Tuesday, December 31, 2013

संवाद के ललित पुल


मेरे अत्यंत प्रिय लेखक कम बड़े भाई हैं ललित जी, रोज दिन नई कविताओं के सिरजनहार। यह एक चेहरा है उनका। दूसरा चेहरा क्या जानना चाहेंगे आप?
तो दिखाता हूं- वह महज कवि नहीं बल्कि आज के हनुमान भी हैं। हनुमान माफ कीजिएगा मिथ का सहारा ले रहा हूं किन्तु संभव है नारद जी की भी कभी याद आए जाए उन्हें देख कर। नारद हां जिन्हें पत्रकारिता का पहले पत्रकार के नाम से भी  जाना जाता है। ललित न केवल बिछड़े  हुए के बीच संवाद के पुल बनते हैं बल्कि साक्षात भी जा मिलते हैं।
ऐसे ही वल्लभ डोभाल हों, शेरजंग गर्ग हों, गोविंद मिश्र हों, ज्ञान चतुर्वेदी हों या अन्य कथाकार, कवि, हर विधा के कलमकार के साथ सीधी बातचीत और सौहार्दपूर्ण रिश्ती की डोर को मजबूत करने में माहिर इस नारद को और भी शक्ति दे प्रभू ताकि हमारे बीच पुराने, वृद्ध कलमकारों की बातें पढ़ने को मिलें।
नए साल पर और और उर्जा और शक्ति, मन को मनबूती दे आगे बढ़ें कि जैसे बढ़ती की हवा। कि जैसे बढ़ते हैं सृजनशील पग।

कैसे कह दूं


हज़ारों मासूमों को बेघर किया,
आंखें से शर्म टपका,
क्या कहूं कब कब रोया,
कैसे कह दूं आज कि,
सब कुछ अच्छा रहा।
स्कूल से बाहर टहलते रहे बच्चे-
गंव कलह में उजड़ता रहा,
बोलो कैसे कह दूं खूशी मनाउं,
रोती सड़कों पर घूमती घुरली,
गोद में टांगे दुधमुंही बच्ची,
देख देख आगे बढ़े
फिर बोलो कैसे कह दूं,
सब कुछ अच्छा।
प्रेम में किए कत्ल-
ख़ून रहा टपकता पल पल,
तर किया मां का आंचल,
बाबा को वनवास दिया,
फिर तुम ही बोलो कैसे कह दूं,
कुछ भी तो न हुआ।
बेरोजगार हुए अपने घर के-
चुल्हा रहा उदास,
मां की लोरी भी छीज गई,
रहा न कोई उल्लास,
फिर बोलो मेरे मन,
कैसे कह दूं,
अब कुछ है आनंद।
नए साल में नई उम्मींदे टांगी-
दो नहीं हज़ारों अंखियां,
देखें सपने मंगल की,
उन आंखों मंे,
चूल्हों में,
दाने दे,
सपनों को आकाश,
घर में मिले रोटी पानी,
कोई न जाए बिदेस।

Monday, December 23, 2013

पुरस्कार के महरूम भी लेखन


कई बड़े नाम वाले लेखकों से बात होती रही है। वो निर्मल वर्मा हों, वल्लभ डोभाल हों, शेरजंग गर्ग हों या कोई अन्य लेखक जो वास्तव में लेखन करते हैं उनकी नजर में पुरस्कार महज लेखनोत्तर एक सामाजिक स्वीकृति है इससे ज्यादा और कुछ नहीं।
बतौर शेरजंग गर्ग जी ने एक बातचीत में कहा कि पुरस्कार पाने की प्रसन्नता तब ज्यादा होती है जब आपको उसे पाने के लिए कोई जोड़ तोड़ न करना पड़।
वहीं निर्मल वर्मा ने एक बार मुझ से बातचीत में कहा था कि पुरस्कार मिलने से उत्साह मिलता है। लिखने के लिए और और प्रोत्साहन मिलता है। लेकिन पुरस्कार के लिए लेखन मैं बेहद निम्नतर मानता हूं।
वास्तव में देखा जाए तो पुरस्कार मिले और पुरस्कार के लिए कुछ प्रयास किए जाएं दोनों ही अलग बातें हैं। आज की तारीख में किस तरह से पुरस्कार लिए और दिए जाते हैं यह लेखक जगत में किसी से भी छूपा नहीं है।
दूर दराज में भी ऐसे कई लेखक हैं जो अच्छा लिख रहे हैं। लेकिन वे वो लोग हैं जिन्हें न कोई पुरस्कार मिला है और न उन्हें आप किसी बड़े मंच पर विराजमान देखते हैं। वो चुपचाप अपने काम में लगे हैं। संकोची और शर्मीले किस्म के ऐसे लेखकों को बाहर लाने की जरूरत है।
पुरस्कार किसे बुरा लगता है। हर कोई चाहता है कि इस बार का फलां पुरस्कार उन्हें मिल जाए। वो भी कंधे चैड़े कर के दिखा सकें कि देखो आखिर मुझे भी पुरस्कार मिल ही गया।
आप मुझे पुरस्कार दो और मैं आपको। यदि आपके पास मंच है तो मैं आपको उछालूंगा और आप मुझे। बहरहाल पुरस्कार मिले इसके लिए लेखन किस स्तर का होता है इसका मुआयना तो समय करेगा लेकिन आप खुद अपने लेखन के निर्णायक होते हैं।
कई ऐसे लेखक हैं जो पुरस्कार को ध्यान में रखते हुए भी लेखन करते हैं। दृष्टि फलां फलां पुरस्कार पर होती है और उसके बाद उसी के अनुरूप लेखन करते हैं। यानी पाठक या साहित्य के लिए नहीं बल्कि बाजार जैसा मांगेगा वैसा लेखन करेंगे।

Sunday, December 22, 2013

कथाकार वल्लभ डोभाल से मिलना


कथाकार ही नहीं बल्कि एक सहज और सरल व्यक्ति भी हैं। उनसे मिलकर एक पल के लिए भी नहीं लगा कि हम महज कथाकार से मिल रहे हैं, बल्कि घर के सबसे बड़े सदस्य से मिलना हो रहा है।
सवाल था क्या कहानी और उपन्यासकार के पात्र उसके हाथ की कठपुतली होते हैं?
जी बिल्कुल। कथाकार के पात्र कथाकार के हाथों नाचने वाले होते हैं। मेरा तो मानना है कि जो भी पात्र कथा में आते हैं वो कथाकार के आस-पास के लोगों के प्रतिनिधित्व करते हैं। कथाकार जैसे चाहता है वैसे ही उसके पात्र चलते हैं।
दूसरा सवाल था- क्या कहानी के पात्र का जीवन-दृष्टि कथाकार की ही दृष्टि होती है?
डोभाल जी ने कहा कि हां कथाकार का प्रतिबिंब होता है उसके पात्र। कथाकार जिस तरह का जीवन जीता है उसकी छवियां पात्रों में कहीं न कहीं दिखाई देती हैं।
छंद में जिसने आपने आप को साधा है वहीं छंद मुक्त कविता लिख सकता है। इसमें आप क्या कहते हैं?
बिल्कुल सही बात है। मैंने भी शुरू में छंदबद्ध कविताएं लिखी हैं। बाद मैंने कविता का क्षेत्र छोड़कर कहानी में आ गया। क्योंकि कविताएं वास्तव में पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए पूरे नहीं होते। इसलिए मैंने कविता से नाता तोड़कर कहानी दामन थामा।
प्रस्तुति
कौशलेंद्र प्रपन्न
रविवार दिसम्बर 22, 2013

Monday, December 9, 2013

खाद्य सुरक्षा अधिनियम और बिलबिलाता बचपन


-कौशलेंद्र प्रपन्न
 समस्त दुनिया के भूगोल से हजारों नहीं बल्कि लाखों बच्चे नदारत हो जाते हैं उसपर तुर्रा यह कि हमारे विकसित समाज के अग्रदूत बच्चे हमारे सुनहले कल के भविष्य हैं। हमने वैश्विक स्तर पर घोषणाएं की कि हम आने वाले वर्षों में बच्चों की सुरक्षा, शिक्षा, विकास और स्वास्थ्य की न केवल देखरेख करेंगे, बल्कि अपने देश में उन्हें बुनियादी हक के तौर पर सांवैधानिक अधिकार भी दिलाएंगे। याद हो कि सार्वभौम मानव अधिकार घोषणा हो या कि 1989 में आयोजित संयुक्त राष्ट बाल अधिकार सम्मेलन की घोषणा जिसे यूएनसीआरसी89 के नाम से जाना जाता है, उसमें तो हमने ख़ासकर बच्चों की स्थिति को ध्यान में रखा था। लेकिन वास्तविकता क्या है यह आज किसी से छुपा नहीं है। ज़रा देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों खासकर रेडलाइट्स पर नजर डालें तो गंदी मैली-कुचैली बालों, गेंदरा ओढ़े हजारों लड़के/लड़कियां मिलेंगी जो किसी स्कूल में नहीं जातीं। किसी भी किस्म की सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें नहीं मिलता। उस पर दुखद बात तो यह है कि सरकार एवं प्रशासन अपने शहर को साफ स्वच्छ और विकास यहां दिखता है के चक्कर में उन्हें कई बार सीमा पर अंधेरे में धकेल चुकी है। याद करें काॅमन वेल्थ गेम्स के दौरान न केवल बड़ों को बल्कि बच्चों को भी शहर के बाहर रातों रात खदेड़ा गया था। उनके पुनर्वास, रहने, खाने-पीने का इंतजाम सरकार की जिम्मेदारी थी। उनकी संख्या, आबादी को लेकर सरकार को फिक्रमंद होना था। लेकिन स्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। वो जिन्हें शहर से बाहर हांक दिए गए वो कहां हैं? किन हालात में जीवन बसर कर रहे हैं आदि सवाल सरकार के आंकड़ों के भूगोल से नदारत हैं। बच्चों की चिंता से चिंतातुर सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून 2009 पारित किया और उसे 2010 में लागू भी कर चुकी है। आरटीई के लागू होने के तकरीबन तीन साल बाद भी स्थितियां कोई खास बदली नजर नहीं आतीं। सरकार खुद स्वीकारती है कि अभी भी अस्सी लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जबकि अन्य आधिकारिक रिपोर्ट बताती हैं कि ऐसे बच्चों की संख्या जो स्कूल नहीं जाते तकरीबन सात कारोड़ से भी ज्यादा है। यदि खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 की घोषणाओं और उसकी पंक्तियों पर नजर डालें तो एक तस्वीर साफ उभरती है कि जो बच्चे स्कूल जाते हैं उन्हें ही भोजन का अधिकार प्राप्त है। वो भी साफ लिखा हुआ है कि अवकाश के दिनों को छोड़कर, सरकारी, सरकारी मान्यता प्राप्त सभी स्कूलों में दोपहर का भोजन बच्चों को मुहैया कराया जाएगा। बतौर अधिनियम के धारा 5.1 के खंड़ क के अनुसार ‘छह मास से छह वर्ष के आयु समूह के बालकों की दशा में स्थानीय आंगनवाडी के माध्यम से आयु के समुचित निःशुल्क भोजन, जिससे अनुसूची 2 में विनिर्दिष्ट पोषाहार के मानकों को पूरा किया जाए सकेगा-
कक्षा 8 तक के अथवा छह से चैदह वर्ष के आयु समूह के बीच के बालकों की दशा में इनमें से जो भी लागू होता हो, स्थानीय निकायों, सरकार द्वारा चलाए जा रहे सभी विद्यालयों में और सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों में, विद्यालय अवकाश दिनों को छोड़कर, प्रत्येक दिन निःशुल्क एक बार दोपहर का भोजन पूरा किया जाएगा।’ इन पंक्तियों के क्या निहितार्थ हैं और इससे कैसे बच्चे लाभान्वित होंगे आदि विमर्श आगे करेंगे यहां बस प्रथम दृष्ट्या दिया गया है। अब जो मजेदार बात सामने आती है वो यह कि सरकार के अनुसार अस्सी लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं, तो वे अस्सी लाख बच्चे दोपहर के भोजन से तो महरूम ही हुए।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 की प्रस्तावना पर नजर डालें तो सरकार की सद्इच्छा स्पष्ट दिखाई देती है। अपने प्रस्तावना में अंतराष्टीय मानव अधिकार की घोषणा 1949 की पंक्तियां उद्धृत की गई हैं जिसमें कहा गया है कि हरेक नागरिक को पर्याप्त भोजन पाने का अधिकार है। भोजन पाने का अधिकार से मतलब सिर्फ चावल और गेंहू नहीं। बल्कि पका हुआ भोजन है। साथ ही भारतीय संविधान के प्रावधानों को भी साईट किया गया है मसलन अनुच्छेद 21 जिसमें हर व्यक्ति को इज्जत से जीने का अधिकार भी प्राप्त है। अनुच्छेद 39 ए, राज्य अपनी जिम्मेदारी समझते हुए स्त्री-पुरूष सभी को जीविका के पर्याप्त साधनों को देखते हुए चलें। वहीं अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य के सभी काम करने की मानवीय स्थितियों और मातृत्व राहत की व्यवस्था करें। साथ ही अनुच्छेद 47 को भी प्रस्तावना में जगह दी गई है जिसमें कहा गया है कि सभी के पोषण और रहन- सहन के स्तर को उंचा उठाना एवं लोगों के स्वास्थ्य में सुधार लाना भी राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। यहां पूरे अधिनियम पर विमर्श अभिष्ट नहीं। बल्कि इस खाद्य सुरक्षा अधिनियम में बच्चों को लेकर क्या प्रावधान है, सरकार किस तरह लाखों बच्चों को कुपोषण से निजात दिलाने के प्रति वचनबद्ध है आदि को केंद्र में रख कर पड़ताल करना है।
हाल ही में ग्लोबल हंगर इंडेक्स जीएचआई की रपट जारी हुई है। इस रिपोर्ट की रोशनी में भारत में 210 मिलियन नागरिक भूखे की श्रेणी में आते हैं। भारतीय नागरिकों, बच्चों एवं इस खाद्य अधिनियम को देखने की आवश्यकता है इससे जो तस्वीर हमारे समाने उभरती है वह कुछ और ही है। जीएचआर रिपोर्ट के अनुसार भारत में कम पोषाहार भोजन पाने वालों की संख्या 2010-12 में 17.5 फीसदी है। बच्चों के लिहाज से देखें तो कम वजन वाले पांच साल से नीचे के बच्चों की संख्या 40.2 फीसदी है। पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की मृत्यु दर की बात करें तो वह भारत में 6.1 फीसदी है। कुछ और भी तथ्यों पर नजर डालने की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि इससे भारत में बसने वाले बच्चों की संख्या एवं उनकी स्थितियों को बेहतर समझा जा सके। भारत जैसे देश में 6 साल के अंदर के बच्चे पूरी आबादी में से सबसे ज्यादा खतरे के घेरे में आते हैं। छोटे बच्चे खासकर 6 साल से कम उम्र के बच्चों की बात करें तो उन्हें प्राकृतिक मार सहना पड़ता है। अत्यधिक बाल मृत्यु दर और कुपोषण की मार भी बच्चों को ही सहना पड़ता है। भारत में 0-6 आयु वर्ग के बच्चों की संख्या तकरीबन 158.8 मिलियन है। कुपोषण से मरने वालों की संख्या 50 फीसदी से भी अधिक है। 8.3 मिलियन बच्चे औसतन जन्म के समय कम वजन के पैदा होते हैं यानी जिनका वजन 2.500 ग्राम से भी कम होता है। तकरीबन 46 फीसदी बच्चे जिनका उम्र 3 साल से कम होता है ऐसे बच्चों की संख्या 31 मिलियन के आस-पास है। हर दस बच्चों में से 8 बच्चे जिनकी आयु 6-35 माह की है वो एनेमिया के शिकार हैं। ‘‘ बच्चों के जीवन की शुरू के 6-8 साल बेहद गंभीर क्षण होते हैं। यह वैश्विक स्तर पर पहचाना गया कि जीवनपर्यंत चलने वाली विकास की प्रक्रिया की बुनियाद के साथ ही इन सालों में विकास की गति बेहद तेज होती है।’’ ;एनसीइआरटी,2006द्ध न्यूरो साइंटिस्ट की मानें तो बच्चों के दिमाग का अहम हिस्सों का तकरीबन 85 फीसदी विकास एवं निर्माण इन सालों में होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें बच्चांे के दिमाग का समुचित एवं भरपूर विकास एवं निर्माण हो सके इसके लिए शारीरिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां उपलब्ध करानी चाहिए ताकि दिमाग का विकास अपनी पूरी क्षमता के साथ हो सके। ;एनसीइआरटी,2006 एवं वल्र्ड बैंक, 2004द्ध
सेव द चिल्डेन की हालिया रिपोर्ट भारत की कुछ दूसरी ही किन्तु महत्वपूर्ण तस्वीर पेश करती है, इस रिपोर्ट के अनुसार भारत वर्ष में 1990 के बाद बाल मृत्यु दर को कम करने में सबसे अधिक प्रगति करने वाले शीर्ष 10 देशों में शामिल है। बाल मृत्यु दर पर आधारित संस्था की इस रिपोर्ट के अनुसार लाइबेरिया, रवांडा, इंडोनेशिया, मैडागास्कर, भारत, मिस्र, तंजानिया और मोजाम्बिका जैसे देशों का भी बीते दो दशक में प्रदर्शन बेहतर रहा है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर कम करने में भारत ने लगातार प्रगति की है। वर्ष 2001 में जहां 25 लाख बच्चों की मौत हुई थी वहीं 2012 मंें यह संख्या घटकर 15 लाख हो गई। जबकि गौरतलब है कि वर्ष 2012 मंे ही 81 जिले ऐसे थे जहां बाल मृत्यु दर एक तिहाई से अधिक रही और इनमें से आधी लड़कियां थीं।
बहरहाल खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अनुसार देश के तमाम नागरिकों जिसमें बच्चे भी शामिल हैं, उन्हें भोजन मुहैया कराने की जिम्मेदारी केंद्र व राज्य सरकार की है। ध्यान हो कि यूएनसीआरसी89 जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है, उस घोषणा पत्र पर भारत ने भी दस्तखत किए थे। इस लिहाज से भारत प्रतिबद्ध है कि वो अपने देश में 0-14 साल तक के सभी बच्चों को भोजन,सुरक्षा, शिक्षा, विकास एवं सहभागिता का अधिकार प्रदान करे। इसी के साथ ही 1990 में सेनेगल में भी भारत विश्व के अन्य देशों के साथ दस्तखत करने वाला देश है, जिसमे तय किया गया था कि 2000 तक सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान कर दी जाएगी। लेकिन स्थितियां कोई खास सुधरी नहीं दिखीं सो 2000 में डकार में एक बार फिर वचनबद्धता दुहराई गई कि 2015 तक यह लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाएगा। किन्तु हकीकतन ऐसा नहीं हुआ। लेकिन भारत सरकार ने तकरीबन सौ साल के लंबे संघर्ष के बाद ज्योति बा फुले की पहली आवाज कि हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार मिले, को 2002 में भारतीय संविधान में 86 वां संशोधन कर के धार 21 में ए जोड़ कर मूल अधिकार प्रदान किया। जिसे 2009 में हर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त हुआ। इस आरटीई की चर्चा इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि इसमें ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’ 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को ही शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देती है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम भी इसी को आधार बना कर देश के हर बच्चे को ‘0 से 14 वर्ष आयु वर्ग’ भोजन का अधिकार प्रदान करती है। यूं आरटीई में 0से 6 आयु वर्ग को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन खाद्य सुरक्षा अधिनियम में 0से 6 आयु वर्ग के बच्चों के लिए आंगनवाडी जैसी संस्थाओं के जरिए भोजन पहुंचाने की सुविधा प्रदान करती है।
0 से 6 आयु वर्ग के बच्चों के लिए कितना विटामिन युक्त भोजन चाहिए और 6से 14 साल तक के बच्चों के लिए कितना इसका पूरा खाका इस अधिनियम में दिया गया है। बतौर अधिनियम- देश के सभी दरिद्रतम व्यक्तियों, स्त्रियों और बच्चों को दोनों टाईम मुफ्त पका पकाया भोजन दिया जाएगा। लेकिन ऐसे देश में जहां मिड डे मील का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है वहां दरिद्र के लिए भोजन कौन और कैसे पकाएगा यह एक बड़ा सवाल है। मिड डे मील के झोल को सभी जानते हैं। केंद्र से लेकर राज्यों मंे स्कूलों में जिस तरह के विषाक्त भोजन खाकर बच्चे मौत के घाट उतर रहे हैं तो क्या ऐसे में सभी बच्चों को पौष्टिक भोजन मिल पाएगा? खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अध्याय 2 में खाद्य सुरक्षा के लिए उपबंध के अंतर्गत बालकों को पोषणीय सहायता एवं बालक कुपोषण का निवारण और प्रबंधन खंड़ जोड़े गए हैं। बच्चों को मिलने वाले भोजन के पोषण मानक पर नजर डालना अप्रासंगिक नहीं होगा-
पोषण मानकः छह मास से तीन वर्ष के आयु समूह, तीन से छह वर्ष के आयु समूह के बालकों और गर्भवती स्त्रियों और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए पोषण मानक। उपलब्ध कराके या एकीकृत बाल विकास सेवा स्कीम के अनुसार पोषक गर्म पका हुआ भोजन या खाने के लिए तैयार भोजन उपलब्ध कराके पूरे किए जाने अपेक्षित हैं।
क्रम संख्या प्रवर्ग भोजन का प्रकार कैलोरी किलो.कैलोरी प्रोटीन ग्राम
1 बलक ‘6 माह से 3 वर्ष घर ले जाने वाला राशन 500 12-15
2 बालक ‘ 3 से 6 वर्ष’ स्ुबह का नाश्ता और गर्म पका हुआ भोजन 500 12-15
3 बालक 6 मास से 6 वर्ष तक के जो कुपोषित हैं घर ले जाने वाला राशन 800 20-25
4 निम्न प्राथमिक कक्षाएं गर्म पका हुआ भोजन 450 12
5 उच्च प्राथमि कक्षाएं गर्म पका हुआ भोजन 700 20

सरकार इस मानक के जरिए सभी बच्चों को पका हुआ भोजन मुहैया कराने की घोषणा करती है। गौरतलब बात यह है कि उद्देश्यों और कारणो का कथन के क्रम संख्या 7 के ‘घ’ में लिखा गया है कि चैदह वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बालक को 1. छह मास से छह वर्ष की आयु समूह के बालकों की दशा मंे स्थानीय आंगनवाडी के माध्यम से निःशुल्क आयु के अनुसार भोजन उपलब्ध कराने की अपेक्षा जिससे अनुसूची 2 में विनिर्दिष्ट पोषण संबंधी मानकों को पूरा किया जा सके, और 2. कक्षा  8 तक के या छह वर्ष से चैदह वर्ष की आयु समूह के बालकों की दशा में, स्थानीय निकायों या सरकार द्वारा चलाए जा रहे और सरकार से सहायता प्राप्त सभी विद्यालयों में विद्यालय अवकाशों को छोड़कर, प्रत्येक दिन एक बार निःशुल्क दोपहर के भोजन का हकदार बनाना, जिसमें अनुसूची 2 में विनिर्दिष्ट पोषण संबंधी मानकों को पूरा किया जा सके।
अब हमें उस ओर भी विमर्श करने की आवश्यकता है जहां सरकारी दस्तावेज जवाबदेह हैं कि सभी बच्चों को भोजन दिया जाएगा। लेकिन हमने देखा कि सरकार व सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ही वो भी अवकाश के दिन छोड़ कर भोजन मुहैया कराई जाएगी। अब प्रश्न है कि सरकारी स्कूल साल में कितने दिन खुले होते हैं। दिल्ली के दरियागंज स्थित एचएमडीएवी स्कूल के प्रधानाचार्य श्री रमा कान्त तिवारी ने बताया कि  पिछले साल 212 दिन स्कूल खुले थे वहीं इस साल 210 दिन स्कूल खुलेंगे। बतौर तिवारी  6से 8 वीं कक्षा तक के सभी बच्चों को दोपहर का भोजन मिलता है साथ ही आयरन की गोलियां भी मिलती हैं। दिल्ली के अन्य इलाकों के स्कूलों की भी तकरीबन यही स्थिति है। मगर दिल्ली से बाहर अन्य राज्यांे में मिड डे मील की क्या स्थिति है इसे पूरा देश देखता-सहता रहा है। अब प्रश्न उठता है जो बच्चे स्कूल से बाहर है जिनकी संख्या सरकारी घोषणा के अनुसार 80 लाख है, उन्हें क्या यह लाभ मिल पाएगा? स्कूल से बाहर जीवन बसर करने वाले सड़कों, पार्क, प्लाइ ओवर के आस-पास रहने वाले बच्चे यानी भोजन ग्रहण करने से महरूम ही होंगे। लगभग 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे देश भर में बजबजाती जिंदगी बसर कर रहे हैं। उन्हें दोपहर तो क्या कई कई दिन भूखे पेट सोना पड़ता है। ऐसे बच्चों की चिंता कौन करेगा।
यूएनसीआरसी 89 के अनुसार सभी बच्चों को सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास और सहभागिता का अधिकार मिला हुआ है। भारत ने भी इस घोषणा पत्र पर दस्तखत किया था। इस वचनबद्धता के अनुसार सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि जो बच्चे स्कूल नहीं जाते उन्हें स्कूल में दाखिल कराना, उन्हें बुनियादी शिक्षा यानी कक्षा 8 वीं तक शिक्षा मुहैया कराना है। इसी कड़ी में आरटीई, जुबिनाइल जस्टिस एक्ट, राष्टीय बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग आदि को देखने-समझने की आवश्यकता है। एक ओर इन समितियों की सिफारिशें हर बच्चों की सुरक्षा और संरक्षण के साथ ही भोजनादि के अधिकार पर कार्य करता है। आवश्यकता है जिन घोषणा प्रपत्रों पर दस्तखत किए हैं उन्हें अमलीजामा पहनाया जाए।



Friday, December 6, 2013

वो जो कस्बा था



कौशलेंद्र प्रपन्न
 एक ओर सोन और दूसरी ओर नहर। दोनों के बीच में बलखाता कस्बा। तकरीबन तीन ओर नदी और बीच में बसा कस्बा ही था। पड़ोस में चिपनियां थीं जो कागज़, साबुन, डालडा सीमेंट बनाती थीं। जब इस कस्बे का पड़ोसी शहर जवान था यानी डालमियानगर में रौकनें थीं, सड़कें, अस्पतालें, स्कूल आदि थे। साथ ही लोगबाग भी ठीक ठाक ही थे। अस्सी के दशक में कस्बे का पड़ोसी धीरे-धीरे मरने लगा। मरने लगे लोग। उजड़ने लगीं रौनकें। क्योंकि अब डालमियानगर कारखाना की माली हालत खराब होने लगी थी। शुरू में आंशिक और फिर माह, माह से साल हो गए कारखाना बंद हो गया। लोगों में बेचैनी बढ़ने लगीं। कुछ लोग जो दूरगामी दृष्टि रखते थे वो लोग शहर छोड़कर रोजी की तलाश में बाहर चले गए। धीरे-धीरे इस कारखाने में काम करने वाले द्वितीय और तृतीय के साथ चैथी श्रेणी के कामगर जिनके लिए शहर छोड़ना मुश्किल था वो इसी शहर और पड़ोसी कस्बे में दूसरे काम करने पर मजबूर हो गए। किसी के परिवार सब्जी की रेड़ी लगाने लगी तो किसी ने छोटी मोटी दुकानें डाल लीं तो कुछ जो मास्टरी के कौशल रखते थे, उन्होंने टीचिंग शुरू कर दी।
पड़ोस का शहर अब वीरान हो चुका है। वो सड़कें, वो अस्पतालें, मंदिर, बैंक सब के सब अपनी अतीत की दास्तां बयां करती हैं। डालमियानगर से सटा कस्बा डेहरी आॅन सोन जो पहले कह चुका हूं। यह कस्बा दरअसल अपने पड़ोसी की वजह से गुलजार था। यूं तो इस कस्बे का नाम अंग्रेजों ने इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए ही रखा डेहरी आॅन सोन। ठीक ही तो है यह डेहरी, सोन नदी के तट पर बसा है। वही शोण भद्र जो मध्य प्रदेश के अमरकंटक पहाड़ से निकल कर बिहार के विभिन्न शहरों को पार करता पटना में गंगा में समाहित हो जाता है। सोनभद्र की कहानी भी दिलचस्प है। यह देश के चार नदों में से एक है। यह नदी नहीं है। दूसरा इसे ब्रह्मा का अभिशाप मिला हुआ है। दूसरी मजे की बात यह कि इसी सोन भद्र के किनारे डेहरी में कभी शरद्चंद ने ठहर कर अपना उपन्यास भी लिखा। इसका जिक्र विष्णु प्रभाकर अपने आवारा मसीहा में करते हैं।
बहरहाल कारखाने के बंद होने से इस कस्बे पर भी ग्रहण लगना शुरू हुआ। जिस कस्बे की गति, रौनक अपने पड़ोसी से थी वो कारखाने के बंद होने के बाद ठहर सी गई। जब डालमियानगर चालू हालत में था तब दिल्ली-कोलकाता लाइन पर चलने वाली डिलक्स अब पूर्वा एक्सप्रेस डेहरी रूका करती थी। जो सीधे-सीधे देश की राजधानी से जुड़ती थी। इधर कारखाना बंद हुआ उधर आस-पास के गांव के लोग इस कस्बे में विस्थापित होने लगे और इस कस्बे के लोग अपनी सुविधा और सामथ्र्य के अनुसार कस्बे को छोड़ने लगे। कभी इस कस्बे की आबादी तकरीबन दो या चार लाख हुआ करती थी। अब उसी कस्बे की आबादी तकरीबन 13 लाख का आकड़ा पार कर चुकी है। लेकिन दुकान, व्यापार और कमाई का कोई व्यावसायिक नियमित स्रोत नहीं है। कैसे यह कस्बा चल रहा है कई बार सोच कर ताज्जुब होता है। लेकिन जहां पहले बाइक, कारें बेहद कम हुआ करती थीं। सड़कों पर मोटर साइकिल गुजरने पर सब की नजरें उस ओर होती थीं। यदि चाहें तो पैदल इस कस्बे का एक चक्कर आप दो से तीन घंटे में काट सकते हैं। लेकिन अब यह चैहद्दी चैड़ी हो चुकी है। लोग सोन की ओर मकान बनाने लगे हैं। जो खुलापन इस शहर को प्रकृति ने दिया था वह अब लोगों के रहने की ललक और प्रोपर्टी सेल के जाल में फसता जा रहा है। इसकी प्राकृतिक छटा अब ज्यादा दिन मुक्त नहीं रह सकती। उस शहर को तब देखा था और अब देखता हूं तो लगता है क्या कोई कस्बा ऐसे भी शहर बनता है? जहां की अपनी पहचान बिकने लगे। जहां के लोग भी दूसरे महानगरों के मानींद अपना मिज़ाज बदल रहे हों तो उस कस्बे को, उसके पुराने लोगों को जी करता है पूछा जाए अपने कस्बे को उसी रूप में ही रहने दो ना। पर क्या यह व्यावहारिक है? उचित है?
भूमंड़लीकरण और आधुनिक माॅल के युग में उनसे इस तरह की चाक- चिक्य से दूर रहना का दुराग्रह कितना जायज है? उन्हें भी हक है कि वो भी अपने कस्बे में नामी गिरामी फास्ट फुड  का लुत्फ उठाएं। माॅल में शाॅपिंग करें और महानगरीय संवेदनशून्यता का जामा ओढ़ लें।
कौशलेंद्र प्रपन्न

Tuesday, November 26, 2013

शिक्षक के कंधे पर बहुभूमिका का जुआ


-कौशलेंद्र प्रपन्न
 सो शिक्षक/शिक्षिका के कंधे पर बहुभूमिका का जुआ रहता है। शिक्षक पर यह जिम्मेदारी समाज ने बहुत सोच- समझ और तैयारी के साथ डाली है। सिविल सोसायटी अपने बच्चों के भविष्य का दारोमदार एक जिम्मेदार और अध्ययन-अध्यापन की रोटी खाने और जीवन दान दे चुके, शिक्षक वर्ग को अपने बच्चों को सौंप कर खुद को मुक्त महसूस करता है। अपने लाडले व लाडली को सात आठ घंटे ही महज नहीं प्रदान करता, बल्कि पूरी जिंदगी की तैयारी के लिए विश्वासपात्र के हाथों देकर आश्वस्त हो जाता है। और यह प्रक्रिया प्राचीन भी है। जब गुरूकुल में राजघराने के बच्चे हों या आम जनता के बच्चे सभी एक ही गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण किया करते थे। एक गुरू अपनी पूरी निष्ठा, ईमानदारी और ज्ञान-संपदा छात्रों को सौंपा करता था। यह अगल बात है कि उसी इतिहास में गुरू द्रोण भी मिलते हैं। लेकिन सैंद्धांतिकतौर पर शिक्षक व गुरू से निरपेक्षभाव की उम्मींद ही की जाती है। वह निरपेक्ष भाव दूसरे शब्दों में कहें तो धर्म,जाति, भाषा, बोली, वर्ग,रंग-रूप तमाम कोटियां शामिल हो जाती हैं जिसकी चर्चा और सांवैधानिक शब्दों में कहें तो मौलिक अधिकार में शामिल, किसी भी नागरिक बच्चे भी शामिल हैं, के साथ उक्त आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, की उम्मींद और अपेक्षा शिक्षक वर्ग से भी की जाती है। काफी हद तक शिक्षक इस निकष पर खरे भी उतरते हैं। लेकिन अब के टीचर गुरू व शिक्षक जो पुराने वाले थे, उन्हें छोड़ दें तो थोड़ी निराशा होती है। समय समय पर अध्यापन वर्ग से जुड़े शिक्षक समुदाय से जिस तरह की खबरें आयी हैं वह एक नए विमर्श की मांग करती है। मसलन शिक्षकों द्वारा बच्चों/बच्चियों का शारीरिक, मानसिक शोषण व बलात्कार आदि। इससे पूरे शिक्षक समुदाय पर सवालिया निशान लग जाता है। यदि स्कूल के प्रांगण से ऐसी खबरें आती हैं तो यह कहीं न कहीं शिक्षा-शिक्षण-प्रशिक्षण की प्रक्रिया पर भी सवाल उठता है। क्या शिक्षक-प्रशिक्षण के दौरान गुणवत्तापूर्ण तालीम नवप्रशिक्षु को शिक्षा दी जाती है? क्या शिक्षा-दर्शन और शिक्षा-मनोविज्ञान एवं शिक्षा का समाज-शास्त्र उन्हें इसी तरह की शिक्षा-दीक्षा देती है जिसे स्कूल में आते ही अमूमन शिक्षककर्मी भूल जाते हैं या ताख पर रख कर अपनी शिक्षण विधि इजाद कर लेते हैं?
बहरहाल सवाल और जिज्ञाया से लगातार और रोजदिन जुझने वाले शिक्षकों को विचार तो करना ही होगा कि क्या वास्तव में वे अपनी पूरी निष्ठा और ज्ञान-संपदा बच्चों को प्रदान कर पा रहे हैं। इस तथ्य और सच्चाई से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि अध्यापक की छवि बच्चों के साथ ताउम्र रहती है। कहना चाहिए न केवल रहती है, बल्कि कई अध्यापक बच्चों के लिए जीवन के मूल्य बन जाते हैं। जहां जाते हैं उनके साथ उनका अध्यापक साथ होता है। इसलिए भी अध्यापक की हर गतिविधि चलना, बोलना, लिखना, पढ़ना आदि बच्चों पर गहरे प्रभाव छोड़ते हैं। ऐसे में अध्यापक को सावधानी तो बरतनी ही पड़ेगी। वरना उसकी एक गलती आने वाली पौध को बरबाद होने से नहीं बचा सकती।
बच्चों के जीवन को जितना अध्यापक प्रभावित करता है उतना शायद समाज का दूसरा घटक नहीं। यूं तो आज की तारीख में समाज में नई नई तकनीकें आ गई हैं। ई-माध्यमों के आ जाने से एकबारगी आशंका जताई जा रही है कि अध्यापकों की भूमिका खत्म हो जाएगी। किन्तु वास्तविकता ऐसा नहीं है। तमाम तकनीक आएं आ जाएं बेशक, किन्तु अध्यापक की जगह कोई मशीनी तत्व नहीं ले सकता। अध्यापक न केवल टेक्स्ट का वाचक है, बल्कि उसके साथ उसकी मुद्राएं, भावभंगिमाएं भी तो हैं जो तकनीक के बूते की बात नहीं। वाचन से लेकर लेखन, पठन तक की ऐसी प्रक्रिया हैं जिसमें तकनीक की घुसपैठ ज़रा मुश्किल है। यही वजह है कि कक्षा में और कक्षा के बाहर भी अध्यापक अपनी पूरी उपस्थिति दर्ज कराता है। यही वजह है कि शिक्षक की भूमिका और उपस्थिति कभी खत्म नहीं होने वाली। तब तो शिक्षक का काम और भी चुनौतिपूर्ण हो जाता है। यदि कोई बच्चा गलत रास्ते पर जाता है या समाज में असामाजिक गतिविधियों में शामिल पाया जाता है तब भी प्रकारांतर से सवाल यही उठता है कि अध्यापक ने यही तालीम दी? यानी अध्यापक केवल कक्षा में पढ़ा कर अपनी भूमिका से हाथ नहीं झाड़ सकता। बल्कि उसका साथ परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही स्तरों पर बच्चों के साथ रहता है। यहां एक दोषारोपण का खेल भी खूब चलता है। वह यह कि अध्यापक ही सब कुछ करे तो अभिभावक क्या करेंगे? अध्यापक पढ़ाए कि उसकी पोटी भी साफ करे, नहलाए धुलाए और संस्कारित भी करे? क्या क्या करे अध्यापक? एक अध्यापक कक्षा भी पढ़ाए, स्कूल के अन्य काम भी करे, दफ्तरी काम भी निपटाए और बीच बीच में सरकारी कामों में भी ड्यूटी दे। सही है कि सरकारी ड्यूटी जिसे इंकार नहीं कर सकते। मसलन जनगणना, चुनाव, आपातकालीन स्थितियां आदि, लेकिन सरकारी रिपोर्ट ‘डाईस’ बताती हैं कि कुल पूरे साल में 16,18 व 20 दिन ही अध्यापकों को गैरशैक्षणिक कामों में लगाया जाता है।
जब हम अध्यापकीय भूमिका पर विहंगम दृष्टि डालते हैं तब तस्वीर और भी साफ होती है। एक अध्यापक की बहुआयामी भूमिका होती है। वह एक सामाजिक होने के नाते बच्चों को एक सामान्य और जिम्मेदार नागरिक बनाने में अपना सहयोग दे। शिक्षित होने के नाते बच्चे को न केवल साक्षर बनाए बल्कि शिक्षित भी करे। शिक्षा किस प्रकार जीवन को बेहतर बनाती है और कैसे जीवन की मुश्किलों में चुनौतियों का सामना करे इसकी के भी औजार प्रदान करे। इससे भी बढ़कर जो भूमिका है वह यह कि एक मुकम्मल इंसान बनने में अध्यापक अपनी भूमिका से किसी भी किस्म की कोताही न करे। क्योंकि एक बेहतर इंसान बनाना शिक्षा की जिम्मेदारी तो है ही साथ ही उद्देश्य भी। इस उद्देश्य को अमली जामा पहनाने में शिक्षक ही उपयुक्त माध्यम हो सकता है। शिक्षा,बच्चे और शिक्षक की त्रिआयामी मिश्रण में समुचित तालमेल और सामंजस्य ही समाज को एक बेहतर नागरिक प्रदान कर सकता है। इस दृष्टि से अध्यापक के इर्द- गिर्द सारा का सारा समीकरण बनता और बिगड़ता है।
यूं तो हर मनुष्य को संवदेनशील होना ही चाहिए। यह अलग बात है कि जिस तेजी से हम आधुनिक होते जा रहे हैं। हम तकनीक से लैस हो रहे हैं नागर हुए है उसी रफ्तार से हमारे अंदर का मनुष्य सूखता जा रहा है। इसकी बानगी समय समय पर देखने को मिलती हैं। कोई सड़क पर तड़प कर जान दे देता है, लेकिन हम उसे बचाने के लिए नहीं रूकते। और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। जिसे देख सुन कर यही लगता है कि समाज में मनुष्य वो भी संवेदनशील मनुष्य की कमी होती जा रही है। बच्चा एक वयस्क का छोटा रूप होता है। स्कूल में जो भी बच्चा आता है वह स्कूल में न केवल शिक्षा-वर्णमाला रटने नहीं आता और न ही केवल नौकरी पाने की तैयारी के लिए आता है, बल्कि वह अपने सर्वांगीण विकास का सपना भी ले कर आता है। इस सर्वांगींण विकास में एक संवेदनशील मनुष्य बनने की जिज्ञासा भी शामिल है। इस लिहाज से शिक्षक को प्रथमतः एक संवेदनशील मनुष्य तो होना ही चाहिए ताकि वह इस गुण व प्रकृति को बेहतर तरीके से बच्चों में संक्रमित करें।
एक अध्यापक केवल आदेश और निर्देश देने का घटक नहीं है। और न वह महज पाठ्य पुस्तकों का वाचक ही है। बल्कि अध्यापक को कक्षा और कक्षा के बाहर भी संवाद की संभावनाएं खुली रखनी चाहिए। जे कृष्ण मूर्ति अकसर संवाद पर ध्यान दिया करते थे। उनका तो यहां तक कहना था कि प्रकृति हमसे हर वक्त संवाद करती है। वही दर्शन उन्होंने शिक्षा में आजमाया और वकालत की कि कक्षा में संवाद होना चाहिए। संवाद का अर्थ शोर नहीं है। बल्कि एक सार्थक संवाद में शिक्षक और बच्चे दोनों सहभागी हों। जहां संवाद होता है वहां सच्चे मायने में सकारात्मक सोच और सृजनशीलता के द्वार खुलते हैं। एक अध्यापक को संवाद के लिए बच्चों को उकसाना भी चाहिए। क्योंकि बच्चों में यदि संवाद की क्षमता व कौशल का विकास नहीं होगा तो वह सिर्फ निर्देश लेने और देने की भूमिका तक ही सिमटकर रह जाएंगे।
अभिभावक से अर्थ बच्चे के नाते रिश्तेदार ही नहीं होते। बल्कि समाज का वह हर वर्ग बच्चे का अभिभावक है जिसकी मदद से एक मुकम्मल नागरिक का निर्माण संभव है। इस दृष्टि से अध्यापक तो बच्चों के खासे करीब होता है। स्कूल के प्रांगण से लेकर घर के आंगन तक अध्यापक परोक्ष-अपरोक्ष रूप से उपस्थित रहता है। जिस तरह से अध्यापक अपने बच्चे को देखता-रखता है उससे ज़रा भी कम दूसरे के बच्चों को नहीं रखना चाहिए। क्योंकि अध्यापक पर ऐसे में दोहरी जिम्मेदारी हो जाती है। समाज उनको इस भरोसे अपनी पौध को देता है कि आप ही समर्थ और सक्षम व्यक्ति हैं जो हमारे बच्चे को बेहतर जिंदगी और भविष्य दे सकते हैं। लेकिन यह अलग विमर्श का विषय है कि वही अध्यापक बच्चों के साथ कई बार गैर जिम्मेदाराना बर्ताव भी करता है। इससे पूरी अध्यापकीय परिवार शक के घेरे में आ जाती है।
पठन- पाठन से जुड़े होने के नाते शिक्षकों को तो शोध-अध्ययन के काफी करीब रहना चाहिए। ज्ञान और सूचना नित नए आयाम और शोधों से निखरते हैं। यदि एक शिक्षक शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले नवाचारों एवं रिसर्च से वाकिफ नहीं  होगा तो वह एक तरह से पिछड़ जाएगा। उसका पिछड़ना बच्चों के लिए हानिकारक है। सो अध्यापकों को कम से कम अपने विषय में होने वाले रिसर्च-खोजों, लेखन से तो अवगत होना ही चाहिए। क्यांेकि अध्यापन के नए नए तरीके और प्रविधियां तैयार हो रही हैं यदि उनका इस्तेमाल अध्यापन में करता है तो वह उसके लिए तो सहज और उत्पादक है ही साथ ही बच्चों में भी पढ़ने-लिखने की ललक पैदा कर सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि कई कार्यशालाओं में ऐसे अध्यापको से भी रू ब रू होने का मौका मिला है जो गैर शैक्षणिक कार्यों का हवाला दे कर अध्ययन के लिए समय की कमी का रोना रोते हैं। जबकि यदि आप पढ़ना चाहें तो समय निकाल सकते हैं। अध्ययन, शोधादि के सम्पर्क में जिन कर्मीयों के लिए आवश्यक है उनमें वकील, डाॅक्टर, टीचर, पत्रकार खासतौर से शामिल हैं। इन्हें अपने क्षेत्र में होने वाले अध्ययनों से हर वक्त ताजा और तत्पर होना चाहिए। यदि अध्यापक ही पढ़ने में रूचि नहीं लेगा तो वह बच्चों में पाठ्यपुस्तकेत्तर समाग्री पढ़ने की रूचि कैसे जगा पाएगा। इसलिए खुद तो अध्यापक पढ़े ही साथ ही बच्चों में भी पढ़ने की ललक पैदा करे।

Friday, November 22, 2013

भविष्य का द्वंद्व यूं ही खड़ा था


अभी तलक बच्चों का भविष्य और करिअर की दिशा अनिश्चिय का शिकार था। सवाल जवाब में बच्चों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। लेकिन सार्वजनिकतौर पर अपने मन की उलझन को साझा करने में हिचकिचाते बच्चों ने अपनी मन की गांठ बाहर घेर कर साझा किया। 
सवाल था शिक्षा हमें क्या देती है? नौकरी, घर, पैसे, आत्महत्या या बेहतर जीवन और क्या हमें बेहतर मनुष्य बनने में मदद करती है?
हलांकि बच्चों ने स्वीकारा कि शिक्षा हमें अच्छा मनुष्य बनाती है। लेकिन उनका अच्छा मनुष्य के पीछे का तर्क ज़रा चैकाने वाला था। उनका मानना था जो पैसे, नौकरी और एमएनसी की जाॅब दिलाती है। एकबारगी यह ताज्जुब की बात भी नहीं है क्योंकि जिस तरह का सामाजिकरण उनका हो रहा है ऐसे में इससे अधिक सार्थक जवाब की उम्मींद भी क्या की जा सकती है। 
अमुमन बच्चों के लिए जाॅब और अच्छी लाइफ से आशय खूब पैसा था। लेकिन वहीं दो-चार बच्चे ने कहा नहीं सर, हम एक अच्छा इंसान बनना चाहते हैं। हम दंगा-फसद नहीं करना चाहते। हमारे मां-बाप गरीब हैं उन्हें सुविधा और आराम देना चाहता हूं। इसके लिए नौकरी और पैसे दोनों ही जरूरी हैं।
इस संवाद से जो चिंताजनक बात निकल कर खड़ी है वह यह कि अभी भी बच्चों के दिमाग में यह साफ नहीं है कि वो क्या करना चाहते हैं? कैसे अपने लक्ष्य को हासिल करेंगे? और उनकी मदद कौन कर सकता है।
यदि बच्चे द्वंद्व से गुजर रहे हैं तो इसमंे अभिभावकों के साथ ही अध्यापक वर्ग भी शामिल है। क्योंकि जितनी जिम्मेदारी अभिभावकों की है उससे ज़रा भाी कम अध्यापकों की नहीं मानी जा सकती। आखिर उम्मींद की एक रोशनी अध्यापक की ओर से भी तो आती है। दिगभ्रमित बच्चों को देख और बात करके लगा कि उन्हें एक दो सत्र और काॅसिलिंग की आवश्यकता है ताकि वो स्पष्ट हो सकें कि वो क्या बनना चाहते हैं और उस योजना निर्माण में कौन उनकी मदद कर सकता है।

लोकतंत्र के चारों स्तम्भ हमाम में नग्न


जी लोकतंत्र के चारों स्तम्भ हमाम में नंगे हैं। चाहे न्याायिक तंत्र हो या विधायिका या फिर कार्यपालिका या फिर पत्रकारिता सब के सब स्त्री के साथ शोषण में लिप्त हैं। समाज जागरूक है उसे सारी ख़बरें मिलती रहती हैं। लेकिन जब पत्रकारिता खुद इसमें लिप्त हो तो यह भी कोई अचरज नहीं है। तरूण तेजपाल हों या कोई और मीडियाकर्मी यदि महिला कर्मीं के साथ दुव्र्यव्यहार करता है या शोषण शारीरिक तौर पर तो ज़रा चैकाता है।
तरूण तेजपाल वही हैं जिन्होंन कई स्टींग आॅपरेशन के जरिए कई राजनैतिक खुलासे किए बधाई लेकिन खुद जब महिला सहकर्मी के साथ शारीरिक शोषण के आरोप लगे तो महज संपादकत्व के धर्म से खुद को कुछ समय के लिए अलग कर लिया। क्या यही इसकी भरापाई है? सोचने कह बात है।
न केवल समाज के पत्रकार, राजनैतिक, शिक्षक तकरीबन हर वर्ग के वे लोग इस तरह के कुकृत्य में शामिल होते हैं तब समाज को सोचने की आवश्यकता है। जब लोकतंत्र के चारों स्तम्भ इस तरह से शक के घेरे में हों तो यह सिविल सोसायटी के लिए खासे चिंता का विषय है और विमर्श का भी।
समाज को आगे की राह तय करने, ले जाने और खबरों से अवगत कराने वालों के कंधों पर समाज बड़ी गंभीर जिम्मेदारी सौंपती हैं लेकिन जब खुद चेत्ता इस किस्म के हरक्कतों में
शामिल हों तो समाज की चिंता और भी बढ़ जाती है।
आज केवल पत्रकारिता बल्कि हर वर्ग इस तरह के कर्म में मुंह काला कर रहे हैं। ऐसे में समय में हमें खुद ही सचेत और चैकन्ना रहने की आवश्यकता है।

Tuesday, November 19, 2013

भविष्य और द्वंद्व


आज डी ए वी स्कूल दरियागंज में 11 वीं और 12 वीं के बच्चों से बात करने का मौका मिला। 
विषय था भविष्य और द्वंद्व। इस विषय पर 30 मिनट की बातचीत का आयोजन डी ए वी ने रखा था। इसमें मैं खासकर बच्चों से उनके करियर के चुनाव और चुनाव में मददगार साबित होने वाले घटकों पर बात करने गया था। क्योंकि यह उम्र और कक्षा भविष्य का निर्धारण करने वाला होता है। तकरीबन 150 बच्चों से संवाद करना यूं भी चुनौतिपूर्ण होता है लेकिन स्कूल के प्रधानाचार्य की व्यवस्था में यह बातचीत बेहद सार्थक और बच्चों के लिए लाभकरी हुआ। 
जब बात आई कि करियर, नौकरी, और बेहतर जिंदगी क्या जरूरी है? तब बच्चों ने खुद जवाब दिया बेहतर जिंदगी। इसमें आपकी मदद कौन कौन से लोग कर सकते हैं इस विषय पर भी बच्चों ने खुल कर हिस्सा लिया। 
बच्चों को समय रहते सही और समुचित मार्गदर्शन मिलना निहायत ही जरूरी है। और यह काम डी ए वी ने किया। उसने अपने बच्चों को इस क्षेत्र में मदद प्रदान करने के लिए कार्यशाला का आयोजन किया इसके लिए तिवारी जी बधाई योग्य हैं। 
कई बच्चों ने संवाद सत्र समाप्त होने के बाद संपर्क किया। उन्हें क्या करना चाहिए? आवश्यकता है बच्चो को समुचित मार्गदर्शन का। सामथ्र्य उनमें भी बस जरूरत है उन्हें निखारने का।

महानगरीय उक्ताहट


कई बार लगता है हम जैसे जैस आधुनिक, नागर समाज के हिस्सा होते जा रहे हैं वैसे वैसे हमसे कुछ अहम चीजें पीछे सरकती जा रही हैं। उस सरकन में सबसे ख़ास चीज यह है कि हमारे अंदर की संवेदना और संवाद की तरलता सूखती जा रही है। 
आज लंदन में रहने वाले मेरे एक मित्र का फोन आया। वह इतना परेशान था कि उसने कहा मैं यहां की जिंदगी जी जी कर अंदर से खाली और बेककार की चीजों से भर गया हूं। चाहता हूं कुछ दिन नगर से दूर एकदम बिना दिखावटी जीवन जी पाउं। 
ज़रा सोचें क्या संभव है कि आम अपने अंदर की सूखन को बचा पाने के लिए परेशान हैं? क्या हम चाहें तो अपनी तरलता को बचा सकते हैं? यदि हां तो फिर देर किस बात की हमें अपने अंदर के गंवईपन को बचाना होगा। अपने अंदर के इंसान को जगा कर रखना होगा। क्या आप सहमत हैं?
मां इस बेटे से उस बेटे के घर उस बेटे से उस बेटी के घर डोलती फिरती है। लेकिन उससे नहीं पूछा जाता कि वह कहां रहना चाहती हैं? जनाब स्थिति तो यह है कि बेटा मां को एयर पोर्ट पर बैठा कर बीवी के संग मकान बेच विदेश रवाना हो जाता है। मां बेघर। न घर पति का घर रहा और न बेटा साथ ले गया।
पेड़ होते थे ऊँचे -
घर से बोहोत ऊँचे,
झांको तो पेड़ लगते थे आशीष देते,
देखते ही देखते पेड़ होगे ठिगने,
पेड़ को ठेंगा दीखते खड़े हो गए मकान।।।
पेड़ से ऊँचे होने लगे बिल्डर फ्लोर-
२० या २५ माले से देखो तो कैसे लगते हैं पेड़ ,
बौने ठिगने,
पेड़ दादू हो गए बूढ़े ,
उनकी नीम शीतलता हो गई खत्म,
पीपल भी सूख गए.
कंक्रीटों के शहर में पेड़ कहाँ हों खड़े।

Thursday, November 14, 2013

आर-पार और ख़बरम् को छोड़ गए दीनानाथ मिश्र


‘14 सितंबर 1936-13 नवंबर 2013’
14 सितंबर 1936 में जन्में दीनानाथ मिश्र जी पत्रकार और संपादक के साथ ही बेहतरीन व्यंग्यों से पाठकों को दशकों तक झकझोरते रहे। उनका आर-पार काॅलम कटाक्षों से भरा होता था तो वहीं ख़बरम् राजनैतिक-सामिजक विश्लेष्णों से लबरेज हुआ करता था। पांच्जन्य में सहायक संपादक और अंतिम तीन वर्षों में प्रधान संपादक रहे। 
आपातकाल में जेल में भी रहे। उन्हीं दिनों अटल बिहारी वाजपेयी की कैदी कविराय की कुंडलियां, का संपादन किया। वहीं नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता और ब्यूरो प्रमुख भी रहे। आपातकाल में इन्होंने गुप्त क्रांति किताब लिखी वहीं आर एस एसः मिथ एंड रियलिटी किताब भी लिखी। 
शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, शंकर पुणतांबेकर जैसे व्यंग्य बाण भी खूब चलाए जिसको प्रभात प्रकाशन ने हर हर व्यंग्ये और घर की मुरगी नाम से किताब के रूप में लाया। 
पपा जी थे मेरे। बचपन से उन्हें इन्हें इसी नाम से पुकारा। सुबह कम से कम 15- 20 अखबार पढ़ते ही देखा। फिर काॅलम लिखवाने की बारी आती। कई कई बार देर रात तक पढ़ते-लिखते देखता आया हूं। एक बार उन्होंने कहा जब पूरी दिल्ली सो रही होती है तब मैं जगा काम कर रहा होता हूं।
उनकी आत्मा को प्रभू शांति दे।
जिन्होंने दैनिक जागरण के लिए इतने लिखे उस अखबार में एक सिंगल काॅलम की जगह भी नहीं मिली। क्या है पत्रकारिता ज़रा सोचें।

पिरितिया काहे के लगवलः भिखारी ठाकुर की याद आ गई


महेंद्र प्रजापति की यू ंतो यह पहली कहानी नहीं है। हां नया ज्ञानोदय अंक नवंबर 2013, के लिए बेशक पहली हो सकती है। लेकिन पढ़ कर अनुमान लगाना कठिन है कि यह कथाकार, संपादक की पहली कहानी है। प्रजापति वास्तव में कथाकार की भूमिका में अच्छे रचे-बसे लगते हैं। एक बार इस कहानी में पढ़ने बैठें तो वास्तव में बिहार अंचल की भाषायी छटा को आनंद तो मिलेगा ही साथ ही तीन चार दशक पहले बल्कि आज भी जो मजूर अपनी ब्याहता को घर-गांव में छोड़ रोटी रोजी के लिए कलकता, पंजाब, मुंबई जाते हैं, उन महिलाओं की अंतरवेदना, छटपटाहट की सिसकिया सुनाई देंगी।
कई बार भिखारी ठाकुर भी बगले ही बैठे मिलेंगे। परदेसिया नाटक जिन्होंने नहीं देखा उनके लिए यह कहानी वह रोशनदान है जिससे परदेसिया को देख सकते हैं। भोजपुरी बोली-बर्ताव को प्रजापति ने कुछ यूं घोला है कि कहानी में सरसता खुद ब ख्ुाद दुगुनी हो जाती है।
सच में एक पढ़नीय कहानी बन पड़ी है। भाषा-शैली तो आंचलिक है ही साथ ही कहानी की जमीन भी जानी पहचानी है लेकिन उसके साथ प्रजापति का तानाबाना बुनना एकदम सामयिक है।
साध्ुावाद और अगली कहानी का इंतजार पाठकों को रहेगा।
कौशलेंद्र प्रपन्न

Monday, November 11, 2013

प्लेटफाम नंबंर 1 से 16 पर पसरी दुनिया


प्लेटफाम पर पसरी दुनिया को देखकर लगता है कितने लोग विस्थापन से गुजरते हैं। उसमें भी दिल्ली के प्लेटफाम 1 और 16 दोनों की दूरियां सामाजिक हैसियत को भी बखूबी बयां करती हैं। चेहरे, सामाजिक दूरियां साफ देख सकते हैं। एक तरफ लगदक बैग, चमकते चेहरे जो राजधानी, दूरंतो आदि तेज गति वाली गाडि़यों में सफर करते हैं और एक वो वर्ग जो अभी भी लंबी दूरी तय करने वाली एक्सप्रेस गाड़ी में यात्रा करते हैं। वही टीस टप्पर, टीवी, कनस्तर लेकर सत्तू खाते, कोक की बोटल में पानी भर कर यात्रा करते हैं। 
सर्दी में भी शीतल जल पीते लोगों को देख कर लगता है कि अभी भी विस्थापन रूका नहीं है। जितनी भीड़ प्लेटफाम नंबंर 16,15 आदि पर होती हैं उतनी दूसरे प्लेटफॅाम पर नहीं। हर साल दिवाली, छठ के मौक पर लाखों लोग यूपी, बिहार की ओर भागते हैं। जो छूट जाते हैं वो दिल्ली में रह जाते हैं। विस्थापन क्लास में भी हुआ है। स्लिपर से थर्ड एसी, सेकेंड एसी मंे फलांग चुके हैं। और हवाई जहाज के यात्री में भी संख्या बढ़ी है। जेनरल बागी में सफर करने वालों में भी विस्थापन देखा जा सकता है। क्या ही अच्छा होता कि राज्य सरकारें उन्हें विस्थापन से बचा पातीं।

Thursday, November 7, 2013

जांता, ढेकी और जीमालय


याद है जब अपनी नानिहाल जाया करता था तब वहां जांता, ढेकी और कुआं से पानी खींचती महिलाएं दिखाई देती थीं। उनकी बदन पर चरबी का नामोनिशान नहीं होता था। वो किसी जीम में नहीं जाती थीं अपनी चर्बी गलाने। चावल, गेहंू घर में ही जांता, ढेकी में कूट-झान लिया करती थीं। पानी के लिए या तो हाथ वाला कल होता था या फिर सामूहिक कुआं हुआ करता था। पानी खींचो और स्वस्थ रहो। घरेलू कामों में मशीन से ज्यादा छोटी मोटी चीजें हाथ से ही निपाटाते थे। सब्जी में पड़ने वाले मशाले के लिए शील और लोढ़ा हुआ करता था।
एक दिन जीम में जाना हुआ यह देखने कि लोग भागते हैं। मेहनत करते हैं। ताकि शरीर पर चढ़ी चरबी को झारा जा सके। क्या देखा कि लोग टेडमिल पर भाग रहे हैं। पसीने से लथपथ। 5 किलो मीटर, 8 किलो मीटर बस भागे जा रहे हैं। मगर कहीं पहंुचते नहीं। बस भाग रहे हैं। कई बार लगता है आज की जिंदगी में हम कई बार बस भाग रहे होते हैं। मगर जाते कहीं नहीं। बस एक ही जगह पर दौड़ते रहते हैं। उसी तरह साइकिल चलाते लोग दिखे। कुएं से पानी खींचते दिखे। तकरीबन गांव की वो तमाम महिलाएं याद आईं जो हाथ से घर का काम निपटाया करती थीं। लगभग उसी कन्सेप्ट पर जीमालय में मशीनें मिलीं।
काश हम आज भी भागमभाग भरी जिंदगी में भी कुछ समय घर के कामों में हाथ बटाएं और मशीन पर कम आश्रित हों तो चर्बी तो यूं ही रफ्फू चक्कर हो जाएगी। साइकिल तो चलाना जैसे महानगर में पिछले जमाने की बात हो गई। बच्चे भी पास में भी जाना हो तो साइकिल की बजाए स्कूटी से जाना पसंद करते हैं। ऐसे में एक 13 14 साल का लड़का भी मिला जो दौड़ लगाते मिला। काश कि उसके मां-बाप उसे आउट डोर गेम खेलने को प्रेरित करते। साइकिल चलाने को कहते तो जीमालय की शरण में न जाना पड़ता।

Friday, November 1, 2013

स्थानांतरित लोग


सरकारी स्तर पर नहीं बल्कि वो उसकी मर्जी से इह लोग से उस लोक के लिए स्थानांतरित होते हैं। इसमें आपकी मर्जी का ख़्याल नहीं रखा जाता। न ही आपसे पूछा जाता है कि कब माईग्रेट होना चाहते हैं। आपकी सर्विस बुक भी उसी के पास है। वो आपके कर्र्मां का मूल्यांकन, परीक्षा और ग्रेडिंग करता है। जिस दिन जन्म लेते हैं उसी दिन आपकी सर्विस बुक में अवकाश प्राप्ति के दिन भी दर्ज कर दिए जाते हैं।
राजेंद्र जी गए, के पी सक्सेना जी गए जिन्होंने उसकी नजर में अवकाश हासिल किया। हम सभी को जाना ही है। यह अलग बात है कि हम किस तरह की सर्विस बुक लेकर उस लो जाते हैं।
साहित्य ही क्यों हर वो जगह हमारे जाने के बाद रिक्त तो होता ही है। लेकिन ठीक सर्विस की तरह आपके स्थान पर कोई और नियुक्त होता है। इस तरह से यह सिलसिला बतौर चलता रहता है।
जिस तरह आप सर्विस से विदा होते हैं उसी तरह आपके जाने के बाद आपकी आलमारी, दराज  आदि सब खाली कर साफ किया जाता है। आपकी चिंदींया, कतरनें, दवाइयां सब कुछ झाड़ पोंछ कर नए सिरे से सब कुछ सजाया जाता है।
तो बंधु जाने से पहले अपने दराज, आलमारी आदि को इस तरह साफ कर के जाएं कि जाने के बाद लोग यह न कहें क्या कबाड़ा किया उसने। ध्यान रहे कि आपकी याद तो आएगी लेकिन गलत कामों के लिए। कुछ दिन बाद ही सही आपका मूल्यांकन बचे हुए लोग करेंगे।

Wednesday, October 30, 2013

गरियाते क्यों नहीं भाई साहब


गरियाना क्यों छोड़ दिया,
जब मैंने कहा कहानी कविता उपन्यास का दौर खत्म हो गया,
मैंने ही छेड़े जब विवाद रंगों के,
रंगों की दुनिया और राजनीति की बात जब कही,
तब तो आपने खूब कोसा,
अब कोसना क्यों छोड़ दिया भाई साहब।
आपके गरियाने में आनंद था
जीवंतता थी,
अपनापा था और था रोज आपसे मुखातिब होना का सबब,
जब से गरियाना छोड़ दिया सूना सूना लगता है रोजनामचा।
गरियाइए कि मैं ही था जिसने आपको काहिल कहा-
मैं ही था जिसने सभा में,
मंच पर आप पर आरोप लगाए,
मगर आप थे कि गरियाना छोड़ दिया था,
गरियाइए भाई साहब।
क्या अब गरियाने का रिश्ता भी खत्म हो गया-
नहीं भाई साहब,
दोस्त न सही गरियाने का संबंध तो रहना ही चाहिए,
कम से कम एक दूसरे को याद तो किया करते थे,
गरियाइए कि मैंने ही भूगोल से उन्हें धकीया दिया,
भाषा की पगड़ंडी से मैंने ही उन्हें घिसुका दिया,
गरियाने का फर्ज तो बनता है भाई साहब।

लालित्य ललित की काव्य-भूमिः प्यार, भूख, नदी,लड़की और गांव का ख़त

लालित्य ललित के काव्य संसार
प्रिय लेखक लालित्य ललित के काव्य संसार में झांकने, ठहर कर देखने और आनंद लेने का मौका मिला। वास्तव में एक व्यंग्यकार जब कविता कर्म में रत होता है तब उसकी लेखनी में मूल स्वर व्यंग्य के तो होते ही हैं साथ ही उसमें काव्य-रस का भी प्रवाह होता है। यह एक व्यंग्यकार से कवि की भूमिका में अंगीकृत लालित्य ललित पर एक नजर आगामी वृहत्तर रूप में प्रकाशन घराने से छपने वाली पुस्तक व पत्रिका में भी पढ़ी जा सकेगी।

-कौशलेन्द्र प्रपन्न
‘गद्यः कविनाम निकषं वदंति’ बहुत प्रसिद्ध संस्कृत का सूत्र वाक्य है यानी कवियों के लिए गद्य एक निकष के समान होता है। दूसरे शब्दों में, गद्य की रचना काव्य से कहीं ज्यादा चुनौती भरा माना गया है। गद्य की साधना और फिर काव्य सृजन में प्रवृत्त होना दोनों ही प्रकारांतर से साहित्य की दो धारी तलवार पर चलने जैसा है। कई साहित्यकार पहले कवि कर्म में प्रवृत्त हुए फिर गद्य में उनका स्थानांतरण हुआ। काव्य रचना अपने आप में एक कठोर शब्द साधना से जरा भी कम नहीं है। लालित्य ललित वह नाम हैं जिन्होंने दोनों ही विधाओं में खुद को साधा और तपाया है। इसलिए इनका काव्य-संसार विविध आयामों के द्वार खोलते हैं। हिन्दी काव्य इतिहास पर नजर डालें तो छंद-बद्ध और छंद- मुक्त काव्य सृजन की लंबी परंपरा रही है। आगे चल कर काव्य में कई धाराएं एवं उपधाराएं देखी जा सकती हैं। बतौर लालित्य ललित ‘एक सच्ची कविता का राग-द्वेष से कोई नाता नहीं, चाहे किसी भी खेमे की कविता हो। किसी का लहू हो। आज वह लहू चाहिए जो वक्त पड़ने पर देश की रक्षा, मां की इज़्ज़त, बहन की लाज बचा सके। किन्तु जो चीज तमाम धाराओं में गुम्फित रही हैं वह है आम व्यक्ति, समाज, प्रकृति की छटपटाहटों को व्यक्त करना। यही निदर्शन हमें ललित की काव्य रचनाओं में प्रचूर मात्रा में मिलती हैं। मूलतः व्यंग्यकार ललित की रचनाओं में एक टीस, एक वेदना और साथ ही समाज की बजबजाती संवेदनाओं पर प्रहार करती इनकी कविताओं की प्राण वायु हैं। जब एक व्यंग्यकार कवि हृद होता है तब काव्य में एक अलग हुंकार सुनाई देती है। यही अनुगूंज ललित की कविताओं में प्रतिध्वनित होती हैं। व्यापक काव्य भूमि पर काव्य प्राचीर कर्मी ललित कभी लड़कियों के विविध रूपों, लावण्यताओं, प्रारूपों, आकर्षणों को अपनी कविता में जगह देते हैं वहीं परिवार-समाज की धूरी हमारे वृद्ध वृक्ष की उपेक्षा की ओर भी ध्यानाकृष्ट करते हैं। काव्य में प्रकृति तो है ही। उसकी बुनावट बाह्य और आंतर दोनों ही धरातलों पर देखी-सुनी जा सकती है।
आज के दौर में जहां रिश्तें महज सूत्रों में बनते बिगड़ते हैं। जहां हर रिश्ता कुछ न कुछ वजह और स्वार्थ से बुने जाते हैं ऐसे समय में कवि सावधान तो करता ही है साथ ही सुझाव भी देता है-‘जिन्हें तुम चाहते हो/ और सच्चे मन की मुराद/हमेशा पूरी होती है/अगर किसी को भी चाहो/ तो निष्कपट चाहो/पूरी शिद्दत से चाहो।’ यह चाहना महज किसी को प्रेम पत्र लिखने से कहीं ज्यादा मुश्किल है। लेकिन इसे भी ललित के यहां फलित देख सकते हैं। इंसान की ख़्वाहीशें बहुत होती हैं। वह बड़ा आदमी बनना चाहता है, लेकिन एक अदद पूर्ण इंसान बनने की इच्छा सांसारिक भाग-दौड़ में कहीं पीछे छूटती चली जाती हैं। उस ओर इंशारा देखिए-‘ छोटे-छोटे चक्करों में लगा है/छोटा आदमी/और बड़ा आदमी/बड़े-बड़े चक्करों मंे रमा है। इसी कविता की अन्य पंक्तियों के सहारे आगे बढ़ंें तो पाएंगे कि सुर्खियों में भी नहीं आता/केवल चंद पंक्तियां/अज्ञात युवती को/अज्ञात गाड़ी/सवार ने कुचला/मौके से गाड़ी चालक फरार। इन पंक्तियों को पढ़ते हुए महसूस करना कठिन नहीं कि जिस तरह की सहजता और सरलता वाक्यों में है उससे कहीं अधिक गंभीरता उसमें बज़्ब भावनाओं में हैं जिसे कवि प्रेषित करना चाहता है।
तकनीक पर सवार समाज के सामने सबसे बड़ी और कठिन चुनौती यह है कि वह अपनी संवेदना और सामाजिक प्रतिबद्धता किस प्रभावशाली माध्यम में करता है। जब पाठकों का संसार नित नए माध्यमों में ढलेगा तो ऐसे में साहित्कार की लेखनी भी कीपैड में तब्दील होगी ही। यदि ऐसा नहीं करता तो वह एक व्यापक जन-पाठकों तक पहुंचने से महरूम हो जाएगा। लेकिन ललित ने इस नए माध्यम को भी साधा है और कवि के सामाजिक दरकार को भी निभा रहा है। सोशल मीडिया के नए अवतार को नकारा नहीं जा सकता। जिसमें फेसबुक, ट्वीटर जैसे माध्यमों में अपनी बात रखना भी एक कला है। जिसे ललित रोज-दिन बखूबी निभाते हैं। फेस बुक पर रोज एक नई भाव-भूमि की कविता परोसना इन्हें खूब आता है। यहां भी इन्हें पाठकों कमी नहीं है। पाठक न केवल इनकी कविताएं पढ़ते हैं, बल्कि उसपर अपनी टिप्पणियां भी देते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग यह स्यापा करते हैं कि पाठक अब नहीं रहे। पाठकों की कमी हो गई है आदि यह यहां बेईमानी लगने लगता है। पाठकों को कम समय में ,कम भटके यदि उचित, सार्थक कविता व रचनाएं मिलें तो उसे जरूर पढ़ता है। इस दृष्टि से ललित की फेसबुकीए कविताओं का संसार भी सराहनीय है। काव्य संग्रह आने में महिनों और साल लगते हैं। यह किसी से छुपा नहीं है। तो क्या कवि की कविताओं से पाठक अज्ञात रहे। नहीं यह अज्ञातवास ललित रोज तोड़ते हैं और फेसबुक पर इनकी कविताओं को पढ़ा जा सकता है। ललित की इन दिनों की फेसबुकीए कविताएं एक खास अंदाज और रूख की ओर इशारा करती हैं। वह बुढ़ा, अस्पताल, लड़की,किसिम किसिम के लोग आदि ऐसी कविताएं हैं जिन्हें पढ़ते वक्त एक चलती फिरती कहानी, घटनाओं से रू ब रू होने जैसा है।
दीवार पर टंगी तस्वीर, गांव का खत शहर के नाम, इंतजार करता घर, यानी जीवन सीख लिया और तलाशते लोग लालित्य ललित की काव्य दुनिया में प्रवेश के द्वार हैं। जिसे काव्य-संग्रह भी कहा जाता है। इन काव्य-संग्रहों में वैविध्यता कई दृष्टिकोणों से है। कहीं खतूत हैं गांव के नाम तो कहीं दीवारों पर टंगे लोग हैं। जहां पत्राचार अब पुराने जमाने की बात सी लगती है। लेकिन कवि यहां भी खत लिखने-भेजने की आदत से बाज़ नहीं आता। आज भी कुछ लोग हैं जो तमाम तकनीक के आ जाने के बावजूद ख़त की महत्ता को भूल नहीं पाएं हैं। एक बानगी देखें खत की शक्ल में कविता-
उस दिन डाकिया
बारिश में
ले आया था तुम्हारे प्यारी चिट्ठी
                           उसमें गांव की सुगंध
                           मेरे और तुम्हारे हाथों की गर्माहट से
मेरे भीतर ज्वालामुखी फूट पड़ा था
सच! बहुत सारी बातें लिख छोड़ी थीं तुमने -
״समय से काम पर जाना
ठीक वक्त पर ख़ाना खाना
और सबसे जरूरी शहरी सांपिनों से दूर रहना
कितना ख़याल रखती हो मेरा
या कहूं कि अपना।
जमुना देवी
काली मंदिर के पास
चमारों की गली
गांव और पोस्ट आॅफिस-ढ़ूंढसा
जिला-अलीगढ़
उत्तर प्रदेश।

और इस कविता का अंत भी पत्राचार की शैली में अंत में पता के साथ होता है। ऐसे में ललित भी शामिल हैं। सच पूछें तो यह कवि का सहज उदगार आज की तारीख में ज्यादा मायने रखती है इसे कई संदर्भों में देखे-पढ़े जाने की आवश्यकता है। सड़क पर कूड़ा बिनते बच्चों की ओर किसका ध्यान जाता है। कौन इनकी भावनाओं को अपना मानता है? ऐसे दौर में ललित की कविता अनाथ गौरतलब है-
भोर होते ही
ठंड से सिकुड़
झोपड़ी से बाहर आ गया
चंदू।
चल पड़ा आजीविका की ओर
गली-गली
पड़े कूड़े के ढेर में
ढ़ूंढने लगा
पाॅलिथीन की थैलियों को
अधजली तीलियों को।
तमाम अच्छी कविताओं में कुछ ऐसी कविताएं भी मिलेंगी जो हमें अंदर झांकने, ठहर कर सोचने पर विवश करती हैं। ऐसी ही कविता 6 दिसम्बर 1992 और निगम बोध हैं। निगम बोध वास्तव में बोध कराता है कि अंततः हम कहां पहुंचने वाले हैं-
यहां का रास्ता
दुनिया का वास्ता
अकेला आया था
गया अकेला है
रोये-धोए कुछ दिन
दुनिया की रफ्तार
पकड़ न सकी समय को
निष्ठुर प्राणी
मौसम हावी
पूरक है इस समाज के।
कवि की व्यापक दृष्टि और विभिन्न भाव-भूमि की कविताएं उसे सर्वजनीन बनाती हैं। इधर की कविताओं में जिस तरह से सामाजिक दरकारों, हाशिए के लोगों को दरकिनार किया गया है यह दर्शाता है कि कवि अपने समष्टि-निष्ठा से पल्ला झाड़ रहा है। लेकिन इस निकष पर जब हम ललित की कविताओं का पड़ताल करते हैं तब एक सात्विक तोष होता है कि नहीं अभी भी कुछ कलमें हैं जो डक्यूमेंटेशन में लगी हुई हैं। ‘इंतजार करता घर’ अंठावन कविताओं का यह घर धौलाधार, हिमाचल की लड़कियों की दर्शन तो कराता ही है साथ ही कवि चिंता इससे कहीं आगे तक जाती है। इसकी बानगी देखी जा सकती है।
कितना अच्छा होता
यदि लोग गरीब न होते
औरतें शरीर न बेचतीं
बच्चों का बचपन संग होता
नलों में पानी रहता
सड़कों पर भय न होता
पुलिस भी ‘रक्षक‘ होती
मास्टर भी ‘गुरु‘ होते
कोई अनाथ महसूस न करता
गलियों में गर्भपात न होता।
देखने में यह कविता बेशक छोटी काया की है लेकिन इसकी चिंता इसकी काया से बाहर झांकती नजर आती है जो कहीं लंबी है। विमला कविता दो वजहों से खास बन पड़ी है जिसमें आज की शिक्षा व्यवस्था जिस तरह से कुछ ही इलाकों, शहरों, गांवों में पांव धर पाया है साथ ही गांव में किस कदर शहर की गंदी आदतें पहुंच चुकी हैं इस पर गांव की विमला कविता बेहतरीन है।
गांव में नही आती बिजली
नहीं मिलती शिक्षा
नहीं पहुंचते अध्यापक
नहीं पहुचती समय से पगार
पर समय से पहुंच जाती हैं
कच्ची शराब की थैलियां बेहिसाब
गुटखों की सौगात
तंबाकू के बोरे
पूरा गांव नशे में है
औरते़़ं ठगी-सी खड़ी हंै़
विमला व्यक्तिवाचक संज्ञा से बाहर निकल कर समूह चेतना बन चुकी है। जिसे ललित अपने किरदार से जरिए बातें पहुंचाने की कोशिश करते हैं। बाल मजदूरी और बाल शोषण आज पूरी दुनिया के लिए गहरे चिंता का विषय है। हजारों नहीं बल्कि लाखों बच्चे स्कूल, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि न मिलने की वजह से जलालत की जिंदगी बसर करने पर मजबूर हैं। सरकारें आती हैं और कई मनमोहक घोषणाओं की चिंगारी जला कर चली जाती हैं। लेकिन हमारे समाज का बच्चा जो काम पर लगा है वह काम पर ही जाता है। घर की आर्थिक स्थिति उसे पढ़ने-लिखने नहीं देती। क्योंकि बच्चे न तो वोट बैंक हैं और न नागरिक ऐसे में उनकी ंिचंता करता ही कौन है। यह अलग बात है कि 1989 में संयुक्त राष्ट अमेरिका में एक सम्मेलन हुआ जिसे यूएनसीआरसी 89 कहा जाता है जिसमें विश्व के तकरीबन 120 देशों ने दस्तखत किए थे कि अपने यहां बच्चों को शिक्षा, सुरक्षा, भोजन आदि देंगे। लेकिन हकीकत है कि अभी भी भारत में 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर हैं। 80 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं। ऐसे लाखों बच्चों के बचपन पर नजर डालती कविता ‘बाल मजदूर बने नवनिहाल’ को संजीदगी भरी अभिव्यक्ति ही कहना होगा।
 15 साल के दर्जनभर बच्चे
जिनके कपड़े फटे हुए हैं
अंगुलियों पर कई जगह पट्टी
बंँधी है
काम में लगे हैं
दे रहे हैं बर्तनों को
एक आकार
इस तरह की फैक्टरियां कई
कई इलाकों में कर रहे हैं काम
बचपन की उम्र
फैक्टरी में गर्द
जवानी के कोठे में
और बुढ़ापा आने से पहले ही
बिरजू, सूरज, कन्हैया ने
अपनी जि़न्दगी से
धो लिया बचपन
वे नहीें जानते
बचपन के गीत

इंटरनेट ने सच में हमारे आगे एक आाभासीय दुनिया रची है। जिसमें आज सब कुछ होता है। बल्कि कहना चाहिए किया जा सकता है। एक थका पिता दुल्हा देख सकता है, एक जवान बेटी अपने लिए पति तलाश सकती है, बेरोजगार नौकरी, कुछ मनमैले ‘चित्र’ लेकिन लिखे हुए शब्द को मिटा नहीं सकते। नेट के समानांतर एक और दुनिया जीती है इस ओर इशारा करती कविता ई- किताब हमारे सामने एक और दुनिया खोलती है-
भले ही इंटरनेट
कितना जादू चला ले
किताब का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा
छतों पर टंग जाए कितनी
डिश ऐंटीना
बनारस का घाट
अयोध्या के राम
इलाहाबाद का संगम
आगरा का ताज
लोग जाएंगे, आएंगे
गंगा में डुबकी लगाएंगे
गंगा की डुबकी
इंटरनेट पर थोड़े ही लगेगी।
लड़कियों को देखने, समझने और स्वीकारने के कई स्तर हो सकते हैं। बल्कि हमारे समाज में हैं भी। लड़कियों की दुनिया लड़कों की दुनिया से बिल्कुल भिन्न होती है। उनकी दिनचर्या भी अलग होती है। घर-परिवार के कामों में इतनी उलझी कि अपने लिए उनके पास समय नहीं होता। छोटे भाई को तो स्कूल छोड़ने जाती हैं लेकिन खुद स्कूल का मुंह नहीं देख पातीं। हमारे इसी समाज में लड़कियों के विभिन्न स्वरूप हैं। अलग-अलग चेहरे हैं जिसे ललित ने ‘यानी जीना सीख लिया’ में दर्ज किया है।
शीशे को खटखटाती
कटोरे को झुलाती
बारह-तेरह साल की लड़की
बदन पर फटी कमीज पहने
गुंजल बालों को फिराती
दांतों में बड़बड़ाती है-
बाबू जी! भूखी हूं
एक रुपया दे दो।
एक तरफ यह लड़की है तो दूसरी ओर सज धज कर बस में सवार लड़की व कामकाजी महिलाएं हैं जो पूरी ठसक के साथ अपनी जिंदगी अपने तई जी रही हैं। लड़कियों की विभिन्न छवियां देखनी हों तो यहां देखी जा सकती हैं।
सलवार-कमीज में लिपटी लड़की
जींस-टी शर्ट में कसी लड़की
गोरी लड़की काली लड़की
घुंघराले बालों के संग लड़की
मुस्कराती हुई लड़की
जानती है कि उसे मर्दों को
कैसे नचाना है
मर्द हैं कि....
अंगुलियांे पर नाचते है
प्यार एक ऐसा विषय पर व बिंदु पर जिस पर मजाल है किसी कवि, लेखक, कलाकार की लेखनी ना चली हो। अमूमन हर लेखक अपनी लेखनी से प्यार को परिभाषित करता आया है। ललित की कविताएं भी प्यार को छूती हैं। सहलाती हैं और एक साथ प्यार पर कई कडि़यों में  लिखा ले जाती हैं। एक नजर डालें
प्यार
छिपा हो कहीं भी
फूटकर बहेगा
अतःस्थल से
जिस तरह दीये से
रोशनी बहती है
और नहला देती है पूरे कमरे को
हां! उसी तरह
बिल्कुल वैसे ही
जिस तरह
बाजे से निकली मधुर ध्वनि
फैल जाती है दूर तक।
कई अलग अलग विषयों पर लिखी छोटी छोटी कविताओं को ललित ने विविध शीर्षक में पीरोया है। जिसमें गांव, नेता, विश्वास, तलाश, स्वागत, बच्चा, सोया नहीं आदमी आदि शीर्षकों में जल्दी में पढ़ी जाने वाली कविताओं को जगह दी है। जिसे एक सांस में एक ही समय में पढ़ी जा सकती हैं।
एक बानगी यह भी देखने योग्य है-
रोते बच्चों को मैं
चुप करा लेता हूं
बड़ों को मना लेता हूं
पर तुमको
मना न पाया
कहीें कोई कमी थी
सोचता हूं हैरान होता हूं।
और अंत में ललित यह निष्कर्ष निकालते हैं-
कोरे सपने में
जीना पसंद नहीं
लिखना सीख लिया
क ख ग घ।
पढ़ना सीख लिया
म से मेरा
ह से हिन्दुस्तान
यानी जीना सीख लिया।

एक कवि-कथाकार, लेखक से समाज एवं पाठकों को क्या अपेक्षाएं होती हैं? इस पर विमर्श करना और अपने लिए चुनौती स्वीकारना यह एक लेखक-कवि के लिए अहम होता है। पाठक एवं समाज की उम्मींदें इस वर्ग से यह होती हैं कि ये लोग अपनी लेखनी, शब्दों के माध्यम से कम से कम क्रांति न सही एक मुकम्मल राह जरूर दिखाएं। यूं तो विश्व में लिखे हुए साहित्य के बदौलत कं्रातियां भी हुईं हैं। समाज में बदलाव भी सफल हुए हैं। लेकिन इसके लिए जिस भाव-भूमि की दरकार होती है उसे भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। यदि कवि की कर्म भूमि व भाव-जगत में होने वाली हलचलों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि समाज में होने वाली सुगबुगाहटों के साथ ही थरथराती जनचेतना भी दस्तावेजित होती हैं। यह दस्तावेजीकरण हर कलमकर्मी करता है। उस लिहाज से देखें तो अपने समय की बेचैनी, क्रंदन और करवटों के साथ ही बदलते भाव-संवेगों को कवि बड़ी ही बारीकि से पकड़ता है। ललित की कविताओं का वितान व्यापक और विस्तृत है। इन्होंने समाज की चिंताओं को तो व्यक्त की हैं साथ ही शाश्वत सवाल जीवन क्या है? प्यार तेरे रूप क्या हैं? बुढ़ापा जिसने बुद्ध को बुद्ध बनाया, सवाल भी ललित को बेचैन करती हैं। अवकाश प्राप्ति के बाद की जिंदगी, अस्पताल की बैंच पर बैठा बीमार आदमी कैसे उम्र की ढलान पर लुढकता चला जाता है जिसकी वेदना भी कई कविताओं में रूप बदल कर ही सही किन्तु साफ सुनाई देती हैं।
झणिकाओं की रचना में भी ललित ने हाथ आजमाए हैं जो प्रीतिकर हैं। इस आंगन में विविधताएं हैं। किसिम किसिम के जीवन रंगों की छटाएं यहां देखी जा सकती हैं। जहां प्रेम कई रूपों, रंगों और भंगिमाओं में खूब फबा है। वहीं लड़कियां जो सड़क, बस, घर, गांव शहर हर जगह हैं उनकी अपनी ही जिंदगी है जिसे ललित ने अलग-अलग आयामों से देखने-समझने की कोशिश की है।  
हर कविता में एक कहानी जी रही होती है। हर कविता एक कथा कहती है। वैसे ही ललित की कविताएं भी अपने समय की कहानी कहती है। उस कहानी का दानव हमारे समाज का धत्ता बताता है। लेकिन कविता अपने तई इस दानव का प्रतिकार भी करती है। ऐसे प्रतिकार के स्वर ललित की कविताओं में सहज देखी-सुनी जा सकती हैं। प्रकृति की घटना कई बार ललित को झंकझोरती हैं। अंदर तक आलोढित करती प्रकृति विछोह की एक बानगी यह भी है-
कांटे को भी
दुख होता है
फूल के टूटने पर
पŸिायां रोती हैं
जड़े कंपकंपाती हैं।
इस कंपन की प्रतिध्वनि हमें मानवीय स्तर पर टूटन पर भी सुनाई देती है। जब व्यक्ति एकांत में स्वगत संवाद करता है। और निरा निपट अकेला महसूस करता है। तब कवि की लेखन और भी मुखर हो उठती है।
बोलते-बोलते
मैं चुप हो जाता हूं जब
लगता है धरा भी चुप हो गई
शान्ति का वास हो गया
मोटर-गाडि़यों का शोर
थम-सा गया
चहचहाट रुक गई
और मातम भी
भागीदार सा लगता है
कुहासे की किरण-सा
पतझड़ की ऋतु-सा
मन की मैल-सा
धुलकर कवच बनना।
दरअसल ललित हमारे बीच से ही संवाद के सूत्र भी ढंूढ़ लाते हैं ताकि बीच में अटकी बातचीत आगे बढ़ाई जा सके। इस उपक्रम में सड़क जैसी निर्जीव काया को भी मरहम मलने की वकालत करते ललित सड़क की पूरी काया को भी मानवत् आकार दे देते हैं। जिस तरह सड़कें कहीं नहीं जातीं। केवल उस पर चलने वाला पहुंचता है। कुछ बीच राह में ही ठहर जाते हैं या गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही काल-कवलित हो जाते हैं। इस पर सड़कों के प्रति संवेदनशीलता लाजवाब है-
 सच हमारी जि़न्दगी में
सड़कांे का कितना महत्व है
और आज आदमी भी
तब्दील होता जा रहा है सड़क में
हो गए हैं ज़ख्म
खून रिस रहा है
पर
क्या करें ?
सड़कों पर कोई नहीं लगाता
मरहम-पट्टी
कोई नही आता
दुख-सुख प्रकट करने
अरे! सड़क तो
एक बेटी है, मां है
जो हदों का पार कर
बनाती है जीवन भर नक और रास्ता।
सचपूछा जाए तो ललित जी की कविताओं का एक अपना व्याकरण और अपना ही मानचित्र है जिसमें विविधताएं जीवन पाती हैं। जहां तक भाषाई संरचना और वाक् वैशिष्ठ्यता की बात है तो सहज और कई जगहों पर आम फहम की भाषा वाकई ध्यानाकृष्ट करती हैं। अमूमन भाषा की दृष्टि से कहीं कोई बाधा नहीं हैं। किन्तु यदि कवि खुद को विषयों को लेकर अपने आप को समेटकर आगे बढ़ता तो पाठकों को राहत मिलती। विषय वैविध्यता की वजह से कई बार पाठक कवि की संवेदना के सागर में डूबने सा लगता है। लेकिन संतोष यह जरूर है कि तकनीक के टेरा बाइट के युग में भी रोज दिन फेसबुक पर कविता लिखना और पाठकों को बांधे रखना एक चुनौती है तो इस चुनौती को भी ललित ने सहर्ष स्वीकारा है।
कौशलेंद्र प्रपन्न

Tuesday, October 29, 2013

शब्दकार का जाना


राजेंद्र जी का जाना सचमुच शब्द-संसार में जीने वालों के लिए दुखद खबर है। यू ंतो कोई भी यहां शाश्वततौर पर रहने नहीं आया है। सभी को तो जाना ही है। लेकिन उस व्यक्ति का जाना ज्यादा यादगार हो जाता है जिसने समाज में समाज के लिए अपनी कलम से काफी कुछ किया हो। विवाद-वाद और संवाद के लिए प्रसिद्ध राजेंद्र जी को उनकी कलमकारी के लिए भी खद किया जाएगा। 
नई कहानी और कथाकार के तौर पर तो वो एक मजबूत स्तम्भ थे ही। इससे किसे गुरेज होगा। यह अलग बात है कि उन्होंने विवादों से भी उसी तरह साबका रखा। 
शब्दकार को कोटी कोटी नमन

तो


अगर सुबह टहल कर नहीं लौटा तो,
बाजार में ही गुम हो गया तो,
लिखते लिखते कलम रूक गई तो,
या फिर बोलते बोलते जबान खामोश हो जाए जो।
तो क्या कुछ नहीं-
कुछ लोगों के लिए एक घटना होगी,
कुछ के लिए चलो एक जगह खाली हुई,
कुछ के लिए जीने की शर्त,
जीने की वजह,
पर ज़रा सोचिए अचानक आपका नेटवर्क काम करना बंद कर दे तो?

Thursday, October 24, 2013

आॅल्मनैक यानी तिथि पत्री या पंचांग


कौशलेंद्र प्रपन्न
बारिश कब होगी, इस बार चंद्र या सूर्य ग्रहण कब लगेगा, दशहरा या दीवाली या ईद कब की है आदि सवाल तुम लोग जरूर पूछते होगे। इसका जवाब मम्मी या टीचर कैलेंडर देख कर बताते हैं। ज्योतिष के जानकार अपने पंचांग में देख कर बताते हैं कि फलां त्योहार किस दिन पड़ने वाला है। तुमने देखा होगा कि कई बार एक ही पर्व दो दिन पड़ जाते हंै। इसके पीछे क्या कारण है? कारण साफ है जो सूर्य और चंद्रमा के साथ अन्य ग्रहों की परिक्रमा को पढ़ते,समझते हैं वो बताते हैं कि सूर्य- चंद्र की स्थिति से ईद या अन्य पर्व के दिन बदलते हैं। ऐसी बातों, घटनाओं को तुम जिस पुस्तक व पत्र में देख सकते हो उसे ही आॅल्मनैक कहते हैं। इसे हिन्दी में पत्री, पंचांग व जन्त्री भी कहा जाता है।
पंडि़त जी के पास तुमने कभी इस तरह की पत्री-पंचांग देखी होगी। आकार में यह आम किताबों से अलग होती हैं। लंबे और बही खाते से मिलते हुए। इस पंचांग व आॅल्मनैक में चंद्र-सूर्य एवं ग्रहों की गतिविधि के साथ ही पूरे साल के त्योहार, किसानों के लिए भविष्यवाणियां आदि की जानकारी दी जाती हैं।
न केवल हमारे भारत में बल्कि इस तरह के पत्री व पंचांग बनाने का चलन ग्रीक एवं अन्य देशों में भी रहा है। इस तरह आॅल्मनैक में किसानों के लिए बुआई, कटाई बारिश आदि की महत्पूर्ण जानकारी दी जाती हैं। इसके अलावा ज्योतिष शास्त्र के जानकारों के लिए ग्रहों की गति-दशा और दिशा की जानकारी भी दी जाती है।
आॅल्मनैक यानी पंचांग हर साल बनाया जाता है। आॅलम्नैक में पूरे साल के महत्वपूर्ण पर्वों, सूर्य-चंद्र ग्रहण आदि की सटीक जानकारी दी जाती है। इस तरह के पंचांग में तुम अपने देश के महत्वपूर्ण पर्वों-त्योहारों की जानकारी हासिल कर ही सकते हो। हमारे पूर्वजों के पास जब कैलेंडर नहीं हुआ करता था तब वो इसी तरह के पंचांगों के जरीए आने वाले दिनों, महिनों एवं साल भर की जानकारियां पाया करते थे।

बलात्कारालय यानी बाबाश्रम


बचपन में संधि पढ़ाया गया था। जैसे विद्यालय विद्या$आलय, यानी जहां विद्या व ज्ञान का घर। वैसे ही आलय से आशय घर निकलता है। बलात्कारालय यानी बलात्कार का घर। जी चैंकने की कोई बात नहीं। क्योंकि पूरा देश आसाराम के बलात्कारालय से अब रू ब रू हो चुके हैं। वहां न केवल बलात्कार बल्कि अन्य किस्म के शोषण भी हुआ करते थे। आप को पता चल चुका है। हाल ही में ख़बर सोनीपत से आई है कि ओशो धारा आश्रम में भी यहां तथाकथित संत ने एक महिला के साथ बलात्कार किया। अब आप बताएं आश्रम, बाबालय नाम सुनते ही कैसी छवि आपके मन-मस्तिष्क में बनती है?
दरअसल बाबालय व बबंगों के लिए धर्म महज साधन है। साध्य नहीं। साध्य है राजनीति, संसद, धनार्जन और आम जन को बरगलाना। जो वो पूरी शिद्दत से करते हैं। एक बात तो स्पष्ट है कि किसी भी बाबा, कथावाचक को सुने लें वो एक अच्छे, कुशल वक्ता तो होते ही हैं। वक्तृत्व कला में पारंगत बबंगों के अपने स्वाध्याय होते हैं जो उन्हें आम जन की भावनाओं और आस्था को अपनी ओर बहाने में मददगार साबित  होती हैं। दर्शन, वेद, गीता, अन्य शास्त्रीय अध्ययन के साथ विज्ञान आदि की समझ विकसित करने के बाद व्याख्यान देने वाले बबंग सहज ही अपनी वाणी से औरों को लुभाने में सफल हो जाते हैं।
गौरतलब है कि प्रवचन देना और साधना करना दो अलग अलग चीजें हैं। जो साधना करते हैं वो वाचाल नहीं होते। जो वाचाल होते हैं वो साधक नहीं। बुल्लेशाह की पंक्ति उधार ले कर कहूं तो ‘जो बोले वो जानत नाहिं, जो जानत वो बोलत नाहिं।’

Wednesday, October 16, 2013

रोंदू प्रकाशक जी


रोंदू प्रकाशक से हर लेखक को रू ब रू होना पड़ता है। तकरीबन हर प्रकाशक केवल और केवल अपना मुनाफा देखता और पकड़ने की कोशिश करता है। यही वजह है कि कई बार लेखक-प्रकाशक के बीच तन जाती है। यह तनातनी कई बार कोर्ट रूम तक पहुंच जाती है। याद करें न केवल निर्मल वर्मा की पत्नी बल्कि कई अन्य लेखक-प्रकाशक के बीच वाक-युद्ध बल्कि आगे चल कर कोर्ट चक्कर तक बातचीत पहुंची है। र्वायल्टी देने के नाम पर प्रकाशक रोंदू मुद्रा में आ जाते हैं। क्या आपने लिखा? यह किताब तो बिकती ही नहीं। गोदाम में ही पड़ी है। ऐसा क्यों नहीं करते इन्हें अपने रिश्तेदारों, दोस्तों आदि में बांट दें। कम से कम हमारी आल्मारी तो खाली होगी। 
लेखक-प्रकाशक को रिश्ता भी अज़ीब है। जब पहली पहली बार लेखक पांडुलिपि लेकर जाता है या भेजता है तब के संवाद काबिलेगौर है- इन किताबों के पाठक कहां हैं? कौन पढ़ेगा इन्हें? बच्चे तो बच्चे बड़े भी कहां पढ़ते हैं आज कल? साहब लेखक लेखक को ही पढ़ता है। उसी पर टिप्पणियों का सिलसिला चल पड़ता है। मैं पाठकों के लिए छापता हूं। लेकिन अब कविता कहानी पढ़ने वाले हैं ही कहां?
आप पाठ्य पुस्तक क्यों ही लिखते? बी.ए चार साल का हो गया है किसी भी विषय पर लिख डालिए छाप दूंगा। ऐसी किताबों की खपत भी है। कविता, कहानी से बेहतर है किखी किताब का हिस्सा हो जाएं।
ऐसे सुझाव प्रकाशक तुरंत देते हैं। साथ ही एक नत्थी सुझाव देंगे कि छाप दूंगा आपकी किताब लेकिन आप क्या सहयोग करेंगे?
कगज का खर्च आप वहन कीजिए छपाई मेरी ओर से। यानी 100, 200 कापी आपकी और पैसे भी आपके। मंजूर हो तो काम आगे बढ़ाएं। हां हमारे आस-पास ऐसे लेखक हैं जो अपनी जेब से किताबें छपवाने पर मजबूर हैं।

मलाला रूक जाना नहीं


प्यारी मलाल,
शुभाशीष। तुम्हें अभी काफी आगे जाना है। जाना है वहां तक जहां शिक्षा बच्चों से दूर है। जहां आतंक का कहर है। जहां तुमने सहा वहां भी जाना है। तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है अभी तो पूरा आसमान तुम्हारा है। उड़ो जितनी ताकत हो पंख में। पूरी दुनिया तुम्हें चाहती है कि तुम आगे बढ़ों। 
तुमने कहा कि तुम बच्चों की शिक्षा के लिए बहुत कुछ करना चाहती हो। तुम उन यतीमांे के लिए करना चाहती हो जो किन्हीं वजहों से शिक्षा, परिवार से दूर हो गए। तुमने कहा कि पाकिस्तान के लिए कुछ करना चाहती हो। वहां प्रधानमंत्री बनना चाहती हो। बिल्कुल तुम्हारा यह सपना पूरा होगा। या खुदा मलाला की ख़्वाहिशे पूरी करना। 
मलाला एक बताना चाहता हूं कि अभी तुम्हारी उम्र छोटी है ज़रा ठहर कर अपने सपनों, विचारों और कल्पनाओं को देखो, समझो और फिर उसी हिसाब से योजनाएं बनाओं, रणनीतियां तैयार करो। तभी सपनों को पंख लग सकेंगे। वरना हम तो सपनों हजारों देखते हैं और वो अपनी मौत भी मर जाते हैं। अपने सपनों को जि़दा रखना है तो उन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए अहर्निशम् कर्म में जुटना होगा। 
आमीन

Friday, October 4, 2013

‘हूज हू ऑफ इंडिया’ पढ़ो

‘हूज हू ऑफ इंडिया’ पढ़ो
कौशलेंद्र प्रपन्न
First Published:02-10-13 11:49 AM
Last Updated:02-10-13 11:49 AM
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अभी तक हमने जिस तरह की किताबों के बारे में बात की है, वे सभी एक खास किस्म की किताबें थीं। मसलन डिक्शनरी, एनसाइक्लोपीडिया, ईयर बुक आदि। आज हम जिस किताब की बात करने जा रहे हैं, यह भी कम महत्व की नहीं है। ‘भारत के ये कौन हैं’, यानी ‘हूज हू ऑफ इंडिया’ नाम है इस किताब का। वैसे ‘हूज हू इंटरनेशनल’ भी होता है। लगभग सारे देश ‘हूज हू’ छापते हैं। यह किताब सामान्य से जरा हटकर है।
‘हूज हू ऑफ इंडिया’ किताब में तुम भारत के महत्वपूर्ण एवं चर्चित व्यक्तियों के बारे में पूरी जानकारी पढ़ सकते हो। इस किताब में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर दूसरे महत्वपूर्ण साहित्यकारों, नेताओं, अभिनेताओं, वैज्ञानिकों आदि की पूरी जीवनी सचित्र पढ़ सकते हो। इस किताब से तुम्हें यह पता चलेगा कि एक ही किताब में तमाम प्रमुख लोगों के बारे में जानकारी मिल सकती है।
इसलिए बेशक घर में न रखो, लेकिन लाइब्रेरी में इस किताब को देख-पढ़ सकते हो। स्कूल में कई बार तुम्हारी मैडम या सर ऐसे प्रोजेक्ट्स व असाइनमेंट्स देते हैं, जिसमें किसी राजनेता या प्रधानमंत्री के बारे में पूरी फाइल तैयार करनी होती है। ऐसे प्रोजेक्ट्स में ‘हूज हू ऑफ इंडिया’ किताब तुम्हारी मदद कर सकती है। इस किताब में भी लोगों को तुम डिक्शनरी की तरह की अल्फाबेटिकली या वर्णों के क्रम में देख सकते हो। इसका अर्थ यह हुआ कि इंग्लिश में ए, बी, सी से शुरू होने वाले लोगों के बारे में पहले पढ़ोगे। हिन्दी में वही अ, आ, इ, ई क, ख, ग आदि नामों के क्रम में पढ़ सकते हो।
इस किताब के बारे में रोचक बात यह है कि इस किताब को लाइब्रेरी व अन्य खास जगहों को छोड़ दो तो कहीं और नहीं देख सकते हो, क्योंकि इस किताब को पढ़ने वाले बहुत ही सीमित होते हैं। इसलिए इस किताब को छापने वाले भी प्रकाशक कम ही हैं। लेकिन तुम्हें एक बार इस किताब को जरूर पढ़ना चाहिए। हो सकता है यह स्कूल की लाइब्रेरी में ही मिल जाए तुम्हें।

स्कूलों में शौचालय बनाने की ओर ज़रा सोचें नमो


नमो नारायण जी ने फरमाया कि देवालय से ज्यादा शौचालय की आवश्यकता है। माननीय महोदय! स्ही कहा आपने काश आप इसे अपनी चुनावी घोषणा पत्र में भी शामिल कर लें।
नमो जी मालूम हो कि देश भर मंे ऐसी लड़कियों की संख्या लाखों में हैं जो महज स्कूल में शौचालय न होने की वजह से स्कूल नहीं जा पातीं। हाल में रिपोर्ट आई है कि अकेली दिल्ली में 50 फीसदी ऐसे सरकारी स्कूल हैं जहां शौचालय नहीं हैं। यह हाल तो दिल्ली का है जहां आप हाल ही में गरज कर गए हैं। यदि देश के अन्य राज्यांे की बात करें तो गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, बिहार आदि में तो और भी बत्तर स्थिति है। आरटीई लागू हुए तीन एक साल हो चुके लेकिन स्थितियां कोई खास नहीं बदली हैं। जिन बुनियादी ढांचों की सिफारिश आरटीई करती है उनमें शौचालय भी एक है।
कितना बेहतर हो कि आप दूसरी पार्टी की आलोचना करने में जितना समय खर्चते हैं उसका एक अंश भी स्कूलों में शौचालय बनाने की ओर दें तो निश्चित मानें लड़कियां स्कूल जाने लगंेगीं।

Thursday, September 26, 2013

तलाक विकास का राह

तलाक विकास का राह
क्या यह सच है? समाज में ऐसी कई महिलाएं मिलेंगे जिनकी जिंदगी में विकास के नए आयाम खुले ही तलाक के बाद। उनके लिए तो तलाक वरदान से कम नहीं था। कोई प्रसिद्ध फोटोग्राफर बना तो कई जज कोई प्रोफेसर। कई की जिंदगी तलाक के बाद सुधर गई।
ल्ेकिन यह कहना सरलीकरण होगा कि सभी महिलाओं जो विकास और जीवन में कुछ बनना चाहती हैं, उन्हें तलाक ले लेना चाहिए। आस-पास नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि ऐसी महिलाएं हैं जो पति के साथ खुश नहीं थीं। जिंदगी नरक सी थी। लेकिन जैसे ही अलग हुईं उनके जीवन में विकास और आगे बढ़ने के रास्ते साफ होते चले गए।
यह सवाल उन महिलाओं से भी पूछा जाना चाहिए जो पति के साथ हैं। लेकिन किन्हीं कारणों से जीवन में आगे व पति के समकक्ष नहीं आ पाईं वो तलाक चाहती हैं? यह एक शोध का विषय है। लेकिन इतना तो साफ है कि यदि पति कुछ पत्नियों के जीवन में बाधा बने तो कुछ महिलाओं के विकास में पतियों ने अपनी सारी उर्जा झोंक दी।
तलाक के बाद की जिंदगी सामाजिक और आन्तरिक कैसी होती है यह वह महिला ही बेहतर बता सकती है। लेकिन यदि तलाक के वह महिला सजती संवरती और पहले से बेहतर दिखने के लिए जीम आदि जाती है तो लोग सीधे कटाक्ष ही करते हैं। किन्तु इसका एक पहलू यह भी ह ैअब वह महिला एक बार फिर से जीने की कोशिश कर रही है। उसे सकारात्मक नजरीए से देखने की जरूरत है।

Tuesday, September 24, 2013

शहर के नामी चौराहों पर पिज़्ज़ा और इंग्लिश लैटर के बर्गर

कुछ बरस पहले मेरे शहर में इक जनांदोलन हुवा। युवा जन जो मांग कर रहे थे की हमारा शहर भी कुछ कम नहीं। ५ सिनेमा हाल है. कॉलेज स्कूल हैं , कोर्ट है , क्या नहीं है इस शहर में , फिर हमने क्या बुरा किया की हम ख़ास पिज़्ज़ा शॉप , ख़ास इंग्लिश लैटर की दुकान में बर्गर नहीं खा सकते।।।
बात मौजू थी. शहर के नेता , डीएम सब के सब परेशां।  क्या करें।  रोड जाम , सड़क पर युवा वर्ग क्रोधित घूम रही है इन्हें शांत करना पड़ेगा। 
सो साहिब इक दिन देखें इक माह के भीतर पुरे शहर के नामी चौराहों पर पिज़्ज़ा और इंग्लिश लैटर के बर्गर की ठंढी हवा वाली दुकान खुल गई. 
आज मेरा शहर ही नहीं बल्कि देश के दूर दराज कस्बाई इलाकों में भी इन दुकानों को देखा जा सकता है।     

Sunday, September 22, 2013

वो बेचारी हमेशा रहती घर से बाहर,
धुप पानी ,
सर्दी गर्मी ,
हर मौसम में सदा बिना उफ़ किये। 
उसकी कहाँ किस्मत की रहे गैराज में 
हाँ कुछ को मिल जाती हैं गैराज ,
लेकिन कई हैं कारें जो हमेश रहती हैं ,
घर के बाहर ,
इंतज़ार में की साहेब,
हमें भी नहला दो ,
की जैसे नहाते हैं बच्चे ,
बेचारी कार ,
नहीं आ पाती घर में,
की जैसे नहीं आती घर में धुप ,
रौशनी ,
 कई कारो के भाग्य में नहीं होता नहाना ,
घर.

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...