर रहे हैं। कौन उठाएगा उनकी आवाज़।
आरटीई फोरम देश भर में शिक्षा के अधिकार आधिनियम की रक्षा और सरकारी स्कूलों को बचाने की वकालत करता है। हाल ही में दिल्ली में नेशनल सम्मेलन भी हुआ। उसमें देश भर से शिक्षाकर्मी, नीति निर्माता और शिक्षा-अधिकार की आवाज को बलंद करने वाले जुटे। यह संस्था राजस्थान, म.प्र, यूके आदि राज्यों में सरकारी स्कूलों के बंद होने पर पूरजोर आवाज उठाई थी।
एक ओर सस्टनेबल डेवलप्मेंट यानी सतत् विकास लक्ष्य को पाने के लिए 2030 तक की रणनीति बनाने में देश लगा है वहीं दूसरी ओर हमारे बच्चों से सरकारी स्कूल भी दूर किए जा रहे हैं।
मलूम चला कि जिन स्कूलों को बंद किया गया। उनमें पढ़ने वाले बच्चों को विकल्प के तौर पर दूसरे स्कूलां में दाखिला दे दिया जाएगा।
यही तर्क दूसरे राज्यों में भी सरकार की ओर से दिए गए थे। लेकिन वहां कोई पूछने वाला नहीं कि जिन बच्चां के स्कूल बंद हुए क्या वे बच्चे दूसरे स्कूलों में जा रहे हैं।
स्रकारी स्कूलांं को बंद होने हमें बचाने की आवश्यकता है।

Thursday, December 14, 2017

पढाना चाहें, पर वक्त नहीं


कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों तकरीबन बीस शिक्षकों के साथ उनकी कक्षा में बातचीत और मुलाकात का अवसर मिला। इस मुलाकात में कई सारी बातें, शिक्षण समस्याएं और चुनौतियों से रू ब रू होने का मौका मिला।
बच्चों को किस प्रकार हिन्दी पढ़ने में दिक्कतें आती हैं। शिक्षक किस प्रकार उन्हें पढ़ने के प्रति प्रेरित किया जाए आदि पर विस्तार बातचीत हुई।
अधिकांश शिक्षकों से जो बात सुनने को मिली उसका लब्बोलुआब यही था कि उन्हें पढ़ाने का मौका बहुत कम मिलता है।
डाइस की रिपोर्ट, बैंक के साथ बच्चों के आधार कार्ड जोड़ना, वर्दी के पैसे बांटना,आदि कामों में ऐसे उलझे होते हैं कि पढ़ाना पीछे छूट जाता है।
बच्चों को पढ़ाने के लिए बेचैन शिक्षक अंत में भारी मन से अपने घर जाते हैं। कहते हैं सर हमें कई बार बहुत खराब लगता है जिस दिन हम बच्चों को नहीं पढ़ाते।
यह दर्द यह एहसास न जानें कितनों को होता होगा मालूम नहीं लेकिन जितने भी ऐसे शिक्षक हैं उन्हीं की वजह से शिक्षा में जो भी गुणवत्ता बची है उन्हें इसका श्रेय जाता है।

Tuesday, December 12, 2017

मास्टर जी की आदतें



कौशलेंद्र प्रपन्न
बात उन दिनों की है जब मैं स्कूल में पढ़ा करता था। शायद क्लास छठी या सातवीं या फिर आठवीं में। मुझे लिखना बिल्कुल पसंद नहीं था। मास्टर नगीना बाबू जो कुछ भी लिखा करते। मैं उसे अपनी कापी में नहीं लिखा करता। एक बार चक्कर काटते हुए मेरी कॉपी पर नजर गई।
‘‘पंडित!!! तुम्हारी कॉपी ख़ाली क्यों है? तुम लिख नहीं रहे हो।’’
‘‘मैंने कहा, मिट जा रहा है।’’
उन्होंने पूरी क्लास के सामने दुबारा ब्लैक बोर्ड पर लिखा लेकिन मिटा नहीं। तब वापस आए। और पूछा पंडित कहां मिटा। और कॉपी उठाई। कहा, ‘‘अपनी पिताजी का नाक कटवाओगे?’’
‘‘शाम में पिताजी मिलेंगे। समझे।’’
दूसरा वाकया गोरख बाबू के साथ का रहा। वो मुझे नौवीं कक्षा में हिन्दी में मिले। उनकी लेखनी और लिखने की शैली लाजवाब थी। वो जो भी लिखा करते सिरोरेखा नहीं डालते थे। गोरख बाबू का प्रभाव यूं चढ़ा कि आज तलक मैंने हिन्दी लिखते वक्त सिरोरेखा नहीं डाला। कई बार लोगों ने टोका। पिताजी ने टोका डांटा आदि। लेकिन आदत जो पड़ चुकी थी।
हिन्दी लिखने की शैली और तौर तरीका पर गोरख बाबू का असर रहा। उनसे पूछा कि वो क्यों ऐसे लिखते हैं?
तब उन्होंने कहा, ऐसे जल्दी जल्दी लिख लेता हूं। रफ्तार में लिख पाता हूं। पता नहीं कब हमारे बच्चे अपने शिक्षकों के हर चीज को करीब से नकल करते हैं। कब मास्टर जी की आदतें हमारी हो जाती हैं। इसका पता ही नहीं चलता।

Monday, December 11, 2017

ढाई साला बच्ची की आंखों में मोबाइल



कौशलेंद्र प्रपन्न
ढाई साला बच्ची ताबड़तोड़ मोबाइल में आंखें फोड़ रही थी। मां बगल में बैठी टीवी देख रही थी। स्थान डॉक्टर की क्लिनिक। टीवी पर कुछ ख़बर तैर रही थी। ख़बर अस्पताल की थी। मां अपना ज्ञान और जीके दुरूस्त कर रही थी। बच्ची अपनी इंटरनेटी गेम को।
बच्ची बिना सिर उठाए लगातार छोटे से स्क्रीन में आंखें धसाए आनंद ले रही थी। बीच बीच में आंखें उठाकर मां को देख लेती। मां टीवी में।
बच्ची काफी देर तक मोबाइल में व्यस्त रही। इसी बीच फोन आ गया तो मां को पकड़ा दी। लेकिन जैसे ही कॉल खत्म हुआ फिर मोबाइल में।
मैं इस पूरी घटना को देख और समझने की कोशिश कर रहा था। कि बच्ची क्या देख रही हैं? किस चीज में उसे आनंद आ रहा है। आदि
रहा नहीं गया। सो पूछ ही लिया उसकी मां से। वैसे अपरिचितों से बात न करें। ऐसी घोषणाएं ताकीद करती हैं। लेकिन मैंने वह जोखिम उठाई।
मां ने कहा, ‘‘यू ट्यूब पर गाने देख रही है।’’
‘‘देख लेती है। अपने पसंद की गीत और खेल खुद यू ट्यूब पर सर्च कर लेती है।’’
जिज्ञासा यहीं शांत नहीं हुई। पूछा, ‘‘यू ट्यूब तक कैसे पहुंचती है?’’
‘‘क्या आपके फोन में ही सर्च कर लेती है या किसी भी फोन में?’’
‘‘सर्च तो ये वाइस माइक से करती है। अभी लिख नहीं पाती न।’’
‘‘मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। मैंने उनसे अनुमति मांगी क्या मैं अपना फोन उसे देकर सर्च करने को कह सकता हूं?’’
वो तैयार हो गईं। मैंने उस बच्ची को फोन दिया। उसने स्क्रीन को गौर देखा। फिर अंगुली से सरकाना शुरू किया। कुछ देर में यू ट्यूब के आइकन को डबल टच कर ओपन किया और माइक को टच कर बोला लकड़ी की काथी... तुतली आवाज में बोली और उसके सामने वह गीत हाज़िर।
ठीक इसी तरह की एक और घटना याद करूं तो दो साल का रहा होगा बच्चा। उसे मैंने पिछले एक घंटे से मोबाइल में आंखें फोड़ते देख दंग रह गया।उस पर तुर्रा यह कि मां-बाप यह बताते हुए अघाते नहीं कि उनका बच्चा मोबाइल ऑपरेट कर लेता है।हंसिए जनाब या रोइए। समझ नहीं आता।
एक मां ने जब अपनी बेटी को पापा के मोबाइल में अचानक अश्लील विडियो देखते हुए पाया तो उसका गुस्सा बाहर निकल ही पडा। चांटा और डांट दोनां एक साथ। लेकिन क्या गलती उस बच्ची की थी? वह तो तर्क करने लगी।
‘‘क्यों मारा ममॉ? उसमें छांप जैसा कुछ चल रहा था।’’ ‘‘एक दूसरे की बॉडी पर चढ़कर खेल रहे थे।’’
मां जवाब क्या दे?

Friday, December 8, 2017

शिक्षक का कबूलनामा




कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षकों पर कई तरह के तोहमत लगाए जाते रहे हैं। शिक्षक पढ़ाते नहीं। शिक्षकों में पढ़ाने की चाह नहीं रही। इस प्रोफेशन में आराम करने और जीवन से निराश हो चुके लोग होते हैं आदि। यदि यह तर्क हैतो पूर्वग्रह के करीब है।दरअसल शिक्षक पढ़ाते हैं। पढ़ाने की छटपटाहट भी होती है। लेकिन बीच कक्षा में उन्हें आंकड़ों के पेट भरने का काम दे दिया जाता है।शिक्षक पढ़ाना छोड़कर वर्दी,वजिफे आदि के पैसे बांटने, आधार नंबर को बैंक में लिंक कराने में जुट जाता है।उससे कोई नहीं पूछता पढ़ाई के दौरान आई अडचनों को कैसे दूर करोगे।
एक शिक्षक ने खुले दिल से कबूल किया कि एक बार यही कोई दस साल पहले जब वो नई नई नौकरी में आई थीं उन्होंने एक बच्चे को इस लिया पीटा था,बल्कि रोका भी करतीं करती थींक्योंकि वह दीवारां और फर्शपर चित्रकारी किया करता।
घटना घटे लंबा समय हुआ एक दिन एक वयस्क उनके सामने खडा हो गया और कहा, पहचाना!!! मैं कृष्णा। शिक्षिका को न नाम याद थे और न उसका चेहरा। लेकिन जब उसने घटना बयां किया कि वही बच्चा हूं जिसे आप रोज पीटा और डांटा करती थीं। कृष्णा। अब मेरी पेंटिंग की दुकान है। चित्र बनाता हूं। पोस्टर डिजाइन करता हैं। और स्कूलों के बैनर आदि बनाता हूं।
शिक्षिका ने बताया उस दिन मेरे पास कहने को कोई शब्द नहीं था। मैं अपनी ही नजरों में डूबती जा रही थी। उन्होंने कहा उस दिन एहसास हुआ कि मैं कितनी गलत थी।
इस तरह के शिक्षक एक नहीं बल्कि कई हैं जिन्हें अपने शिक्षण के दौरान हुए अनुभवों से ऐसी सीख भी मिली जिन्हें वो कभी भूल नहीं पाते।

Thursday, December 7, 2017

इतिहास की किताब और हमारी नज़र



कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल ही में यूनेस्को की ओर से हर साल जारी होने वाली रिपोर्ट 2017-18 ग्लोबल एजूकेशन मोनिंटरिंग रिपोर्ट जीइएमआर 2017-18 जारी की गई। इस रिपोर्ट में ख़ासकर भारत और पाकिस्तान में स्कूली पाठ्यपुस्तकों की राजनीति की ओर चिंता जारी रेखांकित की गई है।इस रिपोर्ट में बताया गया हैकि पाकिस्तान में इतिहास की किताबों में आतंकवाद, विभाजन और भारत के प्रति ख़ास दृष्टिकोण को तवज्जो दी गई है।बताया गया हैकि भारत में गोधरा कांड की प्रस्तुति और अयोध्या विवाद को रोमांचक तरीके से पेश करने की कोशिश की गई है।भारत औ पाकिस्तान में 1947 के बाद तारीखें बेशक बदलीं हैंलेकिन दोनों ही देशों में इतिहास को पढ़ने पढ़ाने की नज़र स्पष्ट नहीं है।गौरतलब हैकि प्रो. कृष्ण कुमार ने इसी मसले को प्रिजुडिश ए।प्राइड पुस्तक में बडी ही शिद्दत से पाठ्यपुस्तकों का विश्लेषण किया है।
शिक्षा में पाठ्यपुस्तकों को एक ऐसे औजार के तौर पर प्रयोग करने का चलन है जहां शिक्षकीय सत्ता को कमतर किया जाता है। शिक्षक चाह कर भी पाठ्यपुस्तकों को पढ़ाने के दौरान अपनी दक्षता का इस्तमाल नहीं कर पाता। शिक्षकों के सामने एक सवाल यह खडा होता है कि समय सीमा में पाठ्यपुस्तकों को पूरा कराए। और आज शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सा बना चुका परीक्षा में अच्छे अंक हासिल कर सके। स्पष्टतः शिक्षक महज पाठ्यपुस्तकों को हस्तांतरित करने वाला मशीन नहीं है बल्कि वह बच्चों में अपने परिवेश को समझने में सक्षम हो सके, इस प्रक्रिया में मददगार साबित होना है।

Wednesday, December 6, 2017

बनाते अख़बार और पत्रिका...






कौशलेंद्र प्रपन्न
श्री पंकज चतुर्वेदी जी के सानिध्य में तकरीबन चालीस शिक्षकों ने आधे घंटे में अख़बार और पत्रिकाओं का बनाकर अपनी कल्पनपाशीलता का परिचय दिया।
हमारा मकसद था कि शिक्षकों को बाल साहित्य के बारे में जानकारी देने के बाद उनसे बच्चों के लिए चित्रात्मक पुस्तक/पत्रिका और अख़बार बनवाया जाए। इसमें एक बात जो ख़ास थी वो यह था कि शिक्षकों ने इससे पहले कभी भी इस प्रकार का काम नहीं किया था।
आयु, स्तर और बाल मन को टटोलते हुए पत्रिका को जन्म देना था। साथ ही पत्रिका और अख़बार निर्माण की प्रक्रिया में किन किन मोड़ों,अड़चनों और चुनौतियों से गुजरना होता है उसे भी साझा किया जाए।
चालीस शिक्षकों की टीम को बीस बीस में बांट दिए गए। उन्हें यह जिम्मेदारी दी गई कि आपस में ही संपादकीय मंडल, चित्र निर्माता और कंटेंट लेखक की टीम बनाएं।
लगभग आधे घंटे में एक मुकम्मल पत्रिका सब के सामने आई। वहीं अख़बार भी बन कर तैयार था। श्री पंकज जी ने अनुरोध किया कि शिक्षक इस काम को अपनी कक्षाओं में लेकर जाएं। बच्चों को दिखाएं और कोशिश करें कि बच्चे खुद यह कर सकें।

Tuesday, December 5, 2017

कहानी पढ़ते-पढ़ाते..



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानियां हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करती हैं। कहानी सुनते,सुनाते, पढ़ते-पढ़ाते लंबा अर्सा हुआ। फिर भी कहानी कैसे पढ़ाएं जैसे सवाल बार बार सामने खडे होते हैं।कहानियों को पढ़ाने के तौर तरीकों और विधियों को लेकर कई सारे लेख, सामग्री बाजार में उपलब्ध हैं। लेकिन इन सब के बावजूद कहानियां कैसे पढ़ाई जाएं एक मसला आज भी है।कहानियों को पढ़ते-पढ़ाते वक्त किस प्रकार की सावधानियां रखी जाएं इसको लेकर किताबें भी हमारी मदद करती हैं।
श्री पंकज चतुर्वेदी के संपादन में नेशनल बुक ट्रस्ट से एक किताब छपी हैकहानी कहने की कला। इस किताब में प्रो. कृष्ण कुमार, पंकज चतुर्वेदी, बालकृष्ण देवसरे आदि के लेख पठनीय हैं। इस किताब में बडी शिद्दत से कहानी के विभिन्न तत्वों और पहलुओं पर चर्चा की गई है।लेकिन फिर क्या वजह हैकि कहानियां क्यों लचर तरीके से पढ़ी पढ़ाई जाती हैं।
मैंने कुछ प्रयोग स्कूली शिक्षकों के साथ किए। वे कैसे कहानी को पढ़ें, कैसे कहानी का पाठ करें और अंत में कहानी नाट्यरूपांतरण कैसे हो।
पहले तो कहानी कैसे बनती है। कहानी किन किन चीजों से मिलकर आकार लेती है। इस पर विस्तार चर्चा की। चर्चा के दौरान वे तमाम तत्व निकल कर आए जिन्हें चाहता तो सीधे सीधे लिख देता और वे अपनी कॉपी में उतार लेते। किन्तु ऐसा नहीं किया। जो तत्व उन्हें याद आते गए उन्हें हमने लिख दिया। जिसमें कथानक, जिज्ञासा, घटना, परिवेश, बाल सुलभ चंचलता, बच्चे की दुनिया, भाषा आदि। हमने इन तत्वों के गांठ को खोलने शुरू किए। कि यही वो तत्वों क्यों आपको याद आए।
अब बारी थी कहानी क्यों जरूरी है? कहानियों से क्या होता है? बच्चे या बड़ों के लिए कहानियों का क्या मायने है आदि।
कहानियां मनोरंजन के लिए, उत्सुकता के लिए, भाषा क संस्कार सीखने के लिए, कुछ भी सीखने के लिए, शिक्षा, सीख, मूल्य, नैतिकता आदि से परिचय कराने के लिए कहानियां पढ़ी और पढ़ाई जानी चाहिए।
अब हमने पाठ्यपुस्तक की कहानियों के चुनाव करने के लिए कहा। सभी ने एक एक कहानियां चुन लीं। काम यह था कि उस चुनी हुई कहानी में उक्त कौन कौन से तत्व आपको दिखाई देते हैं। क्या आप उस कहानी में कुछ भी किसी भी स्तर पर कोई फेर बदल करना चाहेंगे।
दूसरा खंड़ दिलचस्प था। बड़ी ही शिद्दत से शिक्षकों ने इस काम को अंजाम दिया। सब ने कहानी के तत्वों की पहचान अब सैद्धांतिक स्तर से नीचे उतर कर जमीनी हकीकत को जी रहे थे। इस गतिविधि का एक और स्तर था कहानी का पाठ। कहानी को कैसे पढ़ें। कहानी पाठ के अभ्यास के दौरान पाया कि कई शिक्षकों की भाषा और उच्चारण में काफी भिन्नताएं थीं। उस भिन्नता को प्रयोग हमने कहानी के पात्रों के संवादों में इस्तमाल किया। कि माना आपका पात्र फलां परिवेश से आता है तो उसकी भाषा-बोली ऐसी ही होगी।
कुल मिला कर कहानी पढ़ने-पढ़ाने के साथ यह अभ्यास और स्वयं के साथ प्रयोग आनंदपूर्ण रहा।
आप कैसे सुनते हैं कहानी? 

Monday, December 4, 2017

तमाशा कुछ यूं हुआ...





कौशलेंद्र प्रपन्न
तमाशा करने वाले बनिए जनाब भीड़ तो इकट्ठी हो ही जाएगी। भीड़ के पास वक्त ही वक्त है। भीड़ को तमाशा चाहिए। आप तमाशा बनना चाहेंगे?
आज की तारीख में हर चीज तमाशा है। वह आपकी कला हो, बोलना हो, उठना-बैठना ही क्यों न हो। एक बार तय करने की जरूरत है कि आप क्या करना चाहते हैं।
हमारे आस-पास तमाशा ही तमाशा हो रहा है। क्या आप भीड़ का हिस्स बनना चाहते है? क्या आप मज़मा जुटाने वाले बनना चाहते हैं यह हमें तय करना है।
हमने भी यही किया। खुले में अपना तमाशा बनवाया। बल्कि कहिए मैं तो अपना स्केच बनवा रहा था। लेकिन बाकी क्या कर रहे थे। क्या उनके पास वक्त था दूसरे के लिए? वक्त था, रूचि थी। और था उनके आस पास क्या अलग हो रहा है। क्या नया हो रहा है। जो भी जहां भी नया होगा तमाशा वहीं लगा करेगा।
शर्त है आप तमाश लगाना चाहते हैं। उन स्केच के दौरान कई से बातचीत भी होती रही। वे खुश थे कि उनके बीच कोई ख्ुलकर, बिना संकोच के तमाशा बनवा रहा है।
देखते ही देखते वहां तकरीबन पचास तो दर्शक जुट ही चुके थे। इसमें बच्चे, बड़े और बुढ़े भी शामिल थे। धीरे धीरे स्केच अपना रूप लेता रहा और दर्शकों की ओर से कमेंट भी आ रहे थे। कमेंट सुनकर उनको जवाब भी देता रहा।
आनंद इसमें नहीं था कि स्केच बना रहा था। बल्कि मजा इसमें भी कि लोग भागदौड़ की जिंदगी में कुछ देर ठहर कर अपने आस पास घटने वाली घटना के प्रति जिज्ञासु थे।
कभी तमाशा कभी मजमा यूं भी लगाया जाए,
भीड़ में अकेले खड़े से बतियाया जाए।

Friday, December 1, 2017

कुत्ते का खर खर




कौशलेंद्र प्रपन्न
सुबह एक दरवाजे के बाहर कुत्ते को देखा। वो कॉल बेल नहीं बजा सकता था। उसकी पहुंच में डोर बेल नहीं था। सो बेचारा क्या करता।
संभव है रोज उसे उस दरवाजे पर खाने और पीने को दूध मिला करता होगा। सो आज सुबह के नौ बज रहे होंगे। शायद दरवाजा न खुला हो। उसे भूख लगी हो। कुत्ता लगातार दरवाजे पर खर खर कर रहा था। इंसान और जानवर में बहुत ज्यादा अंतर दिखाई नहीं देता। यदि कोई अंतर हो सकता है कि तो वह भूख में चिल्लाने, लड़ने झगड़ने और मूक निवेदन करना है।
हमारे आस-पास कई जानवर ऐसे हैं जो बिन कुछ बोले अपने मन की बात और दिल की धड़कने साझा किया करते हैं। हम में से कई ऐसे हांगे जिनके लिए वह कुत्ता भर नहीं होता। वह एक जीता जागता इंसान हुआ करता है।
हमारे आस-पास कई ऐसे जानवर हैं जो एकदम से गायब होते जा रहे हैं। वह चाहे प़क्षी हो, जानवर हो, गोर-डंगर हों लेकिन उसकी चिंता हमें नहीं सताती। हमें सताती है पद्मावती क्यों रूक रही है या क्यों दर्शकों तक आ रही है। हमें चिंता इस बात की होती है कि हमारी एसी क्यों काम नहीं कर रहा। हमें चिंता नहीं सताती कि पास में गरवैया हुआ करती थी वो अब नहीं बैठा करती। कौए बहुत तेजी से हमारे बीच नदारतहो रहे हैं। वो कहां चले गए। अब हमारे पुरखों के पिंड कौन खाएगा।
कहते हैं जानवर हमारी संवेदना को समझते हैं और हमारे करीब ही रहने की कोशिश करते हैं। धीरे धरे वे हमारे परिवार के सदस्य हो जाते हैं। महादेवी वर्मा, जानकी बल्लभ शास्त्री आदि के घर में जानवरों को परिवार का अंग माना जाता था। वह साहित्यिक यात्रा में सहयात्री भर नहीं थे बल्कि उनके जीवन का भी हिस्सा हो चुके थे।

Thursday, November 30, 2017

यात्राएं...





कौशलेंद्र प्रपन्न
कई बार सोचता हूं कि हम अपने जीवन में कितनी यात्राएं करते हैं। कहां कहां जाते हैं, किन किन से मिलते हैं। कभी पहाड़ की यात्रा करते हैं तो कभी समंदर की। कभी किसी कछार की। कहां नहीं जाते हम?
यात्राओं से होता क्या है? क्या मिलता है इन यात्राओं से ? और कुछ मिले न मिले हमारी समझ और अनुभव तो व्यापक होते ही हैं। तरह तरह के भाषा-भाषी हमें मिलते हैं। कहीं खान-पान में विविधता दिखाई देती है। कहीं का पहनावा हमें अपनी ओर लुभाता है। कहीं की प्रकृति हमें आकर्षित करती है।
हमारे आस-पास ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अपने गांव की दहलीज तक नहीं लांघी है। उनके लिए वहीं गांव की चौहद्दी दुनिया है। उनके लिए दुनिया वहीं पोखर,पीपल के पेड़ और हरी भरी ख्ेती तक महदूद है।
वहीं लोग तो रातों रात सात समंदर पार कर पूरी संस्कृति को लांघ आते हैं। रात बिती और नई जमीन और नए लोगों के बीच खुद को पाते हैं। अपने तजर्बे साझा करते हैं।
रूदयाड किपलिंग लिखित उपन्यास ऑन द टै्रक ऑफ किम पढ़ने लायक है। इसमे बनारस से अमृतसर तक की रेल यात्रा का दिलचस्प वर्णन मिलता है।
वहीं साहित्य में यात्रा संस्मरण भी खूब लिखे गए हैं। जिन्हें पढ़ने से देश दुनिया की समझ विकसित होती है।
मेरे ख़्याल से जितनी अपनी चादर हो उसके अनुसार हमें यात्राएं कर लेनी चाहिए। क्योंकि जिंदगी में पैसे कमाने के काम से भी ज्यादा और भी जरूरी काम हुआ करते हैं।

Wednesday, November 29, 2017

उनकी वजह से....



कौशलेंद्र प्रपन्न
कंपनियों में कई बार कुछ ख़ास व्यक्ति की वजह से लोग कंपनी छोड़ देते हैं। वह व्यक्ति इस कदर परेशान कर देता है कि दूसरों के लिए नौकरी छोड़ना ही विकल्प बचता है।
जब एक व्यक्ति उसमें भी सक्षम और तज़र्बेकार स्टॉफ कंपनी छोड़ता है तब वह केवल उस व्यक्ति की हानि भर नहीं होती बल्कि उस संस्था और कंपनी को भी इसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। एक व्यक्ति की वजह से एक कंपनी को एक बेहतर मानव संसाधन से हाथ धोना पड़ता है।
कहते हैं कंपनी व संस्था किसी व्यक्ति से नहीं चलती। सच है कि लेकिन संस्था को बनाने और स्थापित होने में कई लोगों का हाथ होता है। कई बार एक व्यक्ति ही संस्था बन जाता है। इसकी दो संभावनाएं होती हैं। पहला या तो वह तानाशाही हो जाता है या फिर कई संस्थानों को जन्म दे सकता है। जब एक व्यक्ति यह समझने लगे कि संस्था उसी की वजह से चल रही है तब दिक्कत आती है।
लेकिन इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, शिक्षा आदि क्षेत्र में एक व्यक्ति को संस्था बनते हुए भी देखा गया है। लेकिन उसके बावजूद उन्हें संस्था से बाहर किया गया है।
संस्था व्यक्ति के जाने के बाद भी बतौर जारी रहता है। व्यक्ति चले जाते हैं लेकिन अपनी छाप छोड़ जाते हैं। उनके नाम और काम से संस्थाएं याद की जाती हैं।
संस्थान से किसी का जाना और किसी का आना तो लगा ही रहता है। संस्थाएं न तो रूकती हैं। और न रूक सकती हैं। लेकिन एक व्यक्ति के जाने से संस्था को कुछ तो असर पड़ता ही है। लेकिन एचआर और ऊपर बैठे लोगों को महसूस तक नहीं होता कि उन्होंने क्या खोया और क्या पाया। जिस सैलरी पर पहला व्यक्ति था संभव है उसके स्थान पर आने वाला उन्हें उससे कम लागत में मिल जाए किन्तु पहले वाले को स्थानांतरित नहीं कर सकता। उसकी शैली की कापी नहीं कर सकता। वैसे भी गुणवत्ता से आज किसी भी कोई ख़ास लेना देना नहीं होता। आप कितना काम करते हैं इससे अंतर नहीं पड़ता बल्कि आप कितना अपने काम को दिखा पाते हैं, यह ज्यादा जरूरी होता है।
कंपनियों में काम करने से ज्यादा दिखाने का चलन होता है। काम कम दिखावा ज्यादा। एक बॉस की वजह से यदि कोई संस्था छोड़ता है तो यह एक बड़ी घटना मानी जा सकती है।

Tuesday, November 28, 2017

लिट्रेचर फेस्ट यानी साहित्य की नई मुंह दिखाई



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम साहित्य उत्सव का विकेंद्रीकरण भी कह सकते हैं। इन दिनों बाज़ार में साहित्य फेस्ट के आयोजन का चलन तेजी से बढ़ा है। कभी विश्व पुस्तक मेले में पुस्तक चर्च, पुस्तक लोकार्पण, लेखक-संवाद, ऑथर टाक्स हुआ करते थे। इनमें देश के जाने माने लेखक, संपादक, कवि आदि शामिल हुआ करते थे।
पिछले दिनों आजतक ने भी लिट्रेचर फेस्ट का आयोजन किया। इसमें देश के नामीगिरामी हस्तियों ने हिस्सा लिया। गीतकार, कवि, शायर, लेखक आदि ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। इस उत्सव में नए लेखक भी मंच में दिखाई दिए।
पिछले हप्ते टाइम्स आफ इंडिया ने भी लिट् फेस्ट किया। इसमें शशि थरूर, जावेद अख्तर, शबाना आजमी, बाबा रामदेव आदि को बुलाया। सब ने राष्ट्रवाद, संस्कृति, पद्मावती आदि से लेकर संस्कृति पर हो रहे हमले पर बात की। वहीं पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते पर भी सत्र में चर्चा हुई।
मैं उस उत्सव में हिन्दी वाली लेखक, कवि, साहित्यकार तलाशता रहा मगर एक भी नजर नहीं आए। वहां जो भी नजर आए वे अंग्रेजीदां किस्म के लोग थे। क्या श्रोता क्या वक्ता सब के सब एक रंग में रंगे। महंगी महंगी किताबें, बंडी, लंबे बाल वाले लोग और फैशन में डबी फेस्ट नजर आई।
हमें विचार इस पर भी करना होगा कि क्या इन फेस्टों से साहित्य की कुछ भी स्थिति सुधरने वाली है। क्या इस फेस्ट से कुछ ख़ास मीडिया घराने महज अपनी दुकान चमकाने की जुगत तो नहीं कर रहे हैं। बाकी आप समझदार हैं!!!

Friday, November 24, 2017

भाषा टोला




कौशलेंद्र प्रपन्न
भाषा टोला सुन कर थोड़ी देर के लिए हैरान हो सकते हैं। होना ही चाहिए। क्योंकि आज हमारे बीच के बहुत सारी भाषाएं, बोलियां, शब्द ग़ायब हो चुकी हैं या बहुत तेजी से खो रही हैं।
हालही में एक कार्यशाला में मैंने प्रयास किया कि जिस तरह से समाज में बहुभाषा भाषी लोग होते हैं उसी तरह से कक्षा में भी बहुभाषी बच्चे होते हैं। ऐसे में भाषा बोली को कैसे बचाएं और उन्हें कैसे बच्चों में जिंदा रखें।
हमने पहले एक घंटे में सभी शिक्षक/शिक्षिकाओं से आग्रह किया कि वो अपनी मातृभाषा के शब्दों कों आमंत्रित करें। उन शब्दों, भाषाओं को बुलाएं जिन्हें कभी बचपन में इस्तमाल किया करते थे।
शुरू में थोड़ी दिक्कत आई किन्तु देखते देखते ही हमारे सामने तरह तरह के शब्द झांकने लगे। बल्कि वे शब्द हमारे आस-पास तैयारे लगीं।
उन फुदकती बोलियों, शब्दों में गढ़वाली, पंजाबी, भोजपुरी, ब्रज, हरियाणवी, खड़ी बोली हिन्दी, राजस्थानी आदि के शब्द एक के बाद एक आने लगीं। शुरू में बोलने में शिक्षक/शिक्षिकाओं को बोलने में थोड़ी शर्म सी महसूस हो रही थी।
लेकिन एक बार जब हमने अपनी भाषा-बोली को याद करना शुरू किया तो अब नजारा ही बदला हुआ था।
धिनाई पाणि, चोपल, मौडी-मौडा, बोतो, गोर डांगर, सौंझ बैणी, दाज्यू, पनारा, बुआरी, भेड दे, सुधरी घणा, वा चला ग्यो, गांझ, रोल्ला,  पाइन सेर तड़कै, भकार , गदैड़ा, बुझाया कि नहीं, केरवा के पत्ता आइल कि ना, शेरवा, बघवा आदि। इन शब्दों की सूची देना लक्ष्य नहीं था। बल्कि हमें यह भी समझना था कि इनमें कितने शब्द अब हमारे आस-पास गुम हो चुकी हैं।
तमाम रिपोर्ट इस ओर इशारा करते हैं कि रेज दिन न सही लेकिन बड़ी तेजी से भाषाएं और बोलियां हमसे दूर होती जा रही हैं। इन्हें बचाने के लिए हमें सजग होने की जरूरत है। यह शुरूआत स्कूली कक्षा से तो कर ही सकते हैं साथ ही आपस में भी बरतने से उन्हें बचा सकते हैं।

Thursday, November 23, 2017

पढ़ाने के सिवा

कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘सुबह के आठ बजने वाले हैं। बच्चे अपनी अपनी नाक पोंछते हुए धकीयाते, मुकीयाते पंक्ति में खड़े हो रहे हैं। साथ में लगभग चिल्लाती, डाटती मैडम उन बच्चों के साथ खड़ी हैं। प्रार्थना संपन्न होता है। कुछ आदर्श वाचन होते हैं। अब बारी आती है अभिभावकों के लिए कि आधार कार्ड अब तक नहीं दिए जल्द जमा करा दें। बच्चो को समय पर स्कूल साफ सुथरे रूप में भेजें आदि। और अंत राष्ट्र गान से होता है।’’
‘‘कहानी अब शुरू होती है। शिक्षक/शिक्षिका एक एक कर बच्चों के नाम उपस्थिति रजिस्टर पर दर्ज करती जाती हैं। बीच बीच में कॉपी फाड़ने, चिकोटी काटने, मारने, गाली देने जैसे आम शिकायतों को निपटारा भी करती हैं। अब बारी है स्कूल के एक कमरे में लगे चेहरादर्ज मशीन के आगे सभी बच्चों को खड़ा करना और उपस्थिति दर्ज कराना।’’
हाल ही में बिहार के भागलपुर और औरंगाबाद में शिक्षा विभाग ने आदेश जारी किए कि स्कूल आने से पूर्वी और जाने के उपरांत अपने आस-पास यदि कोई खुले शौच करता मिले तो उसकी तसवीर खींच कर उन्हें भेंजें और उन्हें समझाने की कोशिश करें। पहली बात तो यही कि जिसकी तसवीर खींची जाएगी वह क्या सहजता से चुपचाप बैठा रहेगा या फिर मारने दौड़ेगा। दूसरी बात शिक्षक मैदान मैदान घूम घूम कर पता करे कि कौन खुले में शौच करता है। उसपर तुर्रा यह कि राज्य के शिक्षामंत्री मानते हैं कि इसमें हर्ज ही क्या है। शिक्षक समाज पढ़ा लिखा है। जनगणना आदि काम तो करते ही हैं। इसे भी अंजाम दे सकते हैं।
और कहानी ऐसे अंतिम मकाम पर पहुंचती है कि मिड डे के बाद 10.40 में बच्चे वापस कक्षा में आते हैं। अब शिक्षक के पास 10.45 से 12 बजे तक का समय होता है। इस समय में वह कितना पढ़ा पाता है। इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। 

Wednesday, November 22, 2017

मोबाइल जी का साथ...



कौशलेंद्र प्रपन्न
काश! तुम लौट आते इक बार/ कितनी बातें/कितने चैट बिछ जाते बन पराग/जो तुम आ जाते इक बार महादेवी वर्मा जी की कविता से प्रभावित हो कर। मोबाइल जी क्या चले गए गोया पूरी दुनिया ही बरबाद हो गई। बार बार पॉकेट में हाथ जाए। कभी कहीं कभी कहीं मोबाइल जी को तलाशता रहा। लेकिन उन्हें नहीं मिलना था सो नहीं मिले। कुछ पल के लिए लगा सारी की सारी दुनिया बदरंग हो गई। कहीं कुछ भी नहीं हो रहा। न संगीत है। व आवाज है। और न यार दोस्त हैं।
वाकया क्या बताएं। बताते हुए रोना आता है। रे रो कर आंखें देखिए सूज गई हैं। अब तो आंखें अश्रुविहीन हो गईं। कहानी ही है मोबाइल की। कल ही तो मेटो्र में मोबाइल को चोर जी ने अपना बना लिया। उनके हाथ में खेलता इठलाता अपने पुराने दोस्त को पता नहीं याद करता होगा या नहीं। यह भी तो तब पता चले जब उनके मुलाकात और संपर्क हो सके। मैंने तो अपनी तरफ से खूब कोशिश की। कोशिश भी इतनी कि अपरिचितों से फोन मांगे।
कल का पूरा दिन खाली खाली बरतन का सा रहा। गुलज़ार के शब्दों में। मगर एक चीज हुई। पूरे दिन बिन टुनटूने के रहना का अपना सुख था तो अपनी कैफ़ियत भी थी। आस पास अब टेलिफोन बूथ भी तो नहीं रहे। सो किसी से भी फोन मांगना भीख मांगने जैसा है। दस बार अलग अलग नज़रों से देखते हैं। उनकी नज़रें आप पर टंगी होती हैं। किस को कर रहे हैं? कितनी देर बात कर रहे हैं आदि। उन्हें यह भी डर होता है कि इसके चले जाने के बाद कॉल बैक आए इन्हें कहां देखने जाउंगा।
शाम हुई तो फिर याद आए मोबाइल जी। अब अपनी सहयात्री को कैसे बताउं कि आफिस से निकल चुका हूं। कैसे बताउं कि कहां पहुंच गया आदि। कदम कदम पर टै्रकिंग होने बच गया। गूगल से ज्याद तेज़ अपनी सहयात्री होती हैं। जो स्टेशन स्टेशन आपको टै्रक करती हैं। कहीं बीच में तो नहीं उतर गए। कल इससे भी मुक्ति मिली।
कल तमाम सोशल अड्डा से बाहर रहा। सोच रहा था क्या क्या कहां कहां क्या हुआ होगा। इस चिंता और उत्सुकता से ऊपर उठ चुका था। न टी टी न लाइक्य, न कमेंट्स सब से बेख़बर।
आख़िर आप सोच रहे होंगे कि यह भी कोई कहानी है? क्या बेकार सी बात में आपका समय जाया किया। मगर बाबूजी कहानी तो कहानी होती हैं। वह मोबाइल की हो या इंसान की। उसकी कहानी हम सब की जिंदगी से जुड़ती चली जाती हैं।
चिंता न करें। आज मेरे पास मोबाइल है। नेटवर्क है। बातें हैं। और मोबाइल की तमाम पेचिंदगिंया हैं।

Monday, November 20, 2017

नदी जो गंदी रही



कौशलेंद्र प्रपन्न
नदी गंदी सिर्फ बाहरी तत्वों से नहीं होती। कई बार नदी को हम अपने हित में गंदी ही रखते हैं। यदि नदी साफ हो गई तो करोड़ों रुपए का व्यापार कैसे होगा। गंगा, यमुना, झेलम, चिराब आदि नदियां तो हैं ही जिन्हें बचाना है।
मगर एक नदी हमारे भीतर बहा करती है। इस नदी को साफ करने के लिए बाहरी अनुदान की जरूरत नहीं होती। हम चाहें तो अंतर नदी को साफ और निर्मल रख सकते हैं। लेकिन अफ्सोस कि हम अपनी अंतर नदी को गंदली ही रखना चाहते हैं। ताकि कोई तल की गहराई न जान सके।
यह नहीं कहता कि लोगों के चेहरे पर कई चेहरे होते हैं। यह तो बात पुरानी है। चलिए नए बिंब से देखते हैं। नद ीवह बिंब मुझे आई कि नदी केवल बाहर ही नहीं बहा करती। बल्कि एक नदी हमारे भीतर भी बहा करती है। निरंतर।
कई मोड़-भाव, मनोदशाओं के किनारों से टकराती बहती रहती है। हम इस नदी को बड़ी होशियारी से साफ नहीं रखते। यदि साफ हो गई तो लोगों को मालूम चल जाएगा कि फलां की नदी ख़ासा गंदली है। वह कभी भी अपनी नदी का प्रच्छालन नहीं करते।
हमारे भीतर बहने वाली नदी बेहद जरूरी है कि वो साफ सुथरी रहे। लेकिन साफ नहीं रख पाते। जबकि यम,नियम, प्रणायाम, धारणा, ध्यान आदि के जरिए हम चाहें तो अपनी अंतर नदी को निर्मल कर सकते हैं।
आध्यात्म में इस नदी को साफ करने के लिए साधनों का जिक्र है। लेकिन भौतिक सफाई की बात करें तो हमें अपनी अंदर और अपने व्यवहार को हमेशा जांचते रहना चाहिए। इससे हमें मालूम होता है कि हमने कहां और कब गलती की। इसलिए कहां गया है कि हमें मनसा,वाचा कर्मण किसी भी स्तर पर हत्या नहीं करनी चाहिए। लेकिन हम यह जानते हुए भी अनजाने में न जाने किस किस को मानसिक, भावनात्मक स्तर पर चोट पहुंचाते हैं।
दूसरे शब्दों में हमें न केवल अपनी भौतिक नदी को बचाने का प्रयास करना है बल्कि अंदर की नदी को भी निर्मल और स्वच्छ रखने का प्रयास करना है।

Friday, November 17, 2017

हवा में भेदभाव




कौशलेंद्र प्रपन्न
लगभग फ्लाइट टेक ऑफ करने वाली थी। कैबिन बंद हो चुके थे। बत्तियां बुझा दी गई थीं। घोषणा भी हो चुकी थी कि कृपया कमर बेल्ट बांध लें आदि। कि तभी आवाज़ आई ‘‘ आपको सुनाई नहीं देता कैप्टन ने अपनी सीट पर बैठने की घोषणा की है।’’
साधारण से कपड़े में खड़ा व्यक्ति सहम गया। शॉरी मैडम। और अपनी सीट पर जाकर बैठ गया।
तकरीबन चालीस हजार फीट की ऊंचाई पर लोग उड़ रहे थे। फिर आवाज़ आई ‘‘ आपको समझ नहीं आती, ऐसे खड़े होते हैं? सट के मत खड़ें हों। दूर जाइए।’’
दूसरी सवारी को बोली गई। वह भी सहम गया। ‘‘मैडम सट नहीं रहा था। आग जाने की जगह नहीं थी सो...’’
‘‘पता नहीं कहां कहां से आ जाते हैं। तमीज़ भी नहीं हैं।’’ बुदबुदाती हुई मैडम आगे बढ़ गईं। लेकिन मेरा मन थोड़ा ख़राब हो गया। इन्हीं की वजह से उनकी नौकरी है। ये हैं तो इनकी फ्लाइट उ़ड़ती है। और अपनी सवारी पर ऐसे बुदबुदाना...।
मगर उस साधारण से कपड़े में ट्रैवल करने वाला एक साधारण कामगर लगा। जो दो साल बाद अपने घर लौट रहा था। चेकिंग के दौरान उस पर नजर पड़ी थी। बड़े बड़े और भारी बैग उसके साथ खड़े थे। जब वे आपस में बात कर रहे थे तो उनकी भाषा भोजपुरी, अवधी और ब्रज मिश्रित सी महसूस हुई। एकबारगी ऐसा लगा किसी रेलवे फलेटफॉम पर हम खड़े हैं। लेकिन यहां अंतर था। लोगों के कपड़े,भाषा, हाव-भाव, बॉड़ी लैंग्पवेज एलीट किस्म के थे। उनके सब के बीच ये मजदूर किस्म की सवारी सभी को खटक रही थी। मेरे साथ बैठा सवारी सवारी ही कह रहा हूं क्योंकि अभी तक नाम नहीं जानता था। बातचीत शुरू हुई तो पता चला अफगानिस्तान में ऑर्मी विंग्स में गाड़ी चलाते हैं। छह माह के बाद आंख के ऑपरेशन के लिए भारत भेजा गया है। बातों ही बातों में कई बातें मालूम चलीं। फैलो यात्री हरियाणा के सोनीपत का रहने वाला था। अपनी वहां की कई ऐसी बातें साझा की कि आंखें ख्ुली रह गईं। उसकी ख़बरें किसी भी मीडिया में दिखाई नहीं देती। सौभाग्य था मेरा कि मुझे उसके वास्तविक तजर्बे को सुनने और जानने का मौका मिला।
बहरहाल जब दिल्ली एयरपोर्ट पर बिदा हुए तो महसूस हुआ आज ग्लोबल गांव में रहने वाले सब पहले इनसान हैं। जहां भी हैं जैसे भी हैं।

Thursday, November 16, 2017

उबाऊ प्रार्थना



कौशलेंद्र प्रपन्न
स्कूलों में आज भी उबाऊ प्रार्थना जारी है। तकरीबन बीस साल पहले प्रो. कृष्ण कुमार जी ने स्कूली प्रार्थना का विश्लेषण शिक्षा समाज को दिया था। जो पढ़ना चाहें वे बच्चों की भाषाः अध्यापक निर्देशिका में पढ़ सकते हैं।
स्कूलों में प्रार्थना जिस बेरूखी और उबाऊ तरीके से होती है कि जिसे सुनकर लगता है इससे अच्छा न हो। यह बरताव न केवल प्रार्थना के साथ किया जाता है बल्कि राष्ट्र गान भी उसमें शामिल है। कभी कभी स्कूलों में होने वाले प्रार्थना और राष्ट्र गान को सुनता हूं तजो लगता है हमारे बच्चे और शिक्षक किस स्तर तक उच्चारण के जरिए अर्थ का अनर्थ करते हैं।
शिक्षक की भूमिका में भी इसमें साफ झलकती है। शिक्षक सामान्यतौर पर हाथ बांधे अनुशासनात्मक व्यवस्था संभालने में लगे होते हैं। उनका काम बच्चों पर निगरानी रखना होता है कि वे ठीक से खड़ें हैं या नहीं। प्रार्थना व राष्ट्र गान गा रहे हैं या नहीं।
राष्ट्र गान में आए शब्दों को यदि कभी बच्चों के मुख से सुनने का अवसर मिले तो जरूर समय निकाल कर सुनें। जो लोग सिनेमा हॉल जो कि शुद्ध मनोरंजन स्थल है वहां भी राष्ट्र गान में खड़े होने, गाने की पैरवी करते हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या वे स्वयं शुद्ध राष्ट्र गान करने में सक्षम हैं।
स्कूल जिम्मेदार नागरिक बनाने की पहली पाठशाला के तौर जानी जाती है। लेकिन वहां राष्ट्र गान और अन्य प्रार्थनाओं के साथ बच्चे रू ब रू होते हैं यह एक चिंतनीय विषय है। कायदे से प्रार्थना और राष्ट्र गान को शुद्ध उच्चारण के साथ गाया जाना चाहिए। हालांकि कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि शुद्धतावादियों ने ही हिन्दी व अन्य भाषाओं को सबसे ज़्यादा हानि पहुंचाई है। लेकिन फिर भी कम से कम राष्ट्र गान को सही तरीके से गाने की वकालत को नकारा नहीं जा सकता। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि क्या स्कूलों में सभी बच्चों को राष्ट्र गान की तालीम दी जाती है? थोड़ी देर के लिए मान लें विद्यालय के पास सभी बच्चों पर ध्यान देने का समय नहीं है तो क्या घर-परिवार के सदस्यों ने कभी राष्ट्र गान को शुद्ध उच्चारण के साथ बच्चों को सुनाया या अभ्यास करने की कोशिश की है।
स्कूलों में बच्चे जो सुनते, पढ़ते,लिखते और बोलते हैं वो उनके साथ ताउम्र रहती है। यदि राष्ट्र गान व प्रार्थना ग़लत शैली व तर्ज़ पर बच्चों को मिली है तो उन्हें अतिरिक्त अभ्यास और प्रयास से ठीक करना पड़ता है।

प्रेस की आज़ादी संग जिम्मेदारी भी



कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रेस की आज़ादी से हमारा क्या मतलब है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शायद यही अर्थ बेहद करीब बैठता है। सवाल यह उठ सकता है कि प्रेस को किससे, किस स्तर पर किस मकसद के लिए आज़ादी चाहिए आदि। प्रेस स्वत्रंत हो इसमें किसी को भी कोई गुरेज नहीं हो सकता। लेकिन प्रेस जब स्वयं निरंकुश हो जाए तो? प्रेस को भी नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है?
प्रेस की आज़ादी और जिम्मेदारी दोनों को एक साथ एक मंच पर रखकर विचार करने की आवश्यकता है। प्रेस अपनी आज़ादी को क्या जिम्मेदारीपूर्वक निभा रहा है या नहीं इसकी भी जांच करने की प्रक्रिया और तंत्र हो तो बेहतर है। हालांकि समितियां और आयोगों का गठन किया जा चुका है। लेकिन दंतविहीन से क्या उम्मीद रखी जा सकती है।
किस ख़बर व किस घटना के साथ प्रेस को कैसे बरताव करना चाहिए यह प्रेस के लोकतांत्रिक विवेक पर ख़ासा निर्भर करता है। प्रेस का स्वविवेक क्या कहता है? किसी भी घटना व ख़बर में किसी की निजता का ख़्याल नहीं रखा जाना चाहिए। किसी ख़ास घटना पर कई बार प्रेस निर्णायक की भूमिका में होता है। यह शायद लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के लिए नहीं है। यह कार्यक्षेत्र किसी और का है। यह जिम्मेदारी किसी पहले,दूसरे या तीसे खंभे की है तो यह काम उसे ही क्यों न करने दिया जाए।
अतिउत्साह के शिकार प्रेसकर्मी कभी कभी बल्कि अब तो कोई भी ख़बर मिल जाए उसकी मार्केटिंग में पूरी रिसर्च विंग्स झोंक देती है। बजाए उस घटना के दूरगामी मारक क्षमता का ख़्याल किए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर व्यक्ति, समाज और लोकतंत्र के चारों स्तम्भों को चाहिए। यह अनुचित भी नहीं लेकिन हमें विचार करना होगा कि क्या हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तमाल जिम्मेदारी के साथ कर पा रहे हैं।
हाल के तीन चार सालों में नागर समाज के लेखक,साहित्यकारों और पत्रकारों को उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी को जिस बेरहमी से कुचला गया जिसे देखते हुए लगता है कि पहला स्तम्भ इतना मजबूत हो गया है कि तमाम अभिव्यक्ति के मायने को अपने तरीके से व्याख्यायित करने पर आमादा है। ऐसे में प्रेस को आगे आना ही होगा किन्तु जिम्मेदारी को नज़रअंदाज़ करते हुए नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए।
कलमुर्गी, दाभोलकर, पंसारे, गौरी लंकेश आदि की हत्या बताती है कि सत्ता को विरोध, आलोचना कत्तई पसंद नहीं। जो भी सत्ता के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद करेगा उसे मौन कर दिया जाएगा।

Wednesday, November 15, 2017

चिड़ियों की बैठक






कौशलेंद्र प्रपन्न

शहर में ऐसी घटना पहली बार घट रही थी। चारों दिशाओं से तरह तरह की चिडियों की झुंड़ आ चुकी थीं। उसमें गिलहरी, बाज़, गिद्ध, सोनजूही, गरवैया,कौआ सब आज साथ थे। किसी ने भी उड़ान भरने से मना नहीं किया।
सोनजूही ने कहा ‘‘ आज तक, आज तक ऐसा नहीं हुआ।’’
‘‘इन लोगों ने पेड़ काटे हमने चूं तक नहीं किया।’’ हमारा बैठने का ठिकाना काट डाला।’’
गिद्ध और बाज़ चुपचाप सब सुन रहे थे। बीच में गिलहरी बोल पड़ी,
‘‘ इनकी चले तो हमें शहर से निकाल बाहर करें।’’
‘‘ख़ुद तो छोटे छोटे कोठरों में सिफ्ट हो गए।’’
‘‘हमारे लिए छोड़ा ही क्या है?’’
‘‘बिजली के खंभों पर बैठना भी महफूज़ न रहा अब तो। वहां भी कंटीले तार बिछा दिए इन इनसानों ने।’’
बाज़ कुछ बोलने को अपनी चोंच बाहर निकाली और कहा,
‘‘शुक्र है, तुम तो अभी भी शहरों में उड़ान भर पाते हो। बच्चे तुम्हें देख कर खुश हो लेते हैं। और गिलहरी तुम्हें क्या चिंता है पार्क में बच्चे, बड़े कुछ न कुछ खाने को डाल देते हैं।’’ ‘‘हम तो अब दूर की कौड़ी हो गए। एक दो हमारे परिवार के बचे हैं जिन्हें इनसानों को दिखाने के लिए चिड़ियाघरों में कैद कर रखा है।’’
‘‘लेकिन आज समय आ गया है अपनी भी आवाज़ बुलंद करने की। आख़िर ये इनसान हमें क्या समझते हैं?’’
बहुत ही बौखलाहट में कौआ बोले जा रहा था। उसके परिवार के चचा मेटो्र की चपेट में आ गए थे। शहर भर में धुआं ही धुआं। दो हाथ की दूरी तक कुछ भी लौका नहीं रहा था।
‘‘तार के ऊपर बैठे थे कि तभी मेटो्र दंदनाती हुई गुज़री और चचा उड नहीं पाए बेचारे।’’
हमसब पहले दो मिनट का मौन रखते हैं और फिर अपना आंदोलन शुरू करेंगे। 
देखते ही देखते कॉव कॉव करते हुए भारी संख्या में कौए आ गए। किसी ने इत्तला कर दी कि आज ट्रैक पर हजारों की संख्या में चिड़ियों ने धावा बोल दिया है। यात्री परेशान थे। दफ्तर के लिए देरी हो रही थी। सब के सब चिल्लाने लगे। चीखने लगे। उधर चिड़ियों ने ठांन रखी थी जब तब ऊंचे अधिकारी बात करने नहीं आएंगे कोई भी यहां से उड़ान नहीं भरेगा।
इस ट्रैक पर प्रवासी प़क्षियों की झुड़ भी उतर चुकी थी। आख़िर उन्हीं की प्रजाति के उड़ान भरने, जीने मरने का सवाल जो था।
वैसे एक प्रवासी कलगी वाली चिड़िया ने कहा,
‘‘ ठीक है कि हम साल में कुछ दिन यहां गुजारते हैं, लेकिन हैं तो हम ग्लोबल सिटिजन ही। ये लोग प्रवासी सम्मेलन करते हैं। उन्हें सम्मानित करते हैं। वहीं दूसरी ओर हमारे उ़ड़ान भरने, बैठने तक की मौलिक अधिकारों का तार तार करते हैं। ऐसा अब नहीं चलेगा।’’
लंबी पूंछ को हिलाती, लहराती हुई दूसरी चिड़िया ने कहा,
‘‘ हम इस मामले को यूएन और अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में उठाएंगे।’’
सब ने हां हां, हम एक हैं। खुले गगन के हम वासी एक ईंट से ईंट बजा के रहेंगे।


Tuesday, November 14, 2017

बाल दिवस पर हांकें बच्चे




कौशलेंद्र प्रपन्न
खिलखिलाते फूल हैं हम इस जहां में, कौन जाने शाम तक कैसे रहेंगे...
मसला जितना आसान और सहज दिखाई देता है दरअसल है उतना ही कठिन। बच्चे बच्चे नहीं रहे। अपनी उम्र से दस कदम आगे बढ़ कर व्यस्क हो चुके हैं। उम्र से पहले पक से गए हैं। कोई भी रियाल्टी शो देख लें जो बच्चों के लिए, बच्चो के द्वारा बनाए जाते हैं उनमें बच्चे नहीं बड़े बचपन वाले होते हैं।
वह शो गायकी का हो, हंसी ठिठोली का या फिर डांस का। इन तमाम कार्यक्रमों में बच्चे नहीं बल्कि बड़े हिस्सा ले रहे होते हैं। बच्चियां व्यस्क महिला की तरह दिखने के तमाम संसाधन, पहनावा,साज-सज्जा आदि करती है। वहीं लड़के भी बड़ो के बोनसाई लगते हैं। यदि उनके चेहरे और कद ढक दिए जाएं तो अंतर कर पाना मुश्किल हो।
यह प्रतियागिता किनके लिए किनके द्वारा, किस उद्देश्य से निर्मित होती हैं इसे समझने की आवश्यकता है। बाजार के द्वारा बाजार को बढ़ाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों को बच्चों के सर्वांगीण विकास के तर्कां के पीछे खेल रचा जाता है।
जो जीता वे भी रोता है और जो हारा उसके आंसू तो दिखाने ही हैं। एक पल में बच्चों को आसमान में उड़ान भरने के पंख लगाए जाते हैं तो दूसरे ही पल अन्य हजारों बच्चों में कुंठा ठूंस दिए जाते हैं। निर्णायक मंडल ठहाके मार कर अपने पैसे बनाते हैं। बीच बीच में अपने अनुभवों के छौंक मारते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। इतना ही समय उनके पास है तो अपने काम पर ध्यान क्यों नहीं देते।
अधिकांश निर्णायक चूके हुए, छूटे हुए, फुरसतीए किस्म के नजर आते हैं। जिनके पास अपनी कहानी सुनाने और प्रतिक्रिया देने के नाम पर बेहद सतही शब्द होते हैं।
बचाना है हमें अपने बच्चों को। बचाना उस भीड़ और मेले से भी है जहां हमारे बच्चे बचपन में ही खो जाते हैं। फैशन और मीडिया का भूत कुछ ऐसा सिर चढ़ता है कि पढ़ाई -लिखाई पीछे कसमसा रही होती है। मां-बाप कचोटते, गरियाते मन मार कर शाम के शो में बिजी बच्चों को देख रहे होते हैं। कुछ कंप्रोमाइज करते हैं तो कुछ मोगैंम्बो की भूमिका में आ जाते हैं।

Monday, November 13, 2017

शिक्षा और परीक्षा पाटन के बीच



कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा और परीक्षा दो पाटन के बीच में बच्चे साबूत नहीं बचे। यह सिलसिला जमाने से बतौर जारी है। लेकिन हालिया घटनाएं बताती हैं कि शिक्षा अब डराने लगी है। परीक्षा तो उससे भी एक कदम आगे बढ़ चुकी है।
शिक्षा के बारे में माना जाता है कि यह इनसान को बेहतर बनाती है। लेकिन हक़कीतन ऐसा नहीं है। बच्चे आत्महत्या करते हैं तो इसमें शिक्षा भी कहीं बदनाम होती है। क्योंकि शिक्षा मृत्यु नहीं बल्कि जीना सीखाती है। बेहतर जीने की कला देती है ऐसा माना गया है।
परीक्षा का भय हमारे बच्चों में इस कदर धंस बैठ चुकी है कि निकाले नहीं निकलती। परीक्षा के भय को दूर करने के लिए कभी परीक्षा को ही खत्म किया गया। कभी बहुवैकल्पिक सवालों का युग आया। बच्चों को फेल न करने की पहलकदमी की गई। लेकिन परिणाम वहीं ढाक के तीन पात। बच्चे मरते रहे और मारते भी रहे।
इन घटनाओं में कहीं न कहीं हमारे शिक्षा के नीति निर्माता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर सकते। समय समय पर शिक्षा की बेहतरी के लिए कई कदम उठाए गए। लेकिन क्या वजह है कि परीक्षा और शिक्षा का भय बच्चों से दूर नहीं हुआ।
परीक्षा जब शिक्षा पर भारी पड़ने लगती है तब शिक्षा के उद्देश्य पीछे रह जाते हैं। हमें यह तय करना होगा कि हम बच्चों को शिक्षित करना चाह रहे हैं या परीक्षा में पास करने के कौशल प्रदान कर रहे हैं। यदि महज परीक्षा पास करना और अंक हासिल करना मकसद है तो वह कई अन्य तरीकों से भी यह पूरा किया जा सकता है। लेकिन शिक्षा से मुहब्बत करना हमारा उद्देश्य है तो हमें अपने तरीकों पर ठहर पर सोचना होगा।
परीक्षा के मौसम आने वाले हैं। बच्चों पर इसका दबाव अभी से महसूसा जा सकता है।बल्कि अभिभावकों के तनाव स्तर को भी सहज ही देखा-सुना जा सकता है।कई अभिभावक अपनी गहरी कमाई ट्यूशन, कोचिंग आदि में दे रहे हैं।उम्मीद तो उनकी यही हैकि उनका बच्चा मेडिकल आदि में निकल ही जाएगा। लेकिन बच्चे से भी पूछने की जरूरत है।

Monday, November 6, 2017

विश्वविद्यालयः कहां गए वे दिनः शुक्रिया रवीश जी



कौशलेंद्र प्रपन्न
रवीश कुमार पिछले एक माह से विश्वविद्यालयी हक़ीक़तों से आम जन को झकझोरने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में उनका यह उन्नीसवी कड़ी थी जिसमें झारखंड़ के महाविद्यालय की जर्जर हालत से रू ब रू कराया। पूरे माह विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की पड़ताल की गई। उन स्टोरिज को देखते हुए महसूस हुआ कि हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था किस स्थिति से गुजर रही है।
ये कैसे विश्वगुरु बनने का सपना पूरा होगा यह पंच लाइन नहीं बल्कि नागर समाज के चेहरे पर जोरदार तमाचा से कम नहीं है। रवीश जी का मानना है कि इस एक माह में किसी भी शिक्षा मंत्री, मंत्री, समाज चेत्त्ता की ओर संज्ञान नहीं लिया गया। यही कोई और मसला होता तो बोलने वाले हजारों आ जाते। मगर क्योंकि यह मुद्दा शिक्षा का है इसलिए खामोशी सी छा गई।
इन कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चों के भविष्य के साथ हम किस प्रकार का मजाक कर रहे हैं इसका अंदाजा अभी शायद नहीं है। आने वाले बीस सालों में इसके परिणाम दिखेंगे।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में तकरीबन पांच साल गुजारा। वह स्मृतियां आज भी ताज़ा हैं। ताज़ा इसलिए क्यांकि वहां की शैक्षिक व्यवस्था और शिक्षकों ने शिद्दत से पढ़ाया। न केवल विषय पढ़ाए बल्कि कई बार विषयेत्तर भी जाकर जीवन के मूल्य सीखाएं। जिनमें मैं बहुत सम्मान के साथ प्रो. सेंगर जो कि प्राचीन इतिहास के विद्वान थे, प्रो. एस एस भगत इंग्लिश के विद्वान थे जिन्होंने बच्चन जी से अंग्रेजी सीखी थीं। वहीं मनोविज्ञान में प्रो. ओ पी मिश्रा, प्रख्यात मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक, हिन्दी में प्रो. विष्णुदत्त राकेश, प्रो. कमल कांत बुद्धकर आदि के साथ ही वेद के जानकार प्रो. राम प्रकाश वेदालंकार, प्रो. महावीर अग्रवाल आदि थे। इन सब ने अपने विषय को पढ़ाने में ज़रा भी कंजूसी नहीं की।

Wednesday, November 1, 2017

इतिहास क्यों पढ़ें


कौशलेंद्र प्रपन्न
सुबह की मुलकात में एक सज्जन ने पूछा कि क्या आपको इतिहास पढ़ना अच्छा लगता है? क्यों इतिहास पढ़ना ही चाहिए? आदि।
सवाल जैसा भी था। लेकिन इसमें उत्तर से पहले मुझे स्वयं में झांकने की जरूरत पड़ी। यह एक आम धारणा और कहने का चलन है कि बाबर, गजनी, शिवाजी गांधी ने जो भी किया हमें उन तारीखों, उनके कामों को रटना क्यां पड़ता है। क्यां हम उनकी भाषा-बोली, समाज व्यवस्था आदि को याद करें। कि हड़प्पा की संस्कृति क्यों ख़त्म हो गई? आदि।
मेरा भी जवाब यही था कि बचपन से बीए तक की पढ़ाई के दौरान मैंने भी इतिहास को इसी नजर से पढ़ी जैसे और बच्चे पढ़ते हैं। यानी नंबर हासिल करना और परीक्षा पास करना।
लेकिन अब जब विचार करता हूं तो इतिहास का दर्शन बेहद लुभावना और दिलचस्प लगता है।इतिहास अपनी ओर खींचता है।दरअसल जैसे इतिहास को पढ़ाया जाता हैवह तरीका खराब है।परीक्षाओं में पूछने जाने वाले सवालों की प्रकृति से अनुमान लगाना कठिन नहीं होता कि इतिहास को शुष्क बनाने में सवालकर्ता की भी बडी भूमिका होती है।वरना यह जानना कितना दिलचस्प होता हैकि फलां राजा या फलां राज्य में कितनी अच्छी नागर व्यवस्था थी। भवन निर्माण से लेकर स्थापत्य कला कितनी विकसित थी।
इतिहास की यात्रा निश्चित ही जोखि़म भरा है।इतिहास में प्रवेश तो आसान हैलेकिन वहां से लौटना चुनौती भरा है।जब हम पूर्वग्रहों के साथ इतिहास को पढ़ते हैंतब का इतिहास वही नहीं रहजाता जैसा वास्तव में रहा होगा। दरअसल हमें इतिहास को अपनी नजर से पढ़ते और समझने की कोशिश करते हैं।
इतिहास यानी अतीत में अटकने की ज्यादा संभावनाएं होती हैं। इसलिए इतिहास को पठन-पाठन ज़रा कठिन है।अतीतीय यात्रा को समझ के लिए इस्तमाल करना हमेशा ही बेहतर रहा है।जब हम इतिहास को पढ़ते हैंतो एक बार पुनः उस कालखंड़, संस्कृति को जी रहे होते हैं।
अतीत में अटकी हुई चेतना श्रेष्ठ नहीं मानी जाती। बल्कि अतीत से वर्तमान को सुधारने की समझ लेकर कर लौटना गोया किसी लंबी यात्रा के बाद थकन उतारने जैसा है।

Tuesday, October 31, 2017

इंदिरा गईं मगर लोगों के घर भर गए



कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1984। स्थान हरिद्वार। अक्टूबर का महीना। एकतीस तारीख। सच में इतिहास में दर्ज हो गया। इंदिरा गांधी की हत्या इसी तारीख को हुई थी। उसके बाद का मंजर सभी को मालूम है।
पूरे देश भर में लूटपाट, आगजनी, हत्या का खेल बड़े पैमाने में खेला गया। तब मैं शायद कक्षा पांचवीं में पढ़ा करता था।
हरिद्वार के गुरुद्वारे से सिखों को खींच खींच कर बाहर निकाल कर जलाएं जा रहे थे। जो भी हाथ लगता उसकी गर्दन में टायर डाल कर जलाया जा रहा था।
गंगा में सिखों की दुकानें लूट और जला कर सामान फेंके जा रहे थे। यह सारी लूट पाट मेरी भी आंखों के सामने घट रही थी।
रेलगाड़ियां सिखों की लाशों से पटी हुई थीं। दुकानें तो ऐसे लूटी जा रही थीं गोया उन्हीं ने इंदिरा जी की हत्या की हो।
मगर एकबात तो साबित हुआ कि इंदिरा जी की हत्या से ज्यादा लोगों ने अपनी घरें सामनों से भर लीं। क्या टीवी क्या फ्रीज घरों में सामान रखनी की जगह कम पड़ गई। बच्चा तो बच्चा बुढ़े भी घर भरने में लगे थे।

Monday, October 30, 2017

पापा टीचर ही तो हैं!!!


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारा मूल्यांकन समाज बाद में करता है पहले हमारे बच्चे ही मूल्यांकन करते हैं। शिक्षा उन्हें तर्क करना,मूल्यांकन करने, चिंतन करने के योग्य बनाती है तो हमें उनके मूल्यांकन के लिए मानसिकतौर पर तैयार भी होना होगा। यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि उनके मूल्यांकन के स्तर और सूचक क्या थे। उन्होंने अपने मूल्यांकन में किन बिंदुओं और मान्यताओं को तवज्जो दिया। कहीं बाजार द्वारा स्थापित मूल्यबोध उनके चिंतन शक्ति को तो तय नहीं कर रहा है? यह भी समझने की आवश्यकता है।
क्या टीचर प्रोफेशन इतनी निष्क्रियता भरी और हेय है कि जिनकी कमाई पर बच्चे पले बड़े हुए, अब तक शिक्षा हासिल की उन्हें अपने पिता की कमियों, नाकामियों, जीवन में असफल कहने की हिम्मत देती है। यदि ऐसी ही शिक्षा हमारे बच्चे पा रहे हैं तो हमें अपनी शैक्षिक उद्देश्यों, प्रारूपों पर विचार करने की आवश्यकता है। यदि शिक्षक के बच्चे स्वयं अपने पिता या मां को शिक्षक के रूप स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो यह बड़ी िंचंता की बात है। जब अपने ही बच्चों की नजर में टीचर असफल व्यक्ति के तौर पर देखा और कहा जा रहा है तो वह इस प्रोफेशन में आने की तो सोच भी नहीं सकता।
एक शिक्षक क्यां और किन परिस्थितियों में शिक्षण प्रोफेशन में आया इसकी तहकीकात बच्चे नहीं करते। बच्चे बन चुके शिक्षक पिता को देखते हैं। वे यह नहीं देखते कि शिक्षण प्रोफेशन में आने से पूर्व उनके पिता सिविल सेवा परीक्षा में मेन्य तक पहुंच चुके थे। घर के दबाव, जल्दी नौकरी करने के पारिवारिक दबाव की वजह से अपने सपने को पीछे छोड़ अध्यापन को चुनता है। बच्चे उन दबावों को न तो समझना चाहते हैं और न ही उन्हें उससे कोई वास्ता होता है।
सच बात तो यह है कि आज हमारे बच्चे अपने भविष्य की शिक्षा और जीवन के लिए या तो बहुत ज्यादा सचेत हैं या फिर औरों के कंधे पर सवार। उन्हें मालूम ही नहीं है कि उन्हें किस क्षेत्र में जाना है। किस क्षेत्र में वे जा सकते हैं। एक अंधकार की स्थिति उनके सामने हमेशा बनी रहती है। यदि अभिभावक उन्हें रास्ता दिखाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें वे बातें नसीहतें और उपदेश लगा करती हैं। कई बार तो साफ कह देते हैं अपनी कहानी रहने ही दो। तब की बात है। आपके समय में सुविधाएं नहीं थीं तो उसमें हमारा क्या कसूर। आपने अपना जीवन जी लिया। हमें तो हमारी जिंदगी अपने तरीके से जीने दो। दरअसल आज के बच्चों ने अपने स्वास्थ्य को जिस कदर ख़राब किया है उसके देखते हुए कई बार महसूस होता है कि उन्हें स्वयं को आकर्षण रखने में दिलचस्पी ही नहीं रही। उनकी इस हालात में लाने में बाजार ने बड़ी गंभीर भूमिका निभाई है। फास्ट फूड, पैकेट फूड ने तो ताजा सब्जियों, फलों और खानों को हाशिए पर धकेला दिया है।

Friday, October 27, 2017

सबके पास एक कहानी


कौशलेंद्र प्रपन्न
साहब वे बड़़े ही ग़जब के इंसान थे। हंसते तो ऐसे थे गोया पूरा आसमान उन्हीं का है। और तो और ऐसे भी रहे हांगे वे पल जब हम रोत पूरी रात आंखों में ही काट दिया करते थे। और अब यह आलम है कि घर आने के बाद दस बजते बजते कुर्सी पर ही लुढ़क जाते हैं। कहानियां होती ही दिलचस्प हैं। वह चाहे किसी की भी क्यों न हो। किसी भी देश,समाज, व्यक्ति की हो कहानी में रस, संवाद, पात्रों की बतकही पढ़ने-सुनने वाले को बंधे रखती है।
लेकिन एक कहानी हम सबके पास होती है। बल्कि एक से ज्यादा कहानियां जीवन में होती हैं जिसे हम किसी से भी साझा नहीं करते। उस कहानी रचैता हमीं होती हैं। हमारी आदतें, बातें, घटनाएं उस कहानी को बुनती हैं। लेकिन उसे कहानी को किसी से कहने से डरते हैं। शर्माते हैं। शर्माते क्यों हैं? क्यांकि लगता है कहीं हमारी हककीत न पकड़ी जाए।
यही वे डर है कि हम अपनी कहानी को कई बार खुद से भी साझा नहीं करते। दूसरे की बात तो दूर की रही। शायद वे कहानियां हमारे स्वयं की गिरावट की होती है। शर्मिंदगी वाली होती है। या फिर न चाहते हुए कोई घटना घट गई जिसका हिस्सा होना एक संयोग रहा हो।
कहते हैं दोस्त, भाई, पत्नी अच्छे साथी होते हैं। लेकिन फिर क्या वजह है कि हम उनसे भी अपनी कहानी सुनने से बचते हैं। कोई तो वजह होती होगी जो हमें कहानी कहने से रेकती है।। हमें अपने अंदर की दुनिया में झांकना होगा कि वे कहानियों क्योंकर साझा करने से बचते हैं
वैसे कहा जाता है कि कहानी, अपनी बात बांट लेनी चाहिए इससे मन हल्का होता हैं। फिर क्या कारण है कि हम अपना मन हल्का नहीं करना चाहते।

Thursday, October 26, 2017

स्थानीय पर्व का राष्टीय हो जाना



कौशलेंद्र प्रपन्न
जल्दी जल्दी उग न सूरज देव भइले अरग के बेर...
छठ पर्व वास्तव में बिहार और उत्तर प्रदेश में मनाया जाता रहा है। आज से बीस साल पीछे मुड़कर देखें तो दिल्ली वेथ्ट उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट आदि में छठ पर्व कम ही लोग करते थे।
ख़ुद दिल्ली में 1994 से 2000 तक छठ पर्व करने वालों को फटी नजरों से देखा करते थे। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल उलट है। पूरा बाजार और सरकार इस पर्व को मना रही है। इसमें मीडिया की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। क्या हिन्दी और क्या अंग्रेजी के प्रतिष्ठित अखबार सभी इस पर्व को प्रमुखता से कवर कर रहे हैं। द हिन्दू, टाइम्स आफ इंडिया, आदि ने भी इस पर्व को हप्ते दिन पहले से कवर और फालो अप स्टोरी कर रहे हैं।
स्रकारी नीतियों में भी बदलाव देखे गए। इस पर्व पर छुट्टी की घोषणा बताती है कि इसके पीछे वोट बैंक काम कर रहा है।
लोकजन के पर्व छठ को देश के अन्य राज्यों में पहुंचाने में विस्थापित लोगों का भी बड़ा हाथ है। जैसे जैसे लोग राज्यों से विस्थापित होते गए वैसे वैसे यह पर्व भी उन उन राज्यों में मनाया जाने लगा।

Wednesday, October 25, 2017

पिताजी का अकेलापन




कौशलेंद्र प्रपन्न
जब कभी उन्हें देखता हूं  कि वो अकेले में क्या सोचते होंगे? क्या उन्हें अपने बच्चो की चिंता सताती होगी या उन्हें अपने छोटे भाई, छोटी बहनें याद आती होंगी?
पिताजी दो भाई और दो बहनें के परिवार से आते हैं। मेरी ही आंखों के सामने चाचा, बुआ सब एक एक कर चले गए। फूफा भी चले गए। उनके बच्चे हैं लेकिन उनसे बीस साल से भी ज्यादा समय बह चुका मुलाकात नहीं है। सब अपनी अपनी दुनिया में हैं।
पिताजी रह गए निपट अकेले। हालांकि इनके बच्चे हैं। नाती पोते, बहु,दामाद सभी हैं। लेकिन फिर क्या कारण है कि उनकी कविताओं में एक अकेलापन, एक कमी के भाव मिलते हैं। जैसे महादेवी वर्मा की कविताओं मे एक अप्रत्यक्ष की प्रतीक्षा और पुकार साफ सुनाई देती है वैसी ही कोई आवाज मुझे पिताजी की कविताओं में सुनाई देती है। ‘‘जीवन के इस मेले में मैंने अपने सारे सौदे बेचे/ मान-प्रतिष्ठा के सारे सौदे बेचे। बच रहा एक सौद जिसे बेचने आया हूं। आंसू का मोल नहींं होता।’’
‘‘मांगते हो तुम विदा पर दें विदा कैसे तुझे हम? नेह कैसे भूल जाएं बस यही केवल सीखाना’’ ये कुछ पंक्तियां हैं जो पिताजी की दुनिया की परतें खोलती हैं। कविताएं शायद कई अनकही बातें, टीस को बयां कर देने में मददगार साबित होती हैं। कई बार देखता हूं कि पिताजी की कविताओं में कई जगह अकेलापन मिलता है। लेकिन उसकी वजहें समझ नहीं पाता।
एक दफ्ा उन्हांने कहा अच्छा तो काशी बाबू भी चले गए? उस वाक्य में कहीं एक गहरी टीस या अकेलेपन का एहसास सुनाई दिया। वैसे ही सोचता हूं कि जब पिछले साल चाचा गुजरे तो उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा? या फिर छोटी बहन के जाने के बाद उन्हें कैसे लगा होगा। अकसर पिताजी मौन में बैठा करते हैं। यह उनकी आदत में छुटपन से देख रहा हूं। आज भी दो से तीन घंटे मौन में बैठते हैं। उस मौन में किसे याद करते होंगे? कौन उनके ध्यान में आता होगा?
कुछ जिज्ञासाएं हैं जो इन दिनों काफी मुखर हैं।

Monday, October 23, 2017

हम विस्थापितों की कहानी


कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानी बहुत पुरानी और दिलचस्प है। दिलचस्प इस तरह से कि हमारे पुरखे वर्षों पहले अपने गांव, जेवार छोड़कर कहीं और रोजी रोटी के लिए बसते चले गए। और हम इस तरह से वैश्विक नागरिक बनते चले गए। हमारी वैश्विकता तब अखरने लगती है जब आपके साथ अपनी भाषा और संस्कृति के साथ मजाक करता है। यह मजाक खूब होता है। बल्कि कई बार आपके अपने भी करते हैं।
देश के बाहर बसे हमारे दोस्त, संगी जन जब भारत की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं तो वे इस आशा से देखते हैं कि उनके पुरखे जिस भारत से गए थे वहां क्या बचा है। उन्हें क्या ऐसा मिल जाए जो वे अपने बच्चों को दे पाएं।
सूरीनाम, हॉलैंड, मॉरीशस, फीजी, अफ्गानिस्तान, कतर आदि में बसे भारतीय व विस्थापित मजदूरों की कहानी भी बड़ी अजीब है। जब कभी कोई पर्व त्योहार का मौसम आता है तब वे वहां भारत की याद में रात गुजार देते हैं। साल में छह माह या दो साल पर भारत लौटते वक्त वे अपने परिवार के लिए सामान की खरीदारी नहीं करते बल्कि अपने वहां होने और आधुनिक होने के प्रमाण गोया बटोर रहे होते हैं। ताकि वे और उनके बच्चे यह बता सकें कि फलां के अब्बू, फलां के भाई बाहर रहते हैं। चंद पैसों में बसर करने वाले भारतीय जब भारत लौट रहे होते हैं तब उनके बैग भरे होते हैं वहां के दोयमदर्ज के सामानों से।
विस्थापन में भाषा भी तो साल दस साल में बदल जाती है। धीरे धीरे अपनी भाषा की तमीज़ से दूर होने लगते हैं। जहां जिस भाषा में रोटी मिलती है वे उसी भाषा में जीने लगते हैं। विस्थापन में देश दुनिया, भाषा, जीवन दर्शन सब कुछ ही विस्थापित हो जाता है। रह जाती है तो बस भदेसपन, अपने यहां की बची खुची कुछ एहसास जो सिर्फ आपकी अपनी होती है।

Friday, October 13, 2017

घर ही था वो


घर ही था वो जो संवारा करते थे,
अब वो कबाड़ हो गए,
कुर्सियां लकड़ी की चुन कर बनी थीं,
लायी गयी थी घर में,
बैठकर पिताजी ने पढ़ाया था,
मिल्टन,कालिदास और कबीर,
अब वो कुर्सी कहां गई।
कभी घरों में रहा करते थे,
चार छह लोग,
बायन भी बंटा करता
खटिए पर,
जैसे जैसे भईया बड़ी क्लास में जाते गए,
घर खाली होता रहा।
नौकरी में छूट गई
घर की बात,
आंगन के कोने में बने घरौंदे,
कालका रेल,
आती तो है हर रोज,
सुबह तीन पैंतालीस पर,
अब नहीं उतरते,
घर आने वाले।
दीवाली की रात-
पूरी रात रेते हैं कुल देवता,
धूल में सनी घरों की बातें,
ढुलकती पांवों से टकराती हैं
जब कभी वर्षों बाद जाना होता है।
अब तो पडा़ेस भी बदल गए-
कहते हैं आते नहीं हर साल
बच्चों के लिए हो गए बाहरी,
ओलेक्स पर बेचने को देते हैं राय,
कुर्सी बाबुजी की,
सोफे पर नजर है कमल की।

Friday, October 6, 2017

बाज़ार में गुम हम



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों महासेल में खरीदारी करने चला गया। वैसे खरीदना कुछ था लेकिन वहां से 500, 500 के दो कूपन भी जे़ब में मिला। जो खरीदना था उसकी कुल कीमत पंद्रह सौ की थी। लेकिन टहलते टलहते हमने तकरीबन तीन हजार की शॉपिंग कर ली। जब काउंटर पर गए तो साहब ने कहा, ‘‘सर! ये देखिए ऑफर है पांच हजार से ज्यादा की खरीदारी पर पांच सौ और उससे ज्यादा पर एक हजार के कूपन हैं। क्यों इस मौके को हाथ से जाने देते हैं।’’
चेहरे पर ना नुकुर के भाव देख कुछ देर हमारा चेहरा ताकता रहा। फिर कोशिश की कि ‘‘सर यही देखिए! सिर्फ पांच सौ में कहीं नहीं मिलने वाला। ये तो महासेल है तब...’’
अंत में हमने पांच हजार एक सौ की शॉपिंग कर 500 के कूपन साथ लेते आए। जब पूछा कब तक खरीदारी कर सकते हैं? जवाब दिलचस्प था ‘‘ सर जब मर्जी आ जाएं। लेकिन यह अगले हप्ते जब शॉपिंग करेंगे तब उसमें से पांच से सौ कम कर दिए जाएंगे।’’
है न दिलचस्प!!! यानी बिलावजह एक तो पांच हजार की शॉपिंग की उसपर पांच सौ का लाभ उठाने के लिए फिर शॉपिंग के जाल फेक दिए गए।
दरअसल बाजार में हम ऐसे गुम हो जाते हैं कि हमारी तर्कशक्ति कहीं घास चरने चली जाती है। और तो और क्या बच्चे और क्या बुढ़े और क्या जवान सब इस मॉल संस्कृति में डूबे हैं। कई बार आंखें फटी रह जाती हैं जब किसी के हाथ में पांच छह पैंट्स, शर्ट आदि की बिलिंग कराते देखता हूं सवाल खुदी से करता हूं कि क्या साहब के पास एक भी पैंट व शर्ट नहीं हैं? हालांकि जो उन्होंने पहन रखी है वह भी नई से कम नहीं है। फिर यह प्रवृत्ति क्या है?
सेल में गुम हुए हमारे विवेक और तर्क का परिणाम है कि हम घर को गोदाम बना डालते हैं। कई कपड़ों की तो साल में भी एक के बाद दूसरी बारी नहीं आती। फिर वो ऐसे भूला दिए जाते हैं गोया हमारी है ही नहीं। जब नजर पड़ती है तब तक भूगोल उसके काबिल नहीं रहता। मन मसोस कर हाथ से सहला कर दुबारा किसी कोने में ठूंस देते हैं इस आश में कि कभी इसमें समा पाया तो जरूर पहनूंगा।

Thursday, October 5, 2017

रिक्शावाल


कौशलेंद्र प्रपन्न
शाम हो ही चुकी थी। सर्दी दहलीज पर खड़ी थी। सोच रही थी गरमी जाए तो वो आ धमके। अंधेरा बस सड़क के लैंप पर उतर रहे थे। रिक्शा वाला अपनी लाइन में खड़ा था। अपनी बारी आए तो सवारी लेकर आज की रोटी बना सके। मेटो स्टेशन के आगे रिक्शे वालों की लंबी लाइन लगा करती थी। वो ज्यादा भाग दौड़ नहीं किया करते थे। वैसे जब उनकी बारी आती तो सवारी उनकी उम्र देखकर दूसरे जवान रिक्शेवाले के साथ चले जाते। वो वहीं के वहीं पैंडल पर पैर रखे दुबारा पीछे सरक जाते।
आवाज भी तो नहीं लगाते थे। चुपचाप खडे रहते और सवारी के इंतजार में कई बार सुबह से शाम हो जाती और मुश्किल से चार या पांच सवारी खींच पाते। यानी जो कमाते उसका बड़ा हिस्सा मालिक की जेब में चला जाता।
‘‘राम खेलावन तुम रिक्शा क्यों खींचते हो? तुम से तो देह चलता नहीं सवारी कैसे खींचोगे?’’
‘‘ले पचास रुपए रख लो आटा खरीद लेना और प्याज के साथ रोटी खा लेना।’’
आवाज में थोड़ी हमदर्दी सी आ गई थी। मालिक तो था लेकिन शायद उसके पास इंसानियत अभी पूरी तरह से मरी नहीं थी।
मालिक के पास सौ रिक्शे थे। सब के सब किराए पर चलते थे। हर राज्य के रिक्शेवाले थे उसके पास। क्या एमपी, क्या यूपी और क्या राजस्थान और बिहार इन्हीं लोगों के बीच रहते रहते मालिक को भी इनकी जबान काफी हद तक आ चुकी थी। जिस राज्य का रिक्शावाला होता उससे उसी की जबान में बात करता।
रामखेलावन अकेला हो गया। न आगे नाथ न पीछे पगहा। बस एक लड़की रह गई जो दूसरे गांव ब्याही थी। उसके बच्चे थे। उन्हीं के लिए जी रहा था।
दिल्ली आए रामखेलावन को तकरीबन बीस साल हो चुके थे। पहले पहल जब दिल्ली आया तो रिक्शा नहीं खींचता था। तब वह स्कूल में चपरासी लगा था। वहां से खाने-पीने भर की कमाई हो जाती थी। दो बेटे और एक बेटी थी। पड़ोस में ही स्कूल में पढ़े और बड़े हुए। एक दिन पता चला बड़ा बेटा रेलगाडी के नीचे आ गया। तब तो जैसे इसकी कमर ही टूट गई। पूरा परिवार अनाथ सा हो गया। लेकिन उस दौर में भी रामखेलावन अपने और अपने परिवार को बांधे रखा। कहानी यही नहीं रूकी बल्कि छोटका जब बड़ा हुआ उसे प्रेम हो गया। वह भी दो घर छोड़ कर। एक रात तो लोगों ने जमकर उसकी कुटाई भी की। मगर आदत इश्क की थी सो आगे बढ़ी और दो भाग गए। कहां गए कुछ पता नहीं चला। आज भी कई बार रामखेलावन अकेला होता है तो छोटका को बहुत याद करता है। क्या तेज दिमाग पाया था। तभी उसके ऑटो खरीद ली थी।
जब से नोटबंदी हुई रामखेलावन के तो जैसे दुनिया ही अंधेरे में चली गई। पहले कुछ सवारी कम से कम उम्र की लिहाज कर बैठ जाया करते थे। आस पास रिक्शे से जाने वाली सवारी पैसे बचाने के लिए पैदल ही चलने लगे। मेटो के पास ही खड़ा हुआ करता था। सो कुछ लोगों को मालूम हो चला था कि रामखेलावन पेशेवर रिक्शावाला नहीं है। जब उसे कोई ऐ बाबा या रिक्शा कह कर बुलाता तो बहुत बुरा लगता। इसलिए उसने आपने रिक्शें के आगे हैंडिल पर एक तख्ती टांग रखी थी। उसपर उसका नाम, गांव का नाम और डिग्री लिखा होता। कुछ लोग नाम पढ़कर आवाज लगाते तो उसे बहुत अच्छा लगता। वैसी सवारी से मोल भाव भी नहीं करता। उस सवारी से देश दुनिया, आस पड़ोस सब तरह की बाते करते हुए रिक्शा चलाता।
‘‘बाबू जी आप लोग बड़े बड़े ऑफिस में काम करते हैं। हमरे लिए कोई नौकरी हो तो बताइए।’’ ...लेकिन उसे कहीं नौकरी नहीं मिली। और रिक्शा चलाने लगा।
आज पूरी रात उसका माथा और देह बुखार में तवे की तरह गरम था। बुखार भी ऐसा कि चलने में घुटने दर्द कर रहे थे। शाम होते होते उसका शरीर खड़े होने लायक भी नहीं रहे। वहीं सड़क के किनारे लेट गया। सवारी उसके आगे से जवान रिक्शेवालों के साथ जाती रहीं।

Wednesday, October 4, 2017

कवियों की मांग और कीमत



कौशलेंद्र प्रपन्न
अजित कुमार जी ने एक संस्मरण में लिखा है कि हरिवंश राय बच्चन जी ने कवि के तौर पर पहली बार कीमत की मांग की। बच्चन जी ने तब कहा था कि जो मुझे टैक्सी और सौ रुपए देगा मैं उसी कवि सम्मेलन में जाउंगा। इसकी आलोचना तब के कवियों ने जम कर की। लेकिन बच्चन जी ने बाजार को समझा और कवियों की कीमत, मांग, मूल्य तय किया।
आज कवियों की मांग और कीमत काफी है। एक कार्यक्रम के लिए कवियों की कीमत 500 से लेकर पांच हजार और पांच लाख तक की है। किसी कार्यक्रम के लिए कवियों की तलाश थी। सोचा क्यों न आज की तारीख में मंच के सिरमौर और ख्यातिप्राप्त कवि को संपर्क किया जाए। सो पीए से बात हुई जब उन्होंने कहा कि क्या बजट है आपका? हमने भी तपाक से पूछ लिया, कितने में बात बनेगी?
जवाब मिला पांच लाख एक कार्यक्रम का है। आपके बजट हैं तो आगे बात करें। हमने फोन मांफी के साथ काट दी। कोई दीवाना कहता है या फिर चार लाइन सब की कीमत आसमान छूने को है। आम आदमी तो कवियों को बुलाने की सोच भी नहीं सकता। इसलिए मंचीय कवि अब सरकारी और निजी संस्थानों और बाजार की ओर से ही बुलाए जाते हैं। छोटी मोटी गोष्ठियों में इनके दर्शन दुर्लभ हैं।
ऐसे दौर में कुछ कवि तो ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ शाम की दावत पर भी बुला सकते हैं। कुछ को खाने-पीने पर। जैसे कवि वैसे दाम। और तो और ऐसे भी कवि समाज में हैं जो बिन पैसे एक बुलावे पर आ जाते हैं।
एक और कैटेगरी है जो बिन पैसे, बिन समय कविता सुनाने पर उतारू होते हैं। उन्हें बस मौका मिलने की जरूरत है बस शुरू हो जाते हैं। कोई सुन रहा है या मजाक उड़ा रहा है इसकी भी समझ नहीं होती। बस अपने धुन में कविता पाठ करते जाते हैं। ऐसे कवियों से पीछा छुड़ाना कई बार भारी पड़ता है।

Tuesday, October 3, 2017

पढ़ने का कैंपेन



कौशलेंद्र प्रपन्न
किताबें किस के लिए होती हैं? प्रकाशक के लिए? लेखक के लिए? पाठक के लिए? किस के लिए लेखक लिखता है। यह तय होना जरूर है। निश्चित ही किताबें पाठकों के लिए ही होती हैं। लेकिन किताबों से मुहब्बत पैदा करना भी लेखक का ही का ही काम होता है। यह काम लेखक का कंटेंट कराता है। देवकी नंदन खत्री ने चंद्रकांता लिख कर पाठकों को हिन्दी सीखने पर विवश किया। यह एक लेखक का जादू था। जो अपनी लेखनी के बल पर पाठकों को जन्म दिया।
आज हजारों लाखों किताबें हर साल लिखी और छप रही हैं। लेकिन पाठक कुछ ख़ास किताबों तक ही पहुंच पाते हैं। बाकी किताबें प्रकाशकों की जानकारी में कहीं सांस ले रही होती हैं। लेकिन वे पाठकां से दूर होती हैं।
पिछले दिनो बेस्ट सेलर किताबों और लेखकों की सूची जारी हुई। उसमें कई लोगों को एतराज़ हुआ कि यह कैसे तैयार किया गया। इनमें किन लोगों को शामिल किया गया आदि। इस पर आरोप तो यह भी लगा कि यह सूची बाजार आधारित और बाजार द्वारा तैयार की गई है।
जो हो लेकिन किताबें तो हर साल लिखी और छप रही हैं। लेकिन पाठकों के पसंद की किताबें उनकी पहुंच से काफी दूर हैं। कभी गांधी जी ने कहा था कि हर हाथ को काम हर हाथ को शिक्षा। वैसे ही क्यों न हर हाथ को किताब का कैंपेन चलाया जा सकता है। कम से कम जो किताबें अब आपके काम की नहीं रहीं वो किसी और के हाथ सौंप दी जाए।

Thursday, September 28, 2017

शिक्षा की चिंता में घुलती घुरनी


कौशलेंद्र प्रपन्न
पूर्वी दिल्ली नगर निगम की शिक्षा समिति की अध्यक्ष सुश्री हिमांशी पांडे ने वाजिब सवाल उठाया है कि सरकार शिक्षा पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है फिर क्या वजह है कि बच्चों को पढ़ना भी नहीं आ रहा है। इन्होंने तमाम अधिकारियों की बैठक में यह चिंता साझा की। वहीं विश्व बैंक ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की  है। इसमें रिपोर्ट की मानें तो हमारा भारत उन बारह देशों में दूसरे स्थान पर है जहां बच्चे सामान्य वाक्य नहीं पढ़ पाते। सामान्य से जोड़ घटाव नहीं कर पाते।
विश्व बैंक की िंचंता भी गंभीर है कि करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद क्या कारण है कि बच्चों को शिक्षा की बुनियादी समझ और कौशल नहीं मिल पा रहे हैं।
यह चिंता आज की नहीं हैं बल्कि समय समय पर विभिन्न रिपोर्ट में भी दिखाई देती हैं। लेकिन एक हम हैं कि हमारी नींद नहीं खुलती। घुरनी तो इस बात को लेकर चिंतित है कि आने वाली पीढ़ी कैसी शिक्षा लेकर जीवन के मैदान में उतरने वाली है।
विश्व बैंक ने कहा है कि जहां दूसरी कक्षा के छात्र छोटे से पाठ का एक शब्द भी नहीं पढ़ पाते। यह एक रेखीए व्याख्या है। क्योंकि घुरनी का तजर्बा कहता है कि बच्चे स्कूलां में न केवल वाक्य पढ़ पाते हैं बल्कि उसके अर्थ तक की यात्रा करते हैं। घुरनी का अनुभव तो यह भी है कि बच्चों को शिद्दत से पढ़ाया जाए तो कोई वजह नहीं है कि वे पढ़ न पाएं।
विश्व बैंक ने कहा है कि बिना ज्ञान के शिक्षा देना ना केवल विकास के अवसर को बर्बाद करना है बल्कि दुनिया भर में बच्चों और युवा लोगों के साथ बड़ा अन्याय भी है। रिपोर्ट इस ओर भी हमारा ध्यान दिलाती है कि इन देशों में लाखों युवा छात्र बाद के जीवन में कम अवसर और कम वेतन की आशंका का सामना करते हैं। क्यांकि स्कूल उन्हें ज्ञानपरक शिक्षा देने में विफल है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...