Thursday, February 14, 2019

रोती रहीं साठ आंखें


कौशलेंद्र प्रपन्न
सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर्म नहीं था। कोई लज्जा नहीं थी किसी को भी। हर कोई जुड़ा था। जुड़ा था इसलिए रो रहा था।
सत्र नहीं पूछेंगे आप? यह नहीं जानना चाहेंगे कि सदन में क्या हो रहा था? यह अवसर क्या था? बताता हूं। बेशक आपने नहीं पूछा। लेकिन मेरा फर्ज है कि आपको मालूम हो।
‘‘बच्चों में समाजिक एवं संवेदनात्मक विकास में शिक्षक की भूमिका’’ इस विषय पर तकरीबन पचास शिक्षकों के साथ परिवर्तन संस्था की संस्थापक सोनल कपूर बात कर रही थीं। हम अपने बचपन में झांकें और देखने की कोशिश करें कि हमारे साथ बड़ों ने क्या किया? क्या किया हमारे रिश्तेदारों ने। एक अबोध बच्ची या बच्चा के साथ उस उम्र में जो घटती हैं जिन्हें वह समझ भी नहीं पाता।
...अभी बातचीत ज़ारी थी। कुछ शिक्षक सकुचाते हुए तो कुछ ने हिम्मत दिखाकर अपनी बातें औरों के अनुभव का नाम देकर सुना रहे थे। तभी एक शिक्षक फूटफूट कर रोने लगे और कक्ष से बाहर चले गए। उन्हें रोता देख मैं भी बाहर गया। और चुप कराने की कोशिश कर रहा था। उन्होंने बताया कि बचपन में उनके साथ भी ऐसी घटना घटी है। बहुत पूछने पर बताया कि उस घटना की जानकारी उन्होंने मां को भी दी। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। जब वही घटना मेरे छोटे भाई के साथ भी घटी तो मैं तब असहाय महसूस कर रहा था। वह व्यक्ति आज भी है लेकिन उसके साथ कुछ नहीं हुआ। यहां तक कि शुरू में तो मां ने भी विश्वास नहीं किया। और बात को वहीं अनसूनी कर दी।
यौन शोषण के शिकार बच्चियां ही होती हैं ऐसा बिल्कुल नहीं है। लड़के भी हुआ करते हैं। इस वाक्य को साक्षात सामने देख और सुन पा रहा था। मॉनसून वेडिंग, हाई वे, चांदनी बार आदि फिल्मों में इन घटनाओं को बड़ी ही शिद्दत से प्रस्तुत करती हैं। वहीं मैं लक्ष्मी मैं हिजड़, आदि किताबों में भी ऐसी घटनाओं को उठाने का प्रयास किया गया है। लेकिन कई बार ये पन्नों और सिनेमा हॉल में ही सिमट कर रह जाती हैं। जो बच्चियां या बच्चे इन घटनाओं में शामिल होते हैं उनके साथ वह बरताव बतौर जारी रहता है।

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