Saturday, December 31, 2011

साल को सलाम

आदतें इतनी जल्दी नहीं बदलतीं . समय का दरकार और लगातार चेक मांगता है. वरना समान गलतियाँ हम दुहराते रहते हैं. परिणाम वाही धाक के तीन पात.
देश के साथ भी यही है. चाहे शिक्षा का अधिकार कानून हो या महिला कानून बिल अब इसी कतार में लोकपाल बिल भी खड़ा हो चुका है. इस के साथ क्या होगा यह आने वाले साल में कुंडली बाची जायेगी. जनता बेवकूफ बनती है और बनती रहेगी. जब तक की वो जागृत नहीं होती.
जागरण इतना आसान नहीं. सोने में जो आनंद मिलता है उसे तोड़ना आसान नहीं. लेकिन आवाज़ लगाना फ़र्ज़ है. अन्ना ने आवाज़ लगे अब देखना है देश की नींद कब टूटेगी.
आने वाला साल हम सब के लिए शुभ हो.
ऋग्वेद का मंत्र साझा करता हूँ-
सम्गाचाध्वम सम्वादावाम संवो मनांची जनानतम...
यानि हम साथ साथ चलें, सामान बोले और हमरी मनांचा सम हो.                  

Thursday, December 29, 2011

टटोलने के दो दिन या पूरा साल

महज दो दिन शेष रह गए हैं. दनादन अखबार अपने पन्नों के पेट भरने लगे हैं इस साल देश के लिए किस एरिया में क्या रहा? क्या प्रगति हुई और क्या और कहना चाहिए चुक कहाँ गए का विश्लेषण जारी है. साहित्य की हर विधा में महारथी रेखांकित करने में जुड़े हैं कविता, कहानी समीक्षा आदि में किस किताब को ज्यादा ताली मिली और किस किताब को समीक्षों की गाली मिली. पिछले पाच सालों में देख रहा हूँ , बच्चों की किताबें कब आइन कैसी आइन या अगर आप जानना चाहें की कहानी या उपन्यास बचूं के लिए किसने लिखी या उसका नाम क्या है यह विश्लेषण इक्सिरे से नदारत है.
हर किसी को इन दिनों देख सकते हैं जो मनन में लगे हैं की उनके लिए यह साल कैसा रहा? कहाँ चूक गए और कहाँ चप्पर्फाद मुनाफा हुवा. अगले साल के लिए कुछ खुद से वायेदे यह नहीं करूँगा, वह कटाई नहीं दुह्रावो  होगा आदि आदि.
साहिब खुद में झाकना इतना आसान नहीं. हम पहले दुसरे के गिरेबान में झांक कर देखते हैं वह कितना नीचे है. जबकि हमहीं धरातल पर नहीं होते.
जो भी हो साल पल दिन घडी हम सभी के लिए शुभ हो. हमारे मान सामान और प्रेम बरक़रार रहे. हमने इस साल कई स्वरों को ख़ू दिया. उन्हें शांति ....               

Tuesday, December 27, 2011

मौत का खौफ

मौत का खौफ बेहद हावी होता है जिस में इंसान पूरी ज़िन्दगी लुका छिपी का खेल खेलता रहता है. कभी दूर भागता है तो कभी सच के रूप में कुबूल करता है. लेकिन हकीकत है की इंसान यदि किसी चीज से डरता है तो वह है मौत. मौत को हमारे कुछ लोगों ने बड़ा ही भावः और दर्दीला बताया है. मौत मायने अंतिम सत्य, अकाट्य परिणति और न जाये क्या क्या बिम्बों में बंधने की कोशिश की गई है. जबकि गीता इन सब पर से पर्दा उठता है-
अजो नित्यं सहस्वतो अयं... न हन्यते हन्यात्ये शरीरे....
अर्जुन को समझाने के उपक्रम में गीता की रचना सच पुचा जाए तो इंसान के मया मोह के बांध को निर्बंध करने की कोशिश है. लेकिन फिर भी हम हैं की उस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते. हाँ, खुद को अजर अमर मान बैठते हैं.
मौत कोई छोटी चीज नहीं. लेकिन बात बात में कह डालते हैं मर गए यार. मौत है ...बला बला जबकि मौत इतनी सस्ती नहीं होती और ना ही भयावह. मौत को तो हमारे षोडश संस्कारों में अंतिम संस्कार मन गया है. जब कोई बुजुर्ग समय पर कुछ करता है तो इक उत्सवा का सा अंतिम यात्रा सजती है. गाजा बाजा भी साथ होता है. हाँ यदि असमय आकाश की और चल पड़ता है तो उसके जाने का गम ज़्यादा होता है. कई सारे काम, जिमीदारियां पीछे रह जाई हैं.
पाश की पंक्ति उधार ले कर कहूँ तो-
मौत खतरनाक नहीं होती,
आग भी नहीं,
खतरनाक होता है,
आखों में सपने का मर जाना....                           

Monday, December 26, 2011

जाने के बाद....

जाने के बाद....
हाँ जाने के बाद सब कुछ बदल जाएगा,
बिस्तर समेत कर दूसरी जगह रख दिया जाएगा,
आपके पीछे आधी लिखी चिट्ठी यूँ ही रद्दी बना दिया जाएगा.
आपके पन्ने यूँ ही फडफडाते रह जायेगे...
बस आप ही नहीं होगें,
उन पन्नों को सम्तेने को,
कोई उसे पढने की जहमत नहीं उठाएगा,
बस कबाड़ मान उठा कर बेच दिया जाएगा.
कोई इस कदर अचानक...
हमारे बीच से,
चला जाए तो कैसा लगता होगा?
शायद इक राहत की साँस,
की चलो चला गया,
खामखा बात काट कर ,
रखता था अपनी बात,
की बीच बहस में खुद पड़ता था,
ये तो बदिया हुवा,
उसके जाए के बाद,
मौक़ा तो मिला,
खुद को आगे बढाने को...
लोग आगे बढ़ने को क्या नहीं करते,
वो गया तो जाते जाते रह तो खाली कर गया....
पर सच है आज भी_
जाने वाला ,
जा कर भी जा नहीं पाता,
दूर हो कर भी होता है पास,
बेशक कटु अनुभव ही सची,
पर होता तो है...                      
     

Sunday, December 25, 2011

लोकार्पण इक किताब का

इक किताब के बहाने कई सरे विचार, भाव और तंतुएं खुद बा खुद खुलतीं चली जातीं हैं. कितने ही भाव और अर्थ भी धुंध लिए जाते हैं. कोई नारी विमर्श तो कोई नारी का देह विमर्श या फिर उत्तराधुनिक महिला का देह द्वन्द वर्णन में चावो, आनंद और काम के भाव धुन्धने वाले भी का म नहीं होते.
लिखने वाला बेशक जिस भी भाव से लिखा हो लेकिन पाठक व आलोचक उसकी लेखिनी में न जाने क्या से क्या भाव और मायने तलाश लेता है. आज की तारीख में एक महिला का लिखना एक सिरे से स्वभोगित जीवन की तस्वीर करार दिया जाता है. जब की खुद आलोचक , लेखक मानते हैं की कई बार पर काया प्रवेश की तरह ही पर भाव गमन भी लेखक करता है.
आज की तारीख में किसी के पास कहने को कुछ भी तो नहीं है. अगर कुछ है तो बस सेल फ़ोन पर गाने, मेस्सगेस ,  आदि डाउनलोड करना होता है. हर मोमेंट के फोटो खीच कर लोगों की तारीफ़ पाना होता है. सिर्फ बताना, अपनी सुनाना न की किसी की सुनने की चाह होती है.
अगर कुह कहना है तो कह डालो बजाये की पहले शिकायत की पुल बंधा जाए फिर हाल समाचार या कहने की बात राखी जाए.              

Saturday, December 24, 2011

ध्यान दें अन्ना जी

अन्ना जी आपका इरादा बेहद तारीफ़ ये काबिल है. आप अपने लिए नहीं बल्कि देश के लिए लड़ रहे हैं. देश की आवाज़ आपके साथ आवाज़ मिला रही है. 
लेकिन बॉम्बे में इतने महंगे मैदान लेने की क्या जरूरत थी. आप ने कहा हम ये पैसा लोगों से चन्दा से लेंगें. आपको पता होगा की हमारी जनता दो पहर में रोटी खाती है तो शाम का कुछ पता नहीं होता. वो बेचारा रात दिन रोटी कपडा और किड्स के फ़ीस जुगाड़ने में यदि घिश देता है. 
कुछ तो यैसे भी हैं जो रात पेट दबा कर सो जाते हैं.  देश के पप्पू क्लास से बाहर कूड़ा चुनता अपनी ज़िन्दगी बसर कर देता है. देश को नै दिश में ले ही जाना है तो अपने देश के अंकुर को ठीक करना होगा. जो स्कूल जाते हैं उनको यह तक नहीं मालुम की इंदिरा सोनिया और गाँधी में कोण ज़िंदा हैं ? कैसी शिक्षा मिल रही है यह किसी से छुपा नहीं है. 
कभी इस तरफ भी ध्यान दें अन्ना जी 
आमीन          

अन्ना जी अन्ना जी....

अन्ना जी अन्ना  जी....
क्या हुवा आपको,
जनता की म्हणत की कमाई,
मांग बॉम्बे में मैदान के किराए भरने ,
बैठने अनशन पर,
क्योँ चलेगये......
अन्ना जी अन्ना जी...
जरा सोच्लेते,
८, ९ लाख रुप्यी बोहोत होते हैं,
जनता अपने घर के मरमत्त कराई दे ,
बच्चे की फ़ीस दे या,....         

Friday, December 23, 2011

इन्सान से....

इन्सान से जगहों के मायने बदल जाते हैं,
तस्वीरों में मुस्कान जजब हो,
सदियों तलक यूँ ही मुस्कान बिखेरते रहते,
साथ में क्लिक करने वाला हाथ भी देख रहा होता,
इक चेहरे को दूर से देख कर कैद करने में उसका भी हाथ है.....
बेहद खुबसूरत चेहरा है...
चेहरे की मुस्कान,
न न मुस्कान नहीं ये हसी साफाक...
हमेशा आपकी और खीचती है.       

Sunday, December 11, 2011

चले जाने पर खालीपन हो

किसी भी समाज में शुन्य तब पैदा होता है जब किसी के चले जाने पर खालीपन हो जाए. किन्तु येसा ही तो नहीं होता. रामानुजन, जजे कृष्णमूर्ति, गाँधी जाते हैं तो दुसरे लोग उस जगह को भराने को आगे आ जाते हैं. यह स्थानापन्न कह सकते हैं. लेकिन दरअसल हकीकत में किसी के जाने की भरपाई नहीं होती. इक इकाई का जाना पूरी तरह से जाना ही मन जाएगा.
यह अकाट्य नियम है की जनम और मृतु दोनों ही अटल है. जनम तो हाथ में होता है की आप किसी जीव को धरती पर स्थापित कर सकते हैं लेकिन उसे अपनी जरूरत के अनुसार रोक नहीं सकते. जिसे ऑफ होना है वो होगा ही. कबीर की पंक्ति याद आती है -
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है , बाहर भीतर पानी,
फुटा कुम्भ जल जल ही सामना ये तट बूझो जयनी.
किसी का हमारे बीच से चला जाना वास्तव में इक रिक्त स्थान छोड़ जाना ही है. बस उसके संघ बिठाये पल, घटनाएं महज हमारे अन्दर गाहे बगाहे बजती रहती हैं. किसी ख़ास अंदाज़, आवाज या उसके बोलने , हसने में जब भी साम्यता मिलते हैं . और हम इक बार उसकी याद में खो जाते हैं.
कभी सोच कर देखें की अचानक कोई शांत हो जाता है. हमारी इस दुनिया से यक पलक उसका कनेक्शन टूट जाता है. फिर लाख कोशिश के बावजूद वो हमारी पकड़ में नहीं आता.                       

Saturday, December 10, 2011

कुछ सवाल

कुछ सवाल बेहद दर्दीले बीते पलों और घ्त्नावो की याद दिलाते हैं. युन्हे याद कर या सवाल को दुहरा कर तकलीफ होती है. मसलन १९४७ के कसूरवार किसे मानें? मस्जिद गिराई गई उसके दोषी किस चेहरे को माने. उसी तरह कैदफा हमारे बीते पल भी सवाल करते हैं. जिनका जवाब बेहतर वाही दे सकता है जो निरपेक्ष हो कर मंथन कर   सके. लेकिन इस काम में इक खतरा है की हम खुद को बचाते हैं और सामने वाले पर दोषारोपण करते हैं.
   दोषारोपण के आगे हमारा विवेक जवाब दे जाता है. दुसरे शब्दों में कहे तो हम अपना पक्ष छुपा कर सापने वाले के सर पर ठीकरा फोड़ते हैं. देश के वर्त्तमान पोलिटिक्स और संसद की करवाई को देख कर भी यह झलक मिल सकती है.  विपक्ष ताल ठोकती है, हमने शासन दो फिर देखो हम चला कर दिखा देंगे. मगर जब सत्ता में होते हैं तब तमाम वायदे भूल जाते हैं. दोष मढना आसन होता है. जीना मुश्किल वो भी सच के साथ.                 

Friday, December 9, 2011

रिश्ते वही जीते हैं जो सच होते

रिश्ते वही  जीते हैं  जो सच होते हैं. सच इन्सान और सन्दर्भ सापेक्ष होते हैं. जब हम कोई रिश्ता बुन रहे होते हैं तब ख्याल नहीं होता की किस शब्द के क्या और कितने गहरे मायने होगें जब आप किसी कारण से अलग रह पर चल पड़ेंगे. लेकिन हम कई सारे वायदे अलफ़ाज़ खर्च देते हैं बिन विचारे.
समय और सन्दर्भ बदल जाने पर यूँही शब्दों के मायने भी अपने अर्थ पीछे दरकिनार कर देते हैं.  जरा सोच कर चलना हर किसी "म्हाज्नाह एन न गतः सह पन्था"    यूँ ही नहीं कहा है.    

Tuesday, December 6, 2011

उनीस साल पहले

उनीस साल पहले अयुध्या में जो कुछ हुवा वो क्या था आज जब यह सवाल सामने होता है तो जबान लाद्खादा जाती है.
पर उसी सरयू के तट पर हज़ारो हज़ार नर नार अपनी पहचान खो कर हम से पूछ रहे हैं क्यूँ जी कैसे हैं आप सब ?
राम के ललाट पर जरुर सिकन आई होगी. बगले झाकते राम को देखा है आपने ?  

Wednesday, November 9, 2011

उड़ कर देखना

जब जमीन से ऊपर होते हैं तब हमारा ही अपना कद स्थिर और बाहर की दुनिया भागती दिखाई देती है. दरअसल बाहर की दुनिया स्थिर होती है और हम भाग रहे होते हैं. ये नदियाँ और नाले, रोड और हमारे झोपड़ सब के सब इक बड़े गोले या रेखावों की तरह दिखाई देती है.
पहाड़ को भी आशीष देने को बाजुएँ उठ सकती हैं जब आप ऊपर उड़ रहे होते हैं. गोया पहाड़ धरती पर उग आये फोड़े फुंसी से गर्मी में उग आये हों. यहीं नदियाँ यूँ फोड़े फुंसी से निकल रही निरंतर धार सी लगती हैं. 
सब के सब खामोश, 
नदियाँ, पहाड़,
रोड,
नाले,
घर,
पुल
सब के सब खामोश,
खुद में गम होते हैं.
सब आप या हम भाग,
उड़ रहे होते हैं....            
       

Sunday, October 2, 2011

बन्दर हो गए शैतान

बापू  के  तीनो -
बन्दर हो गए शैतान,
जो देख सकता है,
वो देख नहीं सकता. 
जो सुन सकता है भरष्टाचार,
वो बोल नहीं पाटा.
जो देख सकता है समाज -
नहीं देखता.
बापू के ये तीनो बन्दर हो गए शैतान...       

Sunday, September 25, 2011

बेटी का दिन इक

   
क्या गजब है की इक दिन बेटी दिवस  साल के बाकि दिन गली , उपेक्षा, शिक्षा से भी महरूम करना कुछ समझ नहीं आता.    
पूजा , अर्चना , आरती या कोई aur नाम भी शामिल हो सकता है जिन्ह्हे पढने जीवन के रु बा रु परेशानियौं को सहते गुजरता है तो क्या बंधू यही है बेटी दिवस. 
सोचना तो होगा जिनको हम हर पग पर बेटी होने के दंश देते हैं. इक दिन छाए वो कंजक पूजा का दिन हो या बेटी दिवस हम उन्हें अचानक तवाज़ो देने लगते हैं. 
बेहतर हो की इक दिन के सम्मान देने की बजाए रोज दिन की जलालत से निजात दें पायें.   

Saturday, September 24, 2011

चूकी हुई कहानी

हमारे बीच में कहानी हवा करती थी. जो रफ्ता रफ्ता दूर जा चूकी. कहानी गढ़ने में वाही मज़ा आता है जो किसी भी क़िस्म के सृज़न में.
कोई आप से पूछे की आपने कब अपने बच्चे को कहानी सुनाई तो शायद आप याद न कर पायें. येसा क्यों घटा? कभी पुचा खुद से?
दरअसल यह सवाल भी बैमानी सी है. इतना पूछना भी टाइम जाया सा लगता है. लेकिन जब हमारा पौध सुनना बंद कर देता है या इगनोरे करता है तब हमारी नीद खुलती है. तब कहानी दादू की तलाश में भटकते हैं .  काश खुद ही कभी कहानी सुन्ने की जहमत उठा लें तो परेशानी काफूर हो जायेगी.        

Thursday, September 15, 2011

शिक्षा की जान दे कर चुकाई कीमत

शिक्षा  की  जान दे  कर चुकाई कीमत  पाकिस्तान के ४ बच्चों ने. उनका कुसूर महज इतना था की वो इंग्लिश स्कूल में पढ़ते थे. यह बात तटप के लोगो को पसंद नहीं आई. सो उन बच्चों को स्कूल से लौटते टाइम बस अगवा कर गोली से भुन दिया गया. 
सरकार या हुकमत जो भी नाम दे वो क्या इस जीमेदारी से बच सकती है की शिक्षा पर बच्चों का हक़ है और सरकार की जिमीदारी बनती है की बच्चों की हिफाज्द करे. 
उस देश में या भारत में बच्चे सरकार की प्राथमिकता की सूचि में शायद निचले पायदान पर खड़े होते हैं. क्या इस लिए की वो चुनावों में मत पेटी भरने में मदद नहीं करते?
आवाज़ तो उठनी ही चाहिए वहां या यहाँ जहाँ हज़ारों बच्चे शिक्षा भूख और असुरक्षा से रोज़ दिन जूझते हैं.      

Saturday, August 27, 2011

संसद में शरद भड़के बॉक्स यानि टीवी न्यूज़ चैनल पर

शरद जी ने कहा तिरंगा का खुल कर माखौल उदायाजा रहा है. रात में  भी तिरंगा लेकर लोग घूम रहे हैं. वहीँ शरद  ने अपनी नाराजगी न्यूज़ चैनल को ले कर अपनी एसिडिटी निकाली. 
यह अलग बात है  की न्यूज़ घराना काफी तेज़ी से साख खोटी रही है चाहे वो मर्डोक की वज़ह से हो या और दुसरे जरिये....
मगर न्यूज़  घराने से लोग डरते और बचते रहे हैं. लेकिन इस की भूमिका जो कुछ साल पहले थी अब कुछ सुधर के साथ है.
पूर्वग्रह ज़ल्द नहीं धुलता तो खामियाजा कुबूल करना होगा.

Wednesday, August 17, 2011

इक आवाज़ इक उम्मीद का नाम अन्ना

अन्ना फैशन नहीं हैं. कभी सुना था की कुवर बाबु को कहा जाता था अस्सी saal की उम्र में भी तलवार चमकती थी. विरोधियों के दांत खाते कर देते थे. ठीक वाही हाल है अन्ना जी में.
अन्ना  जी की इक आवाज़ में वो माद्दा है जो तमाम युवा और सभी पीढ़ी को इक धागे में पिरो दें. बल्कि पुरो रहे हैं. 
इन आगाज़ को   देख कर इक बार गाँधी की याद दिलाते हैं.
अगर दिल में  न हो किसी भी तरह के पेच तो मजाल है कोई उस आवाज़ को दबा दे.
जब आवाज़  उठेगी तो उसकी उष्मा में दाग पिघल कर पानी होना ही होगा.  

Sunday, August 7, 2011

खुदा ने फरमाया,

खुदा ने फरमाया,
बता तेरी राजा क्या  है,
थोड़ी आखें झुका,
बोला,
मेरे दोस्त की आखें,
महफूज़ रखना,
दर्द, पीर और अश्रु न छु पायें,
उन आखों में लरजते प्यार औ मनुहार,
फबते हैं....
खुदा ने कहा कुछ नहीं बस, 
सर पर हाथ फेर गायब हुवे,
आमीन  
        

Saturday, August 6, 2011

मर्डोक के कब्र पर इक अर्जी

मर्डोक के कब्र पर इक अर्जी 

या खुदा आपकी करनी पूरी दुनिया के पत्रकारिता को इक रंग में रंग  गया. 
न्यूज़ ऑफ़ थे वर्ल्ड बंद हवा,
कुछ जो साँस ली रहे थे, 
उन्हें बचाया जा सकता है.     

इक बूंद जो अब की तब -कब .....

  इक बूंद जो अब की तब -कब ..... 
जीवन में हमारे कई काम और कई प्रोजेक्ट यूँ ही लटके होते हैं अनिर्णय के शिकार. पकने की प्रतीक्षा में. आसमान से तो टपक गए लेकिन बिजली के तार पर लटक गए. कब टपकेंगे. इंतज़ार में होते हैं.
हम वेट करते हैं कब गिरोगे मेरे दोस्त ,  और कब तक इंतज़ार करना होगा. पके फल पेड़ से गिरते हैं तब न पेड़ रोता है और न फल.
दोनों को पता होता है गिरना तो है मगर समय पर. समय से पहले कोई बिछुड़ जाए या चाहए रुक्षत तो पीड़ा तो होगी ही.
इस अलगावो को कोई मुकम्मल नाम देना कोई ख़ास मायेने नहीं पर इस टपकने की हुक  टा उम्र सहनी पड़ती है.       

Thursday, July 28, 2011

shikaayat..

ji har kisi ko kabhi khud se-
kabhi apne chaahne valon se,
koi na koi shikaayat to rahti hi hai,
aakhir koi ped, parwat,
nadiya,
naalon,
puliya,
in sab se kahan koi ranzish karta hai..
ham umra bhar jinse ladte rahte-
vo chehra,
aakhen,
chuwan,
puliyaa par shaam ke dhundhalke me milaa karte the.
ladai-
khaa jaati hai hamari urja,
daane daane ko tarsh jate ham,
magar akad fir bhi rahti jaari...  

Sunday, July 17, 2011

free from fear.

Walk free  from fear...
Go beyond the limit,
Touch the new warm ray of sun,
feel the words and song of nature.
Make a new path...
later people will joine,
they fear to start comments,
fear from thought,
fear to think new,
go go far far from fear...

Thursday, June 23, 2011

...Then leave....


The table are same but dialogue become dry or sweet. In one hand some sole meet on the same time some joint sole hardly to commit fallow partner onto the high way of life.

Life always go go and go ahead. Some people never understand the changed face of the present reality. They always live in their own utopia. weather they are wrong or on the right path in the life they mostly ignore to accept the beauty of today.
Always remember one thing in the life that anything would happen. Now its depends onto the person to person how he or she react or hug the award of our duty. We are free from any fear in doing whatever work we want to do. But we must have to bonded in achieving the reward of our past work.
Kabir says," boya bij babul ke amb kahan se hoi" means our work and action give result as we do the best or lose concern.
just reciting the lines of song from film MERA NAAM ZOKAR,
ik din meet jaayega maati ke mool,
jag me rah jaayega pyaare tere bol,
koi nishaani chod fir duniya se dool......

Wednesday, June 15, 2011

मीडिया के सामने दर्शाक्बतेरू चेहरा

बाबा जहाँ देहरादून के हस्पताल में थे ठीक उसी जगह इक निगमानंद नाम के युवा साधू भी भर्ती था। दोनों के काम इक से थे। जहाँ बाबा भारस्ताचार के खिलाफ लोगों की नज़र में थे वही वो अनाम सा निगमानंद गंगा में गलत उत्खनन को रोकने के लिए पिछले तक़रीबन १०० दिनों से भुख्हद्ताल पर था। लेकिन कितने लोग इस नाम को जान पाए। हलाकि मीडिया ने ही निगमानंद को भी लाइट में लाया जो कहीं उपक्ष के शिकार थे। न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र ने निगमानंद के हड़ताल को तवज्जो दिया।
अफ़सोस के साथ ही कहना पड़ता है कि लोग नाम से भीख देते हैं तो दान भी। मरने पर रोने वाले आखं भी बॉडी की प्रतिष्ट पर उसी मात्र में आशुं बहाते हैं।

Monday, June 13, 2011

खबर की कीमत

खबर कूटने वाला जीव पत्रकार इक दिन खुद पेज पर स्टोरी में तब्दील हो जाता है। मुंबई से प्रकाशित मिड दे के स्पेशल खोजी टीम के अगुवा दे की शनिवार की हम गोली से भुन दी गई। दोष साहब उन्देर्वोर्ल्ड की जमीन की हलचल लोगो के सामने लाया करते थे। यहाँ तक की उनकी रिपोर्टिंग इस कदर प्रमाणिक होती कि मुंबई पोलिसे भी दांग रह जाती। यह ददयों के बस से बहार था कि कोई इस तरह उनकी अंदुरीनी पेंच जनता है। शुरू में धमकी फिर धमकी और अंत में मिली गोली......
इक इमानदार पत्रकार को खामोश कर दिया गया। आज पत्रकारिता के सिपाही वो नहीं रहे जो कभी पत्रकारिता के शुरूआती सफ़र में थे। उनने पत्र को हथियार की तरह इस्तमाल किया। उनको न धमकी न पेड़ खबर की धन्धेबाज़ अपनी रह से डिगा पते थे। लेकिन इक दौर यह भी आये जब पत्रकार और पत्र की साथ राजनीति और अन्दार्वोर्ल्क से हवा। तब कलम रिरियाने लगी।
पकिस्तान में भी पिछले दिनों शहजाद पत्रकार को आतंद के सरगना की बलि चदा दी गई । उस का भी दोष यही था। उसने भी आतंदी संगठन की अन्दर की बातें और प्लान आम कर रहा था। पत्रकार की निष्ठां और जीमेदारी क्या होती है कैसे निभायी जाती है यह इनसे सिखने की जरूरत है।
खबर जान की कीमत पर देने वाले पत्रकार की जरूरत आज ज्यादा है।

Saturday, June 11, 2011

इक दिन जमीन पर औंधे पड़ा सोचता है

हुसैन के इंतकाल पर पता नहीं क्यों बहादुर शाह ज़फर की पंक्ति याद आती है-


कितना बदनसीब है जफर मरने के बाद दो गज जमीन भी ना मिली कूचा ये यार में।


ठीक उसी तरह हुसैन साहिब भी ताउम्र अपनी मिटटी को तडपते रहे। आखिर में अपनी साँस का अंतिम कतरा लन्दन में ली।


रंग को अपनी जीवन की अर्धांगनी बनाने वाली हुसैन साहिब के साथ वही अर्धांगनी अंत तक साथ रही। न बेटा न परिवार के लोग ही साथ थे। अगर कोई साथ था तो वो उनकी कुची और रंगों में भरामन। वैसे भी जींवन की यही सचाई है कि जाते समय या आते वकुत कोई साथ नहीं होता। अकेला आना और अकेले ही रुक्षत होना होता है। न प्रेमिका न पत्नी और ना कोई साथ निभाता है , जो साथ पाले बढे वो सब महज़ कुछ दूर तक हाथ हिला कर मिस यू कह कर अपनी ज़िन्दगी में खूऊ जाते हैं।


कितना मुर्ख है कवि , कलाकार , भयुक जो भावना के कैनात को हकिकित मान बैठता है। सोचता है सार है यही कि कोई बिना स्वार्थ के साथ नहीं होता फिरभी क्यों कर आस लगाये बैठा रहता है।


इक दिन जमीन पर औंधे पड़ा सोचता है.....


क्या मैं बेहोशी में था? आखें खुली तो पाया कि वो सड़क पर किनारे अब तलक वेट कर रहा है......

Thursday, June 9, 2011

बाबा तो लम्बी दौड़ की योजना के साथ आये

योग के साथ बाबा जिस अब सेना तैयार करेंगे। यानि पातंजल योग संसथान में सैनिक तैयार किये जायेंगे। वो भी सशस्त्र। जब ऋषियों को पिछले जमाने में राक्षश तंग करते या राजा ठीक से अपनी भूमिका नहीं निभ्सता तो वो लोग धनुष उठा लिया करते थे।
विशामित्र ने धनुष उठाया। कौतिल्या ने साफ़ कहा कि ब्राहमण पठन पाठन कर सकता है तो जुररत पड़ने पर युद्ध भी कर सकता है।
बाबा जिस श्यास ही सही लेकिन सैनिक की फ़ौज कड़ी करना चाहते हैं। इस्पे होम मिनिस्टर ने गंभीर प्रतिक्रिया दिया , तो अब कानून ही उनसे निपटेगी।
सामने आने लगे बाल्क्रिशन जो नेपाली मूल के हैं लेकिन खुद को भारतीय साबित कर वेदेष घूम आये। कसे जा रहे है। साथ ही बाबा की दावों को अम्रीका ने खारिज किया तो उसके पीछे भी सर्कार कदम उठा चुकीं है।

Monday, June 6, 2011

बाबा की भद

बाबा ने अपनी भद पीता कर रो क्यों पड़े... यह रास्ता खुद ही चुना था। हजारे की रह पर चलना इतना आसान नहीं। पूरी ज़िन्दगी लग जाती है तब हजारे पैदा होते हैं। बाबा ने रार ठान ली कि मैं क्यों नहीं लोकपाल समिति में? मुझे भी कम लोग नहीं जानते। पूरी दुनिया में जान्ने वाले हैं फिर मैं क्यों पीछे रहूँ।
बस यही वो प्रस्थान बिंदु है जहाँ से बाबा की बिछलन शुरू हुई। किसे तरह वो औरतो के पीछे छुपते रहे इसे पूरी दुनिया ने देखा। भक्तो की भीड़ कड़ी कर उनने सोचा कि हम सत्ता से भीड़ लेंगे। सरकार को समर्पित मंत्री बाबा की शक्ति जानते थे इस लिए पहले मनुहार किया। लेकिन नहीं मने तो दंड का प्रयोग किया।
साम, दम, दंड, भेद इन चार बिन्दुयों को अपना कर ब्रिटिश ने हमारे ऊपर राज किया। तो बाबा किसे खेत की मुली हैं।
योग करते , जनता वैसे ही अपने दिलों में बसा राखी थी। बाबा को राजनीती का चस्का पता नहीं किसे ने लगा दिया। वैसे उन्न्ने कोई गलत कदम नहीं उठाया था। लेकिन मंच गलत चुना। उस पर रिथाम्भारा को बैठना आग में घी डालना साबित हुआ।
चलिए इक लम्बी सांस ले और छोड़ें.......
आमीन

Friday, June 3, 2011

इक थी पूजा। वो खूब पढना चाहती थी लेकिन उसकी किस्मत में शायद पढना नहीं लिखा था। पिछले दिनों उससे मुलाक़ात ही हुई थी। कहा मैं पढना चाहती हूँ। बड़े हो कर पढ़ना चाहता है मेरी। वो यूँ तो खामोश रहती लेकिन जवाब आते हुए भी जवाब नहीं डरती थी। बोहोत बोलने पार जवाब देती। रंग तो जैसे उसकी ऊँगली पर नाचती थी क्या ही कमाल कि चित्रकारी करती।


कुछ दिन मुलाक़ात नहीं हुई। इक दिन अचानक नज़र आई । उसके दोस्तों ने कहा इसकी माँ कल रात भवान के पास चली गई। मायूस पूजा चुपचाप देख रही थी कभी उन क्लास को ज़हन में जिसे बसा रखा था। सुए लग गया था कि बस अब ज्यादा दिन यहाँ न आना हो पायेगा।


हुवा भी वही जिसका दर था। पियाकड़ बाप ने उसे किसी कोठी वाले के घर चौका बर्तन के लिए रख दिया। हम चाह कर भी उसे शिक्षा में रोक नहीं पाए। उसके सपने खतम हो गए। असमयेक मौत

Thursday, May 26, 2011

तोहमत लगा का कहना...

तोहमत लगा का कहना...
कुछ तो नहीं कहा , अक्सर ही हम लोग जब भी किसी से फ़ोन पर बात करते हैं सीधे सिकवा के लहजे में - आज कल बड़े हो गए। आज जी कैसे याद आ गई। सवाल तो फेक दिए जाते हैं मगर यदि यही सवाल लपेट कर आगे सरका दिया तो मुह सूज जाता है।
कितना बेहतर हो कि सिकवा की जगह कुछ बात की जाए।
अक्सर हम शिकायत में सुनहरा पल गवा देते हैं।

Thursday, May 12, 2011

काम कम दिखावा ज्यादा

काम कम दिखावा ज्यादा, बिलकुल ठीक है आज हमारे पास यैसे लोगों की जरा भी कमी नहीं जो काम कम करते हैं लेकिन गिनती के नंबर बनाने के लिए दिखा कर नंबर बना लेते हैं । इसमें वह चेहरा बेपह्चाना रह जाता है जो काम में अपनी गर्दन दर्द करा लेता है लेकिन नाम साथ वाले का होता है। क्या ही जिमेदार है। हर को अपना काम मान कर रात दिन इक कर पूरा करता है। लेकिन लोगों की नज़र में आपका पड़ोसी बाज़ी मार लेता है। कभी सोचा है येसा क्यों होता है ? येसा इसलिए hota है क्योंकि आप गधे की तरह गर्दन दोड़े में गोते काम karte रहते हैं। आपने काम को दिखने दिखाने की कला आपमें नहीं है। बस यही फर्क है आपके काम करने और उस दुसरे के काम करने के पीछे की रणनीती।
यह वक्त है काम कम कर दिखा ज्यादा। सही बात है जो दिखता है वही दुनिया की नज़र में आता है।

दोस्ती के चोर जी

दोस्ती के चोर जी , इक बारगी सुनकर आश्चर्य हो साकता है। लेकिन ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। क्योंकि आपने ही दोस्त को face बुक पर नेव्वाता दिया था। आपका ही दोस्त आगे चल कर आपके ही दोस्तों में से वैसे लोगों को चुन लेता है, जो उसके माकूल काम आ पाते हैं। उनपर अपने डोरे डालने लगते हैं।
आप को तो पता तब चलता है जब आप के दुसरे दोस्तों से मालुम होता है कि आप के उस दोस्त ने आपके वर्क प्लेस पर आप की मत्ती पलीद कर रहा है

Wednesday, April 6, 2011

भाषाः घर वाली, बाहर वाली, गाली और बच्चे

-कौशलेंद्र भाषा अपने आसपास के परिवेश से ज्यादा सीखते हैं। साथ ही साथ भाषायी तमीज़ और बरतने की तालीम भी हमें भाषा इस्तेमाल करने वालों से ही उस भाषा के संस्कार भी मिलते हंै। हमारा एक भाषा के साथ जन्म से लेकर मृत्यु पूर्व तक का साथ तो होती ही है। लेकिन हम उस भाषा संगिनी के प्रति बहुत कम ही सजग और संवेदनशील होते हैं। इसी का परिणाम होता है कि हमारे पास दो तरह की भाषा संगिनी होती हंै, एक घर वाली और दूसरी बाहर वाली। जब भाषायी बहुरिया का मुखड़ा दिखाना होता है तो बाहर वाली का इस्तेमाल करते हैं। घर वाली को छुपा कर रखते हैं, ताकि उसकी देशजपन पर लोग ख़ास ठप्पा न लगा दें। यानी इस तरह से हम दो भाषाओं, बल्कि दो से भी अधिक भाषाओं को साथ लेकर चलते हैं। जब जैसी जरूरत पड़ी उस बहुरिया को आगे कर वाहवाही बटोर ली। ज़रा सोचें क्या यह भाषा के साथ न्याय है? बहरहाल भाषा के कई रंग-रूप हमें अपने आस-पास में देखते-सुनते रहते हैं। उनमें जो सबसे भदेस माना जा सकता है वह है गाली। गौरतलब है कि गाली देने की आदत से बड़े तो बड़े बच्चे भी लाचार हैं। बड़ों की बातचीत पर ध्यान दें तो पाएंगे कि शायद ही कोई पक्ति बिना गाली की पूरी होती है। ‘स्याला’ गोया अब यह शब्द गाली की श्रेणी से बाहर निकल शिष्ट भाषाओं में शामिल हो गया है। मां-बहन से संबंधित गालियों के साथ विपरीत लिंग का इस्तेमाल बहुतायत रूप में सुने जा सकते हैं। कुछ लोगों की जबान पर गाली स्वागत सूचक शब्दों के मानिंद होते हैं। किसी को प्यार से भी बोलेंगे तो उसके साथ ख़ास गाली के विशेष्ण लगाना नहीं भूलते। कई घरों में पिता अपने बेटे, पत्नी बेटी तक के सामने फर्राटेदार बिना किसी ग्लानि भाव के गाली देते भी मिल जाएंगे। ऐसे माहौल में यदि बच्चे गाली देने लगें तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। लेकिन जब हम ऐसे बच्चों की बात करते हैं जिनका जन्म, बचपन और किशोरावस्था सड़कों, पर्कों, फ्लाईओवर के नीचे जीवन बसर करते हैं ऐसे में उनकी भाषा कौन गढ़ता है? ऐसे बच्चे कहां और किनसे भाषा सीखते हैं इसे जानना भी रोचक है। गौरतलब है कि मां-बाप का दिमाग तब ठनकता है जब उन्हीं का बेटा उनके सामने उन्हीं गालियों की पुनरावृत्ति करता है। कोई भी बच्चा सबसे पहले गाली व अच्छी आदतों की तालीम अपने घर-परिवार के माहौल में पाता है। उसके बाद आता है उसका परिवेश, जहां एक बच्चा ज्यादा से ज्यादा खुले में समय बिताता है। यहां कोई सुधारने, टोकने वाला नहीं होता, बल्कि यदि कोई गाली व अन्य ग़लत काम करता है तो ज्यादातर उसे दोस्तों का सहयोग ही मिलता है। गाली व अन्य शिष्ट एवं अशिष्ट की श्रेणी में आने वाली आदतों पर नजर डालें तो पाएंगे कि बच्चों के व्यवहार के पीछे उनका सामाजिकरण गहरा सरोकार रखता है। सड़कों पर सोने व कूड़ा बिनने वाले बच्चों के साथ काम करते हुए इधर कुछ दिनों से नोटिस कर रहा था कि बच्चों की ओर से गाली देने की शिकायत ज्यादा ही आने लगी थी। सो इस मुद्दे को सलटाने की योजना बनाई। बच्चों से बात की कि कौन से बच्चे हैं जो दिन में ज्यादा बार गाली देते हैं। शुरू में तो किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। लेकिन कुछ देर बात करने के बाद काफी हाथ हां में खड़े हो गए। इसी दौरान विनिता और सत्ते के बीच की लड़ाई और उनके बीच हुई गालियों के बौछार की खबर भी आई। विनिता पर दबाव बनाया कि वो वही गाली दुहराए जो उसने सत्ते को दिया था। काफी देर के बाद उसने जो गाली दी उसे सुन कर कान खड़े हो गए। मां -बहन और शुद्ध पुरुषों वाली गाली उसने दी थी। गाली देते वक्त उसके माथे पर ज़रा भी सिकन नहीं थी। गाली देने और न देने के बीच के संबंध को खोलने की कोशिश की। सवाल किया क्या यही गाली अपनी मम्मी के सामने दे सकती हो? तो उसने नकार दिया। फिर अगला सवाल था कि तो फिर वैसी गाली दोस्त को कैसे दे सकती हो? गाली देने -सुनने के बीच के रिश्ते और भाव जगत में होने वाली प्रतिक्रियाओं के बारे में भी उनसे चर्चा की। तब विनिता को शर्म महसूस हुई और उसने कहा अब मैं गाली नहीं दूंगी। लेकिन सज़ा के तौर पर हमने सभी के मत लेने के बाद तय किया कि आज इन दोनों से छुट्टी होने तक कोई बात नहीं करेगा। दूसरे दिन पता चला विनिता स्कूल आते ही मुझसे माफी मांगने लगी। सर गलती हो गई। बाद में अन्य बच्चों ने बताया, कल इसकी मां ने इसे गाली देने पर घर पर मारा है। अगले दिन माॅर्निंग असेंब्ली में तय किया कि गाली को लेकर एक चर्चा की जाए। सो कल की घटना को संदर्भ बनाते हुए बात शुरू की। और सब की सहमति से तय किया गया कि सुबह स्कूल आने से लेकर शाम घर जाने तक के समय में कोशिश करो कि गाली न दो। और अगर आदतन गाली निकल जाती है तो मुझे या किसी भी दूसरे टीचर से आकर स्वीकार कर लो कि मुझसे गलती हो गई। मैंने गाली दी। उसे मांफ कर दिया जाएगा। जो सबसे कम गाली देगा उसे पुरस्कार दिया जाएगा। अंत में हाथ आगे करा कर शपथ दिलाई कि मैं आज से कोशिश करुंगी/ करुंगा कि गाली न दूं। और यदि मुंह से निकल जाती है तो आप आकर स्वीकार करेंगे। इस परिचर्चा का परिणाम दोपहर होते होते आने लगे। बच्चे खुद आकर स्वीकारने लगे कि सर मुझसे गलती हो गई। मैंने गाली दी। पच्चीस बच्चों में से तकरीबन पांच बच्चे गाली देने वाले मिले। बाकी पर इसका अच्छा असर देखने को मिला। इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की योजना है।

Thursday, March 31, 2011

खेल का उन्माद या उन्माद का खेल भारत पाक खेल

भारत पाक के सेमी फिनाल मैच के दौरान समस्त भारत दीवाना हो गया। दिल्ली सरकार को आधे दिन की छुट्टी करनी पड़ी। साथ ही निजी काम्पिनी को भी आधे दिन के बाद स्तर गिरना पड़ा। दूसरी और कई मंत्रालय, कार्यालय में पुरे दिन काम थप रहा। आर्थिक हानि के साथ ही बाज़ार तक पर असर दिखा। यह खेल क्या है उन्माद ही तो जगाता है।

Saturday, March 19, 2011

Saturday, February 26, 2011

पिछड़े मासूम बच्चों पर दोहरी जिम्मेदारी




-कौशलेंद्र प्रपन्न

दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर निगम की ओर से मान्यता प्राप्त निजी प्राथमिक स्कूलों ने सरकारी आदेश की जिस तरह खिल्ली उड़ाई उसे देख कर स्पष्ट हो जाता है कि सरकार जब इन स्कूलों में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के लिए ‘कुल दाखिले का 25 फीसदी सीट’ आरक्षित होगा। लेकिन इन स्कूलों ने सरकारी आदेश का जिस तरह नजरअंदाज़ कर रही है उससे एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाता है कि इन स्कूलों पर सरकार कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं कर पा रही है। गौरतलब है कि इन निजी स्कूलों को स्कूल बनाने के लिए सरकार की ओर से रियायती दामों पर जमीन मुहैया कराई है। नगर निगम की ओर से ऐसे 757 स्कूलों को आदेश जारी किया था। लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के सामने स्कूल जाने, शिक्षा ग्रहण करने में कैसी और किस तरह की परेशानियां का सामने करना पड़ता है। यदि यह समझ लिया जाए तो हम लाखों बच्चों को स्कूल की परीधी में ला सकते हैं। लेकिन इन बच्चों को शिक्षित करने की जिस प्रकार की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है उसमें कहीं बहुत बड़ा फांक है। ‘शिक्षा के अधिकार’ कानून लागू होने के बाद उम्मीद और लक्ष्य तो बनी है कि राज्य एवं केंद्र सरकार शिक्षा की पहंुच वंचित और विकास के हाशिए पर पड़े बच्चों तक पहुंचाने में सफल होगी। सरकारी तंत्र के साथ ही साथ इसी के समानांतर गैर सरकारी संस्थाएं भी शिक्षा के प्रसार- प्रचार के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। विदेशी अनुदानों की सहायता से चलने वाली शैक्षिक योजनाओं पर हर साल लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। ताकि देश के 80 मिलियन बच्चे कम से कम प्राथमिक स्तर की शिक्षा तो हासिल कर लें। लेकिन हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था ‘प्रथम’ की ओर से कराए गए अध्ययन की रिपोर्ट की मानें तो देश के बच्चे जो पांचवीं कक्षा में पढ़ते हैं, उनमें से आधे से ज्यादा बच्चे पहली, दूसरी कक्षा के गणित के सवाल हल नहीं कर सकते। जहां तक हिंदी और अन्य भाषाओं का मामला है उसमें भी कोई खास सार्थक परिणाम नहीं मिले हैं। लिखने- पढ़ने के कौशल में भी पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे साधारण से साधारण पंक्तियां न तो लिख सकते हैं और न ही पढ़ सकते हैं। इससे यह अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है कि जो बच्चे स्कूल में तालीम के लिए जाते हैं उन्हें किस तरह की शिक्षा मिल रही है। लेकिन सरकार सर्वशिक्षा अभियान, आंगन बाड़ी, मीड डे मील आदि परियोजनाओें के जरिए देश के शेष बच्चों को स्कूल में दाखिल करना चाहती है। याद हो कि 2000 में सरकार ने 2010 तक का लक्ष्य रखा था कि इस साल तक स्कूल एवं शिक्षा से वंचित बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ दिया जाएगा। लेकिन अफ्सोस के साथ कहना पड़ता है कि पूर्व निर्धारित समय सीमा तक लक्ष्य पूर्ति न होते देख दुबारा 2015 तक का समय सीमा तय किया गया है।
यह बड़ी चिंता की बात है कि आज़ादी के तकरीबन 63 साल बाद भी शिक्षा और बच्चे हमारे मुख्य प्राथमिकता की सूची में नहीं हैं। महज सरकारी घोषणाओं के आधार पर शिक्षा को बेहतर बनाने का सपना देखना व्यर्थ है। लेकिन तमाम आदेशों को धत्ता बताते हुए दिल्ली के कई निजी स्कूलों ने साफतौर से ऐसा करने से मना कर दिया। दिल्ली के शिक्षा मंत्री अवरिंदर सिंह लवली ने कड़ा रूख अपनाते हुए कहा कि जो स्कूल इस आदेश का उल्लंघन करेंगी उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती है। इसके पीछे शिक्षा मंत्री का तर्क था कि जिन स्कूलों को रियायत मूल्य पर जमीनें मुहैया कराई गई हैं। उन्हें सरकार के इस आदेश का पालन करना होगा वरना उन पर कानून की अवमानना करने के जुर्म में आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है। सरकार की इस रूख के बाबत निजी स्कूलों ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा कि हम 25 फीसदी बच्चे को पूर्णतः निःशुल्क शिक्षा, वर्दी, काॅपी-किताबें उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं। या तो सरकार हमें फीस बढ़ाने की अनुमति दे या फिर 25 फीसदी बच्चों को निःशुल्क नामांकन से हमें मुक्त करे। सरकार की ओर से जारी प्रस्ताव में कहा गया है कि सरकार ऐसे कुल बच्चों के लिए प्रति बच्चा 1,000 से 1,300 रुपए स्कूल को देगी। लेकिन इस पर निजी स्कूलों के प्रबंधकीए संगठनों ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि यह राशि बहुत कम है इसमें तमाम सुविधाएं हम नहीं दे सकते। प्रकारांतर से निजी स्कूलों के प्रबंधन एवं सरकारी तंत्र के बीच एक परोक्ष लड़ाई चल रही है।
गौरतलब है कि आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चे ‘ईडब्ल्यूएस’ कोटे में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या कोई कम नहीं है। उस पर इस कोटे की सुविधा लेने वाले के लिए जिन दस्तावेजों की आवश्यकता पड़ रही है उसे देख कर नहीं लगता कि वास्तव में ऐसे बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता। सरकार की ओर से जारी आवश्यक दस्तावेजों में जन्म प्रमाण पत्र, आवास प्रमाण, वोटर पहचान पत्र, सालाना 1 लाख से कम की आमदनी को सिद्ध करने वाले प्रमाण को शामिल किया गया है। मुख्य सवाल अब यह उठता है कि जिन परिवारों के बच्चे सड़क किनारे, पार्क व फ्लाईओवर आदि सार्वजनिक स्थानों पर रहते हैं जिन्हें स्थानीय प्रशासन एवं पुलिस रोज भगाती हो तो ऐसे में उनके बच्चे कहां और किस स्कूल में पढ़ने जा सकते हैं। एक सर्वे के अनुसार अकेली दिल्ली में ऐसे बच्चों की 5 लाख से भी ज्यादा संख्या है जो सड़क पर ही जन्मते और बड़े होते हैं। उनका मुख्य काम कबाड़ चुनना, किसी दुकान पर काम करना और परिवार के भरण पोषण में अपनी कमाई सौंपना है। यदि ऐसे बच्चे स्कूल चले जाएंगे तो वैसी स्थिति में उनके घर में खाने-खाने को लाले पड़ जाएंगे।
‘सेव द चिल्डन’ गैर सरकारी संस्था, दिल्ली के विभिन्न इलाकों में ऐसे बच्चों को शिक्षा, चिकित्सा आदि मुहैया कराने में जुटी है। इस संस्था की ओर चलाई जा रही नेहरू प्लेस एवं लाजपत नगर के केंद्रों पर इस तरह के बच्चों को बुनियादी सुधार के बाद स्कूलों में 25 फीसदी आरक्षित कोटे में नामांकन कराने की योजना पर काम चल रही है। इस संस्था के प्रोग्राम आॅफिसर प्रदीप कुमार कहते हैं कि इन बच्चों को जिस प्रकार के माहौल मिले हुए हैं वह न केवल यूनीसेफ के ‘बाल अधिकार’ प्रस्ताव के खिलाफ है बल्कि मानवीय स्तर पर भी स्वीकारणीय नहीं कह सकते। नेहरू प्लेस डीडीए पार्क और कालका जी मंदिर के साथ ही एमटीएनएल के पास छोटे-छोटे टेंटों, झुग्गियों में रहने वाले संजू, अंजलि, पूजा, बादल आदि बच्चों से बाते करना बेहद रोचक होगा। इन बच्चों में पढ़ने की ललक को देखते हुए लगता है काश इन्हें मुख्य स्कूलों में दाखिला मिल जाए। अपनी इच्छा और पढ़ने की चाह को पूरा कर सकें। वहीं दूसरी ओर रामकिसन, रवि, दीपचंद जैसे दुर्भागे बच्चे भी हैं जिन्हें पढ़ने की तमन्ना तो है किंतु इन 9,11,13 वर्षीय बच्चोें के कंधे पर पूरे घर की परवरिश की जिम्मेदारी होती है। पिता या मां इन्हें पढ़ने नहीं भेजते। क्योंकि स्कूल चला गया तो घर का खर्च कैसे चलेगा। इन बच्चों को पहली लड़ाई अपने घर में मां-बा पके खिलाफ लड़नी पड़ती है।

Monday, February 21, 2011

पढ़ने की ललक ने ली मासूम की जान


कौशलेंद्र प्रपन्न

मम्मी- पापा मुझे माफ कर देना मैं दुनिया छोड़ कर जा रहा हूं। मैं पढ़ना चाहता था। पढ़कर डाक्टर बनने की इच्छा थी ताकि मैं गरीबों की मदद कर सकूं। लेकिन मेरी किस्मत में शायद यह नहीं लिखा था।’ इन शब्दों, वाक्यों पर नजर डालें तो एक ऐसी बेबसी दिखाई देगी जो किसी भी सभ्य एवं शिक्षित समाज के गाल पर थप्पड़ से ज़रा भी कम नहीं होगा। क्यों इन पंक्तियों लिखना वाला बच्चा महज आठवीं कक्षा में पढ़ता था, लेकिन घर माली स्थिति खराब होने की वजह से स्कूल से बाहर कर दिया गया। गोया यह बच्चा उस निजी स्कूल की कालीन में पेबंद की की तरह था। यह घटना कहीं और नहीं बल्कि देश की राजधानी महानगर दिल्ली में केंद्र एवं राज्य सरकार के साथ ही अन्य तमाम आयोगों के नाक के नीचे आठवीं क्लास में पढ़ने वाला एक बच्चा स्कूल प्रशासन की ओर से फीस न दिए जाने पर स्कूल न आने के आदेश सुनने के बाद मायूस हो कर पंखे से लटक गया। दरअसल बच्चे की मां उसी स्कूल में कभी बतौर नर्स काम किया करती थी। लेकिन किन्हीं वजहों से उससे इस्तीफा ले लिया गया। जाते- जाते सकूल प्रशासन की ओर से आश्वासन दी गई कि उसके बच्चे को 12 वीं कक्षा तक स्कूल में निःशुल्क शिक्षा, किताब एवं स्कूल डेस दी जाएगी। लेकिन समय के साथ प्रशासन की नजर बदल गई। और हप्ते भर पहले आदेश दिया गया कि दो माह की फीस 12,000 एक हप्ते के अंदर जमा करना होगा वरना स्कूल में बैठने नहीं दिया जाएगा। उस बच्चे के पिता साधारण से किसी कंपनी में बेहद ही कम पैसे पर काम करते हैं। इतनी बड़ी रकम चुकाने में अपनी असमर्थता दिखाई। बस क्या था प्रशासन ने साफ शब्दों में सुना दिया कि फीस नही ंतो स्कूल में बैठने नहीं दिया जाएगा। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के सामने स्कूल जाने, शिक्षा ग्रहण करने में कैसी और किस तरह की परेशानियां का सामने करना पड़ता है। यदि यह समझ लिया जाए तो हम लाखों बच्चों को स्कूल की परीधी में ला सकते हैं। लेकिन इन बच्चों को शिक्षित करने की जिस प्रकार की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है उसमें कहीं बहुत बड़ा फांक है। सरकार ने तो पिछले साल 1 अप्रैल 2010 से शिक्षा के अधिकार कानून लागू कर चुकी है। इस कानून से कम से कम इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि राज्य एवं केंद्र सरकार शिक्षा की आवश्यकता को गंभीरता से ले रही है। सरकारी तंत्र के साथ ही साथ इसी के समानांतर गैर सरकारी संस्थाएं भी शिक्षा के प्रसार- प्रचार के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। विदेशी अनुदानों की सहायता से चलने वाली शैक्षिक योजनाओं पर हर साल लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं।एक ओर सरकार देश के हर बच्चों को शिक्षा, स्कूल एवं ज्ञान की परीधी में लाने के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाएं चला रही हैं। शिक्षा को कानूनी तौर पर बुनियादी अधिकार घोषित किए जाने के बावजूद भी हकीकत यह है कि अभी भी देश में 80 मिलियन बच्चे स्कूल ही नहीं जाते। जो जाते हैं उन्हें किस स्तर की शिक्षा, स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों से वास्ता पड़ता है इसका एक जीता जागता उदाहरण हम एक गैर सरकारी संस्था पहल की ओर से की गई सर्वेक्षण रिपोर्ट को देख कर लगा सकते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के विभिन्न राज्यों में स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा इस गुणवत्ता की है कि पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा पहली व दूसरी कक्षा के गणित के सवाल हल नहीं कर सकता। भाषा हिंदी व अंग्रेजी तो और दूर की कौड़ी है। इन्हें हिंदी व अंग्रेजी लिखने, बोलने, पढ़ने आदि तालीम ही नहीं दी जाती। ऐसे में अनुमान लगाना कठिन नहीं कि हमारे भविष्य के युवाओं को किस स्तर एवं गुणवत्ता वाली समान शिक्षा मिल रही है। हालांकि सरकार बार बार अपनी प्रतिबद्धता तो दुहराती रही है कि सरकार हर बच्चे को बिना किसी भेद भाव के सबको समान शिक्षा मुहैया कराने के प्रति वचनबद्ध है। लेकिन सच्चाई यह है कि जिस प्रकार की शिक्षा सरकारी स्कूलों में बच्चों को दी जाती है उसके स्तर एवं गुणवत्ता परखने और पुनर्मूल्यांकन कर नीतियों एवं कार्यवाही में परिवत्र्तन लाने की आवश्यकता है वरना एक ओर सरकार सर्व शिक्षा अभियान, आंगन बाड़ी, हर बच्चा पढ़ेगा जीवन में आगे बढ़ेगा जैसे कर्णप्रिय जयकार के सिवा और कुछ नहीं होगा। गौरतलब है कि जनवरी और फरवरी के शुरू के दो हप्ते में तमाम अभिभावकों ने विभिन्न स्कूलों के दरवाजे पर कतार में खड़े होकर फार्म की प्रक्रिया पूरी की। लाॅटी जैसे जूए वाले खेल के जरिए बच्चों के दाखिले का फैसला लिया गया। जिन बच्चों के नाम आए वो तो न्यारे हुए बाकी को तो मायूस प्रशासन, सरकारी नीतियों को कासने के सिवाए कोई और रास्ता नहीं दिखा। दिल्ली सरकार की ओर शिक्षा मंत्री अवरिदर सिंह लवली ने कुछ शिकायतों के आधार पर कि फलां फलां स्कूल आर्थिक एवं समाजिक स्तर पर पिछड़े बच्चों के नामांकन में आरक्षण वाले कोटे में दाखिला देने से मना कर रहे हैं। इन शिकायतों के मद्दे नजर शिक्षा मंत्री ने कड़े कदम उठाते हुए आदेश जारी किया कि यदि कोई गैर-सरकारी स्कूल आरक्षित कोटे में दाखिले से मना करती है तो उसके खिलाफ आपराधिक कारवाई की जा सकती है। क्योंकि पिछले साल शिक्षा कानून बन जाने के बाद आदेश की अवहेलना करने पर कड़ी नजर होगी। लेकिन निजी स्कूलों के प्रबंधकीए समितियों ने सरकारी के प्रस्ताव व आदेश को मानने से एक सिरे से नकार दिया। इस इंकार के पीछे उनके तर्क यह थे कि हम महंगाई के इस दौर में सभी ईवीएस के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, किताब एवं वर्दी मुहैया कराने में असमर्थ हैं। सरकार की ओर प्रस्तावित सहायता राशि 1000-1300 काफी नहीं हैं। या तो सरकार हमें इस आदेश से बरी करे या सहायता राशि बढ़ाए। यदि हमें सरकार स्कूल फीस बढ़ाने की अनुमति देती है तो हम इस पर विचार कर सकते हैं। ज़रा सोचें एक ही देश में जहां एक ओर पूरी तरह से एसी की ठंढ़ी हवाओं में बच्चे पढ़ते हैं जिनके लिए हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहीं दूसरी ओर साधनविहीन ऐसे सरकारी स्कूलों की संख्या कोई कम नहीं हैं जहां पीने के लिए पानी शौचालय तक के लिए बच्चे- बच्चियों को खुले में या रोड़ पार कर जाना पड़ता है। बहार घात लगाए बैठे दरिंदे इन्हें दबोच लेते हैं। इसमें सीधे तौर से सरकार एवं उसकी नीतियां जिम्मेदार मानी जाएंगी। जो सस्ती दरों पर निजी कंपनियों, घरानों को स्कूल खोलने की अनुमति तो दे देती है लेकिन सरकार के आदेश नहीं मानते लेकिन सरकार कुछ ठोस कदम नहीं उठा पाती। यदि गौर करें तो आज शिक्षा एवं स्कूल पूरी तरह से काॅरपोरेट सेक्टर में तबदील हो चुका है यहां पढ़ाने वाले अध्यापक/ अध्यापिका शुद्ध रूप से प्रोफेसनल हो चुके होते हैं। इन्हें नैतिकता, मूल्य व कर्म की प्रतिबद्धता थोथी चीज लगती है। अगर इसके वजहों की गहराई में जाएं तो पाते हैं कि जहां जिन संस्थाओं ‘शिक्षा प्रशिक्षण’ से निकल कर आज के शिक्षक व शिक्षिका आती हैं वहां भी जिस प्रकार का अध्यापन किया जाता है वह भी शक के घेरे से बाहर नहीं कह सकते।

Thursday, February 17, 2011

शिक्षा में अब और पीछे नहीं रहेगा बिहार


-कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाओं में जब पिछड़े राज्यों की बात चलती है तब सबसे पहले बिहार का नाम लेने में कोई भी पीछे नहीं रहता। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि यदि हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट की मानें तो बिहार देश का पहला राज्य बन गया है जहां के 70,000 सरकारी प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में तमाम जानकारियां आॅनलाईन कर दी गई हैं। यह काम नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिशटेशन आॅन एलिमेंटी एजुकेशन के तहत चलाई गई परियोजना की सहायता से पूरा हुआ है। बिहार के तमाम गांव, जिलों आदि में चल रही विभिन्न सरकारी स्कूलों के बारे में बुनियादी जानकारियां स्कूलरिपोर्टकाॅर्ड्स नाम की वेब साइट में दिखी जा सकती हंै। इस साइट पर स्कूल से जुड़ी हर तरह की सूचना मिलेंगी। मसलन कितने स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय, ब्लैक बोर्ड, अध्यापक, भवन की स्थिति आदि। राज्य सरकार की इस कोशिश एवं प्रयत्न से अन्य राज्य सरकारों को सीख लेनी चाहिए कि वे भी अपने राज्यों में किस तरह से शिक्षा के अधिकार कानून को अमली जामा पहनाने में मदद कर सकते हैं।
राज्य सरकार द्वारा संचालित 70,000 प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में एक स्थान पर तमाम सूचनाएं उपलब्ध कराना कोई आसान काम नहीं है। उस पर भी वहां जहां पिछले कई सालों से शिक्षा दिन प्रति दिन बद से बदत्तर होती मानी जा रही थी। लेकिन यह वही राज्य है जिसने साबित कर दिया कि यदि जज़्बा हो तो पुरानी इमारत को दुरूस्त किया जा सकता है। लेकिन शर्त यह है कि हमें इसके लिए प्रतिबद्ध होना होगा। वरना शिक्षा में न केवल बिहार बल्कि अमूमन देश के अन्य राज्यों में भी गिरावट साफ देखी जा सकती है। गौरतलब है कि इस राज्य में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय कभी विश्व प्रसिद्ध ज्ञान केंद्रों में गिना जाता था। लेकिन समय के साथ नालंदा विश्वविद्यालय अपनी चमक खोता चला गया। किंतु नोबल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन एवं राज्य व केंद्र सरकारों की अथक प्रयासों की वजह से एक बार फिर से नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित किया जा रहा है। इस काम में नेशनल नाॅलेज कमिशन की भी भूमिका सराहनीय मानी जा सकती है।
शिक्षा की दशा एवं दिशा किसी भी समाज, राज्य व देश की प्रगति को टटोलने में खासे मदद करती है। जिस भी समाज में लोग अधिक से अधिक शिक्षित होंगे वहां की जनचेतना उतनी ही विकसित और सृजनात्मक होगी। यह स्थापित बात है कि जनता शिक्षित हो तो वह अपने एवं समाज के विकास में बेहतर योगादान कर सकता है। कभी समय था बिहार शिक्षा के लिए जाना जाता था। लेकिन अस्सी के दशक से धीरे-धीरे गिरावट दर्ज की जाने लगी। शिक्षा की गिरती साख को बचाने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति भी कमजोर पड़ती चली गई। क्योंकि यदि सरकार चाहे तो किसी भी सूरत में शिक्षा ही नहीं कानून व्यवस्था तक को सुचारू रूप से चला सकता है। लेकिन जब राजनैतिक इच्छा शक्ति महज अपने राजनैतिक हैसयित बढ़ाने, समाज को विभिन्न मुद्दों पर बरगलाने में लगी हो तो ऐसी सरकार से किस तरह की प्रगति की उम्मीद की जा सकती है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र, सत्येंद्र प्रसाद एवं भगवत आजाद के मुख्यमंत्रित्व काल में शिक्षा की इतनी दयनीय स्थिति नहीं थी जितनी लालू प्रसाद एवं राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ। नब्बे के दशक में बिहार का भाग्य नए ढंग से लिख जाने लगा। इस काल में महज लूटपाट, चोरी चमारी, घोटालों एवं रिश्वतखोरी को खूब हवा मिला। इन सरकारों को केवल स्व उन्नति एवं हित साध नही प्रमुख था। समाज एवं वहां की जनता की बुनियादी जरूरतों को दरकिनार किया गया।
बिहार में शिक्षा मतलब नकल से उपजी प्रतिभा का कलंक माथे पर लगने लगा। यदि किसी ने अस्सी फीसदी अंक प्राप्त किया तो उसे संदेह एवं शंका की नजर से देखा जाना बेहद ही आम बात थी। चाहे वह बोलचाल में हो या कार्यालयी स्तर पर हर जगह बिहार से पढ़कर आने वाले छात्रों को भेदीय नजर का सामना करना पड़ता था। लेकिन पिछले पांच सालों में नितिश सरकार की नजर शिक्षा को दुरुस्त करने पर गई और समय के साथ इस सरकार की कोशिश एवं प्रयासों के परिणाम सामने आने लगे। स्कूलों में बच्चियों को साइकिल बांटा जाना एक तरह से शिक्षा व स्कूल को घर के दरवाजे पर ला खड़ा करना ही था। गांव, कस्बे व छोटे शहरों में स्कूल जाने में लड़कियों को किस तरह की नजरों, अवरोधों का सामना करना पड़ता है।

Saturday, February 12, 2011

न चिट्ठी ना लेटर बाॅक्स

चिट्ठी ना लेटर बाॅक्स
-कौशलेंद्र
अआधुनिक तकनीक का हमारे आम जन जीवन पर कुछ इस तरह प्रहार हुआ कि हमारे बीच से कई महत्वपूर्ण चीजें घिसती हुई खत्म होने के कगार पर हैं। चिट्ठी-पत्री, पोस्टमैन, लैटर बाॅक्स आदि अब कम ही देखे जाते हैं। हालांकि इसके उलट तर्क पोस्टल डिपार्टमेंट की ओर आते रहते हंै कि चिट्ठयों का आना-जाना बतौर जारी है। यह अलग बात है कि वो चिट्ठयां कौन- सी हैं? वो कौन से लोग बचे रह गए हैं जो आज पत्र लिखते और जवाब पाने के इंतजार में हप्ता काट देते हैं। यदि इसके जड़ में जाएं तो शायद ऐसे लोगों की संख्या बेहद कम हो। लेकिन उनकी भी ज़िद है कि वो चिट्ठी लिखेंगे ही। जब तक चिट्ठी पत्री लिखने वाले बचेंगे तब तक डाकिए को गली मुहल्ले में चक्कर मारना ही पड़ेगा। देश के कई गांव, शहर, कस्बे में लेटर बाॅक्स की क्या स्थिति है जानना हो तो कभी दीवार या दरवाजे पर लटके लेटर बाॅक्स के पेट में हाथ डाल कर खंघालें तो पाएंगे कि हाथ में कुछ भी नहीं आता। महज चिड़ियों के पंख, बच्चों के डाले कागज या फिर किसी प्रोडक्ट के पंप्लेट्स या किसी रेस्तरां के मेन्यू के सिवा कुछ नहीं मिलता। कसौली, हिमाचल प्रदेश के मुख्य डाकमास्टर एम एस डांगी बताते हैं कि इधर पांच छः सालों में अचानक चिट्ठियां कम हो गई हैं। पहले पर्व- त्योहारों एवं नए साल पर बधाई कार्ड आया करते थे। लेकिन अब तो वह भी कम हो गए। क्यों ऐसा हुआ? इस पर डांगी जी बताते हैं कि मोबाइल घर- घर में आ जाने से चिट्ठी- पत्री का चलन धीमा पड़ गया। अब तो लोग पलक झपकते अपने रिश्तेदारों से फोन पर बातें कर लेते हैं। जो बातें पहले चिट्ठी में लिखी जाती थीं वही और उससे भी ज्यादा बातें अब फोन पर हो जाती हैं। डांगी जी बताते हैं कि आज से दस साल पहले दिन में दो बार डाक निकालना पड़ता था। लेकिन आज एक बार में भी मुश्किल से दो या चार डाक ही मिल पाते हंै। महानगर, शहर, कस्बे और गांवों में बसने वाले लोग धीरे-धीरे आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल करते- करते पारंपरिक चलन को पीछे छोड़ते चले गए। महानगरों की बात तो छोड़ ही दें अब तो आलम यह है कि गांव में भी डाक बाबु कम ही नजर आते हैं। कुरियर कंपनी की शाखाएं वहां भी खुल चुकी हैं। डाक व्यवस्था के समानांतर कुरियर सेवा देखते ही देखते देश के कोने- कोने में पैर फैला चुके हंै। वहां भी मोबाइल क्रांति की हलचलें साफतौर पर सुनी जा सकती हैं। देखते ही देखते खेत- खलिहान, पहाड़ की चोटी, मैदानी इलाके हर जगह सूचना, संप्रेषण तकनीक और नेटवर्क के जाल बिछते चले गए। हर दस कदम पर फलां -फलां मोबाइल सेवा प्रदाताओं के टाॅवर छतों पर खड़े नजर आ जाएंगे। उसके दुष्प्रभावों को अनदेखा करते हुए हम खुश होते हैं कि अब बात करते वक्त आवाज नहीं कटती। नेटवर्क की समस्या नहीं आती। उस पर जिनके छत पर टाॅवर लगते हैं उन्हें मोटी राशि भी मिलती है। इसी के बरक्स यदि हम चिट्ठी पत्री के युग को देखें तो पाएंगे कि इन चिट्ठियों के आने-जाने में जो भी वक्त लगता था उसमें हम सब्र से काम लेते थे। एक धैय था। लेकिन आज यदि कोई मोबाइल न उठाए तो एक डर सताने लगता है। गुस्से में लगातार फोन करते रहते हैं। देखते हैं कब तक फोन नहीं उठाता। उस पर उलाहना भी तैयार रहता है ‘क्या बात है किससे इतनी लंबी बात हो रही थी?’ इस एक वाक्य में तमाम रस मौजूद हैं किसी को भी दिन भर काटने के लिए बहुत है। यहां निश्चित ही हमने चैन खोया है। दूसरों के हाथ में अपनी जिंदगी की घंटी पकड़ा दी है जब वो चाहें बजा सकते हैं। चिट्ठी में जो लिखते थे वह हाल समाचार, खुशी, ग़म सब पत्र पढ़ते वक्त जैसे सजीव हो उठते थे। लिखने वाले का चेहरा, हाव- भाव उभरने लगता था। चिट्ठी पत्री के जरीए खासे बहसें वैचारिक मत वाद-विवाद चला करते थे। लेखक-पाठक के बीच एक रिश्ता कायम करने में पत्रों की भी अहम भूमिका रही है। बड़े से बड़े लेखक, कवि, राजनेता आदि कई बार अपनी मतभिन्नता को मिटाने के लिए पत्र-व्यवहार का ही सहारा लिया करते थे। जो आज खासे महत्व के माने जाते हैं। चिट्ठी-पत्री एक तरह से दस्तावेज भी हुआ करती थीं। लेकिन जैसे- जैसे तकनीक का हमारे जन-जीवन में दखलअंदाजी शुरू हुई हम धीरे-धीरे आलसी होते चले गए। जहां कभी महिने में तीन चार चिट्ठियां पिता-पुत्र के बीच हुआ करती थीं। वह घिसते-घिसते दो, फिर एक और यह अंतराल दो महिने में एक और आखिर में दोनों ही ओर से चिट्ठियों का सिलसिला बंद हो गया। तर्क यह दिया जाने लगा कि फोन पर तो बात हो ही जाती है। कौन लिखने बैठे? जितनी देर में एक चिट्ठी लिखूंगा उतनी देर में तो ढेर सारी बातें हो जाएंगी। इस तर्क ने हमें किस- किस स्तर पर खरोचा है इसका जिक्र यहां आवश्यक नहीं है। किंतु मोबाइल ने हमें बेवजह झूठ बोलने, बहाने मारने की तालीम दिया। इसका एहसास हमें हो न हो, लेकिन सच्चाई तो यही है कि हम होते कहीं है लेकिन बताते कहीं और हैं। उस पर यह पूछने वाले पर गुस्सा भी आता है कि कहां हैं? पिछले दिनों मुझे कुछ चिट्ठियां लेटर बाॅक्स में डालनी थी। इस बाबत मैं लेटर बाॅक्स की तलाश में पूरे इलाके में चक्कर काट आया। लेकिन कहीं लेटर बाॅक्स नहीं मिला। हां ईजी रिचार्ज के बाॅक्स जरूर नजर आए। जहां गाहे बगाहे फोन, इंटरनेट के बिल भरा है। मैं तंग आकर जस्ट डाॅयल हेल्प लाईन को फोन कर पूछा कि मेरे इलाके में लेटर बाॅक्स कहां पर है? उसने पोस्ट आॅफिस का पता तो बताया, लेकिन मेरे आस-पास लेटर- बाॅक्स का पता बताने में असमर्थता जाहिर की। आखिरकर मैंने अपने इलाके के डाक घर जाकर पूछने की ठानी। वहां पहले तो मेरे सवाल पर ही मुख्य डाकमास्टर हॅंस पड़े, गोया मैंने क्या पूछ लिया? फिर शांत होने पर बताया कि आपके इलाके में लेटर बाॅक्स पहले था, लेकिन हर बार वहां के बच्चों ने तोड़ दिया। कोई देखने भालने वाला नहीं है। इसलिए दुबारा नहीं लगा। वैसे भी आपके इलाके में कम ही डाक आते-जाते हैं। बिलावजह एक आदमी का श्रम बेकार जाता था। यह भी कितनी अजीब बात है कि कुछ मुख्य डाक घर को छोड़कर शहर के अन्य डाक घरों में दिन भर में मुश्किल से चार पांच ग्रहाक ही आते हैं। इन्हीं चीजों को ध्यान रखते हुए सरकार ने कुछ साल पहले डाक घरों में न्यू ईयर के कार्ड, कुछ अन्य टिकट रखने एवं बेचने के साथ ग्राहकों को आकर्षित करने वाली सरकारी योजनाओं, बचत खाते आदि खोलने की व्यवस्था की थी। यह तो नहीं मालूम सरकार की यह कोशिश क्या रंग लाई। लेकिन इतना तो साफ है कि जिस रफ्तार से चिटठी- पत्री हमारे आम जन जीवन से दूर हो रही हैं ऐसे में एक समय ऐसा भी आएगा जब डाकिया, डाक घर और लेटर बाॅक्स महज कथाओं में सिमट जाएंगी। डाक का न आना या लेटर बाॅक्स का नदारत होना यह एक ऐस सामाजिक परिवर्तन की ओर इशारा करता है। जो हमारे बीच से धीर-धीरे ही सही किंतु दूर जा रहा है। यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें पुरानी चीजें अपना अस्तित्व खोकर नए रंग रूप में ढलने पर मजबूर होंगी। जो नहीं ढलेगा वह कैसे बचेगा। श्रीकांत वर्मा की कविता उधार लेकर कहूं तो ‘जो रचेगा वह कैसे बचेगा’ चिट्ठी, ख़तूत, पत्र एवं ऐसे ही अन्य और भी समानार्थी शब्द मिल सकती हैं जिसमें हमारा अतीत बंद हुआ करता था। किताबों के बीच छूपा कर प्रेम पत्र देना, पढ़ना, लिखना हमारी स्मृतियों में रची बसी हैं। साहित्य में चिट्ठी का खास स्थान रहा है। कालिदास हों या जायसी, भ्रमर गीत हो या विनय पत्रिका या अन्य आधुनिक काव्य धारा। हर जगह चिट्ठी अपनी छाप छोड़ती रही है। नेहरू ने जेल से इंदिरा को जो पत्र लिखा वह आज भी प्रासंगिक है। ‘पिता का पत्र पुत्र के नाम’ या फिर अब्राहम लिंकन के ख़त आज भी हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी लिखी चिट्ठियां समाचार प्रेषित करने का माध्यम मात्र नहीं थीं बल्कि वह संवाद स्थापित करने में खास भूमिका निभाती थीं। वह संवाद चाहे पुत्र या पुत्र के साथ हो या आम जनता के साथ वह एक सशक्त माध्यम तो था ही। यहां तक कि प्राचीन भारतीय सभ्यता पर नजर डालें तो पाएंगे कि संदेश पहुंचाने का काम पहले हरकारे किया करते थे। वो चिट्ठी यदि आम जनता को संबोधित होती तो जोर जोर से पढ़ कर सुनाया जाता। हरकारे पैदल, घोड़े से चला करते थे। जैसे ही हमारे पास तकनीक आया वैसे वैसे संदेश के माध्यम में बदलाव देखा जाने लगा। हिंदी फिल्मों में इस चिट्ठी को लेकर हर काल खंड़ में गीत लिखे गए। एक तरफ ‘चिट्ठयां हो तो हर कोई बांचे भाग्य न बांचे कोए,,,’सुन सकते हैं वहीं ‘चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई। बड़े दिनों के बाद हम बेवतनों को’,,,,साथ ही नब्बे के दशक में ‘चिट्ठी आती है, हमें तड़पाती है, लिखो कब आओगे,,,कि ये दिल सूना सूना है।’ चिट्ठी को लेकर एक और बेहद संजीदा ग़ज़ल हालांकि प्रकृति से रहस्यवादी एवं जीवन के उस पहलू की ओर हमारा ध्यान खींचती है जिसे हम बड़ा ही भयावह मानते हंै। वह है मृत्यु। किंतु यह गीत जिं़दगी से रु ब रु कराती है ‘चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश, जहां तुम चले गए। इस दिल पर लगा के ठेस कि हां तुम चले

Friday, February 11, 2011

रंजिश नहीं

शिकायत तुम्हे है मुझ से,
गिला नहीं मुझे तुम से,
कुछ बात रही दरमियाँ,
और फासले पसर गए।

Monday, February 7, 2011

संतो

संतो

-कौशलेंद्र
प्रपन्नआत्मा तो अमर है न बाबा। तो क्या आत्मा मरती भी नहीं? बाबा, फिर तो जनमती भी नहीं होगी आत्मा? आपका शास्त्र क्या कहता है बाबा? बाबा मौन थे। बस लगातार संतो बोले जा रहा था। यानी बाबा, मैंने जो प्यार किया वह भी नहीं मरेगा? लेकिन मेरा प्यार तो दम तोड़ दिया बाबा। इसका क्या मतलब? प्यार आत्मा नहीं है? प्यार मरणशील है? क्योंकि प्यार होता है यानी जनमता है तो वह फिर मरेगा भी। यही कहना चाहते हैं बाबा? पेड़ के नीचे ही अपनी धुनी रमाए बैठने वाले बाबा को संतो ने पकड़ लिया था। बाबा चाह कर भी उससे अपना पिंड़ नहीं छुड़ा पा रहे थे। बाबा! ईशोपनिषद्् में यही कहा है न कि आत्मा जगत् में मौजूद हर चल- अचल वस्तुओं, जीव-जंतुओं आदि में होती है। इसका मतलब यही हुआ न कि चाकू, ब्लेड, रस्सी हर चीज में आत्मा है। हमारी नस- नाड़ियों में भी वही आत्मा वास करती है। जब तक आत्मा ब्लेड़ या रस्री में है तभी तक वह आत्मा हमारी नस- नाड़ियों में बहने वाली आत्मा से अलग है। पर हम बाबा आत्मा को अलग करने वाले कौन होते हैं? बस बाबा। बस। मैं समझ गया। पेड़ और सड़क के किनारे खड़ा पोल यहां तक कि चायवाला, बस का कंडक्टर सब की नजरें बस एक चेहरे की तलाश में खामोश थीं। लेकिन वह चेहरा कहीं नहीं मिला। अचानक नहीं गायब हुआ था संतोष। बल्कि गुप्ता जी ने उसे सड़क से उठवाया था। सभी तो उसके साथ थे। लेकिन कोई भी साथ नहीं था। या सभी के होते हुए भी किसी का नहीं था। वह सबसे अलग था। पेड़ से लिपटकर भी पेड़ को अपना न बना सका। शायद अपना बनाने की कला उसे नहीं आती थी। ‘वह सब के बीच रह कर भी किसी का न हो सका।’ पेड़ ने ज़रा हिलते हुए अपनी बात रखी।‘जब तक जहां रहा लोगों ने उसे चाहा भी और नापसंद भी किया।’‘वह लोगों को तो हंसाता था, लेकिन कब लोग उसकी बात पर पीठ पीछे हंसते उसे मालूम ही नहीं चलता।’ पेड़ अपनी बात गोया वहां खड़े लोगों को बताना चाहता हो।जब भी दूर चला जाता उसे याद करने वाले बेहद ही कम लोग होते। जो याद करते वो बस इसलिए कि सीधा-साधा इंसान है। आज की चाल से बेखबर। किसे पता चल पाया कि आखिर के दिनों में उनके बीच क्या पसर गया था कि वो साथ होते हुए भी एक फांक के साथ रहे। संतो को जब भी उसकी बात याद आती ‘तुमने मुझसे जो वायदे किए थे कि मैं ये कर लूंगा, वो कर लूंगा। मैं तो वही देख रही हूं। लेकिन मुझे नहीं दिखता। मैं ऐसे पिछड़े इंसान के साथ नहीं रह सकती। मैं जीवन में सफल व्यक्ति के साथ शादी करना चाहती हूं। तुम जैसे स्टील स्टगलर के साथ अपना जीवन बरबाद नहीं कर सकती। जब मुझे अच्छे लड़के मिल सकते हैं, बल्कि मिल रहे हैं। तो फिर मैं क्यों तुम्हें लूं ? मैं उसे क्यों न लूं जिसकी अच्छी सेलरी, लाइफ स्टाइल और समाज में एक स्थान है। तुम्हारे पास मुझे देने के लिए है ही क्या। सिवाए शब्दों के।’ संतो जब बेचैन होता तो सीधे बाबा के पास पहुंच जाता। अपनी पूरी टीस उनके सामने खोल देता। बाबा को उसने यह सब क्यों बताया यह तो संतो ही बता सकता था। लेकिन बाबा के पास बैठ कर कुछ देर वह सांस ले पाता था। शायद यह एक वजह हो कि संतो अक्सर चुप रहता। बस उतना ही बोलता जितने से काम चल जाए। यह तो उसे भी खुद मालूम था कि जो उसने बोला वह पूरा नहीं कर पाया। और देखते ही देखते दस साल कैसे गुजर गए उसे एहसास बहुत बाद में हुआ। जब पानी नाक तक छू चुका था। और अंत में वह बेखबर ही रह गया। उसके लिए भी जिसको उसने अपने करियर, जिंदगी, रिश्तों और सबसे अलग और खास माना। उसे जिन दिनों करियर बनाना था, जिंदगी संवारनी थी। उसने इन पर ध्यान देने की बजाए उसे खुश रखने, मिलने- जुलने और गैरजरूरी चीजों में लगा रहा। यही कारण था कि वह उससे भी छिटकता चला गया। दूर जाने या होने की शुरुआत कब हुई इसका एहसास तब हुआ जब हाथ से तोता उड़ चुका था। उसने संतो को धोखे में कभी नहीं रखा। शुरू से ही कहा करती थी कि जब तुम सफल हो जाओगे तब शादी करूंगी। नहीं कर सके तो उसमें तुम दोषी होगे मैं नहीं। अब काफी वक्त गुजर चुका है। इंतजार की मेरी अपनी सीमाएं हैं। ‘सुन रहे हो संतो!’गोया संतो के पांव के नीचे से जमीन खिसक गई हो। बस पलकें जल्दी-जल्दी मटमटाने लगा था। उसने बीच में टोका भी, ‘क्या हुआ गुस्सा आ रहा है?’‘बोलो अपनी बात भी रखो।’लेकिन वह एक ही बात पर अटक गया था। ‘मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। मुझे अकेला मत छोड़ो। तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी का कोई मतलब नहीं।’ और बोलते-बोलते सांसे तेज हो जातीं। आवाज तेजी के साथ लड़खड़ाने लगती। ‘क्या हुआ तबीयत तो ठीक है? मैं तुम्हें दुखी नहीं देख सकती। लेकिन तुम्हारे साथ रहना मुश्किल है।’ डसकी आवाज और शब्दों में स्थिर चित्त की झलक मिल रही थी। कभी समझाने की कोशिश करती तो कभी थोड़ी कड़ाई से बात रखती, ‘रोने या प्यार की भीख मांगने से नहीं मिलता। जितना मैं साथ दे सकती थी। मैंने दिया। लेकिन अब जी भर चुका है। वैसे मैं तुम्हारे साथ हमेशा हूं। बेशक तुमसे शादी न करूं।’ ‘चलो मैं देती हूं कुछ और समय। लेकिन जो पिछले दस साल में नहीं कर पाए क्या भरोसा है कि दो तीन महीने में वो सब कुछ कर लोगे। कोई कारू का खजाना मिल जाए तो शायद सोच भी सकते हैं। बस मैं इसलिए समय दे रही हूं कि कल को मुझे दोषी न ठहराओं की मैं छोड़ कर चली गई। बल्कि इसके जिम्मेदार तुम खुद होगे। वैसे भी किस मुंह से मुझे कोसोगे, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मैंने कितना त्याग किया। लाइफ में मैंने कभी समझौता करना नहीं जानती थी। लेकिन तुम्हारे साथ रह कर मैं समझौता और पैसे की कमी में कैसे घुट घुट कर जीया जाता है यह जरूर भोग चुकी हूं। वैसे तुम किस मुंह से मुझ से शादी की बात करते हो। ज़रा अपने दिल पर हाथ रख कर पूछो कि क्या तुम्हारे साथ मुझे शादी करनी चाहिए?’अंतिम समय में उसके और संतो के बीच इन पंक्तियों ने बसेरा बना लिया था। जब भी संतो को उसकी बातें याद आतीं बस अचानक बैठे-बैठे आंखों से झर-झर आंसू बहने लगते। बहुत पूछने पर भी कुछ नहीं बताता था। बस बस स्टैंड की ओर मुंह किए एक टक देखता रहता। कि शायद वो उसी स्टाॅप पर किसी दिन उतर कर उससे मिलने आएगी। लेकिन संतो की टंगी निगाहें अंत तक वैसी ही टंगी रह गई। पेड़ चुप। चैराहे के खम्भे पर जलती वेपर लैंप खामोश था। चाय की दुकान पर सुबह बैठने वाले भी चाहते थे कि कुछ तो पता चले क्या हुआ संतो को? चारों ओर नजरें दौड़ाने के बावजूद भी वह चेहरा नजर नहीं आया। उसकी मैली कुचैली चादर और फटे कपड़े डाल पर टंगे फड़फड़ा रहे थे। पेड़ ने अपने झड़े पत्तों और फिर पतझड़ के समय अपनी नंगी डालें दिखाते हुए संतो से बड़ी ही आत्मीयता से कहा था, ‘इंतजार कर संतो, देखना फिर मेरी डालें हरी- भरी हो जाएंगी।’‘बसंत फिर इन डालों से लिपट अटखेलियां करेगी।’ ‘मुझे देखो, कितनी खरोचें, घाव, वार सहता हूं। लोग अपनी पेट की आग बुझाने के लिए या पैसे की लोभ में काट कर ले जाते हैं। लेकिन फिर भी तन कर खड़ा हूं।’ ‘मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन मेरे सूखे डालों पर भी हरियाली छाएंगी।’ लेकिन संतो के दिमाग में एक ही बात बार-बार कौंध जाया करती जो उसने आखिरी मर्तबा उसके मुंह से सुना था- ‘किसी के लिए मर तो नहीं जाओगे। लाखों लोग मरते हैं। लेकिन उनके साथ कोई मरता तो नहीं।’ ‘तुम अपनी लाइफ बरबाद मत करो। तुम भी किसी से शादी कर लो।’‘साथ रहते- रहते तो इंसान को पत्थर, पेड़- पौधों से भी प्यार हो जाता है। फिर वो तो इंसान होगी। वो भी तुम्हें बहुत प्यार करेगी।’ ‘मुझ में ऐसी क्या खास बात है जो मेरे पीछे पागल की तरह कर रहे हो।’ ‘औरत सिर्फ औरत होती है। पहली दूसरी महज संख्याएं बदलती हैं। भावनाएं कहां बदल पाती हैं। हर औरत को पति के सामने बिछ जाना ही होता है।’’औरत की इच्छा हो न हो यह मायने नहीं रखता। वह अपने पति को मसलने, मरोड़ने निचोड़ने से कभी रोक नहीं पाती।’‘फिर तो शारीरिक बनावट और प्रकृति है आगे जो भी घटता है उसमें औरत को साथ देना ही पड़ता है।’‘मैं भी तुम्हें भूल नहीं सकती। जब तक सांसें चलेंगी तुमसे दूर नहीं हो सकती। लाख मैं दूर रहूंगी, लेकिन तुम्हें दुखी नहीं देख सकती।’ जब- तब संतो एकांत में जोर- जोर चिल्लाने लगता-‘तुम अपना निर्णन लेने में स्वतंत्र थी। तुम्हें जो अच्छा लगा वो तुमने लिया। मैं भी अपनी जिंदगी के फैसले लेने में आजाद हूं। मैं किसी और के साथ अब नहीं बांट सकता।’उसकी इन एकल संवादों को सुनने वालों में कुत्ता, पेड़, लैंप, बस स्टैंड होते थे जिसे सुनना था वही नहीं थी। ‘ओफ्!’ अब तो संतो की ईट से लिखी सड़कों पर कुछ तारीखें, कुछ घटनाओं का वर्णन शेष रह गए हैं। उसे कुछ भी परवाह नहीं रहता। जब वह बीच सड़क पर लिखने में तल्लीन होता। गाड़ियां लाख हाॅन बजातीं रहतीं, लेकिन तब तक वह अपना लेखन नहीं छोड़ता जब तक पूरा नहीं कर लेता। कहने को वह मानसिकतौर से विक्षिप्त- सा था। लेकिन बिना किसी वजह के किसी को भी गाली- गलौज नहीं करता था। लोग उसे वकील कहा करते थे।कभी- कभार बाबा रामदेव को कहीं नवली चालन करते देखा होगा सो कभी सुर पकड़ता तो नवली करने लगता। साथ ही रोज़ वह जगदीश की चाय दुकान पर प्लास्टिक का मग लेकर हाजिर हो जाता। काफी दिन तक उसकी मिट्टी पड़ी रही। पिछले पंद्रह दिनों से किसी ने उस बाॅडी का क्लेम नहीं किया था। सो पुलिस भी परेशान कि इस बाॅडी को कब तक रखें। सोलहवें दिन पुलिस क्रिमेशन करने वाली थी। लेकिन उसकी लाश इतनी भी खराब नहीं थी कि अपरिचित लोगों के हाथों पंचतत्व में विलीन हो। गुप्ता जी को किसी ने बताया अस्पताल में एक लावारिश लाश पड़ी है। हो न हो संतो हो। बस इतना सुनना था कि गुप्ता जी सब कुछ छोड़कर अस्पताल पहुंच गए। पुलिसिया कार्यवाई के बाद चेहरा देखा जो वीभत्स हो चुका था। कोई भी पहचान नहीं सकता था। अचानक गुप्ता जी को उसके दाहिने हाथ पर लिखा नाम दिखा उसके बाद उन्हें ज़रा भी शक नहीं हुआ कि यह संतो नहीं है। जब दाहसंस्कार के लिए श्मशान घाट जाने की बात आई तो चार कंधे तैयार नहीं हुए। सभी बहाना बना कर पीड़ छुड़ा गए। बहुत देर बाद एक रिक्शा वाला ब्रजमोहन ने कहा,‘क्या किस्मत थी संतो की कि अंतिम यात्रा पर जाने के लिए चार कंधे भी मयस्सर नहीं।’और सिर पर अंगोछा बांध कर खड़ा हो गया। दाह संस्कार के बाद गुप्ता जी ने विधिवत मुंड़न कराया। जितना बन सकता था उन्होंने संतो के लिए किया। वैसे सब यही सोचते थे कि आखिर गुप्ता जी यह सब क्यों कर रहे हैं? संतो आखिर उनका लगता ही क्या था? लेकिन इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं था। शायद उन्होंने एक दुकानदार का फर्ज निभाया था। जब संतो अच्छा भला था तब वह उनकी दुकान से उसके लिए चाॅक्लेट, बिस्कुट आदि खरीदा करता था। उनकी दुकान पर लगा टेलिफोन गवाह है कि उसने कौन- सी घटना यहां साझा नहीं की थी। घर-परिवार, अपनी लाइफ की प्लानिंग वगैरह वगैरह।कहीं और जा कर भी कहां पहुंचा/दूर जा कर भी यहीं कहीं भटकता रहा/प्यार में संवरा तो नहीं/बिखरता ही रहा/कभी खुद पर हंसता रहा/खिल्ली उड़ाता रहा/लेकिन उसे न हंसा सका। भाग कर भी क्या जा सका कहीं/न उससे दूर जा सका/न स्मृतियों से मिट ही सका।

Thursday, January 27, 2011

भाषा के लिए क्या करोगे मुन्ना


कौशलेन्द्र प्रपन्ना
भाषा हमारे बीच रह कर जो काम करती है उससे हम जिंदगी भर उबर नहीं पाते। बचपन में जिस भाषा- बोली से हमारा वास्ता पड़ता है उसी की बदौलत हम ताउम्र अपनी भावनाओं, विचारों, प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता को प्रकट करते हैं। लेकिन ताज्जुब तब होता है जब हम उसी भाषा की उपेक्षा करने लगते हैं। भाषा के साथ की उपेक्षा दरअसल महज भाषा तक ही सीमित नहीं रह पाती, बल्कि वह हमारी सांस्कृतिक धरोहर, परंपराओं तक संक्रमित होती है। इस बात से किसे गुरेज होगा कि हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है। जिसके मार्फत वह अपने साथ समाज की तमाम परिवर्तनों को बदलते संस्कार और संस्कृति के साथ अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का काम करती है। जब एक भाषा हमारे बीच से उठ जाती है तो उसके साथ चलने वाली अन्य उपधाराएं भी उसके संग लुप्त हो जाती हैं। तकनीक विकास के साथ हमारी बोली वाणी में भी बदलाव आए हैं। यूं तो भाषा वर्तमान युगीन चुनौतियों, मांगों के हिसाब से बदलती रही हैं। लेकिन उसके इस बदलाव को दो स्तरों पर देख सकते हंै। पहला, आंतरिक स्तर पर जो निरंतर चलती रहती है। यह हमें स्थूल आंखों से दिखाई नहीं देती। दूसरा, बाहरी स्तर पर होने वाले परिवर्तनों को हम सभी महसूस करते हैं। किसी दूसरी भाषा के साथ शब्दों, बिंबों, उपमाओं एवं अभिव्यक्ति के स्तर पर जब भाषा आपस में आवाजाही करती है उसे बाहरी बदलाव कह सकते हैं। भाषा को सीखने के साथ दो बातें हो सकती हैं। पहला, जब हम अपनी मातृ भाषा से ऐतर कोई दूसरी भाषा सीखते हैं तब हमारी पहली भाषा सहायक तो होती है लेकिन साथ ही संभावना इसकी भी बनती है कि वो दूसरी भाषा को सीखने में बाधा पैदा करे। ऐसे में अपनी पहली भाषा पर बंदिश लगानी पड़ती है। जब कोई गैर अंग्रेजी भाषी अंग्रेजी सीखता है उस दौरान वह अनुवाद का सहारा लेता है। पहले वाली भाषा में सोचना फिर उसे टारगेट भाषा में अनुवाद करता है। इस प्रक्रिया में वह पहली भाषा के व्याकरणिक परिपाटी से खासे प्रभावित होता है। जबकि हर भाषा की अपनी तमीज़ और व्याकरणिक पद्धति होती है। इसलिए टारगेट भाषा को सीखते वक्त स्वतंत्र रूप से उस भाषा को सीखना बेहतर होता है। दूसरा, जिस भाषा को हम अपनी मां एवं परिवेश से बिना किसी अतिरिक्त श्रम के हासिल करते चलते हैं उसके साथ उपरोक्त सिद्धांत नहीं चलते। क्योंकि मातृ भाषा को सीखने की प्रक्रिया में पहले हम बोलने, सुनने के गुर सीखते हैं। लिखने-पढ़ने के कौशल तो स्कूल व बड़े होने पर व्यवस्थित रूप से सीखते हैं। उपरोक्त दोनों ही भाषाओं के सीखने में बुनियादी अंतर यह है कि दूसरी भाषा के साथ हमें ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता। क्योंकि भाषा की बारिकियां हम व्यवहार से सीखते हैं। इसलिए लिंग, वचन, कर्ता, कर्म आदि व्याकरणिक स्तर हमें व्यवहार से आ जाती हंै। लेकिन यहां एक बड़ी गड़बड़ी यह होती है कि यदि उस भाषा व बोली में उच्चारण, लिंग आदि के प्रयोग में लोग गलतियां करते हों तो वही गलती हमारे संग हो लेती है। भाषा की इस तरह से बुनियादी गलतियां ताउम्र सालती हैं। भाषा सीखने की सत्ववादियों और परिवेशवादियों की मान्यताओं की मानें तो हर बच्चा भाषा सीखने की अपनी विशिष्ट क्षमता लेकर पैदा होता है, पर उसकी इस क्षमता के निर्धारण में उसकी वर्तमान जीवन की परिस्थितियों के साथ-साथ उसकी पीढ़ियों के भाषा संस्कार भी शामिल रहते हैं। भाषा सीखने की इस प्रक्रिया में प्रायः पीढ़ियों का समय लग जाता है, यह मामला पैसा उपलब्ध होने पर अमीर बस्ती में घर किराए पर लेने जैसा सहज नहीं है, क्योंकि इसके लिए अपना सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश भी बदलना पड़ता, जिसकी प्रक्रिया अपनी गति और मर्जी से चलती है। भाषा को बरतने में जिस तरह की गलतियों की संभावना होती है वह व्याकरणिक होती हैं। जिसके तहत उच्चारण, हिज़्जे, विभिन्न वणों मसलन उष्ण वर्ण, महाप्राण वर्ण आदि के शब्दों को बोलते एवं लिखते वक्त जिस प्रकार की सावधानी की जरूरत होती है उसकी कमी साफ देखी जा सकती है। इसके लिए अध्यापक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। जब खुद अध्यापक की वर्तनी अशुद्ध होगी, उच्चारण में जिसे दीर्घ, लघु के नाम से जानते हैं। इसे ‘आम बोल चाल में छोटी ‘इ’ और बड़ी ई की मात्रा के नाम से पुकारते हैं’ और अनुनासिक, अनुस्वार में अंतर नहीं कर पाते। जिनके उच्चारण में ड, ड़, र, ल, ऋ, ष्, श, और स में फ़र्क नहीं देख सकते। ऐसे में बच्चे मास्टर जी के लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु बोलने पर हंसी उड़ाते हैं। बच्चों को शुद्ध उच्चारण की उम्मीद अपने घर में मां-बाप एवं अन्य सदस्यों से करना पड़ता है। यह एक अलग विमर्श का मुद्दा है कि भाषा की शुद्धता, मानकता भाषा के लिए कितना जरूरी है। इस बाबत आम धारणा यह बनी हुई है कि यदि बोलने वाले की बात, भाव समझ में आ गए फिर उसने गलत उच्चारण किया या लिंग दोष से मुक्त था या नहीं यह ज्यादा मायने नहीं रखता। भाषा का मकसद यही है कि वह बोलने वाले को अपने विचार, भावनाओं को प्रकट करने में मददगार हो। लेकिन भाषा की शुद्धता को लेकर भी तर्क दिए जाते रहे हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। भाषा की शुद्धता अशुद्धता के इन तर्कों से परे यदि विचार कर सकें तो वह यह हो सकता है कि भाषा में वैविध्यता एवं विभिन्न बोलियों, उपबोलियों की छटाएं तो हों लेकिन साथ ही यदि भाषा को एक मानकीकृत रूप नहीं देंगे तो ऐसे में एक दूसरी समस्या भी समानांतर खड़ी हो सकती है। वह समस्या लेखन से लेकर उच्चारण एवं पठ्न- पाठन में अर्थ की दृष्टि से उलझने पैदा करेंगी। किसी भी भाषा में शब्दों के उच्चारण का खासा महत्व होता है। यदि स्वर व व्यंजन वर्णों का उच्चारण शुद्ध न किया जाए तो लिखने, बोलने, सुनने एवं पढ़ने के स्तर पर समस्या पैदा हो सकती है। भाषा की परिभाषा में हम पढ़ते आए हैं कि भाषा के जरिए हम अपने विचारों, भावों आदि को अभिव्यक्त करते हैं। यदि बोलने वाला शब्दों का सही उच्चारण नहीं करता तो उसकी भावाभिव्यक्ति में बाधा पैदा हो सकती है। यह अलग बात है कि ऐसे में सुनने वाला आशय समझने के लिए भाषा के वाचिक स्वरूप के अलावा अन्य रूपों का सहारा लेगा जिसमें आंगिक, प्रतीक, संकेत आदि आते हैं। संस्कृत साहित्य में कहा गया है, ‘एको शब्दः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुक भवति’ इसका मतलब है एक शब्द का सही समुचित प्रयोग स्वर्ग तुल्य खुशी देता है। वहीं दूसरी ओर शब्द को ‘शब्द इव ब्रह्मः’ शब्द को ब्रह्म माना गया है। वहीं शब्द को नादब्रह्म भी माना जाता है।

लापता होते बच्चे कौन है फिक्रमंद

-कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रपन्नएक जनवरी 2011 में पिछले 22 दिनों के अंदर अकेली दिल्ली से 120 बच्चे गायब हो चुके हैं। एक अनुमान के अनुसार हर दिन पांच बच्चे लापता हो रहे हैं। लापता होने वाले इन बच्चों की आयु 4 से 16 साल की है। एक ओर दिल्ली से गुम होने वाले बच्चों की संख्या 2009 में 2,503 थी। दूसरी ओर 2010 में लापता होने वाले बच्चों की संख्या 2,500 से ज्यादा है। उस पर ताज्जुब तो तब होता है जब दिल्ली पुलिस इस बाबत मानती है कि इन बच्चों को पकड़ने व उठाकर ले जाने वाले गिरोह के होने की बात से इंकार करती हैं। लेकिन एक गैर सरकारी स्वयं सेवी संस्था का मानना है कि दिल्ली से बच्चों को उठाकर भीख मांगने, बाल-मजदूरी, वैश्यावृत्ति, व अन्य गैरकानूनी कामों में लगा दिया जाता है। लापता होने वाले इन बच्चों की पारिवारिक पृष्टभूमि पर नजर डालें तो पाएंगे कि गायब होने वाले अधिकांश बच्चे गरीब परिवार के हैं। अमूमन इनके मां-बाप के बीच मारपीट, लड़ाई-झगड़ा आदि बेहद ही आम घटना है इससे निजात पाने के लिए भी बच्चे शुरू में तो घर से भाग जाते हैं। लेकिन उनमें से कुछ बच्चे कुछ महीने बाद लौट भी आते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इतने बड़े स्तर पर बच्चों की चोरी हो रही है, लेकिन प्रशासन की ओर मजबूत और सार्थक कदम नहीं उठाए गए। जिसका परिणाम यह है कि हर साल गुम होते बच्चों की संख्या में इजाफा ही हो रहा है। जाहिर सी बात है कि उन बच्चों को किसने उठाया? वो कौन लोग हैं? क्या इसी तरह बच्चे लापता होते रहेंगे? इसे रोकने के लिए कौन सामने आएगा आदि सवाल खड़े होते हैं। लेकिन इन सवालों का जवाब मिलना बाकी है। अव्वल तो बड़ों के बीच बच्चों की उपस्थिति एक गैर जरूरी, नादान की ही होती है। खासकर बड़ों का रवैया इन बच्चों के साथ सौहार्दपूर्ण नहीं कहा जा सकता। हमारी दृष्टि पूर्वग्रहों पर तैयार होती है। हम मान कर चलते हैं कि बच्चों की दुनिया हम बड़ों की दुनिया से बिल्कुल अलग और उपेक्षणीय है। इसलिए हर साल जब तमाम क्षेत्रों की उपलब्धियों, लाभ-हानि, महत्वपूर्ण घटनाओं की समीक्षा प्रिंट और न्यूज चैनलों पर आखिरी हप्ते में होती हंै। तब अख़बारों में विस्तार से कथा-कहानी, उपन्यास, कविता, अलोचना आदि में कौन- सी किताब, व्यक्ति आदि चर्चा में रहे, पर समीक्षाएं प्रकाशित होती हैं। लेकिन बड़ी ही ताज्जुब के साथ कहना पड़ता है कि यदि कोई यह जानना चाहे कि बच्चों के लिए कौन- सी किताबें आई? बाल कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि के बारे में मुकम्मल जानकारी नहीं मिल पातीं। एक तो बाल साहित्य पर लोगों का ध्यान कम ही जाता है। उस पर बाल साहित्य के नाम पर क्या कुछ लिखे जा रहे हैं, इसपर कौन ध्यान देता है। हम फिल्मों की डीवीडी, सीडी खरीदने में देर नहीं करते। लेकिन जब किताब खरीदने की बात आती है तब बचत करने का ख्याल मन में आता है। हैरी पोट्टर की सीरीज खरीदने में हम नहीं हिचकिचाते, लेकिन जब हिंदी में प्रकाशित बाल-पत्रिका या बाल कहानी की किताब खरीदने की बारी आती है तब हम हजार बार सोचते हैं।बच्चे और बाल-साहित्य दोनों ही बड़ों की दुनिया के लिए कोई ख़ास मायने नहीं रखते। कुछ तारीखों को निकाल दें तो पूरे साल बच्चे समाज के संज्ञान में नहीं आते। बाल-दिवस, पंद्रह-अगस्त एवं गणतंत्र-दिवस आदि कुछ खास अवसरों पर मुख्य अतिथि के आने की प्रतीक्षा में बेहोश होकर गिरते बच्चों को देख सकते हैं। इन खास दिनों को यदि साल के कैलेंडर से निकाल दें तो बच्चे किसी बड़े राजनेता के आगमन पर नृत्य- गान एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते नजर आते हैं। लेकिन इन बच्चों को बड़ों की दुनिया में वह महत्व आज तक नहीं मिल सका है। पिछले साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन एवं सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों तक से अस्सी लाख से भी ज्यादा बच्चे महरूम हैं। हालांकि, सरकार की ओर से इन बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराने के लिए शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू हो चुका है। साथ ही कई स्तरों पर परियोजनाएं भी चल रही हैं। विभिन्न भारतीय भाषाओं में छपने वाली बाल किताबों पर एक सरसरी निगाह डालें तो उसमें हमें भाषायी वर्चस्व एवं खास वर्ग विभाजन भी मिलेगा। एक ओर हिंदी में प्रकाशित होने वाली बाल पत्रिकाओं एवं किताबों को देखें तो उसकी छपाई, चित्र, रेखांकन, कथ्य आदि अभी भी बेहद पारंपरिक ही मिलेंगी। जबकि बच्चों की किताबें मनमोहक, रंगीन, बड़े बड़े चित्रों वाले होने चाहिए। बाल किताबों में किस प्रकार के चित्र, रेखांकन आदि कितनी मात्रा में हो यह इस पर निर्भर करता है कि वह किताब किस आयु वर्ग के बच्चों को ध्यान में रख कर लिखा गया है। यदि हम 1 से 6 साल के बच्चों की किताब की बात करें तो इन किताबों में शब्दों की संख्या कम और चित्र यानी दृश्य ज्यादा होने चाहिए। क्योंकि इस अवस्था में बच्चे लिखित शब्दों को पहचानना शुरू ही करते हैं। यदि शब्दों की मात्रा ज्यादा होगी तो बच्चों को पढ़ने में मुश्किलें आती हैं। इसलिए सामान्यतौर पर देखा जाता है कि बच्चे अपने से बड़ों से पढ़कर कहानी सुनाने को कहते हैं। यदि शब्द से ज्यादा दृश्यों के माध्यम से कहानी चल रही है तो ऐसे में बच्चे चित्रों को पहचानते हुए कहानी का आनंद खुद उठा सकते हैं। इस उम्र के लिए कहानी लिखते वक्त इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि जीव-जंतुओं, प्राकृतिक दृश्यों को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया जाए। ताकि बच्चे आसानी से अपने परिवेश से जुड़ सकें। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके लिए कहानियां ऐसी हों कि उसमें वो खुद भी संवाद रचने का आनंद उठा सकें। यह तभी संभव होगा जब कहानी के बीच-बीच में लेखक बच्चों को सिरजने का मौका भी उपलब्ध कराए। विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों से बातचीत के दौरान पाया कि बच्चों को किताब में छपी कहानियों से ज्यादा वैसी कहानियां ज्यादा पसंद आती हैं जो विभिन्न भाव- भगिमाओं पर आधारित हों। यदि हिंदी और अंग्रेजी में छपी कहानी की किताबों की गुणवत्ता पर नजर डालें तो एक तरफ हिंदी में प्रकाशित कहानियों की किताबों के कागज़ की गुणवत्ता, छपाई, पिक्चर आदि की दृष्टि से बहुत आकर्षक नहीं होती। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी में बेहतर पिक्चर, कागज, छपाई आदि बच्चों को अपनी ओर खीचती हैं।बच्चों को किस तरह की कहानियां पसंद हैं, इसे हम दरकिनार कर नहीं चल सकते। अमूमन साहित्यकार अपनी रूचि, पसंद नापसंद आदि से प्रेरित होकर नैतिकता, मूल्यादि से बोझिल कथा-कहानियां लिखते हैं। क्या कथा-कहानी सुनने-सुनाने या पढ़ने-पढ़ाने के पीछे एक ही उद्देश्य होना चाहिए कि किस तरह बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क में नैतिका का पाठ ठूंसा जाए। या कि उद्देश्य यह भी हो सकता है कि कहानियां पढ़ते वक्त बच्चे अपने परिवेश की भाषा-बोली, रहन- सहन, खान-पान आदि के बारे में भी जान सकें। गौरतलब है कि हर भाषा में प्रौढ़ पाठकों के लिए खूब लिखी जाती हैं। और उन्हें पाठक भी मिलते हैं। पाठकों की कमी का रोना जितना हिंदी लेखकों की ओर सुनाई पड़ती है उतनी अंग्रेजी भाषा के लेखकों के बीच नहीं। यदि तिलस्म, जादू टोने वाली कथानक पर आधारित हैरी पोटर लिखी जा सकती है तो हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं। भारतीय कथा-साहित्य में वृहदकथा, पंचतंत्र, बेताल पचीसी कुछ ऐसी कथानकें हैं जिन्हें यदि आज के परिवेश की चुनौतियों, बदले हुए माहौल में पुनर्सृजित किया जाए तो उसका एक अलग प्रभाव एवं महत्व होगा। यदि छोटे बच्चों के लिए उपलब्ध कहानियों की किताब पर नजर डालें तो पाएंगे कि उसमें कहीं न कहीं पूर्वग्रह कई स्तरों पर साफतौर पर देखा जा सकता है। वह पूर्वग्रह जाति, लिंग, वर्ण आदि से जुड़ी होती हैं। जरा कल्पना कर सकते हैं कि जब बच्चों के कोमल मन में फांक पैदा किया जाएगा तब ऐसे बच्चों की युवापीढ़ी से किस तरह के व्यवहार की अपेक्षा की जा सकती है। मसलन लड़का, लड़की, ब्राम्हण, गांव, शहर के लोगों के रहन सहन से जुड़ी मान्यताओं को कहानियों में खत्म करने की बजाए उन्हें आगे की पीढ़ी में प्रेषित किया जाता है। आज भी कुछ कहानियां वही की वही हैं जिसे हमारी और उससे पहले वाली पीढ़ी भी पढ़कर जवान हुई वहीं हमारे समाने जवान हो रहे बच्चे भी उसी कहानी से रस ले रहे हैं। प्यासा कौए की कहानी, पंचतंत्र की खरगोश-कछुए की दौड़, लालची पंड़ित आदि की कहानियां आज भी पढ़ी जा रही हैं। लेकिन इन कहानियों से आज की चुनौतियों, परिवेशगत समझ, प्रतियोगी समाज में बच्चे को निर्णय लेने में मददगार नहीं हो पाते। इसी के साथ एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कहानियों के देश- काल, संस्कृति, बोली-वाणी आदि का स्वाद बच्चों को मिलता रहे। यह तभी संभव हो सकता है जब कथाकार आज के देश काल, चलन, परिवेशगत बदलाओं के बारे में कहानी के माध्यम से बच्चों को मानसिकतौर से तैयार करने की जिम्मेदारी समझे। तकनीक-प्रौद्योगिकी संयंत्रों ने जिस कदर हमारी रोजदिन की गतिविधियों को प्रभावित कर रहा है ऐसे में किसी के पास इतना समय नहीं है कि बच्चों को पर्याप्त समय दे सकें। घर पर जब अभिभावक बच्चों को समय नहीं देते। स्कूल में अध्यापक की अपनी मजबूरी है कि एक साथ चालीस पचास बच्चों की क्लास में हर बच्चे पर व्यक्तिगततौर पर ध्यान दे सके। इस तरह से बच्चों से कौन संवाद करता है? जाहिर सी बात है घर पड़ी टीवी, इंटरनेट से लैस कम्प्यूटर, वीडियो गेम्स आदि बच्चों को खालीपन मिटाने में मदद करते हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि इंटरनेटी समाज में कितनी और किस स्तर की जानकारी, साहित्य मिलती हैं और इंटरनेटी मास्टर जी की बातकही पलक झपकते बच्चों को किस खुले समाज में धकेल देती है। इस पर हमें विचार करना होगा।

रंगों में अकेलापन


कौशलेंद्र
रंगों में अकेलापन

प्रपन्नरंगों में एक अलग ही दुनिया सांस लेती है। हरेक रंग की अपनी भाषा और कहानी होती है। यहां मूक होकर भी रंग वाचाल होते हैं। हम किस रंग को ज्यादा पसंद करते हैं यह भी कहीं न कहीं हमारी अपनी मनोरचनात्मक भूगोल भी बताता है। रंगों से खेलने वाले हाथ चाहे किसी के भी हों वह प्रकारांतर से अपनी ही मनोजगत् को रंगों में उतारते रहते हंै। बच्चों को रंगों से कुछ ज्यादा ही लगाव होता है। इन विविध रंगों में कहीं अचेतन मन में दबी कुचली हमारी ख्वाहिशें सोती रहती हैं। जो सही अवसर और वातावरण पाकर बाहर निकल आते हैं। कुछ ऐसे ही सामाजिकतौर पर उपेक्षित बच्चों जिनकी सुबह और शाम रात और दिन सड़कों पर बीता करती हैं। इन बच्चों की दुनियी किन स्तरों पर आम बच्चों की दुनिया से अलग होती है इसकी झलक इनकी बनाई पेंटिंग में मिलती हैं। छोटी-छोटी अंगुलियों से बनी इन पेंटिंग्स में एक खास रंग और रेखाओं के मायने खुलते जनजर आएंगे। इन्हीं स्तरों को समझने के लिहाज से इनकी बनाई तकरीबन 50 पेंटिंग को चुना। इन पेंटिंग में बच्चों के संसार में आकार लेती स्मृतियां, वस्तुएं अपने खास अर्थ में स्थान लेती हैं। इनके घर, बच्चे, पेड़, जानवर, सूरज आदि के मायने तक अलग होते हैं। दिलचस्प बात यह है कि इनकी पेंटिंग्स में कहीं न कहीं खालीपन साफ नजर आता है। यह खालीपन दरअसल इनके परिवेश, समाजीकरण एवं लालन- पालन की ओर इशारा करती हैं। विविध प्रकार के रंगों से रची सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तौर पर तथाकथित पिछड़े बच्चों की तमाम पृष्ठभूमि की झलक मिलती है। इतना ही नहीं बल्कि इनके द्वारा चुने गए रंगों को पीछे भी इनके अपने तर्क और रंगों के विकल्प साफतौर पर दिखाई देंगे। इस विमर्श को अंजाम देने के लिए इन बच्चों से बातचीत जरूरी था। पहले इनसे रंगों की पसंदगी और चीजें को देखने की दृष्टि को समझना आवश्यक था। इनसे पहली मुलाकता में कुछ भी हा्राि नहीं लगा। बार बार इनसे संवाद स्थापित करने की कोशिश करता रहा। अंत में इनसे बातचीत मुकम्मल हो सकता। इनमें ‘सेव द चिल्डन’ के प्रदीप की मदद को नजरअंदाज नहीं कर सकता। इन्होंने बच्चों से बातचीत में एक सेतू का काम किया। वह सेतू जिस पर चल कर रंगों की इनकी दुनिया में उतरने में मदद मिल सकी। इनकी पेंटिंग्स को देखते वक्त सबसे पहला सवाल यही उठा कि इनकी रंगों की दुनिया इतना सूना क्यों है? क्या वजह है कि इनके बनाए सूरज, पेड़, पहाड़ व अन्य रोज मर्रे की चीजों अपनी रूढ़ स्वरूप में क्यों नहीं आ पाई हैं। इस सवाल का परत दर परत तब खुलता चला गया जब इनसे खुल कर इनकी पेंटिंग्स में इस्तेमाल रंगों के चुनाव में सोच पर बातचीत हुई। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े इन बच्चों की पेंटिंग्स से गुजरते वक्त सोचने पर मजबूर हुआ कि इनकी पेंटिंग में घर खाली क्यों है? इन घरों में न तो कोई झरोखा है और न कोई माकूल दरवाजे। और तो और घर में छत और छत से लटकते पंखे आदि कुछ भी नहीं हैं। वास्तव में खुल आसमान या पार्क या फिर फ्लाइओवर के नीचे जीवन बसर करने वाले बच्चों की दिमाग छत की कल्पना ही नहीं कर पाती। यदि किसी के पास घर कहलाने वाली कोई चीज है तो वह है झुग्गी। जिसे अक्सर स्थानीय पुलिस उखाड़ने पर आमादा रहती है। ऐसे में एक बंद कोठरी ही इनकी कल्पना को उजागर करती है। बगैर खिड़की, पंखे, रोशनदान एवं रसोई कोने के इस घर में बच्चों की कैसी दुनिया बनती बिगड़ती होगी, इसकी कल्पना शायद हम न कर सकें। खिलौनों के नाम पर सड़क पर पड़े पत्थर, रात में पीकर फेकी गई बाॅटलें आदि बेहद आम एवं बेकार चीजें होती हैं। ऐसे में बारह वर्षीय आरिफ़ जिसे ककहरा एवं अंग्रेजी के अल्फाबेट्स लिखने एवं पहचानने की कमाई है, की बनाई पेंटिंग ने खासकर आकर्षित किया। क्योंकि इसकी पेंटिंग में जो कहलाने के लिए घर था वह नितांत खाली था। सदस्य विहीन इस घर ने उससे जानने की ओर धकेला कि क्या वजह है कि उसके घर में कोई भी सदस्य नहीं है। पूछने पर बताया कि पापा फैक्टी गए हैं। मां कोठी में काम करने गई है। भाई-बहन पार्क में खेलने गए हैं। लेकिन वहीं दूसरी ओर सात वर्षीय विजय ने अपने खाली घर को लेकर जो जवाब दिया वह चैंकाने वाला था। उसने कहा- ‘मम्मी- पापा भगवान के पास चले गए। इसलिए घर खाली है। और पूछने पर पता चला कि दरअसल उसकी मम्मी तीन महीने पहले किसी और के साथ भाग गई। पापा दिन भर पीते रहते हैं। उसने शर्म की वजह से कहानी गढ़कर सुना दिया। गहराई से परखने के बाद यह मालूम चल सका कि इन बच्चों को रंगों, चीजों की बुनियादी समझ तक नहीं है। हो भी कैसे, जिनका घर, परिवार, आस-पड़ोस, यार-दोस्त सब सड़क पर ही रहते हैं। ऐसे में किनसे रंग और रेखाओं, चीजों की समझ की उम्मीद की जाए। लेकिन वहीं कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो अपनी कबाड़ की कमाई से कभी कभार फिल्म के जरीए या हकीकत में चीजों से रू-ब-रू होते हैं। लेकिन यह भाग्य की बात नहीं बल्कि उनकी मेहनत रंग लाती है। जिसे जितना मोटा कबाड़ मिला उसकी कमाई उसी के अनुसार हुई। इन बच्चों में पढ़ने को लेकर ललक तो है लेकिन घर परिवार की आर्थिक स्थिति इन्हें इज़ाजत नहीं देती। नेहरू प्लेस, दिल्ली का रहने वाला दस वर्षीय आलीम की मानें तो मुझे बड़ा अफ्सर बनना है वह बड़ा अफ्सर जो दफ्तर में बैठा करता है। जिसके पास गाड़ी होती है। मैंने भी गाड़ी पर चलना चाहता हूं। लेकिन कबाड़ नहीं चुनूंगा तो अब्बू मारते हैं। आलीम, प्रशांत, पूजा, अनिशा, राजकली कुछ ऐसे बच्चे हैं जो तमाम खींचतान के बावजूद पढ़ने की भूख मिटाने की जुगत में होते हैं। यही वजह है कि इन्हें अ, आ और ए बी सी, वन टू थ्री जैसी बुनियादी तालीम की रोशनी है। यदि इन्हें वक्त पर समुचित खाद पानी मिल सका तो निश्चित ही एक आम सामान्य बच्चों की पांत में बैठ सकते हैं। इनकी रंगों की दुनिया कुछ फैलाव लिए हुए हैं। इनकी समझ और कल्पना की सीमा इन्हीं के समुह के अन्य बच्चों से ज्यादा व्यापक है। इनकी पेंटिंग्स में गाड़ी, बाईक आदमी भी होता है लेकिन वह एक रूढ़ अर्थों में ही आते हैं। इनकी आंखों में फौजी बनने से लेकर डाक्टर और मास्टर बनने के सपने खलबला रहे हैं। यदि इन वंचितों की आंखों में बसे सपने को साकार नहीं कर पाते तो यह निश्चित ही तमाम विकास थोथा कहा जाएगा।

Thursday, January 20, 2011

सच को नकारने वाले

सच को नकारने वाले इक तरह से हकीकत से चेहरा नहीं मिलाना चाहते। इन लोगों को जितना भी सच बतादिया जाये लेकिन ये स्वीकार नहीं करते। दरअसल इनकी कमजोरी ही कही जायेगी जो सच को नकारते हैं। फ़र्ज़ करें आप मानते हैं की फलना बेहद प्यार करता है। और आप आंख बंद किये यही मन में बैठा लेते हैं की वो आपके है और आप सीमा पार कर जाते हैं।
जब की आज की तारीख में रिश्ते के मायने बदलते हैं।

Monday, January 10, 2011

बाल अधिकार की चिंता किसे हो

जाहिर से बात है कि बड़े तो बड़े उपक्षित होते हैं साथ ही बच्चे भी हाशिये पर दल दिए जाएँ तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं। दिल्ली में पिछले साल २०१० में बाद के ९ माह में २१६८ बच्चे लापता हो गए। वो बच्चे कहाँ गए? किसे हाल में हैं ? हैं भी या नहीं किसी को मालुम नहीं। सरकार तो यैसे ही उची सुनती है। जनता को अपने घर, नून तेल लकड़ी से फुर्सत नहीं की वो सड़क के बछो के चिंता करें।
गौरतलब है कि २०१० के अक्टूबर में इक रपोर्ट आई थी जिसमे बड़ी संजीदगी से बता गया था कि दुनिया भर के ८० मीलियन बच्चे आज भी भूख, सुरक्श, और बड़ों के हवास के शिकार होते हैं। यूँ तो भारत में हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार कानून लागु हो चुका है लेकिन सच या है कि बच्चे जो स्कूल छोड़ देते हैं वो डूबा शिक्षा से जुड़ नहीं पाते।

Saturday, January 8, 2011

जा नहीं पाया कहीं

वो जा कर भी कहाँ पहुच पाया-
उससे भी दूर जाना चाह कर भी जा न सका,
चाहता तो उसके पीछे लग जाता,
लेकिन लगा नहीं...
इक उसी में घुल गया-
बन कर धुल हवा,
लोगों ने कितना समझाया,
ज़िन्दगी लम्बी है,
सफ़र में दोस्त और भी मिल जायेंगे,
कुछ सपने बिखर भी जाये तो आखें नाम नहीं करते...
पर न वो उसका ही हो सका और न खुद का-
घर से दूर निकल जाना,
दिन भर उसके राह पर नज़र टाँगे,
बैठा ही रहता,
हर उस और से आने वाले को पकड़ कर,
पूछता कहीं मिली?

Thursday, January 6, 2011

साल तो नया आएगा

साल तो नया आएगा ,
होगी वही बाते,
दिन भी वही रात भी वही...
बॉस कैलंडर की तारीखें,
रंग बदल जायेंगे,
कुछ आदते कहीं रस्ते में रह जाएँगी...
कुछ और वायदे करेंगे खुद से,
तुम से और उनसे,
पर वह भी कैलंडर के साथ पलट जायेगे....
हाँ कुछ तो नया होगा,
कुछ दोस्त बनेंगे,
कुछ पुराने दम तोड़ देंगे....

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...