Thursday, September 28, 2017

शिक्षा की चिंता में घुलती घुरनी


कौशलेंद्र प्रपन्न
पूर्वी दिल्ली नगर निगम की शिक्षा समिति की अध्यक्ष सुश्री हिमांशी पांडे ने वाजिब सवाल उठाया है कि सरकार शिक्षा पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है फिर क्या वजह है कि बच्चों को पढ़ना भी नहीं आ रहा है। इन्होंने तमाम अधिकारियों की बैठक में यह चिंता साझा की। वहीं विश्व बैंक ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की  है। इसमें रिपोर्ट की मानें तो हमारा भारत उन बारह देशों में दूसरे स्थान पर है जहां बच्चे सामान्य वाक्य नहीं पढ़ पाते। सामान्य से जोड़ घटाव नहीं कर पाते।
विश्व बैंक की िंचंता भी गंभीर है कि करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद क्या कारण है कि बच्चों को शिक्षा की बुनियादी समझ और कौशल नहीं मिल पा रहे हैं।
यह चिंता आज की नहीं हैं बल्कि समय समय पर विभिन्न रिपोर्ट में भी दिखाई देती हैं। लेकिन एक हम हैं कि हमारी नींद नहीं खुलती। घुरनी तो इस बात को लेकर चिंतित है कि आने वाली पीढ़ी कैसी शिक्षा लेकर जीवन के मैदान में उतरने वाली है।
विश्व बैंक ने कहा है कि जहां दूसरी कक्षा के छात्र छोटे से पाठ का एक शब्द भी नहीं पढ़ पाते। यह एक रेखीए व्याख्या है। क्योंकि घुरनी का तजर्बा कहता है कि बच्चे स्कूलां में न केवल वाक्य पढ़ पाते हैं बल्कि उसके अर्थ तक की यात्रा करते हैं। घुरनी का अनुभव तो यह भी है कि बच्चों को शिद्दत से पढ़ाया जाए तो कोई वजह नहीं है कि वे पढ़ न पाएं।
विश्व बैंक ने कहा है कि बिना ज्ञान के शिक्षा देना ना केवल विकास के अवसर को बर्बाद करना है बल्कि दुनिया भर में बच्चों और युवा लोगों के साथ बड़ा अन्याय भी है। रिपोर्ट इस ओर भी हमारा ध्यान दिलाती है कि इन देशों में लाखों युवा छात्र बाद के जीवन में कम अवसर और कम वेतन की आशंका का सामना करते हैं। क्यांकि स्कूल उन्हें ज्ञानपरक शिक्षा देने में विफल है।

Tuesday, September 26, 2017

तकनीक का डर



कौशलेंद्र प्रपन्न
हां याद होगा आप को भी कि जब पहली बार आपके हाथ में कम्प्यूटर आया लगा होगा। छून से भी डर लगा करता था। न जाने वह डर कैसे और कहां से हममें समाया होगा। क्या पता कुछ ख़राब हो गया तो? कुछ ग़लत हो गया तो?
यह डर हम सभी में है। किसी में कम तो किसी में ज्यादा। डर का ही असर है कि एक दशक पहले जब विभिन्न विश्वविद्यालयों और स्कूलों में कम्प्यूटर दिए गए तो वो रैपर में ही बंधे मिले। धूल फांकते कम्प्यूटर आज भी स्कूलों में हैं। उन्हें कोई इसलिए नहीं छूता कि कहीं खराब हो गया तो?
उम्रदराज़ लोगों में इसका डर कुछ ज्यादा ही होता है। वे इसलिए कम्प्यूटर नहीं छूते कि कहीं कुछ ख़राब हो गया तो और आलम यह हुआ कि विभागों को मिले कम्प्यूटर चलाने के लिए एक अलग से पद सृजित किया गया।
डर महज कम्प्यूटर का ही नहीं होता बल्कि मोबाइल और अन्य डिवाइसेज के भी होते हैं। जबकि इलेक्टॉनिक सामानां की मूल प्रकृति ही सहज इस्तमाल होती है। यदि सामानों को चलाने में दिमाग लगाना पड़े या डर पैदा हो करे तो वह प्रोडक्ट यूजर फ्रैंडली नहीं माना जा सकता।
देखा तो यह भी गया है कि एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी स्वविवेक का प्रयोग कर बड़ी से बड़ी मशीनें चला लेता है। लेकिन एक अकादमिक व्यक्ति सहज और आसान मोबाइल को भी हैंडल करने से डरता है। इन दिनों पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अध्यापकों को आईसीटी की टेनिंगे दी जा रही है। है बहुत आसान लेकिन कुछ के लिए वह पहाड़ से ज़रा भी कम नहीं है। लेकिन क्योंकि सरकारी फरमान जारी हो चुके हैं कि सभी को आईसीटी प्रशिक्षण लेने हैं तो रिटायर होने वाले भी इनमें शामिल हैं।

Monday, September 25, 2017

पाठ्यपुस्तक और शिक्षक




कौशलेंद्र प्रपन्न
कृष्ण कुमार के शब्दों में कहें तो ‘‘पाठ्यपुस्तकें शिक्षकों की सत्ता और ताकत को कमजोर करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो पाठ्यपुस्तक शिक्षकों को गुलाम बनाते हैं।’’ ‘गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद’ पुस्तक में कृष्ण कुमार जी पाठ्यपुस्तक और शिक्षकीय सत्ता पर विमर्श करते हैं। शिक्षकों के लिए पाठ्यपुस्तक ख़ासा अहम औजार होता है। इससे शिक्षक डरते भी हैं और कक्षा में अंतिम विकल्प के तौर पर भी इस्तमाल करते हैं। शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाओं में पाया कि शिक्षकों को हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों को लेकर काफी शिकायतें हैं। मसलन यह किताब समझ में नहीं आती। इस किताब में बिना वर्णमाला के सीधे कविताओं से बच्चों का सामना होता है आदि। जबकि यदि शिक्षक किताब में दी गई शिक्षकां के लिए तीन चार पेज की भूमिका पढ़ लें तो शिकायतें दूर हो जाएंगी। बल्कि हुईं भी हैं।
पाठ्यपुस्तकों को अंतिम न माना जाए। यही आग्रह शिक्षकों को सृजनशील और गतिशील बनाए रख सकती है। पाठ्यपुस्तकों की जहां सीमा खत्म होती है वहां से शिक्षकों की भूमिका का आरम्भ माना जाता है। शिक्षक महज पाठ्यपुस्तकों का व्याख्याता, टॉस्सफर्मर नहीं होता और न ही शिक्षक पाठ्यपुस्तकों का लाउडस्पीकर होता है। बल्कि शिक्षक शब्द और वाक्यों के मध्य की रिक्तता में अर्थ पीरोता है। ताज्जुब तो तब होता है जब शिक्षकां को अपनी पाठ्यपुस्तकों की कविताएं, कहानी आदि भी याद नहीं होतीं। कार्यशालाओं में ऐसे भी शिक्षकों से रू ब रू होने का मौका मिला जिन्हें पाठ्यपुस्तकों में शिमल कविताएं और कहानियां तक याद नहीं रही हैं।
पाठ्यपुस्तकें शिक्षकों को पढ़ाने के लिए एक राह दिखाने का काम करती हैं। जरूरत इस बात की है कि हम पाठ्यपुस्तकों को एक औजार के तौर पर प्रयोग करें न कि उसे ही शिक्षा प्रदाता की भूमिका में स्थापित कर दें। जब हम स्वविवेक को पाठ्यपुस्तकों के हवाले कर देते हैं तब शिक्षा में गड़बड़ी शुरू होती है।

रेस्तरा में पिताजी





वो कोई हो भी हो सकता है। उम्र के साथ हमारे व्यहार भी प्रभावित होते हैं। वाकया ताज़ा है। हम यानी मां-पिताजी और साथिन साथ में रेस्तरां में खाना खा रहे थे।
पिताजी के कुर्ते का बाजू सांभर में डूब रहा था। बाजू चढ़ा दी गई। अब वो आराम में खाना खा रहे थे। लेकिन कभी मुंह पर कभी कुर्ते पर खाने की चीजें लग और टपक रही थीं। वो आराम से खाना खा रहे थे।
जब उन्हें वाशरूम में हाथ मुंह धुला रहा था तो पिताजी का चेहरा थोड़ा पेशो पश में नजर आया। पूछा ‘‘ क्या हुआ खाना पसंद नहीं आया क्या?’’
‘‘ रेस्तरां में खाने की आदत नहीं हैं।’’
‘‘खाना कुर्ते पर और मुंह के बाहर लग गया।’’
चेहरे पर संकोच साफ देख सका।
मैंने कहा क्या हुआ।
‘‘ उनके मुंह पर लग आए खाने को अपने रूमाल से साफ किया।’’
तब एक सहज बच्चे के मानिंद वो मुंह साफ करा रहे थे। कोई विरोध नहीं। कोई प्रतिवाद नहीं।
खाना गिरा और साफ भी हो गया।
किसी दिन हम भी तो आपकी उम्र में होंगे।
तब उनके चेहरे पर एक ऐसा भाव दिखा जिसे शायद मैं शब्दों में बयां कर सकूं।
हम सब के साथ वह उम्र भी आनी है। हम भी शायद लाख रेस्तरां में जाने के अनुभव से लबरेज़ हों लेकिन संभव है हमसे भी खाना मुंह और कपड़े पर गिर जाए। तब शायद हम भी ऐसे भाव से भर जाएं।

Thursday, September 21, 2017

घुरनी चली महासेल में


कौशलेंद्र प्रपन्न
कहती है घुरनी कि जब महासेल लगा ही चुका है। हर सामान लोकलुभावन सेल में सजे हैं तो देरी किस बात की। बाजार जा कर खरीदने का सुख तो उठाया ही जाए। घुरनी बाजार बाजार, माल्स माल्स घूम आई।
जहां देखो वहीं भीड़। चारों तरफ अफरा तफरी। उबासी लेते, आइस्क्रीम चाटते बच्चे, बड़े। घुरनी थोड़ी परेशान होती है। बेचैन भी।
बाहर बैठी घुरनी सोचने लगी। क्यों न वो सामान ले ली जाए जो अभी छूट में है। उस पर भी जहां भीड़ नहीं है।
घुरनी बहुत सोच विचार कर कफ़न खरीदने का मन बनाती है। अभी सेल में शायद उस पर भी छूट हो। छूट है तो दो चार लेकर रख लेने में क्या हर्ज है। बच्चे लें न लें। आज कुछ भी तो तय नहीं है। कहीं उनके आते आते दो तीन साल हो गए तो क्या तब तक मैं बिना कफ़न की रहूंगी। बिल्कुल नहीं। अपना इंतज़ाम आज कर लेने में कोई बुराई नहीं है।
दुकानदार भी हैरान। क्या करोगी अम्मा इतने कफ़न ले कर। यह कोई ओढ़ने बिछाने के काम ना आने के। के करोगी। सनक तो नहीं गई हो। पगला गई हो का?
हमरे माथा एक दमे ठीक है। हम पगलाए नहीं हैं। सोचे रहे कि मरना तो हैबे करी। का पता बचवन सब कफ़न ओढ़ाने तक पहुंचेंगे कि नहीं। खरीद कर रख लेने में का जात है। कफ़न साथ रहे तो कोई भी ओढ़ा तो सकता है।
हैरान दुकानदार, हैरान उसकी बेचुआ की माई उसे टुकुर टुकुर देखे जा रहे थे। लेकिन मजाल कि घुरनी को हंसी आ रही हो। लेकिन वो भी कैसा कठकरेजा थी कि मानी नहीं। आज तो कफ़न लेकर ही जाउंगी। सो दुकानदार ने कफ़न दे दी।
सोचने को तो वो यह भी सोच रही थी कि पीड़ दान का इंतज़ाम भी आज ही कर ले। कल को बचे या न बचे। वैसे अभी उसकी उम्र मरने की नहीं थी। मगर फिर भी वो सब इंतज़ाम कर जाना चाहती थी।
घुरनी ने शाम में ही मिसराइन जी से कहा था आज हमर खाना रउआ घर होई। मिसराइन जी ने हां हां काहे ना हीं।
... मिसराइन जी को दिल्ली आना था सो सामान बांध कर तैयार थीं। मुहल्ले में तीन दिन बाद शोर मचा कि घुरनी.... पीठ के बल लेटी है और एक पांव भी गायब है।
मिसराइन जी भारी मन से रेलगाड़ी में बैठ तो गईं। लेकिन एक मन था जो वहीं उसी घुरनी में अटका रहा।

Wednesday, September 20, 2017

आरम्भिक पठन विकास में बाल साहित्य की भूमिका : श्री पंकज चतुर्वेदी





शिक्षांतर व्याख्यान माला

कौशलेंद्र प्रपन्न
श्री पंकज जी ने कहा कि बाल साहित्य के जरिए हम बच्चों में न केवल भाषायी दक्षता का विकास कर सकते हैं बल्कि बच्चों में खत्म होती संवेदना को भी बचा सकते हैं।
किताबों की व्यापक भूमिका को रेखांकित करते हुए पंकज जी ने कहा कि किताबें दरअसल बच्चों में कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता को बढ़ावा देने वाली होती हैं।
विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध कथा कहानियों और लोक कथाओं में जिंदा रखने में कहानियां अहम भूमिका निभाती हैं।
एनबीटी से प्रकाशित बाल किताबों के जरिए श्री पंकज जी ने बच्चों में कैसे कहानी सुनाइ्र्र जाए और कहानी सुनने और पढ़ने के प्रति रूचि विकसित की जाए इसपर भी जोर दिया।

Tuesday, September 19, 2017

जब मैं मरूंगा


तब मैं मरूंगा,
मरूंगा ही,
बचपन में अमर पीठा खाया तो था,
खाए तो दादा भी थे,
मगर वो भी नहीं बचे।
बचे तो कलमुर्गी भी नहीं,
बचा तो प्रद्युम्न भी नहीं,
गौरी भी नहीं बची,
मरते अगर समय से,
तो अख़रती नहीं मौत।
जब मैं मरूंगा-
जो कि मरना ही है,
अमर पीठा भी बचा नहीं पाएगा,
तय है मरना तो,
सोचता हूं दिन कौन सा हो,
कौन सी तिथि रहेगी ठीक,
सोमवार मरा तो,
मंगल को मरा तो,
शनि को मरा तो लोगों को
रविवार मिलेगा,
सुस्ताने को।
रविवार तय रहा मेरा मरना,
आइएगा जरूर,
कुछ मंत्री संत्री भी होंगे,
कुछेक लेखक,
पत्रकार भी होंगे,
ऐसे सोचता हूं,
सोचने में क्या हर्ज़ है।
आएंगे नहीं,
यह भी मालूम है,
कोई बड़ा नाम नहीं रहा,
काम भी कोई ख़ास नहीं।
कम से कम मरने की तिथि,
दिन तो चुन लेने दो भगवन,
कौन मारेगा,
कैसे मारेगा,
मारेगा या कि
मर जाउंगा,
आपके ग्रूप से,
एक्जीट कर जाउंगा,
मेरे तमाम एकाउंट्स,
बिन अपडेट रहेंगे जब,
जान लेना
कि नहीं रहा कोई।
पर मन बना लिया है,
मरूंगा तो रविवार का दिन होगा।

Wednesday, September 13, 2017

7 पूंछ वाला चूहा



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानी है। कहानी है तो पात्र भी होंगे। पात्र हांगे तो संवाद भी होगा। संवाद हैं तो कहानी आगे भी बढ़ेगी। कहानी कुछ यूं है कि एक चूहा था। उसके 7 पूंछ थे। वह परेशान था कि उसे सभी चिढ़ाते कि सात पूंछ का चूहा 7 पूंछ का चूहा। इससे वह बेहद दुखी भी रहने लगा।
सोचा क्यों न इस फसाद की जड़ को ही खत्म कर दिया जाए। और पहुंच गया नाई के पास। बोला, ‘‘ नाई नाई मेरी एक पूंछ काट दो।’’
और नाई ने एक पूंछ काट दी।
अब चूहा तो सोच रहा था जिंदगी आसान हो गई। लेकिन उसकी परेशानी बनी रही। लोगों ने पूछना और बोलना नहीं छोड़ा। अब कहने लगे छह पूंछ का चूहा छह पूंछ का चूहा। फिर परेशान चूहा नाई के पास गया और अपनी एक और पूंछ कटा ली।
यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि उसने अपनी सारी पूंछें न कटा लीं। जब बिना पूंछ के चूहे को लोगों ने देखा फिर शुरू हो गए ‘‘ बिन पूंछ का चूहा’’
उस चूहे की सोचिए क्या स्थिति हुई होगी। जब सात पूंछें थीं तब भी लोगों ने उसे जीने नहीं दिया। और जब बिन पूंछ का होगा तब भी उसका जीना दुभर हो गया।
शायद हमारी भी स्थिति इससे ज्यादा बेहतर नहीं दिखाई देती। जब आप कुछ करते हैं तब सुनने को मिलता है कुछ नहीं करता। जब करते हैं तब सुनते हैं ऐसे करते हैं? करना भी नहीं आता। आदि।

Tuesday, September 12, 2017

याद न हो कोई कविता तो...



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों कुछ यही कोई बीस प्राथमिक शिक्षकों से बातचीत करने का अवसर मिला। अवसर था हिन्दी शिक्षण की कार्यशाला। इसमें बीस में से तकरीबन सतरह शिक्षक ऐसे थे जिन्हें कोई भी कविता याद नहीं थी।
सवाल था क्या आपको कोई कविता याद है? जो पाठ्यपुस्तक में हो या बाहर की कोई कविता याद हो तो सुनाएं। इस सवाल पर पहले तो वे भड़क गए। हमें कविता क्यां याद हों? किताब में तो है ही। हम किताब से देख कर कविता पढ़ाते हैं।
तज्जुब तो तब हुआ जब पाठ को पढ़ने के लिए दिया गया। उनके पठन को देखकर निराशा हुई। उन्हें ठीक से पढ़ना भी नहीं आ रहा था। ऐसे अटक अटक कर पढ़ रहे थे गोया वे चौथी व तीसरी के बच्चे हों। अनुमान लगा रहा था कि ये अपनी कक्षाओं में कैसे पढ़ाते होंगे। मगर आगे तो बात करनी थी।
पहले स्वयं कविता का वाचन और पठन कर के उन्हें सुनाया। सुन तो बड़े ही गौर से रहे थे। उनकी प्रतिक्रिया सुन कर अफ्सोस हुआ जब उन्होंने कहा ‘‘ समा बांध दी आपने।’
गोया कोई कवि सम्मेलन हो रहा हो। उन्हें क्यों पढ़ना चाहिए इस पर बातचीत अंतिम पखवाड़े में किया। यदि आप पेशे से शिक्षक हैं तो आपको कविता गाने, पढ़ने और वाचन करने की कला तो आनी ही चाहिए। क्योंकि पेशेगत पहचान की मांग है कि आपको कविताएं, कहानियां आती हों। अब उनमें इसकी टीस जगी। फिर उन्होंने स्वीकार किया हां हम लोग ऐसे नहीं पढ़ाते थे। पढ़ते तो थे लेकिन यहां जैसे बताया गया वैसे नहीं पढ़ाते थे।
यह एहसास होना ही काफी नहीं था। उनसे कबूल कराया कि अब जब वे कक्षा में वापस पढ़ाने लौटें तो कोशिश करें कुछ कविताएं पढ़कर जाएं। कहानी सुनाने से पहले उसकी तैयार कर के स्कूल में जाएं।

Monday, September 11, 2017

शिक्षा मित्र और सरकारी नीति




कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1989 के आस पास शिक्षा मित्र, पैरा टीचर शिक्षा सहायक आदि नामों से परिचित यह समुदाय बहुत तेजी से सरकार की आंखों में भा गए। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों में तब इन्हीं के कंधों पर प्राथमिक शिक्षा की जिम्मेदारी डाल दी गई। सरकार लंबी नींद में चली गई। सस्ते और टिकाउ कर्मचारी किसको नहीं पसंद है। सरकार के लिए शिक्षा मित्र तीन हजार से लेकर पांच दस हजार में उपलब्ध होने लगे। सरकार की नियति बदल गई। इन्हीं के मार्फत प्राथमिक शिक्षा की गाड़ी हांक दी गई। स्थाई शिक्षक एक एक रिटायर होते गए और शिक्षा मित्र धीरे धीरे मुख्य भूमिका में आते चले गए। लेकिन खुश होने वाली बात नहीं क्योंकि इन्हें वेतन के नाम पर कोई ख़ास अंतर नहीं आया।
शिक्षा मित्र जनसुलभ श्रमकर्मी मिल जाते हैं। सरकार ऐसे श्रमजीवी को स्कूलों में झोंक देती है। कम लागत में उपलब्ध श्रमजीवी को प्रशिक्षित करने के लिए सरकार समय समय पर निर्णय देती रही है। आरटीई के अनुसार पैरा टीचर को दो साल के भीतर प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है।
सरकार शिक्षा मित्र के आत्मबल को बनाए रखने के लिए समय समय पर उन्हें स्थाई करने की घोषणा की जाती रही हैं। लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। लाखों शिक्षा मित्र अभी भी सड़कों पर हैं। हजारों ऐसे शिक्षक हैं जिनकी उम्र अब सरकारी नौकरी के नियमानुसार खत्म हो चुकी है। अब उनके सामने रोजगार बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। इन शिक्षा मित्रों में से काफी ऐसे हैं जिन्होंने सीसैट, राज्य परीक्षा, नेट आदि पास हैं। अफ्सोस कि वे अभी भी अस्थाई शिक्षा मित्र के तौर पर खट रहे हैं। हमें ऐसी प्रतिभाओं का सही और सकारात्मक इस्तमाल करने की मुकम्मल योजना बनानी चाहिए।

Saturday, September 9, 2017


घुरनी!!! जीवन सस्ती, शिक्षा महंगी
कौशलेंद्र प्रपन्न
घुरनी अच्छा ही हुआ तुम किसी स्कूल में नहीं गई। स्कूल जाती तो मालूम नहीं जिंदा बचती या नहीं। कम से कम स्कूल नहीं गई तो जिंदा तो हो। वैसे क्या स्कूल और क्या घर? कहीं भी तो तुम सुरक्षित नहीं रही।
हमने तो सोचा था कि स्कूल में तुम महफूज होगी। वहां तुम्हें जिंदगी से रू ब रू कराया जाएगा। जीवन में आने वाली परेशानियों और चुनौतियों से लड़ने की ताकत दी जाएगी। लेकिन ग़लत था शायद। क्योंकि वह जगह भी विश्वास के घेरे से बाहर हो चुकी है।
जब स्कूल के कर्मचारी, शिक्षक आदि स्टॉफ के भरोसे हमारे बच्चों की जिंदगी सुरक्षित नहीं तो इससे अच्छी बात है हमारे बच्चे स्कूल न जाएं। क्या शिक्षा जीवन से बड़ी होती है? और अगर शिक्षा से जीवन से बड़ी है और महंगी भी तो बेहतर है जीवन बचाया जाए।
घुरनी तुम जिस दौर में जी रही हो वह समय कुछ ज्यादा ही क्रूर हो चुका है। तुम्हारी बहनें और भाई अस्पताल में ही दम तोड़ गए। उस पर तुर्रा यह है कि अगस्त में ऐसा होता है। जब हमारी शिक्षा और नागर समाज तुम्हारी रखवाली ही नहीं कर सकती तो ऐसे में क्या स्कूल और क्या शिक्षा।
ल्ेकिन घुरनी चिंता तो तब होती है जब किसी दिन तुम कहती हो कि स्कूल जाने का मन नहीं है। नहीं जाना स्कूल। तब मन धकधक करने लगता है। घुरनी जब भी तुम्हें स्कूल से डर लगे। कुछ महसूस हो तो बेफ्रिक हो बताना।

 

Thursday, September 7, 2017

तुम याद आते हो

सिर के उपर कोई हवाई जहाज गुजरता है
तो तुम याद आते हो,
जब कभी मुंह में खुजली होती है
तब तुम याद आते हो।
जहां कहीं भी जन सैलाब दिखाई देता है
तब हाथ फैलाए,
तुम याद आते हो,
तुम्हारी याद खूब सताती है,
जब कभी देखता हूं किसी को माईक पकड़े
कह रहा होता है....।
न जानें क्यों तुम्हारी याद आती है,
जब कभी कोई आईजीआई की ओर भाग रहा होता है,
तुम्हारी तो याद तब भी आती है,
जब चुडीदार पाजामा,
रंगबिरंगी कुर्ता पहन पग बांधे
मुसकी मार रही होता है।
कभी कभी सोचकर हैरान होता
कि तुम रात में सोते भी हो या नहीं,
कहीं रात बिरात उठ कर,
माईक तो नहीं पकड़ने लगते हो।

Friday, September 1, 2017

शिक्षक दिवस पर विमर्श




कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षक दिवस का हप्ता आ चुका है। सोचता हूं कि इस पूरे हप्ते शिक्षक के विभिन्न आयामों को लेकर बातचीत हो। इसी संदर्भ में आज प्रस्तुत है-
कक्षा में शिक्षक के तेवर बरताव
जब एक शिक्षक कक्षा में होते हैं तब उन पर कई तरह के दबाव और असर काम करते हैं। इन्हीं दबावों के मार्फत शिक्षक का व्यवहार निर्धारित होता है। यूं ही कोई शिक्षक गुस्सा नहीं करता। न ही तमाचे जड़ना चाहता है। कोई तो वजह रही होगी और हाथ उठ गए होंगे।
एक सैनिक पर दबाव बढ़ता है तब वह या तो आत्महत्या करता है या फिर अपने ऑफिसर को गोली मारता है। लेकिन शिक्षक के कंधे पर नैतिकता और मूल्य संवाहक की भार इतना ज्यादा होता है कि वह न तो गोली मार सकता है और न आत्महत्या।
एक शिक्षक को जब लगातार चार पांच माह बिना सैलरी काम करना पड़ता है तो उनकी मनोदशा को समझने की आवश्यकता है। यह समझने की बात है कि उसे किस प्रकार कक्षा में पढ़ाना है। सवाल का जवाब हमें ही देना होगा कि एक शिक्षक को जब बैंक, आधार, सर्वे आदि के काम के साथ पढ़ने की ललक को कैसे बचा कर रखा जाए।
देश के जिस भी राज्य पर हाथ रखें हम पाएंगे कि वहां हजारों शिक्षकों के पद वर्षों से खाली हैं। कॉटेक्ट पर काम कर रहे शिक्षक हर दिन अनिश्चितता में काम करते हैं।
एक शिक्षक को कक्षा में बाल मनोविज्ञान, समाज विज्ञान, खुद की मनोदशा, आर्थिकी दबाव आदि को सहना पड़ता है। जो भी कक्षा में आता है वह शिक्षक को नसीहतें ही दे कर जाता है। तमाम शैक्षिक खामियों का कसूरवार गोया शिक्षक नामक प्राणि ही है। हमें तोहमत मढ़ने से पहले शिक्षक के कार्य स्थल और कार्य की पेचिंदगियों को भी समझना होगा

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...