Sunday, September 25, 2011

बेटी का दिन इक

   
क्या गजब है की इक दिन बेटी दिवस  साल के बाकि दिन गली , उपेक्षा, शिक्षा से भी महरूम करना कुछ समझ नहीं आता.    
पूजा , अर्चना , आरती या कोई aur नाम भी शामिल हो सकता है जिन्ह्हे पढने जीवन के रु बा रु परेशानियौं को सहते गुजरता है तो क्या बंधू यही है बेटी दिवस. 
सोचना तो होगा जिनको हम हर पग पर बेटी होने के दंश देते हैं. इक दिन छाए वो कंजक पूजा का दिन हो या बेटी दिवस हम उन्हें अचानक तवाज़ो देने लगते हैं. 
बेहतर हो की इक दिन के सम्मान देने की बजाए रोज दिन की जलालत से निजात दें पायें.   

Saturday, September 24, 2011

चूकी हुई कहानी

हमारे बीच में कहानी हवा करती थी. जो रफ्ता रफ्ता दूर जा चूकी. कहानी गढ़ने में वाही मज़ा आता है जो किसी भी क़िस्म के सृज़न में.
कोई आप से पूछे की आपने कब अपने बच्चे को कहानी सुनाई तो शायद आप याद न कर पायें. येसा क्यों घटा? कभी पुचा खुद से?
दरअसल यह सवाल भी बैमानी सी है. इतना पूछना भी टाइम जाया सा लगता है. लेकिन जब हमारा पौध सुनना बंद कर देता है या इगनोरे करता है तब हमारी नीद खुलती है. तब कहानी दादू की तलाश में भटकते हैं .  काश खुद ही कभी कहानी सुन्ने की जहमत उठा लें तो परेशानी काफूर हो जायेगी.        

Thursday, September 15, 2011

शिक्षा की जान दे कर चुकाई कीमत

शिक्षा  की  जान दे  कर चुकाई कीमत  पाकिस्तान के ४ बच्चों ने. उनका कुसूर महज इतना था की वो इंग्लिश स्कूल में पढ़ते थे. यह बात तटप के लोगो को पसंद नहीं आई. सो उन बच्चों को स्कूल से लौटते टाइम बस अगवा कर गोली से भुन दिया गया. 
सरकार या हुकमत जो भी नाम दे वो क्या इस जीमेदारी से बच सकती है की शिक्षा पर बच्चों का हक़ है और सरकार की जिमीदारी बनती है की बच्चों की हिफाज्द करे. 
उस देश में या भारत में बच्चे सरकार की प्राथमिकता की सूचि में शायद निचले पायदान पर खड़े होते हैं. क्या इस लिए की वो चुनावों में मत पेटी भरने में मदद नहीं करते?
आवाज़ तो उठनी ही चाहिए वहां या यहाँ जहाँ हज़ारों बच्चे शिक्षा भूख और असुरक्षा से रोज़ दिन जूझते हैं.      

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...