Wednesday, June 19, 2019

सुनने का कौशल और आनंद



कौशलेंद्र प्रपन्न

सुनना उसपर भी किसी और की बात, कहानी, घटनाएं अपने आप में बेहद चुनौतिपूर्ण है। डिजिटल युग में जहां हर चीज तेजी से बदलती और सरकाई जाती है ऐसे में सुनना और सुनाना बेहद दिलचस्प और मानिख़ेज़ है। एक घटना से सुनने के कौशल और सुनाने वाले की दक्षता को स्पष्ट करना चाहता हूं। पिछले दिनों बच्चों ‘‘ विभिन्न आयु वर्ग के जिसमें छह साल से लेकर 16 साल तक’’ को कहानी की कार्यशाला में कहानी सुनाना, कहना, लिखना और पढ़ना आदि पर तीन दिन की बिताने थे। मेरे लिए भी यह चुनौतिपूर्ण इस रूप में था कि उस कार्यशाला में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों को कैसे समान और रूचिपूर्ण, आनंदप्रद एहसासों से गुज़ारा जाए और उन्हें ये तीन दिन ज़ाया सा न लगे। सत्र की शुरुआत एक कहानी से की। कहानी क्या था इस संसार की रचना को विषय बनाया। कैसे गैलेक्सी, यूनिवर्स की रचना हुई। इसमें हमने 13.7 मिलियन वर्ष पीछे ले जाकर सृजन और निर्माण की रोचक जानकारी तो देना था ही साथ ही एहसास से भरना था कि हम आज जहां हैं उस पृथ्वी को बनने में कितने वर्ष की यात्राएं करनी पड़ी। कहानी में बच्चों का प्रवेश हो चुका था। मेरी आवाज़ और शब्दों, वाक्यों के माध्यम से बच्चे बंधते चले गए थे। शायद ही कोई बच्चा ऐसा रहा होगा जो इस यात्रा में पीछे रह गया हो। जब कहानी खत्म हुई तो सभी बच्चों से प्रक्रियाएं और अपने अनुभव साझा करने के लिए कहा गया। बच्चों ने स्पष्टतौर पर स्वीकार किया कि बहुत मज़ा आया। वापस आने की इच्छा नहीं हो रही थी। जैसे जैसे आप पृथ्वी पर लेकर आए। विश्व से एशिया पर आए, फिर भारत पर। भारत के बाद राज्य पर और राज्य से शहर पर फिर राजेंद्र नगर स्थित इस कक्ष तक लेकर आए। तो हमने अनुमान लगा लिया था कि अब आप इस जगह पर आने वाले हैं। इस कहानी को सुनते हुए बच्चों ने कल्पनाएं करना, अनुमान लगाना, कथा की भाषा, कथा का कथ्य, विभिन्न विषयों का समायोजन जिसमें गणित, इतिहास, विज्ञान, खगोल विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान आदि सब शामिल थे। छह साला बच्ची ने कहा ‘‘ इसमें गणित के अंक भी थे।’’ ‘‘ऐसा लगा ही नहीं कि हम जमीन पर हैं। जब आपने आंखें बंद कराईं तो लगा कुछ गेम कराने वाले हैं। लेकिन आवाज़ की जादू ऐसी थी कि उसके मोह में बंधते चले गए।’’ ग्यारहवीं में पढ़ने वाली दूसरी बच्ची ने कहा।
बातचीत का सिलसिला ज़ारी रहा ‘‘ यह कहानी क्यों पसंद आई?’’ इस सवाल का जवाब बच्चों ने दिया कि इसमें रोचक जानकारी थी, कहानी सुनने का आनंद था। आपकी आवाज़ बेहद प्रभावी थी। हम लोग डूब कर सुन रहे थे। अगला सवाल कुछ यूं पूछा ‘‘आप लोगों की नज़र में एक कहानी में क्या क्या होनी चाहिए जिसे पर देखना, सुनना चाहेंगे?’’ इसपर अन्य बच्चों ने बारी बारी से कहा ‘‘ कहानी में रोचकता हो, कहने वाला व्यक्ति रूचि ले। कहानी में इतिहास भी हो, समाज शास्त्र भी हो। विज्ञान भी हो और अच्छी कहानी हो जाती है।’’ ‘‘हमें कहीं भी इस कहानी को सुनते हुए भाषा कठिन और शब्द मुश्किल नहीं लगे।’’
तीन दिन कैसे गुज़र गए पता ही नहीं चला। अंतिम दिन दो तीन बच्चों और बच्चियों ने कहा ‘‘कार्यशाला में सबसे खराब जो रहा हो वो कहना चाहता हूं’’ यह कहना था आर्यन का। सबकी नज़र उसकी ओर चली गई। उसने कहा ‘‘सर का आज अंतिम दिन है। आज के बाद इनसे मुलाकात नहीं होगी। इनकी कहानी और कहानी कहने की शैली को आज के बाद नहीं सुन सकेंगे।’’ लगभग अन्य बच्चों का भी यही कहना था। लेकिन प्रियदर्शनी ने स्वीकार किया कि उन्हें भी चिंता थी कि तीन दिन कहानी पर बोर हो जाएंगे। पहले भी कई सर आए और बोर कर के चले गए। इस बार भी तीन दिन बोर होने वाले हैं। लेकिन पहले ही दिन, पहले ही एक घंटे में हमें अंदाज़ हो गया कि हम बोर नहीं होंगे।’’
यह एक कार्यशालायी तजर्बा था जिससे हम आगे सुनने के कौशल कैसे कहने के कौशल पर ख़ासा निर्भर है इसे समझने की कोशिश करें। सुनने का धैर्य न तो बच्चों में शेष है और बड़ों में। हम मान कर चलते हैं कि कहने वाला बोर करने वाला है। जो भी कहने वाला है वो अपनी कहानी, अपनी बातें सुनाकर समय काटेगा। यह मानना भी एकबारगी ग़लत भी नहीं है। क्योंकि सुनाने वाले कई बार यही किया करते हैं ऐसे अनुभव हम सब की ज़िंदगी में आए ही होंगे। हमारे ही बीच में ऐसे भी कहने वाले होते हैं जिन्हें सुनने के लिए लालायित रहते हैं। ऐसे व्यक्ति कई बार हमें प्राथमिक कक्षाओं में बतौर शिक्षिका/शिक्षक मिले होंगे जिन्हें जी चाहता था ये बोलते जाएं और हम बस सुनते रहें। ऐसे ही वक्ताओं, कथा कहने वाले कविता सुनाने वाले हमारी ज़िंदगी में शामिल हो जाते हैं। लेकिन जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं वैसे वैसे इस प्रकार के लोग कम होते चले जाते हैं। हालांकि प्राथमिक स्तर पर हमारे अधिकांश शिक्षक पढ़ाने आते हैं। शायद पढ़ाने की क्रिया में पढ़ने और सुनने के आनंद की हत्या करते रहते हैं। वो पाठ्यक्रम पूरा कराने के दबाव में ‘‘सुनने का आनंद’’ पीछे धकेलते जाते हैं। हमारी प्रारम्भिक सुनने की प्रक्रिया में सुनने के आनंद कहीं छूट जाते हैं यदि कुछ रह जाता है तो बस सुनकर याद रखने, रटने, परीक्षा में सुने हुए शब्दों के अर्थ बताने आदि कार्यां में बीतता रहा है तो ऐसे में हमारे बच्चे सुनने के कौशल में एक बात गांठ बांध कर सुनने की कोशिश करते हैं कि इस कहानी, कविता में कौन कौन से कठिन शब्द आए हैं, उनके विपरीतार्थक शब्द, समानार्थक शब्द, वाक्य आदि में प्रयोग कैसे करेंगे? आदि संभावित सवालों की जाल में खो जाते हैं। ऐसे में हमारा बच्चा सुनने के कौशल में सिर्फ कुछ शब्दों, कहां कहां किसने कौन से शब्द, संवाद बोले हैं उन्हें याद रखने में उलझ जाते हैं।
बताने और सुनाने में एक बुनियादी अंतर को समझ लें तो आगे की यात्रा आसान और आनंदपूर्ण हो सकती है। जब हम कक्षा-कक्ष में या फिर आम ज़िंदगी में किसी को कुछ बता रहे होंते हैं तब हम शायद कोई सूचना, कोई घटना या फिर अपनी बातों में तथ्यों को शामिल कर रहे होते हैं। हमारी अपेक्षा तो होती है कि जिसे बता रहे हैं उसे सुने। उसे सुनकर कितना भागीदार हो या फिर उसपर किस प्रकार का एक्शन ले इसकी अपेक्षा शायद नहीं रहती। लेकिन जब हम किसी को कुछ सुना रहे होते हैं तो हमारी अपेक्षा सुनने वाले से होती है कि वह सुनकर अपनी राय भी दे। सुनने में दिलचस्पी भी ले और हूंकारी भी भरे। हूंकारी भरना वैसे तो कहानी में ज़्यादा होती है। इससे हमें पल पल हर पग पग पर प्रतिक्रियाएं और सुनने वाले की मनःस्थिति के बारे में जानकारी मिल रही होती है। जब हम कक्षा-कक्ष में सुना रहे होते हैं तब यह जानना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि सुनने वाले बच्चे उसे समझ भी रहे हैं या नहीं। यहां सुनने के साथ ही समझना एक अपेक्षा जुड़ जाता है। यदि बच्चा सुनकर अर्थ नहीं समझ पा रहा है, संदर्भ की समझ नहीं बन पा रही है तो शायद यह सुनना मुकम्म्ल नहीं माना जाएगा। इसलिए सुनाने वाले यानी कहने वाले को अपनी कहन पर काम करने अभ्यास करने की आवश्यकता पडे़गी। कहन में जो जितना चुस्त और दक्ष होगा उसकी सुनाने की प्रक्रिया उतनी ही सहज और सारगर्भित होगी ऐसा मान कर चल सकते हैं। सुनाने के दौरान हम किस प्रकार की भाषा, कथ्य, परिवेश आदि की रचना कर रहे हैं यह भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि सुनना अपने आप में श्रमसाध्य कामों में से एक है। कोई क्यों किसी की सुने? क्यों सुनाने वाला सुनाना चाहता है? आदि के पीछे के मकसद स्पष्ट नहीं होंगे तो वह कहने और सुनने की आम प्रक्रिया तो हो सकती है वह समझ कर सुनने की प्रक्रिया का हिस्सा बनने से वंचित हो जाएगी।
यदि किसी कक्षा की परिकल्पना करें तो हमारा शिक्षक जिस तरीके व शैली में बच्चों को कहानी, कविता, विज्ञान, गणित या समाज विज्ञान की बातें, अवधारणाएं सुना रहा है किस कदर उसकी भाषा और अपेक्षा स्पष्ट नहीं तो ऐसी स्थिति में बच्चे नहीं सुनते। बल्कि बस सुनने का ढोंग कर रहे होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम बड़े भी कई बार सुनने का स्वांग कर रहे होते हैं। सुनते नहीं हैं। जब पूछा जाता है ‘‘ सुन रहे हैं? मैं क्या कह रहा हूं?’’ ‘‘ क्या आप बता सकते हैं मैं किस पर चर्चा कर रहा था?’’ इन वाक्यों से हमारी तंद्रा टूटती है। हम कह देते हैं, शॉरी सुन नहीं पाया।  हम क्यों नहीं सुन पाए या बच्चा क्यों नहीं सुन सका? इसके दो जवाब हो सकते हैं, पहला- हम सुनना नहीं चाहते थे। हमारी अंतर दुनिया में बड़ी हलचल मची हुई थी। इसलिए सुन नहीं पाए। बच्चा यदि भूखा है, असुरक्षित है, पीड़ित है तो वह सुन नहीं पाएगा। दूसरी स्थिति सुनाने वाला यानी कहने वाला यदि पुरानी और आदतन बोर की शैली में कह रहा है तब वैसी स्थिति में हमारी सुनने की इच्छा मर जाती है। तब बोलने वाले के शब्द/ध्वनियां भर हमारे कानों से टकराया करती हैं।
सुनने से गहरा जुड़ा है पढ़ने की लालसा। जब हमारा बच्चा कोई कहानी, कोई कविता आदि सुनता है तब उसमें उसे पढ़ने की जिज्ञासा पैदा होती है। बच्चा सुनने के बाद उस कहानी को पढ़ कर आनंद उठाना चाहता है। लेकिन उसके पढ़ने के रास्ते में वर्णमालाएं, अक्षर ज्ञान, शब्दों की प्रकृति आदि बाधा बनती हैं। बच्चा शब्दों और वाक्यों की पहचान से संघर्ष कर बाहर निकलता है तब उसे पढ़े उसे शब्दों और वाक्यों में निहित कहानी के मर्म को समझने के दूसरे स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है। हमें बच्चों को पढ़ने की सीढ़ी पर चलाने से पूर्व सुनने की कला में प्रवीणता मुहैया करानी पड़ेगी तब पढ़ने की प्रक्रिया सुगम और सहज हो सकती है।
हमारा बच्चा अक्षर ज्ञान से लेकर, वर्णमालाओं के चक्रव्यूह को तोड़ते तोड़ते पांचवीं कक्षा पार कर जाता है। जैसे जैसे अगली कक्षाओं में जाता है यह वर्ण, अक्षर, वाक्य उसे डराने लगते हैं। वह या तो भाषा एवं साहित्य पढ़ने से मुंह मोड़ चुका होता है। और हम एक भविष्य के साहित्य प्रेमी व साहित्य के छात्र पाने से वंचित रह जाते हैं। बच्चे तो साहित्य से दूर हो ही जाते हैं यह तो एक हानि होती ही है साथ ही हमारा साहित्य महज बड़ों की रूचि और विलास की वस्तु बन कर सीमित हो जाती है। ऐसे में बच्चां को साहित्य से दूर होना कहीं न कहीं बच्चों में पढ़ने, सुनने, बोलने की क्षमता को कमतर करती है। वहीं बच्चों में भाषायी साक्षारता को भी कम करती है। बच्चे वर्ण आदि तो फिर भी पहचान लेते हैं किन्तु जब पढ़ या सुनकर समझने का जायजा लेते हैं तब हमारा बच्चा पिछड़ जाता है।

Tuesday, June 18, 2019

शपथ की भाषा



कौशलेंद्र प्रपन्न
संसद में कौन सांसद किस भाषा में शपथ ले रहे हैं इस बाबात मीडिया और सोशल मीडिया में ख़ासा चर्चा है। कोई अंग्रेजी में शपथ ले रहा है तो विवाद तो कोई भोजपुरी में शपथ लेने की मांग कर रहा है तो उसे यह तर्क दे कर रोका गया कि यह संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषा नहीं है इसलिए इस भाषा में शपथ नहीं ले सकते। जिन भाषाओं में शपथ लेने से रोका गया उसमें बघेली भी शामिल है। अचानक संस्कृत भाषा को मुहब्बत करने वाले ज्यादा ही जोश में हैं। फलां ने संस्कृत में शपथ लिया। उसने भी लिया और इसने भी संस्कृत में शपथ ली। क्या हम नहीं जानते कि आज संस्कृत कुछ फीसदी लोगों की व्यवहार की भाषा हो सकती है। कुछ संस्थानों, स्कूलों आदि में ही पढ़ी और पढ़ाई जाती हैं। बाकी तो आम जिं़दगी से नदारत भाषा के दिन अचानक शिक्षा नीति के मसौदे आने से जान आ गई है। न केवल संस्कृत बल्कि पालि, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाएं इन दिनों खूब इठला रही हैं। हिन्दी भी उन्हें के संग ज्यादा खुश हो रही है। यह अगल बात है कि कुछ राज्यों ने इसे अनिवार्यतौर पर पढ़ने-पढ़ाने पर सवाल उठाए और सरकार को यह निर्णय वापस अपनी झोली में रखना पड़ा।
संस्कृत में शपथ लेने वाले वे सांसद हैं जो कभी कभार शौकीयातौर पर बोल लिया करते हैं। इनमें साध्वी प्रज्ञा, प्रताप सारंग, देबू सिंह पटेल आदि। वहीं अंग्रेजी में शपथ लेने वालों में राहुल गांधी, गौतम गंभीर, बाबुल सुप्रियो हैं। इन्हें क्या दोष देना कि क्यों इन्होंने अंग्रेजी में शपथ ली? राहुल बेशक जनता को हिन्दी में संबोधित करते हैं क्या वह स्क्रीप्ट हिन्दी में होती है या रोमन में? बाबुल सुप्रियो गाने तो हिन्दी की भी गाते हैं लेकिन संभव है उसकी स्क्रीप्ट भी रोमन की होती हो। लेकिन हम सवाल उठा रहे हैं। जबकि यह किसे नहीं मालूम कि पूरा का पूरा हिन्दी फिल्म जगत रेमन मार्का हिन्दी में ही पैसे पीटा करती है। जहां तक हिन्दी में शपथ लेने वालों की बात है तो ये लोग सीधे सीधे हिन्दी पट्टी से आया करते हैं या फिर हिन्दी सी दीखने की कोशिश करते हैं7 स्मृति ईरानी, रविशंकर प्रसाद, रमेश पोखरियाल निशंक, डॉ महेंद्र नाथ पांडे, जनरल वीके सिंह आदि।
भाषा से मुहब्बत शायद थोपी जाए तो यह हमारी अपनी नहीं हो सकती बल्कि वह दूसरी भाषा के तौर पर ही बरती जा सकती है। कौन किस भाषा में सहज है इसको लेकर किसी दूसरी शक्ति या दबाव तो कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता। ठीक वैसे ही जब उत्तर भारतीय भाषायी समाज दक्षिण भारतीय भाषायी समाज पर हिन्दी सीखने-सिखाने की मजबूरी पैदा करते हैं तब भाषायी संघर्ष को जन्म देते हैं। जबकि यही कहानी उलट भी सकती है। फ़र्ज कीजिए दक्षिण भारतीय इतनी ताकत हासिल कर लें कि भाषायी समाज को प्रभावित कर सकते हैं तो संभव है हिन्दी के स्थान पर तमिल, कन्नड़, मलयाली आदि भाषाओं को सीखना-सिखाना अनिवार्य कर दे। तब भी संघर्ष शुरू होंगे ही। दरअसल भाषायी समाज को राजनीति हस्तक्षेपों को ख़ासा आकार दिया है। सत्ताएं तय करती रही हैं कि कौन सी भाषा कब और कैसे अचानक शक्ति प्रदाता भी भूमिका में आ जाएंगी।
भाषाओं को लेकर लंबे समय से संघर्ष और वाक्युद्ध चले हैं, जिसकी सत्ता और ताकत प्रभावित करने वाली रही है उसने दूसरी भाषा को पनपने से पहले ही कूचलने की पूरी कोशिश की है। इस पददलन में वे भाषाएं काफी हद तक सफल भी रही हैं। जबकि यदि हम 1968 की राष्टीय शिक्षा नीति की बात करें तो स्पष्टतौर पर कहा गया है कि अंग्रेजी को प्राथमिक स्तर पर शिक्षण का माध्यम नहीं बनाया जा सकता। न ही इतनी बड़ी संख्या में शिक्षक ही मुहैया करा सकते हैं। लेकिन वही अंग्रेजी हमारे करीब रहकर अन्य भारतीय भाषाओं की नींव खोदती रही है। एक भाषा के तौर पर अंग्रेजी सीखने-सिखाने में किसी को भी कोई गुरेज़ नहीं सकता किन्तु दूसरी भारतीय भाषाओं को धकेलकर अंग्रेजी को थोपना किसी को भी खटकेगा। हालांकि नई राष्टीय शिक्षा नीति आधुनिक और भारतीय भाषाओं को संरक्षित करने और पढ़ने-पढ़ाने के माहौल सृजित करने के प्रति गंभीर है। भारतीय भाषाओं को बचाना और सीखना-सिखाना ग़लत नहीं है बल्कि किसी एक भाषा को ताज पहनाना और अन्य भाषाओं को हाशिए पर धकेलना उचित नहीं। 

Friday, June 14, 2019

बहुभाषायी शक्ति और बच्चों की दुनिया


कौशलेंद्र प्रपन्न
जनमते ही बच्चों को मां की भाषा, नर्स की भाषा, डॉक्टर की भाषा, दाई की भाषा, नाते-रिश्तेदारों की भाषा कानों में पड़ती है। क्या इसे बहुभाषायी समाज कह सकते हैं? सीधे सीधे बहुभाषा से जुड़ती तारें पहली नजर में दिखाई न दे पाए किन्तु है तो बहुभाषायी समाज का उदाहरण ही। मां अपनी भाषा में पुचकारती है। दादी नानी अपनी भाषा बोली में। डॉक्टर अपनी भाषा में जच्चा बच्चे से बात करता है। यह प्रकारांतर से बहुभाषा का ही उदाहरण है। जब बच्चा घर में आता है तब उसके आस-पास बोलने वाले अपनी अपनी भाषा में बातें किया करते हैं। अपने परिवेश की ध्वनियों को बच्चा सुन और ग्रहण कर रहा होता है। वैज्ञानिक स्थापनाएं भी सत्यापित कर चुकी हैं कि बच्चे गर्भ में रहते हुए अपने परिवेश की ध्वनियों को संग्रहीत करता रहता है। वही ध्वनियां उसे बड़े होने पर मदद करती हैं भाषा सीखने में। इसे स्वीकारने में किसी को भी गुरेज़ नहीं होगी कि बच्चा जो भाषा गर्भ में सुनता है बड़े होकर वही ध्वनियां उस भाषायी कौशल में दक्षता प्रदान करती हैं। जब बच्चा स्कूल जाने योग्य आयु को होता है तब वह स्कूल में एक दूसरी या तीसरी भाषा सुनता,बोलता और लिखता है। बच्चा अब द्वंद्व व संघर्ष गुज़रने लगता है। जो भाषा उसकी घर की थी उसमें न किताबें होती हैं, न शिक्षक उसकी भाषा में पढ़ाता है, न बच्चे उस भाषा को बरत रहे होते हैं। जो कक्षा में आता है वह दूसरी या तीसरी भाषा में निर्देश देता है। कई स्कूलों में तो मातृभाषा व स्थानीय भाषा के इस्तमाल पर दंड़ित भी किया जाता है। ऐसे में भाषायी दंड़ व द्वद्व गहरे होने लगते हैं। इस स्तर पर बच्चों के बीच भाषा चुनाव की बड़ी चिंता पैदा होती है। इस चिंता की गहराई कॉलेज, विश्वविद्यालय तक और चौड़ी हो जाती है। इसका एक सीधा उदाहरण है, विश्वविद्यालय स्तर पर राजनीति शास्त्र, समाज-शास्त्र, विज्ञान, वाणिज्य आदि की पढ़ाई न तो मातृभाषा/स्थानीय भाषा में होती है और राज्य स्तरीय भाषा में बल्कि यहां अंग्रेजी में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चल रही होती है। ऐसे में बच्चे की मातृभाषा/स्थानीय भाषा साथ छोड़ देती है और बच्चा अंग्रेजी से लड़ने-जूझने के लिए तैयारी करता है। बच्चे की भाषायी दक्षता उसकी मातृभाषा/स्थानीय भाषा में थी किन्तु जब वह तीसरी भाषा के मार्फत विषय का अध्ययन करता है तब उसे तीसरी भाषा की तमीज़ को समझने और उस भाषा की प्रकृति को समझते बूझते एक बड़ा हिस्सा निकल जाता है।
घर वाली और बाहर वाली भाषा के मध्य झूलता हमारा युवावर्ग अंततः भाषायी अंतरविरोधों, भाषायी अलगाववाद में अपनी निजी पेशेवर क्षमता खोता चला जाता है। विशेषतौर पर हमारा युवा विज्ञान, गणित आदि में तो बेहतर प्रदर्शन करता है लेकिन जब भाषा की बारी आती है तब उसका सरोकार महज इतना ही होता है कि फलां भाषा के पेपर में पास मार्क्स ही तो अर्जित करने हैं। वह बच्चा पास अंकीय द्योढ़ी को पार कर प्रोफेशनल क्षेत्र में उतर जाता है। जब हमारा युवा कार्यक्षेत्र में आता है वहां उसे बहुभाषी होना एक अनिवार्य अहर्ता पूरी करनी पड़ती है। यहां पर हमारा युवा एक क्षेत्र, राज्य विशेष तक बंध कर रह जाता है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि एक दक्षिण भारतीय युवा अपने विषय और पेशेवर क्षेत्र में दक्ष है किन्तु यदि उसे दक्षिण भारतीय भाषा के एत्तर अन्य भारतीय भाषाएं नहीं आतीं तो ऐसे में वह युवा एक राज्य, जिला, गांव की चौहद्दी नहीं पार कर पाता। हालांकि यदि युवा श्रम और अभ्यास करे तो दूसरी अन्य राज्यीय भाषाएं सीखकर अपनी रोजगार के द्वारा को व्यापक स्तर पर खोल सकता है। इसमें क्या दक्षिण भारतीय और क्या उत्तर भारतीय बल्कि एक देश से देशांतर तक अपने पेशेवर फलक को व्यापक बनाना है तो हमें बहुभाषी होना ही होगा।
तकरीबन बत्तीस तेतीस वर्ष बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति को पुनरीक्षित करने और नवा करने का प्रयास किया गया। इसकी शुरुआत 2015 में हो चुकी थी। अंतिम प्रारूप आने में तकरीबन चार साल लग गए। इसके पीछे कई वज़हें हो सकती हैं। उसमें राजनीति इच्छा शक्ति, योजना-रणनीति का चुस्त न होना आदि। देर आए दूरुस्त आए पर आए तो। मई में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप जनता के बीच है। इस प्रारूप में बड़ी ही संजीदगी और शिद्दत से भाषा-बहुभाषा और भाषायी शक्तियों को कैसे स्कूली कक्षाओं तक पहुंच बनाई जाए आदि मसलों पर विमर्श की गई है। दूसरे और तीसरे अध्याय को प्रमुखता से रेखांकित कर सकते हैं। इनमें अध्यायों में ख़ासकर बाल्यावस्था पूर्व देखभाल और शिक्षा पर नीतिपरक बदलावों और स्थापनाओं को रखा गया है। अंग्रेजी में अर्ली चाईल्डवुड केयर एंड एजूकेशन के नाम से जानते हैं। इसे पूर्व में आरटीई एक्ट में शामिल नहीं किया है। इसकी वजह से लाखों बच्चे आयु वर्ग 3 से 6 वर्ष के बच्चे स्कूली शिक्षा और देखभाल के अधिकार से बाहर हैं। इस प्रारूप में प्रस्तावित है कि ईसीसीई को आरटीई एक्ट में संशोधित कर जोड़ा जाए।
बाल्यावस्था में जब बच्चा अपने परिवेश से गहरे जुड़ता है इसमें स्कूल एक प्रमुख अंग है, वहां मातृभाषा/स्थानीय भाषा को जिम्मदारी और जवाबदेही के साथ स्वीकारने की वकालत की गई है। बच्चों को ग्रेड एक बलिक इससे पूर्व से ही मातृभाषा/स्थानीय भाषा में शिक्षा दी जाए पर ख़ासा जोर है। पांचवीं तक आते आते बच्चे में संख्या और वर्ण/ध्वनियों आदि की पहचान हो जाए साथ ही इन भाषाओं में बच्चे बोलने, पढ़ने और स्वयं को अभिव्यक्त करने में दक्ष हो सकें,इसके लिए प्रमुखतः नीति में कई सारी गतिविधियों और रास्ते बताए गए हैं। जब नीति में भाषा-मातृभाषा-स्थानीय भाषा के बाबत सुझाव दिए गए हैं तब वहीं पर इसे बतात नहीं भूला गया है कि कैसे इसे अमल में लाया जाएगा। मसलन कक्षा एक दो में बच्चों को मातृभाषा में बोलने, सुनने और पढ़ने कर दक्षता को बहुतायत मात्रा में अवसर प्रदान किए जाएंगे ताकि बच्चे में बोलने की कला और बोल कर अपने ऑब्जर्वेशन को अभिव्यक्त कर सके इसकी दक्षता विकसित की जा सके। बच्चों को ख़ासकर जो चौथी व पांचवीं में हैं उन्हें लिखने के लिए अतिरिक्त एक घंटा दिया जाना चाहिए। वहीं छोटे बच्चों को भी अपनी मातृभाषा/स्थानीय भाषा में बोलने बतियाने का अवसर मिले। उनकी भाषा-बोली में लिखने वाले कवि, कथाकारों, कलाकारों से मिलने और संवाद करने का अवसर स्कूल प्रदान करेगा। स्कूल में साल भर गणित, भाषा मेला का आयोजन किया जाएगा। इस गतिविधि का मकसद स्पष्ट है कि बच्चां को अपनी भाषा व अन्य भाषा के साहित्यकारों से मिलने और संवाद करने का असवर मिल सके। इससे अपनी भाषा से जुड़ने और लगाव पैदा हो सके आदि उद्देश्य है।
भाषा के शिक्षकों के लिए यह नीति एक ऐसा अवसर प्रदान करने का दावा करती है जिसमें बताया गया है कि आने वाले दिनों, वर्षों में भाषायी शिक्षकों के लिए नौकरियां हजारों और लाखों में सृजित होंगी। उदाहरण के तौर यदि एक शिक्षक अपनी मातृभाषा के साथ एक दूसरी भारतीय भाषा सीखता है तो उसे अपने राज्य में तो नौकरी की संभावनाएं हैं ही साथ दूसरे राज्य में भी शिक्षक का अवसर द्वार खुलते हैं। इस प्रकार से भाषा शिक्षकों को तैयार करने, प्रशिक्षण प्रदान की जिम्मेदारी यह नीति उच्च शिक्षा संस्थानों में भाषा-संकायों के देती है। इन संस्थानों में भाषा-शिक्षकों का प्रशिक्षण होगा और प्रशिक्षण के बाद ये देश के विभिन्न स्कूलों में पदस्थापित हो किए जाएंगे। खा़सकर अध्याय 22 में भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन को ध्यान में रखा गया है जिसमें कहा गया है कि प्राकृत, पालि, संस्कृत आदि भाषाओं को संरक्षित करने और सुरक्षित करने के लिए विशेष संकायों की स्थापना की जाएगी। इतनी ही बल्कि भारतीय भाषाओं को रोजगारोन्मुख बनाने के लिए भी वकालत की गई है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...