Monday, April 30, 2018

नदी सी थी तुम-



याद है मुझे,
धीरे धीरे किनारों से टकराती,
बहती रही न जाने किन किन कंदराओं,उपत्यकाओं से गुज़रती रही,
बिन कुछ कहे।
धार में तेरे,
निमग्न होती रही पीढ़ी,
बहती रही हमारी उम्र से आगे,
निकल गई।
हम तुम्हें छोड़ बस गए नगर नगर,
शहर दर शहर,
ल्ेकिन तुम संग रही,
हमेशा ही रगों में दौड़ती रही।
त्ुम नदी थी तुम्हें समंदर में जाना ही था,
मिलना ही था सागर में,
तुम्हें ख़ुद को खोना नहीं था।

Friday, April 27, 2018

भूल गया, भूल कैसे जाते हैं हम



कौशलेंद्र प्रपन्न
हमें अकसर सुनने को मिलता है कि यार भूल गया बताना। कैसे भूल सकता है कोई? क्यों हम भूल जाते हैं? भूलने के बाद डांट खाते हैं। लेकिन जो नुकसान होना था वह हो गया। यदि आपको बजट बनाकर अपने बॉस को भेजना था जिसे आपका बॉस किसी और के सामने पेश करने वाला था, अब उसकी स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। वह डांट कर भी क्या कर लेगा। आनन फानन में उसे बजट व प्लांनिंग शीट प्रेजेंट करनी पड़ेगी। आपने तो सहजता से कह दिया शॅारी फाईल अटैव करना भूल गया। दरअसल आपने तो अपनी जिम्मदारी का प्रमाण दे दिया कि आपके अपने काम के प्रति कितने चौकन्न और जिम्मेदार हैं। आगे से आप पर विश्वास करने से पहले या काम देने से पहले कोई हज़ार बार सोचेगा। यानी आपने अपने लिए एक संभावना के दरवाजे बंद कर दिए। दूसरी बात हम भूलते तब हैं जब हमें उस काम या सूचना में कोई दिलचस्पी नहीं होती। हम उस काम में रूचि ही नहीं लेते। क्योंकि यदि हमारी रूचि होती। यदि हम अपनी जिम्मदारी व लावबदेही समझते तो भूलते ही नहीं। यह कोई मैनेजमेंंट का फंडा नहीं बल्कि आम जीवन की कहानी है। लेकिन जब सिस्टम में काम करते हैं तो सूचना, ख़बर आदि को तत्काल या सही समय परख् सही व्यक्ति तक पहुंचाना बेहद ज़रूरी होता है। इसलिए भूलें नहीं बल्कि जो बात, ख़बर जिसे देनी हैं उसे उसी समय पर, उसकी आवश्यकता के अनुरूप दे देनी चाहिए।
कोई ख़बर है तो उसे सही तरीके से बिना किसी पूर्वग्रह के पाठकों तक पहुंचाना सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है। पत्रकार अपने इस काम में बेहद चौकन्ना और जिम्मेदार होता है। मान लीजिए पत्रकार के पास कोई ख़बर आई, किसी प्रकार की सूचना उसे मिली जिससे बेहतर ख़बर बन सकती है वह उस ख़बर को अपने पास रख ले। या फिर तय समय सीमा में स्टोरी में तब्दील न कर देर से दे तो वह ख़बर मर जाएगी। वह ख़बर पुरानी हो जाएगी। अगले दिन हो सकता है उस ख़बर को फॉलोअप करना पड़े। लेकिन पत्रकार ने अपनी लापरवाही या गै़रजिम्मेदाराना रवैए से एक ख़बर की हत्या कर दी। उसी प्रकार हम सबके पास कहने और सुनाने को बहुत सी ख़बरें होती हैं। यदि हम उन्हें सही समय पर और सही तरीके से पाठक या श्रोता तक नहीं पहुंचाएं तो यह प्रकारांतर से ख़बर के साथ न्याय नहीं होगा।
यह तो बात पत्रकारिता की हुई। उसी प्रकार यदि किसी प्रोजेक्ट की बात करें तो कई सारी सूचनाएं, ख़बर, जानकारी ऐसी होती हैं जिसपर तत्काल कदम उठाने होते हैं वरना प्रोजेक्ट की डेड लाइन प्रभावित हो सकती है। ऐसे में प्रोजेक्ट मैनेजर अपने रिपोटिंग व्यक्ति पर काफी हद तक निर्भर रहता है। जैसे ही कोई ऐसी सूचना आई जिसे बिना देरी किए प्रोजेक्ट मैनेजर या प्रोग्राम मैनेजर को मालूम होनी चाहिए उसे उस खबर से अपडेट होना होगा। ऐसे में मानवीय भूलें या भूल भी काफी मायने रखती हैं। कई बार व्यक्ति अनुमान लगा लेता है कि उन्हें तो पता ही होगा। उन्हें कल बता दूंगा। कल नहीं तो मिल कर बता दूंगा आदि। उस व्यक्ति को उस सूचना की गंभीरता नहीं मालूम कि उस ख़बर से प्रोजेक्ट पर ख़राब असर पड़ सकता है। इसलिए कई बार प्रोजेक्ट मैनेजर को आने तई फॉलोअप करना होता है। बार बार पूछना होता है उस प्रोजेक्ट का क्या हुआ? कल की प्लानिंग के अनुसार सार चीजों की तैयारी हो गई या कोई अड़चने आ रही है? आदि। कायदे यह काम रिपोटिंग व्यक्ति की है। क्यों प्रोजेक्ट मैनेजर को फॉलोअप करना पड़ रहा है। यदि व्यक्ति अपडेट लगातार देता रहे तो फॉलोअप करने की आवश्यकता ही नहीं होगी।
मैनेजमेंट में या कहे लें कॉम्यूनिकेशन के क्षेत्र में ख़बर, सूचना को लेकर कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं जाती हैं। संप्रेषण सही समय पर, समुचित व्यक्ति को, सही तरीके से दी जानी चाहिए। किसी कितनी सूचना की आवश्यकता है, कब ज़रूरत है, क्यों ज़रूरत है? क्या वह सूचना उसी के लिए है या किसी और को भी दी जात सकती है आदि को ध्यान रखना होता है। क्योंकि कई बार हम अपनी जिम्मदारी से बचते हुए सही व्यक्ति को ख़बर करने की बजाए किसी और को सूचित कर अपनी जिम्मेदारी बच जाते हैं। जबकि हर ख़बर, सूचना का एक अधिकारी होता है। उसे किसी भी सूरत में वह ख़बर मिलनी ही चाहिए।
एक्टिव कम्यूनिकेशन, प्रो एक्टिव कम्यूनिकेशन, जिसे सक्रिय, निष्क्रिय, तत्पर, आदि के नाम से पुकार सकते हैं। यानी कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो ख़बर व सूचना को तत्परता और तत्काल सही व्यक्ति तक सूचना पहुंचा देता है। वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं जो थोड़ी सुस्ती बरतते हुए ख़बर पहुंचाया करते हैं। वहीं ऐसे भी लोग होते हैं जिन्हें ख़बर को दबाकर बैठने में आनंद आता है। कई बार ऐसे भी व्यक्ति मिलेंगे जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी लापरवाही ख़मियाज़ा कई बार पूरी कंपनी, मीडिया हाउस को भुगतना पड़े।
आम जीवन में ही देखें। हमारे पास रोज़दिन विभिन्न सेशल मीडिया के ज़रिए हज़ारों की संख्या में सूचनाएं, जानकारियां हमारे हाथख् आंखों में ठूंसा जाता है। उन खबरों, सूचनाओं के साथ हमारा क्या बरताव होता है? हम किस तरह से पेश आते हैं ख़ासकर फोन पर मिलने सूचनाओं के साथ? कुछ ख़बरें, नज़रअंदाज़ की जाती हैं, कुछ से बेहद परेशान हो चुके होते हैं, कुछ को तो ओपन भी नहीं करते। वहीं कुछ ऐसी ख़बरें होती हैं जिन्हें पढ़कर आपको एहसास होता है कि अच्छा! तो यह हो रहा है आदि। इस प्लेटफाम पर दो किस्म के लोग मिलेंगे। पहला, आपकी सूचनाओं, संदेशों का आनंद तो लेते हैं किन्तु कभी अपनी राय, इच्छा अनिच्छा, पसंदी नापसंदगी आदि से वाकिफ नहीं कराते। उनके लिए सूचना का आना न आना कोई मायने नहीं रखता। इसे ही निष्क्रिय संदेश प्राप्त कर्ता कह सकते हैं। जो पढ़ तो लेते हैं लेकिन कोई राय नहीं देते। अपनी पंसदगी से परिचित नहीं कराते। ऐसे में व्यक्ति एक समय के बाद संदेश भेजना बंद कर देता है। यहीं से शुरू होती है कम्यूनिकेशन गैप, संवाद हीनता।

Thursday, April 26, 2018

इतिहास की यात्रा में सावधानियां


कौशलेंद्र प्रपन्न
इतिहास केवल समाज, देश,काल का ही नहीं होता बल्कि इंसानों का भी होता है। हम अपने इतिहास से कितना भी दूर भाग लें या फिर भागने की कोशिश करें इतिहास हमारा पीछा किया करता है। इतिहास भी तो एक कहानी सी ही है। इसमें तारीख़ें होती हैं। तारीख़ के साथ कुछ घटनाएं होती हैं। उन घटनाओं में कोई पात्र भी तो होता है। हमें उस पात्र से मुहब्बत हो जाती है ज बवह पात्र हंसता है तो हंसते हैं। जब वह रोता है तो देखने वाला रोता है। इंसानों के साथ भी ऐसे पात्र हमेशा ही चला करते हैं। कई बार कुछ पात्र इतने वाचाल हो जाते हैं कि हमारे लिए ही मुश्किलें पैदा हो जाती हैं।
हमारे साथ यही तो एक ख़ास बात है कि हमें इतिहास और अतीत बेहद प्यारा होता है। जब देखो तब हम अपने अतीत को लेकर बैठ जाते हैं। आज की चुनौतियों को कल के औजार से ठीक करने की कोशिश करते हैं। जबकि ऐसा संभव नहीं है। अतीत की घटनाएं, भूलें आज के संदर्भ में एकदम नए आयाम में आती हैं। उनसे उलझने व बाहर आने के औजार भी नए होने चाहिए। लेकिन अफ्सोस कि हम पुराने औजारां से आज की चुनौतियों का समाधान करना चाहते हैं।
इतिहास ख़ासकर इंसानों के साथ हमेशा ही दो तरीके से साथ रहा है। पहला जिसमें हम गौरवान्वित महसूस करते हैं। उसी अतीतीय संवेदना में जीना चाहते हैं। उसे बाहर निकालना ही नहीं चाहते। इसी का परिणाम होता है कि हमारे जीवन के मुहावरे, घटनाएं, कहानियां भी एक ही होने लगती हैं। सुनने वाला कहता है कि फलां कहानी तो आपने तब सुनाई थी। अगर कोई और कहानी हो तो सुनाओ। पक चुके हैं आपकी एक ही कहानी सुन सुन कर। यह अकसर बच्चे अपने मां-बाप या दादा दादी को बोल दिया करते हैं। क्योंकि उनके पास कहने का नया कुछ बचा नहीं होता। अपने ही अतीत को बार बार कुरेद कर आनंद लिया करते हैं।
जब तब कहानी में रोचकता और नयापन न हो तब तक कोई भी सुनने वाला आपमें दिलचस्पी नहीं लेगा। इतिहास भी कुछ कुछ ऐसा ही है। यदि इतिहास का आज की तारीख़ में बता रहे हैं तो पुरानी घटनाओं को आज किस रूप में हमें देखने और सीखने की आवश्यकता है इसपर सोचना होगा। लेकिन हम ऐसा ही नहीं करते। जब हम युवा थे। कॉलेज में पढ़ा करते थे तब कह कहानियां हम अपने बच्चों को साझा किया करते हैं। अपने संघर्षों की कहानी से हमें तो रागात्मक संबंध हो सकता है कि लेकिन सुनने वाले को वही दिलचस्पी हो ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते।
इतिहास दरसअल हमें तत्कालीन चुनौतियों,समाजो-सांस्कृतिक हलचलों, परिवर्तनों के बारे में न केवल जानकारी मुहैया कराया करती है। बल्कि हमें आज कैसे वैसी घटनाओं व परिस्थितियों से सामना करना चाहिए इसकी समझ प्रदान करता है। इतिहास व अतीत गमन कोई बुरा नहीं है बल्कि हम कैसे इतिहास में जाकर वहां से सकुशल लौटते हैं यह कुशलता हमें सीखने की ज़रूरत है। इतिहास व अतीतीय यात्रा जितना आसान माना जाता है वह उतना ही कठिन काम भी है। क्योंकि अतीती यात्रा के साथ एक दिक्कत यह है कि हमें अतीत बेहद रोचक लगने लगता है और हम वहीं रहना चाहते हैं। जबकि कायदे से देखा जाए तो जिस प्रकार एक यात्रा अपनी यात्रा से लौट आने के लिए करता है। यदि राहगीर या यात्री रास्ते में या फिर यात्रा में अटक जाएगा तो वह आगे की यात्राएं नहीं कर पाएगा। इतिहास में भी यही होता है हम चले तो आसानी से जाते हैं लेकिन वापसी के लिए चौकन्ने रहना पड़ता है। हमें हमेशा यह याद रखना होता है कि यात्रा के बाद हमें वर्तमान में लौटना भी है। आज की तारीख़ी हक़ीकत को नज़रअंदाज़ करना इतिहास हमें नहीं सीखाता बल्कि इतिहास वह रोशनी प्रदान करता है जिससे हम आज और आने वाले समय का बेहतर बना सकते हैं।

अपने दायरे और सीमा की पहचान



कौशलेंद्र प्रपन्न
हमें हमारे दायरे की पहचान नहीं होती। हमें यह भी नहीं मालूम होता कि हमारी सीमाएं क्या हैं? हमारी क्षमताएं क्या हैं आदि। हम क्या कर सकते हैं और किस हद तक कर सकते हैं इसकी समझ हो तो हमें अपने जीवन में अपने लिए योजना बनाने, सपने देखने में  आसानी होती है। लेकिन अफ्सोसनाक बात यही है कि अधिकांश लोगों का अपनी सीमाओं, क्षमताओं, ताकत एवं दायरे के बारे जानकारी नहीं होती। यह अलग बात है कि क्षमताएं और दायरे बढ़ाई भी जा सकती हैं। लेकिन उसके लिए हमें अतिरिक्त समय, क्षमता, प्रयास और इच्छा शक्ति को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। अपनी क्षमता, सीमा और दायरे की चौहद्दी को चौड़ी भी की जा सकती है बशर्ते की हम अपनी कार्यशैली और कार्य दक्षता को समय समय पर मांजा करें और सीखने के लिए तैयार रहें।
हमें कई बार जीवन में अपने दायरे से बाहर भी निकलना होता है। बल्कि निकल कर औरों की ज़िंदगी, कार्य, कार्यशैली को देखने, समझने की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि कोई भी पूर्ण नहीं होता। हमें इसी जीवन में इसी समाज में सीखने का अवसर मिला हुआ है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम नई सोच, नए योजनाओं, परिवर्तनों को कितनी उदारता के साथ स्वीकार कर रहे हैं और अपने दायरे से बाहर निकल कर समझने के लिए ख़ुद को तैयार कर रहे हैं।
पिछले दिनों अपने दफ्तर में कार्यरत फाइनांस और एडमिन दे रहे व्यक्ति से बातचीत का मौका मिला। बल्कि दूसरे शब्दों में कहें तो मैंने पहल की कि ज़रा दूसरों के काम को भी समझा जाए। क्योंकि अपने काम के दायरे से बाहर निकल कर दूसरों के कार्य क्षेत्र के बार में अपनी समझ बनाई जाए। वह व्यक्ति भगत हो सकता है, मदन हो सकता है या फिर नाम तो बदलते ही रहेंगे जो चीज नहीं बदलेगी वह है काम और काम की प्रकृति। सो बातचीत में कई सारी बारीकियों सा साबका पड़ा। मालूम चला व्यक्ति बेशक व्यवस्थित तौर पर प्रबंधन का कोर्स न किया हो लेकिन काम करने के दौरान कई सारी दक्षताएं स्वतः ही काम करने की शैली में शुमार हो जाती हैं। जिसे सिद्धांत के तौर पर बाद में पढ़ सकते हैं। हमें में से कई सारे लोग हैं जो निश्चित ही प्रबंधन के कोर्स से नहीं गुजरे होते हैं। लेकिन जिस शिद्दत और दक्षता से काम करते हैं उससे लगता है काश! इनके साथ कुछ देर बैठ कर बात ही कर लें। एक घरेलू महिलाएं व व्यक्ति जिस प्रकार से माह के खर्चों, ख़रीद फरोख़्त आदि की प्लानिंग करता है ताकि ज़रूरत की चीजों भी न घटें और बीच बीच में आने वाली अनप्लान्ड प्रोग्राम भी मैनेज हो जाएं ऐसी प्लानिंग एक एडमिन और फाइनांस के व्यक्ति को करना होता है।
उन्होंने वह शीट भी दिखाई जो वो पूरे साल की बजटीय प्रावधान कर रखा था। साथ ही किस प्रकार से अनप्लान्ड बजट व खर्चे को मैनेज करना है किन मदों में आबंटित करना आदि की प्लानिंग देखकर लगा यह व्यक्ति कितने कामों के बीच रहा करता है लेकिन कभी शिकायत नहीं करता। कभी ऊबा नहीं करता। दरअसल हम अपने काम में तभी उलझे रहते हैं, तभी शिकायत करते हैं जब हम अपने काम को रोज़ाना और हप्ते, माह और साल में समुचित और योजनाबद्ध तरीके से व्यवस्थित नहीं करते। यदि हम अपने काम को सही प्लानिंग करें और बीच बीच में उसका मूल्यांकन भी करते रहें कि कितनी दूरी तय हो गई। कितना और चलना है? बची हुई दूरी को कैसे कम समय में व तय समय सीमा में पूरा करना आदि की पड़ताल करते हुए चलेंगे तो कभी भी काम को बोझ हम पर सवार नहीं हो सकता। दिक्कत यहीं आती है कि जब एक कामगर व छात्र अपने लिए दिन, सप्ताह, माह और साल की योजना बनाता है तब वह रास्ते में आने वाली अड़चनों, रिस्कों का अनुमान नहीं कर पाता। अनुमान कर भी लेता है तो उसके प्रति लापरवाह हो जाता है।
यदि हमें अपनी सीमाओं और दायरे का अनुमान हो और अपनी क्षमताओं का एहसास हो तो हम उसी के अनुसार अपने लिए मिशन और विज़न तय करेंगे। लेकिन हम अपने आप में इतने स्पष्ट नहीं होते कि अपनी क्षमताओं और दायरे की पहचान में समय लगाएं। बस दूसरे क्या कह रहे हैं? उनके सपने व दायरे क्या हैं? आदि को जानने और आलोचना करने में वक़्त ज़ाया किया करते हैं। कितना बेहतर हो कि हमें हमारे दायरे और सीमाओं का एहसास हो और उसके अनुसार हम अपने और कंपनी के लिए कार्ययेजना बनाएं तो कभी भी जीवन और कार्य में विफल नहीं हो सकते।


Wednesday, April 18, 2018

अभिमन्यू हो गया उदास



कौशलेंद्र प्रपन्न
आप सब की यादाश्त बहुत तेज है। अभिमन्यू की पूरी जन्मकुंडली जानते हैं। कब पैदा हुआ। किसका बेटा था। क्यांकर मारा गया आदि आदि। वह कोई और अभिमन्यू था। जो गर्भ में ही ज्ञान और समझ पा चुका था। आपको तो यह भी याद होगा कि उसे चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता नहीं मिल सका तो उसके पीछे क्या वजह थी। शायद यही वज़ह है कि अभिमन्यू की मृत्यू होती है। बल्कि आज के शब्दों में कहें तो हत्या की गई।
आपको क्या लगता है वह सिर्फ और सिर्फ एक ही अभिमन्यू रहा जिसकी हत्या की गई? ज़रा विचार कीजिए। यदि आपके पास सोशल मीडिया से वक़्त मिल जाए तो। यदि समय हो तो विचार कीजिएगा। हमारा अभिमन्यू आज भी जूझ रहा है। कई सारे कौरवों की फौज उसे रेजदिन घेर कर मार रही हैं। वह निहत्था असहाय मरने को मजबूर है।
कश्मीर में क्या हुआ? बिहार में क्या हुआ? उत्तर प्रदेश में ही देख लीजिए सिर्फ भूगोल अलग हैं। जगहें अलग हैं। वारदात तो एक है। मारा तो अभिमन्यू ही गया। वह लड़की थी। जो ख़ुद को कौरवों से बचा न सकी। बचना तो वह भी चाहती थी। उसे भी अपनी जिं़दगी प्यारी थी। वह भी हौवानों से बचकर अपने घर पाप के पास जाना तो चाही होगी। मां की याद तो उसे भी आई होगी। अभिमन्यू की मां की तरह उसकी मां सोई नहीं होगी बल्कि इंतज़ार कर रही होगी कि उसकी बुधिया वापस आएंगी।
वह बुधिया लौट कर नहीं आई। वह आज की अभिमन्यू बन गई। बनना उसकी चाहत या चुनाव नहीं था बल्कि मजबूरी थी। न चाहते हुए भी उसे शिकार होना ही था। लेकिन कौरवों को कोई भी रोक न सका। आप ही देखें कश्मीर की घटना से पहले दिल्ली दहल गई थी। उस घटना की थरथराहट वैश्विक स्तर पर महसूस की गई। लेकिन अभी भी कौरवां की सेना यूं ही अभिमन्यू को शिकार बना रहे हैं। कभी चाकलेट के प्रलोभन पर कभी घूमाने के नाम पर किन्तु गुमराह तो हमारी बेटियां ही हो रही हैं।
हमने बच्चों की सुरक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा प्रदान करने की घोषणा वैश्विक स्तर पर 1989 में यूएन में की थी। लेकिन आज भी हमारे बच्चे न तो सुरक्षित हैं और न ही स्वस्थ्य। हां हमने इन तीस सालों और कुछ किया हो या नहीं लेकिन विकास ज़रूर किया। फ्लाईओवर से शहर को पार कर दिया। पूरे शहर को सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया। जब शहर सोशल मीडिया पर लाइक और शेयर करेगा तो भावनाएं भी भी शेयर होंगी। भावनाओं का क्या है यह तो समय और व्यक्ति के अनुसार बदला करती हैं। हमारी नज़र में तो अस्सी साला महिला और आठ साला बच्ची दोनां ही बस हवस, सेक्स और यूज की वस्तु भर हैं।
काश! हम सोशल मीडिया पर भावनाओं को उडेलने की बजाए हक़ीकत में कुछ सोच और कर पाते। हालांकि आप कहेंगे मैं क्या कर रहा हूं। मैं भी तो उसी मंच का प्रयोग का कर रहा हूं। लेकिन दोनों में एक बुनियादी अंतर है। वह यह कि यहां लाइक और कमेंट की उम्मीद नहीं है। बल्कि आपसे महज इतनी सी गुजारिश है कि यदि आज भी हम ठान लें कि कम से कम मैं अपनी आंखों के सामने किसी भी अभिमन्यू की हत्या नहीं होने दूंगा। कोशिश करूंगा कि अपनी नागरीय जिम्मदारी निभाउंगा। तो काफी हद तक हम अपने अभिमन्यू को बचा सकें। वरना अभिमन्यू उदास सा सोचता रहेगा कि काश मैं बाहर ही नहीं आता। 

Monday, April 16, 2018

कॉपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व और शिक्षा



कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की मदद के लिए नागर समाज आगे आ चुका है। इनमें सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं। क्योंकि सरकार शिक्षा में बेहतर स्थिति पैदा करने के लिए तत्पर है। लेकिन अफ्सोस कि सरकारी तंत्र एक सीमा के बाद असहाय हो जाती है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि सरकार ही है जिसने 1990, 2000 में विभिन्न वैश्विक मंचों पर स्वीकार कर चुकी हैं कि हम प्राथमिक शिक्षा में विश्व बैंक और नागर समाज की मदद चाहते हैं। इसी का परिणाम है कि आज हमारे देश में सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान आदि अन्य संस्थानां की मदद से सरकारी स्कूलों में अपना योगदान दे रहे हैं। किन्तु जमीनी हक़ीकत यह है कि ये तमाम योजनाएं स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता लाने में काफी नहीं हैं। यही कारण है सरकार को कॉपोरेट व कंपनी जो मुनाफा कमाती हैं। उनके लिए सामाजिक उत्तरदायित्व में काम करने के लिए कानून बना कर आमंत्रित किया गया। यही वज़हें हैं कि आज की तारीख़ में देश में विभिन्न कंपनियां कॉपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार आदि के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।
टेक महिन्द्रा फाउंडेशन पिछले तकरीबन दस सालों से देश के विभिन्न राज्यों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्र में काम कर रहा है। चेन्नई,मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली, भुवनेश्वर, कोलकोता आदि जगहों पर इन सर्विस टीचर एजूकेशन इंस्टीट्यूट चला रही है। दिल्ली में पूर्वी दिल्ली नगर निगम के साथ मिलकर इन सर्विस टीचर एजूकेशन इंस्टीट्यूट की स्थापना 2013 में की गई। इस संस्थान ने पिछले पांच वर्षों में तकरीबन 6888 शिक्षकों की विभिन्न विषयों में प्रशिक्षण दे चुकी है। साथ ही निगम के स्कूलां में कार्यरत प्रधानाचार्यां की भी ट्रेनिंग संस्थान कर में संपन्न हुआ है। इसी दिल्ली में स्मार्ट हेल्थ केयर एकेडमी भी टेक महिन्द्रा फाउंडेशन के द्वारा स्थापित किया जा चुका है। जहां से बच्चे अस्पतालां में सहायक, डेटा रिकार्ड, ऑपरेशन थिएटर सहायक आदि के कोर्स करने के बाद विभिन्न अस्पतालों में रोजगार पा चुके हैं।

दरअसल शिक्षा की बेहतरी के लिए देशभर में भरपूर काम हो रहे हैं। कमी यही रह जा रही है कि जो लोग व संस्थान प्राथमिक शिक्षा में शिक्षकों के साथ मिल कर काम कर रहे हैं उन्हें न तो कोई पहचान पाते हैं और न ही उनकी मेहनत को रेखांकित किया जाता है। टेक महिन्द्रा फाउंडेशन के साथ मिल पुणे में ग्राममंगल, हैदराबाद में साहित्या ट्रस्ट, टीस आर ध्वनि बंगलुरू में, नवनिर्मिति और सेव द चिल्ड्रेन इंडिया मुंबई आदि स्थानीय प्रशासन से मिल कर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों, बच्चों के साथ स्कूलां में काम कर रहे हैं।
वर्तमान सरकार लगातार कौशल विकास पर जोर दे रही है। वह कौशल विकास न केवल बच्चों और  युवाओं भर के लिए है। बल्कि टीचर की भी दक्षता विकास करना बेहतर ज़रूरी है। यही कारण है कि दिल्ली में मिशन बुनियाद, बच्चों में पढ़ने की दक्षता विकास, टीचर की प्रोफेशन डेवलप्मेंट को लेकर गंभीरता से काम हो रहा है। हो भी क्यों न तमाम रिपोर्ट, नेशनल एचिवमेंट रिपोर्ट, डाइस, जीईएमआर आदि बताती हैं कि हमारे बच्चे साधारण से वाक्य तक नहीं पढ़ पाते। गणित के सामान्य के जोड़ घटाव नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति में टीचर के साथ कंटेंट पर काम करने की बज़ाए कैसे पढ़ाएं पर काम करने की आवश्यकता है।

Saturday, April 14, 2018

उत्सव पैसे और मजा



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम सब अपनी जिं़दगी के एकरसता को तोड़ना चाहते हैं। सब के अपने अपने तरीके होते हैं। कोई दोस्तों के साथ टहल आता हैं। कोई फिल्म,नाटक देखकर मन को बहला लेता है। खेल तो ख़ैर धीरे धीरे कम ही होते जा रहे हैं। यदि कोई खेलते दिखाई दे जाए तो सुनना पड़ता है यार यह भी कोई उम्र है खेलने की। अब तो मैच्योर हो जाओ। और किसी और के कहने पर हम खेलना छोड़ देते हैं। हमारे जीवन से कुछ ख़ास चीजें बड़ी ही तेजी से ग़ायब हो रही हैं। खेल, मनोरंजन, मिलजोल की चाह आदि। हम जैसे जैसे नागर समाज का हिस्सा होते जा रहे हैं वैसे वैसे अकेला भी होते जा रहे हैं। हम अपनी शामें घर में टीवी के सामने गुजारते हैं। या फिर सप्ताहांत में किसी मॉल में टहलते, बिन ज़रूरतों की शॉपिंग करते गुजार देते हैं। शामें और सप्ताहांत हमारा लोगों, रिश्तेदारों से मिलने में नहीं अकेले गुज़रा करता है। पैसे की तो चिंता ही नहीं। हम बड़ी सहजता से एक बैठक में पांच सौ हज़ार या दो हज़ार खर्च कर देते हैं।
उत्सव हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है। बस माध्यम और स्वरूप अलग अलग रहे हैं। समय प्रमाण है कि हमें अपने जीवन की मनोभाविक, समाजोसांस्कृतिक एकरूपता को तोड़ने के लिए विभिन्न अवसरां पर विशेष आयोजन किया करते थे। यह एक बहाना था स्व और परिजनों से मिलने का। लेकिन जैसे जैसे हम नागर समाज का हिस्सा होते गए हैं वैसे वैसे मॉल या घूमने में आनंद तलाशा करते हैं। आपने भी अनुभव किया होगा कि आज हम दिखावे में ज़्यादा जीया करते हैं। जिन चहजों के बगैर भी काम चल सकता है लेकिन हम सामानों से घर भरना सीख चुके हैं। जैसे जैसे हमने घर भरा है वैसे वैसे हम अंदर से ख़ाली होते जा रहे हैं।
किसी के भी जीवन में बच्चे की किलकारी बहुत रोमांचक अनुभव से कम नहीं हेता। हर किसी को इस पल का इंतज़ार रहा करता है। और यदि ऐसे नहीं हुआ तो उनका जीवन एकरेखीय एकांगी सा हो जाता है। ऐसा कहते हैं। लड़कियों का सामाजिकरण ऐसा ही होता है कि यदि वे मातृत्व सुख से वंचित हैं तो उनका जीवन बेकार और ठूंठ है। जबकि इस अवधारणा से उबरने की आवश्यकता है। ज़रूरत तो इस बात की भी है कि हमें बच्चों के न होने की स्थिति में ग़मज़द होने की बजाए जीवन में उत्सव और आनंद के अन्य रास्तों के राही बनना चाहिए।

Tuesday, April 10, 2018

उनके आने से पहले...


कौशलेंद्र प्रपन्न
घर में कोई आने वाला हो तो मंज़र देखने लायक होता है। घर का कोना कोना साफ हो जाता है। घर के सभी लोग सफाई अभियान में लग जाते हैं। घर का कोना कोना वाह से आह!!! करने लगता है। बच्चे तो बच्चे बड़े भी साफ सफाई करते नज़र आते हैं। डाइनिंग टेबल पर लंबे समय से लेटे किताबें, दवाई की डिबिया, अख़बार सब के दिन बिहुर जाते हैं। सब अपनी अपनी जगहों पर शोभने लगते हैं।
कई तरह की ऐसी भी चीजें हाथ लग जाती हैं जो कई बार की ढूंढीया पसारने के बाद भी गुम थे। वो भी आंखें फाड़े नजर आने लगते हैंं। सफाई का एक लाभ तो यह होता ही है कि ऐसी फाइलें, किताबें, कागज पतर सब मिल जाया करते हैं। काश कि हर हप्ते कोई न कोई आए।
लेकिन कहां संभव है रोज़ और हर हप्ते किसी की ख़ातिरदारी करने की। ख़ातिरदारी से ज़्यादा सामानों की लिस्ट बनाने दस बार बाज़ार जाने के बाद भी कुछ सामान रह ही जाते हैं उनके लिए डांट खाओं और डांट से पेट भर जाए तो उसपर कॉफी के रूप में यह मिलता है कि कितना अच्छा लगा रहा है। तुम्हें तो ऐसे ही गंध कबाड़े में रहने की आदत सी हो गई है।
कभी तो कहा करते थे मुझे गंदे में रहा नहीं जाता और अब यह आलम है कि जब तक कोई घर में आने वाला न हो तो जो चीजे दस दिन पहले जहां थी वहीं पड़ी रहती है। कितनी बार कहा फला बैग कई दिनों से तुम्हारी राइटिंग टेबल के नीचे सुस्ता नहीं है उसे उपरी आलमारी में रख दो मगर सुनना कहां है। हां अख़बार पूछो, पत्रिका पूछो या पूछ लो किताब तो इनकी सारी जगहें पूरी शिद्दत से बता दोगो। बोलो याद है कि नहीं।
ठीक इसी तर्ज़ पर जब किसी संस्थान में या फिर आफिस में कोई अधिकारी आने वाले होते हैं तब भी घर जैसा ही अफरा तफरी मच जाया करती है। इसे सजाओ, इस बोर्ड को उेकोरेट करो, फला फाईल वहां होनी चाहिए। इस चेयर का एंगल चेंज करे आदि आदि। देखते ही देखते पूरा संस्थान चमक जाया करता है।
साहब के आने से पहले पूरे संस्थान पर सब एक टांग पर खड़े भाग रहे होते हैं। बॉस की सांसें भी टंगी रहती हैं। पता नहीं कौन सा कोना संस्थान की हक़ीकत बता दे। किस बात पर सुनना पड़ जाए। जैसे ही उनका जाना होता है सब की सांसें सामान्य चलने लगती हैं। यह तो दस्तूर है प्यारे किसी के आने से पहले और जाने बाद स्थितियां सामान्य ढर्रे पर आने लगती हैं।
कितना अच्छा हो कि किसी के आने पर ही हमारी प्रेजेटेबल स्थिति को क्यां ठीक की जाए। क्यां न इसे हम अपनी आदतों शामिल कर लें। फिर चाहे कोई भी आए चाहे मोहतरमा हों या फिर मोहतरम। चीजें अपनी जगहों पर ही फबा करती हैं। अब आप ही बताएं किताबें, अख़बार, चाय की प्याली यूंह र जगह पर पड़ी, बिखरी अच्छी लगती हैं भला? एक बार व्यवहार में शामिल हो जाए तो फिर संस्थान में कोई आए या घर में अफरा तफरी नहीं मचती।

Monday, April 9, 2018

जब आप नहीं होंगे दफ्तर में तो...



कौशलेंद्र प्रपन्न
कुछ भी नहीं होगा। होना क्या है? कुछ लोगों के लिए आपका न होना होने से ज़्यादा मायने नहीं होगा। कुछ के लिए शायद सुबह की सांसों जैसी होगी। संभव है कुछ के लिए कल शाम की फाईल और सिस्टम की तरह होंगे आप। जिसे कल सटडाउन कर दिया गया। रोज़ दिन की नई चुनौतियां और कामों के बीच शायद ही कोई याद करे। करे भी तो शायद अच्छे के लिए कम आपकी कमियां और कुछ ख़राब आदतों के लिए याद किए जाएंगे। अगर विश्वास नहीं तो कभी कुछ दिनों के लिए आफिस के दूर होकर तो देखिए।
वैसे भी किसी के होने या न होने से दफ्तर जैसे जगहों को कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आप न होंगे तो कोई काम रूक जाएगा। या कुछ प्रोजेक्ट थम जाना है। हां बस अंतर इतना ही पड़ेगा कि आपकी सीट पर कोई और हुआ करेगा। होते ही आपकी तमाम चीजों को पहले ख़ारिज करेगा। आपने डिसिजन को ग़लत बताकर अपनी बात और राय को स्थापित करना चाहेगा। यदि ऐसा नहीं करेगा तो उसे कौन पूछेगा। हर बात पर सुनना होगा कि फला जी ऐसे करते थे। ऐसे कहा करते थे। क्या काम किया करते थे आदि। सो सबसे पहले आपकी सीट पर आने वाले/वाली आपके कामों को ख़ारिज़ करने में लगेंगे।
सच पूछिए तो आपही तो नहीं होंगे। आपकी आदतें कहीं न कहीं किसी न किसी कोने में या फिर किसी की स्मृतियां का हिस्स हुआ करेंगी। आप होंगे लेकिन कुछ ऐसे वाकयों पर जब आपही छा जाया करते थे। तब आवाज़ किसी और की होगी तब आप याद किए जाएंगे। तब याद किए जाएंगे जब आपकी आवाज़ को कोई और रिप्लेस किया करेगा। फिर कोई कहानी नहीं सुनेगा। क्योंकि उसे कहानी नहीं बल्कि लोगों को क्या सुनाना है इस कला में दक्ष हैं।
फ़र्ज कीजिए आपको अपने होते तरह तरह के व्यंग्य सुनने को मिले और हर वक़्त टांग खींचाई की जाती हो। तो आप खुश भी हो सकते हैं कि कम से कम आपकी चर्चा तो होती है। आप हैं ही ऐसे जिसपर चर्चाएं हुआ करती हैं। चर्चाएं उन्हीं की तो हुआ करती हैं या तो वे अच्छी होती हैं या फिर...।
कुछ है हमारे आप-पास जो कभी नहीं बदला करता। न तो किसी की आदतें अचानक बदल जाती हैं और न किसी की आवज़ इतनी जल्दी बदल जाया करती है। कहते हैं कुछ आवाज़ें बहुत ख़ास हुआ करती हैं। उन आवाज़ को सुन कर ही आपकी पूरी स्मृतियां एक बार चक्कर काट लिया करती हैं। वहीं कौन कहां कैसे बैठा करता है। किस बात पर कैसे रिएक्ट किया करता है। आदि ही आपके जाने के बाद आपका पीछा किया करती हैं।
कोई न तो दफ्तर में ज़िंदगी के दस्तावेज़ लिखा कर आता है। और न सच की जिं़दगी में। यह तो सच ही है कि जो आज ज्वाइन किया है उसे या तो रिटायर होना होगा या फिर एक समय के बाद कुछ इतिहास को कंधे पर लटकाए कहीं और किसी दफ्तर में सेट हो जाना होता है।
वैसे एक बात कहना चाहता हूं। हम जहां भी रहें। जिनके साथ भी रहें। कुछ ऐसी चीजें ज़रूर छोड़ जाएं जिसमें आपकी उपस्थिति मौजूद हो। हालांकि वक़्त हर दर्द और टीस को भर दिया करता है। लेकिन फिर भी कुछ बातें और एहसास ऐसी रह जाती हैं जिन्हें आप कभी पीछे नहीं छोड़ पाते। वह हमेशा आपके साथ रहा करती हैं।

Friday, April 6, 2018

इमोशन को मैनेज करो साहब


कौशलेंद्र प्रपन्न
आज की तारीख़ी हक़ीकत है कि लोग अपने इमोशन को मैनेज नहीं कर पाते। आप भी तो नहीं कर पाते होंगे। और परिणाम यह होता है कि कोई न कोई मुंह फुला लेता है। वह चाहे घर के लोग हों या फिर ऑफिस या फिर यार दोस्त। रूठे हुए को मनाना भी मैनेजमेंट का एक हिस्सा है। लेकिन अफ्सोस कि इमोशन को हम मैनेज करने के लायक ही नहीं मानते।
मार्केट मैनेज होते हैं। वोट मैनेज होते हैं। लेग मैनेज होते हैं और प्रोजेक्ट भी। ख़ास बात यह है कि हम अपने इमोशन को कई बार समझ ही नहीं पाते कि हम क्या चाहते हैं। क्या चाहते हैं अपनी ज़िंदगी से और क्या अपेक्षा रखते हैं रिश्तों से। जब हम यह समझ लेंगे कि फलां की आपसे क्या उम्मीद है और आप उसे कैसे पूरा कर सकते हैं तब हमें औरों की अपेक्षाएं भी पूरी करने में दिक्कतें नहीं आएंगे।
दरअसल हम लोगों की अपेक्षाओं में खुद को ऑल्टर करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि सभी की नज़रों में अच्छा अच्छा बने रहें। जो संभव नहीं है। एक मैनेजर कभी भी सभी के लिए अच्छा नहीं हो पाता। यदि वह मैनेजमेंट की बेहतरी चाहता है। यदि कंपनी या प्रोजेक्ट की बेहतरी चाहता है और समय पर पूरा करना चाहता है तो उसे कई बार कठोर कदम उठाने ही पड़ते हैं। संभव है उसके निर्णय से कुछ लोगों के सपने बिखर जाएं। लेकिन वह बड़े लक्ष्य और सफलता की ओर दृष्टि रखता है। इसलिए कई बार प्रोजेक्ट को सफल करने के लिए कठोर और बने बनाने रास्ते से हट कर भी निर्णय लेता है। ठीक उसी तरह हमें अपने कई इमोशन पर कठोरता से निर्णय लेने की आवश्यकता पड़ती है। यदि हम अपने इमोशन की प्रकृति को समझ लें तो उसे मैनेज करना आसान हो जाता है।
फ़र्ज कीजिए आपको किसी से इमोशनली अटैच्मेंट हो गया है। व हो गया था। यदि अतीत में ही अटके रहेंगे तो आगे नहीं बढ़ सकते। दरअसल इमोशनल कंफ्लिक्ट यहीं शुरू होता है। आप चाहते हैं कि दोनों ही रिश्ते को खुश खुश रखें। मगर बीच में मूल्य, नैतिकता, धार्मिक आस्था आदि आ जाती हैं जो आपके मूल्य और रिश्तों को सुलझाने की बजाए और पेचिंदा कर देती हैं।
पहली बात तो यही कि आप रिश्ते से क्या चाहते हैं? क्या अपेक्षा है? और किस हद तक अपनी ज़िंदगी को सहज जीना चाहते हैं। यदि आपने रिश्तों की मांगों और उष्मा को संभालना सीख गए तो कभी भी जीवन में तनाव और द्वंद्व पैदा नहीं होगा। कहेंगे कहना कितना आसान है और जीना कितना मुश्किल। लेकिन कठिन नहीं है। इमोशन को मैनेज कर पाए तो लाइफ में आप या कि हम काफी सहज रह सकेंगे।

Thursday, April 5, 2018

मैनेजर का चुनावः सावधान रहें चौकन्ने रहें


कौशलेंद्र प्रपन्न
मैनेजमेंट में प्रोजेक्ट को चलाने के लिए कई प्रोजेक्ट मैनेजर की ज़रूरत पड़ती है। कोई भी प्रोजेक्ट हो चाहे वह सरकारी हो या फिर गैर सरकारी। प्रोजेक्ट मैनेजर के चुनाव में यदि प्रोग्राम मैनेजर चैकन्ना न हो या फिर यदि पूर्वग्रह में मैनेजर नियुक्त करता है तो उसका असर प्रोजेक्ट के पूरे होने, सफल और विफल होने में बड़ी भूमिका निभाता है। अपनी ही टीम में से यदि किसी को चुनना होता है तब कई सावधानियां रखनी पड़ती है। क्या जिसे हम नई भूमिका के लिए चुन रहे हैं वह कैपेबल है? क्या उसके अंदर क्षमता और दक्षता है? क्या उसकी कार्यशैली टीम को लीड करने, टीम को गाइड करने आदि की रणनीति बनाने और विज़न बनाने आदि बनाने की क्षमता है आदि।
हमारे प्रोजेक्ट इसलिए भी समय पर पूरे नहीं होते क्योंकि प्रोजेक्ट मैनेजर सही तरीके से रणनीति नहीं बना पाता। समय पर सही व्यक्ति को कम्युनिकेट नहीं कर पाता। प्रोजेक्ट के विज़न और मिशन को हर टीम तक संप्रेषित नहीं कर पाता। यदि टीम में गोल ही स्पष्ट नहीं है तो टीम आख़िर किस दिशा में बढ़गी। दिशा और लक्ष्य की अस्पष्टता की स्थिति में समय, पैसे, मैनपावर आदि लगते हैं।
हालांकि हर व्यक्ति अपनी दिनचर्या को मैनेज तो करता ही है। लेकिन प्रोजेक्ट को मैनेज करना थोड़ा अलग है। वह इस मायने में कि जब आप अपनी ज़िंदगी मैनेज करते हैं तो ज़्यादा लोग नहीं होते। वहीं प्रोजेक्ट में चार से अधिक भी व्यक्ति शामिल होते हैं। जब व्यक्ति हैं तो उनके साथ कुछ व्यवहार, कुछ संवेग, कुछ इमोशन भी साथ होती हैं। इमोशन को मैनेज करना भी एक कौशल है।
मैनेजर को अपनी और अपने अंदर काम करने वाले कर्मियों के इमोशन को भी बैलेंस करना होता है। काम का दबाव तो होता है। इससे किसी को भी गुरेज़ नहीं हो सकता। लेकिन काम के दबाव में आप किसी और के इमोशन और काम करने की टेम्पो को कुचल नहीं सकते। शायद यहां मैनेजर ग़लती कर बैठता और अपना आपा खो बैठता है। गुस्सा या खीझ किसी और की थी लेकिन वह अपने से नीचे व्यक्ति पर उतार देता है। ऐसे में वह टीम के अन्य सदस्यों के बीच अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान खो देता है। मैनेजर का रोल दूधारी तलवार पर चलने जैसा है। एक ओर अपने से उच्च अधिकारियों क निर्दशों, इगो, दबाव को सहता है वहीं अपने अंदर काम करने वाले व्यक्तियों की अपेक्षाओं और इगो को भी संतुलित करना पड़ता है।
यदि एक ग़लत मैनेजर का चुनाव करते हैं तो कुछ समय के लिए ही सही हमारा प्रोजेक्ट व प्रोग्राम पर उसका असर तो पड़ता ही है।
कुछ बेहतर मैनेजर की सूत्र-
सही समय पर, सही तरीके से, सही व्यक्ति तक संवाद का सक्रिय एवं सकारात्मक और निरंतर संप्रेषण नितांत ज़रूरी होता है।

Tuesday, April 3, 2018

आज नदी खुश थी...



कौशलेंद्र प्रपन्न
खुश थी नदी कि उसके साथ पूरा गांव है। गांव के लोग उसके लिए लड़ने के लिए आग आ रहे हैं। लेकिन नदी की खुशी ज़्यादा समय पर बरकरार न रह सकी। कुछ लोग थे जो गांव के बाहर के थे। जिन्होंने गांव के लोगों को सपने दिखाने लगे कि यदि नदी पर बांध बनेगा तो लोगों को रोजगार मिलेगा। गांव के बच्चे शहर और महानगर नहीं जाएंगे। और भी थे वायदे जिसपर गाव के लोग लुठित हो रहे थे। वही पास खड़ी एक बुढ़ा पेड़ ग़मज़दा था। उसे मालूम था नदी अब वही नहीं रहेगी। नहीं रहेगी उसकी धार। पहले भी इस गांव और पेड़ ने ऐसे मंज़र देखे हैं। जब गांव को कहीं और बसाया गया था। कुछ उजड़ गए तो कुछ कहीं और चले गए।
नदी का क्या था। उसके अपने तो गांव ही था। गांव के लोग थे। जंगल और पहाड़ों के बीच से बहना ही उसका जीवन था। मगर अब उस पर भी दूसरां की नज़र लग गई थी। आख़िर नदी अपने मन की बात किससे कहती। कोई सुनने वाला नहीं बचा था।
क्या शहर और क्या गांव वैश्विक स्तर पर नदी को मोड़ने और बांध बनाने की चर्चा गर्म थी। जो खिलाफ में थे वे मुट्ठी भर बच गए थे। उन्हें कहा जाने लगा यह तो विकास ही नहीं चाहता। इसे बिजली नहीं चाहिए। इसे रेजगार नहीं चाहिए। पानी के धार पर स्टीमर चलते नहीं देख सकता। जलता है।
ऐसे में राजतंत्र से लेकर लोकतंत्र के चारों खंभों में चर्चा चल रही थी। दूसरी ओर नदी की उदासी देखी नहीं जाती थी। दिन प्रतिदिन नदी सूखने सी लगी। देखते ही देखते नदी की धार गांव छोड़कर दूर होती चली गई। कभी वक़्त था कि बच्चे खूब मजे में नहाया करते थे। पर्वतीनें इसी नदी में नहा कर खरना करती थीं। सूर्य देवता के पर्व रखा करती थीं। वो भी नदी के साथ उदास तो थीं पर उनकी सुनने वाला कौन था।
ऐसे ही हमारी नदी हमारे बीच से गायब हो जाएंगी। हो भी रही हैं। मगर किस पर और क्यांकर अंतर पड़ेगा। सभी को विकास चाहिए। विकास के नाम पर नदी और जंगल, पहाड़ और पर्वतों की बली चढ़ाई जा रही है।
नदी आज खुश कम उदास ज़्यादा थी।

Monday, April 2, 2018

टीचर रिटायर नहीं होते



कौशलेंद्र प्रपन्न
टीचिंग और टीचर ऐसे प्रोफेशन से जुड़े कर्मी होते हैं जो कभी रिटायर नहीं होते। उनके लिए कभी भी 31 मार्च या किसी भी माह की अंतिम तारीख अवकाश के लिए मुकरर्र नहीं होती। यूं तो सरकारी दस्तावेज़ में उनके लिए अवकाश प्राप्ति के दिन तय होते हैं। और बतौर दस्तावेज़ वे स्कूल से सेवामुक्त हो जाते हैं लेकिन सचपूछें तो शिक्षक कभी भी कार्यमुक्त नहीं होता। शर्त इतनी सी है कि यदि वह शिक्षक अपने जीवन में महज नौकरी के तौर पर अध्यापन न किया हो। ऐसे शिक्षक बेशक संख्या में कम हों लेकिन जिन्होंने शिक्षण में आनंद लिया हो। बच्चों से संवाद किया हो। जिनके लिए शिक्षण महज़ पाठ्यपुस्तक, पाठ्यक्रम पूरा कराने भर तक महदूद नहीं रहा वे कभी भी शिक्षण से मुक्त न होते हैं और न ही हो पाते हैं। वे वास्तव में दिल से शिक्षक होते हैं। उनके लिए स्कूल घर सा होता है जहां वे समय से पहले आते हैं और समय के बाद ही घर जाया करते हैं। पूरी जिं़दगी ऐसे शिक्षक पूरी शिद्दत से बच्चों से संवाद करने में विश्वास करते हैं। शिक्षा के मूल दर्शन संवाद और प्रतिवाद से बच्चों में चिंतन दक्षता और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने में कभी भी चूक नहीं करते। बेशक श्ज्ञिखा व्यवस्था में ऐसे शिक्षकों को उतना मान-सम्मान न मिलता हो। लेकिन शिक्षा विभाग के बाहर बच्चों और अभिभावकों में उन्हें भरपूर सम्मान और मुहब्बत मिला करता है। शायद इन्हीं शक्तियां के बदौलत ऐसे शिक्षा पूरी ऊर्जा और ताकत के साथ शिक्षण किया करते हैं। ऐेसे शिक्षक न तो कभी मरा करते हैं और न ही स्वयं मरते हैं। इस प्रकार के शिक्षक शिक्षण को न केवल इन्ज्वाय किया करते हैं बल्कि बच्चों को किताबें पढ़ाने की बज़ाए जीवन के संघर्षां और वास्तविक समझ दिया करते हैं। बच्चों को जीवन में किस ओर और दिशा में बढ़ना चाहिए उस ओर भी राय दिखाया करते हैं। इस तरह के शिक्षक पढ़ाने की बज़ाए संवाद करने, कहने और सवाल करने की कला और माद्दा विकसित किया करते हैं।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...