Friday, April 11, 2008

गरीबी की बू

तुम्हारी फैमली से गरीबी की बू आती है
न तुम पिज्जा खाते हो
न ही तुम खाना खाने बाहर जाते हो
कहते हो ज़माने के साथ चलता हूँ
पर ख़ुद कहो क्या खाक ज़माने के संग हो
न गाड़ी है
न ही घर
तुम्हारी फैमली से गरीबी की बू आती है
पसीना बहते तो हो
पर क्या कर पाए अब तलक
कहो चुप हो गए
तुम्हारी फैमली से गरीबी की बू आती है

गरीबी की बू

तुम्हारी फैमली से गरीबी की बू आती है
न तुम बाहर खाते हो
न ही तुम को पिज्जा खाने आता है
कहते हो ज़माने के संग चलता हूँ
पर तुम ही कहो
क्या तुम बदल चुके
तुम्हारी फैमली से गरीबी की बू आती है
पसीना बहा कर
कहते हो कोशिश कर रहा हूँ
सफल हूँगा
पर क्या खाक
कोशिश करते हो
अब तक घर तो क्या
क्या है तुम्हारे पास
तुम्हारे घर से गरीबी के बू आती है

गरीबी की बू

तुम्हारी फैमली से गरीबी की बू आती है
कैसे रहते हो
न खाना खाने बाहर जाते हो
न घूमने कहीं छुट्टी में विदेश
कैसे जीते हो
तनिक कहो
तुम पिज्जा भी नहीं खाते
न ही बाहर खाते हो कैसे जीते हो
तुम्हारी फैमली से गरीबी की बू आती है
नई दौर की चलन से बेखबर क्या खाक
कर पावोगे
तुम्हारी फैमली से गरीबी की बू आती है
चलो माना के कर लोगे ख़ुद में तब्दाली
मगर बू कैसे ख़त्म होगी
पेर्फुम से नाक फुलाते हो
कैसे बदल लोगे ख़ुद को
तनिक कहो तो
गरीबी की बू आती है

Monday, April 7, 2008

कभी कभी

लगता है कभी कभी कि हम बिना लम्बी सोच के जब भी कोई राह चुनते हैं तब आगे चल कर ज़रा सा अफ्सोश होता है मगर ज़िंदगी की बाई पास सड़क पर यू टर्न नही होता बस आपको कुछ दूर तक चलना ही पड़ता है गोया अब रह पर निकल पड़े तो काटों को भी लेना ही होगा फूल बेशक न मिले

Friday, April 4, 2008

बचपन की यादे

लाल किले की लाल दीवारें
वक्त के साथ काली होती चली
इंसान को दया न आए पर मौसम को जरूर आ गई
बारिश, काले बादल, पक्षी, और काला मौसम तो खूबसूरत बना ही देता हे
मिटटी को महसूस करने के लिय लेते हो आंखें बंद कर

आया मौसम परीक्षा का

चलो करते हैं बातें हवा की
मौसम की और यूं तो आप कह सकते हैं
पल पल तो हम बातें ही करते हैं
फिर क्या नई बात है
हाँ है न
आप हैं मेरे तमाम बातें सुनकर चले जायंगे
दोस्तो में कहेंगे
यार कोई तो है जो बातें करता है
हवा से
दिवार से
और यूं तो
कहते हैं
दिवार से बात करने वाले को
पागल कहते हैं
मगर दिवार के भी कान होते हैं
तभी तो कहते हैं

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...