Friday, October 9, 2009

कर्म बड़ा या किस्मत

पातंजल योगदर्शन में सूत्र है योगः कर्म्शु कौशलम यानि कर्म में जो कुशल है यही योगी है। यहीं दूसरी तरफ़ गीता का इक शलोक कहता है , कर्मनेवा धिकरास्ता माँ फलेषु कदाचना यानि कर्म की प्रधानता यहाँ भी है। दुसरे शब्दों में कहें तो यह होगा की कर्म प्रधान यही जग माही। जो भी कर्म में जी चुराता है उसकी तमन्न कभी भी कैसे पुरी हो सकती है। हमारी आदत में शामिल है हम अपनी असफलता का ठीकरा भाग्य के माथे फोड़ते हैं , जबकि गौर से विचार करें तो पयांगें की हमारी अपनी सोच ही दूषित है। कर्म तो करते नही हाँ असफलता की दारोमदार सीधा भाग्य को देते हैं।
ज़रा कल्पना करें , कोई आदमी बाढ़ में फस्सा हो तो उसे आवाज़ लगाना चाहिए की कोई आएगा और उसे ख़ुद निकाल लेगा सोच कर बैठ जाना चाहिए। उत्तर साफ है अगर हाथ पावों नही मरेगा तो डूबना तै है। उसपर भाग्य को कोई कोसे तो उसे क्या कह सकते हैं। भाग्य तो हमारे कर्मों से बनता है। अपनी हाथ की लकीरें हम ख़ुद बनते हैं।
इक बार थान लेने पर कोई भी काम कठिन नही होता।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...