Thursday, November 17, 2016

शिक्षा में इन दिनों

कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल ही में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने मानव संसाधन मंत्रालय को अपनी सिफारिशों दी हैं जिसमें स्कूली शिक्षा में एक बड़ा बदलाव आज नहीं बल्कि कुछ वर्षों के बाद जमीन पर दिखाई देगी। यूं तो शिक्षा में नवाचार और बदलाव समय समय पर होते ही रहे हैं जो आज शैक्षिक इतिहास में दर्ज है। जिन सिफारिशों को केब ने एमएचआरडी को सौंपी हैवह शिक्षा की मूल संवेदना और बुनावट को गहरे प्रभावित करने वाली है।केब की सह समिति कौशल और तकनीक ने सुझाव दिए हैं कि कक्षा तीसरी से रोजगारोन्मुख शिक्षा और दक्षता प्रदान की जाए। गौरतलब हैकि हर हाथ को काम और हर हाथ को शिक्षा पर गांधीजी ने वर्धा में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में दी थी। उनका मकसद यही था कि प्राथमिक शिक्षा हासलि करने के बाद बच्चे बेकार न हो जाएं।जब बच्चे अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी कर समाज में लौटें तो उनके हाथ में कोई दक्षता व कौशल होनी चाहिए ताकि वह अपना जीवन सम्मानपूर्वक चला सके। उद्देश्य तो गांधीजी का यह भी था कि रोजगार से कटी शिक्षा अंततः बच्चों को जीवन कौशलों से भी विलगा देती है।मानव संसाधन मंत्रालय इन सिफारिशों को कितनी गंभीरता से अमलीजामा पहनाती है।यह भविष्य तय करेगा किन्तु इतना तो स्पष्ट हैकि जब जब सत्ताएं बदली हैंतब तब शिक्षा को अपने तरीके से बदलने का प्रयास किया गया है।इससे भी इंकार नहीं कर सकते कि वर्तमान सरकार इस काम में पीछे है।इसने भी विभिन्न राज्यों में इतिहास, भाषा, विज्ञान के साथ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और पूर्वग्रहों को बच्चों के बस्ते में डालने की कोशिश की है।वहां उन परिवर्तनों को गिनाना हमारा कत्तई इरादा नहीं है।लेकिन संकेतक के तौर पर हमें समझना लेना जरूरी लगता हैकि शिक्षा को किस प्रकार समाज में अपने वैचारिक पूर्वग्रहों और स्थापना को स्थापित करने के प्रयास हुए हैं।
केब की ओर से सुझाए गए बिंदुओं में प्रमुख यही हैकि कक्षा तीसरी से ही बच्चों को तकनीक और कृषि आदि की दक्षता प्रदान की जाए। इतनी छूट जरूर दी गई हैकि राज्य सरकारें अपनी सांस्कृतिक, आर्थिक,सामाजिक बुनावटों के अनुरूप पाठ्यचर्याका निर्माण कर सकते हैं।इसी कडी में यह भी बताते चलें कि क्या शिक्षा के अधिकार नियम 2009 का उल्लंघन नहीं हैकि एक ओर आरटीई सभी 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को कक्षा आठवीं तक की शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान करती हैवहीं हम बच्चों को प्रकारांतर से काम,रेजगार की ओर हांक रहे हैं।कि बच्चे 5 वीं तक पहुंचते न पहुंचते शिक्षा बेशक पूरी न करें काम पर पहले लग जाए।ंक्योंकि जैसे ही हम उन्हें काम करने के कौशलों में दक्षता प्रदान कर देंगेवैसे ही उनके अभिभावकों के दबाव शिक्षा को चुनने की बजाए काम को चुनने के लिए प्रेरित करेंगे।सरकार के इस काम में राष्टीय खुला विद्यालय साथ देगा। प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो अनिल सद्गोपाल के शब्दों को उधार ले कर कहूं तो आरटीई और रोजगारपरक जिसे वोकेशनल एजूकेशन का नाम दे रहे हैं वह दरअसल बच्चों को शिक्षा के अधिकार ने वंचित रखने का परोक्ष कदम है। और सरकार पर एजेंडे पर जोरशोर से काम कर रही है। यही वजह है कि आज उच्च शिक्षा में रूचि रखने और पढ़ने वालों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ने की बजाए घट ही रही है। यदि न्यूपा व प्रथम की रिपोर्ट के हवाले से कहें तो हर साल स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के कारणों की पड़ताल करें तो पाते हैं कि जिन बच्चों के माध्यम से घरां में आर्थिक मदद मिलती है उन बच्चों को स्कूल भेजने से अभिभावक कतराते हैं। अब कल्पना की जा सकती है कि जब बच्चे तीसरी कक्षा से ही दक्षता हासिल कर लेंगे त बवे कितने समय तक काम से बच रह सकते हैं। इस ओर सरकार को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
दूसरी बड़ी शैक्षिक चिंता व घटना कह लें वह है कि राष्टीय स्वयं सेवक संघ का तकनीक और विज्ञान शाखा विज्ञान भारती ने विभिन्न स्कूलों में वैदिक गणित और विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान पर एक राष्टीय स्तर पर परीक्षा का आयोजन बीस नवंबर को करने वाली है। इस परीक्षा में देश के तकरीबन 2000 सरकारी और गैर सरकार स्कूलों को शामिल किया जाएगा। अनुमान लगा सकते हैं कि इन स्कूलों के लगभग 140,000 बच्चे जो कक्षा छठी से ग्यारहवीं में पढ़ते हैं, वे हिस्सा लेंगे। तीन घंटे तक बच्चों से इस परीक्षा में विज्ञान में भारतीय योगदान और डॉ कलाम का जीवन से संबंधित सवाल पूछे जाएंगे। गौरतलब है कि इस परीक्षा की येजना बनाने और सवालों के निर्माण में विज्ञान-भारती अकेली नहीं है बल्कि उसके साथ केंद्रीय विद्यालय, दिल्ली पब्लिक स्कूल, नवोदय विद्यालय, अमेटी इंटरनेशनल भी शामिल हैं। इन स्कूलों ने अपने शिक्षकों को निर्देश भी जारी किए हैं कि बच्चों को इन विषयों की तैयारी के लिए अलग से इंतजाम करें। क्या बच्चों पर पहले से पाठ्यपुस्तकों की सामग्री कम थी जो इन्हें भी उनके कंधे पर डाला जा रहा है। यह तो एक सवाल है दूसरा सवाल इससे ज्यादा गंभीर है कि कहीं यह एक खास वैचारिक वर्गों का शिक्षा पर लंबी रणीतिक काबीज होने की शुरुआत तो नहीं है?
शिक्षा में वैचारिक प्रतिबद्धता और पूर्वग्रहों को ऐसे ही दबे छूपे रास्तों से प्रवेश दिलाया जाता है। आमजनता को यह एक मामूली सी घटना लगती है लेकिन इसके खतरे हम आज भांप पाने में सक्षम नहीं होते जो बीस-तीस सालों में भयंकर रूप ले लेता है। शिक्षा को ऐसे पूर्वग्रह घूसपैठियों से किसी भी सूरत में बचाने की आवश्यकता है। प्राथमिक शिक्षा निश्चित ही किसी भी देश-समाज की चरित्र को तय करती है। यदि मिट्टी ही रेतीली,भूरभूरी होगी तो क्या हम उससे एक मुकम्मल विकसित और विज्ञान सम्मत तर्कशील समाज का निर्माण कर सकते हैं? संभव है हमारा सपना और हकीकत दोनों ही टकराएं। इसमें टूटना तो सपने को ही है। हकीकत तो हकीकत है ही कि सरकारें किस प्रकार से वैज्ञानिक चिंतन का गला घोंटकर असहिष्णु समाज का निर्माण करती है जिसमें बच्चों/बच्चियों के बीच शैक्षिक भेदभाव किए जाते हैं।


Tuesday, November 15, 2016

मैनेजरनुमा व्यक्ति का हस्तक्षेप




पिछले दिनों एक कार्यशाला में मैनेजरनुमा व्यक्ति के लगातार हस्तक्षेप करने की वजह से खिन्नता हुई। जबकि कार्यशाला की पूरी रूपरेखा एक हप्ते पहले ही उन्हें और कॉडिनेटर के साथ साझा किया था। यदि वे उस डॉक्यूमेंट से गुजरे होते तो काफी हद तक उनके हस्तक्षेप कम हो जाते।
कार्यशाला के बीच में जब आप पूरे रफ्तार होते हैं और उस वक्त कोई बार बार यह टोकाटाकी करने लगे कि ऐसे पढ़ाइए, यह भी कराएं, वह भी करा दें आदि तो कोफ्त होती है। उसपर तुर्रा यह कि जिन्हें शिक्षा और भाषा कीह समझ ज़रा सी भी नहीं थी। लेकिन शायद यह भी समझने की आवश्यकता है कि आज शिक्षा इन्हीं लोगों के हाथ में है।

Wednesday, November 9, 2016

भाषायी विविधत का उत्सव


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारा देश-समाज विविधताओं का देश है। यह विविधता विभिन्न स्तरों एवं स्वरूपों में देखी और समझी जा सकती है। मसलन भाषा,संस्कृति, लोक बोलियां, पहनावे,खान-पान आदि। वैसी ही विविधता हमें शिक्षा के क्षेत्र में भी नजर आती है। यही कारण है कि हमें देश के विभिन्न राज्यों की विविधता अपनी ओर खींचती है। हम उसके मोहपाश से दूर नहीं जा पाते। हमारी भाषायी और सांस्कृतिक विविधता ही वह जादू है जिसके अप्रत्यक्ष डोर से बंधे होते हैं। हमें इसी समाज में विविध भाषायी छटाओं का आनंद भी मिलता है जहां ‘पैले जाणा’, ‘कछुओ नाहि’ ‘दूर नइखे, नियरे बा हो’, ‘पाणी पी लो’ ‘रोट्टी खाणी है’ आदि को भी सुन सकते हैं। भाषायी विविधता एक किस्म से हमारी भाषायी विविधतापूर्ण संस्कृति की पहचान भी कराती है। यदि हम इस विविधता के उत्सव को भाषायी विविधता की परिधि में सीमित कर के विमर्श कर सकें तो वह एक दिलचस्प होगा। जहां हमारी पाठ्यपुस्तकें, पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्याएं भाषायी विविधता की वकालत करती हैं वहीं कक्षायी स्थिति का अवलोकन करें तो वह विविधता एक या दो भाषा में सिमट कर रह जाती है। यहां हमारी भाषायी विविधता और सैद्धांतिक स्थापनाएं पीछे रह जाती हैं जब हम बच्चों को मानक भाषा की ओर हांक देते हैं। जबकि राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000 और 2005 बड़ी ही शिद्दत से भाषायी विविधता की वकालत करती है। यहां तक कि कोठारी आयोग की सिफारिशें भी भाषायी विविधता की अस्मिता को संरक्षित करने की बात करती नजर आती है। लेकिन सवाल फिर वहीं खड़ा नजर आता है कि तो क्या वजह है कि कक्षा- स्कूल में वह बच्चों तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा है। यहां पर भाषायी वर्चस्व और भाषा का बाजारीय दबाव नजर आता है जो काफी हद तक भाषायी चरित्र और जरूरतों को तय करता है। स्कूली स्तर पर भाषा के चुनाव में हमें रोजगारोन्मुख भाषा के दबदबा दिखाई देती है।
हमारी स्कूली भाषा और समाज में बरती जाने वाली भाषा के बीच एक अस्पष्ट और कई बार साफ फांक नजर आती है। यदि हमने स्कूली भाषा और समाज में इस्तमाल की जाने वाली भाषा के अंतर को नहीं पाटा तो वह इन्हीं इदो वर्गां में टंगी भाषा मिलेगी। बच्चों भी इन्हीं दो पोल पर टंगी भाषायी रस्सी पर करतब करते मिलेंगे। हमें बड़ी ही सावधानी से बच्चों को भाषायी विविधता के स्वाद भी चखाने हैं। इसमें एक बड़ी दिक्कत यह आती है कि एक ओर भाषा के शुद्धतावादी जिसे मानकीकृत भाषा के प्रति अधिक राग है वे हमेशा ही मानक भाषा की सिफारिश करते हैं। वे मानते हैं कि विभिन्न बोलियां, उप भाषाएं मूलतः मानक भाषा को खराब करती हैं। यही स्थापनाएं शिक्षकों में भी संचारित होती हैं। कई कार्यशालाओं में ऐसे प्रश्नों से रू ब रू होने का मौका मिला है जिसमें शिक्षक कहते मिले हैं कि बोलियां तो भाषा को खत्म कर देंगे, बोलियां हमारी शुद्ध भाषा को गंदला कर देंगी। सचूपछा जाए तो उनकी इस चिंता का निराकरण भाषावैज्ञानिकों, शिक्षाविद्ों को करना चाहिए ताकि भ्रम की स्थिति न बनी रहे। क्यांकि शिक्षक स्वयं भ्रम में होगा तो वह यह तय कर पाने में असमर्थ होगा कि उसे कक्षा और समाज की विभिन्न भाषाओं के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित करे।
भाषायी विविधता का उत्सव स्कूलों और कॉलेज स्तर पर आयोजित करने की आवश्यकता है। इन कार्यशालाओं और उत्सवों में विभिन्न भाषा-बोलियों के रचनाकारों को आमंत्रित करना होगा ताकि जो अभिव्यक्तियां, लोकोक्तियां, मुहावरे हमारी मानक भाषा से गायब हो चुकी हैं उन्हीं भाषा की मुख्यधारा में लाई जा सके। बच्चों और बड़ों के भाषायी भूगोल से जिन शब्दों, अभिव्यक्तियों को बाहर कर दिया गया या हो चुके हैं उन्हें दुबारा परिधि में लाना होगा। गौरतलब है कि आज नागर समाज के बीच से विविध भाषा संपदा तकरीबन खत्म सी हो गई है। हमारी मातृभाषाएं भी इस दौड़ में पिछड़ रही है। जब कभी मातृभाषा का इस्तमाल करना होता है तब सच्चे,कोमल शब्दों को बड़ी मुश्किल से याद करना पड़ता है। यह स्थिति बच्चों के साथ ही बड़ों की भी है।
भारतीय भाषाओं में छपने वाले साहित्य में विविधता को देखें तो हमें कई छटाएं मिलेंगी जो मानक भाषा से नदारत हो चुकी हैं। हमें साहित्य के माध्यम से भारतीस भाषाओं और बोलियों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। अन्यथा वह समय दूर नहीं है जब हमारी हजारों बोलियां और गैर मानक भाषाएं अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेंगी। कई मर्तबा तो ऐसा भी हुआ है कि हम अपनी मातृभाषा को मानक भाषा के आगे छुपा देते हैं। जबकि हमारी बोलियां, भाषायी विविधता हमारे अभिव्यक्ति को सुदृढ़ ही करती हैं। लेकिन हमें अपनी बोली,भाषा के इस्तमाल करने में कहीं शर्म और हीनता महसूस होती है जो गैर मानक भाषा के लिए हानिकारक है।
देश भर में भाषोत्सव का आयोजन हा जिससे क्षेत्रीय और मानक भाषा के बीच की दूरी को कम की जा सके। यूं तो साहित्योत्सव का आयोजन लिटरेचर फेस्टीवल के नाम से शुरू हो चुका है। लेकिन उस आयोजन में एक ख़ास भाषा का वर्चस्व साफ देखा और महसूस किया जा सकता है। क्योंकि उस मंच पर बोलियों,उप बोलियों और गैर मानक भाषा को खेदर दिया जाता है। स्थानीय स्तर पर कॉलेजों और विश्वविद्यालों के हिन्दी विभाग एवं राज्य स्तरीय संस्कृति और भाषा विभाग इस किस्म के भाषोत्सव को प्रोत्साहित कर सकते हैं। यहां राजनीति इच्छा शक्ति को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। क्योंकि विभागीय आथि्र्ाक सीमाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हालांकि हर अकादमिक सत्र के लिए आर्थिक सहायकता राशि का प्रावधान होता ही है। इसी के तहत विभिन्न गोष्ठियों और सम्मेलनों का आयोजन विभाग करते हैं। उन्हीं मदों में भाषोत्सव नाम कुछ और भी सोचा जा सकता है लेकिन हमें इसे करने की आवश्यकता है। यदि हम भाषायी विविधता का उत्सव मनाना चाहते हैं तो। क्योंकि अकादमिक भूगोल से बहुत तेजी से भाषायी वैविध्यता खत्म हो रही है। इसका एक प्रमाण उच्च शैक्षिक संस्थानों में होने वाले भाषायी शोधों को देख का अनुमान लगाया जा सकता है। जितने शोध मानक भाषा में होते हैं क्या उसका एक छोटा सा हिस्सा भी बोलियों और गैर मानकीकृत भाषा की झोली में आती है। विचारणीय मसला है कि हमें शोधों की संख्या और उसकी गुणवत्ता बढ़ानी होगी। यहां एक सवाल पैदा होता है कि गैर मानकीकृत भाषा जिसमें हजारों बोलियां शिमल हैं उस बोली के आधिकारिक ज्ञाता एवं विद्वान ही नहीं हैं जो उसका मूल्यांकन और मार्गदर्शन कर पाएं तो ऐसे में शोध को मार्गदर्शन कौन करेगा। कहते हैं हिन्दी साहित्य में अवधी, बज्झिका, ब्रज, मैथिली, गढ़वाली, कुम्हौनी आदि बोलियों-भाषाओं के विद्वान जाते रहे। जो स्थान खाली हुआ उसे भरने वाला अब कोई नहीं बचा।


Tuesday, November 8, 2016

मातृभाषा के मार्फत प्राथमिक शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल में राष्टीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् ने नई शिक्षा नीति में बदलाव के लिए अपनी सिफारिश पेश की है कि बच्चों को कक्षा आठवीं तक मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। एक एक गंभीर सिफारिश है जिसे लंबे संमय से नजरअंदाज किया जाता रहा है। गौरतलब है कि वर्धा में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में गांधीजी ने इसकी सिफारिश की थी लेकिन वह अब तक व्यवहार में नहीं आ पाई। गांधीजी के अलाव भी विभिन्न शिक्षा और भाषाविद्ों ने भी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा दिऐ जाने की वकालत कर चुके हैं। प्रो कृष्ण कुमार, मातृभाषा और मानक भाषा पर विमर्श पिछले साल न्यूपा के राष्टीय स्थापना दिवस पर बोला था कि मातृभाषा में बच्चों की कल्पनाशीलता और सृजनाशीलता को बचाई जा सकती है। प्रो कुमार ने इस मसले पर कहा था कि मातृभाषा में बच्चे जिस सहजता के साथ अपने आप को अभिव्यक्ति कर पाते हैं वह वैचारिक अभिव्यक्ति सीखी गई दूसरी भाषा में नहीं आ पाती। शिक्षा-भाषाविद्ों ने माना है कि बच्चे के पास जितनी उसकी मातृभाषा की ताकत होती है वह उतना ही सृजनशील और चिंतन में प्रखर होता है। भाषा वैज्ञानिकों का भी मानना है कि मातृभाषा और मानक भाषा के बीच बच्चों की सीखने की क्षमता मातृभाषा में ज्यादा तेज होती है। किन्तु लगातार बच्चों पर अपनी मातृभाषा छोड़ दूसरी भाषा को बरतने के लिए शिक्षा और समाज बाध्य करता है। ऐसे बच्चों भाषायी संघर्ष में पड़ जाते हैं। इस संघर्ष बच्चों को ताउम्र सहना और जीना पड़ता है। पूरी जिंदगी बच्चा दो भाषाओं की दक्षता और अस्मिता की पहचान के बीच झूलता रहता है। जब भी भाषायी अस्मिता सामने आती है तब वह मातृभाषा की पीछे छोड़ दूसरी मानक भाषाओं को गले लगा लेता है। वह भाषा उसकी अभिव्यक्ति की ताकत बन जाती है जिसमें उसे अच्छी नौकरी और पहचान मिलती है। धीरे धीरे व्यक्ति की मातृभाषा पिछले पायदान पर खड़ी हो जाती है। सामने खड़ी भाषा जिसमें बाजार काम करती है उस भाषा को अपना लेता है।
शिक्षा पर गठित तमाम समितियों, आयोगों जिनमें कोठारी आयोग, राष्टीय शिक्षा नीति, राष्टीय शिक्षा आयोग, राष्टीय शिक्षा नीति की पुनरीक्षा समिति आदि ने भी लगातार शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को ही बनाने की वकालत की, लेकिन फिर क्या वजह है कि आज तक इन सिफारिशों को अमल में नहीं लाया गया या नहीं लाने दिया गया। यहां एक वजह राजनीति हस्तक्षेप एक बड़ा कारण है। वह हस्तक्षेप हमें भाषा के आधार पर राज्यों के विभाजन से शुरू होकर आज तक बतौर जारी है। मातृभाषा और मानक भाषा के बीच एक फांक नजर साफ देख सकते हैं। कक्षा में मातृभाषा के स्तर पर बच्चों के साथ होने वाले भेदभाव भी किसी से छूपे नहीं हैं। इस स्तर पर निजी स्कूलों में जिस तरह से मातृभाषा को दबाकर अंग्रेजी को तवज्जों दी जाती है यह भी किसी भी अभिभावकों से छुपा नहीं है। सिर्फ हिन्दी को छोड़कर बच्चों को कक्षा में अन्य मातृभाषा के इस्तमाल पर मुंह बिचकाए जाते हैं। और तो और गैर अंग्रेजी भाषी बच्चों को दंड़ भी भुगतने पड़ते हैं। ऐसे में मातृभाषा कहीं हाशिए पर धकेल दी जाती है।
कक्षायी अवलोकन बताते हैं कि बच्चां को मातृभाषा के इस्तमाल पर अलिखित ऐसा माहौल दिया जाता है जिसमें मातृभाषा के पनपने और विकसने का अवसर बच्चों से अगल कर दिया जाता है। बच्चे जिस मातृभाषायी परिवेश से कक्षा में आते हैं उन्हें उस भाषायी परिवेश से काट दिया जाता है। तो क्या वजह है कि उनकी मातृभाषा बच पाएगी। सामान्यतौर पर बच्चे अपनी मातृभाषा इस्तमाल सिर्फ अपने घर,परिवार और दोस्तों के बीच ही कर पाते हैं। जैसे ही स्कूली परिसर में दाखिल होते हैं उन्हें अपनी मातृभाषाओं को बाहर करना पड़ता है। बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तब भी शिक्षा उन्हें उनकी मातृभाषा के साथ कैसा बरताव रखा जाए इसकी मदद नहीं करता। दरअसल हमारी पूरी शिक्षा नीतियां, सिफारिशें मातृभाषा के बढ़ावा के लिए नीतिगत मदद तो करती हैं लेकिन अमलीजामा पहनाने की जहां बात आती है वहीं हम पिछड़ने लगते हैं।
विभिन्न शोधों की निष्पत्तियां इस तथ्य को स्थापित कर चुकी हैं कि बच्चे की सर्वांगीण विकास में उसकी मातृभाषा एक बड़ी भूमिका निभाती है। ताउम्र हम अपनी मातृभाषा को नहीं भूल पाते। हम कितनी भी गैर मातृभाषा में दक्षता हासिल कर लें लेकिन जहां तक भाषायी सहजता को प्रश्न है तो हर व्यक्ति अपनी मातृभाषा को चुनता है। लेकिन हमारा नागर समाज और शिक्षायी परिदृश्य मातृभाषा को हमेशा ही पिछले पायदान पर धकेलती नजर आती है। वही वजह है कि मातृभाषा व्यापक विमर्श की परिधि से बाहर हो जाती है। गौरतलब है कि राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000, 2005 बड़ी ही शिद्दत से बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा देनी की सिफारिश करती है।
जब बच्चा कक्षा में अपनी मातृभाषा का इस्तमाल करता है तब बच्चे तो बच्चे शिक्षक भी एक बार हंसे बगैर नहीं रह पाते। मसलन ‘लाइन पार दीजिए’ ‘माथा पेरा रहा है’ आदि वाक्य सुनते हम एक ख़ास राज्य का ठप्पा लगाकर उन्हें उनकी मातृभाषा के प्रयोग पर परोक्षरूप से छलनी लगा देते हैं। दुबार वे बच्चे इन वाक्यों को बोलने से पहले हजार बार सोचते हैं। प्रकारांतर से हम बच्चों के वाचिक अभिव्यक्ति भाषा के एक कौशल से काट देते हैं। जबकि एनसीएफ 2005 एवं गांधीजी की वकालत मातृभाषा को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के तौर पर इस्तमाल करने की थी। कितने बेहतर होता कि इन वाक्यां को प्रोत्साहित करे उन्हें मानक भाषा की ओर मोड़ते। वे कितने धनी होते कि उनके पास दो भाषाएं एक साथ होतीं। लेकिन हमने उन बच्चों से उनकी सहज अभिव्यक्ति की भाषा में मट्ठा डाल दी।

 

Monday, November 7, 2016

छठ के गीत

 छठ के गीत को इस तरह से भी गाने का वक्त आ चुका है। टटकी रचना परोस रहा हूं-
  आंगन में पोखर बनई बो,
 अनत कहीं पूजन न जइबो।
आदित बाबा घर ही में अर्घ्य चढई बो,
अनत कही पूजन न जइबो।
गंगा जमुन भइले दूर अब कहां अर्घ्य चढई बो,
नदिया पोखर सगर बिलई बो।
का कहीं कहा पूजन के जइबो,
गउंवां देहतावा में जइबो।
उहें अर्घ्य चढ़ई बो,
छतवे पर टबवे में नहई बो।
पारक में उख गड़ई बो,
अनत कहीं भटके न जइबो।

Thursday, November 3, 2016

गुनगुनी धूम में चलों कविता कहानी पकाएं


कौशलेंद्र प्रपन्न
दिसंबर का अंतिम पखवाड़ा। आप सभी की स्कूल की छुट्टियों के दिन। आप में से कुछ बाहर घूमने भी जाओगे। कुछ अपने घर में रहेंगे। सर्दी की धूम कितनी प्यारी लगती है जब धूम में बैठकर संतरे, मूंगफली,मूली खाते हो। वैसे ही हम इस धूम में कविता और कहानी सेकेंगे।
आपकी दादी,नानी या दादा, पापा-मम्मी कहानी जरूर सुनाती होंगी। आपको अच्छी भी लगती हैं। ज़रा सोचो आप भी कविता और कहानी बनाओ, बुनो और पका कर मम्मी पापा को सुनाओगे तो कितनी खुशी होगी। अगर चाहते हो कि आप खुद की लिखी कविता और कहानी बुनो तो कुछ जरूरी बातों को ध्यान में रखना होगा।
पहले अपने आस-पास यानी परिवेश को ध्यान से देखो और महसूस करो कि वे आपसे जैसे बातें कर रही हों। कि जैसे अपने बातें आपसे साझा करने के लिए उतावले हो रहे हों। जैसे आपके आस-पास की सर्द हवा, फूल, चिड़िया, पेड़, पार्क में घूमती उड़ती पत्तियां आदि। ये सब आपसे कुछ कहना चाहती हैं। सुनने के लिए उनके पास जाओ। धीरे से उन्हें सहलाओ। देखोगे कि वे पत्तियां आपसे बतियाने लगी हैं।
जब उनके करीब जाओ तो अपने साथ अपनी जेब में कुछ शब्दों को भी लेकर जाओ। जो आप देख और महसूस रहे हो उसे अपने शब्दों में कहने और गुनगुनाने की कोशिश करो। यहीं से कोई कोमल कहानी या कविता निकलेगी। जैसे सर्दी आई सर्दी आई/ओढ़े ठंढ़ की सर्दी आई। वर्दी पहने सर्दी आई। या फिर ऐसी दूसरी पंक्तियां आपको कानों में बजने लगेंगी। पत्तियों को उड़ते, खड़खड़ाते आपने देखा और सुना उन्हें शब्द देना चाहो तो कुछ यूं हो सकता- पत्तियां यूं उड़ती हैं ज्यों उड़ते हैं धूंध घनेरे। खड़खड़ करती पत्तियां आईं/साथ में पत्तियां लाईं। आगे आप खुद कविता को जन्म दे सकते हो। कविताएं ऐसी ही तो बनती और पकती हैं। हमारे आस-पास की चीजें पता नहीं कब कविता में समाने लगती हैं। आप भी बुनो न कोई सुंदर सी कविता।
जहां तक बात कहानी की है तो कहानियां शब्दां के कंधे पर चढ़कर आपतक आती हैं। आपको दूर कहीं ख्यालों में, कल्पनाओं में ले जाती हैं। आपको भी कहानी की दुनिया में अपने दोस्तों को ले जाना है तो बुनों एक अपनी नई कहानी। जैसे एक दिन घास सुबह सुबह बहुत खुश थी। खुश थी कि उसके माथे पर ओस की चमकती बूंदें थीं। सुबह की रोशनी में हीरे की तरह चमकती धूम बेहद खुशी थी। आपकी कहानी फूलों, चिड़ियों पर भी हो सकती है। एक और देखते हैं कहानी की शुरुआत, चिड़ियां चहक चहक कर मिट्टी के कटोरे में रखे पानी में नहा रही थी। पास में ही दाना चुगती दूसरी चिड़िया देख रही थी और बार बार उड़ती और वापस दाना खा कर फिर फिर उड़ जाती।
कहानी या कविता बुनने पकाने के लिए शब्दों की जरूरत पड़ती है जैसे रेटी बनाने के लिए आटा। आपके पास भी शब्द तो होंगे ही। अगर कम हैं तो मम्मी-पापा, दादा-दादी, नान-नानी, दोस्तों या फिर स्कूल में अपनी मैम या सर से मांग सकते हो कि मुझे इस पर कविता लिखनी है कुछ शब्द सुझाएं। अब आपके पास शब्द हैं, पेड़, चिड़िया, सर्दी की धूम, गुनगुनी दुपहरी है। साथ ही खाने को मूली, गाजर,मूंगफली आदि हैं। इन्हें खाते रहो और कविता, कहानी भी पका लो। जब स्कूल खुलें तो इन्हें अपनी जेब में, यादों में लेकर जाना मत भूलना। अपने दोस्तों से जरूर बांटना। आपके दोस्त ही नहीं बल्कि मैम, मम्मी पापा भी सुन कर कह उठेंगे वाह! क्या कहानी पकाई है। इसे चाहो तो किसी पत्रिका और अखबार में भी छपने के लिए भेज सकते हो।



Wednesday, November 2, 2016

जलती हुई शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
आप मरने लगते हैं धीरे धीरे/अगर आप पढ़ते नहीं हैं कोई किताब- पाब्लो नेरूदा की पंक्ति में वह संदेश है जिसे समाज सुन नहीं रहा है या सुनना नहीं चाहता। जिस समाज में किताब और किताब घरों को आग के हवाले किया जाता हो उस समाज की वैचारिक विकास का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। वह समाज और देश कितना दुर्भागा माना जाना चाहिए जहां शिक्षण संस्थान जल रही हों। बल्कि कहा जाए जलाई जा रही हां। यह जलन दो स्तरों पर है। पहला, भौतिक तौर पर शिक्षण्रा संस्थान स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों को आग लगाई जा रही है। दूसरा, शिक्षण संस्थानों को वैचारिक स्तर पर आग के अवाले किया जा रहा है। पहली आग बुनियादी ढांचे को जला कर राख करती है तो दूसरी आग वैचारिक तौर पर कंगाल और राख के ढेर में तब्दील कर देती है। पिछले कुछ महीनों से जम्मू कश्मीर में पहली वाली आग में तमाम स्कूल, कॉलेज जल रहे हैं। बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। बड़े कॉलेज से बाहर हैं। रिपोर्ट बताती हैं कि स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे अपने घरों से बाहर निकल कर जम्मू में स्कूलों में दाखिला लेकर पढ़ रहे हैं। वहीं कॉलेज में ताले लगे हैं। हाल की घटना और भी कष्ट और चिंता बढ़ाने वाली है कि स्कूल और शिक्षक शिक्षण संस्थान के प्रधानाचार्य के घर में आग लगा दी गई। यदि किसी भी समाज को दुखद अतीत बनाना है तो उस समाज की शैक्षिक स्वास्थ्य को खराब कर दिया जाए।
शिक्षा हमें और हमारे समाज को एक आकार देने का काम करती रही है। लेकिन इस आकार को तय करने वाले और कार्यान्वित करने वाले शिक्षा जैसे मुकम्मल औजार का इस्तमाल समाज में आग लगाने में भी करने में भी करते रहे हैं यह इतिहास में दर्ज है। इससे किसी को कोई एतराज नहीं होनी चाहिए कि नागर समाज ने ही अपने हित साधन के लिए शिक्षा का गलत प्रयोग भी किया है। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि शिक्षा को कैसे अपने वैचारिक विस्तार के लिए इस्तमाल किया गया है। कभी पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों के मार्फत हमने इसे अंजाम दिया तो कभी शिक्षण संस्थानों पर वैचारिक घेरेबंदी करके किया। लेकिन यह काम बड़ी ही साफगोई से की जाती रही है। यदि शिक्षा में लगाई गई आग के इतिहास में झांकें तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा चिंगारी राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों ने ही आग लगाई है। उन आगों के पीछे मकसद तात्कालिक लक्ष्य को हासिल करना था। सत्ता में आने की चाह और ललसा ने शिक्षण संस्थानों और शिक्षा की मूल प्रकृति को थोड़ा गंदला ही किया।
ख़बर है कि विभिन्न राज्यों में समय समय पर शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में आग तो लगाइ ही गई है साथ ही कैसे बच्चों के बस्ते में पूर्वग्रह भरे जाएं इस पर भी सुनियोजित तरीके से काम किए गए हैं। जो आग-बीज  पांच दस साल पहले बोए गए थे वे अब बच्चों में वृक्ष का रूप ले चुके हैं। कक्षाओं में बच्चे संप्रदाय, धर्म, जाति एवं भाषा आधारित दोस्ती करने के रास्ते पर चल पड़े हैं। जिस शिद्दत से बच्चों के मन में आग रोपे जा रहे हैं उसका अंजाम आने वाले सालों में दिखाई देगा इसके लिए हम नागर समाज को तैयार रहना चाहिए।
जम्मू कश्मीर में जिस तरह से स्कूलों और कॉलेजों को निशाना बनाया जा रहा है वह भयावह है। इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि हमारे बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा कट गए हैं। स्कूलां-कॉलेजों में ताला लगने का अर्थ है हम अपने बच्चों और युवाओं के हाथों में खेल,मनोरंजन और व्यवस्तता का खतरनाक विकल्प दे रहे हैं। जो स्कूल व कॉलेज नहीं जा पा रहे हैं वे कहां व्यस्त हैं यह जानना भी बेहद जरूरी है। क्योंकि उन्हें शिक्षा से विलगा कर हम एक बड़ी चुनौती को बुला रहे हैं। स्थानीय सरकार की ओर से भी पुख़्ता इंतजाम की कमी और कार्यवाई की कमी ही मानी जाएगी कि राज्य में तमाम सरकारी स्कूलां को आग का निशाना बनाया जा रहा है। कोई भी राज्य, समाज व देश तालीम को नजरअंदाज कर के चलती है तो वह विकास पूर्ण नहीं कह सकते। बल्कि राज्य के भौतिक विकास के चेहरे पर एक काला धब्बा ही है जहां की शिक्षण संस्थाएं स्वतंत्र रूप से नहीं चल पा रही हैं।
अगर नजर दौड़ाएं तो पिछले तीन सालों में विभिन्न राज्यों में शिक्षण और अकादमिक संस्थानों पर एक किस्म का कब्जे का दौर रहा है। वह कब्जा भौतिक से कहीं ज्यादा खतरनाक वैचारिक स्तर पर है। विभिन्न सस्थानों पर एक ख़ास वैचारिक प्रतिबद्धता वाले मुखिया को बैठाया गया है ताकि शैक्षिक संस्थानों को इस्तमाल अपने हित साधन में किया जा सके। कभी भाषायी स्तर पर तो कहीं पाठ्यक्रम के स्तर पर यह खेल बतौर जारी है। जो किसी भी लोकतांत्रिक समाज और राज्य के लिए हितकारी नहीं माना जा सकता। हमें इन शैक्षिक संस्थानों को आग से बचाना होगा हमें बच्चों को पूर्वग्रह के पाठों से निजात दिलानी होगी। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यदि हमें वैज्ञानिक सोच और तकनीकतौर पर विकसित समाज का निर्माण करना है तो पूर्वग्रहों और आगजनी से शिक्षण संस्थानों, स्कूल को सुरक्षा प्रदान करना होगा।


शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...