Thursday, May 19, 2016

बिन पेंदी के चलेंगे



कौशलेंद्र प्रपन्न
उनका कहना था हमारे पास एक लोटा हुआ करता था। वे भी बिन पेंदी के। जहां भी रखो वही ढुलमुलाकर गिर जाया करता था। उसके कई सारे फायदे थे। उन्होंने एक एक कर बिन पेंदी के लोटे के गुण गिनाए। ठहरिए इतनी जल्दी भी क्या है। बताते हैं। और फिर उन्होंने गला खखारकर साफ करते हुए कहा- पहला तो यही कि पेंदी होने पर आप स्थिर हो जाते हैं। पेंदी की कीमत भी चुकानी पड़ती है। इसलिए बिना पेंदी के लोटे को कही भी रख छोड़ो वह अपनी तरह से जगह बना लेता है। दूसरा, बिन पेंदी के लोटे के माफिक रहने पर कोई आपपर आरेप नहीं लगा सकता कि एक ही जगह पड़े रहते हो। इसमें पूरी सुविधा होती है कि आप जब चाहें, जहां चाहे स्थान परिवर्तन कर सकते हैं। तीसरा लाभ, पेंदी होने पर आप पर शक भी किया जाता है लेकिन बिन पेंदी के होने में जाता कुछ भी नहीं है मिलने को पूरी दुनिया तैयार रहती है। उन्होंने आगे और भी मौजूं लाभ बताए।
मेरे एक बाबा हुआ करते थे जिन्हें पूरे गांव जेवार में बिन पेंदी के लोटा कहा जाता था। स्टेशन पर उतरे नहीं कि उनका नाम ले लें बच्चा बच्चा उन्हें जानते थे अच्छा तो आपको बिन पेंदी वाले बाबा के घर जाना है और बच्चे घर तक छोड़ आते थे। मुहल्ले में भी उनकी चर्चा जारों पर रहती। उन्हें हर चुनाव,सभा,नेता, मंत्री सब बिन पेंदी के नाम से जानते थे। यही तो उनकी खासियतें थीं जिन्हें उन्होंने पूरी जिंदगी शिद्दत से जीया। जितना भी जीया पूरे ठसके साथ जीया। इसके लिए उन्हें कोई मलाल किस्म के भाव ने परेशान नहीं किया। किसी ने उनसे उनके उम्र साठवें पायदान पर पूछा,‘ आपको सभी बिन पेंदी के कहा करते हैं आपको कैसा लगता है?’ इस सवाल पर वो दार्शनिक मूड में जवाब दिया आज मेरे पास जो कुछ भी है वो इसी बिन पेंदी का दिया हुआ है। मैंने अपनी नौकरी और जीवन में यही पाया है कि पेंदी के रह कर ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। इसलिए मैंने तय किया कि अब मैं पूरी जिंदगी बिन पेंदी के रहूंगा। उसके बाद एक वो दिन थे और एक आज का दिन है मैंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।’
बाबा जी किसी सरकारी नौकरी में होते थे। कहते हैं कि उनका बॉस उनसे बेहद खुश रहा करता। उसकी हर बात में नाड़ डोलाना उसे बेहद पसंद था। किसी की बुराई हो या प्रशंसा बाबाजी मूड देख कर वाक्यों के निर्माण में बेहद कुशल थे। कहते तो यह भी हैं कि उन्होंने बोलने के कौशल में महारत हासिल कर रखी थी। दादाजी बताती हैं कि बाबाजी बोलने की ही खाते थे। शादी भी उनके बोलने की कला पर ही संभव हो सकी। उन्हें पता चल चुका था कि पेंदी के होकर चलना मुश्किल है। इसलिए एक दिन शाम को जबवो घर लौटे तो बड़े उदास थे। दादाजी ने पूछा क्या हुआ? आज मन भर का चेहरा बना कर क्यों बैठे हो? तब बाबाजी का जवाब दादी जी को चौका दिया। आज तक मैं पेंदी को होकर ठोकर ही खाता रहा। आज से मैं आकाश, जमीन,गंगा, हिमालय,अपने पुरखों और दसों दिशाओं को साक्षी मान कर एलान करता हूं कि आज के बाद मैं ताउम्र बिन पेंदी के चलूंगा। इस राह में जो भी जैसी भी दिक्कतें आएंगे मैं उसका सामना डट कर करूंगा। किसी भी पेंदी वाले से वास्ता नहीं रखूंगा।
पेंदी और बिन पेंदी में उन्होंने एक बड़ी स्पष्ट विभाजन रेखा खींच रखी थी। उस रेखा को आज तक किसी ने भी पार नहीं किया। यही उनकी उपलब्धि थी कि पूरी जिंदगी उन्होंने अपने उस वचन की लाज रखी। उस वचन के लिए उन्हें कई सारे तमगे, शॉल, प्रशस्ति पत्र आदि मिले। मरने से पहले उन्होंने अपने बच्चों,मुहल्ले के लोगों को बुलावा भेजा कहा ‘‘ मुझे लगता है मेरे दिन पूरे हो गए। मैंने जो कुछ जिंदगी में किया,पाया उसे आप सभी को सौंप कर चैन की नींद सो लूं। बेटे तो नालायक निकले। मेरी बात नहीं मानते।’’
प्रोफेसर, टीचर, पलंबर वाला, मास्टर सलून वाले सब जुट गए। अब उन्होंने अपने मन की बात की कि ‘‘ जीवन में ख्ुश रहना है तो बिन पेंदी के रहो। अपनी की कोई पहचान, अस्मिता के चक्कर में जीवन बरबाद मत करो। जीवन दर्शन तो यही कहता है कि जितना जीयो ख्ुल कर जीयो। क्या पेंदी और क्या बिन पेंदी। बेलने वालों को बहाना चाहिए। वो बोलेंगे ही कि यही भी कोई जीना है मर्दे। जीना है तो बाबाजी की तरह जीयो। मुंह पर बेशक न बोलें लेकिन आपलोग मेरे पीछे यही बोलोगे मुझे मालूम है। लेकिन मैं अपना फर्ज समझता हूं कि जिंदगी के फल्सफे आप सभी को सौंप कर जा सकूं।’’
सभी ध्यान सुन और गुन रहे थे। लेकिन कथा सुनाने वाले बाबाजी कहीं और अपनी बिन पेंदी के लोटा को लेकर जा चुके थे। सब की आंखें नम थीं। लेकिन दादीजी ने सब को थावस बंधाया और कहा यदि कोई रोएगा तो मेरे बिन पेंदी की आत्मा को कष्ट होगा। इसलिए यदि किसी को रोना है तो अपने भाग्य और पेंदी वाले लोटे पर रोए। मैंने उन्हें बहुत खुश देखा है पूरी जिंदगी।
आज ग्यारहवां दिन हैं। चारों ओर बिन पेंदी के लोटे ही लोटे लुढक रहे हैं। आंगन, बैठकखाना, दुआर सभी जगह लोटे ही लोटे थे। इस गांव के सभी निवासियों ने बाबाजी के वचन और सत्य के साथ प्रयोग को स्वीकार कर लिया था। कहते हैं उस गांव के क्या बुढे क्या जवान और क्या बच्चे सब की जिंदगी बदल चुकी थी। किसी के पास अपनी कोई पहचान नहीं थी। सभी अपनी अपनी जिंदगी में बाबाजी को जी रहे थे। कहते हैं उस गांव के निवासी जहां भी गए ख्ुश और प्रसन्न थे। क्योंकि उन्होंने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता, मान्यताओं, मूल्यों और पूर्वग्रह को बाय बाय टाटा टाटा कर दिया था।
बाबाजी की छोटी सी जिंदगी का एक वाकया यह भी है जो शायद आपने देखा न हो। मेरा तो फर्ज है कि उसे भी आपके सामने रखूं। उन्होंने कभी भी किसी पार्टी, विचार, धारा के लेकर कट्टर नहीं हुए। उन्होंने उसे ही अपनी विचारधारा बना ली जिसकी मांग थी। अपनी पहचान को लेकर कभी किसी से लड़े भी नहीं। जो पहचान कुर्सी चाहती थी वैसा ही ताना बाना,पहनावा भी अपनाया। उनकी सफलता इसी बात में छूपी थी कि कुर्सी ने जैसा चाहा, जैसी मांग की उन्होंने बड़ी ही शिद्दत से पूरा किया। बल्कि कहना चाहिए उन्होंने अपने बिन पेंदी के सिद्धांत को पहन ओढ़ रखा था। उन्हें चाहने वाले, मानने वालों की यूं तो बड़ी लंबी लाइन नहीं थी लेकिन जो थे उन्हें अपना ही मानते थे। यही वजह रहा कि जब वे गए पीछे खड़े होने वालों की एक कतार थी।  


Wednesday, May 18, 2016

कलमकारों का दम तोड़ना


कौशलेंद्र प्रपन्न
लेखकीय समीक्षा और आलोचना को सहने की क्षमता जिस भी व्यक्ति,समाज,सत्ता में नहीं होती उसी समाज में लेखकीय हत्या होती है। लेखकीय हत्या दरअसल हमारी अहिष्णुता की ओर ही इशारा करती है। कहां तो निंदक नियरे रखने की बात एक कवि कहता है वहीं एक यह समाज है जिसमें हम अपनी आलोचना,समीक्षा नहीं सह पाते और लेखक की हत्या तक करने से गुरेज नहीं करते। लेखक से यहां मतलब उन तमाम लोगों से है जिनके हाथ में कलम है। जिनका रोजगार ही कलम है। वे चाहे पत्रकार,लेखक,कवि,कथाकार कोई भी हों हैं तो कलमकार ही।
पिछले दिनों बिहार में पत्रकार को गोली मार दी गई। वहीं उत्तर प्रदेश भी इसमें कोई पीछे नहीं है। जरा पीछे झांक कर देखें तो ज्यादा दिन नहीं हुए जब वहां पत्रकार को सरेआम आग लगा कर मार दिया गया। देश के तमाम राज्यों में विभिन्न तरह से पत्रकारों और लेखकों को या तो मौत के घाट उतार दिया जाता है या फिर उनकी कलम की ताकत को ऐसे कमजोर किया जाता है कि दुबारा वे उठ नहीं पाते। दूसरे शब्दों में कहें तो कलमकारों को शाम,दाम,दंड़ और भेद के जरिए तोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है। देश के विभिन्न कोनों से आने वाली ख़बरों पर नजर डालें तो पाएंगे कि जिन कलमों ने विरोध के स्वर मुखर किए उनकी कलम की ताकत को कमजोर करने प्रयास किया गया। या तो कलमें चारण करने लगती हैं या फिर कलम की धार को कुंद कर दिया जाता है।
हमारे इसी समाज में ऐसे भी कलमकार हुए हैं जिन्होंने कलम को सत्ता तक पहुंचने का एक माध्यम भी बनाया। उनके लिए कलम की प्रतिबद्धता के मायने कुछ और थे। कई पत्रकारों की लेखनी एक ख़ास मकसद को लेकर चलीं। उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता को प्रमुखता से निभाया जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें सत्ता, लोक सभा, राज्य सभा में बैठाया गया। इस बात से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि पत्रकार की लेखनी पत्रकारिता के लिए होती है न कि किसी खास खेमे के विचारधारा, दल को लाभ पहुंचाने के लिए। जिन लोगों ने भी पत्रकार की राह छोड़ी उन्हें पत्रकारिता में वो स्थान नहीं मिला जो प्रतिबद्ध पत्रकार को मिलना चाहिए या मिला करता है। यहां विमर्श का मुद्दा यह भी हो सकता है कि क्या पत्रकार समाज का हिस्सा नहीं है? क्या पत्रकार के घर-परिवार नहीं होते? यदि होते हैं तो उसे भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां को निभाना होता है। एक आम पत्रकार की सैलरी जितनी होती है उसमें दो जून की रोटी ही खाई जा सकती है। बच्चों को बड़े निजी स्कूलों में पढ़ाने का खर्च वह नहीं उठा सकता। आज भी हकीकत है कि एक अखबार में काम करने वाला पत्रकार उतनी ही सैलरी पाता है जिसमें वह अपनी जिंदगी बस बसर कर पाए। ऐसे में उसके कदम भटकते हैं तो इसमें ज्यादा परेशान न हुआ जाए। लेकिन एक प्रोफेशन की मांग के अनुसार संभव है उचित न माना जाए। मंजिठीया आयोग की सिफारिशें आज भी अमलीजामा पहनने के लिए मुंह जोह रही हैं। विभिन्न मीडिया घरानों ने जिस चतुराई के साथ आयोग की सिफारिशों के धार को कुंद किया उन घरानों में पत्रकार जिन हालात में काम कर रहे हैं यह एक नागर समाज के लिए चिंता की बात होनी चाहिए।
खासकर पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें पत्रकार शोषण के खिलाफ आवाज तो उठाता है, स्टोरी भी करता है लेकिन स्वयं की हालत शोषित की होती है। वह अपनी आवाज कहां और किसके सामने उठाए यह उसके लिए बड़ी चुनौती होती है। यदि पत्रकार ने मैनेजमेंट की बात नहीं मानी या फिर सैलरी, अधिकार आदि की बात की तो तुरंत बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। उसी घराने में अन्य कामों के लिए अराफात पैसे खर्च किए जाते हैं लेकिन मंदी की आड़ में हजारों हजार पत्रकारों को रातों रात बाहर कर दिया जाता है। इसकी खबर भी कहीं कोई नहीं लेता। खबर बनाने वाले की खुद की खबर नहीं लगती।
लेखक,पत्रकार,कवि,चित्रकार,व्यंग्यकार, कथाकार आदि अपनी लेखनी से समाज को एक दिन में न सही किन्तु समाज को कहीं गहरे प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। उनकी लेखनी में ताकत और क्षमता होती है कि क्रांति ला सकें। यूं तो समाज में यह एक दिन, एक साल में बेशक संभव नहीं है लेकिन इनकी लेखनी के प्रतिरोध के स्वर बड़े मुखर होते हैं। कवियों की भाषा और कंटेंट इसी समाज में कई बार रातों रात एक आंदोलन को भी जन्म देन की क्षमता रखते हैं। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसकी लेखनी कितनी शिद्दत से अपनी कलम की ताकत का इस्तमाल करता है। कलमुर्गी, गोंड्वी जैसे कवि,लेखक ने अपनी कलम की ताकत को पहचाना और उसका प्रयोग भी किया। 16 मई 2014 के बाद की कविताओं का एक सिलसिला चला जिसके काफिले में हजारों हजार श्रोता और लेखक जुड़े। आज भी प्रतिरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं। याद हो कि बाबा नागार्जुन ने भी ‘इंदू जी इंदू जी क्या हुआ आप’ को जैसी कविताएं सत्ता के खिलाफ न केवल लिखीं बल्कि उसका वाचन और मंचन भी किया। वहीं सफ्दरी हाशमी जैसे कलाकार ने भी प्रतिरोध के स्वर को दबाने की बजाए मुखर किया।
जब समाज में आलोचना,प्रतिरोध,समीक्षा आदि को सहने की क्षमता पतली हो जाती है तब चारण काल की सुगबुगाहट मानी जा सकती है। माना जाता है कि यदि हमारे पास सही और पात्र समालोचक हों तो हमारे जीवन और कार्य में काफी निखार आता है। इसलिए लोक सभा हो या फिर अन्य कोई भी सभा वहां विपक्ष मजबूत होने की मांग की गई है कि ताकि सत्ता प़क्ष निरंकुश न हो जाए। विपक्ष व समालोचन का काम ही होता है सामने वाले के काम पर कड़ी नजर रखना। जब समीक्षक व आलोचक बिना किसी निजी पूर्वग्रह के आलोचन कर्म करता है तब उसके स्वर में याचना नहीं होती बल्कि वह पूरी ताकत के साथ अपनी बात रखता है। अफसोस की बात है कि आज आलोचक/समीक्षक,समालोचक की धारा पतली होकर पनीली हो चुकी है। कहां कहां किसे पुरस्कार मिलना व मिलाना ह्रै यह समीकरण जब वाचाल हो जाता है तब तय है कि लेखनी मिमियाने लगेगी।
लेखक का ही एक वर्ग ऐसा है जो मुखर विरोध के स्वर को दबाकर अपनी चारणीय स्वयं को सत्ता तक पहुंचाना चाहता है। अपने इस कर्म में काफी हद तक सफल भी हो जाता है। लेकिन लेखकीय बिरादगी में उसकी साख गिरनी शुरू हो जाती है। वह लेखक, पत्रकार फिर लेखनी के बल पर नहीं बल्कि अन्य जुगाड़ों के जिंदा रहा करता है। उसकी लेखनी की मौत हो चुकी होती है। वह जो भी लिखता है उसे वह तवज्जो व प्राथमिकता नहीं दी जाती क्योंकि वह फिर खास खेमे का होकर रह जाता है। हमारे इसी समाज में इस किस्म के कई लेखक,पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी रीढ़ को इतना नरम किया कि अब उनमें ताकत ही जाती रही।


Tuesday, May 17, 2016

तृतीयपंथी यानी किन्नरों की शिक्षा


कौशलेद्र प्रपन्न
मध्य प्रदेश में चल रहे महाकुंभ में नागा,साधुओं के महास्नान और मठों के तर्ज पर किन्नरों के मठ का भी निर्माण हुआ। इस किन्नर समाज के मठ के मुखिया के तौर पर श्री लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को चुना गया है। गौरतलब हो कि लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने पूर्व में यूएन के जेनरल एसेम्बली में तृतीय लिंगी समाज की व्यथा कथा के लिए वकालत कर चुकी हैं। यह एक ऐतिहासिक कदम ही माना जाएगा। क्योंकि अभी तक विभिन्न मठों के मुखिया ही महास्नान किया करते थे। लेकिन इस बार तृतीयपंथी की भी सहभागिता हुई। इससे एक संदेश मुख्यधारा के समाज और नागर समाज को जाता है कि अब तक हाशिए पर जीवन बसर करने वाले तृतीयपंथी भी इसी समजा के हिस्सा हैं और इस लिहाज से समाज के तमाम स्वीकृत कर्मां में उनकी भी सहभागिता तय की जानी चाहिए। प्रकारांतर से तृतीयपंथी समाज को शिक्षा,विकास,स्वास्थ्य आदि स्तरों पर मुख्यधारा में जुड़ने की आवश्यकता है। वास्तव में शिक्षा भी सामाजिक को ताकत और क्षमता प्रदान करती है इससे किसी को भी गुरेज नहीं होना चाहिए। यदि तृतीयपंथी समाज को भी शिक्षा का औजार मिल जाए तो उन्हें और उनके समाज को रोशनी में नहाने से कोई नहीं रोक सकता। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि अब के शैक्षिक दस्तावेजों और नीतियों में उनके लिए कोई खास कदम नहीं उठाए गए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कभी न उठाए जाएं। इस आलेख में प्रमुखता से तृतीयपंथी समाज को कैसे और किन स्तरों पर शिक्षा की मुख्यधारा से विलगा कर रखा गया उस पर तो विमर्श किया ही जाएगा साथ ही समाजो सांस्कृतिक स्तर भी कैसे इन्हें छिनगाया गया है उस ओर भी झांकना और वहां से एक मार्गदर्शिका लेकर वर्तमान को दुरुस्त करना मकसद है।
तृतीयपंथी,उभयलिंगी,हिजड़ा,यूनक,किन्नर,खोजवा,मौगा,छक्का, पावैया, खुस्रा, जनखा, शिरूरनान गाई, अनरावनी आदि नामों से समाज में प्रचलित इस वर्ग को हमने भय,डर, उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा है। हिजड़ा शब्द उर्दू के हिजर से बना है। वह भी अरबी ये आया हुआ इसका अर्थ ही होता है समाज से बेदख़ल किया गया। समाज से बहार निकाला हुआ। यह अलग बात है कि वे हमारे इसी समाज के मुख्यधारा के सहयात्री हैं। बस फर्क उनके लिंगानुसार व्यवहार और भावनाओं में अंतर का है। प्रकृति से ही उन्हें समाज ने एक अलग हिस्से के तौर पर जाना पहचाना है। यह अगल बात है कि उनकी चर्चा महाभारत,रामायण, कामसूत्र आदि में होती है। लेकिन कितनी अफसोसनाक बात है कि हमारी शिक्षा और शैक्षिक नीतियों में इनके लिए कोई प्रावधान नहीं है। यूं तो न्यायपालिका ने समय समय पर हस्तक्षेप किए हैं। तमिलनाडू राज्य में केर्ट ने इन्हें राशन कार्ड,वोटर कार्ड में नामाकन के आदेश 1998 में दिए थे जिसका परिणाम यह हुआ कि इस राज्य में हिजड़ों की स्थिति काननन तौर पर अन्य राज्यों से बेहतर है। वहीं दिल्ली उच्च न्यायालय ने अप्रैल 2014 में आदेश दिया था कि सरकारी फार्म में स्त्री पुरुष के साथ ही तृतीय लिंग व अन्य नाम से कॉलम बनाएं। इन्हें शिक्षा,रोजगार आदि में स्थान दिए जाएं। याद हो कि यह वही वर्ष है जब मध्य प्रदेश में शबनम मौसी ने चुनाव जीता था। आगे चल कर कमला जान और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में भी हिजडे ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी, लेकिन क्योंकि जिस सीट पर जीत हुई थी वह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होने कही वजह से हिजड़ों को वह सीट छोड़नी पड़ी। आज की तारीख में लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में से पत्रकारिता, न्यायपालिका आदि में तो काफी सक्रियता से इनकी आवाज को स्थान दी जा रही हैं। लेकिन कार्यपालिका में अभी संतोषजनक प्रयास नहीं हुए हैं। हालांकि महाराष्ट, बिहार, मध्य प्रदेश, तमिलनाडू आदि राज्यों में इन्हें वोट देने से लेकर इनकी पहचान सुनिश्चित करने के कई कदम उठाए गए हैं।
आज यह तृतीयपंथी यानी किन्नरों की शिक्षा को लेकर देश की तमाम समितियां, सिफारिशें, नीतियां मौन हैं। यदि आजादी के बाद के आयोगों, समितियों और राष्टीय शिक्षा नीति पर नजर डालें तो इन दस्तावेजों और सिफारिशों में किन्नरों व ऐसे बच्चों की शिक्षा के विशेष प्रावधान,परामर्श एवं मार्गदर्शन की कोई बात नहीं की गई है। संभव है आयोगों और नीति के स्तर पर मान लिया गया हो कि उनकी नजर में तृतीयपंथी बच्चे कोई अलग व विशेष नहीं हैं। इन्हें भी सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा हासिल करने का पूर्ण अधिकार है। यह एक मूल्यपरक जवाब तो हो सकते हैं। लेंकिन हकीकत है कि यदि ख़ास रूचि और लिंगीय बरताव वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ स्कूलों में पढ़ना कितना मुश्किल होता है। बच्चे चिढ़ाते हैं। उनके साथ सामान्य व्यवहार नहीं करते। समाज उन्हें छेड़ता है। समाज में वे खुल कर नहीं खेल पाते। मां-बाप ऐसे विशेष बच्चों के साथ खेलने से रोकते हैं। और यह अलगाव के बरताव उनकी सामाजिक पहचान और अस्मिता को आकार देने लगती हैं। अंतरराष्टीय स्तर पर संपन्न संयुक्त राष्ट बाल अधिकार सम्मेलन 1989 में दर्ज बाल अधिकारों में इन्हें कोई स्थान नहीं दिया गया है। यूं तो शिक्षा, जीवन आदि का अधिकार सभी बच्चों को है, लेकिन समाज में उपेक्षापूर्ण जीवन जी रहे ऐसे बच्चों के लिए कोई विशेष प्रावधान इस यूएनसीआरसी 89 में भी नहीं है। इसका एक सरल जवाब यही दिया जा सकता है कि इन्हें हम अलग व विशेष नहीं मानते। इसलिए अलग से व्यवस्था की जरूरत नहीं है। लेकिन हकीकतन ऐसा नहीं है। समाज और घर में उन्हें असमान ही बरताव सहना पड़ता है। किन्नरों में कुछ की कहानी अगल है जिसमें लक्षमी नारायण त्रिपाठी आती हैं जिन्हें आज भी परिवार का प्यार,मान सम्मान मिलता है। ऐसे किन्नरां की संख्या बेहद कम है जिन्हें हिजड़ा बनने के बाद भी परिवार में वही इज्जत और प्यार मिलता रहा हो। अव्वल तो उन्हें उपेक्षित अपने हाल पर ही छोड़ दिया जाता है। और देखते ही देखते वे भीख मांगने पर मजबूर हो जाती हैं। हमारे ही आस पास कितने ऐसे किन्नर नजर आते हैं जिनकी स्थिति बेहतर है। गुरुओं की बात छोड़ दी जाए तो सड़क पर भीख मांगते या फिर बच्चों के जन्म और शादी ब्याह के अवसर पर तालियां बजा कर अपना जीवन काटती हैं।
कई बार शिक्षा की ओर बहुत उम्मीद से ताकता हूं कि क्या कहीं किसी नीति व समिति या फिर पाठ्यक्रम,पाठ्यपुस्तक में इनके भूगोल,इतिहास,संस्कृति,समाज के बारे में कोई मुकम्मल परिचय दिया जाता है। लेकिन बेहद निराशा ही मिलती है। कोई भी पाठ्यपुस्तक कोई भी पाठ्यक्रम इनके भूगोल और मानचित्र से हमारी पहचान नहीं कराते। यही वजह है कि बच्चे समाज के तमाम वर्गों के लेगों, हमारे मददगार नाई, मोची, डाक्टर, मास्टर आदि के बारे में प्राथमिक कक्षाओं में परिचित हो जाते हैं, लेकिन हमारे ही समाज में जीने वाले किन्नरों के बारे में न तो कोई बात बताई जाती है और न ही जानकारी के तौर पर एक दो वाक्य खर्च किए जाते हैं। यह किस मानसिकता की ओर इशारा करता है इसे भी समझने की आवश्यकता है। दरअसल हमारा पूरा सामाजिकरण लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष के तौर पर ही होता है। यहां किन्नरों यानी तृतीयपंथी के लिए कोई स्थान नहीं दिया गया। समाज में विभिन्न नामों से इन्हें पुकारते जरूर हैं छक्का, मौगा, हिजड़ा, खोजवा आदि। लेकिन इनकी प्रकृति और समाज हमारे मुख्य समाज से कैसे अलग पहचान रखने लगा इसके बारे में हमारा इतिहास, भूगोल, शिक्षा शास्त्र सब के सब ख़ामोश ही रहते हैं।
साहित्य की बात करें तो इस विषय पर बहुत ही कम शोध मिलते हैं। कहानी उपन्यास, आत्मसंस्मरण, रेखाचित्रादि भी न के बराबर है। यदि कुछ मिलता है तो वह दंतकथाएं, कही सुनी बातें जिसपर हम धारणाएं बना लेते हैं। हम दरअसल एक पूर्वग्रह के शिकार हो जाते हैं। हम वैसी ही स्थितियां मान भी लेते हैं कि हिजड़ों में मरने बाद रात में लाश को नंगा कर ले जाया जाता है। इनके लिंगछेद हुए होते हैं। वे बच्चों को उठाकर उन्हें जबरन लिंग काट कर हिजड़ा समुदाय में शामिल कर लेते हैं आदि। किन्तु यह पूरा सच नहीं है। जहां तक साहित्य के मौन की बात है तो वास्तव में हिन्दी में अबतक शायद पांच छह से ज्यादा कहानी,उपन्यास व अन्य पुस्तक लिखी गई हैं जिन्हें पढ़कर किन्नर समुदाय को समझा जा सके। साहित्य और समाज के हाशिए पर जीवन बसर करने वाली लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी किताब इसी वर्ष छप कर आई है। यह किताब बड़ी ही शिद्दत से हिजड़ा समुदाय के भूगोल को तथ्यपरक और साक्ष्य सहित जानकारियां भर ही नहीं देती, बल्कि एक किन्नर को किस किस तरह के सामाजिक, मानसिक और शारीरिक भेद-शोषण के दौर से गुजरना पड़ता है इसकी भी झलक इस किताब में मिलती है। इस किताब से पूर्व अंग्रेजी में लिखी किताब निदर मैंन नौर विमेन इन इंडिया। यह किताब जिस गंभीरता से किन्नरां के समाज, भूगोल और मनोविज्ञान की ओर पाठकों का ध्यान खींचती है वैसी किताब हिन्दी में अब तक कोई नहीं है। यह जिस ओर संकेत करती है वह निराशाजनक है। साहित्य आदि भी इन्हें अपना विषय नहीं बनाना चाहते। या कह लें इनके पास भी पर्याप्त जानकारी नहीं है कि इनकी दुनिया आखिर है कैसी और कैसे चलती है। दिलचस्पी का न होना और रूचि भी न लेना दोनों में ख़ासा अंतर है। वास्तव में न तो हमारी रूचि होती है और न हम जानना ही चाहते हैं। यही कारण है कि ये हमारे आस पास होते हुए भी हमसे कोसों दूर होते हैं।
हिजड़ों को लेकर फिल्मों में कई भूमिकाएं निभाई गईं। फिल्मों में दो तरह की किन्नरों की कथा गाथा मिलती है। पहला वे जो महज साड़ी पहन कर नाच गाने करती हैं। जिनकी आवाज स्त्रैण होती है। दूसरी वैसी फिल्में हैं जिसमें किन्नरों को मुख्य भूमिका में रखते हुए उनकी दुनिया की कुछ जानकारियां और संवेदनाओं को समाज के सामने लाया गया है। सदाशिव आम्रपुरकर ने सड़क में, आशुतोष राणा ने संघर्ष  में सशक्त भूमिका निभाई है। वहीं परेश रावल ने भी किन्नरों की भावनात्मक पक्ष को उभारने की तमन्ना फिल्म में कोशिश की है। सबसे दिलचस्प और सामाजिक राजनीतिक हस्तक्षेप करने वाली शबनम मौसी की कहानी से मिलती जुलती हु ब हु समान तो नहीं किनतु वेलकम टू सज्जनपुर फिल्म है। इसमें एक हिजड़ा चुनाव में खड़ा होता है। काफी जद्दो जहद के बाद चुनाव जीत भी जाती है किन्तु उस गांव के वर्चस्वशाली परिवार को यह जीत नागवार गुजरी। एक दिन सुबह उस हिजड़े की लाश नहर किनारे मिलती है। यह फिल्म वास्तव में समाज और समाज के नीति निर्माताओं के लिए एक आईना है।
मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी किताब में लक्ष्मी नारायण बड़ी ही साफगोई से अपनी आपबीती कहानी, व्यथा-कथा कहती हैं। कहती हैं कि हम हिजड़ों को समाज के मुख्य अंग बन कर ही जीना चाहिए। हम क्यों समाज से विमुख रहें। हम तभी समाज का हिस्सा बन सकते हैं जब हम ज्यादा से ज्यादा दिखाई देंगे यानी विजबल हांगे। लक्ष्मी जी ने न केवल भारत में बल्कि यूएन के जनरल एसेम्बली में हिजड़ों की आवाज उठा चुकी हैं। इतना ही नहीं विश्व भर में टांस्जेंडर के मसले की वकालत कर रही हैं। आज की तारीख में एक लक्ष्मी नहीं हैं जो किन्नरों की स्थिति सुधरे। बल्कि कई सारी संस्थाएं जिसे किन्नर समाज ने स्थापित किया इन्हें जागरूक करने का काम कर रही हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, वोट आदि अधिकार मिले इसके लिए लगातार देश भर में विभिन्न संस्थाएं काम कर रही हैं। दरअसल इसी समाज में उन्हें दोयमदर्जे की जिंदगी इसलिए बसर करनी पड़ रही है क्योंकि हमारी नीतियां स्पष्ट नहीं है। शिक्षा की मुख्यधारा में उन्हें समावेशित करने की ताकत कमजोर हो चुकी है। हालांकि लक्ष्मी ने अपनी पढ़ाई बी काम तक कैसे और किन मानसिक,सामाजिक और सांस्कृतिक दबाओं के तहत पूरी की इसकी बानगी हमें मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी में मिलती है। ऐसे ही बारहवीं और बी ए तक पढ़े किन्नर मिलते हैं लेकिन स्कूल से कॉलेज तक के सफर में कितना और किस स्तर तक इन्हें छीला गया, खखोरा गया यह वे ही बेहतर जानते और बताते हैं। हालांकि लक्ष्मी को अच्छे गुरु मिले जिन्होंने स्कूली स्तर पर इनकी डांस कौशल को काफी सराहा और प्रोत्साहित किया। उसी तरह से इन्हें अपने घर में भी मां-पिता और भाई,बहनों से भी भरपूर प्यार मिला। लेकिन समाज ने इन्हें बचपन में ही तृतीयपंथी के कुछ लक्षण देखते हुए बड़े लड़कों ने इनका शारीरिक शोषण भी किया। आमतौर पर किन्नरां में एच आई बी होने की आशंका बनी रहती है ख़ासकर जो उस काम में लगे हैं। लक्ष्मी स्वयं स्वीकारती हैं कि उनके समुदाय में इस किस्म की मौत बहुत होती हैं। इसे रोकने के लिए इनकी संस्था अस्तित्व ने ठाणे में काफी काम किया। देश भर में जागरूकता अभियान भी चलाया। एच आई बी न हो इसके लिए सेक्स बिना कंडोम के न करें आदि जानकारियां देने का काम अस्तित्व करती है। यदि पुलिस व प्रशासन की ओर से हिजड़ों को बेवजह परेशान किया जाता है तब भी विभिन्न संस्थाएं उनके बचाव में खड़ी हो जाती हैं।
शिक्षा और संवेदनशीलता इन दो औजारों से तृतीयपंथी समाज को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में मदद मिलेगी। हमें लोकतंत्र के दो कार्यपालिका और न्यायपालिका से भी काफी उम्मीद है। साथ ही साथ पत्रकारिता तो समय समय पर इस समाज को उठाने और इनकी दुनिया पर स्टोरी कर आम लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने की कोशिश करती है। हाल ही में एक मीडिया घराने से निकलने वाली डेली अंग्रेजी अख्.ाबार के संडे मैग्जीन में टांस्जेंडर किन्नरों की बदलती भूमिका और उनकी म्यूजिक बैंड पर स्टोरी छापी। इसे देख पढ़कर लगता है कि मीडिया भी इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और करीब लाने में बड़ी भूमिका निभा सकती है। इसी किस्म का काम लक्ष्मी ने कुछ साल पहले हिजड़ों में ब्यूटी क्वीन कांटेस्ट करा कर समाज और मीडिया का ध्यान इस समाज की ओर खींचने की कोशिश की थी।


Monday, May 16, 2016

कोना फटा पोस्टकार्ड


कौशलेंद्र प्रपन्न
हम न मरब उपन्यास में डॉ ज्ञान चतुर्वेदी बड़ी शिद्दत से जीवन मृत्यु के दर्शन और लोक संवाद,व्यवहार की चर्चा करते हैं। इसमें भाषायी स्वाद बेहद रोचक और परिवेशीय अस्मिता को बरकरार रखने वाली है। बब्बा के मरने के बाद घर में नाते रिश्तेदारों का आना जाना लगा हुआ है। तमाम रिश्तेदार जो बब्बा से कहीं न कहीं जुड़े हुए थे वे इस ख़बर को सुन और पढ़कर घर पर आते हैं। कोना फटा पोस्टकारड पढ़कर लोगों को अंदाजा लग गया कि किसी न किसी के जाने की ख़बर होगी। लेकिन इसका अनुमान नहीं था कि बब्बा चले गए। कोना फटा पोस्टकार्ड देखकर ही गांव-घर में एक सन्नाटा पसर जाता था। पोस्टकार्ड लेने वाला और देने वाला दोनों ही ग़मज़दा से होते थे कि पता नहीं किसके प्रयाण की ख़बर है। लोग कार्ड पढ़कर फाड़ कर फेंक दिया करते थे। घर में रोना कानी मच जाया करता था। तब गांव घर को पता चलता था कि फलां के घर कुछ अनहोनी की ख़बर आई है। उस वक्त की बात है जब पोस्टकार्ड का आना और लोगों को हरेक के रिश्तेदारों की भी ख़बर हुआ करती थी कि किसका कौन रिश्तेदार कहां रहता है, क्या करता है, कितने बाल बच्चे हैं आदि। इसलिए सब की उम्र और जाने आने की भी ख़बर रहती थी। जैसे जैसे हम तकनीकतौर पर जवान हुए वह कोना फटा पोस्टकार्ड शायद गुम हो गया।
किसी के गुजरने की ख़बर अब सोशल मीडिया में डाल दी जाती है। साथ ही मोबाइल पर विभिन्न एप्स पर लोग तमाम ख़बरों को प्रसारित कर देते हैं। शादी ब्याह,जीनी मरनी,सैर सपाटा सब तरह की ख़बरों का आदान प्रदान मोबाइल और सोशल मीडिया में धड़ल्ले से होने लगा है। सोशल मीडिया के दौर में पारंपरिक माध्यम चिट्ठी पतरी,मिलना जुलना कम होते होते तकरीबन चलन से ही बाहर होता जा रहा है। लेकिन हम बात कर रहे थे कोना फटा पोस्टकार्ड की कहानी का। मुझे अपना बचपन याद है जब दादी मरी तो हम घर के तमाम बच्चों को इससे कोई लेना देना नहीं था कि दादी मर गईं। हमने सबसे पहले दादी का संदूक खोला और उसमें रखे काजू, बादाम और मिठाइयां खाने लगे। देखने वाले कुछ बोल भी रहे थे कि देखों इन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता। लेकिन हमारे लिए दादी से लगाव तो था ही साथ ही उनकी चीजें भी हमें लुभाती थीं। दादी के मरने बाद मैं काफी समय तक सोन किनारे गेमन पुल पर खड़े होकर आवाज देता था दादी आ जाओ। अब हम आपका संदूक नहीं खोलेंगे। लेकिन दादी को नहीं आना था नहीं आईं। आ भी कैसे सकती थीं यह बाद में समझ पाया। घर में तब किसी के विदा होने की ख़बर इन्हीं माध्यमों से हुआ करती थी। घर में एक अलगनी के कोने में तार में पोस्टकार्ड, चिट्ठियों को टांक दिया जाता था। कोना फटा पोस्टकार्ड को तो पढ़कर फेंक दिया जाता था लेकिन बाकी अंतरदेशीय पत्रों को उसी तार में टांक दिया जाता था।
जब घर में कोना फटा पोस्टकार्ड मिलता था उसके बाद पिताजी और मां तय करते थे कि कब उनके घर जाना है। अमूमन किसी के इंत्काल के बाद तब चिट्ठी मिलते कम से कम तीन से चार दिन तो लग ही जाते थे। क्रियाकर्म में लोग पहुंचते थे। पूरे तेरह दिन घर में मातम का माहौल ही छाया रहता था। बच्चे स्कूल से महरूम हो जाते थे। यदि बेहद जरूरी नहीं हो तो घर के बड़े काम पर भी नहीं जाते थे। घर में एक ही भाव होता था। घर का कोना कोना बयां करता था कि कुछ था जो अब नहीं है। कोई हंसी थी जो यहीं कहीं गूंजा करती थी। कोई तो था जो बात बात में टोका करता था लेकिन अब वो जबान नहीं रही। मिलने जुलने वाले बार बार रो रो कर या बातों बातों में एहसास दिलाते रहते हैं कि वो होते तो ऐसा नहीं होता। वो ऐसी ही तो बोला करते थे। छोटका एकदम उन्हीं की तरह चलता है। और लोग एक बार फिर उनकी याद में डूब जाया करते हैं। कई बार दुखद पल भूलना भी चाहें तो मिलने जुलने वाले ऐसा नहीं होने देते।
हम न मरब से शब्द उधार लूं तो विमान तैयारी से लेकर यात्रा की शुरुआत और अंत बेहद दारूण हुआ करता है। एक एक क्रिया, कार्य व्यापार उस गए हुए व्यक्ति की उपस्थिति और अनुपस्थिति को कुरेदता है। घर की देहारी पर खड़ी तमाम महिलाएं सिर्फ अश्रुविगलित आंखों से अपने प्रिये को जाते देख भर पाती हैं। चाह कर भी जाते हुए के साथ दो कदम नहीं चल पातीं। उसके जाने के बाद चलना सिर्फ उसकी यादों और स्मृतियों में ही हुआ करता है। कुछ परिवारों में महिलाएं मरघट पर भी जाती हैं। लेकिन कुछ परिवार की महिलाएं कितनी दुर्भागी हैं कि उन्हें जाते हुए के साथ अंतिम यात्रा में शामिल होने का संयोग नहीं मिल पाता। यह भी ऐसी चलनें हैं कि जिंदा रहते तो हर दम लड़ते-झगड़ते, हंसते रहे लेकिन जाने के बाद उसके अंतिम पहचान को देख भी नहीं पाते। जब विमान अंतिम पड़ाव पर रूकता है। चारों ओर आंसू ,सूनी आंखें, उतरे चेहरे,भावविहीन मेल- जोल देखकर सचमुच महसूस होता है कि जीवन के अंतिम क्षण में व्यक्ति कहां आता है। जहां सिर्फ सूनापन होता है। तमाम छल-प्रपंच ताख पर धरे रह जाते हैं।
यदि निगम बोध घट गए हों तो देखें होंगे कि एक साथ छह, आठ और बारह लोगों के जलने की व्यवस्था है। वहीं ओहदे और प्रतिष्ठित हुए तो अगल बने स्थान पर जलते हैं। यदि आमजन हुए तो यमुना किनारे जला करते हैं। एक दाह संस्कार में जितनी लकड़ी लगती है और पर्यावरण प्रदूषित होता है उसे ओर न्यायालय का सुझाव था कि क्यों न विकल्प तलाशा जाए। जब हमारे पास सीएनजी और विद्युत दाह संयंत्र मौजूद हैं तो उसका इस्ताल क्यों न किया जाए। लेकिन मसला यहां परंपरा और रिवाज पर अटक जाता है। बहुत कम लोग हैं जो अपने परिजन को विद्युत या सीएनजी के द्वारा अंतिम संस्कार के लिए तैयार होते हैं। जबकि इससे लकड़ियों की बचत तो होगी ही साथ ही वातावरण में फैलने वाले विषाक्त धुआं से भी निजात मिलेगा। कभी निगम बोध से उठने वाले धुएं की ओर नजर डालें तो वहां एक कृत्रित धुआंकाश तैरता नजर आता है। हम जितने की लकड़ी और अन्य सामग्री खरीदते हैं उसके अनुपात में सीएनजी और विद्युत दाह में एक हजार का खर्च आता है। लेकिन अभी हमारी मनोदशा उसके लिए तैयार नहीं है। जब तक सारी चीजें हमारी आंखों के सामने न घटे।


Wednesday, May 11, 2016


अंकों के पायदान पर खड़ी जिंदगी
कौशलेंद्र प्रपन्न
जब परीक्षा शिक्षा से बड़ी हो जाती है तब समस्या पैदा होती है। इन दिनों विभिन्न कोर्सों और प्रतियोगी परीक्षाओं का दौर है। हर घर मंे एक किस्म का सन्नाटा पसरा हुआ है। जिसे देखो वही परीक्षा के डर में जी रहा है। मां-बाप हों सा बच्चा,नाते रिश्तेदार चारों ओर परीक्षा का बुखार फैला हुआ है। दरअसल विभिन्न स्तर पर परीक्षाओं के बुखार फैलने के महीने होते हैं। मसलन दसवीं और ग्यारहवीं के लिए फरवरी और मार्च मुर्करर होता है। वही विश्वविद्यालय स्तर की परीक्षाएं मई और जून में हुआ करती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षाएं अब शुरू होने वाली हैं। वहीं दूरस्त शिक्षा से पढ़ने वाले बच्चों की परीक्षाएं बीच जून में शुरू होती हैं। कल्पना कीजिए जब कूलर, पंखे काम करना बंद कर देते हैं। सिर्फ और सिर्फ एसी से ही राहत मिलती है ऐसे मौसम में बीए और बी काम आदि कोर्स की परीक्षाएं होती हैं। कहां होती हैं इसपर भी नजर मारना बेहद रोचक और प्रासंगिक है। विभिन्न स्कूलों जिसमें सरकारी और निजी स्कूल शामिल हैं, जहां की टेबल, कुर्सी ऐसी स्थिति मंे होती है कि ठीक से नहीं बैठ सकते। कमर दर्द, घूटने में दर्द, कपड़े फटने का डर सब एक साथ रहता है। यदि सावधानी से अंदर बाहर नहीं निकले तो खरोच से नहीं बच सकते। कई स्कूलों में तो पानी पिलाने वाली/वाले पांच छह गिलास लेकर घूमते रहते हैं। वे पानी या तो बेहद ठंढ़े होते हैं या फिर उस मौसम मंे गले से नीचे नहीं जा सकते इतने गर्म होते हैं। यह माहौल होता है परीक्षा कक्ष का।
परीक्षा कक्षा में प्रवेश से पहले चप्पल-जूते बाहर निकलवा दिए जाते हैं गोया मंदिर या कुछ ऐसे ही स्थल पर जा रहे हों। और तो और ख़बरें तो यहां तक रही हैं कि परीक्षा भवन में प्रवेश से पहले कपड़े भी खुलवा दिए गए। निक्कर में बैठा कर परीक्षाओं मंे बैठाया गया। कोर्ट ने इसपर आदेश भी दिया कि यह गलत हुआ। सेना में हुए इस प्रकार की परीक्षा की भत्र्सना सब तरफ हुई। सेना ही नहीं बल्कि अन्य परीक्षाओं में ऐसी घटनाएं आम पाई जाती हैं। बस्ते,काॅपी किताब बाहर रखना तो समझा जा सकता है लेकिन पैंट,शर्ट आदि उतरवाकर परीक्षा लेना कुछ ज्यादा ही हो चुका है। हालांकि परीक्षा के इस चरित्र पर ठहर कर विचार से पूर्व हमंे इसके संक्षिप्त इतिहास पर भी नजर डालने होंगे। हमारी पाठ्यपुस्तकें, पाठ्यक्रम आदि का स्वरूप इस प्रकार का है कि हर पाठ के बाद सवाल पूछा जाता है कि इस पाठ से क्या सीख मिली? कवि इस कविता में क्या कहना चाहता है? आप अपने शब्दों मंे लिखें। कविता,कहानी,गद्यांश के बाद इस किस्म के सवाल बड़े ही आम होते हैं। उस बच्चों के लिए लिखी गई कहानियों पंचतंत्र की कहानी सुनाने पढ़ाने बाद शिक्षक सवाल करता है इस कहानी से तुम्हें क्या सीख मिलती है? क्या हर कहानी, कविता सिर्फ और सिर्फ सीख देने के लिए होती हैं? क्या उनका उद्देश्य हर वक्त सिखाने के लिए होती हैं या मौज आनंद के लिए भी कहानियां पढ़ाई जानी चाहिए।
एक समय था जब बच्चें के ज्ञान समझ की परीक्षा अंकों के पैमाने पर किया जाता था। अंकों के पायदान पर साठ और सत्तर प्रतिशत आना बड़ी बात होती थी। प्रथम दर्जे पर आना एक बड़ी घटना होती थी। जो बच्चे अंकों की कसौटी पर खरा नहीं उतरते थे उन्हें केवल समाज में बल्कि घर मंे भी डांट फटकार और लानत मलानत से रू रू होना होता था। पढ़ोगे नहीं तो क्या दुकान पर बैठोगे? गाड़ी साफ करोगा। क्या करोगे जीवन में? कुछ भी नहीं कर सकते। जैसे सवाल और वाक्य बहुत आम सुनने में आते थे। जो बच्चे कम अंक हासिल करते थे फेल हो जाते थे उन पर परिवार के लोग तो हंसते ही थे समाज भी हंसा करता था। और... बच्चे हताश होकर आत्महत्या की ओर मुड़ते थे या फिर निराशा में डूब जाते थे। सन् 2006 में सीबीएससी और एनसीइआरटी को महसूस हुआ कि इस परीक्षा को भी बदल दिया जाए। इससे बच्चों में परीक्षा को लेकर मन में बैठे डर में कमी आएगी। बच्चे आत्महत्या नहीं करेंगे। और इस तर्क पर परीक्षा के प्रश्न पत्रों में बड़ा बदलाव किया गया। भाषा से लेकर अन्य विषयों को बहु वैकल्पिक जवाबों मंे ढाल दिया गया।
सन् 2006 के बाद भाषा के प्रश्न पत्र बहुवैकल्पिक हो गए। एक सवाल के चार जवाब खानों मंे दे दिए गए और कहा गया सही शब्द,पद चुन कर रिक्त स्थानों पर भरो। और बच्चों के अंकों में उछाल आने लगे। अंक तो अस्सी और नब्बे प्रतिशत तक पहुंच गए लेकिन भाषायी समझ और दक्षता कहीं पीछे चला गया। भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के स्तर पर बच्चे पिछड़ते चले गए। यही वजह है कि अंकों के पायदान पर तो बच्चे चढ़ते चले गए किन्तु भाषायी दक्षता में हाथ तंग होने लगे। यह स्थिति केवल प्राथमिक स्तर पर है बल्कि काॅलेज और विश्वविद्यालयों पर भी देख सकते हैं। बी और एम स्तर पर भी भाषा के सवालों में बच्चे उलझ जाते हैं। सवालों की भाषा में थोड़ी भी फेरबदल कर दी जाए तो छात्रों को जवाब देना भारी पड़ जाता है। 
परीक्षाएं छात्रों को प्रोत्साहित करने की बजाए उन्हें हतोत्साहित ही करती हैं। परीक्षाओं को चरित्र प्रकृति यम के समान की जाने लगी। बच्चे तो बच्चे बड़ों मंे भी परीक्षा का डर घर करता चला गया। परीक्षा से पूर्व युद्धवत् तैयारी ज़रा खटकती है। परीक्षा युद्ध कैसे है? क्या परीक्षाएं सिर्फ डरनुमा महौल पैदा करने के लिए होती हैं। इन सवालों पर विचार करने की आवश्यकता है। यूं तो परीक्षा लेने का चलन हमें महाभारत काल से लेकर अब के समय में भी दिखाई देता है। अंतर सिर्फ इतना देखा जा सकता है कि परीक्षा की प्रकृति बदल गई। अब सतत मूल्यांकन, प्रोजेक्ट,शोध पत्र आदि ने ले लिया। परीक्षाएं यहां भी हैं लेकिन प्रोजेक्ट और सतत मूल्यांकन में परीक्षा के पारंपरिक डर में कमी दर्ज की गई। फेल होने और फेले किए जाने की चिंता में गिरावट आई।
प्राथमिक और उच्च स्तरों पर बच्चों के सतत मूल्यांकन को लागू किया गया। लेकिन यदि शिक्षकों कीओर खड़े होकर इस मूल्यांकन को समझने की कोशिश करते हैं तब हकीकत कुछ और ही मिलती है। शिक्षकों केा कहना होता है कि हम पूरे साल फाइलों/मूल्यांकन शीट आदि को ही दस्तावेजित करने में लगे रहते हैं। पढ़ाने का समय कम मिलता है। हमें गैर शैक्षिक कामें में लगा दिया जाता है। इन तर्कों के पीछे बहुत पुख्ता सबूत नहीं है। क्योंकि डाइस की रिपोर्ट के अनुसार पूरे पूरे साल मंे सिर्फ 12,18 और 22 दिन ही गैर शैक्षिक कामों मंे शिक्षकों को लगाए जाते हैं। यहां इस तर्क में भी कोई खास और मजबूत दम नहीं है। लेकिन हां इतना तो है कि शिक्षकों को शिक्षण कामों से अलग कई सारे कामों में लगा दिया जाता है। निरंतर ससत मूल्यांकन का एक लाभ यह भी है कि शिक्षक को हर बच्चे की निजी कमियों और मजबूत पक्ष की जानकारी होती है जिसके आधार पर वह बच्चों को साल भर चलने वाले मूल्यांकन के मार्फत परीक्षित करता है। 

आज की शिक्षा व्यवस्था में हमें परीक्षा की प्रणाली और स्वरूप को कैसे बेहतर किया जाए और कैसे परीक्षा पर लगे आक्षेप को दूर किया जाए इसपर शिक्षाविदों को मंथन करने की आवश्यकता है। प्रश्नों की प्रकृति और उसकी भाषा कैसी होनी चाहिए इसपर भी विमर्श करना होगा। क्या सवालों की भाषा कठिन,परेशान करने वाली असहज है आदि पर भी स्थिर होकर परीक्षा के सवालों की भाषा पर भी मनन करना होगा। सवालों की भाषा विद्यार्थी को समझ मंे आए। ऐसा हो कि सवाल की क्या अपेक्षा है? क्या पूछा जा रहा है इसे ही समझने में वक्त लग जाए या पूरी तरह से समझ में आए तो परीक्षार्थी सवालों का जवाब कैसे दे। कई बार परीक्षा में पूछे जाने वाले सवालों की भाषा ही समझ नहीं आती। ऐसे में बच्चे सवालों की अपेक्षाओं के परे जवाब लिख कर जाते हैं। परिणाम अपेक्षा से कम अंक मिलते हैं। यही कारण है कि कुछ साल पहले दसवीं और बारहवीं में प्रश्न पत्र पढ़ने के लिए अगल से पंद्रह मिनट का समय देने का प्रावधान किया गया। इसके पीछे यही शैक्षिक दर्शन काम करता है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...